Book Title: Tattvarthsar Author(s): Amrutchandracharya Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur Catalog link: https://jainqq.org/explore/001847/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1845 जीवराज जैन ग्रंथमाला श्री अमृतचंद्र आचार्य विरचित तत्वार्थसार -सपादक पं. नरेन्द्रकुमार भिसीकर शास्त्री Jain Educ a tional Sayinayudainelibrarysorg Private Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000 ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ जीवराज जैन ग्रंथमाला मराठी विभाग पुष्प-७५ 00000000000000000000000000000000000 श्री अमृतचन्द्राचार्य विरचित तत्त्वार्थसार &00000000000000000000000000000000000 ( मराठी अनुवाद ) अनुवादक- पं. नरेन्द्रकुमार भिसीकर शास्त्री. (न्यायतीर्थ-महामहिमोपाध्याय ) इ. सन १९८७ किंमत- रु. २५-०० 0000000000000000000000000 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्रीमान् शेठ लालचंद हिराचंद अध्यक्ष - जैन संस्कृति संरक्षक संव मोलापूर-२ प्रति ११०० मुद्रकखंड १ व ३ श्राविका मुद्रणालय श्राविका संस्थानगर, सोलापुर खड २ मुद्रण सम्राट मुद्रणालय सोलापूर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1843 संस्थापक जैन संस्कृती सरक्षक संघ, सोलापूर. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी जन्म इ. स. १८८० मृत्यू इ. स. १९५७ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री १०५ क्षु. चैत्यसागर महाराज यांचा ) 3 शुभाशिर्वाद श्री अमृतचंद्र आचार्य विरचित 'तत्वार्थसार ' ग्रंथ आचार्य उमास्वामी विरचित तत्वार्थ सूत्र ( मोक्षसात्र ) या ग्रंथाचे विशद वर्णन करणारा एक द्रव्याणु योगाचा अनुपम ग्रंथ आहे. या ग्रंथाचे मराठी भाषांतर सरळ व सोप्या भाषेमध्ये श्री. जीवराज जन ग्रंथमाला सोलापूर या संस्थेतर्फे संस्थेचे कार्यकर्ता वयोवृद्ध पं. नरेन्द्रकुमार भिसीकर शास्त्री यांनी केले आहे. ते मराठी वाचक जणास जैन तत्वज्ञानाचे मार्गदर्शन करण्यास अत्यंत उपयुक्त होईल. अशा प्रकारे ग्रंथमालेतर्फे पंडीतजीकडून उत्तरोत्तर धार्मिक ग्रंथाचे संपादन होऊन जैन धर्माची प्रभावना होत राहो हा मंगल आशिर्वाद ! श्री १०८ प. पू. आचार्य विमलसागर महाराज यांचे परमशिष्य श्री. १०५ क्षु. चैत्यसागर महाराज यांचे आज्ञेनुसार. दि. ९ । २ । १९८७ रतनचंद सखाराम शहा मंत्री Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथमाला परिचय जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ ( जीवराज जैन ग्रंथमाला ) सोलापुर संस्थेचे मळ संस्थापक श्री. स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी यांनी आपल्या बायोपाजित संपत्तीचा विनियोग धर्म व समाजोन्नति करण्यासाठी अनेक। विद्वान लोकांची भेट घेऊन इ. स. १९४१ मध्ये श्री सिद्धक्षेत्र गजपंथ येथे एक विद्वत् संमेलन भरविण्यात आले. त्यामध्ये विचार-विनिमय होऊन पवित्रक्षेत्रावर पवित्र मुहुर्तावर 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' नामक संस्था । स्थापन करण्यात आली. प्राचीन संस्कृत- प्राकृत जैन साहित्य वाङमय प्रकाशित करून जिन। वाणीचा सर्वत्र प्रचार करण्यात यावा हा संस्थेचा प्रमुख उद्देश ठरविण्यात । आला. त्यासाठी पू. ब्रह्मचारीनी आपल्या संपत्तीपैकी एक मस्तदान । रु. ३०, ०००/चे जाहीर करण्यात आले त्यानंतर पू. ब्रह्मवारीजीची वैराग्यवृत्ति वाढत गेली. पुढे इ. सन । १९४४ मध्ये त्यानी आपली सर्व संपत्ति विश्वस्तनिधि रूपाने संघाला * अर्पण केली. या संस्थेच्या अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' नामक ग्रंथमाला । स्थापन करून या ग्रंथमालेतून आजपर्यंत हिंदी विभागातून ४३ ग्रंथ व . मगठी विभागातून ७५ ग्रंथ प्रकाशित करण्यात आले आहेत. सदरहू पुस्तक मराठी विभागातील ७५ वे पुष्प म्हणून प्रकाशित " करण्यात येत आहे. मराठी स्वाध्याय करणा-या मुमक्ष भव्यजीवाना सदरहू । ग्रंथ जैन तत्वज्ञान दृष्टीने जैन सिद्धांताचे मर्म समजण्यासाठी अत्यत । उपयक्त होईल अशी आशा आहे. मंत्री रतनचंद सखाराम शहा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य हा तत्त्वार्थसार नामक ग्रंथ आचार्य अमृतचंद्र यांनी रचला आहे. यामध्ये जीव-अजीव आदि सात तत्त्वाचे हेय उपादेय रूपाने विस्तारपूर्वक वर्णन केले आहे. या ग्रंथाचे हिंदी भाषांतर स्व. पं. वंशीधरजी शास्त्री सोलापूर व पंडितप्रवर डॉ. पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर यांनी केले आहे. त्याचा आधार घेऊन मराठी अनुवाद जैन संस्कृति संघाचे व्यवस्थापक पं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री यांनी सरल सोप्या मराठी भाषेत केला आहे. तो मराठी भाषा बोलणाऱ्या वाचकास लाभदायक होईल या भावनेने जीवराज जैन ग्रंथमाला संस्थेतर्फे आम्ही या ग्रंथाचे प्रकाशन करीत आहोत. या ग्रंथाचे मुद्रण कार्य खंड १ ला ( अधिकार १-२ ) व खंड ३ रा ( अधिकार ६-७-८ ) हे श्राविका मुद्रणालय मधून झाले आहे व खंड २ रा (अधिकार ३-४-५ ) प्रस्तावना व विषयानुक्रमणिकेचे मुद्रणकार्य मुद्रण सम्राट मुद्रणालयमधून झाले आहे. याप्रमाणे ग्रंथाचे प्रकाशन कार्यात सहकार्य देणा-या वरील मुद्रणालयांचे व संपादकाचे आम्ही मनःपूर्वक आभार मानतो. याप्रमाणे हा ग्रंथ आम्ही अल्प मुदतीत प्रकाशित करून धर्मबांधव वाचकास सादर करीत आहोत. आपला मंत्री रतनचंद सखाराम शहा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय वक्तव्य हा तत्त्वार्थसार नामक ग्रंथ अध्यात्म योगी श्री अमतचंद्र आचार्य यांनी रचला आहे. यामध्ये श्रीमान उमास्वामी आचार्य विरचित तत्त्वार्थ सूत्र किंवा मोक्षशास्त्र या ग्रंथाच्या आधाराने जीव अजीवादिक सात तत्त्वांचे हेय उपादेय रूपाने विस्तारपूर्वक वर्णन केले आहे. जीवाला एकांतपणे जीवतत्त्व उपादेय आहे. अजीवतत्त्व हेय आहे. हेयरूप अजीव तत्त्वाला उपादेयरूप जीवतत्त्व समजणे हेच अज्ञान. आस्रव-बध तत्त्व आहे. हेयाला हेयरूप व उपादेयाला उपादेयरूप असे हेय-उपादेय तत्त्वाचे यथार्थ विज्ञान-भेदविज्ञान होणे हेच संवर-निर्जरा मोक्ष तत्त्व आहे. हेयाला उपादेय समजणे विपरीत ज्ञानस्वरूप मिथ्यादर्शन मिथ्याजान मिथ्याचारित्र हाच संसारमार्ग आहेः संसार भ्रमणाचे दुःखाचे कारण आहे. हेयाला हेयरूप व उपादेयाला उपादेय समजणे हे भेदविज्ञानरूप समीचीन तत्त्वज्ञानरूप सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चरित्र हाच संसार भ्रमण दुःखातून मुक्त होण्याचा व शाश्वत सुख शांति प्राप्त करण्याचा मोक्ष मार्ग आहे. संसारापासून भयभीत अशा ममुक्षु भव्यजीवाला हा ग्रंथ अत्यंत उपयोगी आहे, हे जाणून आमचे परम गुरुदेव वयोवृद्ध अध्यात्म योगी तपोनिधि श्री १०८ ममन्नभद्र महाराज (वाहुबली) यांच्या प्रेमळ परम हितकारक आदेशावरून या अनपम आत्मकल्याणाचा मार्ग दाखविणाऱ्या ग्रंथाचे मराठी भाषांतर करून जिनवाणीची सेवा करण्याचे व माझे जीवन सार्थक करण्याचा योग मला प्राप्त झाला. या बद्दल पूज्य गुरुदेवांचे अनंत उपकार स्मरण करून ही कृति मी त्यांच्या कर कमळी सादर समर्पण करीत आहे. संपादक पं. नरेद्रकुमार भिसीकर शास्त्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध शुद्धिपत्रक प्रस्तावना पहिला भाग पृष्ठ ओळ अशुद्ध २४ देय १४ दुल मुंच्चति ३ कार भूनार्थ मार्गमा सौदर्म वेदातील अवमाहन्न विवशेणे . . . हेय पुद्गल मुञ्चति कारण भूतार्थ मार्गणा सौधर्म वेदातीत अवगाहना विवक्षेने . . पहिला भाग अधिधीयते सम्क्त्वाचरण द्यत: बुभुस्तुभिः अजीत्वत्तव गमत्वेऽपि नियम अजिव नत्वाचे कर्मबंध रत्नमय खल्वामी अभिधीयते सम्यक्त्वचरण ह्यतः बुभुत्सुभिः । अजीवतत्व गतत्वेऽपि नियत अजीव तत्त्वाचे कर्मबद्ध रत्नत्रय खल्वमी . . . ८ , १८ २७ : Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओळ ४ १० १४ १५ टीप ४ अशुद्ध वस्तुतः तत्वार्थानः अध्यस्तं मतिज्ञानाभिदा हिताः अवस्पष्टार्थ पच्चामि वस्तुनः तत्वार्थाः अध्यक्ष मतिज्ञानभिदा हि ताः अविस्पष्टार्थ पचामि २१ २३ ३५ ११ अधिकार २ रा ४७ ११ ५१ चारिद्वे लब्धः अंतरभाव सूक्ष्योपशान्त क्षणक मनःपर्याप्ति पश्चत्य मसूरतिमुक्ते मेण यावादिष्यते चारित्रे लब्धयः । अंतर्भाव सूक्ष्मोपशांत क्षपक सह ६ पर्याप्ति असतात. पश्यत्य मसूरातिमुक्ते मेव यावदिष्यते पाटक पाक * * * * * * * * * * * * * * * * * * १०८ ११६ श्यतुभि वर्षाणि पस्योपम पल्योमाष्टभागे प्यसदशः वेदन्त वरहक ध्वन्तष्वरेत्र गाति श्चतुर्भिः वर्षसहस्राणि पल्योपम पल्योपमाष्ट भागेष प्यसददशः वेदना वाहक ध्वन्तरेष्वत्र गति १२१ १३४ १३५ १३६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड २ रा अधिकार ३ रा पृष्ठ ओळ अशुद्ध २ १५ पुग्दला पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुग्दल पुद्गला: पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल परिणमन कथंचित् अशी पून: प्रमाण स्यादधर्मस्य ज्या प्रमाणे मत्र निष्क्रिय अपरिस्पन्दात्मको २० पुग्दल पुग्दल पुग्दल परिणाम कयांचित अशा पुनाः সয়াগ स्यायदधर्मस्य ज्या मय निष्क्रिीय अपरिस्पन्द्रात्मको १८ २० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुग्दल पृष्ठ ओळ अशुद्ध शुद्ध २२ २१ द्रव्याचा काळाचा नाही (श्लोक ४८ नाही) परत्वं विप्रकृष्टत्वमितरत् सनिकृष्टता । ते च कालकृते ग्राह्ये कालप्रकरणादिह ।। ४८ ॥ अर्थ- परत्व-दूरपणा-अपरत्व-जवळपणा. हा क्षेत्रकृत व कायकृत दोन प्रकारचा आहे येथे काम द्रव्याचे प्रकरण आहे म्हणून येथे कालकृत-परत्व- वयाने मोठा अपरत्व- वयाने लहान. असा-लहान मोठेपणा ग्रहण करावा. पुद्गल पुद्वल पुद्यल २४ पुद्वल पुद्गल पुद्गल वैस्रासिको वैस्रासिको संस्थाणं संस्थानं ममित्थं मनित्थं २९ १५ स्थलता स्थलता २९ १७ म्हगले म्हटले ३० १३ षदु । . ३२ १० जघग्य जघन्य ३२ २६ स्निग्ध स्निग्ध श्रद्धत श्रद्धत्ते अधिकार ४ था पुद्वल १४ २३ २४ वपु जुगुप्सा कान कापणे १८ नुगुप्सा कानापकणे पूनार्जव नःशील्प पुजार्जवं नैःशील्यं Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ओळ ४७ ४७ * * * * * * * ***६६६६६६६६६६ अशुद्ध आयतनं सेवन पापकर्मोणजीवन व्रवात् विभोचित परिसंख्यात कमंडल ब्रह्मचर्व स्त्रीयां स्मृतिव वृष्यस्येष्ट तित्यं भ्रमषा शुद्ध आयतनसेवनं पापकर्मोपजीवनं व्रतात् विमोचित परिसंख्यान कमंडल ब्रह्मचर्य स्त्रीणां स्मृतिश्चैव वष्येष्ट नित्यं भ्रमण मिथ्या मिध्या ५८ AT * * * * * * * सत्रा अस्मिन्नायनं पदलानां भावेनेति तत्रा अस्मिन्नायनं पुद्गलानां भावनेति ६८ अधिकार ५ वा ८४ ८७ २४ ४ निग्रन्थो प्रवेश चतुर्णा उदवाने माम पंचेंद्रिद मरमाण सघज निर्ग्रन्थो प्रदेश चतुर्णा उदयाने नाम पंचेंद्रिय परमाणू जघन्य ९१ २२ ९३ ९९ २२ १० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार ६ वा पृष्ठ ओळ ६ २ सुनिद्यते सुनिगद्यते निर्नरेचे जना १३ १४ १५ १८ ११ १९ तरूत लब्धा निर्जरेचे जनाः तरून लब्धीची वृत्तं यथास्वं संवरः तत्त्वं १८ २ यथारस्वं संवारू 3 अधिकार ७ वा २४ ८ २४ २३ २७ २२ २९ २९ . आग्नाय प्रायाश्चित तपोग प्रियम्शे भ्र प्राणिध्यानं सार्वज्ञा भाणज्ञा .. धारं प्रणिधानां अविचार अ.म्नाय प्रायश्चित्त तपोऽङ्ग प्रियभ्रंश प्रणिधानं सार्वज्ञी माज्ञा धारणं प्रणिधानं अवीचार २९ २९ ३१ ८ २२ २४ अधिकार ८ वा ४१ ४१ १२ २० अन्नत कर्मबंधन काराण अनंत कर्मबंध न कारण Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ओळ अशुद्ध ब ४३ ४३ ४४ SMMMMMMMMMMM 02 02. यानपासस्य स्ऽय शक्तिः पुग्दल लोककाश मूक्तस्प संतम्तो पूर्वजितं प्रात्पो प्रमाने तदिष्य उत्पतिश्च यथागणं अतर वशेषता क्षेत्र काल गति वेद तीर्थ चारित्र यानपात्रस्य ऽस्य शक्तिः पुद्गल लोकाकाश मुक्तस्य संतती पूर्वाजितं प्राप्तो प्रमाणे तदिष्यते उत्पत्तिश्च यथागण अंतर विशेषता क्षेत्र अल्पबहुत्व काळ अल्पबहुत्व गति अल्पबहुत्व वेद अल्पबहुत्व तीर्थ अल्पबहुत्व चारित्र अल्पबहुत्व ज्ञान अल्पबहुत्व अवगाहना अल्पबहुत्व काल अल्पबहुत्व संख्या अल्पबहुत्व अंतर अल्पबहुत्व अनुपम सिद्धाना ५३ ५३ ५३ ५३ ज्ञान अवगाहना ५५ ११ अंतर अनपम सिद्धाता Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ओळ अशुद्ध ५६ मित्युतेरं तयुक्तं विपाका तान्त्रिरूपम अलिंग उपसहार अधिकार ८ शुध्द मित्युत्तरं तदयुक्तं विपाकाच्च तन्निरुपम अलिगं उपसंहार अधिकार ९ * * * * * * * * * * * * * ५९ श्रद्धाधाना सधना ज्ञानाति ज्ञानाति त्रययात्मैव अभे श्रद्धाना साधना जानाति जानाति त्रयमात्मैव अभेद ६१ ६२ ६२ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना - दिगंबर जैन साहित्यामध्ये प्रामुख्याने द्रव्य - तत्त्व - पदार्थ या नावानी विश्वातील सर्व पदार्थांचा उल्लेख केला जातो. त्यामध्ये प्रामुख्याने वस्तु निरीक्षण दष्टीने जगामध्ये जे पदार्थ आहेत त्यांचा ६ प्रकारच्या द्रव्यजाती मध्ये समावेश केला आहे. १) जीव २) पुद्गल ३) धर्म ४) अधर्म ५) आकाश ६) काल :- चेतना- ज्ञान दर्शन लक्षण त्याला जीव म्हणतात. जीवाचे लक्षण- स्वभाव हा यद्यपि स्वला जाणणे हा आहे. तथापि त्याच्या स्वप्रकाशात सर्व ज्ञेय पदार्थ स्वयं प्रकाशीत होतात म्हणून जीव स्व-पर-प्रकाशक म्हटला जातो. बाकीची पुद्वलादिक पाच द्रव्ये अचेतन - अजीव द्रव्ये आहेत. ते स्वलाही जाणत नाहीत व पराला जाणू ही जाणू शकत नाहीत त्यामध्ये पुद्रल द्रव्य हे स्पर्श-रस-गंध-वर्ण या गुणानी युक्त असल्यामुळे त्याला मूर्त द्रव्य म्हटले आहे. जे इंद्रियाचा विषय आहे. जे जे इंद्रिय द्वारे स्थल रुपाने दिसते ते सर्व पुद्वल द्रव्य आहे. बाकीची चार द्रव्ये अमूर्त आहेत. इंद्रिय गम्य नाहीत. तथापि त्यांचे अस्तित्व अनुमानाने सिद्ध होऊ शकते. जीव व पुद्वल गतिमान् द्रव्ये आहेत. यद्यपि त्या दोन्ही द्रव्यात क्रियाशक्ति स्वतंत्र आहे तथापि त्यांच्या गमन क्रियेला सर्व साधारण निमित्त धर्म मानले आहे. त्यांच्या स्थितिक्रियेला सर्व साधारण निमित्त अधर्म द्रव्य मानले आहे. सर्व द्रव्यांचे अवगाहनाला सर्व साधारण निमित्त आकाश द्रव्य सुप्रसिद्धच आहे. तसेच सर्व द्रव्यांचे परिणमनाचे सर्व साधारण निमित्त काल द्रव्य देखील प्रसिद्ध आहे. तथापि ही सर्व द्रव्ये केवल ज्ञेय जाणण्यायोग्य आहेत. मोक्षमार्गामध्ये यांचे ज्ञान प्रयोजन भूत नाही. ती हेय किंवा उपादेय नाहीत. त्याचे विषयी हा जीव अज्ञानाने इष्ट अनिष्ट बुद्धि ठवून राग-द्वेष भाव Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २ } करीत आहे. मोक्षमार्गामध्ये जीव-अजीव आदि सात तत्त्वाना प्रयोजन भूत मानले आहे. त्यांचे हेय उपादेयरुपाने यथार्थ भेद विज्ञान झाल्याशिवाय मोक्ष मार्गाचा प्रारंभ होत नाही. सामान्यपणे अजीव आस्रव -- बंध तत्व याना देय ( आश्रय न करण्यायोग्य ) म्हटले आहे. यांचा आश्रय संसार भ्रमण दुःखाला कारण असल्यामुळे त्याना हेय म्हटले आहे. जीवतत्त्व संवर - निर्जरा मोक्षतत्त्व याना उपादेय आश्रय करण्यायोग्य म्हटले आहे. यद्यपि जीव व अजीव ( कर्म - नोकर्म रूप पुद्वल द्रव्य ) परस्पर संयोग व वियोगरूप निमित्ताने ही सात तत्त्वे होतात तथापि जीव व अजीव ( कर्म - नोकर्म ) यांची हा स्वतंत्र ७-७ रुपे आहेत. द्रव्य संग्रह ग्रंथात या सात तत्त्वाना जीव-अजीवाची विशेषरूपे म्हटले भावजीव, भाव अजीव, भावास्रव, भावबंध, भावसंवर, भाव निर्जरा व भाव मोक्ष ही जीवाची सातरुपे आहेत. व द्रव्यजीव द्रव्य अजीव द्रव्यासव - द्रव्यबंध, द्रव्यसंवर, द्रव्यनिर्जरा, द्रव्यमोक्ष ही कर्म - नोकर्मरुप अजीवरूप दुद्वल द्रव्याची सात रूपे आहेत. यामध्ये पुण्य-पाप यांचे विशेष वर्णन करण्यामाठी आचार्य कुंदकुंद देव यानी यांचे ९ पदार्थ रूपाने वर्णन केले आहे. पुण्य-पापाला आस्रव-बंधामध्ये अंतर्भूत करून श्रीमान् उमास्वामी आचार्यांनी आपल्या मोक्षशास्त्र नामक ग्रंथात सात तत्त्वरूपाने वर्णन केले आहे. ' नवतत्त्व गतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुच्चति' या आगम वचनावरून जीव यद्यपि संसार अवस्थेत आपल्या स्वभावाचे ज्ञान नसल्यामुळे ही नवरूपे धारण करतो तथापि या नवअवस्थेमध्ये जीव आपला एकत्व विभक्त स्वभाव एक अन्वयरुप जीवत्वपणा सोडत नाही त्यालाच कारणपरमात्मा-कारणसमयसार भगवान् परमात्मा म्हणतात. तोच भव्य मुमुक्षु जीवाला उपादेय आहे त्याचेच आश्रयाने त्याचे चिंतन मनन ध्यान केल्याने आत्मा कार्य परमात्मा बनतो. हा सर्व आगम ग्रंथाचा सार संक्षेप आहे. जो भूतार्थ नयाने या नव तत्त्वाना अभूतार्थ - अपरमार्थ समजून ही नवतत्त्वे धारण करणारा जो कारणपरमात्मा त्याला भूतार्थ- परमार्थ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समजून त्याचा आश्रय घेतो तेव्हा त्याचे परमार्थ तत्त्वश्रद्धान सम्यग्दर्शन म्हटले जाते. भूतार्थं नयाने या नव तत्त्वाला अभूतार्थ समजून मानव तत्त्वामध्ये सदाकाळ अन्वयरूप राहणारा जो कारतत्त्वाला त्याला भूनार्थ परमार्थ समजणे ते सम्यग्दर्शन होय ' समान शील व्यसनेषु सख्यं ' या न्यायाने जीव जेव्हा आपला जीवत्व स्वभाव कायम ठेवून कथंचित् भावरुपाने - पर्यायरूपाने अजीव तत्त्वरुप | १४ गुणस्थान १४ मार्ग णा. १४ जीवसमास रुप ) बनतो तेव्हा त्याचा कर्माशी आस्रव बध तत्त्व रूपाने संबंध होतो. जेव्हा हा रत्नत्रयधर्म सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र रुपाने परिणामतो तेव्हा जीवतत्त्वरूपाने परिणमन करीत संवरनिर्जरा - मोक्ष अवस्था धारण करुन कर्मापासून पूर्ण मुक्त होऊन शुद्ध आत्मतत्त्वारूपाने सदाकाळ स्थिर होतो. जसे जीवाला कर्माशी संबंध होण्यासाठी कथंचित् अजीवतत्त्वरूप व्हावे लागते तसेच कार्माणवर्गणारुप पुग्दल द्रव्य देखील कर्मरुपाने कथंचित् चेतन द्रव्यजीवरुप बनते तेव्हा त्याचे मध्ये जीव गुणाचा घात करण्याचे निमित्तत्त्व सामर्थ्य उत्पन्न होते कर्मरुप बनल्याशिवाय जीवाशी बंध होत नाही. याप्रमाणें जीव व अजीव दोन्ही द्रव्य आपला स्वभाव कथंचित् सोडून विभावरुप ( जीवअजीव - अचेतनरुप, व अजीव कथंचित् चेतनरूप कर्मरुप बनतात तेव्हा या दोहाच्या बद्ध अवस्थेमुळे इतर आस्रव -बध-संवर - निर्जरा - मोक्ष ही तत्त्व व्यवस्था निर्माण होते. या तत्त्वार्थसार ग्रंथाची रचना प्रामुख्याने आचार्य उमास्वामीच्या ' तत्त्वार्थ सूत्र' या ग्रंथाच्या आधाराने आचार्य अमृत चंद्रसूरि यानी केली आहे. तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथावर अनेक आचार्यानी अनेक ग्रंथाची रचना केली आहे. १) आचार्य समंतभद्र यांचे गंधहस्तिमहाभाष्य' ( हा ग्रंथ सध्या उपलब्ध नाही भूमिगत आहे परंतु लवकरच तो ग्रंथ उपलब्ध करण्याचा प्रयत्न होत आहे. ) २) आचार्य विद्यानंदी यांचा तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक भाग १ ते ७. ३) आचार्य अकलंक देव यांचे तत्त्वार्थ राजवार्तिक. ( पूर्वार्ध - उत्तरार्ध ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) ४) आचार्य पूज्यपाद यांचा ' सर्वार्थसिद्धि ' ग्रंथ. ५) आचार्य भास्करनंदी कृत सुखबोधिनी तत्त्वार्थटीका. ६) आचार्य विबुधसेनचंद्र कृत तत्त्वार्थ टीका ७) आचार्य योगींद्रदेव कृत तत्त्वप्रकाशिका टीका ८) आचार्य लक्ष्मीदेव भट्टारक विरचित तत्त्वार्थ टीका ९) आचार्य अभयनंदीकृत तात्पर्यवृत्ति तत्त्वार्थ टीका १०) श्रुतसागर कृत तत्त्वार्थवृत्ति टीका ११) वालचंद्रमुनिकृत तत्त्वरत्न दीपिका तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथात १ ते ४ अध्याय जीवतत्त्व वर्णन, अध्याय ५ मध्ये अजीवतत्त्व, अध्याय ६-७ मध्ये आस्रवतत्त्व वर्णन. ( व्रतरुपशुशोपयोगाला