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________________ nhà ५४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह के दानी । आनंद कंद बूंदको हो मुक्तके दानी ॥ मोहि । । दीन जान दीनबंधु पातक भानी । संसार विषम सार तार । * अंतरज्ञानी । हो० ॥२५|| करुणानिधानं बानको अब क्यों । न निहारो । दानी अनंत दानके दाता हो सँभारो।। वृषचंद । नंद वृन्दका उपसर्ग निवारो। संसार विषम खारसे प्रभु पार उतारौ । हो० ॥२६॥ ४०-श्रीपतिस्तुतिः दुमिला तथा द्वितोटक। जस गावत शारद शेष खरो, अपवंत उधारनको तुमरो।। तिहिते शरनागत आन परो, विरदावलिकी कछु लाज धरो॥ दुखवारिधिते प्रभु पार करो, दुरितारि हरो सुखसिंधु भरो। सव क्लेश अशेष हरो हमरो, अब देख दुखी मत देर । करो ॥१॥ तुमते कछु हे जिनराज गनी, नहिं दुर्लभ ऋद्धि । * सुसिद्धि घनी । सुरईश तथा नरईशतनी, भुवि पावत आनंद बंद बनी ॥ अब मो दिशि देख दया करनी, अपनी विर* दावलिपालि तनी । इहि वार पुकार सुनो इतनी, तजि बार * उवार त्रिलोक धनी ॥२॥ अमिअंतरश्री चतुरंतरश्री, बहिरंत* रश्री समवस्त्रतश्री । यह श्रीपतिश्री अतिही पतिश्री, मनुजा* सुरश्री लखि लाजतश्री ॥ पदपंकजश्री मुनिध्यावतश्री, * श्रुतशारदश्री यशगावत श्री। अब मो उर श्रीपतिराजहुश्री, चितचिंतितश्री सुखसाजहुश्री ॥३॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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