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________________ *- - - -- - - - --* AAAAAAAAAAAAAAAt AAAAAAAAmr AAAAnnnnnnnn Anna * ३५० वृहज्जैनवाणीसग्रह *सूर, शिवमग परकाशी । लै रत्नद्वीप द्युतिपूर, अनुपम सुखराशी ॥ श्री० ॥ दीपं ॥६॥ दर परिमल द्रव्य अनूप सोध पवित्र करी । तस चूरण कर कर धूप, ले विधिकुंज । हरी ।। श्री०॥ धूपं ॥७॥ फल पक्ष मधुररसवान, प्रासुक बहुविवके । लखि सुखद रसनगमान, ले पद पद सिधके । श्री० ॥ फलं ॥८॥ जल फल वसु द्रव्य मिलाय, लै । । भर हिमथारी ॥ वसुअंग धरापर ल्याय, प्रमुदित चित- है धारी ।। श्री०॥ अर्थ ॥९॥ . . अथ जयमाला। दोहा-भये द्वादशम तीर्थपति, चंपापुर निर्वान । तिन गुणकी जयमाल कछु, कहों श्रवण सुखदान ॥ पद्धरिछंद-जय जय श्रीचंपापुर सु धाम। जहँ राजत नृप वसुः । पूज नाम ।। जय पौन पल्यसै धर्महीन । भवनमन दुःखमय है। । लख प्रवीन ॥१॥ उर करुणाधर सो तम विडार। उपजे । * किरणावलिधर अपार ॥ श्री वासुपूज्य तिनके जु बाल ।। द्वादशम तीर्थकता विशाल ॥२॥ भवरोग देहत विरत होय।। वय वालमाहिं ही नाथ सोय ॥ सिद्धन नमि महावत भार । लीन । तप द्वादशविधि उग्रोग्र कीन ॥३॥ तहँ मोक्ष सप्तत्रय आयु येह । दश प्रकृति पूर्व ही क्षय करेह ॥श्रेणीजु पक। आरूढ होय । गुण नवमभाग नवमाहिं सोय ॥४॥ । सोलहवसु इक इक पट इकेय ।। इक इक इक इम इन क्रम 1. सहेय पुन दशमथान इक लोमटार । द्वादशमथान सोलह ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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