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________________ -~ ~ - ~ १३१६ वृहज्जैनवाणीसग्रह । के दोहा-श्रीसनमतिके जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत।। ॐ 'वृंदावन' सो चतुर नर, लहै मुक्ति-नवनीत ॥इत्याशीवादः ११८-अथ सप्तऋषिपूजा * छप्पय-प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्त्र ऋषीश्वर । * तीसर मुनि श्रीनिचय सर्वसुन्दर चौथो वर ।। पंचम श्रीजय वान विनयलालस षष्ठम भनि। सप्तम जयमित्राख्य सर्व * चारित्रधाम गनि ।। ये सातौ चारणऋद्धिधर, करूं तासु पद थापना। मैं पूजूं मनवचकायकरि,जो सुख चाहूं आपना। *ओं ही चारणदिधस्श्रीसप्तर्षीश्वरा । अत्रावतरत अवतरत संवौषट् । * अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ. ठः । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्।। गीता छंद-शुभतीर्थउद्भव जल अनूपम, मिष्ट शीतल लायके ॥ भव तृषाकंद निकंद कारण, शुद्ध घट भरवाय के ॥ मन्वादि चारण ऋद्धिधारक, मुनिनकी पूजा करूँ।। *ता करें पातिक हरें सारे, सकल आनंद विस्तसँ॥ * ओं ही श्रीमन्त्रस्वरमन्वनिचयसर्वसुन्दरजयवानविनथलालसजयमित्राषिभ्यो जलं॥ श्रीखण्ड कदलीनन्द केशर, मन्द मन्द घिसायके । तसुगंध प्रसरति दिगदिगन्तर, भरकटोरी लायके ॥मन्वा०ाचंदन।। । अति धवल अक्षत खण्ड वर्जित, मिष्ट राजन भोगके । कल धौत थारा भरत सुन्दर, चुनित शुभउपायोगकाम०॥अक्षता बहु वर्ण सुवरण सुमन आछे, अमल कमल गुलावके । केतकी चम्पा चार मरुआ, चुने निजकर चावके ।मन्वा० ॥पुष्प ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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