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________________ APRAHARI rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr २२४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह षट् । ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । 2. ठः । ओं ह्रीं श्राआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट्। । शुचि नीर निर्मल छीरदधिसम, सुगुरु चरन चढाइया । तिहुँधार तिहुँ गदटार खामी, अति उछाह बढ़ाइया ॥ भव* भोगतनवैराग्य धार, निहार शिवतप तपत हैं । तिहुँ जग तनाथ अधार साधु सु, पूज नित गुन जपत हैं ॥१॥ ओं ही श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाम जलं , करपूर चंदन सलिलसौं घसि, सुगुरुपद पूजा करौं । सव ।। * पापताप मिटाय स्वामी, धरम शीतल विस्त ॥भवभोग०॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो भवातापविनाशनाय चंदनं० ॥२॥ १ तन्दुल कमोद सुवास उज्जल, सुगुरुपगतर धरत हैं । गुनकार । * औगुनहार स्वामी, वंदना हम करत हैं ॥ भवभोग० ॥३॥ ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षताम् नि० ॥ * शुभफूलरासप्रकाश परिमल, सुगुरु पायनि परत हों । निरवार । मारउपाधि स्वामी, शील दृढ उर धरत हों ।। भवभो० ॥४॥ ओं ही आचर्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं० ॥४ पकवान मिष्ट सलौन सुदंर, सुगुरु पायनि प्रीति सौं । धर है छुधारोग विनाश स्वामी, सुथिर कीजे रीतिसौं ॥ भवभोग०॥ *ओं ह्रीं आचर्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य० ॥५॥ * दीपकउदोत सजोत जगमग, सुगुरुपद पूजों सदा। तमनाश ज्ञानउजास स्वामी, मोहि मोह न हो कदा ॥ भवभोगः ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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