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________________ * --6-5925 A R + RA* ' वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४६ * घरके पाय । सब दरिद्र दुख वेग मिटाय । तब कुम्भश्री। कियो उपगार। दुर्गन्धाको गयो विकार ॥ सोमिल्या । रु अर्जिका भई । तप करि प्रथम स्वर्गमें गई ॥ कुम्भश्री। फिर यह व्रत करयो। दूजे स्वर्ग देव अवतरयो ॥२३॥ परम्परा वह जे हैं मुक्ति। भविंजन करौ सवे व्रत युक्ति ॥ सत्रहपर अठावन जान ।'पण्डितजन सम्बत्सर मान ॥२४॥ * जेष्ठशुक्ल गुरुएकादसी । नगरगहेली शुभ मति वसी ॥ जो यह कर भव्य व्रत कोय । सो नर नारि अमरपति होय। ॥२५॥ रोग सोग दुखसंकट जाय । ताकी जिनवर करी। सहाय । जो नर नारि इक चित्त करै । मन वांछित सुख । संपति वरै ॥२६॥ इति २४१-सुगंधदशमीव्रतकथा। ___चौपाई-बर्द्धमान वंदों जिनराय। गुरु गौतम वंदों । सुखदाय ॥ सुगंधदशमीव्रतकी कथा । वर्द्धमानी सुप्रकाशी * यथा ॥१॥ मगधदेश राजगृहि नामः। श्रेणिक राज करै । अभिराम । नाम चेलना गृह पटरानि । चंद्ररोहिणीरूपसमान ॥२॥नृप बैठयो सिंहासन परे। वनमाली फल लायो । हरे॥ कर प्रणाम बच नृपत्तै कह्यो । प्रमोदचित्तसे ठाडो रह्यो ॥२॥ वर्द्धमान आये जिनस्वामि । जिन जीत्यो उद्धत अरि काम ।। इतनी सुनत नृपति उठ चला । पुरजनयुत दलबलसे भला ॥४॥ समोसरण चंदे भगवान । पूजा भक्ति । धार बहुमान ॥ नरकोठा बैठयो नृप जाय । हाथ जोड़। * AKHSHR
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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