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________________ . ..... . *** * * * * * बृहज्जैनवाणीसंग्रह जिनधर्म परमपदसौ हित जोरै ॥ धन्य धन्य जिनधर्म भर्मको मूल मिटावै । धन्य धन्य जिनधर्म शर्मकी राह बतावै ॥ जग धन्य धन्य जिनधर्म यह, सो परगट । तुमने किया। भविखेत पापतपतपतको, मेघरूप है सुख। * दिया ॥३॥ * तेजसरसम कहूं,तपत दुखदायक मानी । कांति चंदसम कहूं कलंकित मूरति मानी । वारिधिसम गुण कहूं, खारमें कौन मलप्पन ॥ पारससम जस कहूं, आपसम करै न परतन ॥ इन आदि पदारथ लोकमें, तुमसमान क्यों * दीजिये। तुम महाराज अनुपमदसा, मोहि अनूपम कीजिये ॥४॥ तब विलंब नहिं कियो, चीर द्रोपदिको बाढ्यो। तब विलंब नहिं कियो, सेठ सिंहासन चाढ्यो । तब विलंब नहिं कियो, सीय पावकतै टारयो । तब विलंब नहिं कियो, नीर मातंग उवारयो । इहिविधि अनेकदुख * भगतके, चूर दूर किय सुख अवनि । प्रभु मोहि दुःख नासनिविषै, अब विलंब कारण कवन ॥५॥ कियो भौनतै गौन, मिटी आरति संसारी । राह आन तुम ध्यान, फिकर भाजी दुखकारी। देखे श्रीजिनराज, पाप मिथ्यात विलायो । पूजा श्रुति बहुभगति, करत सम्यकगुन । * आयो । इस मारवाडसंसारमें कल्पवृक्ष तुम दरश है । प्रभु मोहि देहु भौ भौ विषै, यह वांछा मन सरस है ॥६॥ जैजै श्रीजिनदेव, सेवतुमरी अपनाशक । जै जै श्रीजिन**-- -- - -
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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