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१८२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सुन्यौ नहीं । चिंतामणी पारस कलपतरु, एकभव सुखकार * ही। तुम भक्तिनवका जे चढे ते, भये भवदधि पार ही ॥९॥ * दोहा-तुम भविदधिः तरि गये, भये निकल अविकार । 1 तारतम्य इस भक्तिको, हमें उतारो पार १४१०॥ इति ॥
८०-विनयपाठ दोहावली। * इहिविधि ठाडो होयके, प्रथम पढे जो पाठ । धन्य जिने
श्वर देव तुम. नाशे कर्म जु आठ ॥१॥ अनंत चतुष्टयके । * धनी, तुमही हो सिरताज ॥ मुक्ति बधूके कंथ तुम, तीन । । भुवनके राज ॥२॥ तिहुं जगकी पीडाहरन, भवदधि शोष*णहार, ज्ञायक हो तुम विश्वके, शिवसुखके करतार ॥ * हरता अघअंधियारके, करता धर्मप्रकाश । थिरतापददातार
हो, धरता निजगुण रास ॥४॥ धर्मामृत उर जलधिसों, । ज्ञानभानु तुम रूप । तुमरे चरणसरोजको, नावत तिहुं जग ।
भूप ॥५॥ मैं बंदौं जिनदेवको, कर अति निरमल भाव। * कर्मबंधके छेदने, और न कछु उपाय ॥६॥ भविजनकों
भवकूपते, तुमही काढनहार ॥ दीनदयाल अनाथपति । • आतमगुणभंडार ॥ ७॥ चिदानंद निर्मल कियो, धोय। * कर्मरज मैल ॥ सरल करी या जगतमें भविजनको शिवगैल।
८॥ तुमपदपंकज पूजतें, विघ्न रोग टर जाय ॥ शत्रु मि* त्रताको धरै, विष निरविषता थाय ॥ ९॥ चक्रीखगधर* इंद्रपद मिलैं आपतै आप। अनुक्रमकर शिवपद लहै, है * नेम सकल हनि पाय ॥ १०॥ तुय विन मैं व्याकुल *
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