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________________ * RAM - 05- R R -* ४६४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह पूछयो शिरनाय ।।५।। सुगंधदशमीव्रत फल भाख । ता नरकी कहिये अब साख ॥ गणधर कह सुनो मगधेश | जंबुद्वीप, विजया प्रदेश ॥६॥ शिवमंदिरपुर उत्तरश्रेणि।। विद्याधर प्रीतंकर जैनि ॥कमलावती नारि अति रूप । सुर-। कन्यासे अधिक अनूप ।। आगरदत्त वसे तहां साह । जाके । जिनव्रतमें उत्साह ॥ धनदत्ता वनिता गृह कही। मनोरमा । । ता पुत्री सही ।।८।। मुनि सुगुप्त गृहपर आइयो । देख मुनीं। द्र दुःख पाइयो॥ कन्या मुनिकी निंदा करी । कुछ मनमें । शंका नहिं धरी ॥९॥ नग्नगात दुर्गध शरीर । प्रगटपनै । * देही नहि चीर ॥ मुख तांबूल हतो मुनि अंग । नाख्यो सुखको कीनो भंग ॥१०॥ भोजन अंतराय जब भयो। । मुनि उठ जाय ध्यान वन दियो ।समताभाव धरै उरमांहि।। किंचित खेद चित्तमें नाहि ॥११॥ बीती अवधि समय कछु । गयो। मनोरमाको काल सु भयो॥ भई गधी पुनि कुकरी। * ग्राम । अपर ग्राम भइ सूकरि नाम ॥१२॥ मगध सुदेश तिलकपुर जान । विजयसेन तहका नृप मान ॥ चित्ररेखा ता रानी कही । तस पुत्री दुर्गधा भई ॥१३॥ एक समय गुरु वंदन गयो । पूजा कर विमतीको ठयो ॥ मो पुत्री दुर्गध । शरीर । कहो भवांतर गुणगभीर ॥१४॥ राजा वचन सुनी श्वर सुने । मुनि विरतांत रायसे भने । सब विरतांत हालं। जो जान । मुनि राजासे को बखान ॥१५॥ सुन दुगंधा 1 जोडे हाथ । मोपर कृपा करो मुनिनाथ ॥ ऐसा व्रत उपदेशो । * RKHA* - -
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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