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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww * --- - - - - - * वृहज्जैनवाणीसंग्रह २४१ निरीह निरामय निर्मलहंस, सुचामरभूषितशुद्धसुस । • अनियचरित्रविमानितकंस, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग ॥ प्रबोधविवोधजगत्त्रयसार, अनंतचतुष्टयसागरपार। ' . .. निवारित सर्वपरिग्रहभार, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग ।।। तपोभरदारितकर्मकलंक, विरोग विभोग वियोग विशंक। अखंडितचिन्मयदेहप्रकाश, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग॥ । विवर्जितदोषगुणौषकरंड, प्रसारितमानतमोमददंड। अपारभवोदधितारतरंड, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग ॥ धत्ता-गवगमचरित्राः प्राप्तसंसारपारा, सकलशशिनिभा* साः सर्वसौख्यादिवासाः। विदितविभवविशिष्टाः प्रोल्ल-1 सद्ज्ञानशिष्टाः, ददतु जिनवरास्ते मुक्तिसाम्राज्यलक्ष्मी ॥ ओं ही विजयमेरुसम्बन्धिभद्रशाल-नंदन-सौमनस-पांडुकवनसम्बन्धिपूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यः पूर्णाय। सर्वव्रताधिप सारं सर्वसौख्यकरं सतां। * पुष्पांजलिव्रतं पुष्पायुष्माकं शाश्वतीं श्रिया(इत्याशीर्वादः) । अथ तृतीय अचलमेरुपूजा। जिनान्संस्थापयाम्यत्रा,-बानादिविधानतः। धातुकीपश्चिमाशास्था,-चलमेरुप्रवर्तिनः ॥१॥ ओं ह्रीं अचलमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर * संवौषट् । ओं ही अचलमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ठः ठः । ओं ही अचलमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ___16
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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