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________________ AhAAAAAAI nrnAPAMA Anonwr Anananana र वृहज्जैनवाणीसंग्रह . २०१ ।। , अनंतवीर्य-सूरप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चंद्रानन-भद्रबाहु-भुजंगम । ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन महापद्र-देवयशोऽजितवीर्येतिविंशतिविद्यमान* तीर्थे करेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जल निवपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ तीनलोकके जीव, णप आताप सताये । तिनको साता * दाता, शीतल बचन सुहाये | वावन चंदनसों जजू (हो) * भ्रमन-तपत निरवार । सीमंधर० ॥२॥ ओं ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेम्यो भवातापविनाशनाय चदनं निव०॥२॥ (इसके स्थानमें यदि इच्छा हो, तो बड़ा मत्र प. ) यह संसार अपार, महासागर जिनस्वामी । तातै तारे । बड़ी, भक्ति-नौका जगनामी । तंदुल अमल सुगंधसों (हो) पूजों तुम गुणसार । सीमंधर० ॥३॥ 2 ओं हों विद्यमानविशतितीथ करेभ्योऽक्षयदप्राप्तये अक्षतान् निर्व० ॥३॥ भविक-सरोज-विकाश, निंद्यतमहर रविसे हो। जति । * श्रावक आचार, कथनको, तुमही बडे हो॥ फूलसुबास । * अनेकसों (हो) पूजों मदन प्रहार । सीमंधरः ॥४॥ ओं ही विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय दीपं निर्व० ॥४॥ काम नाग विषधाम, नाशको गरुड कहे हो। छुधा * महादवज्वाल, तासको मेघ लहे हो। नेवज बहुघृत मिष्टसों । * (हो), पूजों भूखविडार । सीमंधर० ॥५॥ . ओं ही विद्यमानविशतितीर्थ करेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व० ॥ * उद्यम होन न देत, सर्व जगमाहिं भरयो है । मोह महा **ARKKAKKSKRIS R KAR*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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