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________________ ४५६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह तास || अश्वमास तिथि दिनआराध पहिली पड़वा कियो सराध | बहुत विनय सों नगरी तने । न्योंत जिमाये ब्राह्मण घने ॥ दान मान सहीको दियो । आप विप्र भोजन नहि कियो। इतने राय पठायो दास । मोहित गयो रायके पास । राज काज कछु ऐसे भयो । करम करावत सब दिन गयो ॥ घरमें रात रसोई करी । चुल्हे ऊपर हांड़ी धरी ॥ हींग लेन उठि बाहर गई। यहां विधाता और हि ठई || मैंढक उछल परो तामाँहि । त्रिया तहां कछु जानो नाहिं | वैगन छौंक दिये तत्काल | मैंढक मरो होय बेहाल || तबहुं विप्र नहिं आयो धाम | धरी उठाय रसोई ताम । पराधीनकी ऐसी बात | औसर पायो आधी रात || सोय रहे सब घरके लोग । आग न दीवा कर्म संयोग | भूखो प्रोहित निकसे प्रान ॥ ततछिन बैठो रोटी खान || बैंगन भोलै लीनो ग्रास । मेंढक मुँहमें आयो तास || दांतन तले चव्यौ नहि जबै । काढ़ घरो थालीमें तबै ॥ प्रात हुए मैंढक पहिचान । तौ भी विप्र न करी गिलान || थिति पूरी कर छोड़ी काय । पशुकी योनी उपजो जाय ॥ सोरठा - घुघू कार्ग बिलाव, सावरें गिरध पखेरुआ । सूकरें अजगर भाव, वा गोहे जल में मगैर दश भव इहविधि थाय, दशों जन्म नरकहि गयो । दुर्गति कारण पाय फल्यौ पाप वटवीजवत् ॥ 1 दोहा - निशि भोजन करिये नहीं, प्रगट दोष अविलोय । परभव सब सुख संपजे, यह भव रोग न होय ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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