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११८० वृहज्जैनवाणीसंग्रह * अब बैगि जाय रचौ समवसृति सफल सुरपदको करौ।। * साक्षात् श्रीअरहंतके दर्शन करौ कल्मष हरौं ॥२॥ ऐसे व
चन सुने सुरपतिके धनपती । चल आयो ततकाल मोद धार । । अती॥ वीतराग छवि देखि शब्द जय जय चयौ । दै परद- 1 च्छिना बार बार बंदत भयो । अति भक्ति भीनो नग्रचित । लै समवशरण रच्यो सही । ताकी अनूपम शुभगतीको, कहन समरथ कोउ नहीं ॥ प्राकार तोरण सभामंडप कनकमणिमय छाजही । नगजडित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विरा-1
जही ॥३॥ सिंहासन तामध्य बन्यौ अदभुत दिपै । तापर। * बारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिौ । तीनछत्र सिर शोमित * चौसठ चमरजी। महाभक्तियुत ढोरत है तहां अमरजी। प्रभु * तरन तारन कमल ऊपर अंतरीक्ष विराजिया । यह वीत- । * रागदशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया ॥ मुनि !
आदि द्वादश सभाके भवि जीव मस्तक नायकैं।। बहुभांति वारंवार पूज, नमैं गुणगण गायकै ॥४॥ परमौदारिक दिव्य देह पावन सही । क्षुधा तृषा चिंता भया गद । । दूषण नहीं। जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे।।
राग रोष निद्रा मद मोह सबै खसे॥ श्रमविना श्रमजलरहित । 1. पावन अमल ज्योतिस्वरूपजी । शरणागतनिको अशुचिता।
हरि, करत विमल अनूपजी। ऐसे प्रभूकी शांतिमुद्राको न्ह* वन जल करें । 'जस' भक्तिवश.मन उक्तिनैं हम, भानु ।
ढिग दीपक धरै ॥५॥ तुमतौ सहज पवित्र यही निश्चय भयो।। * - --- -
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