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________________ · बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४१ - जिनेंद्रस्तुति । चौपाई (१६ मात्रा) www ५५ जै जगपूज परमगुरु नामी । पतितउधारन अंतरजामी ॥ दासदुखी तुम अति उपगारी । सुनिये प्रभु ! अरास हमारी ॥ १ ॥ यह भव-घोर-समुद्र महा है । भूधर-अम-जल-पूर रहा है । अंतर दुख दुःसह बहुतेरे । ते वडवानल साहिब मेरे ||२॥ जनमजरागदमरन जहां है। ये ही प्रबल तरंग तहां है । आवत विपति नदीगन जायें। मोह महान मगर इक तायें ||३|| तिहमुख जीव परयो दुख पावै । हे जिन ! तुम विन कौन छुडावै || अशरनशरन अनुग्रह कीजै । यह दुख मेटि मुकति मुहि दीजै || ४ || दीरघकाल गया लिलावै । अब ये सूल सहे नहिं जावै ॥ सुनियत यों जिनशासनमाहीं । पंचमकाल परमपद नाहीं ||५|| कारन पांच मिलै जब सारे । तब शिव सेवक जाहिं तिहारे ।। तातैं यह विनती अब मेरी । स्वामी ! शरण लई हम तेरी || ६ || प्रभु आगे चित चाह प्रकासौ । भव भव श्रावककुल अमिलासौ ॥ भवभव जिन आगम अवगाहों । भवभव भक्ति चरणकी चाह ||७|| भव भवमें सतसंगति पाऊँ । भव भव साधनके गुन गाऊं ॥ परनिंदा मुख भूलि न भाखूं। मैत्रीभाव सबनसौं राखूं ॥ ||८|| भव भव अनुभव आतमकेरा । होहु समाधिमरण नित मेरा ॥ जबलों जनम जगतमें लाधौं । काल लब्धिबल लहि शिवसाधौ ॥ ९ ॥ तबलों ये प्रापति मुझ हुजौ, भक्ति प्रताप I
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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