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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwwwwww सबतै जोरावर, अन्तराय अरि, सुफल विघ्नकरि डारत हैं । फलपुंज विविध भर, नयन मनोहर, श्रीजिनवरपद धारत हैं || प्रभु० || फलं ॥८॥ आठों दुखदानी, आठनिशानी, तुम ढिंग आनि निवारन हो । दीनन निस्तारन, अधम उधारन, 'द्यानत' तारन, कारन हो | प्रभु० ॥ अर्ध ॥९॥ २१६ जयमाला । दोहा - गुण अनन्तको कहि सकै, छियालीस जिनराय । प्रगट सुगुन गिनती कहूं, तुम ही होहु सहाय ॥ १ ॥ चौपाई - एक ज्ञान केवल जिनस्वामी । - दो आगम अध्यातम नामी || तीन काल विधि परगट जानी । चार अनंत चतुष्टय ज्ञानी ||२|| पंच परावर्तन परकासी । छहों दरबगुनपरजयभासी || सातभंगवानी परकाशक । आठों कर्म महारिपुनाशक || ३ || नवतत्त्वन के भाखनहारे । दशलक्षनसों भविजनतारे || ग्यारह प्रतिमाके उपदेशी । बारह सभा सुखी अकलेशी ॥ ४ ॥ तेरहविध चारितके दाता । चौदह मारगनाके ज्ञाता । पन्द्रह भेद प्रमाद निवारी । सोलह भावन फल अधिकारी || ५ || तारे सत्रह अंक भरत भुव । ठारै थान दान दाता तुव ॥ भाव उनीस जु कहे प्रथम गुन । वीस अंक गणधरजी की धुन ॥६॥ इइस सर्वघातविधि जानै । वाइस बंध नवम गुणथांने ॥ तेइस विधि अरु रतन नरेश्वर । सो पूजै चौबीस जिनेश्वर ॥ ७ ॥ नाश
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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