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________________ स 6333 431. वृहज्जैनवाणीसंग्रह 53www. wwwww.. त्व० ॥१०॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं मांगल्यं परिकीर्तितं । चतु विंशतितीर्थानां सुप्रभातं दिने दिने ॥ ११ ॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं श्रेयः प्रत्यभिनंदितं । देवता ऋषयः सिद्धाः सुप्रभातं दिने दिने || १२ || सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तित तीर्थ भव्यसच्वसुखावहं ॥ १३ ॥ सुप्रभातं जिनेंद्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषां । अज्ञानतिमिरांधानां नित्यमस्तमितोरविः || १४ || सुप्रभातं जिनेंद्रस्य वीरः कमललोचनः ॥ येन कर्माटवी दग्धा शुक्लध्यानोग्रवह्निना ॥ १५ ॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं सुकल्याण सुमंगलं । त्रैलोक्य हितकर्तॄणां जिनानामेव शासनं ॥ १६ ॥ इति ॥ ७- आलोचना पाठ । यह आलोचनापाठ सामायिक कालमें प्रथमकर्म प्रतिक्रमण कर्म है उस कर्मके आदि वा अन्तमें बोलना चाहिए । दोहा-बंदो पांचों परम गुरु, चौबीसों जिनराज । करूं शुद्ध आलोचना, शुद्धि करनके काज ॥१॥ सखी छंद चौदह मात्रा । सुनिये जिन अरज हमारी। हम दोष किये अति भारी ॥ तिनकी अब निर्वृत्तिकाज | तुम सरन लही जिनराज ॥२॥ इक वे ते चउ इंद्री वा । मनरहित सहित जे जीवा || तिनकी नहिं करुणा धारी । निरदड़ है घात विचारी | ३ || समरंभ समारंभ आरंभ | मनवचतन कीने प्रारंभ ॥ कृत कारित 4
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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