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________________ ३१४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह कातिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुरतें वरना । गनफनिवृंद जजे तित बहुविधि, मैं पूजों भयहरना ॥मोहि०॥ *ओं ही कार्तिककृष्णामावस्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीमहावीर० अर्घः ॥ जयमाला । छन्द हरिगीता २८ मात्रा। * गनधर असनिधर चक्रधर, हरधर गदाधर बरवदा। * अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा ॥ है । दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरण रसाल हैं। सुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत, भालकी जयमाल हैं ॥१॥ पत्ता-जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगानंदन चंदबर।। * भवतापनिकंदन, तनकनमंदन, रहित सपंदन नयन धरै ॥ छन्द तोटक-जय केवलभानुकलासदनं । भविकोकविकाशनकंदवनं ।। जगजीत महारिपु मोहहरं। रजज्ञानदृगावर चूरकरं ॥१॥ गर्भादिकमंगल मंडित हो । दुख दारिदको । नित खंडित हो ॥ जगमाहिं तुमी सत पंडित हो । तुम ही भवभावविहंडित हो ॥२॥हरिवंशसरोजनकौं रवि हो । वल*वंत महंत तुम्ही कवि हो । लहि केवल धर्मप्रकाश कियो। अवलौं सोइ मारग राजतियौ ॥३॥ पुनि आप तने गुनमाहि सही। सुर मग्न रहैं जितने सवही ॥ तिनकी वनिता गुन । गावत हैं । लय माननिसों मनभावत हैं ॥४॥ पुनि नाचत । रंग उमंग भरी। तुअ भक्तिविर्षे पग येम धरी । झननं झननं * झननं झननं । सुरलेत तहां तननं तननं ॥५॥ धननं घननं । । घनघंट बजे | दृमदं दृमदं मिरदंग सजे ॥ गगनांगन गर्भ sekasi
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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