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________________ VAAAAAw १२५८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * समूह ! अन अवतर अवतर संवौषट् । आ ही श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विप वाशजिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ ठः ठः । ओं ही श्री • नन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशजिनालयस्था नप्रतिमासमूह ! अन मम । सनिहितो भव भव वषट् । _ कंचनमणिमय भृगार, तीरथनीरभरा, तिहुं धार दयी निरवार जामन मरन जरा। नंदीश्वरश्रीजिनधाम, वावन, . पुंज करों । वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभावधरों ॥ * ओ ही श्रीनन्दीश्वरदीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो जन्मजरामृतविनाशनाय जलं निर्बपामोतिस्वाहा । भवतपहर शीतल वाच, सो चन्दन नाही, प्रभु यह गुन कीजे सांच, आयौ तुम ठांहीं ॥नंदीलाचंदनं ।। उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहैं, । सब जीतै अक्षसमाज, तुम सम अरुको है।नंदीगाअक्षतान्।। • तुम कामविनाशकदेव, ध्याऊं फूलनसौं। ' लहि शील लच्छमी एव, छूएं सूलनसौ ॥ नंदी०॥ पुष्पं ॥ नेवज इंद्रियबलकार, सो तुमने चूरा। चरु तुम ढिंग सोहै सार, अचरज है पूरा ।। नंदी० ॥नैवेद्य । दीपककी ज्योति प्रकाश, तुम तनमाहिं लसै। टूटै करमनकी राशि, ज्ञानकणी दरसे ।। नंदी०॥ दीपं ॥ । कृष्णागरुधूपसुवास, दशदिशिनारि वरै। * अति हरषभाव परकाश, मानों नृत्य करै ।। नंदी० ॥ धूपं ।। बहुविधफल ले तिहुंकाल, आनँद राचत हैं। तुम शिवफल देहु दयाल, तो हम जाचत हैं ।।नंदी०॥फलं ** - - -*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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