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________________ KAKKAKKARK-* १२०८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह *ओं ह्रीं सिद्ध चक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ॐ ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं, सूक्ष्मस्वभावपरमं यद* नंतवीर्य । कौषकक्षदहनं सुखसस्यबीजं वंदे सदा निरुपमम् वरसिद्धचक्रम् ॥१०॥ * ओ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाव्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ त्रैलोक्येश्वरवंदनीयचरणाः प्रापुः श्रिय शाश्वती । * यानाराध्य निरुद्धचंडमनसः संतोऽपितीर्थकराः ॥ सत्सम्य क्त्वविवोधवीर्यविशदाऽव्यावाधताधैर्गुणैर्, युक्तांस्तानिह * तोष्टवीमि सततं सिद्धान् विशुद्धोदयान् ॥ ( पुष्पांजलिं० ) ___ अथ जयमाला। विराग सनातन शांत निरंश । निरामय निर्भय निमल । हंस ॥ सुधाम विवोधनिधान विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसि। द्धसमूह ॥१॥ विदूरितसंसृतिभाव निरंग । समामृतपूरित 1. देव विसंग ॥ अबंधकषाय विहीन विमोह । प्रसीद विशुद्ध * सुसिद्धसमूह ॥ २ ॥ निवारितदुष्कृतकर्मविपास । सदामल * केवलकेलिनिवास ॥ भवोदधिपारग शान्त विमोह । प्रसीद.. । विशुद्धसुसिद्धसमूह ॥३॥ अनंतसुखामृतसागर धीर । कळं-1 करजोमलभूरिसमीर || विखंडितकाम विराग विमोह ।। * प्रसीद विशुद्धसुसिद्धसमूह ॥४॥ विकारविवर्जित तर्जितशोक। विवोधसुनेत्रविलोकितलोक ! विहार विराग विरंग विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥५॥ रजोमलखेदविमुक्त विगात्र । * निरंतर नित्य सुखामृतपात्र । सुदर्शनराजित नाथ विमोह।। प्रसिद्ध विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥ नरामरवंदित निर्मल भाव
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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