आस्रबतत्त्व म्हटले आहे. ) अध्याय ८ मध्ये बंध तत्त्व, अध्याय ९ मध्ये संवर व निर्जरा तत्त्व व अध्याय १० मध्ये मोक्ष तत्त्वाचे वर्णन केले आहे. या तत्त्वार्थसार ग्रंथात जीव-अजीव आदि सात तत्त्वाचे ९ अधिकारामध्ये वर्णन केले आहे. १) अधिकार-मध्ये मोक्ष व मोक्षाचामार्ग- सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र यांची अविना भावरुप एकता याला मोक्ष मार्ग म्हटले आहे. सम्यग्दर्शनाचे विषयभूत जीव-अजीव आदि तत्त्वांचे हेय-उपादेय रुपाने विस्तृत वर्णन करुन त्याला जाणण्याचा उपाय प्रमाण-नय-निक्षेप यांचे विस्तार पूर्वक वर्णन केले आहै. सत्-संख्या आदि व निर्देश-स्वामित्व आदि आठ अनुयोग रुपाने जीव तत्त्वाला जाणणाचा उपाय सांगितला आहे. अमूर्त जीवाचा मूर्त कर्माशी बंध कसा होतो यासंबंधी विचार करताना यद्यपि जीव स्वभावाने अमूर्त आहे तथापि अनादिकालापासून आपल्या स्वभावाचे ज्ञान-श्रद्धान नसल्यामुळे हा स्वयं भावरूपाने पर्यायरुपाने कथंचित् अजीवतत्त्व रुप १४ गुणस्थान-मार्गणा - जीवसमास रुपाने कथंचित् मूर्त बनला आहे त्यामुळे मूर्तजीवाचा मूत कर्माशी बध ( समानशील व्यसनेषु सख्यं या न्यायाने ) अनादिकाळापासून आहे. जेव्हा याला आपल्या शाष्वत ध्रुव जीवतत्त्व रुप चेतन स्वभावाची Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) जाणीव होते तेव्हा हा संवर - निर्जरा - मोक्ष तत्त्वरूप परिणति करुन कर्मापासून पूर्ण मुक्त होतो. मुक्त-अमूर्त आत्म्याशी मूर्त कर्माचा कदापि बंध होत नाही. २) अधिकार मध्ये - जीवतत्त्वाचे वर्णन करताना - औपशमिकआदि पाच भावाचे वर्णन करून जीवाचे संसारी मुक्त रूपाने दोन भेद करून १४ गुणस्थान- १४ मार्गमा - १४ जीव समास रूपाने विस्तार पूर्वक वर्णन केले आहे. जीवाचे राहण्याचे क्षेत्र वर्णन करताना त्रिलोकाचे वर्णन केले आहे. अधोलोकामध्ये नारकी जीवांचे जघन्य उत्कृष्ट - आयुष्य - शरीर अवगाहना - लेश्या - परिणाम, तेथील जीवाना होणारे दुःख याचे वर्णन केले आहे. - मध्यलोकाचे वर्णन करताना असंख्यात - द्वीपचे - समुद्रांचे वर्णन करून मध्यभागी असलेल्या जंबू द्वीपातील क्षेत्र - पर्वत - नद्या-यांचे वर्णन करुन भरत-ऐरावत क्षेत्रात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रुपाने जे षट्काल परिवर्तन होते त्यावेळी जीवांचे आयुष्य शरीराची अवगाहना - कर्मभूमि ची रचना या सर्वाचे विस्तार पूर्वक वर्णन केले आहे. ऊर्ध्वलोकाचे वर्णन करताना ज्योतिष्क देवाची सूर्य-चंद्र-नक्षत्र - - ग्रह तारका विमाने, त्यांचे अंतर, त्यांची गति व त्यावरून होणाऱ्या व्यवहार कालाचे परिवर्तन याचे वर्णन केले आहे. सोदर्म ऐशान आदि सोळा स्वर्गाची रचना तेथील देवांचे आयुष्य शरीर उंची लेश्या परिणाम कामपीडारूप प्रवीचार इत्यादिचे वर्णन केले आहे. ३) अधिकार मध्ये - अजीव द्रव्य-पर्याय यांचे स्वरूप सांगितले आहे. सर्व द्रव्यांचे प्रदेश परस्पर उपकार अवगाह क्षेत्र यांचे वर्णन करून पुद्गल परमाणूंचा परस्पर बंध होण्याचे पदार्थ विज्ञान सिद्धांत याचे सविस्तर वर्णन केले आहे. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४) अधिकार मध्ये- आस्रव तत्वाचे वर्णन करताना ज्ञानावरणादि कर्माच्या आस्रवाची कारणे, शुभोपयोगरूप व्रताचे भेद त्यांचे अतिचार यांचे वर्णन करून पाप-पुण्य यामध्ये संसार सुख-दुःखाच्या अपेक्षेने फरक असला तरी दोन्ही शुभ-अशुभयोग हे पाप-पुण्य कर्माच्या आस्रव बंधालाच कारण आहेत. संवर-निर्जरा-मोक्षाचे कारण नाही. एक शुद्धोपयोगच कर्माच्या संवर-निर्जरा मोक्षाचे कारण आहे हे सांगितले आहे. ५) अधिकार मध्ये- बंध तत्वाचे वर्णन केले आहे. बंधाचे प्रकार- कर्माच्या मूलप्रकृति उत्तरप्रकृति भेदाचेवर्णन करून बंधाची कारणे मिथ्यात्वाचे ५ प्रकार, अविरतिचे १२ भेद, प्रमादाचे १५ भेद, कषायाचे २५ भेद योगाचे १५ भेद यांचे सविस्तर वर्णन केले आहे. ६) अधिकार- मध्ये संवर तत्वाचे वर्णन केले आहे गुप्तिसमिति-धर्म-अनुप्रेक्षा-परीषहजय व चारित्र ही संवराची कारणे सांगून सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक चारित्र हे संवराचे कारण आहे. ( चारित्रादेव संवरः ) ( शुद्धोपयोगदेव संवरः) या आगम वचनावरून जेथून संवरपूर्वक निर्जरा प्रारंभ होते तेथून गुणस्थान ४ पासून चारित्र (स्वरुपाचरण-चारित्र) व शुद्धोपयोग यांचा प्रारंभ युक्तियुक्त सिद्ध होतो. ७) अधिकार- मध्ये निर्जरा तत्वाचे वर्णन केले आहे. निर्जरा दोन प्रकारची आहे. १) सविपाक २) अविपाक १) पूर्वबद्धकर्म स्थितिसंपल्यानंतर उदयास येताना फल देऊन निघून जाते त्यास सविपाक निर्जरा म्हणतात. ही निर्जरा सर्व जोवान। असते ती येथे सात तत्वात विविक्षित नाही. २) दुसरी अविपाक निर्जरा-. येथे सात तत्वामध्ये विवक्षित आहे पूर्वबद्ध कर्म स्थिति संपण्याचे अगोदर उदयावलीत आणून जीवाच्या सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयधर्म विशेष तप-संयम विशेष परिणामाचे निमित्ताने फल न देता कर्म तसेच निघून जाणे त्याला अविपाक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) निर्जरा किंवा उदयाभावी क्षय म्हणतात. ही निर्जरा विशेषतः जीवाच्या तपः सामर्थ्याने होते. तपाचे १२ भेद आहेत. ६ अभ्यंतरतप ६ बाह्यतप यांचे विस्तार पूर्वक वर्णन करून ध्यानाचे भेद सांगून धर्मध्यान व शुक्लध्यान ही दोन घ्याने संवर- निर्जरेचे कारण आहेत हे सांगितले आहे. मुनीचे पुलाक - बकुश - निग्रंथ - स्नातक असे भेद सांगून त्यांचे विस्तारपूर्वक वर्णन केल आहे. ८) अधिकार - मध्ये मोक्षतत्वाचे वर्णन केले आहे. जीव जसा कर्म नोकर्मापासून मुक्त होतो तसाच कर्म जनित जे जीवाचे औपशमिकादिक भाव भव्यत्व रुप पारिणामिक भाव यांचा ही मोक्षामध्ये अभाव होतो. जीवत्व स्वभाव पारिणामिकभाव व अनंतज्ञान दर्शन - - सुख- वीर्य स्वरूप स्वाभाविक भाव शिल्लक राहतात. यद्यपि मुक्त जीवामध्ये प्रत्युत्पन्न वर्तमान नयाच्या अपेक्षेने कांही फरक नाही सर्व जीव शुद्ध आत्मारूपाने सारखेच असतात. तथापि भूतपूर्व नयाच्या अपेक्षेने मुक्त जीवामध्ये क्षेत्र - काल - गति लिंग अवगाहना इत्यादि अपेक्षेने विशेषता आहे. १ क्षेत्र - कोणी भरत क्षेत्र, कोणी ऐरावत क्षेत्र, कोणी विदेह क्षेत्र निरनिराळ्या क्षेत्रातून मोक्षास गेले. २ काळ - कोणी उत्सर्पिणी काळाच्या चतुर्थ - (दुषमा- सुषमा) काळातून कोणी अवसर्पिणी काळाच्या चतुर्थ कालातून मोक्षास गेले. ३ गति - कोणी देवगतितून मनुष्य होऊन मोक्षास गेले. कोणी नरकगतितून मनुष्य होऊन मोक्षास गेले. कोणी तिर्यंच गतितून मनुष्य होऊन मोक्षास गेले. ४ लिंग - कोणी भावलिंगाच्या अपेक्षेने पुरुष लिंगातून वेदातीत होऊन मोक्षास गेले. कोणी भाव स्त्रीलिंगातून वेदातीत होऊन मोक्षास गेले. कोणी भाव नपुंसकलिंगातून वेदातील होऊन मोक्षास गले. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) मात्र द्रव्यलिंग सर्व मुक्त जीवांचे पुरुषलिंगच असते. द्रव्य स्त्री लिंगातून मुक्ति कदापि होत नाही. ५ अवमाहन्न- मुक्त होताना कोणाचे अंतिम शरीर ५०० धनुष्य असते तर कोणाचे (महावीर स्वामीचे) शरीर ३६ हात होते त्यामुळे मुक्त जीवांची अवगाहना त्यांच्या अतिम शरीर प्रमाण लहान मोठी असते. याप्रमाणे लेश्याचारित्र इत्यादि अपेक्षेने भूतपूर्व नयाने विशेषता असते. ९) अधिकार- शेवटला उपसंहार अधिकार मध्य निश्चय मोक्ष मार्ग- व्यवहार मोक्षमार्ग यांचे वर्णन केले आहे. निश्चय मोक्षमार्ग हा साक्षान्त मोक्षमार्ग आहे. व्यवहार मोक्षमार्ग हा परंपरा मोक्षमार्ग आहे. प्रथम व्यवहार मोक्षमार्गाची साधना करुनच निश्चय मोक्षमार्गाची साधना सिद्ध होऊ शकते. प्राथमिक अवस्थेत व्यवहार मोक्षमार्गाची नितांत आवश्यकता आहे. त्या शिवाय निश्चय मोक्षमार्गाची साधना होऊ शकत नाही. अभेद विवशेने मोक्ष क्रियेचे षट्कारक- कर्ता-कर्म-करण-संप्रादन अपादान-अधिकरण अभिन्न आत्माच आहे. आत्माच आत्मत्व शक्तीने आत्म्यामध्ये अविचल स्थिर होतो तेव्हा निश्चयाने मोक्षप्राप्ति होते. आत्मस्वरुपाचे दर्शन तेच सम्यग्दर्शन- आत्मस्वरुपाचे ज्ञान तेच सम्यग्ज्ञान, आत्मस्वरुपात अविचल स्थिर वृत्ति तेच सम्यक् चारित्र या प्रमाणे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरुप रत्नत्रय धर्मात्मक आत्माच साक्षात मोक्षमार्ग व आत्माच साक्षात् मोक्ष. अमूर्त जीवाचा मूर्त कर्माशी संबंध कसा या संबंधी विचार करताना हा जीव अनादिकाळापासून आपल्या जीवत्व स्वभावाची जाणीव न ठेवता, भावरुपाने-पर्यायरुपाने अजीवतत्त्व रुप कथंचित् मर्त Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) बनला आहे. त्यामुळे मूर्त - जीवाचा मूर्त कर्माशी बंध होतो. अमूर्त- मूर्त मुक्त - सिद्ध जीवाशी कर्माचा बंध कदापि होत नाही. तसेच जीवाचा कर्माशी जर अनादिकाळापासून संबंध आहे तर ज्याचा आदि नाही त्याचा अंत कसा या संबंधी विचार करताना दग्धबीजाचा दृष्टांत देऊन यद्यपि बीज व अंकुर यांचा अनादि परंपरा संबंध चालू आहे. बीजा पासून अंकुर - अंकुरापासून बीज - तथापि शेवटी बीज जर दग्ध झाले तर त्यापासून पुनः कधीही अंकुराचा उत्पाद होत नाही. त्याप्रमाणे जीव व कर्म ( अचेतनजीव व कर्म ) यांचा अनादिकाळापासून जरी परस्पर निमित्त नैमित्तिकसंबंध चालत येत आहे. तथापि शेवटी जेव्हा आपल्या आत्मज्ञान- आत्मध्यान रुपी अग्नीने आपल्या अनात्मभावाचा राग-द्वेष- मोह भावाचा पूर्णपणे अभाव करतो त्यामुळे नवीन कर्माचा पुनः आश्रय व बंध होत नाही व पूर्व बद्ध कर्माची निर्जरा होऊन हा जीव कर्मापासून पूर्णपणे मुक्त होऊ शकतो. व्यवहार जीवाच्या राग-द्वेष-मोह - भावरूप अनात्म परिणामाने कर्माचा बंध होतो म्हणून जीव कर्माचा बंध करतो, जीव कर्माचा नाश करतो असे म्हटले जाते परंतु निश्चयनयाने विचार केला तर कर्मचा बंध किंवा कर्माचा क्षय हे जीवाचे कर्म ( कार्य ) नाही. निश्चयनयाने जीव कर्मचा बंध कर्ता किंवा क्षय कर्ता नाही अशुद्ध निश्चयनयाने जीव आपल्या अनात्मभावाचा कर्ता आहे. राग-द्वेष- मोह हे भावकर्म त्याचे कर्म ( कार्य ) म्हटले जाते. शुद्ध निश्चयनयाने जीव अनात्मभावाचा त्याग करून आपल्या वीतरागशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावरूपाने परिणमन करतो त्यावेळी कर्माचा संवर निर्जरा मोक्ष अवस्था होतात म्हणून व्यवहार नयाने जीव कर्माचा नाश करतो असे म्हटले जाते. कर्माचा नाश करणे हा जीवाचा पुरुषार्थ नसून ते जोवाचे कार्य नसून जीव आपल्या स्वभावामध्ये आपला शुद्धोपयोग लावतो त्यावेळी कर्म स्वयं नष्ट होते. कर्माचा नाश करण्यासाठी कर्मामध्ये परद्रव्यामध्ये जीवाला पुरुषार्थ करावा लागत नाही. हा जीव परामध्ये पुरुषार्थ करू शकत नाही. आपल्या सत् स्वरुप स्वभावामध्ये पुरुषार्थ केला की कर्माचा नाश हा स्वयमेव होतो. म्हणून सर्व आगम ग्रंथात आपल्या स्वभावात स्थिर राहण्याचा पुरुषार्थ करण्याचा उपदेश सर्वत्र केला आहे. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार १ ला मंगलाचरण ग्रंथ प्रतिज्ञा विषयानुक्रमणिका ( खंड १ ला ) मोक्षमार्ग ( सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र ) ३-४ सात तत्वाचे हेय - उपादेय वर्णन ( ६-७-८) चार निक्षेपाचे स्वरूप ९ ते १३ नय - निक्षेप प्रमाण यांचे भेद-प्रभेद वर्णन १४ ते १७ सम्यग्ज्ञान व त्याचे भेद १८ मतिज्ञान लक्षण व त्याचे स्मृति आदि प्रकार १९-२० मतिज्ञानाचे अवग्रहादि भेद २१ - २३ २४ २५ ते २७ २०-२९ श्रुतज्ञान स्वरूप व भेद अवधिज्ञान स्वरूप व भेद मन:पर्ययज्ञान स्वरूप व भेद श्लोक १ २ केवलज्ञान लक्षण मतिज्ञानादि ज्ञानाचे विषय एकावेळी एकाजीवाला किती ज्ञाने असतात ३४ मिथ्याज्ञाने किती आहेत नयलक्षण व नयाचे भेद द्रव्यार्थिक नय भेद पर्यायार्थिक नय भेद नैगमादि ७ नयाचे स्वरूप सम्यग्नय व मिथ्यानय निर्देश आदि ६ अनुयोग वर्णन सत् - संख्या आदि ८ अनुयोग वर्णन उपसंहार ३० ३१ ते ३३ ३५-३६ ३७ ते ४० ४१ ४२--४३ ४४ ते ५० ५१ ५२ ५३ ५४ पृष्ठ १ १ २-३ ५ ते ८ ९-१० ११-१३ १४ १५ २३ २१ २६-२७ २७-२८ २८ २९ ३० ३०-३१ ३१-३२ ३३ ३४ ३५--३८ ३८ ४२ ४४ ४५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) श्लोक ३ ते ८ ४६ ते ४० ५२ ५२ ते ५५ १० ते १३ १४-१५ १६-१७ ५६-५७ अधिकार २ रा (जीवतत्व प्ररूपण) मंगलाचरण व प्रतिज्ञा जीवलक्षण औपशमिकादि पाच भाव जीवलक्षण उपयोगाचे भेद जीवाचे भेद १४ गुणस्थान नावे मिथ्यात्व सासादन मिश्र असंयत सम्यग्दृष्टि देशविरत प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत अपूर्वकरणा अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय उपशांत मोह व क्षीण मोह सयोग-अयोग-केवली चौदा जीवसमास सहा पर्याप्ति त्यांचे स्वामी दहा प्राण व त्यांचे स्वामी चार संज्ञा चौदा मार्गणा गतिमार्गणा ३०-३१ ३२-३३ ३४-३५ ६९-७१ ७१-७३ ar ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) अधिकार २ रा ( जीवतत्व व प्ररूपण ) इंद्रियमार्गणा द्रव्यद्रिय वर्णन अभ्यंतर निर्वृत्ति बाह्य निर्वृत्ति भावेंद्रियलक्षण उपयोग लक्षण व भेद अभ्यंतर व बाह्य उपकरण पाच इंद्रिय व मनाचा विषय इंद्रियाचे प्राप्यकारित्व- अप्राप्यकारित्व इंद्रियांचे आकार इंद्रियाचे स्वामी स्थावर जीव भेद द्वींद्रियजीव वर्णन त्रींद्रिय जीव वर्णन चतुरिद्रिय जीव वर्णन पंचेंद्रिय जीव वर्णन पृथ्वीकायिक जीवाचे आकार पृथ्वीकायिकाचे ३६ भेद जलकायिक भेद अग्निकायिक भेद वायुकायिक भेद वनस्पतिकायिक भेद योग मार्गणा योगाचे भेद मनोयोग भद वचनयोग भेद काययोग भेद औदारिकादि शरीराची सूक्ष्मता श्लोक ३९ ४० ४१ ४२ ४४ ४५-४६ ૪૭ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५८ ते ६२ ५८ ते ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ܘܘ ७१ ७२-७३ पृष्ठ 33 " ७५ 17 = 9 ७६ " ७७ " 17 ७८ 17 "# }} ७९ 11 ७८-८० ७९-८० ८० ". " ८ १ 19 19 19 ८२ 13 ८३ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( जीवतत्व परूपण ) तेजस व कार्माण शरीर लब्धि प्रत्यय तैजस व वौक्रियिक शरीर औदारिक वैऋियिक शरीर उत्पत्ति आहारक शरीर वर्णण वेदमार्गणा कषाय मार्गणा ज्ञान मार्गणा संयम मार्गणा दर्शन मार्गणा लेश्या मार्गणा भव्यत्व मार्गणा सम्यक्त्व मार्गणा संज्ञी मार्गणा आहार मार्गणा अनाहारक जीव कोणते विग्रहगति भेद जन्माचे भेद व त्याचे स्वामी नवयोनि व त्यांचे स्वामी ८४ लाख योनि भेद कोटि भेद कुल तिर्यंच मनुष्य आयु वर्णन नरकाय वर्णन भवनवासी देव आयुष्य वर्णन व्यंतर देव आयुष्य वर्णन ज्योतिष्क देव आयुष्य वर्णन ( १३ ) श्लोक ७४-७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ते ८१ ८२ ८३ ८४-८५ ८६-८७ ८८-८९ ९० ९१-९२ ९३ ९४ पृष्ठ ८३ ८४ ८६ ८७ ८८ ८९ ९१ "" ९२ ९४ & " ९९ " ९५ ९६ ते १०२ १०३-१०४ १०५-१०९ ११०-१११ ११२ - ११६ १०५-१०६ ११७ ते १२२ १०६-१०७ १२३ १२५ १०७ १२६ १०८ ५२७ १२८ १०० १००-१०२ १०३ १०४ १०५ "} }} Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक पष्ट ( जीवतत्व प्ररूपण ) पृष्ठ वैमातिक देव आयु वर्णन १२९-१३३ १०९ तिर्यंच मनुष्य जघन्य आयु वर्णन अपमृत्यु कोणाचा होत नाही १३५ , नारकी शरीराची उंची १११ मनुष्याचे शरीराची उंची १३७-१३८ ।, व्यंतर ज्योतिष्क भावनवासी देव शरीर उंची १३९ ११२ वैमानिक देव शरीर उंची १४७ ते १४२ ११२ एकेंद्रियादि तिर्यंच जीवाची उत्कृष्ट अवगाहना १४३-१४४ ११३ एकेंद्रियादि तिर्यंच जावाची जघन्य अवनाहना १४५ कोणते जीव कोणत्या नरकापर्यंत जातात १४६-१४७ ११४ नरकातून निघून जीव कोठे उत्पन्न होतात १४८-१५२ ११४ कोणाचा कोठे जन्म होतो १५३ ते १६१ ११५ देवगतिमध्ये कोण जातो १६१ ते १६८ ११६ ११७ देवगतीतून निघून जीव कोठे उत्पन्न होतो १६९-१७५ ११८ लोकाचे वर्णन १७६ लोकाचे भेद व लोकाचा आकर १७७ लोकाचे विभाग १७८ अधोलोक वर्णन १७९ ते १८१ १२०-१२१ नरकातील बिलांची संख्या १८२-१८३ १२१ नरक दुःखाचे वर्णन १८४-१८६ , मध्य लोकाचे वर्णन १८७-१९२ १२२ जंबूद्वीप वर्णन १९३ १२३ कुलाचल पर्वत १९४ ते १९६ १२४ पर्वतावरील सरोवर वर्णन १९७ ते २१० १२४ १४ नद्यांचे वर्णन २०३ ते २०५ १२५ ११० Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ २१३ ( जीवतत्व प्ररूपण ) श्लोक पृष्ठ क्षेत्र व पर्वत विस्तार २०६-२०७ १२६ कालचक्र परिवर्तन २०८ १२७ धातकी खंड द्वीप पुष्कर द्वीप वर्णन २०९-२११ १३० मनुष्याचे भेद १३१ देवलोक वर्णन चतुर्णिकाय भेद देवाचे अवांतर भेद भवनवासी देवाचे भेद २१५ , व्यंतर देवाचे भेद २१६ १३३ वैमानिक देवाचे भेद २१८ १३४ देवाचे इद्रादिक १० प्रकार २१६-२२० १३४ देवाचे विषयसुख वर्णन २२१ भवनत्रिक देवांचे निवास २२२-२२४ , वैमानिक देवांचे निवास २२५ ते २३३ १३६ - १३७ जीवाचे भेद २३४ ते २३७ १३८ उपसंहार २३८ १४१ ( खंड २ रा) अधिकार रा अजीवतत्व वर्णन श्लोक पृष्ठ मंगलाचरण पाच अजीव द्रव्याचे वर्णन सहा द्रव्याचे वर्णन पांच अस्तिकाय वर्णन द्रव्यलक्षण उत्पाद धर्म 5Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक पृष्ठ २२ ते ३३ ३३ ते ३३ ० ० ० ( जीवतत्व परूपण ) व्यय धर्म ध्रुव धर्म द्रव्य गुण पर्याय लक्षण गुण व द्रव्य अभेद द्रव्य व पर्याय अभेद पर्यायाचे उत्पाद व्यय द्रव्याची नित्यता द्रव्याचे अपरिणामित्व रुपी अरुपी द्रव्य भेद द्रव्याची संख्या द्रव्याचे सक्रियत्व निष्क्रियत्व द्रव्याचे प्रदेश वर्णन द्रव्याचा अवगाह द्रव्याचा परस्पर उपकार धर्म द्रव्य स्वरूप अधर्म द्रव्य स्वरूप आकाश द्रव्य स्वरूप शंका-समाधान काल द्रव्य वर्णन काल द्रव्याचा उपकार शंका समाधान कालाणु द्रव्याचे क्षेत्र व्यवहार काल वर्णन व्यवहार कालाचा उपकार व्यवहारकाल भेद (दृष्टांत पूर्वक वर्णन) १९ ते २१ १३ २२ ते २९ १३ ते १५ ३०-३२ १६ ३३-३४ १६ ३५-३६ ३७-३८ ३९ ४० ४१-४२ ३ ४६ ते ४८ २१ ते २३ ५० ते ५४ ,, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) ( जीवतत्व परुपण) श्लोक पृष्ठ २४-२५ २६-२७ २६-२७ ० ० पुद्वल लक्षण भेद ५५-५६ स्कंधा देश प्रदेश यातील विशेषता ५९-६१ स्कंधा व अणूची उत्पत्ति परमाणु लक्षण व त्यांची विशेषता ५९-६१ पुद्वलाचे पर्याय भेद ६२ शब्दाचे भेद संस्थान भेद सूक्ष्मत्व भेद स्थूलत्व भेद बंधाचे भेद तम (अंधःकार) वर्णन छाया वर्णन ६९-७० आतप उद्योत वर्णन भेदाचे प्रकार ७२ परमाणूंचा परस्पर बंध ७३-७६ उपसंहार ७७ (अधिकार ४ था ) ( आस्रवतत्व वर्णन ) मंगलाचरण आस्रव तत्व लक्षण २ ते ४ आस्रवाचे भेद व त्याचे कारण ५ ते ८ आस्रवातील विशेषता अधिकरण भेद १०-१२ ज्ञानावरणाच्या आस्रवाची कारणे १३-१६ ० ३२-३३ ३ , ३८-३६ ३८ ३८-३९ ४० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) श्लोक पृष्ठ १७ ते १९ ४१ २० ते २४ ४१-४२ २५-२६ ४३ २७-२८ ४४ दर्शनावरणाच्या आस्रवाची कारणे असातावेदनीयाच्या आस्रवाची कारणे सातावेद नीयाच्या आस्रवाची कारणे दर्शन मोहाच्या आस्रवाची कारणे चारित्र मोहाच्या आस्रवाची कारणे नरकायुच्या आस्रवाची कारणे तिर्यंच आयुच्या आस्रवाची कारणे मनुष्य आयुच्या आस्रवाची कारणे देवायुच्या आस्रवाची कारणे अशुभ नाम कर्माच्या आस्रवाची कारणे शुभ नाम कर्माच्या आस्रवाची कारणे तीर्थकर नाम कर्माच्या आस्रवाची कारणे नीच गोत्र कर्माच्या आस्रवाची कारणे उच्च गोत्र कर्मांच्या आस्रवाची कारणे अंतराय कर्माच्या आस्रवाची कारणे व्रत अव्रत वर्णन प्रतिज्ञा व्रताचे लक्षण व्रताचे भेद महाव्रत अणुव्रत व्रताच्या पाच पाच भावना अहिंसा व्रताच्या भावना सत्यव्रताच्या भावना अचौर्य व्रताच्या भावना ब्रम्हचर्य व्रताच्या भावना अपरिग्रह व्रताच्या भावना हिंसादि पापाविषयी चितवन ३० ते ३४ ४४-४५ ३५-३९ ४५ ४०-४१ ४६ ४२-४३ ४७ , ४८ ४९ ते ५२ . ५३ ४४ ते ४७ ४८ ५५ ते ५८ GK WW० ० ६५-६६ or