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________________ KAR-KATHAGR A ~ ~ auruvvvvvvvvvv -~~~~ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ___ अगणित मुनि जहः गये, लोकशिखरके तीर।। तिनके पदपंकज नमू, नाशै भवकी पीर ।।२।। * अडिल्ल है,उज्वल वह क्षेत्र सुअति निरमल सही। परम, पुनीत सुठौर महा गुणकी मही। सकल सिद्धिदातार महा। । रमणीक है । बदौं निज सुखहेत अचल पद देत है ॥३॥ सोरठा-शिखरसमेद महान, जगमै तीर्थप्रधान है। महिमा अद्भुत जान. अल्पमती मै किमि कहों॥ । सुंदरी छंद-सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है। अति सु उज्वल तीर्थ महान है । करहिं भक्ति सु जे गुण गायकें। वरहि । । सुर शिवके सुख जायकें ॥ अडिल्ल-सुर हरि नर इन आदि और वंदन करें। भवसागरतै तिरे, नहीं भवमें परें। सफल होय तिन जन्मशिखर । दरशन करे, जनमजनमके पाप सकल छिनमै टरै ।। पद्धरीछंद-श्रीतीर्थकर जिनवर जुवीश । अरु मुनि असंख्य । सबगुणन ईश ॥ पहुँचे जहंत कैवल्यधाम । तिनको अब मेरी है प्रणाम ॥ ७॥ गीतिका छंद-सम्मेदगढ है तीर्थ भारी सबहिकों उज्वल करै। चिरकालके जे कर्म लागे दर्शतै छिनमै टरें ॥ है परम पावन पुण्यदायक अतुलमहिमा जानिये ! अरु है अनूप सुरूप। * गिरिवर तास पूजन ठानिये ॥८॥ - दोहा-श्रीसम्मेदशिखर सदा, पूजौं मनवचकाय । A हरत चतुर्गतिदुःखकों, मनवांछित फलदाय ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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