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________________ www वृहज्जैनवाणीसंग्रह २७ wwww vv wwww ५ wwwwwwwwww औ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदनाप्तये अक्षतान् निर्वपामीति wwwwww स्वाहा ॥ १ ॥ यदि पुष्पोंसे पूजन करना हो तो नीचे लिखे पद्य और मंत्र पढ़कर चढ़ावे । 1 जे विनयवंत सुभव्य उर अंबुज प्रकाशन भान हैं ॥ जे एकमुखचारित्र भाषत, त्रिजगमाहिं प्रधान हैं । लहि कुंदकमलादिक पहुप, भव भव कुवेदनसों बचूं | अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं || २ || विविधभांति परिमलसुमन, अमर जास आधीन । तांसों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ २ ॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ यदि किसीको लोंग, बादाम इलायची या कोई प्रासुक फल चढ़ाना हो तो नीचे लिखे पद्य और मंत्र पढ़कर चढ़ावे । 1 लोचन सुरसना घ्राण उर उत्साहके करतार हैं । मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुण सार हैं || सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, सकल अम्रतरस सचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरुनिरग्रंथ नित पूजा रचूं || ३ || जे प्रधान फलफलविष, पंचकरण रसलीन | जासौं पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ ३ ॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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