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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह 53333 ५०६ 33333ool 473 vvv 345 3 wwww जिनबैन० ||१|| जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर तुष-रूप-मैल-पगी। स्यादवाद-धुनि-निर्मल जलतै, विमल भई समभाव लगी || जिनचैन ||२|| संशय- मोह - भरमत विघटी, प्रगटी आतमसौज सगी । दौल अपूरब मंगल पायो, शिवसुख लेन होंस उमगी ॥ जिनवैन ० ॥३॥ ( ३०५ ) जय जय जग - भरमतिमर-हरन जिनधुनी ॥ जय जय० ॥ टेक ॥ या विन समुझे अजौं न सौंज-निज-सुनी। यह लखि हम निजपर अविवेकता लुनी ||२|| जय जय० ॥ १ ॥ जाको गनराज अंग, - पूर्वमय चुनी | सोई कही है कुंदकुंद, प्रमुख बहुमुनी || जय जय० ॥|२|| जे चर जड भए पीय, मोह वारुनी । तचपाय चेते जिन, थिर सुचित सुनी || जय जय० ॥३॥ कर्ममल पखारनेहि, विमल सुरधुनी । तजि विलंब अब करो, दोल उरपुनी ॥ जय जय० ॥ ४ ॥ (३८७ ) वे प्रानी सुज्ञानी जिन जानी जिनवानी ३०६ - राग - मल्हार | मेघघटासम श्रीजिनवानी | मेघघटा० ॥ टेक ॥ स्यात्पद चपला चमकत जामै, बरसत ज्ञान सुपानी । मेघघटा० ॥ १ ॥ धर्मसस्य जातैं बहु वाढे, शिवआनंद फलदानी ॥ मेघघटा मोहनधूल दवी सव यातै, क्रोधानल सु बुझानी । मेघघ‍ ||३|| भागचंद बुधजन के कीकुल, लखि हरखे चितज्ञानी । ॥मेघवा ॥४॥ • ॥ टेक ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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