________________
... ..my
वृहज्जैनवाणीसंग्रह . ३१५ ॥ जगता सुगता। ततता ततता अतता वितता ॥६॥ धृगतां ।
घृगतां गत वाजत है। सुरताल रसाल जु छाजत हैं। सननं सननं सननं नभमें । इकरूप अनेक जुधारि भमें ॥७॥ कइ नारि सु बीन बजावति हैं । तुमरो जस उज्जल गावति । हैं ॥ करतालविर्षे करताल धरें। सुरताल विशाल जु नाद करें॥८॥ इन आदि अनेक उछाह भरी । सुरभक्ति करै प्रभुजी तुमरी ॥ तुमही जगजीवनिके पितु हो। तुमही विनकारनतै हितु हो।.९॥ तुमही सब विघ्नविनाशन हो। तुमही । निज आनंद भासन हो ॥ तुमही चितचिंततदायक हो । जगमाहिं तुम्हीं सब लायक हो ॥१०॥ तुमरे पनमंगलमाहिं।
सही। जिय उत्तम पुनलियो सब ही। हमको तुमरी १. सरनागत है । तुमरे गुनमें मन पागत है ॥११॥ प्रभु
मोहिय और सदा बसिये। तबलौं वसुकर्म नहीं बसिये ॥ तबलों तुम ध्यान हिये वरतौ । तबलों श्रुतचिंतन चित्त । रतौ ॥ १२ ॥ तबलों ब्रत चारित चाहतु हों। तबलों शुभ के भाव सुहागतु हो ॥ तबलौं सतसंगति नित्त रहौ । तबलों * मम संजम चित्त गहौ ॥ १३ ॥ जबलों नहिं नाश करों । * अरिको । शिवनारि व समता धरिको॥ यह यो तबलों । हमको जिनजी । हम जाचतु हैं इतनी सुनजी ॥ ४॥ * पत्ता-श्रीवीरजिनेशा,नमितसुरेशा,नागनरेशा भगति भरा। * 'वृंदावन ध्यावै, विधननशावै, वांछित पावै शर्म वरा ॥१५ ॥ १ ओं ही श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय महाधू निर्वपामीति स्वाहा
-
--
-
--
---
-
-*