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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह २५६ यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हों। . * 'धानत' कीनों शिवखेत, भूमि समरपतु हो ।नंदी०॥अर्घ्य ! अथ जयमाला। दोहा-कातिक फागुन साढके, अंत आठ दिनमाहिं । नंदीसुर सुर जात हैं, हम पूजै इह ठाहिं ॥१॥ *. एकसौ त्रेसठ कोडि जोजनमहा । लाख चौरासि एक एक दिशमें लहा ।। अहमें द्वीप नंदीश्वरं भास्वरं। मौन बावन्न । प्रतिमा नमों सुखकरं ॥२॥ चारदिशि चार अंजनगिरी राज ही। सहस चौरासिया एकदिश छाजहीं। ढोलसम गोल। 1. ऊपर तले सुंदरं । भौन ॥३॥ एक इक चार दिशि चार शुभ र बावरी । एक इक लाख जोजन अमल जलभरी। चहुँदिशा चार वन लाख जोजन बरं । भौन० ॥४॥ सोल वापीनमधि सोल गिरि दधिमुखं । सहस दश महा जोजन लखत ही * सुखं । बावरीकोंन दोमांहिं दो रतिकरं । भौन० ॥५॥ शैल * बत्तीस इक सहस जोजन कहे । चार सोलै मिले सर्व बावन लहे ॥ एक इक सीसपर एक जिनमंदिरं । भौन० ॥६॥ बिंब आठ एकसौ रतनमइ सोहही, देवदेवी सरव नयनमन मोहही । पांचसै धनुष तन अमआसन परं । भौन० ॥७॥ लाल नख मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं, स्यामरंग भोंह सिरकेश । छवि देत हैं । वचन बोलत मनो हँसत कालुषहरं । भौन कोटि शशि भानदुति तेज छिप जात है, महावैराग परिणाम ठहरात वियन नहिं कह लखि होत सम्यकधरं मौन०॥९॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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