SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स २०२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह तमघोर नाश परकाश करयो है || पूजों दीप प्रकाशसों ( हों) ज्ञानज्योति करतार | सीमंधर० ||६|| ओहीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्व० ॥६॥ कर्म आठ सब काठ, भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनि कर प्रगट, सरव कीनों निवारा || धू' अनूपम खेवतैं (हो), दुःख जलें निरधार । सीमंधर० ॥७॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्योऽकमविध्वंसनाय धूपं निबं० ॥७॥ मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें जीत जैनके मेर खरे हैं || फल अति उत्तमसों जजों (हो) वांछित फलदातार । सीमंधर० ||८|| ओं ह्रीं विद्यमान विशतितीर्थंकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वः ||८|| जल फल आठों दर्व. अरघकर प्रीति धरी है। गणधर इंद्रनहतै श्रुति पूरी न करी है । द्यानत सेवक जानके (हो) जगतें लेहु निकार | सीमं० ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीथंकरेभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निव० ॥६॥ अथ जयमाला आरती | सोरठा - ज्ञान सुधारक चंद, भविकखेतहित मेघ हो । भ्रमतमभान अमंद, तीर्थकर बीसों नमों ॥ चौपाई - सीमंधर सीमंधर स्वामी | जुगमंधर जुगमंधर नामी। बाहु बाहु जिन जगजन तारे । करम सुबाहु बाहुबल दारे ॥ १ ॥ जात सुजात केवलज्ञानं । स्वयंप्रभू प्रभू स्वयं प्रधानं । ऋषभानन ऋषि भानन दोषं । अनंतवीरज एस एस एस केले केले 1
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy