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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३१ जरा मिटावै ॥ धनि जैनधर्म दीपक प्रगट, पाप तिमिर छयकार है । लखि साहिबराय सुआँखसों, सरधातारनहार है ॥ ११ ॥ इति । २४ - दर्शनस्तुति rain AAAAAA छप्पय तुव जिनेन्द्र दिहियो, आज पातक सब भज्जे । तुव जितेंद दिट्ठियो, आज वैरी सब लज्जे || तुब जिनंद दिडियो, आज मैं सरवस पायो । तुव जिनेंद्र दिडियो आज चिंतामणि आयौ ॥ जै जै जिनंद त्रिभुवन तिलक आज काज मेरो सरयो । कर जोरि भविक विनती करत, आज सकल भवदुख टरचो ॥ १ ॥ तुव जिनंद मम देव सेव मैं तुमरी करिहौ । तुव जिनिंद मम देव, नाथ तुम हिरदै धरिहौ । तुव जिनंद मम देव, तुही साहिब मै बंदा । तुव जिनंद मम देव, मही कुमुदनि तुम चंदा ॥ जै जै जिनंद भवि कमल रवि, मेरो दुःख निवारिकै । लीजै निकाल भव जालतैं, अपनो भक्त विचारकै ॥ २ ॥ इति ॥ २५- श्रीदर्शन पचीसी तुम निरखत मुझको मिली, मेरी संपति आज । कहां चक्र'वतिसंपदा, कहाँ स्वर्ग साम्राज ॥ १ ॥ तुम वदत जिनदेवजी, नित नव मंगल होय । विघ्न कोटि ततछिन टरै, लहहिं सुजस सब लोय ॥ २ ॥ तुम जाने विन नाथजी, एक स्वासके माहिं । जन्ममरण अठदश किये, साता पाई 1 不夺 泰产出个些
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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