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________________ wwwwwwwwwwwwww. 1www.i.vauoo --- oooooo वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३३५ नं० ८ पद्मप्रभमोहनकूट । अडिल्ल । मोहन कूट महान परम सुंदर कह्यो। पनाम जिनराज जहां शिवपुर लह्यो । कोटि निन्यावन लाख सतासी जानिये । सहस तियालिस और मुनीश्वर मानिये ॥ सप्त * सैंकरा सत्तर ऊपर वीस जू । मोक्ष गए मुनि तिन्हें नमूं नित। शीसजू ।। कहै जवाहरलाल दोयकर जोरिकै । अविनाशी पद दे प्रभु कर्मन तोरिकै ॥६॥ । ओं ह्रीं श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रमोहनकूटते पदूमप्रभजिनेन्द्रादिमुनि । निन्यानबे कोडि सतासीलाख तैतालिसहजार सातसौ नब्बे सिद्धपदप्राभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ नं० २२ सुपार्श्वनाथ प्रभासकूट । सोरठा । * कूट प्रभास महान, सुंदर जनमन-मोहनो । श्रीसुपार्श्व। भगवान, मुक्ति गये अघ नाशिक ॥ कोडाकोडि उनचास, कोडि चुरासी जानिये । लाख वहत्तर खास, सात सेहस हैं * सात सौ ॥ और कहे व्यालीस, जहः मुनि मुक्ती गए । * तिनहिं नमै नित शीश, दासजवाहर जोरकर ॥ ओं ही श्रीसम्मेदशिखरशिवक्षेत्रप्रभासकूटते श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्रादि मुनि उनचास कोडाकोडी चौरासीकोडि बहत्तरलाख सात हजार सातसौ * बियालिस सिद्धपदप्राप्तभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्बपामीति स्वाहा ॥७ नं०६ चंद्रप्रभ ललितकूट। दोहा-पावन परम उतंग है, ललितकूट है नाम । चंद्रप्रभ * शिवकों गये, बंदौं आठों जाम ।। कोडाकोडी जानिये, चौ रासी ऋषिमान । कोडि बहत्तर अरुकहे, अस्सीलाख प्रमान । सहस चुरासी पंचशत, पचपन कहे गुनिंद । वसुकरमनको ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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