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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६१ मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥१॥ दशाध्याये । परिच्छिन्ने तत्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषित तं मुनिपुंगवैः ॥२॥ तत्वार्थसूत्रकतारं गृध्रापिच्छोपलक्षित। । वंदे गणींद्रसंयातमुमास्वामिमुनीश्वरं ॥३॥ इति तत्त्वार्थसूत्रापरनाम तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र समाप्त ॥ २१३-छहढाला। सोरठा-तीन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता। । शिवस्वरूप शिवकार नौं त्रियोग सम्हारिक ॥१॥ पहिली ढाल । चौपाई (१५ मात्रा) जे त्रिभुवनमें जीव अनंत । सुख चाहैं दुखत भयवंत ॥ तातै दुखहारी सुखकारि । कहैं सीख गुरु करुणा धारि ॥२॥ ताहि सुनो भविमन थिर आन। जो चाहो अपनो कल्यान॥ मोह महामद पियो अनादि । भूलि आपको भरमत बादि। * आशा तास भ्रमनकी है बहु कथा । पै कछु कहूं कही मुनि । जथा ॥ काल अनंत निगोदमझार। बीत्यो एकेंद्रिय-तन धार ॥५॥ एक स्वासमें अठदश वार । जन्म्यो मरयो भरयो दुख। भार । निकसि भूमि जल पावक भयो । पवन प्रतेक वनस्पति थयो ॥५॥ दुर्लभ लहि ज्यों चिंतामणी । त्यो परजाय । लही सतणी ॥ लटपिपीलि अलि आदि शरीर । धरधर । कमरयो सही बहु पीर ॥३॥ कबहुं पंचेंद्रिय पशु भयो । मन विन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी है कूर । निबल । + -+ -+SRK-5 -*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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