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________________ १२०० वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सुबाहु जिनंद, सेवहिं सुखसंपतिधनिये ॥२॥ संजात स्वयं। प्रभुदेव, ऋषभाननगुण गाइये । अनंतवीर्यजीकी सेव, मनवांछितफल पाइये ॥३॥ सरप्रभु सुविशाल, वनाधर जिन दिये । चंद्रानन चंद्रवाहु, देखत मन आनंदिये । वीरसेन । जयवंत, ईश्वर नेमीश्वर कहिये। भुजंगवाहु भगवंत, तारण । भव जलते कहिये ॥५॥ देव यशोधरराय, महाभद्र जिन। बंदिये। अजितवीर्यजीको तेज, कोटि दिवाकर जो दिपिये। पत्ता-ये बीस जिनवर संग प्रभुके, सेव तुमरी कीजिये। । ये वीसौ बंदन करै सेवक, मनवांछित फल लीजिये ॥७॥इति॥ ८४-श्रीबांसतीर्थकरपूजा भाषा। दीप अढाई मेरु पन, अरु तीर्थकर बीस। तिन सबकी पूजा करूं, मनवचतन धरि सीस ॥ * ओं ही विद्यमानविंशतितीर्थकराः ! अत्र अवतरत अवतरत । संवौषट् । । 1 ओं ही विद्यमानविंशतिथंकराः । अत्र तिष्ठत तिष्ठत । ठः ठः। *ओं ह्रीं विद्यमानविशतितीर्थंकराः अत्र मम सन्निहिताः भवत भवत वषट्।। ___ इंद्र फणींद्र नरेंद्र वैद्य, पद निर्मल धारी । शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी ॥ क्षीरोदधि सम नीरसों । (हो), पूजों तृषा निवार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥ *ओं ह्रीं विद्यमामविंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्व०॥ (इस पूजा में बीस पुंज करना हो, तो इसप्रकार मंत्र बोलना चाहिये) Tओं ही सीमंधर-जुगर्मधर-बाहु-सुबाहु-संजातक-स्वयंप्रभ-ऋषभानन *KKARKKHASRK-*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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