or ६७ ६९-७१ ५५-५६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ भावना संसार व शरीर स्पभाव चितवन हिंसा पाप वर्णन असत्य पापाचे वर्णन चौर्य पापाचे वर्णन अब्रह्म मैथुन पाप वर्णन परिग्रह पाप वर्णन व्रताचे लक्षण व भेद श्रावकाची १२ व्रते सल्लेखना व्रत वर्णन अतीचार वर्णन (१९/ सम्यग्दर्शनाचे अतीचार अहिंसाणुव्रताचे अतीचार सत्याणुव्रताचे अतीचार अचौर्याणुव्रताचे अतीचार ब्रह्मचर्याणुव्रताचे अतीचार परिग्रहपरिमाणाणुव्रताचे अतीचार दिव्रताचे अतीचार देश व्रताचे अतीचार अनर्थदंड व्रताचे अतीचार सामायिक शिक्षा व्रताचे अतीचार प्रोषधोपवास व्रताचे अतीचार भोगोपभोग परिमाण व्रताचे अतीचार अतिथि संविभाग व्रताचे अतीचार सल्लेखना व्रताचे अताचार श्लोक 66 ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७७ ७८-७९ ८० ८१ ८२ ८३ ८४ ८६ ८६ ६७ ८८-८९ १० no no ९१ ९२ ९३ ९४ १५ ९६ ९७ ९८ पृष्ठ ५६ 27 ५७ ५८ ५९ " 11 ६०-६२ ६२ ६४ ६५ 31 33 ६७ 71 21 ६८ " - w " ६९ 114 " 31 : 3) 31 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक पृष्ठ ९९-१०० ७७-७१ १०१-१०२ ७१-७२ १०३-१०४ ७२-७३ १०५ " ७५ ३ ते ८ ७५-७६ १० ७८ दान दानाचे फल पुण्यास्रव पापाश्रवाचे कारण पुण्य पाप यातील विशेषता व समानता उपसंहार ( अधिकार ५ वा ) ( बंध अधिकार ) मंगलचरण बंधाची कारणे मिथ्यात्वाचे भेद व त्यांचे स्वरूप बारा अविरति प्रमाद वर्णन कषाय वर्णन पंधरा योग वर्णन बंधाचे लक्षण कर्माचे स्वरूप मर्तिक कर्माचा अमूर्त जीवाशी बंधा कसा बंधाचे भेद कर्माच्या ८ मूल प्रकृति कर्माच्या १४८ उत्तर प्रकृति ज्ञानावरणाचे पाच भेद दर्शनावरणाचे ९ भेद वेदनीयाचे २ भेद मोहनीयाचे २८ भेद आयुकर्माचे ४ भेद नामकर्माच्या ९३ प्रकृति १४-१५ १६ ते २० ८१ ८२-८३ ८४ २५-२६ २७ २७-२९ ३१-३९ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) श्लोक पृष्ठ ९६-९७ ९७ ४०-४१ ४१-४२ ४३-४६ ४६-४७ ४७ ते ५० ९८ , गोत्रकर्माचे २ भेद अंतरायाचे ५ भेद बंधायोग्य प्रकृति कर्माची उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति अनुभाग बंधा प्रदेश बंध पुण्य पापकर्म भेद पुण्य प्रकृति वर्णन पाप प्रकृति वर्णन उपसंहार ( खंड ३ रा) ५२ ५३ , २-३ ४-५ ६ ते १२ २ ते ४ अधिकार ६ वा संवरतत्व वर्णन मंगलाचरण व प्रतिज्ञा संवर लक्षण - संवराची कारणे गुप्ति वर्णन समितिचे भेद वर्णन धर्माचे दशलक्षण व त्यांचे स्वरूप क्षमाधर्म मार्दव धर्म आर्जव धर्म शौच धर्म सत्य धर्म संयम धर्म तप धर्म त्याग धर्म Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकिंचन्य धर्म ब्रह्मचर्यं धर्म धर्माचे फल संवर बावीस परिषहजय त्याचे फल तप संवर व निर्जरेचे कारण बारा अनुप्रेक्षा त्यांचे स्वरूप अनित्य भावना अशरण भावना संसार भावना एकत्व भावना अन्यत्व भावना अशुचित्व भावना आस्रव भावना संवर भावना निर्जरा भावना लोक भावना बोधि दुर्लभ भावना धर्म स्वाख्यात् तत्त्वानु चिंतन भावना भावनाचे फल संवर चारित्राचे भेद त्याचे स्वरूप तप संवराचे कारण उपसंहार ( अधिकार ७ वा ) मंगलाचरण व प्रतिज्ञा निर्जरा लक्षण व त्याचे भेद (२२) श्लोक २० २१ २२ २३ ते २६ २७ ते २८ २९ ते ४३ ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ते ५० ५१ ५२ १ पृष्ठ 31 6) "" " 37 23 १२ ܕܙ १३ 11 13 35 १४ == १५ 11 37 11 १६ ते १७ ~ = १८ ११ 31 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) श्लोक ३ ते ६ पृष्ठ १९-२० २१-२४ २३ २३ ते २४ ८ ते १४ १५ . १६ ते २० २१-२६ २७-२८ २९ ३० ते ३४ २४ २६ २८ सविपाक अविपाक निर्जरा तपाचे भेद बाह्य तपाचे भेद वर्णन अभ्यंतर तपाचे भेद वर्णन स्वाध्यायाचे भेद वर्णन प्रायश्चित्ताचे भेद वैयावत्य तप व्युत्सर्ग तप विनय तप व त्याचे भेद ध्यानाचे भेद आर्त ध्यानाचे भेद रौद्र ध्यानाचे भेद ध्यान लक्षण धर्म ध्यानाचे भेद वर्णन शुक्ल ध्यानाचे भेद गुण श्रेणी निर्जरा पाच प्रकारचे निग्रंथ मुनि उपसंहार ( अधिकार ८ वा) मंगलाचरण मोक्ष स्वरूप औपशमिक आदि भावाचा अभाव अनादि कर्मबंधानाचा अंत कसा ज्ञान दर्शन बंधाचे कारण नाही मुक्त जीवाना बंधा नाही २९ ते ४३ २९ ते ३० ४४ ते ५४ ३० ते ३२ ५५ ते ५७ ३३ ५८ ते ५९ ३७ ४० ६ ते ८ ४०-४१ ४२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) श्लोक मुक्त जीव पुन: संसारात येत नाही ११-१२ ४२-४३ सिद्ध जीवांचा परस्पर एक क्षेत्रावगाह १३-४४ मुक्तजीवांचा आकार १५--१८ ४६ मुक्त जीवाचा ऊर्ध्वगमन स्वभाव ४६ कर्माचा क्षय कसा होतो २० ते २६ ४६-४७ उर्ध्वगमनाची दृष्टांत पूर्वक सिद्धि २७ ते ३६ ४८-४९ कोणत्या कर्माच्या अभावाने कोणते गुण प्रगट होतात. ३७ ते ४० ४९-५० सिद्धातील विशेषता ४१-४४ ५० ते ५३ सिद्धांच्या सुखाचे वर्णन ४५-५४ उपसंहार ५५ ते ५७ or " 3 अधिकार ९ वा उपसंहार मोक्षमार्ग- त्याचे भेद निश्चय मोक्षमार्ग व्यवहार मोक्षमार्ग व्यवहार व निश्चर्य मोक्ष मार्गस्थ मुक्त अभेद विवक्षेत्रे षट् कारक दर्शन ज्ञान चारित्र परिणतिचा कर्ता आत्मा ८ दर्शन ज्ञान चारित्र परिणतिचे कर्म आत्मा ९ करण-आत्मा संप्रदान अपादान दर्शन ज्ञान चरित्र परिणतिचासंबंध आत्म्याशी १३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) श्लोक १४ अधिकरण आत्मा दर्शन-ज्ञान चारित्र स्वभाव आत्मा दर्शन-ज्ञान चारित्र गुणाचा आश्रय आत्मा १६ दर्शन ज्ञान चारित्र परिणतिपर्यायाचा आश्रय आत्मा दर्शन ज्ञान चारित्राचे प्रदेश आत्मा दर्शन ज्ञान अगुरुलघुगुण आत्मा दर्शन ज्ञान चारित्राचे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य २० मोक्षमार्गाचे पर्यायाथिक नयाने व द्रव्याथिक नयाने वर्णन तत्त्वार्थसार ग्रंथाचे पठन पाठन फळ अंतिम निवेदन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः॥ श्रीमद् अमृतचन्द्र आचार्य विरचित तत्त्वार्थसार मंगलाचरण जयत्यशेष तत्त्वार्थप्रकाशि प्रथितश्रियः । मोहध्वान्तौघ निर्भेदि ज्ञानज्योतिजिनैशिनः ॥ १ ॥ अर्थ- ग्रंथ प्रारंभी इष्टदेव स्तवन मंगल म्हणून ज्यांची अनंतज्ञान अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य स्वरूप, अन्तरंग लक्ष्मी व समवसरण आदिरूप बहिरंगलक्ष्मी प्रसिद्ध आहे त्या सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवंताची केवलज्ञान ज्योति या जगतावर सदासर्वकाल जयवंत राहो ही मंगलभावना सूचित केली आहे. ती ज्ञानज्योति जीव, अजीव आदि संपूर्ण तत्त्वांचे हेय-उपादेयरूपाने मार्गदर्शन करणारी आहे व जगातील सर्व भव्य जीवांचा मोहांधःकार नाश करणारी आहे. येथे इष्टदेव स्तवन म्हणून सादिसांत विशिष्ठ शक्तिरूप तीर्थंकर देवाचे नामस्मरण न करताना ज्या अनादिनिधन आत्मज्योतिने आत्मा परमात्मा वनतो ती ज्ञानज्योति जगतावर सदैव प्रकाशित राहो ही मंगल भावना सूचित केली आहे. ग्रंथ प्रतिज्ञा अथ तत्त्वार्थसारोऽयं मोक्षमार्गकदीपकः । मुमुक्षूणां हितार्थाय प्रस्पष्टमधिधीयते ॥ २ ॥ अर्थ- या श्लोकामध्ये ग्रंथकार आचार्य अमृतचन्द्रदेव ग्रंथप्रतिज्ञा सूचित करतांना म्हणतात- हा तत्त्वार्थसार नामक ग्रंथ मोक्षमार्गाचा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार मार्गदर्शक एक अद्वितीय दीपक आहे. यद्यपि हा पूर्वाचार्य प्रणीत प्रसिद्ध आहे तथापि भव्य मुमुक्षु जीवांच्या कल्याणासाठी विशद रीतीने जीवअजीव आदि सात तत्त्वामध्ये सारभूत जो कारण परमात्मा की ज्याच्या आश्रयाने आत्मा परमात्मा बनतो त्याचे वर्णन या ग्रंथात केले आहे. विषय प्रतिज्ञा स्यात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रत्रितयात्मकः । मार्गो मोक्षस्य भव्यानां युक्त्यागमसुनिश्चितः ॥ ३ ।। " अर्थ- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र या तिघांची एकता व पूर्णतास्वरूप मोक्षाचा मार्ग की जो युक्ति व आगमप्रमाण यानी निर्दोष-सुनिश्चित प्रसिद्ध आहे त्याचे वर्णन भव्यजीवांच्या कल्याणासाठी या ग्रंथात सांगितले आहे. संसार हा रोगस्वरूप आहे. ज्याप्रमाणे रोगाचा नाश होण्यासाठी रोगनाशक औषधाचे यथोचित ज्ञान - श्रद्धान व त्या औषधाचे सेवन हे तिन्ही नितांत आवश्यक असतात त्याप्रमाणे संसाररूपी रोगापासून मुक्त होण्यासाठी सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र या तिघांची एकता हा मोक्षाचा रामबाण उपाय आहे. दर्शन-ज्ञान- चारित्र हे आत्म्याचे अविनाभावी गुण आहेत. 'जशी दृष्टि तसी सृष्टि' या न्यायाने जेथे दृष्टीमध्ये समीचीनता येते तेथे ज्ञान चारित्र इत्यादि सर्व गुणांमध्ये समीचीनता येते. सम्यक्त्व घातक दर्शनमोहाचा अभाव व सम्यक्त्व चारित्र घातक अनंतानुबंधी चारित्रमोहाचा अभाव झाला असताना चवथ्या गुंणस्थानापासून सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र या तीघांची युगपत् प्राप्ती होते म्हणून मोक्षमार्गावा प्रारंभ गुणस्थान चौथ्यापासून होतो. यद्यपि चौथे गुणस्थानात व्रतसंयमरूपचारित्र नसते. म्हणून ते गुणस्थान अविरत - असंयत म्हटले जाते. तथापि तेथे सम्यग्दर्शनाबरोबर सम्वत्वाचरण चारित्र ( स्वरूपाचरण चारित्र) देखील प्राप्त होते. ' चारित्रादेव संवर: ' संवरनिर्जरारूप मोक्षमार्गांचा प्रारंभ चारित्राशिवाय होत नाही. संवर - निर्जरेचा प्रारंभ सम्यग्दर्शनाच्या प्राप्तीपासून होतो. यावरून सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गाचा प्रारंभ गुणस्थान चौथ्यापासून होतो. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार जीवाच्या वीतराग भावालाच चारित्र म्हणतात. दर्शन मोह व अनंतानुबंधीच्या अभावात वीतरागतेचा प्रारंभ चवथ्या गुणस्थानापासून होतो. स्वरूपे चरणं चारित्रं आत्मस्वरूपात रमणता यालाच चारित्र म्हणतात. आत्मस्वरूप प्रवृत्ति व विषयापासून निवृत्ति असे चारित्राचे दोन भेद आहेत. यद्यपि व्रत-संयमरूप चारित्र चवथ्या गुणस्थानात नसते तथापि स्वरूपामध्ये प्रवृत्ति आत्मानुभूतिरूप चारित्र हे सम्यग्दर्शनाशी अविनाभावी असते. सम्यग्दर्शन' ज्ञान-चारित्र हे आत्म्याचे स्वरूप आहे. रत्नत्रय धर्म आत्मधर्म आहे. आत्म्याला सोडून अन्य द्रव्यामध्ये तो आढळत नाही. म्हणून रनत्त्रय संपन्न आत्माच साक्षात् मोक्षमार्ग व तोच साक्षात् मोक्ष होय. सम्यग्दर्शनादिकाचे स्वरूप श्रद्धानं दर्शनं सम्यग्ज्ञानं स्यादवबोधनं । उपेक्षणं तु चारित्रं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितं ॥४॥ अर्थ- जीव अजीव आदि सात तत्त्वांचे हेय उपादेय रूपाने जे यथार्थ श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन. सात तत्त्वांचे हेय उपादेयरूप जे समीचीन ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान व जीव-अजीव आदि सात तत्त्वाविषयी परम उपेक्षाभाव राग-द्वेष रहित परम समताभाव वीतरागभाव त्यालाच सम्यक चारित्र म्हणतात. मोक्षशास्त्रातील 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं' या सूत्राचे मर्म स्पष्ट करताना समयसार ग्रंथात सांगितले आहे की तीर्थप्रवृत्ति निमित्त हेय उपादेय रूपाने सांगितलेल्या जीव अजीव आदि सात तत्त्वाना भूतार्थनयाने अभूतार्थ अपरमार्थ समजून याना जीवाचे परमार्थ स्वरूप न समजता हे जीवाने तावत्काल धारण केलेले टीप १- रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुयदु अण्ण दवियम्मि । तम्हा तत्तिय मइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा । (द्रव्यसंग्रह) २- भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा सपुण्णपावा य । आसव संवर-णिज्जर बंधो मोक्खोय सम्मत्तं ॥ (समयसार) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप समजून या सात तत्त्वामध्ये सदा एक अन्वयरूपाने विद्यमान असणारा जो शुद्ध-बुद्ध कारण परमात्मा त्यालाच परमार्थ समज याला सम्यग्दर्शन म्हणतात. सत्य परमार्थ परमात्म तत्त्वाचे श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन, परमात्म तत्त्वाचे ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान व परमात्म-तत्त्वा अविचल स्थिर वृत्ति ते सम्यक् चारित्र. हिताची प्राप्ति व अहिताचा परिहार यालाच चारित्र म्हणतात ते ज्ञानाचे फल आहे. क्रिया' परिणत ज्ञान तेच खरे ज्ञान म्हटले जाते. क्रिया - परिणति रहित कोरडे ज्ञान ही केवळ पोपटपंची आहे तशीच तत्त्वज्ञान रहित क्रिया ती देखील निरर्थक आहे. आंधळा व पांगळ दोघेही वनात आहेत. वनात वणवा पेटला आहे. आंधळा सैरावैरा धावतं पण त्याला मार्ग दिसत नाही. पांगळ्यास मार्ग दिसतो पण त्याल धावता येत नाही. या प्रमाणे दोघेही परस्पर एकत्र न आल्यामुळे दग्ध होतात. पण ते दोघेही एकत्र येऊन जेव्हा पांगळा आंधळयाच्या खांद्याव बसून त्याला मार्ग दाखवितो तेव्हा दोघेही शिरसलामत त्या वनदाहातू मुक्त होऊन सुखाने नगरात प्रवेश करतात. स्वार्थसार मोक्षमार्गामध्ये जशी ज्ञान व चारित्राची फार मोठी आवश्यकत आहे, त्याहीपेक्षा सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनाची फार मोठी आवश्यकता आहे ज्ञान चारित्रामध्ये समीचोनता ही समीचीन श्रद्धाना शिवाय येत नाही जीव हा शुद्ध ज्ञान स्वरूप आहे. ज्ञानामध्ये जी राग-द्वेष- मोह रू मलिनता त्याचे नाव संसार आहे. संसार = आत्मा + मलिनता. मोक्ष संसार मलिनता. ( आत्मा + मलिनता ) मोक्ष - = आत्मा मलिनता. १ - हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया । धावन् किलोधको दग्धः प्रश्यन्नपि च पंगुलः ॥ अंधश्च पंगुश्च वने प्रवृत्तौ । तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ || ( वार्तिकालंकार) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या बीजगणिताच्या समीकरण न्यायावरून अनात्माचा अभाव अर्थात् शुद्ध आत्माच मोक्ष या नावाने म्हटला जातो. या प्रमाणे रत्नत्रय स्वरूप आत्मान मोक्षमार्ग व तोच साक्षात् मोक्ष. तत्त्वार्थसार मोक्षमार्गासाठी तत्वज्ञानाची आवश्यकता श्रद्धानाधिगमोपेक्षा विषयत्वमिता द्यतः । बोध्या: प्रागेव तत्त्वार्था मोक्षमार्ग बुभुस्तुभिः ।। ५ ।। अर्थ- मोक्षमार्ग कोणता आहे हे जाणण्याची ज्याना इच्छा आहे अशा मुमुक्षु भव्य जीवानी सर्व प्रथम मोक्षमार्गस्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र यांचे विषयभूत जीव-अजीव आदि सात तत्त्वार्थ सर्व प्रथम जाणून घेतले पाहिजेत: v सात तत्त्वांची नांवे जीवोऽजीवास्रवौ बंधः संवरो निर्जरा तथा । मोक्षश्च सप्त तत्त्वार्था मोक्षमार्गे षिणामिमे || ६ || अर्थ - मोक्षमार्गाचा इच्छुक भव्य मुमुक्षु जीवाने १ ) जीव २) अजीव ३) आस्रव ४ ) बंध ५ ) संवर ६ ) निर्जरा ७) मोक्ष ही सात तत्त्वे सर्व प्रथम जाणून घेणे आवश्यक आहे. यद्यपि हे सात भेद जीव व कर्म यांच्या संयोगात होणारी रूपे आहेत तथापि या मध्ये दोनच मूल तत्त्वे आहेत. एक जीव तत्त्व व एक अजीव तत्त्व. येथे अजीवतत्त्व म्हणून प्रामुख्याने कर्म - नोकर्मरूप पुद्गलद्रव्य व त्यांच्या संयोगात होणारे जीवाचे राग-द्वेष - मोहरूप विभाव परिणाम याना 3. जीव तत्त्व म्हटले आहे. धर्म-अधर्म आकाश-काल व इतर पुद्गलद्रव्य यांचा जीवाशी साक्षात संबंध नाही. ते सर्व ज्ञेय आहेत. हेय नाहीत किंवा उपादेय नाहीत. व्यवहारनयाने कर्म नोकर्मरूप पुद्गलद्रव्याचा जीवाशी बंध होतो म्हणून त्याला हेयतत्त्व म्हटले आहे. वास्तविक अशुद्धनिश्चयनयाने जीवाचे रागद्वेष मोहरूप अचेतन परिणाम यानाच येथे हेयरूप अजीवत्त्तव म्हटले आहे. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार 'नव-तत्त्व गमत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति' या आगमवचनावरून एक अशुद्ध जीवच कर्म-नोकर्माच्या संयोगात ही नवरूपे धारण करतो. म्हणून कर्म-नोकर्माच्या संयोग व वियोगात जीवाने तावत्काल धारण केलेली ही रूपे जीवाचे परमार्थ स्वरूप नाही. याना परभाव-परसमय अत एव हेय मानून ही नवतत्त्वे धारण करणारा या नवतत्त्वात अन्वयरूपाने सदा विद्यमान असणारा जो कारण परमात्मा तोच जीवाला उपादेय आहे. असे जे जीव-अजीव तत्त्वाचे, आत्म-अनात्मतत्त्वाचे हेयउपादेय रूपाने यथार्थ श्रद्धान त्याला तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन म्हटले आहे. अध्यात्मदृष्टीने कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल द्रव्यदेखील जीवाला केवळ ज्ञेयच आहे. हेय किंवा उपादेय नाही. कर्माचा बंध किंवा क्षय हे जीवाचे कार्य नाही. जीव त्याचा कर्ता नाही. (अन्वय-व्यतिरकगम्यो हि कार्य-कारण भाव:) ज्याचा ज्याचेशी अन्वय-व्यतिरेक असतो त्या दोहोमध्ये कर्ता-कर्मभाव, कार्य-कारणभाव' मानला आहे. अन्वय-व्यतिरेक रूप व्याप्ति एकाच द्रव्याच्या जीवाच्या दोन विभावपरिणामामध्ये मानली आहे. जीवाचा पूर्वपरिणाम कारणरूप असतो व उत्तर परिणाम त्याचे कार्य असतो. त्यामुळे कार्य-कारण भावामध्ये नियत क्रमबद्ध व्यवस्था सुव्यवस्थित आहे. क्रमबद्धपर्यायकाल अक्रम-मागे पुढे कदापि होत नाही. ज्या द्रव्याचा जो परिणाम नियत कारणरूप असतो अशी वस्तुव्यवस्था नियम क्रमबद्ध आहे. जे ज्या द्रव्याचे जन्म किंवा मरण, सुख, दुःख जेथे ज्या कारणाने ज्या प्रकाराने ज्या देशामध्ये ज्या कालामध्ये नियत आहे तेच केवलीभगवंताच्या ज्ञानात झळकते. ते तेथे त्याच कारणाने त्या देश-कालामध्ये टीप- १ व्याप्य व्यापकता तदात्मनि भवेत् नैवातदात्मन्यपि । व्याप्य- व्यापकभाव संभवमते का कर्त-कर्म स्थितिः । २ जं जस्स जेण जत्थ वि जेण विहाणेण जम्मि देसम्मि । णादं जिणेण णियदं जम्म वा अहव मरणं वा ।। १॥ तं तस्स तेण तत्थ वि तेण विहाणेण तम्मि देसम्म । णो सक्कदि वारेदं इंदो वा तह जिणिदो वा । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार नियमाने अवश्य होते. त्याला मागे पुढे अक्रम-अनियत करण्याचे सामर्थ्य जगातील कोणत्याही शक्तिशाली देवेंद्र किंवा जिनेंद्रामध्ये देखील नाहीं अशी वस्तुव्यवस्था नियतक्रमबद्ध सुव्यवस्थित आहे. 'समानशीलव्यसनेषु सख्यं ' या न्यायाने जीव स्वयं आपल्या अपराधदोषाने अज्ञान भावाने जेव्हा राग, द्वेष, मोह भावाने परिणत होतो तेव्हा त्याचा पूर्व पुद्गलकर्म नोकर्माशी बंध होतो. मूळ कर्म नोकर्माशी बद्ध झालेल्या जीवाला अमूर्तजीव न म्हणता मूर्त-अचेतन अजीवतत्त्व म्हटले आहे. प्रामुख्याने त्याला येथे अजिवतत्त्व हेयतत्त्व म्हटले आहे. या जीव अजीवतत्त्वाचा विस्तार आस्रवादि पाच तत्त्वे आहेत. सात तत्त्वाचे हेय-उपादेयरूप विज्ञान उपादेयतया जीवो ऽ जीवो हेयतयोदितः । हेयस्यास्मिन्नुपादान हेतुत्वेनास्त्रवः स्मृतः ॥७॥ हेयोपादानरूपेण बन्धः स परिकीर्तितः । संवरो निर्जरा हेय-हानहेतुतयोदितौ ॥ हेयप्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दशितः ॥८॥ (षट्पद) अर्थ- जीवतत्त्वाला उपादेय तत्त्व म्हटले आहे. अजीवतत्त्वाला हेय तत्त्व म्हटले आहे. हेयरूा अजीवनत्त्वाचे ग्रहण (बंध) ज्या कारणाने होतो त्यास आस्रवतत्त्व म्हणतात. हेयरूप अजीवतत्त्वाचे (उपादान) ग्रहण संक्लेषरूप एकक्षेत्रावगाह संबंध त्याला बंधतत्त्व म्हणतात. हेयरूप अजीवतत्त्वाची ज्या कारणाने हानि-नाश-क्षय होतो त्या कारणास संवर व निर्जरा म्हणतात हेयरूप अजीव तत्त्वाचा जीवापासून पूर्णपणे नाश होणे याला मोक्ष म्हणतात. या श्लोकामध्ये जीव-अजीव आदि तत्त्वाचे हेय- उपादेय विज्ञान कसे करावे व ते का करावे याचे मार्मिक वर्णन केले आहे. १ आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खा सपुण्ण पावा जे । जीवाजीव विसेसा ते वि समासेण पभणामो॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार जीवाची शुद्ध चेतनारूप ज्ञान-दर्शनरूप परिणति हीच जीवाला सर्वथा उपादेय आहे. प्रश्न- येथे शिष्य प्रश्न करतो की, जर जीवत्त्व सर्वथा उपादेय आहे असे मानले तर मिथ्यादृष्टीचे जीवत्त्वही उपादेय मानण्याचा प्रसंग येईल. उत्तर- या प्रश्नाचे उत्तर धवलाकार आचार्य वीरस्वामीनी दिले आहे की, मिथ्यादृष्टीचे मिथ्यात्व अमंगल असेल ते उपादेय ठरणार नाही पण त्यामध्ये असणारे जे जीवत्व ते तर सदा मंगलरूप उपादेय आहे. अजीव तत्त्वाला सर्वथा हेय म्हटले आहे. व्यवहार नयाने कर्म-नोकर्म रूप अजीव तत्त्वाचा संयोग संसार दुःखाचे कारण असल्यामुळे त्याला हेय म्हटले आहे. पण वास्तविक निश्चयाने कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलद्रव्यदेखील जीवाला हेय किंवा उपादेय नाही. अध्यात्मदृष्टीने ज्या परद्रव्याचे हा जीव ग्रहणच करू शकत नाही त्याचा त्याग तरी कसा करणार? म्हणून येथे प्रामुख्याने कर्म-नोकर्माच्या संयोगात होणारे जीवाचे जे राग द्वेषादि विकारभाव त्याला अचेतन भाव-अनात्मभाव अजीवतत्त्व म्हणन त्याला हेय म्हटले आहे. प्रथम विकार भावाचा त्याग झाल्याशिवाय कर्म नोकर्माचा अभाव होऊ शकत नाही. शास्त्रामध्ये देखील कर्मबंध जीवाला मूर्त म्हटले आहे. ' समानशीलव्यसनेषु सख्यं ' जीव जेव्हा आपला जीवपणा सोडून भावरूपाने राग-द्वेषादिरूप अचेतनभाव धारण करतो तेव्हा त्याचे कर्म-नोकर्माशी सख्य होते, बंध होतो. म्हणून येथे प्रामुख्याने जीवाची अचेतन भावरूप परिणति तिला अजीव तत्त्व म्हणून हेय म्हटले आहे. जे हा हा जीव अजीवतत्त्वरूप परिणति करतो तेव्हा याचे भाव आस्रव-भाव बंधरूप परिणाम होतात. म्हणून आस्रव-बंध हा अजीवतत्त्वाचा विशेष विस्तार आहे अत एव तो हेय आहे. जेव्हा हा जीव आपल्या जीवत्त्व रूपाने रत्नमयधर्म रूपाने परिणति करतो तेव्हा जीवाचे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार भावसंवर-भावनिर्जरा-भावमोक्ष रूप परिणाम होतात. म्हणून संबरनिर्जरा-मोक्ष हा जीवतत्त्वाचा विशेष विस्तार म्हटला जातो. यामुळे हेय रूप अजीवतत्त्वाचा अभाव होतो म्हणून संवर-निर्जरा-मोक्ष याला उपादेय म्हटले आहे. वास्तविक अध्यात्मशास्त्रामध्ये ही सातही तत्त्वे जीवाने तावत्काल धारण केलेली रूपे आहेत. त्याना परमार्थ उपादेय समजणे याचे नाव सम्यग्दर्शन नसून या सात तत्त्वामध्ये अन्वयरूपाने राहणारा जो एक कारण परमात्मा तोच या जीवाला सर्वथा उपादेय आश्रय करण्या योग्य आहे. याच्या आश्रयाने अजीव-आस्रव-बंधाचा अभाव होऊन क्रमाने संवर-निर्जरा मोक्षाची प्राप्ति होऊन आत्मा आपल्या कारण परमात्म स्वरूपात अविचल स्थिर होतो. या सात तत्त्वाचा वाक्प्रयोग किती प्रकाराने होतो तत्त्वार्थाः रवल्वामी नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतः । न्यस्यमाना नयादेशात प्रत्येकं स्युश्चतुर्विधाः ॥ ९ ॥ । अर्थ- या जीव-अजीवादि सात तत्त्वाचे कथन नयादेशाने चार प्रकारच्या भेदन्यास रूपाने केले जातं. त्यामुळे या प्रत्येकाचे चार चार भेद होतात. जसे- १ नामजीव २ स्थापनाजीव ३ द्रव्यजीव ४ भावजीव. शास्त्रामध्ये कोणत्या ठिकाणी कोणते कथन कोणत्या नय-निक्षेपाने आहे हे जाणून घेतल्या शिवाय शास्त्राचा खरा अभिप्राय समजत नाही. म्हणून येथे निक्षेपाचे वर्णन केले आहे. निक्षेपाचे ४ भेद आहेत. १ नामनिक्षेप २ स्थापना निक्षेप ३ द्रव्यनिक्षेप ४ भावनिक्षेप . नामनिक्षेपाचे स्वरूप या निमित्तान्तरं किंचिदनपेक्ष्य विधीयते । द्रव्यस्य कस्यचित् संज्ञा तन्नाम परिकीर्तितं ।।१०।। अर्थ- जाति, गुण, क्रिया इत्यादि कोणत्याही अन्य निमित्ताची अपेक्षा न करता केवळ लोकव्यवहार चालण्यासाठी वस्तूचा ज्या नावाने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार संकेत केला जातो तो नामनिक्षेप होय. जसे एकाद्या मुलाचे नाव महावीर ठेवणे. स्थापना निक्षेप सोऽयमित्यक्षकाष्ठादौ संबंधेनान्यवस्तुतः । यद् व्यवस्थापनामात्र स्थापना साऽभिधीयते ॥११॥ अर्थ- आकार, गुण, क्रिया आदि सादृश्य संबंधावरून अन्यवस्तूचा अन्यवस्तूमध्ये ‘तो हा आहे' अशी कल्पनामात्र करणे यास स्थापनानिक्षेप म्हणतात. जसे बुद्धिबळातील प्यादे या मध्ये घोडा, हत्ती, उंट इत्यादि कल्पना करणे, माती, लाकडाच्या चित्रामध्ये हा बैल आहे, हा घोडा आहे अशी कल्पना करणे तो स्थापनानिक्षेप होय. याचे दोन भेद आहेत. १) तदाकार स्थापना- महावीराच्या मूर्तीमध्ये महावीराची स्थापना करणे. २) अतदाकार स्थापना- तांदळाचे स्वस्तिक काढून त्यात भगवंताची स्थापना करणे. द्रव्यनिक्षेप भाविनः परिणामस्य यत् प्राप्ति प्रति कस्यचित् । स्याद् गृहीताभिमुख्यं हि तद् द्रव्यं ब्रुवते जिनाः ॥१२॥ अर्थ- भावी पर्यायरूपाने परिणमनास उन्मुख अशा द्रव्याला त्या पर्यायमुखाने ग्रहण करणे तो द्रव्यनिक्षेप होय. जसे राजपुत्राला राजा म्हणणे अथवा राज्यभ्रष्ट पुरुषाला राजा म्हणणे. भावनिक्षेप वर्तमानेन यत्नेन पर्यायेणोपलक्षितं । द्रव्यं भवति भावं तं वदन्ति जिनपुंगवाः ॥१३॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अर्थ- वर्तमान पर्यायाने युक्त द्रव्याला त्या पर्यायमुखाने ग्रहण करणे तो भावनिक्षेप होय. जसे राज्यपदावर आरूढ असलेल्यास राजा म्ह गणे. नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप या मध्ये कालवाचक भेद अपेक्षित नसतो म्हणून या तीन निक्षेपात द्रव्याथिकनयाची प्रधानता असते. भाव निक्षेपात वर्तमानपर्यायविशिष्ट द्रव्याची प्रधानता असते तेव्हा तो द्रव्याथिकनयाचा विषय असतो. जेव्हा पर्यायाची प्रधानता असते तेव्हा तो पर्यायाथिकनयाचा विषय असतो. 'अप्रकृत (अविवक्षित) चे निवारण करून प्रकृत (विवक्षित)चे प्ररूपण करण्यासाठी वक्ता व श्रोता याना कोणताही संदेह राहू नये यासाठी हे निक्षेपज्ञान आवश्यक आहे. प्रत्येक वाक्प्रयोग हा निक्षेपपूर्वक, विवक्षित अभिप्रायपूर्वक असतो. निक्षेपरूप विवक्षित अभिप्राय समजल्याशिवाय आगमव वनाचा खरा अभिप्राय लक्षात येत नाही. तत्त्वार्थ जाणण्याचा उपाय तत्त्वार्थानः सर्व एवैते सम्यक्बोधप्रसिद्धये । प्रमाणेन प्रमीयन्ते नीयन्त च नयस्तथा ॥१४॥ अर्थ- जीव अजीव आदि तत्त्वार्थाचे हेय उपादेय स्वरूप यथार्थ जाणण्यासाठी प्रमाण-नय-निक्षेप हे उपाय आहेत. प्रमाणाने वस्तूच्या सर्व अंशाचे यथार्थ ज्ञान होते. या प्रमाणाने जाणलेल्या वस्तूचे नामादि निक्षेप विवक्षापूर्वक एक एक अंशाचे ग्रहण करणे किंवा कथन करणे ते नयज्ञान-अंशज्ञान होय. हे नयज्ञान स्यात पदाने अंकित असल्यामळे वस्तूचे विवक्षित एक अंश मखाने कथन किंवा ग्रहण करते तथापि त्यामध्ये वस्तूच्या अन्य अविवक्षित अंशाची मान्यता गौण रूपाने अभिप्रेत असते म्हणून हे नयज्ञान जरी एकांश-एकांत धर्म कथन असते तरी तो सम्यक एकांत म्हटला जातो. कारण त्यामध्ये दुसया नयाने वस्तूच्या दुसऱ्या अंशधर्माची मान्यता अभिप्रेत असते. टोप-१ अप्रकृतनिवारणार्थ, प्रकृतनिरूपणार्थ, संदेहव्यभिचारनिवृत्यर्थं च निक्षेपः अधिक्रियते। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ तत्त्वार्थसार प्रमाण लक्षण व त्याचे भेद सम्यग्ज्ञानात्माकं तत्र प्रमाणमुपवर्णितं । तत्परोक्षं भवत्येकं प्रत्यक्षमपरं पुनः ।।१५।। अर्थ- वस्तूच्या संपूर्ण अंशाचे जे समीचीन यथार्थज्ञान ते प्रमाणज्ञान होय. प्रमाणाचे २ भेद आहेत. १ प्रत्यक्ष २ परोक्ष. _परोक्ष प्रमाण लक्षण समुपात्तानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत् ।। पदार्थानां परिज्ञानं तत् परोक्षमुदाहृतं ॥१६॥ अर्थ- उपात्त शरीराशी संबद्ध अशी इंद्रिये व अनुपात्त, असंबद्ध बाह्य आलोकादि परनिमित्ताचे प्राधान्य मुख्यता घेऊन जे पदार्थाचे ज्ञान ते परोक्षप्रमाण म्हटले गेले आहे. अक्ष म्हणजे आत्मा. त्याहून पर भिन्न जे उपात्तनिमित्त इंद्रियादि व अनुपातनिमित्त इतर बाह्य निमित्त आलोक आदि त्यांचे प्राधान्य घेऊन जे रूपी पदार्थाचे ज्ञान ते परोक्षज्ञान होय. किंवा अक्ष म्हणजे इंद्रिय. जे ज्ञान अन्यइंद्रिय आलोक आदि वाह्य निमित्ताची अपेक्षा सहाय्य घेऊन होते त्यास परोक्ष म्हणतात. वास्तविक ज्ञानाचा स्वभाव ज्ञेय पदार्थाला प्रत्यक्ष साक्षात् परनिमित्ताचे सहाय्य न घेता जाणणे हा आहे. परंतु अनादि काळापासून या जीवास आपल्या स्वभावाचे भान नाही. त्या मुळे त्याचे ज्ञान पराधीन होऊन इंद्रियादि उपात्त साधन व प्रकाश आदि अनुपात्त साधन परनिमित्त यांची अपेक्षा ठेवून प्रामुख्याने परनिमित्ताच्या माध्यमातून रूपी पदार्थाला जाणते म्हणून या ज्ञानास परोक्षज्ञान म्हटले आहे. वास्तविक ज्ञानाचा स्वभाव रूपी-अरूपी सर्व पदार्थाना युगपत जाणणे आहे. परंतु हे इंद्रियाधीन पराधीन परोक्षज्ञान इंद्रियाचे विषयरूपी मूर्तिक पदार्थच असल्यामुळे केवळ रुपी पदार्थाना व जाणते. तसेच ज्ञानाचा स्वभाव पदार्थाला विशद-स्पष्ट जाणणे हा आहे. परंतु हे परोक्षज्ञान इंद्रियाच्या माध्यमातून होत असल्यामुळे पदार्थाला अविशद अस्पष्ट जाणते. . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार आपण व्यवहारामध्ये मी डोळ्याने स्पष्ट पाहिले. कानाने स्पष्ट ऐकले. हाताने स्पष्ट स्पर्शज्ञान केले. जिभेने पदार्थाचा स्पष्ट स्वाद घेतला. नाकाने स्पष्ट वास घेतला असे म्हणतो पण वास्तविक ते सर्व ज्ञान स्पष्ट नसून अविशद-अस्पष्ट असते. त्या इंद्रिय ज्ञानाला सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष म्हटले आहे. अर्थात् व्यवहारात स्पष्ट म्हटले जाते. पण वास्तविक ते स्पष्ट विशद-निर्मल नसते. ज्याप्रमाणे ज्याची दृष्टी कमी झाली आहे त्याला चष्मा लागतो. चष्मा लावल्या शिवाय त्याला दिसत नाही. चष्म्याने स्पष्ट दिसते असे आपण म्हणतो परंतु चष्मा न लावता डोळयाने जसे स्पष्ट दिसते, तसे चष्मा लावून स्पष्ट दिसत नाही. थोडे अस्पष्ट अंधक दिसते. तसेच हे इंद्रियाधीन परोक्षज्ञान प्रत्यक्षज्ञानापेक्षा अस्पष्ट-अंधुक असते म्हणून इंद्रियज्ञानाला अविशद-अस्पष्ट-परोक्ष असे नाव दिले आहे. वास्तविक ज्ञानाचा स्वभाव जाणणे मात्र आहे. ज्ञानप्रकाशरूपी दर्पणात संपूर्ण ज्ञेय पदार्थ स्वयं प्रतिबिंबित होतात. सर्व पदार्थास जाणण्यासाठी ज्ञानाला आपला उपयोग परपदार्थाकडे द्यावा लागत नाही. ज्ञानाने आपला उपयोग आपल्या ज्ञानदर्पणाकडे लावला की त्यात लोकअलोकातील सर्व पदार्थ युगपत् स्वयं प्रतिबिंबित होतात. वास्तविक निश्चयनयाने केवली भगवान आत्मज्ञ असतात. त्यांच्या आत्मज्ञानदर्पणात सर्व ज्ञेय पदार्थ स्वयं प्रतिबिंबित होतात म्हणून आपण व्यवहार नय ने त्याना सर्वज्ञ म्हणतो. पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्रमाण इंद्रियानिद्रियापेक्षामुक्तमव्यभिचारि च । साकारग्रहणं यत् स्यात् तत् प्रत्यक्ष प्रचक्ष्यते ॥१७॥ अर्थ- जे ज्ञान इंद्रिय व अनिद्रिय मन यांच्या अपेक्षेने रहित आत्मस्वभावाने होते, ज्यामध्ये कोणताही व्यभिचार दोष येत नाही असे जे पदार्थाचे, रूपी अरूपी पदार्थाचे जे साकार-सविकल्प व्यवसायात्मक, निश्चयात्मक स्पष्ट विशद ग्रहण ते पारमाथिक प्रत्यक्षज्ञान म्हटले जाते. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार सम्यग्ज्ञानाचे स्वरूप व भेद सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थव्यवसायात्मकं विदुः । मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययकेवलं ॥१८॥ - अर्थ- ' स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं ' न्यायशास्त्रामध्ये प्रमाणाचे लक्षण सांगताना सम्यग्ज्ञानाला प्रमाण म्हटले आहे.ते ज्ञान प्रथम स्वव्यवसायात्मक असते. अर्थात् ज्ञानाला 'अहं जानामि' रूप स्वव्यवसाय (दर्शन) प्रथम होतो. त्यालाच दर्शन म्हणतात. दर्शनपूर्वक स्वव्यवसायपूर्वक अर्थव्यवसाय होतो त्यास ज्ञान म्हणतात. दर्शन (स्वव्यवसाय) झाल्याशिवाय ज्ञान ( अर्थव्यवसाय ) होत नाही. अस्वसंवेदनज्ञानवादी ( स्वात्मनि क्रियाविरोधात् ) आपली क्रिया आपणावर होत नाही या न्यायाने ज्ञान स्वतःला जाणत नाही असे मानतात. त्या मताचे खंडन करण्यासाठी ज्ञानाचे लक्षण स्वव्यवसाय मानले आहे. जे ज्ञान स्वला जाणत नाही ते ज्ञान पराला देखील जाणू शकत नाही. प्रत्येक पदार्थाला जाणताना प्रथम स्वव्यवसाय होतो. प्रथम दर्शन होते नंतर अर्थव्यवसायरूप ज्ञान होते. जे विज्ञानाद्वैतवादी जगामध्ये केवळ एक ज्ञानपदार्थच मानतात, ज्ञानाला सोडून दुसरा ज्ञेय पदार्थ वेगळा नाही असे मानतात त्यांचे खंडन करण्यासाठी अर्थव्यवसाय हे ज्ञानाचे लक्षण सांगितले. जगात ज्ञेय पदार्थ जीव-अजीव (पुद्गल-धर्म-अधर्म-आकाश-काल) हे अन्य पदार्थ सत्रूप आहेत. म्हणून अर्थव्यवसायाला ज्ञान म्हटले. जे ज्ञानाला निर्विकल्प-व्यवसायात्मक निश्चयात्मक मानत नाहीत अशा मीमांसकमताचे खंडन करण्यासाठी ज्ञानाचे लक्षण व्यवसायात्मक निश्चयात्मक मानले आहे. याप्रमाणे जे स्व व पररूप ज्ञेय पदार्थ यांचे व्यवसायात्मक निश्चयात्मक यथार्थ समीचीन ज्ञान त्याला प्रमाणज्ञान म्हणतात. प्रमाणज्ञानाचे ५ भेद आहेत. १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्ययज्ञान, ५ केवलज्ञान. टीप- १ को वा तत्प्रतिभासिनं अर्थ अध्यस्तं इच्छन् तदेव तथा न इच्छेत? ___ (परीक्षामुख) २ स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकत्वायोगात् । (परीक्षामुख) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार मतिज्ञानाचे प्रकार स्वसंवेदनमक्षोत्थं विज्ञानं स्मरणं तथा । प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा ॥१९॥ बुद्धि-मेधादयो याश्च मतिज्ञानाभिदा हिताः । इन्द्रियानिन्द्रियेभ्यश्च मतिज्ञानं प्रवर्तते ॥२०॥ अर्थ- १) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, २) इंद्रिय प्रत्यक्ष, ३) स्मृति ४) प्रत्यभिज्ञान, ५) तर्क, ६) अनुमान (स्वार्थानुमान, परार्थानुमान) बुद्धि-मेधा इत्यादिक मतिज्ञानाचे अनेक भेद आहेत. १) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष- मी सुखी, मी दुःखी इत्यादि रूपाने ज्ञानाला स्वतःचे जे ज्ञान एकेंद्रियापासून सर्वजीवाना 'अहंप्रत्यय ' रूप स्वसंवेदनरूप ज्ञान होते त्याला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष म्हटले आहे. याला अंतरंगप्रत्यक्ष म्हणतात. स्वसंवेदन स्वव्यवसाय हे ज्ञानाचे वास्तविक मूळ लक्षण आहे. जे पुद्गल आदि अचेतन पदार्थ आहेत त्याना अहंप्रत्यय रूप स्वसंवेदन होत नाही म्हणून पदार्थाचे देखील ज्ञान होत नाही. ज्या प्रमाणे दीपकाचा स्वभाव स्वप्रकाशस्वरूप आहे, त्याच्या स्वप्रकाशात परप्रकाश्य पदार्थ स्वयं प्रतिभासित होतात म्हणून आपण दीपकाला स्व-परप्रकाशक म्हणतो. वास्तविक परप्रकाश करणे हा दीपकाचा स्वभाव नाही. ते दीपकाचे मुख्य कार्य-प्रयोजन नाही. त्याच प्रमाणे ज्ञानाचा स्वभाव वास्तविक स्वप्रकाश स्वरूप आहे. स्वव्यवसाय हे ज्ञानाचे मुख्य प्रयोजन कार्य आहे. त्याच्या स्वव्यवसायरूप दर्पणात ज्ञेय परपदार्थाचा प्रकाश स्वयं प्रतिबिंबित होतो म्हणून ज्ञानाला स्व-परप्रकाशक म्हटले जाते. २) इंद्रियप्रत्यक्ष- स्वसंवेदनप्रत्यक्ष पूर्वक यथासंभव इंद्रिय व मन यांच्या सहायाने जीवाला ज्ञेय पदार्थाचे जे ज्ञान होते त्याला इंद्रियप्रत्यक्ष म्हणतात. हे इंद्रियप्रत्यक्षज्ञान इतर स्मृति, प्रत्यभिज्ञानअनुमान इ. परोक्ष ज्ञानाच्या अपेक्षेने स्पष्ट असते म्हणून व्यवहारात या ज्ञानाला सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष म्हणतात. वास्तविक हे ज्ञान पराच्या Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तत्त्वार्थसार इंद्रियाच्या सहायाने होते, इंद्रियाचे विषय जे पदार्थाचे स्पर्श-रस-गंध वर्णरूप स्थूल विषय त्यालाच जाणते म्हणून या ज्ञानाला परोक्ष म्हटले. स्वसंवेदन ज्ञानाला अंतरंग प्रत्यक्ष व या इंद्रियप्रत्यक्ष ज्ञानाला व्यवहार प्रत्यक्ष-बाह्यप्रत्यक्ष म्हटले आहे. या इंद्रियप्रत्यक्ष ज्ञानाने पदार्थाच्या स्पर्शादि विषयाचे कथंचित् स्पष्ट ज्ञान होते म्हणून शास्त्रामध्ये या स्वसंवेदन प्रत्यक्ष व इंद्रियप्रत्यक्ष ज्ञानाला 'अनुभव' असे म्हटले आहे. ३) स्मृति- (अनुभूतस्मरणं स्मृतिः) स्वसंवेदन प्रत्यक्षपूर्वक इंद्रियप्रत्यक्षाने जाणलेल्या पदार्थाचे कालांतराने स्मरण होणे यांस स्मृतिज्ञान म्हणतात. ४) प्रत्यभिज्ञान- (अनुभव-स्मृतिहेतुकं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानं) पूर्व अनुभव (इंद्रियप्रत्यक्ष) व स्मृति रूप परोक्ष ज्ञान यांचा परस्पर सदृश-विसदृश एक-अनेक इ. रूप संकलनात्मक जोडरूप संबंध दाखविणाऱ्या ज्ञानाला प्रत्यभिज्ञान म्हणतात. जसे- हा तोच आहे तसाच आहे. हा तो नाही-तसा नाही. हा लहान आहे, हा मोठा आहे. ५) तर्क- (व्याप्तिज्ञानं ऊहः) कार्य-कारण किंवा व्याप्य-व्यापक यामध्ये असणाऱ्या अविनाभाव संबंधाला व्याप्ति म्हणतात. व्याप्तिज्ञानाला तर्क किंवा ऊहज्ञान म्हणतात. कारण हे आपल्या सर्व कार्यामध्ये व्यापक असते. कार्य व्याप्य असते. कारणाच्या व्यापकाच्या सद्भावात कार्याचा व्याप्याचा सदभाव असणे ही अन्वयव्याप्ति, कारणाच्या अभावात कार्याचा अभाव असणे ही व्यतिरेक व्याप्ति, व्याप्तीला अविनाभाव असे म्हणतात. ( संकलोपसंहारवती व्याप्तिः ) अनेक अनुभव-स्मरण प्रत्यभिज्ञानपूर्वक कारण-कार्याच्या अविनाभाव-संबंधाचे ज्ञान यास तर्कज्ञान म्हणतात. ६) अनुमान- (लिंगात् लिगिविज्ञानं अनुमानं) तर्कज्ञान पूर्वक(कारण किंवा कार्यरूप) लिंगावरुन लिंगीचे (कारण किंवा कार्यरूपसाध्याचे) ज्ञान ते अनुमान ज्ञान होय. जसे कार्यरूप धूम लिंगावरुन कारणरूपलिंगीचे अग्नीचे ज्ञान होणे ते अनुमान ज्ञान होय. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार ( साधनात् साध्यविज्ञानं अनुमानं ) साधनरूप लिंगावरून साध्यरूप लिंगीचे ज्ञान ते अनुमान ज्ञान होय. याप्रमाणे स्मृति - प्रत्यभिज्ञान-तर्कअनुमान ही सर्व परोक्षज्ञाने मतिज्ञानाचेच प्रकार आहेत. ही सर्व ज्ञाने पूर्वज्ञानपूर्वक होतात. म्हणून त्याना परोक्षज्ञान म्हणतात, ( ज्ञानान्तर हेतुकं परोक्षं ) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष किंवा इंद्रियप्रत्यक्ष हे अन्य ज्ञानांतर पूर्वक नाहीत म्हणून याला प्रत्यक्ष म्हटले आहे. पण स्मृतिज्ञान हे धारणानुभव हेतुक आहे, प्रत्यभिज्ञान हे अनुभव स्मृतिहेतुक आहे. तर्कज्ञान अनुभव - स्मृति- प्रत्याभिज्ञानपूर्वक आहे. अनुमानज्ञान तर्कज्ञानपूर्वक आहे. याप्रमाणे ही ज्ञाने अन्यज्ञान सापेक्ष असतात म्हणून याना परोक्षज्ञान म्हटले आहे. मतिज्ञान हे इंद्रिय व मन यांच्या सहायाने होते म्हणून यास परोक्षज्ञान म्हटले आहे. असंज्ञी जीवाना यथायोग्य जी इंद्रिये असतील त्या इंद्रियांच्या सहायाने ज्ञान होते. संज्ञी जीवाना इंद्रिय व मनःपूर्वक ज्ञान होते. मतिज्ञानाचे भेद अवग्रहस्ततस्त्वोहा ततोऽवायोऽथ धारणा । बहोर्बहुविधस्यापि क्षिप्रस्थानिःसृतस्य च ॥२१॥ अनुक्तस्य ध्रुवस्यातः सेतराणां तु ते मताः । व्यक्तस्यार्थस्य विज्ञेयाश्चत्वारो ऽवग्रहादयः || २२|| व्यञ्जनस्य तु नेहाद्या एक एव हयवग्रहः । अप्राप्यकारिणी चक्षुर्मनसी परिवर्ज्य सः ॥ २३ ॥ चतुभिरिन्द्रियैरन्यैः क्रियते प्राप्यकारिभिः । अर्थ - मतिज्ञानाचे चार भेद आहेत. १) अवग्रह २ ) ईहा ३) अवाय ४ ) धारणा. इंद्रिय व पदार्थ आपापल्या योग्य ठिकाणी असताना प्रथम सामान्य प्रतिभासस्वरूप ( महासत्तारूप ) स्वव्यवसाय लक्षण दर्शन होते. त्यानंतर पदार्थाचे अवांतर सत्ताविशेषरूप जे प्रथम ग्रहण त्याला अवग्रहज्ञान म्हणतात. अवग्रहाचे २ भेद आहेत. १) व्यंजनावग्रह २ अर्थावग्रह. १७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार १ अव्यक्त- अस्पष्ट पदार्थाच्या अवग्रहाला व्यंजनावग्रह म्हणतात. २ व्यक्त स्पष्ट अवग्रहाला अर्थावग्रह म्हणतात. चक्षु व मन यानी अर्थावग्रह होतो. व्यंजनावग्रह होत नाही. बाकीच्या चार इंद्रियांनी प्रथम अस्पष्टरूप व्यंजनावग्रह होतो. नंतर स्पष्टरूप अर्थावग्रह होतो. व्यंजनावग्रह झाल्याशिवाय अर्थावग्रह होत नाही. अर्थावग्रह झाल्याशिवाय पुढील ईहादिक ज्ञाने होत नाहीत. ___ अवग्रहादि ज्ञानाचे विषयभूत पदार्थाच्या अपेक्षेने १२ भेद आहेत. १) बहु, २) बहुविध, ३) क्षिप्र, ४) अनिसृत, ५) अनुक्त, ६) अध्रुव यांचे प्रतिपक्षभूत ७) एक, ८) एकविध, ९) अक्षिप्र, १०) निःसृत, ११) उक्त १२) ध्रुव.. १) एक-एक पदार्थाच्या ज्ञानाला एकावग्रह म्हणतात. २) बहु-अनेक पदार्थाच्या ज्ञानाला अनेकावग्रह म्हणतात. ३) एकविध-एकप्रकारच्या अनेक पदार्थांच्या ज्ञानाला एकविध अवग्रह म्हणतात. ४) बहुविध-अनेक प्रकारच्या अनेक पदार्थांच्या ज्ञानाला बहुविध अवग्रह म्हणतात. ५) क्षिप्र-बाणाप्रमाणे वेगवान पदार्थांच्या ज्ञानाला किंवा जलद होणाऱ्या ज्ञानाला क्षिप्रावग्रह म्हणतात. ६) अक्षिप्र-अक्षिप्र-मंद वेगवान पदार्थांच्या ज्ञानाला किंवा मंदगतीने होणाऱ्या ज्ञानाला अक्षिप्र अवग्रह म्हणतात. ७) निःसृत-बाहेर स्पष्ट दिसणान्या पदार्थांच्या ज्ञानाला नि:मृत अवग्रह म्हणतात. ८) अनिःसृत-बाहेर स्पष्ट न दिसणा-या पदार्थांच्या ज्ञानाला अनि:सृत अवग्रह म्हणतात. ९) उक्त-दुसऱ्याने सांगितलेल्या पदार्थांच्या ज्ञानाला उक्त अवग्रह म्हणतात. .. १०) अनुक्त-न सांगितलेल्या पदार्थांच्या केवळ संकेतावरून होणा-या ज्ञानाला अनुक्त अवग्रह म्हणतात. ११) ध्रुव-ध्रुव स्थिर पदार्थांच्या ज्ञानाला ध्रुव अवग्रह म्हणतात. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार १२) अध्रुव- पाण्याच्या बुडबुड्याप्रमाणे अस्थिर पदार्थाच्या ज्ञानाला अध्रुव अवग्रह म्हणतात. या प्रमाणे अवग्रह-ईहा-अवाय-धारणा ज्ञानाचे विषयरूप पदार्थांच्या अपेक्षेने प्रत्येकाचे १२ भेद आहेत. व्यंजनावग्रह फक्त चार इंद्रियानी ( स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्र ) होतो. अर्थावग्रह व ईहादि ज्ञाने ६ इंद्रियानी होतात म्हणून १) व्यंजनावग्रहाचे (१२ x ४) = ४८ भेद होतात. २) अर्थावग्रहाचे (१२ x ६) ३) ईहाज्ञानाचे (१२ x ६) = ७२ ४) अवाय-ज्ञानाचे (१२ x ६) = ७२ ५) धारणा ज्ञानाचे (१२ x ६) = ७२ असे एकूण मतिज्ञानाचे ३३६ भेद होतात. ज्ञानाला दुसरे नाव प्रतिभास किंवा चेतना असे आहे. चेतनेचे २ भेद आहेत. १) दर्शन चेतना २) ज्ञान चेतना. १) दर्शन चेतना- ज्यामध्ये वस्तूचा विशेष प्रतिभास न होता सामान्य सन्मात्र प्रतिभास होतो त्याला दर्शन चेतना म्हणतात. यालाच सामान्य प्रतिभास किंवा निर्विकल्प (निराकार) दर्शन म्हणतात. जसे काही तरी आहे. २) ज्ञान चेतना-ज्यामध्ये वस्तूचा विशेष प्रतिभास होतो त्यास ज्ञान चेतना म्हणतात. यालाच विशेष प्रतिभास किंवा सविकल्प (साकारज्ञान म्हणतात.) वस्तूमध्ये सामान्यसत्ता व विशेषसत्ता असे दोन धर्म असतात. १) सामान्यसत्ता- सर्व पदार्थामध्ये वस्तुनिष्ठ असणारा जो सत्तासामान्यरूप सदृशधर्म त्याला सामान्यसत्ता किंवा महासत्ता म्हणतात. सर्वप्रथम 'कांहीतरी आहे ' असा वस्तूचा सामान्यसत्तारूप महासत्तारूप निराकार-निर्विकल्प प्रतिभास होतो त्यास दर्शन म्हणतात. म्हणून दर्शनाला निराकार म्हणतात. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार विशेषसत्ता- सामान्यसत्ता प्रतिभासरूप दर्शन झाल्यानंतर पदार्थाच्या विशेष सत्तेचा ( अवांतरसत्तेचा ) जो प्रतिभास होतो ती ज्ञानचेतना होय. हा विशेष प्रतिभास विशिष्ट पदार्थाच्या आकार स्वरूप असतो म्हणून ज्ञानाला सविकल्प साकार म्हटले आहे. १) अवग्रह-सामान्य प्रतिभासरूप दर्शन झाल्यानंतर विशेष प्रतिभासरूप जे पदार्थाचे आद्य ग्रहण त्याला अवग्रह म्हणतात. २) ईहाज्ञान-अवग्रह ज्ञान झाल्यानंतर तो पदार्थ कोण असावा अशी पदार्थाला विशेष जाणण्याची जिज्ञासा, उत्कंठा त्याला ईहाज्ञान म्हणतात. प्रश्न- ईहाज्ञान व संशय ज्ञान यात काय फरक आहे ? उत्तर- संशय ज्ञानामध्ये 'हा की तो' अशाप्रकाराने उभयकोटीला स्पर्श करणारे संशयरूप ज्ञान असते म्हणून संशयज्ञान मिथ्याज्ञान आहे. पण ईहाज्ञानामध्ये अवग्रहाने जाणलेल्या पदार्थांविषयी हा पदार्थ अमुक असावा अशी विशेष जाणण्याची उत्कंठा-जिज्ञासा असते म्हणून ईहाज्ञान हे सम्यक्ज्ञान आहे. ३) अवाय ज्ञान- ईहाज्ञानाने जाणलेल्या पदार्थाचे विशेप निश्चयात्मक जे ज्ञान होते ते अवाय ज्ञान होय. ४) धारणा ज्ञान- अवाय ज्ञानाने जाणलेल्या पदार्थाचे कालान्तराने विस्मरण न होणान्या ज्ञानाच्या संस्काराला धारणा ज्ञान म्हणतात. (संस्कारःधारणा । तस्य उद्बोधः प्रबोधः सः निबन्धनं यस्याः सा तदित्याकारा स्मृतिः) धारणा ज्ञान जनित संस्कार ज्याला कारण आहे असे पूर्व अनुभूत पदार्थाचे 'तो' इत्याकारक जे ज्ञान त्याला स्मृति म्हणतात. केवलज्ञान हे क्षायिकपूर्ण ज्ञान असल्यामुळे ते ज्ञान सर्वथा सम्यग्ज्ञान स्वरूप आहे परंतु मतिज्ञान आदि चार क्षायोपशमिक ज्ञानाला Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार २१ जे सम्यग्ज्ञान म्हटले आहे त्यविषयी शंका उपस्थित करून त्याचे समाधान केले आहे. ( शंका)- ननु तत्त्वज्ञानस्य सर्वथा प्रमाणत्वसिद्धेः अनेकान्तविरोधः । (समाधान)- इति न मन्तव्यं, बुद्धेः अनेकान्तात् । (शंका)- तत्त्वज्ञानाला जर सर्वथा प्रमाण मानले तर अनेकान्त तत्त्वामध्ये विरोध येईल? (समाधान)- हे म्हणणे बरोबर नाही. बुद्धिरूप क्षायोपशमिक ज्ञानाला अनेकान्तस्वरूप मानले आहे. अर्थात् त्या ज्ञानामध्ये जेवढा समीचीनपणा आहे त्याचे प्रामुख्याने वर्णन करून या ज्ञानाला सम्यग्ज्ञान म्हटले. परंतु ते ज्ञान आंशिकज्ञान असल्यामुळे त्यामध्ये जेवढा अज्ञान रूप अंश आहे तो अप्रमाणरूप आहे तथापि त्याला गौण करून त्या क्षायोपमिक ज्ञानाला सम्यग्ज्ञान म्हटले आहे. त्याच प्रमाणे प्रमाणाभास ज्ञानाला देखील यद्यपि अप्रमाण म्हटले आहे तथापि त्या ज्ञानात जेवढा अंश समीचीन आहे त्याला गौण करून जेवढा अंश असमीचीन-अप्रमाण आहे त्याची मुख्यता घेऊन त्या ज्ञानाला प्रमाणाभास म्हटले आहे. जसे- दृष्टिदोषामुळे ज्याला एक चंद्र असताना दोन चंद्र दिसतात त्याचे ते ज्ञान चंद्राचे ज्ञान समीचीन असल्यामुळे सर्वथा अप्रमाण म्हटले जात नाही. तथापि एक चंद्र दोन चंद्र रूपाने दिसतो ते दिसणे असमीचीन आहे. त्याची प्रधानता विवक्षित करून ते ज्ञान प्रमाणाभास म्हटले जाते. श्रुतज्ञान व त्याचे भेद मतिपूर्वं श्रुतं प्रोक्तं अवस्पष्टार्थतर्कणं । तत्पर्यायादिभेदेन व्यासाद् विंशतिधा भवेत् ॥२४।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थमार अर्थ- मतिज्ञानाने जाणलेल्या पदार्थाचे जे विशेष तर्कणात्मक ज्ञान किंवा तत्संबंधी अन्य पदार्थाचे जे तर्कणात्मक ज्ञान ते 'श्रुतज्ञान होय. त्याचे पर्याय पर्यायसमास इत्यादि भेदाने विस्ताराने वीस भेद आहेत. मतिज्ञानाप्रमाणे हे देखील परोक्ष प्रमाण आहे. १ पर्याय, २ पर्यायसमास · ३ अक्षर, ४ अक्षर समास, ५ पद, ६ पदसमास, ७ संघात, ८ संघातसमास, ९ प्रतिपत्ति, १० प्रतिपत्ति समास, ११ अनियोग, १२ अनियोग समास, १३ प्राभृत प्राभृत, १४ प्राभृत प्राभृत समास, १५ प्राभूत १६ प्राभृत समास, १७ वस्तु, १८ वस्तु समास, १९ पूर्व, २० पूर्वसमास. हे श्रुतज्ञान पूर्ण म्हटले जाते. पूर्ण श्रुतज्ञान श्रुतकेवलीना असते. या प्रमाणे श्रुतज्ञानाचे क्रमाने वर्णोत्तर वृद्धीच्या अपेक्षेने हे वीस भेद सांगितले आहेत व अंगबाह्य श्रुतज्ञानाचे १४ भेद आहेत, १ अंगप्रविष्ट १२ भेद- १ आचारांग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग ४ समवायांग, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ६ ज्ञातृधर्म कथा अंग, ७ उपासकाध्ययन अंग, ८ अन्तकृत्दशांग, ९ अनुत्तरौपपादिक दशांग, १० प्रश्नव्याकरणांग, ११ विपाकसूत्रांग, १२ दृष्टिवादांग. दृष्टिवाद अंगाचे ५ भेद आहेत - १ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्व, ५ चूलिका, चूलिकाचे ५ भेद आहेत- १ चंद्रप्रज्ञप्ति, २ सूर्यप्रज्ञप्ति, ३ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, ४ द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, ५ व्याख्या प्रज्ञप्ति. चौदापूर्व- १ उत्पादपूर्व, २ अग्रायणीय, ३ वीर्यानुवाद, ४ अस्तिनास्ति प्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ आत्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, ९ प्रत्याख्यानवाद, १० विद्यानुवाद, ११ कल्याणवाद, १२ प्राणाबाद, १३ क्रियाविशाल पूर्व १४ त्रिलोक बिंदुसार. .................... टीप- १ अत्थादो अत्यंतरमुवलंभंतं भणंति सुदणाणं । आभिणिबोहिय पुव्य णियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥३१४ ।। (गो. जी.) टीप- २ अत्थक्वरं च पदसंघादं पडिवत्तियाणियोगं च । दुगवार पाहुडं च य.पाहुडयं वत्थु पुव्वंच ।। ३४७ ॥ कमवण्णुत्तर वहिय ताणसमासा य अक्खर गदाणि । णाणवियप्पे वीसं गंथे बारस य चोद्दसयं ॥ ३४८ ॥ (गो. जी.) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार २३ अंगबाह्य श्रुतज्ञानाचे १४ भेद- १ सामायिक, २ चतुर्विंशति स्तवन, ३ वंदना, ४ प्रतिक्रमण, ५ वैनयिक, ६ कृतिकर्म, ७ दशवैकालिक, ८ उत्तराध्ययन, ९ कल्प व्यवहार, १० कल्पाकल्प, ११ महाकल्प, १२ पुंडरीक, १३ महा पुंडरिक, १४ निषिद्धिका. श्रुतज्ञान' व केवलज्ञान हे विषयाच्या अपेक्षेने समान आहेत. श्रुतज्ञान हे संपूर्ण पदार्थाचे ज्ञान करून देते. या दोहोमध्ये फरक एवढाच आहे की, केवलज्ञान हे सर्व पदार्थाना युगपत् प्रत्यक्ष जाणते. श्रुतज्ञान हे सर्व पदार्थांना क्रमाने परोक्ष जाणते. सर्वजघन्य श्रुतज्ञान लब्ध्यक्षरात्मक आहे. लब्धि म्हणजे क्षयोपशम प्राप्ति अक्षर म्हणजे अविनाशी अर्थात् हे लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान अविनाशी निरावरण असते. हा संपूर्ण केवलज्ञानाचा एक अंश शुद्ध निरावरण असतो. हे नित्य प्रकाशमान असते. याच्या पुरुषार्थबलानेच जीव आपल्या अतरंग शक्तिसामर्थ्याने क्रमाने पूर्ण श्रुतज्ञानापर्यंत व केवलज्ञानापर्यंत ज्ञानवृद्धि करू शकतो. ज्ञान प्रगट होण्यासाठी ज्ञानावरण कर्माचा क्षय, क्षयोपशम हे बाह्य निमित्त असते. ज्ञानाचा उघाड होण्यासाठी अंतरंग शक्तिसामर्थ्याचा सद्भाव व बाह्य निमित्त असते. ____ हा घट आहे, हा पट आहे, हा काळा आहे, हा गोरा आहे हे सर्व विशेष विज्ञान श्रुतज्ञान म्हटले जाते. डोळ्याने घट पाहिला हे इंद्रियजन्य मतिज्ञान आहे. परंतु या पदार्थाला घट म्हणतात हे जे विशेष विज्ञान-परिज्ञान होते ते परोपदेश पूर्वक-आगम ज्ञान पूर्वक होते म्हणून याला श्रुतज्ञान म्हणतात. टीप १- भेदः साक्षात् असाक्षाच्च. टीप २- सुहमणिगोद अपवजत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । लद्धक्खरं च णाणं णिच्चधाई णिरावरणं ।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ तत्त्वार्थसार ( श्रुतज्ञानप्रभेदप्ररूपणायां लब्ध्यक्षरश्रुतज्ञानं षोढा प्रविभक्तं तद्यथा-चक्षुःश्रोत्र-प्राण-रसन-स्पर्शन-मनो-लब्ध्यक्षरं इत्यर्थः) यावरून हे लब्ध्यक्षरात्मक श्रुतज्ञान सूक्ष्म निगोदी अपर्याप्त एकेंद्रियापासून संज्ञीपंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवापर्यंत पाच इंद्रिये व मन यांच्या द्वारे असू शकते. _ (मतिपूर्वं श्रुतं) श्रुतज्ञान हे मतिज्ञान पूर्वकच होते. मतिज्ञान झाल्याशिवाय श्रुतज्ञान होत नाही. श्रुतज्ञानाचे दोन भेद आहेत. १ अक्षरात्मक (शब्दात्मक) २ अनक्षरात्मक. १ अक्षरात्मक श्रुतज्ञान हे वर्ण-शब्दात्मक ज्ञान संज्ञी जीवालाच होते म्हणून वर्ण-शब्दात्मक आगम ज्ञानाला देखील श्रुतज्ञान म्हणतात. हे ज्ञान कर्णेद्रियानेच होते पण अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान हे इतर इंद्रियानी देखील होते. मंगीला घ्राणेन्द्रियाने साखरेचा गोड सुगंध वास येतो. त्यानंतर येथे साखर आहे, त्या दिशेने गमन करावे असे विशेष विज्ञान त्या घ्राणेन्द्रियाने होते ते श्रुतज्ञान होय. १ पर्यायज्ञान- सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवाला उत्पत्तीच्या प्रथम समयी होणारे लब्ध्यक्षर नामक सर्वजघन्य श्रतज्ञान त्यास पर्यायज्ञान म्हणतात. हे लब्ध्यक्षर नामक श्रुतज्ञान निरावरण असते. लब्ध्यक्ष र ज्ञानावरण कर्म पर्यायसमाग ज्ञानावर आवरण टाकते. २ पर्यायसमास-पर्यावज्ञानाच्यावर षट्स्थान पतित वृद्धि क्रमाने अक्षर ज्ञानाच्या खालचे जे ज्ञान ते पर्यायसमास ज्ञान होय. ३ अक्षरज्ञान- पर्याय समास ज्ञानानंतर एक अक्षर वृद्धिरूप अक्षरज्ञान होय. ४ अक्षरसमास- अक्षरज्ञानाचेवर क्रमाने एक एक अक्षराची वृद्धि होत पदज्ञानाच्या पूर्वीचे जे ज्ञान ते अक्षरसमास ज्ञान होय. ५ पदज्ञान- अक्षरसमास ज्ञानाचेवर क्रमाने एक अक्षराची वृद्धि होऊन जे ज्ञान उत्पन्न होते ते पदज्ञान होय. ६ पदसमास- पदज्ञानाचेवर क्रमाने एक एक पदाची वृद्धि होत संघात ज्ञानाचे पूर्वीचे जे ज्ञान ते पदसमास ज्ञान होय. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार २५ ७ संघात- पदज्ञानानंतर एक एक अक्षरवृद्धिक्रमाने संख्यत हजार पदवृद्धि होऊन उत्पन्न होणारे ज्ञान ते संघात ज्ञान होय. यामध्ये चार गती पैकी एका गतीचे वर्णन असते. ८ संघात समास- संघात ज्ञानाचे वर प्रतिपत्ति ज्ञानाच्यापूर्वी जे मधले विकल्प त्यास संघात समासज्ञान म्हणतात. ९ प्रतिपत्तिक- संघात ज्ञानाचे एक एक अक्षरवृद्धि क्रमाने संख्यात हजार संघाताची वृद्धि होऊन जे ज्ञान होते ते प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान होय. यामध्ये चार गतींचे विशेष वर्णन असते. १० प्रतिपत्तिक समास- प्रतिपत्तिक ज्ञानाचे वर अन योग ज्ञानाच्या पूर्वी जे मधले विकल्प ते प्रतिपत्तिक समासज्ञान होय. ११ अनुयोगज्ञान- प्रतिपत्तिक ज्ञानानंतर एक एक अक्षरवृद्धि क्रमाने संख्यात हजार प्रतिपत्तिक वृद्धि होऊन जे ज्ञान उत्पन्न होते त्यास अनुयोग ज्ञान म्हणतात. यात चौदा मार्गणेचे विस्तृत वर्णन आहे. १२ अनुयोग समास- अनुयोग ज्ञानाचे नंतर प्राभृत-प्राभूत ज्ञानाचे पूर्वीचे जे मधले विकल्प भेद ते अनुयोग समास ज्ञान होय. १३ प्राभृत प्राभूत ज्ञान- अनुयोग ज्ञानानंतर एक एक अक्षरवृद्धि क्रमाने चार अनुयोगाची वृद्धि होऊन जे शान होते ते प्राभृत-प्राभृत ज्ञान होय. प्राभृत ज्ञानाच्या एक अधिकाराला प्राभृत-प्राभृत म्हणतात. १४ प्राभूत प्राभूत समास- प्राभृत ज्ञानाचे वर प्राभृत ज्ञानाचे पूर्वीचे जे मधले विकल्प ते प्राभृत प्राभृत समास ज्ञान होय. १५ प्राभूत ज्ञान- प्राभृत प्राभृत ज्ञानाचेवर एक एक अक्षरवृद्धि क्रमाने २४ प्राभृत प्राभृत अधिकार म्हणजे एक प्राभृत ज्ञान होय. १६ प्राभूत समास-प्राभूत ज्ञानाचे वर वस्तुज्ञानाच्या पूर्वीचे जे मधले विकल्प ते प्राभूत समास ज्ञान होय. १७ वस्तुज्ञान-- प्राभूत ज्ञानाचे वर एक एक अक्षरवृद्धि क्रमाने २० प्राभृत अधिकार म्हणजे एक वस्तु अधिकार ज्ञान होय. १८ वस्तुसमास- वस्तुज्ञाना नंतर पूर्वज्ञानाचे पूर्वीचे जे मधले विकप ते वस्तुसमाग ज्ञान होय. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार १९ पूर्वज्ञान- वस्तुज्ञाना नंतर अक्षरवृद्धि क्रमाने अनेक पदसंघात आदिकांची वृद्धि होऊन जे ज्ञान होते ते पूर्वज्ञान होय. २० पूर्वसमासज्ञान- पूर्वज्ञानाच्या नंतर उत्कृष्ट श्रुतज्ञानाच्या पूर्वी मधले जे विकल्प ते पूर्व समासज्ञान होय. __३ अवधिज्ञान व त्याचे भेद परापेक्षा विना ज्ञानं रूपिणां भणितोऽवधिः ॥२५॥ अनुगोऽननुगामी च तदवस्थोऽनवस्थितः ।। वधिष्णु ीयमानश्च षड्विकल्पः स्मृतोऽवधिः ॥२६।। अर्थ- जे ज्ञान इंद्रिय व मनाची अपेक्षा न ठेवता आत्मिक शक्तीने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव याच्या मर्यादेमध्ये रूपी पदार्था ला स्पष्ट जाणते त्यास अवधिज्ञान म्हणतात. . अवधिज्ञान ६ प्रकारचे आहे. १ अनुगामी २ अननुगामी ३ अवस्थित ४ अवस्थित ५ वर्धमान ६ हीयमान. १ अनुगामी- जे ज्ञान मर्यादित क्षेत्राच्या बाहेर देखील जीवाबरोबर जाते, एका भवातून दुसऱ्या भवात देखील जीवाबरोवर जाते ते अनुगामी अवधिज्ञान होय. जे दीर्घ काळ टिकते ते अनुगामी होय. २ अननगामी- जे मर्यादित क्षेत्राच्या बाहेर जीब गला तर त्याच्या बरोबर जात नाही, नष्ट होते, पुनः जीव जर त्या क्षेत्रात आला तर पुनः उत्पन्न होते त्यास अननुगामी अवधिज्ञान म्हणतात. __३ अवस्थित- जे ज्ञान उत्पन्न झाल्यानंतर जेवढ्याचे तेवढे राहते कमी-जास्त वाढत नाही किंवा कमी-जास्त होत नाही त्यास अवस्थित अवधिज्ञान म्हणतात. ४ अनवस्थित- जे ज्ञान कमी किंवा जास्त होते ते अनवस्थित होय. ५ वर्धमान - जे ज्ञान उतरोत्तर वाढत जाते ते वर्धमान होय. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार ६ हीयमान- जे ज्ञान कमी होत जाते ते हीयमान. हे अवधिज्ञान उत्पन्न होऊन नष्ट ही होऊ शकते किंवा नष्ट न होता वाढत जात मनःपर्य यज्ञान केवलज्ञानरूप देखील होऊ शकते. यांचे तीन भेद आहेत. १ देशावधि २ परमावधि ३ सर्वावधि. अवधिज्ञानाचा विषय द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव यांच्या विशिष्ट मर्यादेत असतो म्हणून यास अवधिज्ञान किंवा मर्यादाज्ञान म्हणतात. याचे प्रत्येकी जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट असे तीन-तीन भेद आहेत. अवधिज्ञानाचे दोन भेद आहेत. १) भवप्रत्यय २) क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञानाचे स्वामी देवानां नारकाणां च स भवप्रत्ययो भवेत । मानुषाणां तिरश्चां च क्षयोपशमहेतुकः ॥२७॥ अर्थ- देव व नारकी याना भवप्रत्यय अवधिज्ञान असते. मनुष्य व तियं च यांना क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान होऊ शकते. देव-नारकी यांचे भवप्रत्यय अवधिज्ञान देखील क्षयोपशमहेतुकच असते पण त्यांचा भव त्या विशिष्ट क्षयोपशमाचे कारण असतो. द ते भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्व नारकी-देवाना होते. क्षयोपक्षमहेतुक अवधिज्ञान मनुष्य व तिर्यंच यापैकी काही विशिष्ट क्षयोपशमधारी जीवाना होते सर्वांना होत नाही. ४ मनःपर्ययज्ञानाचे लक्षण व भेद परकीय मनःस्यार्थज्ञानमन्यानपेक्षया । स्यान्मनः पर्ययो भेदौ तस्यर्जुविपुले मती ॥२८॥ अर्थ- इंद्रियादिकाची अपेक्षा न ठेवता आत्मिक शक्तीने ईहामतिज्ञान पूर्वक दुसन्याच्या मनातील रूपी विचार व तद्विषयक रूपी पदार्थ यांचे प्रत्यक्ष ज्ञान होणे यास मनःपर्यय ज्ञान म्हणतात. मन:पर्यय ज्ञानाचे २ भेद आहेत. १ ऋजमति २ विपुलमति. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार १ ऋजुमति-दुसऱ्याच्या मनातील सरळ मन-वचन-कायेने चिंतित रूपी पदार्थाना आत्मिक शक्तीने प्रत्यक्ष जाणणे ते ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान होय. २ विपुलमति- दुसऱ्याच्या मनातील वक्र मन-वचन कायेने चिंतित, अचितित, अर्धचिंतित, पूर्णचितित, भाविचिंतित रूपी पदार्थाना प्रत्यक्ष जाणणे ते विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान होय. ऋजुमति-विपुलमतीमध्ये विशेषता अवधि व मनःपर्यय ज्ञानातील विशेषता विशुध्ध प्रतिपाताभ्यां विशेषश्चिन्त्यतां तयोः । स्वामि-क्षेत्र विशुद्धिभ्यो विषयाश्च सुनिश्चिताः ॥२९॥ स्याद् विशेषोऽवधिज्ञानमनःपर्ययबोधयोः ॥ (षट्पदी) अर्थ- ऋजुमती पेक्षा विपुलमति ज्ञानाची विशुद्धि क्षयोपशम शक्ती अधिक असते. ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान प्रतिपाति आहे अर्थात् ते नष्ट होऊन जीव मति-श्रुत ज्ञानी होतो परंतु विपुलमति मन:पर्ययज्ञान नष्ट होत नाही अप्रतिपाति आहे. त्यानंतर नियमाने केवलज्ञानाची प्राप्ति होते. अवधिज्ञान व मनःपर्यय ज्ञानातील विशेषता-- अवधिज्ञाना पेक्षा मनःपर्यायज्ञानाची विशुद्धि क्षयोपशम शती अधिक असते. क्षेत्राच्या अपेक्षेने-अवधिज्ञानाचे क्षेत्र सर्वलोक आहे. परंतु मनःपर्ययज्ञानाचे क्षेत्र अडीचद्वीप प्रमाण मनुष्यलोकच क्षेत्र आहे. अवधिज्ञानाचा स्वामी चारही गतीतील जीव असू शकतो. परंतु मनःपर्ययज्ञानी मनुष्य गतीतील फक्त संयमलिंगधारी मुनीच असतात. अवविज्ञानाचा विषय जास्तीत सूक्ष्म कार्म गवर्गणा विषय होऊ शकतो. मनःपर्यय ज्ञानाचा विषय त्याहीपेक्षा सूक्ष्म मनातील रूपी विचार विषय होतात. केवलज्ञान स्वरूप असहायं स्वरूपोत्थं निराबरणयक्रमं ।। ३७ घातिकमायोत्पन्नं केवलं सर्वभावगं ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अर्थ - केवलज्ञान इंद्रियादि परद्रव्याच्या सहायाची अपेक्षा ठेवीत नाही. आत्मशक्ति स्वभावाने होते - निरावरण आहे. कर्माच्या अभावात प्रगट होते. सर्व पदार्थाना युगपत् जाणते म्हणून क्रमवर्ती नाही. घातिकर्माचा क्षय झाला असताना प्रगट होते. केवलज्ञान सर्व ज्ञेय पदार्थाना युगपत् जाणते म्हणून ते सर्वगत म्हटले जाते. मतिज्ञानादिकाचे विषय मतेविषयसम्बन्धः श्रुतस्य च निबुध्यताम् ॥३१॥ असर्वपर्ययेष्वत्रच सर्वद्रव्येषु धी धनैः ॥ सर्वपर्ययेविष्टो रूपिद्रव्येषु सोऽवधिः || ३२ ।। स मन:पर्ययस्येष्टोऽनन्तांशेऽवधिगोचरात् । केवलस्याखिलद्रव्य पर्यायेषु च सूचित ॥३३॥ २९ अर्थ- मतिश्रुतज्ञानाचा विषय संबंध सर्वद्रव्याचे कांही पर्याय आहेत अवधिज्ञानाचा विषय रूपी द्रव्याचे काही पर्याय आहेत. मन:पर्यय ज्ञानाचा विषय अवधिज्ञान गोवर विषयापेक्षा अत्यंत सूक्ष्म मनातील रूपी विचार. केवलज्ञानाचा विषय सर्व पदार्थ व त्यांचे त्रिकालवर्ती सर्व पर्याय विषय आहे. मतिज्ञानादि चार ज्ञाने क्षयोपशमिक आहेत क्रमवर्ती आहेत. केवलज्ञान हे क्षायिकज्ञान आहे. अक्रमवर्ती युगपत् सर्व पदार्थाना व त्यांच्या त्रिकालवर्ती सर्व अवस्थाना युगपत् जाणते. प्रश्न- यद्यपि मतिज्ञानादिक क्षायोपशमिक ज्ञाने आपापल्या कर्माच्या क्षयोपशमात प्रगट होतात. मतिज्ञान मतिज्ञानावरणाच्या क्षयोपशमात, श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरण कर्माच्या क्षयोपशमात, अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणाच्या क्षयोपशमात. मन:पर्यय ज्ञान मन:पर्यय ज्ञानावरणाच्या क्षयोपशमात प्रगट होते तथापि या क्षायोपशमिक ज्ञानात त्या त्या ज्ञानावरणाचा पूर्ण अभाव होत नाही. क्षयोपशमिकरूपाने देशघातीचा उदय विद्यमान असतो त्यामुळे ही क्षयोपशमिक ज्ञाने पूर्ण नसतात. चारही ज्ञानावरणाचा क्षय केवलज्ञानाचे वेळी केवलज्ञानाच्या क्षयाबरोबर होतो - असे कां ? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० तत्वार्थसार समाधान- मोहनीय कर्मामुळे क्षायोपशमिक ज्ञानामध्ये कथंचित् आसक्ति उत्पन्न होते. जसा जसा मोहनीयकर्माचा अभाव होत जातो तशी तशी ज्ञानातील आसक्ति कमी होत जाते. क्षीणमोह गुणस्थानात मोहाचा अभाव होतो तरी ज्ञानाची अल्पज्ञता छद्मस्थता असते. मोहाचा अभाव झाल्यानंतर ज्ञानावरणादि तीन घातिकर्मांचा क्षय होताच या मतिज्ञानावरणादिकांचा देखील युगपत् क्षय होऊन ज्ञान निर्मल व पूर्ण बनते. ज्ञानाची मलिनता व क्रमवर्तीपणा-अल्पज्ञता ही मोहनीयाच्या अभावात नष्ट होते. त्यामुळे ज्ञान निर्मल व पूर्ण युगपत् होते. मोहाचा पूर्ण नाश होऊन देखील उपयोगाची स्थिरता ठेवण्याचे सामर्थ्य ज्ञानावरण, दर्शनावरण, व अंतराय यांचा क्षय झाल्याशिवाय प्राप्त होत नाही. एका जीवास युगपत् किती ज्ञाने असतात जीवे युगपदेकस्मिन्नेकादीनि विभाजयेत् । ज्ञानानि चतुरन्तानि न तु पंच कदाचन ॥३४॥ अर्थ- एका जीवामध्ये युगपत् एक पासून विभाजित करून एकदोन-तीन-चार पर्यंत ज्ञाने असू शकतात. एका जीवास युगपत् पाच ज्ञाने असू शकत नाहीत. एका जीवास युगपत् एक ज्ञान केवल ज्ञान असते. दोन ज्ञाने मति-श्रुत ज्ञाने असतात. तीन ज्ञाने मति-श्रुत-अवधि किंवामति-श्रुत-मनःपर्यय. परंतु पाचही ज्ञाने युगपत् असू शकत नाहीत. कारण जेथे एक क्षायिक केवलज्ञान असते तेथे बाकीची क्षयोपशम ज्ञाने असू शकत नाहीत. ही क्षायोपशमिक ज्ञाने क्रमवर्ती असल्यामुळे उपयोगरूपाने एकावेळी एकच ज्ञान असते पण लब्धि क्षयोपशमरूपाने जास्तीत जास्त चार ज्ञाने युगपत् असू शकतात. एका जीवास युगपत् चार ज्ञाने असू शकतात मतिः श्रुतावधी चैव मिथ्यात्वसमवायिनः । मिथ्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ।।३५।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार ३१ अर्थ- मति-श्रुत-अवधि ज्ञाने जेव्हा मिथ्यात्वाने सहित असतात तेव्हा ती ज्ञाने मिथ्याज्ञाने म्हटली जातात. मिथ्यात्वामुळे ज्ञानामध्ये प्रमाणता रहात नाही. मिथ्याज्ञानामध्ये अप्रमाणता कशी असते ? अविशेषात् सदसतो रूपलब्धेर्यदृच्छया। यत उन्मत्तवज्ज्ञानं न मिथ्यादृशोऽञ्जसा ॥३६॥ अर्थ- दारू पिऊन उन्मत्त झालेल्या माणसा प्रमाणे मिथ्यादृष्टीचे ज्ञान हे प्रमाण म्हटले जात नाही कारण त्याला पदार्थाच्या सद्-ध्रुव धर्माचे असत्-अध्रुव धर्माचे, द्रव्यधर्माचे व पर्यायधर्माचे भेदज्ञान नसते तो वस्तूच्या पर्यायालाच वस्तु मानतो. 'पर्यायमूढा हि परसमया' या प्रमाणे पर्यायालाच द्रव्य मानणारे पर्यायमूढ मिथ्यादृष्टि म्हटले जातात. मिथ्यादृष्टीचे ज्ञानात स्वरूप विपर्यास, भेदाभेद विपर्यास, कारणविपर्यास इ. विपरीत मान्यता असते. तो राग द्वेषादि अचेतन विभाव भावाला स्वभाव समजतो, शरीर व आत्मा यात भेद असताना अभेद समजतो व बंधाच्या कारणाला संवर निर्जरा मोक्षाचे कारण समजतो. नय स्वरूप वस्तुनोऽनन्त धर्मस्य प्रमाणव्यंजितात्मनः । एकदेशस्य नेता यः स नयोऽनेकधा मतः ।।३७।। अर्थ- वस्तु अनंतधर्मात्मक आहे. प्रमाणाने वस्तूचे अनंतधर्म समुदायात्मक अभेद स्वरूप जाणून त्याच्या एक एक अंश धर्मभेदाचे विवक्षित नय-निक्षेपपूर्वक ग्रहण करणे त्यास नयज्ञान म्हणतात. वस्तूचा द्रव्यधर्म सत् रूप, ध्रुवरूप, एकरूप, अभेदरूप असतो. वस्तूचे पर्यायधर्म असतरूप, क्षणिक सत्रूप, अध्रुवरूप, अनेकरूप भेदरूप असतात. म्हणुन वस्तूच्या या परस्पर विरोधी द्रव्य-पर्यायधर्माचे ग्रहण करणारे नय देखील दोन प्रकारचे आहेत. नयाचे पोटभेद अनेक प्रकारचे आहेत. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार नय-भेद द्रव्य-पर्यायरूपस्य सकलस्याऽपि वस्तुनः । नयावंशेन नेतारौ द्वौ द्रव्य पर्ययार्थिको ॥३८॥ अर्थ- प्रत्येक वस्तु ही अनेकान्तात्मक- सामान्य विशेष धर्मात्मकद्रव्य-पर्यायात्मक आहे, वस्तूच्या सामान्य द्रव्यधर्माचे प्रामुख्याने वर्णन करणारा जो नय तो द्रव्यार्थिक नय होय. वस्तूच्या विशेष-पर्यायधर्माचे प्रामुख्याने वर्णन करणारा जो नय तो पर्यायाथिक नय होय. (सकलांशग्राहि ज्ञानं प्रमाणं, वस्त्वैकांशग्राहिज्ञानं नयः ) वस्तूच्या सकल अंशाना ग्रहण करणारे ज्ञान प्रमाण म्हटले जाते. वस्तूच्या एक एक अंश चे ग्रहण करणारे ज्ञान नयज्ञान होय. वस्तूचा सामान्य अंश संपूर्ण विशेष अंशाचा समूहरूप अंशीरूप अंश म्हटला जातो. वस्तूचे अंशीरूपाने जे ग्रहण तो द्रव्यार्थिक न' होय. वस्तूचा विशेष अंश हा एक एक अंशरूप व्यतिरेक भेदरूप असतो. त्या त्या विवक्षित अंशनिक्षेप अभिप्रायाने त्या त्या अंशाचे ग्रहण तो पर्यायाथिकनय होय. द्रव्याथिक नयस्वरूप अनुप्रवृत्तिः सामान्यं द्रव्यं चैकार्थवाचका : नयस्तद्विषयो यः स्याज्ज्ञेयो द्रव्याथिको हि सः ॥३९।। अर्थ-- अन्वयरूप प्रवृत्ति; सामान्य-द्रव्य हे सर्व एकार्थवाचक आहेत. सामान्य-अंशीरूप जो द्रव्यधर्म तो ज्याचा विषय आहे त्यास द्रव्यार्थिक नय म्हणतात. सामान्य हा विशेषाप्रमाणे एक अंश नसून अंशसमूहरूप अंशीरून एक अंश आहे. वस्तूचे अंशीरूप ग्रहण हे अभेदरूपाने संपूर्ण वस्तूचे ग्रहण म्हटले जाते. अंशीरूप अंशसमूहरूप अभेदवस्तु या त्याचा विषय विवक्षित अंश असतो. म्हणून हा अंशीरूप अंशग्राही नय म्हटला जातो. पर्यायाथिक नय व्यावत्तिश्चविशेषश्च पर्यायश्चैकवाचकाः । पर्यायविषयो यस्तु स पर्यायाथिको मतः ।।४।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अर्थ- व्यावृत्ति व्यतिरेक विशेष पर्याय हे सर्व एकार्थ वाचक आहेत. पर्यायरूप एक एक अंश हा ज्या नयाचा विषय असतो त्यास पर्यायार्थिक नय म्हणतात. द्रव्यामध्ये सामान्यधर्म, द्रव्यधर्म व विशेष पर्यायधर्म हे मुख्य दोन भेद आहेत. त्याचे पोट भेद अनेक आहेत. त्याना विषय करणाया नयाचे देखील मुख्य दोन भेद आहेत. त्यांचे पोटभेद अनेक आहेत. - - द्रव्यार्थिक नयाचे पोटभेद शुद्धाशुद्धार्थसंग्राही त्रिधा द्रव्याथिको नयः । नैगम: संग्रहश्चैव व्यवहारश्च स स्मृतः ॥ ४१।। अर्थ - द्रव्यार्थिक नय तीन प्रकारचा आहे. १ नैगम २ संग्रह ३ व्यवहार. पदार्थामध्ये सामान्य धर्म दोन प्रकारचा आहे. ३३ १ विस्तार सामान्य किंवा तिर्यक् सामान्य २ आयत सामान्य किंवा ऊर्ध्वता सामान्य तिर्यक् सामान्याला सदृश सामान्य म्हणतात. ऊर्ध्वता सामान्याला स्वरूप सामान्य म्हणतात. सामान्य दृष्टी ही अभेद दृष्टी - शुद्ध दृष्टी म्हटली जाते. विशेष दृष्टी ही भेद दृष्टी - अशुद्ध दृष्टी - म्हटली जाते. एकाच वस्तूमध्ये द्रव्य - गुणपर्याय रूपाने कथंचित् भेद असला तरी एकाद्रव्याच्या सर्व गुण पर्यायामध्ये एकद्रव्यरूप, अन्वय अभेदरूप असतो म्हणून एका द्रव्याच्या कोणत्याही गुण-पर्याय भेदाला अभेद एक द्रव्यरूपाने ग्रहण करणे याला शुद्ध नैगम नय म्हणतात. एका द्रव्याच्या भूत-भावी - वर्तमान तीन पर्यायामध्ये यद्यपि पर्याय रूपाने भेद असतो तथापि भेदाला गौण करून त्या भेदामध्ये द्रव्यरूपाने अभेदाला ग्रहण करणे तो नैगम नय म्हटला जातो. अनेक वस्तूमध्ये व्यक्ति अपेक्षेने यद्यपि भेद असतो तथापि त्या सर्व व्यक्तीमध्ये एक जाति अपेक्षेने जो अभेद असतो त्याला तिर्यक् सामान्य म्हणतात. हे तिर्यक् सामान्य अनेकामध्ये एकतारूपाने बुद्धीने कल्पित केले असते म्हणून याला अशुद्ध सामान्य म्हणतात. व्यक्तिभेदाला एक जाति अभेद रूपाने ग्रहण करणारा जो नय त्याला संग्रहनय म्हणतात. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार या अभेदरूप संग्रहनय विषयाचे विधिपूर्वक भेद करणे त्याला व्यवहारनय म्हणतात. येथे कालाच्या अपेक्षेने जो पर्यायभेद असतो तो विवक्षित नसून एका जातीचे पोटजातीभेदरूपाने द्रव्यभेद विवक्षित असतो म्हणून हा व्यवहारनय पर्यायार्थिक नसून द्रव्याथिकनय म्हटला जातो. या तीन्ही नयामध्ये द्रव्याची प्रधानता विवक्षित असते म्हणून यांना द्रव्यार्थिक नय म्हटले आहे. पर्यायाथिक नयभेद चतुर्धा पर्ययार्थाः स्याद् ऋजुः शद्वनया परे। उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्म सूक्ष्मार्थभेदतः ।। ४२ ।। शद्ध-समभिरूढवं भूतास्ते शद्बभेदगाः ।। (षट्पदी) अर्थ- पर्यायाथिक नय चार प्रकारचा आहे. यामध्ये पर्यायाची प्रधानता असते. १ ऋजुसूत्र, २ शद्वनय, ३ समभिरूढनय ४ एवंभूतनय. यापैकी ऋजुसूत्र नयामध्ये द्रव्याथिक नयाप्रमाणे पर्यायरूपाने पदार्थाची मुख्य विवक्षा असते. म्हणून ऋजुसूत्रनय अर्थनय म्हटला जातो. बाकीच्या तीन नयामध्ये पर्यायाची व प्रामुख्याने शद्वाची मुख्य विवक्षा असते. म्हणजे हे तीन पर्यायाथिक नय शद्वनय म्हटले जातात. या सात नयांचा जो क्रमनिर्देश केला आहे त्यामध्ये मुख्य उद्देश हा आहे की हे नय उत्तरोत्तर पदार्थाच्या सूक्ष्म सूक्ष्म विषयाला ग्रहण करतात. या प्रमाणे पहिले तीन द्रव्यार्थिक व शेवटचे चार पर्यायार्थिक नय भेद आहेत. सात नयातील दुसरी विशेषता चत्वारो ऽ र्थनया आधास्त्रयः शद्वनयाः परे । उत्तरोत्तरमत्रैषां सूक्ष्मगोचरता मता ।। ४३ ।। अर्थ- या सात नयापैकी पहिले चार नय, नैगम, संग्रह, व्यवहार व ऋजुसूत्र यामध्ये प्रामुख्याने पदार्थाची प्रधानता असते म्हणून हे चार अर्थनय म्हटले जातात. बाकीचे तीन नय शद्वनय, समभिरूढ नय, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार एवं भूतनय यामध्ये प्रामुख्याने शद्वाची प्रधानता असते म्हणून ते तीन नय शद्वनय म्हटले जातात. १ नैगम-नय लक्षण व दृष्टांत अर्थ संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयाः । प्रस्थौदनादिकस्तस्य विषयः परिकीर्तितः ॥ ४४ ॥ अर्थ-- पदार्थाच्या संकल्प मात्रावरून पदार्थाचे ग्रहण करणारा नय तो नैगमनय होय. जसे प्रस्थं आनेतुं गच्छामि । प्रस्थ (लाकडाचेमाप) तयार करण्याचा संकल्प करून लाकूड आणण्यास जात असताना मी प्रस्थ आणण्यास जात आहे असे म्हणणे. भात करण्याचा संकल्प करून तांदूळ शिजवित असताना मी भात शिजवित आहे (ओदनं पच्चामि) असे म्हणणे. नैगमाचे तीन भेद आहेत १ भूत नैगम, २ भावी नैगम' ३ वर्तमान नेगम. १ भूतकालीन क्रियेचा वर्तमान कालामध्ये संकल्प करणे भूतनैगम. २ भावीकालीन पर्यायाचा वर्तमान पर्यायामध्ये संकल्प करणे भावीनैगम. ३ वर्तमान चालू क्रियेचा पूर्ण क्रियेमध्ये संकल्प करणे वर्तमान नैगम. २ संग्रहनय लक्षण-दृष्टांत भेदेऽप्यैक्यमुपानीय स्वजातेरविरोधतः । समस्तग्रहणं यः स्यात् स नयः संग्रहो मतः ॥ ४५ ।। अर्थ- अनेक पदार्थामध्ये व्यक्तिगत भेद असताना देखील त्याला . गौण करून विवक्षित जालि अपेक्षेने विरोध न येईल अशी एकता स्थापित करून अनेक पदार्थांना एकजातिसंग्रहरूपाने ग्रहण करणे तो संग्रहनय होय. अनेक मनुष्याना मनुष्य या एक नावाने संबोधित करणे. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार ३ व्यवहारनय लक्षण-दृष्टांत संग्रहेण गृहीतानां अर्थानां विधिपूर्वकः । व्यवहारो भवेद् यस्माद् व्यवहारनयस्तु सः ॥ ४६ ॥ अर्थ- संग्रहनयाने ज्याना एकजातिसमहरूपाने ग्रहण केले त्याचे विधिपूर्वक विरोध न येईल या प्रमाणे भेद करणे तो व्यवहारनय होय. 'विधिपूर्वकं अवहरणं व्यवहारः' जसे जीवाचे भेद सांगणे असल्यास जीवत्वपणाला विरोध न येईल अशा विधानपूर्वक भेद करणे. जीवाचे भेद-संसारी व मुक्त. संसारीचे भेद-त्रस व स्थावर. त्रसाचे भेदद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिंद्रिय-पंचेंद्रिय. स्थावराचे भेद पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय इ. व्यवहारनयामध्ये कालभेदाची पर्यायभेदाची मुख्यता नसून द्रव्यभेदाची मुख्यता असते म्हणून हा द्रव्याथिक नयभेद आहे. ४ ऋजुसूत्रनय लक्षण ऋजुसूत्रः स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकं । वर्तमानक समय-विषयं परिगृह्यते ।। ४७ ॥ अर्थ- या ऋजुसूत्र नयाचा विषय वस्तूचा एक समय वर्ती सूक्ष्म पर्याय असतो तो ऋजसूत्रनय होय. यद्यपि वस्तू वा प्रत्येक समवर्ती पर्याय एक समयवर्ती असतो तथापि सामान्यपणे अनेक समय वर्ती स्थूल पर्याय देखील वर्तमानकाळ रूपाने म्हटला जातो. या अपेक्षेने ऋजुसूत्र नयाचे दोन भेद आहेत. १ सूक्ष्म ऋजुसूत्र नयाचा विषय- एकसमयवर्ती सूक्ष्मपर्याय. २ स्थूल ऋजुसूत्र नयाचा विषय- अनेक समयवर्ती स्थूलपर्याय यद्यपि या ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक नयाचा विषय पर्याय असतो तथापि त्यामध्ये पर्यायरूप पदार्थाची विवक्षा मुख्य असते. शद्वाची मुख्यता नसते म्हणून पहिले तीन द्रव्यार्थिक नय व हा ऋजुसूत्र पर्यायाथिक नय हे चार अर्थनय म्हटले जातात. बाकीच्या तीन नयामध्ये शद्वाची प्रधानता असते म्हणून त्याना शद्वनय म्हटले आहे. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार Sta ५ शद्वनय लक्षण लिंगसाधन संख्यानां कालोपग्रहयोस्तथा । व्यभिचारनिवृत्तिः स्यात् यतः शदनयो हि सः ।। ४८ ॥ अर्थ- ज्या नयामध्ये शद्ध संकेताची प्रधानता असते त्यास शद्वनय म्हणतात. या नयामध्ये एका अर्थाचे अनेक शब्द्ध जे एकार्थ वाचक ऋजुसूत्र नयात अभिप्रेत होते ते शद्वनयास अभिप्रेत नसतात. शद्वनयाने जेवढे शब्द ते प्रत्येक निरनिराळ्या स्वतंत्र अर्थाचे वाचक असतात. परंतु शद्वनयामध्ये लिंग-संख्या-साधन-काळ-उपग्रह (उपसर्ग) या अपेक्षेने जो शब्द व्यभिचार विरोध असतो तो शद्वनयास अभिप्रेत नसतो. जसे स्त्री- (स्त्रीलिंग) कलत्र- (नपुसकलिंग) दारा- (पुल्लिग) हे स्त्रीवाचक तीन लिंगी शब्द एका स्त्रीचे वाचक आहेत असे शद्वनय मानतो. लिंगावरून संख्या (एकवचन-द्विवचन-बहुवचन) यावरून (साधनकर्तृसाधन-कर्मसाधन भावसाधन) यावरून, कालवाचक शद्वावरून, उपसर्गभेदावरून अर्थामध्ये भेद मानणे हा शद्वनयाचा विषय नाही. ( एहि, मन्ये, त्वं रथेन यास्यसि यातस्ते पिता ) ये, तू असे समजतोस की मी रथाने जाईन. तुझा बाप जाईल. इत्यादि वाक्यात पुरूषभेदकालभेद-वचनभेद व्यभिचार शब्दनयाने निर्दोष म्हटले जातात. ६ समभिरूढ नय लक्षण ज्ञेयः समभिरूढोऽसौ शद्बो यद्विषयः स हि । एकस्मिन्नभिरूढोऽर्थे नानार्थान् समतीत्य यः ।। ४९ ।। अर्थ- एका शद्वाचे अनेक अर्थ असू शकतात. परंतु त्यामध्ये जो एक अर्थ लोकव्यवहारात रूढ प्रसिद्ध असतो तोच त्या शद्वाचा अर्थ समजणे यास समभिरूढ नय म्हणतात. जसे- गो शद्वाचे- गाय-इंद्रियवाणी इत्यादि अर्थ आहेत. तथापि लोकव्यवहारामध्ये गो शब्द हा गाय या अर्थाने रुढ-प्रसिद्ध आहे. तोच अर्थ या नयाचा विषय असतो. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ तत्वार्थसार ७ एवंभूतनय लक्षण शद्वो येनात्मना भूतस्तेनै वाध्यवसाययेत् । यो नयो मुनयो मान्यास्तमेवंभूतमभ्यधुः ॥ ५० ॥ अर्थ- जो शब्द ज्या क्रियेचा ज्या अर्थाचा वाचक असेल ती क्रिया ज्यावेळी जो करीत असेल त्यावेळी त्याला त्या शद्ब संकेताने संबोधणे यास एवंभूत नय म्हणतात. जसे- राजा ज्यावेळी राजसिंहासनावर बसून राजसभा चालवीत असेल त्यावेळीच त्याला राजा म्हणणे. ज्यावेळी तो पूजा करीत असेल त्यावेळी त्याला राजा न म्हणता पुजारी म्हणणे. गाय जेव्हा गमनक्रिया करीत असेल किंवा जिचे गोदोहन कार्य होत असेल तेव्हा तिला गाय म्हणणे इतर वेळी तिला गाय न म्हणणे. याप्रमाणे क्रियापरिणत किंवा शद्वाचे अर्थास अनुसरून जेथे कार्य होत असेल तेव्हा त्याला त्या शद्बाने संकेत करणे यास एवंभूतनय म्हणतात. अथवा आत्मा ज्यावेळी ज्याचे ध्यान करतो किंवा ज्या पदार्थाचे ज्ञान करतो त्यावेळी तो ध्यानाने ज्ञानाने तदाकार परिणत होतो म्हणून त्यावेळी त्याला त्या नावाने संबोधित करणे हा या एवंभूताचा विषय आहे. त्रिकाल शुद्ध स्वभावाचे ध्यान करणारा आत्मा पर्यायात अशुद्ध असून ही एवंभूत नयाने शुद्ध म्हटला जातो. नयाची समीचीनता व असमीचीनता एते परस्परापेक्षा : सम्यग्ज्ञानस्य हेतवः । निरपेक्षा: पुनः सन्तो मिथ्याज्ञानस्य हेतवः ।। ५१ ।। अर्थ - वर सांगितलेले हे सर्व नय स्यात् ' पदाने परस्पर सापेक्षभाव, मैत्रीभाव ठेवीत असतील तर ते वस्तूच्या समीचीन ज्ञानाचे कारण होतात. म्हणून सम्यक् प्रमाण म्हटले जातात. कारण त्यामध्ये असलेला ' स्यात् ' शद्वप्रयोग हा आपल्या विवक्षित नय निक्षेपाचा सूचक असून वस्तूमध्ये दुसन्या नयनिक्षेपाने आपल्या प्रतिपक्षी धर्माचाही सद्भाव वस्तूमध्ये आहे, या मान्यतेचा सूचक आहे. " Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार ज्या कथनामध्ये विवक्षित नयनिक्षेपाची विवक्षा अभिप्रेत नाही. जो नय एकांतपणे वस्तूमध्ये विवक्षित धर्माचाच सद्भाव मानतो. प्रतिपक्षी अन्य धर्माचा सद्भाव अभिप्रेत नसतो अशा अन्यनिरपेक्ष नयाला नयाभास मिथ्यानय म्हटले आहे. कारण वस्तूमध्ये हे परस्पर विरोधी धर्म भिन्न भिन्न विवक्षेने आपला परस्पर अविनाभाव सिद्ध करणारे आहेत. वस्तूमध्ये स्वचतुष्टयाची अस्ति ही वस्तूमध्ये परचतुष्टयाची नास्ति मानल्याशिवाय सिद्ध होत नाही. 'सर्वे एकांतवादाः स्ववैरिणः, परवैरित्वात् ' सर्व एकांतवाद नय आपल्या प्रतिपक्षी धर्माचा निषेध करीत असल्यामुळे ते आपल्या विवक्षित धर्माची देखील सिद्धि करू शकत नसल्यामुळे त्यांना ' स्ववैरी' म्हटले आहे. वस्तूमध्ये पराची नास्ति मानल्याशिवाय आपली अस्ति सिद्ध होऊ शकत नाही. वस्तूमध्ये पर्यायधर्माचा अनित्यपणा मानल्याशिवाय द्रव्यधर्म नित्य राहू शकत नाही. पर्यायरूपाने परिणमनशील राहून द्रव्यधर्मरूपाने ध्रुव राहणे हा वस्तूचा वस्तुगत स्वभाव आहे. 'निरपेक्षया नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्' __ प्रतिपक्ष निरपेक्ष नय हे मिथ्या म्हटले जातात. प्रतिपक्ष सापेक्षनय त्या सर्वांचा समन्वय, समुदाय हीच अर्थक्रियाकारी वस्तु म्हटली जाते. तेथे अभेद वस्तूचे परमार्थस्वरूप असते. उत्तरोत्तर नयाच्या विषयामध्ये सुक्ष्मपणाची तर तमता या सात नयांचा क्रमनिर्देश यथाक्रम सांगण्यात उत्तरोत्तर त्यांचा विषय सूक्ष्म-सूक्ष्म आहे हे सूचित केले आहे. १) नैगमनय- हा पदार्थ व पदार्थातील द्रव्यधर्म, गुणधर्म, पर्यायधर्म, या सर्वांचे एक महासत् रूपाने ग्रहण करणारा असल्यामुळे तो Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार व्यापक आहे. या नयात द्रव्य-गुण-पर्याय, कृत-काल कृत-व्यक्तिकृत भेद विवक्षित नसून सर्वांचे एक महासत् मानून एक व्यक्तिच्या द्वारे अनेक व्यक्तिच्या, द्रव्यद्वारे, गुण-द्वारे, किंवा पर्यायद्वारे संपूर्ण वस्तूचे अभेदरूपाने ग्रहण करणे हा या नपाचा विषय आहे. २) संग्रहनय- हा द्रव्याथिकनय असल्यामुळे गुणभेद-पर्यायभेदाला गौण करून विशिष्ट जातियुक्त पदार्थाना विशिष्टजातिसंग्रह रूपाने ग्रहण करणे हा या नयाचा विषय आहे. ३) व्यवहारनय- संग्रहनयाने विशिष्टजाति संग्रहरूपाने ग्रहण केलेल्या पदार्थाचे विधिपूर्वक भेद करणे हा व्यवहारनय होय. या तीन नयामध्ये वस्तूच्या कालकृत पर्याय भेदाची विवक्षा नसते म्हणून याला द्रव्याथिकनय म्हणतात. ४) ऋजुसुत्रनय- हा कालकृत पर्यायभेदाची अपेक्षा करतो. एकसमयवर्ती पर्यायच या नयाचा विषय असतो. यद्यापि हा नय लोकव्यवहारदृष्टीने निरर्थक, अप्रयोजनभूत आहे. तथापि येथे नय ज्ञानाचा सूक्ष्म विषय केवढा सूक्ष्म असतो हे दाखविणे या नयाचे मुख्य प्रयोजन आहे. लोकव्यवहारासाठी स्थूल ऋजुसूत्र किंवा अन्यनय प्रयोजनभूत आहेत. ५) शद्वनय- हा नय एकाच पदार्थाचे वाचक जे अनेक एकार्थवाचक शब्द असतात त्याचा निषेध करतो. पण शद्वातील लिंगभेदवचनभेद-पुरुषभेद- कालभेद याला गौण करून एकाच स्त्री पदार्थाचे वाचक जे स्त्री कलत्र दारा असे अनेक लिंगी शद्वातील विरोध न मान । सर्वांचा एकच अर्थ निर्दोष मानतो. ६) समभिरूढनय- एकाच शद्वाचे अनेक अर्थ होत असताना त्यांना गौण करून विवक्षित रूढ-प्रसिद्ध अर्थालाच स्वीकारतो. ७) एवंभूतनय- शद्वाच्या अर्थांस अनुसरून कृतिपरिणत पदार्थालाच त्या शद्वाने संकेत करणे हा सर्वात सूक्ष्म एवंभूतनयाचा विषय आहे. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार (सकलांशग्राहि ज्ञानं प्रमाणं,) (एकांश पाहिज्ञानं नयs) नय व प्रमाण हे वस्तूला जाणण्याचे उपाय आहेत. प्रमाणाने वस्तूच्या संपूर्ण अंशाचे ज्ञान होते. प्रमाणाने जाणलेल्या अंशापैकी एकएक अंशाचे विवक्षित नय-निक्षेप अभिप्राय पूर्वक ग्रहण करणे किंवा कथन करणे याला नयज्ञान म्हणतात. मतिज्ञानादि पाचही ज्ञाने निर्विकल्प आहेत. प्रमाण आहेत. परंतु श्रुतज्ञान हे प्रमाणरूप व नयरूप देखील आहे. श्रुतज्ञान जेव्हा निर्विकल्प अनुभूतिरूप असेल तेव्हा ते प्रमाणज्ञान होय. जेव्हा अभेद वस्तूचे अंशभेदरूपाने ग्रहण किंवा कथन केले जाते तेव्हा ते ज्ञान नयात्मक विकल्पात्मक असते. नय हे विकल्पात्मक श्रुतज्ञानाचे भेद आहेत. जावदिया वयणविहा तावदिया होंति णयवावा । जावदिया णयवादा तावदिया होंति परसमया ॥ जेवढे वचनात्मक विकल्पज्ञान आहे ते सर्व नयज्ञान होय. नयज्ञान विकल्प हा निर्विकल्प वस्तूचे स्वरूप समजण्यासाठी केवळ नयनिक्षेपविधीने वस्तूमध्ये विकल्पभेदाची विवक्षा अभिप्रेत ठेवून विवक्षित भेदरूपाने अभेद वस्तूचे कथन करतो म्हणून, (वस्तु अभेद वचनतै भेद) या उक्तिकथनाप्रमाणे अभेद वस्तूचा भेदरूप कथन व्यवहार हा सर्व परसमय म्हटला जातो. हे वचनात्मक नयभेद कथन वस्तूचे परमार्थस्वरूप नसून वस्तूच्या अभेद स्वरूपाचे हे सूचक आहेत. दिग्दर्शक आहेत. भेदकथन करणारा हा व्यवहारनय आपल्या भेदरूप व्यवहार कथनाचे परमार्थत्व स्थापित करीत नसून भेदकथनाच्या माध्यमातून अभेदात्मक वस्तूचे परमार्थत्व स्थापित करणारा असेल तेव्हा तो व्यवहारनय निश्चयनय सापेक्ष असा सम्यक्व्यवहारनय म्हटला जातो. तसेच जो निश्चयनय वस्तूचे अभेद स्वरूप समजण्यासाठी प्रथम भेदकथनात्मक व्यवहारनयाचा आश्रय घेऊन भेद कथनाच्या माध्यमातून अभेदात्मक वस्तूचे ज्ञान करून घेतो तो निश्चयनय व्यवहारनय-सापेक्ष सम्यकनय म्हटला जातो. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार निश्चय निरपेक्षव्यवहारनय हा व्यवहाराभास होय. तसाच व्यवहार-निरपेक्ष निश्चय हा निश्चयाची खरी साधना करू शकत नसल्यामुळे तो निश्चयाभास म्हटला जातो. सहा द्रव्याचे सहा अनुयोग रूपाने कथन निर्देशः स्वामित्वं साधनमधिकरणमपि च परिचिन्त्यम् । स्थितिरथ विधानमिति षड् द्रव्याणामधिगमोपायाः ॥५२॥ अर्थ- जीवादिक सहा द्रव्याचे सहा अनुयोगाद्वारे कथन या श्लोकात सूचित केले आहे. कोणत्याही वस्तूचे ज्ञान होण्यासाठी हे अनुयोगद्वार जाणून घेणे आवश्यक आहे. शास्त्रामध्ये जीवादिक द्रव्याचे ६ अनुयोगरूपाने वर्णन केले आहे. १ निर्देश २ स्वामित्व ३ साधन ४ अधिकरण ५ स्थिति ६ विधान. सम्यग्दर्शनाचे ६ अनुयोगद्वारे कथन. १ निर्देश- सम्यग्दर्शनाचा नामनिर्देश करणे. २ स्वामित्व - सम्यग्दर्शनाचा स्वामी चतुर्गतीतील संज्ञीभव्य जीव आहे. ३ साधन- निश्चयनयाने त्रिकालशुद्ध आत्मस्वभावरूप कारण परमात्मा याच्या आश्रयाने सम्यग्दर्शन प्राप्त होते. व्यवहारनयानेदेवदर्शन- शास्रस्वाध्याय- गुरूचा उपदेश हे सम्यग्दर्शन प्राप्तीचे बाह्य निमित्त आहे. ४ अधिकरण- निश्चयनयाने सम्यग्दर्शनाचे स्थान आत्माच आहे. व्यवहारनयाने-सम्यग्दर्शनाची प्राप्ती चारही गतीत होते. त्रसनाली बाह्यक्षेत्र अधिकरण आहे. ५ स्थिति- सम्यग्दर्शनाचा काल जघन्य अन्तमुहूर्त आहे. उत्कृष्ट काल ६६ सागर काही अधिक आहे. ६ विधान- सम्यग्दर्शनाचे दोन भेद आहेत. १ निसर्गज व २ अधिगमज. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार १ निसर्गज - उपदेशाशिवाय दर्शनमोहाचा क्षयोपशम झाला असताना जे प्राप्त होते ते निसर्गज. ४३ २ अधिगम - गुरुच्या उपदेशाने शास्त्र स्वाध्यायाने जे सम्यक्दर्शन प्राप्त होते त्यास अधिगमज सम्यग्दर्शन म्हणतात. सम्यग्दर्शनाचे तीन भेद आहेत. १ औपशमिक २ क्षायिक ३ क्षायोपशमिक. १ औपशमिक जे दर्शनमोहाच्या तीन प्रकृति व अनंतानबंधीच्या चार प्रकृती यांचा उपशम झाला असताना प्राप्त होते ते औपशमिक सम्यक्त्व होय. क्षय-उपशम २ क्षायिक - सात प्रकृतीचा क्षय झाला असताना जे सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ते क्षायिक सम्यग्दर्शन होय. ३ क्षायोपशमिक - दर्शनमोहाच्या दोन प्रकृती मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व व अनंतानुबंधीच्या चार प्रकृति या सर्वघाति प्रकृतीचा काहीचा सदवस्थारूप उपशम व काहीचा उदयाभावी क्षय व सम्यक्त्व प्रकृती देशघातीचा उदय असताना जे सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ते क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होय. वास्तविक सम्यग्दर्शन हा जीवाचा वीतराग स्वभाव परिणाम आहे. तो दर्शनमोह व अनंतानुबंधीच्या अभावात वीतराग शुद्ध आत्मानुभवरूप परिणाम आहे. पण सम्यग्दर्शनाचे चारित्राच्या अपेक्षेने दोन भेद आहेत, १ सराग सम्यग्दर्शन, २ वीतराग सम्यग्दर्शन. १ सराग सम्यग्दर्शन - गुणस्थान ४ ते ६ पर्यंत असंयम किंवा देशसंयम प्रमत्त सकलसंयम याना जे सम्यग्दर्शन असते ते सराग सम्यग्दर्शन म्हटले जाते त्यालाच कोणी आचार्य व्यवहारसम्यग्दर्शन देखील म्हणतात. २ वीतराग सम्यग्दर्शन- वीतरागचारित्राशी अविनाभावी जे सम्यग्दर्शन ते वीतराग सम्यग्दर्शन होय. त्यालाच कोणी आचार्य निश्चय सम्यग्दर्शन म्हणतात. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार वास्तविक दर्शन मोहाचा व अनंतानुबंधीच्या अभावात जे सम्यग्दर्शन - आत्मतत्वरूचि, आत्मतत्वज्ञान व आत्मतत्वानुभूति स्वरूप असते ते निश्चयसम्यक्त्व होय. ४४ निश्चयसम्यक्त्यसहित जो पर्यंत आत्मतत्वात अविचल स्थिर वृत्ति होत नाही. तोपर्यंत वीतराग सर्वज्ञ देव- शास्त्र - गुरू यांची भक्ति अनुराग, पूजा, दान, शास्त्र स्वाध्याय व्रत, संयम इत्यादिरूप शुभप्रवृत्तिसहित असते ते व्यवहारसम्यग्दर्शन म्हटले जाते. निश्चयसम्यक्त्वरहित व्यवहारसम्यग्दर्शन हे व्यवहारनयानेदेखील सम्यग्दर्शन म्हटले जात नाही. जीवादि पदार्थाना जाणण्याचा दुसरा उपाय आठ अनुयोग अथ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शन कालान्तराणि भावश्च । अल्पबहुत्वं चाष्टावित्यपरेऽप्यधिगम पायाः ॥ ५३ ॥ 1 अर्थ - १ ) सत् २ ) संख्या ३) क्षेत्र ४) स्पर्शन ५ ) काल ६) अंतर ७) भाव ८) अल्पबहुत्व हे आठ अनुयोगद्वार जीवादि पदार्थाचे स्वरूप जाणण्याचा उपाय आहे. धवलादि ग्रंथामध्ये सम्यक्दर्शनादिकाचे आठ अनुयोगद्वाराने विस्तारपूर्वक वर्णन केले आहे. १ सत् - सम्यग्दर्शन हा जीवाचा सहज सिद्ध स्वभाव आहे. दर्शनमोह व अनंतानुबंधीच्या अभावात तो स्वभाव प्रगट होतो. २ संख्या - सम्यग्दर्शनाचे भेद वर्णन करणे किंवा औपशमिकक्षायिक- क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टी यांच्या संख्या गणना करणे. सागर. ३ क्षेत्र - सम्यग्दर्शन उत्पन्न होण्याचे क्षेत्र चतुर्गती - त्रसनाली. ४ स्पर्शन- सम्यग्दृष्टी जीव भूत-भावीकाळात कोठे जाऊ शकतो त्रिकालगोचर क्षेत्र वर्णन. ५ काल - सम्यग्दर्शनाचा काल- जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उकृष्ट ६६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार ४५ ६ अंतर- सम्यग्दर्शनापासून च्युत होऊन जीवाला पुनः किती कालाने सम्यग्दर्शनाची प्राप्ति होते. ७ भाव- सम्यग्दर्शन हा औपशमिक- क्षायिक- क्षायोपशमिकभाव आहे. निश्चयनयाने सम्यग्दर्शन हा जीवाचा सहज स्वाभाविक परमपारिणामिक भाव आहे. त्याच्या आश्रयाने जीवाला पर्यायरूपाने सम्यग्दर्शनाची प्राप्ति होते. ८ अल्पबहुत्व- औपमिक सम्यक्त्वाचा काल अंतर्मुहूर्त असतो म्हणून सर्वात कमी औपशमिक सम्यग्दृष्टी आहे. क्षायिक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टी मनुष्याच्या अपेक्षेने संख्यात आहेत. पण इतर गतीच्या अपेक्षेने असंख्यात आहेत. अनंत सिद्धाच्या अपेक्षेने अनंत आहेत. उपसंहार सम्यग्योगी मोक्षमार्ग प्रपित्सुयस्ता नामस्थापना द्रव्यभावः ॥ स्याद्वादस्थां प्राप्य तैस्तै रुपायैः प्राग्जानीयात् सप्ततत्त्वी क्रमेण । ५४ । __ अर्थ- प्रथम अधिकाराचा उपसंहार करताना आचार्य म्हणतात याप्रमाणे मोक्षमार्गावर आरूढ होण्यास उत्सुक अशा सम्यग्दृष्टी-ज्ञानीयोगी-श्रावक व मुनीनी नाम-स्थापना-द्रव्य भाव निक्षेप पूर्वक नयप्रमाणाच्याद्वारे निर्देश आदि सहा अनुयोगद्वारे व सत् संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारे जीव अजीव आदि सात तत्त्वाचे हेय उपादेयरूपाने समीचीनज्ञान करून घ्यावे. क्रमाने स्याद्वाद सप्तभंगीद्वारे विचार करावा. प्रथम अधिकार समाप्त. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार २ रा जीवतत्व वर्णन अनन्तानन्तजीवानामेकैकस्य प्ररूपकान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ना जीवतत्त्वं प्ररूप्यते ॥ १॥ अर्थ- अनन्तानन्त जीवपदार्थ व त्यांच्या प्रत्येकाच्या त्रिकालवर्ती सर्व अवस्थाना युगपत् जाणणारे व त्यांचे प्ररूपण करणारे अशा सर्वज्ञ जिनदेवांना नम्रभावाने नमस्कार करून या अधिकारात जीवतत्त्वाचे वर्णन करण्याची विषय प्रतिज्ञा सूचित केली आहे. जीवतत्व स्वरूप अन्यासाधारणा भावाः पंचौपशमिकादयः । स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जीवः स व्यपदिश्यते ॥ २ ॥ अर्थ- ज्याचे औपशमिकादि पांच असाधारण भाव स्वतत्त्व आहेत ते जीवतत्त्व म्हटले जाते. जीवाचे असाधारण पाच भाव स्यादौपशमिको भावः क्षायोपशमिकस्तथा । क्षायिकश्चाप्यौदयिकस्तथाऽन्यः पारिणामिकः ॥ ३ ॥ अर्थ- जीवाचे असाधारण भाव पाच आहेत. १ औपशमिक, २ क्षायोपशमिक, ३ क्षायिक, ४ औदयिक, ५ पारिणामिक. जे जीवद्रव्याशिवाय इतर द्रव्यात आढळत नाहीत त्यांना असाधारण भाव म्हणतात. यद्यपि यापैकी काही भाव पुद्गल कर्मनोकर्माच्या संयोगात व काहीभाव वियोगात होतात तथापि त्या सर्व अवस्था जीवद्रव्याच्याच असल्यामुळे त्यांना जीवाचे स्व-तत्त्व म्हटले आहे. १ जो भाव कर्माचा उपशम झाला असताना प्रगट होतो त्यास औपशमिकभाव म्हणतात. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार । २ जो भाव कर्माचा क्षयोपशम झाला असताना प्रगट होतो त्यास क्षायोपशमिकभाव म्हणतात. ३ जो भाव कर्माचा क्षय झाला असताना प्रगट होतो त्यास क्षायिकभाव म्हणतात. ४ जो भाव कर्माचा उदय असताना प्रगट होतो त्यास औदयिक भाव म्हणतात. ५ जो भाव कर्माचा उदय-उपशम-क्षय क्षयोपशम इत्यादि अन्य कारणाची अपेक्षा न ठेवता सहजसिद्ध स्वभावरूप असतो त्यास पारिणामिकभाव म्हणतात. औपशमिक भावाचे भेद भेदौ सम्यक्त्वचारिद्रे द्वावौपशमिकस्य हि ॥ अर्थ-- औपशमिक भावाचे दोन भेद आहेत. १ औपशमिक सम्यक्त्व, २ औपशमिक चारित्र, जीवाच्या शुद्ध परिणामाने बांधलेले कर्म जेव्हा उदयास न येता सत्तेमध्ये दबून बसते त्यास उपशम म्हणतात. उपशम केवळ मोहनीय कर्माचाच होतो. मोहनीय कर्माचे दोन भेद आहेत. १ दर्शनमोहनीय, २ चारित्र मोहनीय. दर्शनमोहनीय कर्माचा उपशम झाला असता जीवाचा जो सम्यग्दर्शनगुण प्रगट होतो त्यास औपशमिक सम्यक्त्व म्हणतात. हा भाव गुणस्थान ४ ते ११ पर्यंत असू शकतो. २ चारित्र मोहनीय कर्माचा उपशम झाला असताना जीवाचा जो सम्यक्चारित्र स्वभाव प्रगट होतो त्यास औपशमिक चारित्र म्हणतात. हा भाव उपशम श्रेणीमध्ये गुणस्थान ७ ते ११ पर्यंत असतो. क्षायोपशमिकभावाचे भेद अज्ञानत्रितयं ज्ञान-चतुष्कं पंच लब्ध ।। ४ ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार देशसंयमसम्यक्त्वे चारित्रं दर्शनत्रयं । क्षयोपशमिकस्यैते भेदा अष्टादशोदिताः ।। ५ ।। अर्थ- क्षायोपशमिक भावाचे १८ भेद आहेत. क्षायोपशम हा चार घातिकर्माचा होतो. १ (ज्ञानावरण कर्माच्या क्षयोपशम झाला असताना)(मिथ्यादृष्टि जीवास)- १ कुमतिज्ञान २ कुश्रुतज्ञान ३ विभंगअवधिज्ञान (सम्यग्दृष्टि जीवास)- ४ सुमतिज्ञान ५ सुश्रुतज्ञान ६ सुअवधिज्ञान ७ मनःपर्ययज्ञान २ (अंतराय कर्माचा क्षयोपशम झाला असताना)- (८ ते १२) पाच क्षयोपशम लब्धि- (दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य). ३ (दर्शनमोहनीयाचा क्षयोपशम झाला असताना)१३ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व. (चारित्रमोहदीयाचा क्षयोपशम झाला असताना)- १४ देशसंयम, १५ सकलसंयम. ४ (दर्शनावरण कर्माचा क्षयोपशम झाला असताना)१६ चक्षुदर्शन १७ अचक्षुदर्शन १८ अवधिदर्शन. घातिकर्मप्रकृतीचे २ भेद आहेत- १ सर्वघाति २ देशघाति. १ जे कर्म आत्मगुणाचा पूर्णपणे घात करते पूर्णपणे प्रगट होऊ देत नाही त्यास सर्वघाति म्हणतात. २ जे कर्म आत्मगुणाचा अंशतः घात करते अंशतः प्रगट होऊ देते त्यास देशघाती म्हणतात वर्तमानकाळी उदयास येणा-या सर्वघाति कर्माचा उदयाभावीक्षय व पुढे उदयास येणा-या सर्वघातीकर्माचा सद्वस्थारूप उपशम व देशघाति कर्माचा उदय अशी कर्माची जी उदयअनुदयरूप मिश्र अवस्था तिला क्षयोपशम म्हणतात. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा ज्ञानावरण कर्माचा क्षयोपशम झाला असताना जीवाचा जो अल्पज्ञानरूप ( ज्ञान-अज्ञानरूप ) मिश्र परिणाम होतो. त्यास क्षायोपशमिक ज्ञान म्हणतात. ( गुण. १ ते १२ ) १ मिथ्यादृष्टि जीवाला - ३ अज्ञान, १० क्षायोपशमिकभाव असतात. ४ ज्ञान, २ सम्यग्दृष्टि जीवाला ३ दर्शन, १ क्षायोपशमिक सम्यवत्व १ देशसंयम, एकूण १५ क्षायोपशमिकभाव असतात. २ दर्शन, अर्थ - क्षायिक भावाचे ९ भेद आहेत. २ क्षायिकज्ञान, ३ क्षायिकचारित्र ( ५ ते ९ क्षायिक दान-लाभ भोग-उपभोग- वीर्य ) क्षायिक भावाचे भेद सम्यक्त्वज्ञानचारित्रवीर्यदानानि दर्शनं । भोगोपभोगौ लाभश्च क्षायिकस्य नवोदिताः ॥ ६ - ४९ ५ लब्धि, ५ लब्धि. १ सकलसंयम. ४ क्षायिकदर्शन, १ क्षायिक सम्यक्त्व, जीवाच्या स्वाभाविक गुणाचे घातक ४ घातिकर्म असल्यामुळे घातिकर्माचा क्षय झाला असताना जे जीवाचे स्वाभाविक भाव प्रगट होतात त्यांना क्षायिकभाव म्हणतात. ( ज्ञानावरण कर्माचा क्षय झाला असताना ) क्षायिक ज्ञान ( गुण. १३-१४ ( दर्शनावरण कर्माचा क्षय झाला असताना ) क्षायिक दर्शन ( गु. १३-१४ ( दर्शन मोहाचा क्षय झाला असताना ) क्षायिक सम्यक्त्व ( गु. ४-१४ ( चारित्र मोहाचा क्षय झाला असताना ) क्षायिक चारित्र ( गु. १२-१४ ( अंतरायकर्माचा क्षय झाला असताना ) ५ ते ९ क्षायिकदान-लाभभोग-उपभोग - वीर्य ( गु. १३-१४ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा - औदयिक भावाचे भेद चतस्रो गतयो लेश्याः षट्कषायचतुष्टयं । वेदा मिथ्यात्वमज्ञानमसिद्धोऽसंयमस्तथा ।। इत्यौदयिकभावस्थ स्युर्भदा एकविंशतिः ॥ ७ ॥ (षट्पदी) अर्थ-- औदायिक भावाचे २१ भेद आहेत. उदय आठही कमांचा असतो. १ (ज्ञानावरण कर्माचा उदय असताना) १: अज्ञान २ (दर्शन मोहाचा उदय असताना) १. मिथ्यात्व (चारित्रमोहाचा उदय असताना): १ असंयम. ६. लेश्या, ४ कवाय ३ वेद (पुंवेद-स्त्रीवेद-नपुंसकने द) ३ (आयु व नामकर्माचा उदय असतान) ४ गति४ (आठ ही कर्माचा उदय असताना) , १ असिद्धत्व पारिणामिक भावाचे भेद । जीवत्वं चापि भव्यत्वमभव्यत्वं तथैव च । पारिणामिकभावस्य भेदत्रितयमिष्यते ॥ ८ ॥ अर्थ- पारिणामिक भावाचे ३ भेद आहेत. १ जीवत्व- २ भव्यत्व. ३. अभव्यत्व. परिणाम म्हणजे स्वभाव, जे भाव . स्वाभाविक असतात. त्यास पारिणामिक भाव म्हणतात. जीवाचे ज्ञान-दर्शनादिक विशेष गुण व अस्तित्व-वस्तुत्व आदि सामान्य गुण हे सर्व जीवाचे स्वाभाविक परिणाम आहेत. या सर्व गुणसमुहाला येथे जीवत्व या नावाने संबोधून त्याला पारिणामिक भाव म्हटले आहे. . जीवाचे भव्य व अभव्य असे दोन भेद आहेत. भव्यभाव व अभव्यभाव हा कर्माचा उदय-क्षय-क्षयोपशम. इत्यादि अन्य निमित्ताच्या Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अपेक्षेने नसून या दोन जीवराशी निसर्ग सिद्ध आहेत. म्हणून याना पारिणामिक भाव उपचाराने म्हटले आहे. ५१ १ भव्य - ज्यामध्ये सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगट होण्याची योग्यता असते त्यास भव्य म्हणतात. २ अभव्य - ज्यामध्ये सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगट होण्याची योग्यता नसते. जे अनंतकाळ पर्यंत संसारातच राहतात त्याना अभव्य म्हणतात. ज्याप्रमाणे जीवत्व हा जीवद्रव्याचा स्वाभाविक भाव आहे तसा भव्यत्व, व अभव्यत्व हा जीवाचा स्वभावभाव नाही. तथापि हा भव्यत्वपणा किंवा अभव्यत्वपणा कर्मनिमित्तक किंवा अन्यनिमित्तक नसून निसर्गत: या दोन राशि स्वतः सिद्ध आहेत. म्हणून याना पारिणामिक भाव उपचाराने म्हटले आहे. भव्याचा कधीही अभव्य होत नाही. अभव्याचा कधीही भव्य होत नाही. दोन्ही प्रकारच्या जीवामध्ये केवलज्ञानादि गुणांचा समूहरूप जीवत्व पारिणामिकभाव हा समान असतो. जर ' अभव्य जीवामध्ये पारिणामिक स्वभावरूप केवलज्ञानगुण न मानला तर अभव्याना केवलज्ञानावरण कर्माचा उदय मानता येणार नाही. आव्रियमाण केवल ज्ञानाच्या अभावात केवल ज्ञानावरण कर्माचा देखील अभाव मानण्याचा प्रसंग येईल. येथे जीवामध्ये ज्ञानादिक अनन्तगुण असताना त्यासर्वांच्या जीवत्वामध्ये अंतर्भाव करून केवल जीवत्व यालाच पारिणामिकभाव म्हटले आहे. येथे जीवत्व याचा अर्थ प्राणधारणरूप विशिष्टभवनिमित्तक जीवन हा अर्थ अपेक्षित नसून ज्ञान दर्शनादिरूप चेतनत्वशक्ति त्याला जीवत्व पारिणामिकभाव म्हटले आहे. विशिष्ट भवनिमित्तक जीवन हे तर आयुकर्माच्या आधीन असते. त्याला पारिणामिकभाव म्हटले नाही. टीप:- १ यदि शक्तिरूपेण अभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तदा तस्य केवलज्ञानावरणं न घटेत । आत्रेयमाणस्य अभावे आवरणस्यापि अभावात् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ तत्वार्थसार अधिकार २ रा भव्य-अभव्य-संबंधी जीवामध्ये विशेषता कोणती आहे असा प्रश्न केला असताना शुध्धशुध्धी पुनः शक्ती द्वे पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साधनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्क गोचरः ॥ (राजवार्तिक) ज्याप्रमाणे उडीदामध्ये शिजणारे उडीद व न शिजणारे उडीद ( कुचर उडीद ) असे दोन प्रकार असतात. त्याप्रमाणे जीवामध्ये दोन प्रकार भव्य-अभव्य आहेत. जे भव्य असतात त्यांची शुद्धिशक्तिची व्यक्ती सादि असते. जे अभव्य असतात त्यांची अशुद्धिशक्ति अनादिअनंत कालपर्यंत अशुद्धच असते. असा निसर्गसिद्ध वस्तुस्वभाव आहे. वस्तुस्वभाव हा तर्कगोचर नसतो. __ जीवाचे लक्षण अनन्यभूतस्तस्य स्यादुपयोगो हि लक्षणं । जीवोऽभिव्यज्यते तस्मादवष्टब्धोऽपि कर्मभिः ॥ ९॥ अर्थ- 'उपयोगो लक्षणं' जीवाचे लक्षण चेतनोपयोग आहे. (ज्ञानं स्व-परावभासकं) जे स्वावभाससहित परपदार्थाला जाणते ते जीवाचे अनन्यभूत असाधारण लक्षण आहे. ( स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकत्वायोगात् ) जो स्वतःला जाणू शकत नाही. तो पराला देखील जाणू शकत नाही. जीवाला सोडून अन्यद्रव्ये स्वतःला जाणू शकत नाहीत म्हणून ते पराला देखील जाणू शकत नाहीत. स्व-पर-प्रकाशकत्व हा जीवाचा असाधारण स्वभाव आहे. त्यामुळे हा जीव कर्मानी व्याप्त असून देखील ज्ञान-दर्शन-स्वरूप उपयोग लक्षणाने ओळखला जातो. उपयोगाचे भेद साकारश्च निराकारो भवति द्विविधश्च सः । साकारं हि भवेज्ज्ञानं निराकारं तु दर्शनं ।। १० ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ- चेतनारूप उपयोगाचे दोन भेद आहेत. १ ज्ञानोपयोग २ दर्शनोपयोग. १ ज्यामध्ये पदार्थाचा विशेष प्रतिभास होतो त्या साकार उपयोगास ज्ञान म्हणतात. जसे- हा घट आहे. हा पट आहे. २ ज्यामध्ये पदार्थाचा विशेष प्रतिभास न होता सत्तामात्र सामान्य प्रतिभास होतो त्या निराकार उपयोगास दर्शन म्हणतात. जसे- काहीतरी आहे. ज्ञानामध्ये पदार्थाचा विशेष प्रतिभास होतो म्हणून त्यास साकार-सविकल्प म्हणतात. दर्शनामध्ये पदार्थाचा सामान्य प्रतिभास होतो म्हणून दर्शनास निराकार-निर्विकल्प म्हणतात. काही आचार्य स्वावभासाला दर्शन म्हणतात. अर्थावभासाला ज्ञान म्हणतात. छद्मस्थ जीवास प्रथमपदार्थाचा सामान्य प्रतिभास होतो नंतर विशेष प्रतिभास होतो. सामान्य प्रतिभासरूपदर्शन झाल्याशिवाय विशेष प्रतिभासरूप ज्ञान होत नाही. केवलज्ञान व केवलदर्शन हे युगपत् होतात. ज्ञानोपयोग स्वरूप कृत्वा विशेष गृण्हाति वस्तुजातं यतस्ततः । साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः ।। ११ ॥ अर्थ- पदार्थाच्या आकार विशेषाचे जे ग्रहण त्यास ज्ञान म्हणतात. पदार्थाचा सामान्य द्रव्यधर्म हा सदा एकरूप राहतो म्हणून त्याला निराकार म्हणतात. पदार्थाचा विशेषधर्म-गुणपर्यायधर्म हा प्रतिक्षण निरनिराळे रूप धारण करतो म्हणून पदार्थाच्या विशेष धर्माला ग्रहण करणे याला वस्तूचे यथार्थ स्वरूप जाणणाऱ्या सर्वज्ञ देवानी 'ज्ञान' म्हटले आहे. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार ज्ञान हे पदार्थाच्या विशेषाकाराला ज्ञेयाकाराला ग्रहण करते, जाणते म्हणून ते यद्यपि साकार म्हटले जाते तथापि ज्ञानाचे परिणमन ज्ञेयाकाररूप होत नाही. पदार्थाच्या विशेषाकाररूप ज्ञेयाकाराला जाणत असताना देखील ज्ञान ज्ञानाकाररूपच राहते. लोक- अलोकाला जाणणारे ज्ञान यद्यपि उपचाराने सर्वगत म्हटले जाते तथापि ते लोक, अलोकआकार परिणत होत नसून ज्ञान हे ज्ञानाकाररूप आत्मगत-स्वाकाररूपच असते. ५४ घटाला जाणणारे ज्ञान घटज्ञान, पटाला जाणणारे ज्ञान पटज्ञान याप्रमाणे ज्ञेयाकाराच्या ज्ञेय-ज्ञायक संबंधावरून यद्यपि ज्ञान साकार म्हटले जाते तथापि ज्ञान हे ज्ञेयाकाररूप परिणमन करीत नाही. पदार्थाचे ज्ञेयाकार ज्ञानामध्ये स्वयं प्रतिभासतात म्हणून ज्ञान साकार म्हटले जाते. दर्शनोपयोग स्वरूप यद्विशेषमकृत्वैव गृहीते वस्तुमात्रकं । निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः ।। १२ ।। - अर्थ - पदार्थाच्या विशेषाकाराला ग्रहण न करता पदार्थाचे सत्तामात्ररूपाने जे सामान्यग्रहण त्याला सर्वदर्शी सर्वज्ञभगवंतानी दर्शन म्हटले आहे. दर्शनामध्ये पदार्थाचा सत्तामात्र सामान्यरूपाने प्रतिभास होतो, पदार्थाच्या आकार विशेषाचे ग्रहण होत नाही म्हणून दर्शनास निराकार म्हणतात. दर्शनाची स्वसत्ता व पदार्थाची सामान्यसत्ता ही महासत्तारूपाने एक अभिन्न असते म्हणून ( कोणी आचार्य - पदार्थाच्या सामान्यसत्ता प्रतिभासाला दर्शन म्हणतात ) ( कोणी आचार्य ज्ञानाच्या स्व-प्र -प्रतिभासाला दर्शन म्हणतात ) छद्मस्थ जीवास प्रथम दर्शन होते नंतर ज्ञान होते. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा प्रथम वस्तूचा सत्तामात्ररूप सामान्य प्रतिभास होतो नंतर विशेषाकाररूप. प्रतिभास होतो तसेच ज्ञानाला प्रथम ( अहं जानामि ) रूप स्व-प्रतिभास होतो नंतर पदार्थाचा प्रतिभास होतो. ' : :I4 . प्रथम वस्तूचा सामान्य प्रतिभासस्वरूप दर्शन झाल्याशिवाय विशेष प्रतिभासस्वरूप ज्ञान होत नाही तसेच प्रथम स्वप्रतिभासस्वरूप दर्शन झाल्याशिवाय अर्थप्रतिभासस्वरूप ज्ञान होत नाही. पदार्थाचे प्रथम ज्ञान होण्यापूर्वी, सामान्य प्रतिभासरूप किंवा स्व-प्रतिभास स्वरूप दर्शन होणे आवश्यक आहे. पण एकवेळा दर्शनपूर्वक ज्ञान, झाल्यानंतर ज्ञानाची परंपरा, जी काहीकालं अखंड प्रवाह रूपाने चालू असते त्यावेळी प्रत्येक ज्ञानाचेपूर्वी दर्शन होण्याची आवश्यकता राहात नाही. मतिज्ञानपूर्वक मतिज्ञान होते किंवा मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होते त्यावेळी प्रथम मतिज्ञानापूर्वी - जसे प्रथम दर्शन होणे आवश्यक असते तसे अखंड प्रवाहरूपाने होणा-या मतिज्ञ नापूर्वी किंवा श्रुतज्ञानापूर्वी पुनः दर्शन होण्याची आवश्यकता नसते. त्यामुळे श्रुतज्ञानास वेगळे दर्शन सांगितले नाही... मनःपर्ययज्ञान देखील ईहामतिज्ञानपूर्वक प्रथम प्रेरणा उत्पन्न होते नंतर. मनःपर्य यज्ञान आत्मिक शक्तीने जाणते म्हणून मनःपर्य यज्ञानाचे पूर्वीदेखील. वेगळे दर्शन होत नाही. ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोगाचे भेद ज्ञानमष्टविधं प्रोक्तं मतिज्ञानादि भेदतः । चक्षरादि विकल्पाच्च. दर्शनं स्याच्चविधं ॥ १३ ।। . अर्थ-- ज्ञानोपयोगाचे आठ भेद आहेत...१ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्ययज्ञान, ५ केवलज्ञान (मिथ्यादृष्टिसंबंधी), .६ कुमतिज्ञान, ७ कुश्रुतज्ञान, ८ कुअवधिज्ञान . दर्शनोपयोगाचे चार भेद आहेत. १. चक्षुदर्शन, २ अचक्षुदर्शन, .३ अवधिदर्शन, ४ के वलदर्शन. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार २ रा १ चक्षुदर्शन- चतुरिंद्रिय किंवा पंचेंद्रिय जीवाना जे चक्षुरिंद्रिय मतिज्ञान होते त्यापूर्वी जे दर्शन होते त्यास चक्षुदर्शन म्हणतात. २ अचक्षुदर्शन- एकेंद्रियापासूस पंचेंद्रियापर्यंत सर्व जीवाना जे चक्षुशिवाय इतर स्पर्शनेंद्रियादि चार इंद्रियानी ज्ञान होते त्यापूर्वी जे दर्शन होते त्यास अचक्षुदर्शन म्हणतात. ३ अवधिदर्शन- अवधिज्ञानी जीवाला अवधिज्ञान होण्यापूर्वी जे दर्शन होते त्यास अवधिदर्शन म्हणतात. ४ केवलदर्शन- केवलज्ञानी जीवाना केवलज्ञानाबरोबर युगपत् जे दर्शन होते त्यास केवलदर्शन म्हणतात. मिथ्यादृष्टि जीवाना कुमति-कुश्रुतज्ञान होण्यापूर्वी चक्षुदर्शन किंवा अचक्षुदर्शन होते. मिथ्यादृष्टि कुअवधिज्ञानी जीवाना कुअवधिज्ञान हे कुमति-कुश्रुत पूर्वक होते म्हणून त्याना अवधिदर्शन होत नाही. - जीवाचे भेद संसारिणश्च मुक्ताश्च जीवास्तु द्विविधाः स्मृताः । लक्षणं तत्र मक्तानां उत्तरत्र प्रवक्ष्यते ।। १४ ।। सांप्रतं तु प्ररूप्यन्ते जीवाः संसारवर्तिनः । जीवस्थान गुणस्थान मार्गणादिषु तत्त्वतः ।। १५ ॥ अर्थ-जीवाचे दोन भेद आहेत. १ संसारी २ मुक्त. जे आठ कर्मानी रहित आहेत त्यांना मुक्त म्हणतात. त्यांचे स्वरूप पुढे विस्ताररूपाने सांगणार आहेत. सांप्रत या ठिकाणी संसारीजीवाचे १४ जीवसमास १४ गुणस्थान १४ मार्गणाभेद रूपाने यथार्थ तात्विक प्ररूपण करतात. १४ गुणस्थान भेद मिथ्यादृक सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः ॥ प्रमत्त इतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणौ तथा ॥ १६ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा सूक्ष्योपशान्त संक्षीणकषाया योग्ययोगिनौ । गुणस्थान विकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ॥ १७ ॥ अर्थ- १ मिथ्यादृष्टि २ सासादन ३ मिश्र ४ असंयत ५ देशसंयत ६ प्रमत्त विरत ७ अप्रमत्तविरत ८ अपूर्वकरण ९ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसांपराय ११ उपशांत मोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगकेवली १४ अयोगकेवली.याप्रमाणे गुणस्थान भेदाचे जीव १४ प्रकारचे आहेत. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान लक्षण मिथ्यादृष्टि वेज्जीवो मिथ्यादर्शनकर्मणः । उदयेन पदार्थानामश्रद्धानं हि यत्कृतं ॥ १८ ।। अर्थ- मिथ्यात्वकर्माच्या उदयाने जीव-अजीवादि सात तत्त्वाविषयी जे विपरीत श्रद्धान त्यास मिथ्यात्व म्हणतात. मिथ्यात्व परिणामानेयुक्त जो जीव तो मिथ्यादृष्टि-अज्ञानी म्हटला जातो. सम्यग्दर्शन-आत्मस्वभावाचे दर्शन हा जीवाचा स्वाभाविक गुण आहे. ज्या कर्माच्या उदयात जीवाला आपल्या शुद्ध-ज्ञा दर्शन स्वभावाची जाणीव होत नाही आत्मदर्शन-आत्मानुभूति होत नाही. त्यास मिथ्यात्वदर्शन मोहकर्म म्हणतात. या मिथ्यात्वकर्माच्या उदयाने राग-द्वेषादि परभावाविषयी व परद्रव्याविषयी आत्मत्वबुद्धि, एकत्वाध्यास, उत्पन्न होतो. अतत्वाविषयी तत्वबुद्धी, अधर्माविषयी धर्मबुद्धि विपरीत मान्यता उत्पन्न होते या विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्व परिणामानेयुक्त जीवास मिथ्यादृष्टि म्हणतात सासादन गुणस्थान मिथ्यात्वस्योदयाभावे जीवोऽनन्तानुबंधिनां । उदयेनास्तसम्यक्त्वः स्मृतः सासादनाभिधः ।। १९ ।। अर्थ- मिथ्यात्वकर्माच्या उदयाचा अभाव असल्यामुळे अद्यापि मिथ्यादृष्टि झाला नाही परंतु अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ, यांच्या उदयाने जो सम्यग्दर्शनापासून च्युत झाला आहे, मिथ्यादृष्टि होण्यास सन्मुख आहे तो सासादन गुणस्थान नामक म्हटला जातो. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा हे गुणस्थान वर चढताना होत नाही उतरताना होते. प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानातून जीव मिथ्यात्वमूलक १६ कर्मप्रकृति व अनंतानुबंधी मूलक २५ प्रकृतीचा अभाव करून एकदम चतुर्थ गुणस्थानात जातो. तेथे जेव्हा अनंतानुबंधीचा उदय येतो तेव्हा सम्यग्दर्शनापासून च्युत होतो परंतु मिथ्यात्वाचा उदय जोपर्यंत येत नाही तोपर्यंत मिथ्यात्व गुणस्थानात जात नाही. अशा मधल्या उतरत्या काळात हे गुणस्थान होते. सम्यक्त्वापासून आसादना-विराधना-च्युति या गुणस्थानात होते म्हणून या गुणस्थानास सासादन हे नाव दिले आहे. या गुणस्थानातून जीव नियमाने मिथ्यादष्टि होतो. जे कषाय परिणाम अनन्तसंसार परिभ्रमणाला कारण असतात त्याना अनंतानुबंधी कषाय म्हणतात. मिथ्यादृष्टि गुणस्थानात मोक्षमार्ग स्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्त्ररूप र त्रय शक्तीचा प्रादुर्भाव होत नाही म्हणून मिथ्यात्व परिणाम हे जीवस्वभावाच्या निकृष्ट अवस्थेचे सूचक आहेत. त्यानंतर भव्य-संज्ञी पंचेद्रिय जीवास योग्य कालादिलब्धि प्राप्त झाली असताना क्षयोपशमलब्धि-विशुद्धिलब्धि-प्रायोग्यलब्धि देशनालब्धिपूर्वक जेव्हा करणलब्धिची प्राप्ति होते तेव्हा त्यास स्व-पर भेदविज्ञानपूर्वक आत्मोपलब्धि स्वरूप सम्यग्दर्शाची प्राप्ति होते. पहिल्या चार लब्धि तर अभव्य मिथ्यादष्टीला देखील होऊ शकतात. परंतु पाचवी करणलब्धि भव्य सातिशय मिथ्यात्वदृष्टिलाच प्राप्त होते. करणलब्धि झाल्याशिवाय सम्यग्दर्शनाची प्राप्ति होत नाही. १ मिथ्यात्व कर्माची स्थिति कर्माचा क्षयोपशम होऊन अंतःकोटाकोटी स्थितिप्रमाण होणे यास क्षयोपशमलब्धि म्हणतात. २ मिथ्यात्वकर्मांची स्थिति कमी झाल्यामुळे परिणामाची मंदकषायरूप विशुद्धि होणे यास विशुद्धिलब्धि म्हणतात. ३ स्थितिबंधापसरण-अनुभागबंधापसरणपूर्वकसम्यग्दर्शन प्राप्त होण्याची योग्यता प्राप्त होणे त्यास प्रायोग्यलब्धि म्हणतात. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २रा ४ मिथ्यात्वकर्मस्थिति मंद होऊन ज्याचे परिणाम विशुद्ध झाले आहेत अशा जीवास देवदर्शन, शास्त्रस्वाध्याय, गुरूपदेश इत्यादि निमित्त सारणाची प्राप्ति होणे त्यास देशनालब्धि म्हणतात. ५ करणलब्धिचे तीन भेद आहेत. १ अधःकरण २ अपूर्वकरण ३ अनिवृत्तिकरण. १ अधःकरण- परिणामाच्या विशुद्धिची तर तमता, तीवमंदता होत असल्यामुळे वरील जीवाचे परिणाम (ज्यानी प्रथम सुरूवात केली आहे.) खालच्या जीवाच्या परिणामासारखे ( ज्यानी मागागहून गुरुवात केली आहे.) सदृश-विदृश होऊ शकतात त्या परिणामास अधःकरण परिणाम म्हणतात. __२ अपूर्वकरण- परिणामाची उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व विशुद्धि होणे यास अपूर्वकरण म्हणतात. ३ अनिवृत्तिकरण- अनेक जीवांच्या परिणामामध्ये निवृत्तिकरण ( भेद कमी अधिकपणा ) नसतो. सर्वाचे समान परिणाम असणे अनिवृत्तिकरण परिणामाच्या अंतसमया।यंत मिथ्यात्वाचा मंद उदय असल्यामुळे हा जीव मिथ्यादृष्टिच म्हटला जातो. अनिवृत्तिकरणाच्या अंतसमया मिथ्यात्न व अनंतानुबंधी मूलक ४१ प्रकृतीची बंधच्युच्छित्ति होते संवर-पूर्वक निर्जरा होते त्यामुळे उत्तर समयात या जीवास सम्यग्दर्शनाची प्राप्ति होते. १ चवथ्या गुणस्थानातून उतरताना जर मिथ्यात्व कर्माचा उदय आला तर जीव पहिल्या मिथ्यात्व गणस्थानात येतो. २ जर मिथ्यात्व कर्माचा उदय न येता केवळ अनंतानुबंधीचा उदय आला तर सम्यग्दर्शनापासून च्युत होऊन दुसरे सासादन गुणस्थानात येतो. ३ जर सम्बग्मिथ्यात्वकर्मप्रकृतीचा उदय आला तर तिसऱ्या मिश्र गुणस्थानात येतो. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २रा मिश्रगुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्वसंज्ञायाः प्रकृतेरुदयाद् भवेत् । मिश्रभावतया सम्यग्मिथ्यादृष्टिः शरीरवान् ।। २० ॥ अर्थ-- सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोह प्रकृतीच्या उदयाने जीवाचे जे मिश्र परिणाम होतात, त्याना सम्यक्त्वरूप म्हणता येत नाही किंवा मिथ्यात्वरूप म्हणता येत नाही असे जात्यंतररूप मिश्रपरिणाम होतात त्यास मिश्र गुणस्थान म्हणतात. या गुणस्थानातून जीव चढला तर चवथ्या गुणस्थानात जातो. व उतरला तर दुसऱ्यात किंवा पहिल्या गुणस्थानात जातो. याचा काल अंतर्मुहूर्त आहे. या गुणस्थानात मरण होत नाही. मरताना चवथ्यात किंवा पहिल्या गुणस्थानात जाऊन मरतो. असंयत गुणस्थान वृत्त मोहस्य पाकेन जनिताविरतिर्भवेत् । जीवः सम्यक्त्वसंयुक्तः सम्यक्दृष्टिरसंयतः ।। २१ ॥ अर्थ- ज्या कमांच्या उदयाने संयम किंवा व्रतरूप परिणाम न होणे त्यास चारित्रमोहकर्म म्हणतात. चारित्रमोह कर्माचे चार भेद आहेत. १ अनंतानुबंधी', २ अप्रत्याख्यानावरण, ३ प्रत्याख्यानावरण, ४ संज्वलन. १ अनंतानुबंधी- जे कषाय अनंत संसारपरिभ्रमणाला कारण असतात. ज्याच्या उदयाने जीवास सम्यग्दर्शन व स्वरूपाचरणचारित्रस्वरूप आत्मानुभूती होत नाही त्यास अनंतानुबंधी कषाय म्हणतात. २ अप्रत्याख्यानावरण- ज्याच्या उदयाने जीव देशसंयम देखील किपित् व्रत-संयम-पाळू शकत नाही त्यास अप्रत्याख्यानावरण कषाय म्हणतात. १ आद्या। सम्यक्त्व चारित्रे द्वितीया ध्नन्त्यणुव्रतं । तृतीयाः सयम नान्ति यथाख्यातं तुरीयका: ।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ६१ ३ प्रत्याख्यानावरण- ज्याच्या उदयाने जीव मुनीचे सकलसंयम धारण करू शकत नाही त्यास प्रत्याख्यानावरण कषाय म्हणतात. ४ संज्वलन- ज्याच्या उदयाने जीव यथाख्यात चारित्र पाळू शकत नाही त्यास संज्वलन कशाय म्हणतात. या चवथ्या गुणस्थानात दर्शनमोह व अनंतानुबंधी यांचा अभाव असल्यामुळे जीवास स्वपर भेदज्ञानपूर्वक आत्मानुभूति लक्षण सम्यग्दर्शनाची प्राप्ति होते परंतु अप्रत्यार पानावरण कर्माचा उदय असल्यामुळे व्रत-संयमरूप त्याग करण्याचा परिणाम होत नाही. म्हणून या गुणस्थानाग अविरत सम्यग्दृष्टि म्हणतात. या गुणस्थानापासून सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्ररूप मोक्षमार्गाचा प्रारंभ होतो. यद्यपि या गुणस्थानात व्रतसंयमरूप चारित्र नसते म्हणून तो असंयत म्हटला जातो. तथापि सम्यक्त्व-बारित्र-घातक अनंतानुबंधी कषायाच्या अभावात आत्मानुभूति स्वरूप सम्यक्त्वा चरण-चारित्र- किंवा स्वरूपाचरण चारित्राचा सदभाव असतो. म्हणून हा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती मोक्षमार्गस्थ म्हटला जातो. ५ देशविरत गुणस्थान पाकक्षयात् कषायाणामप्रत्याख्यान रोधिनां । विरताविरतो जीवः संयतासंयतः स्मृतः ॥ २२ ।। अर्थ- अप्रत्याख्यानावरण कर्माच्या उदय-जय-जयोपशमामुळे पंचपापरू अविरति पासून एकदेश विरत असतो. श्रावकाची अणुव्रते धारण करतो परंतु प्रत्याख्यानावरण कर्माचा उदय असल्यामुळे पूर्णपणे पंचपापांचा त्यागरूप सकल विरत नसतो म्हणून या गुणस्थानास देशविरत, विरताविरत किंवा संयतासंयत अशी नावे आहेत. या गुणस्थानात जीव त्रस हिंसेचा त्याग करतो, संकल्पी हिंसा करीत नाही, परंतु स्थावर जीवाची हिंसा किंवा आरंभी हिंसा-विरोधी हिंसा प्रयोजनवश करावी लागते म्हणून या गुणस्थानास विरताविरत असे म्हटले आहे. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा __ श्रावकाचे आठ मुलगुण आहेत. बारा उत्तरगुण आहेत. ५ अणुव्रत ३ गुणवत ४ शिक्षाक्त त्याच प्रमाणे श्रावकाच्या ११ प्रतिमास्थाने सांगितली आहेत. १ दर्शन प्रतिमा- पंचवीस अतिचार दोषरहित सम्यग्दर्शन धारण करणे. २ व्रतप्रतिमा- श्रावकाची १२ व्रते निरति चार नियमपूर्वक पाळणे. ३ सामायिकप्रतिमा- त्रिकाल नियमाने सामायिक करणे. ४ प्रोषधप्रतिमा- अष्टमी चतुर्दशीस प्रोषध सहित उपवास करणे. ५ सचित्त त्याग- सचित्त कच्चा भाजीपाला-फळे वगैरे न खाणे. ६ रात्रि भोजन त्याग- रात्रि भोजनाचा नियमपूर्वक त्याग करणे. ७ ब्रह्मचर्यप्रतिमा- सर्व स्त्री मात्राशी मैथुनसेवनचा त्याग करणे. ८ आरंभ त्याग- सर्व पापारंभ क्रियेचा त्याग करणे. ९ परिग्रह त्याग- धन-धान्य-घर-दार-जमीन यांचे स्वामित्वाचा त्याग करणे. १० अनुमति त्याग- पापारंभ क्रियेस अनुमति न देणे ११ उद्दिष्ट त्याग-- उद्दिष्ट आहार आदिका वा त्याग करणे. याचे दोन भेद आहेत. १ क्षुल्लक २ ऐल्लक १ क्षुल्लक- लंगोटी व भगवे अर्धे अंगवस्त्र धारण करणे. २ ऐल्लक- फक्त लंगोटी धारण करणे. १ ते ६ प्रतिमाधारी जघन्य श्रावक म्हटला जातो. ७ ते १० प्रतिमाधारी मध्यम श्रावक म्हटला जातो. ११ वा प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक म्हटला जातो. ६ प्रमत्त संयत प्रमत्तसंयतो हि स्यात् प्रत्याख्यान निरोधिनां । उदयक्षयतः प्राप्तसंयद्धिः प्रमादवान् ॥ २३ ।। अर्थ- प्रत्याख्यानावरण कर्माच्या उदयक्षयरूप क्षयोपशमाने पंचपापापासून सकल विरतिरूप महावत-संयम धारण करतो परंतु Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ३ संज्वलन कषायाच्या तीव्र उदयाने १५ प्रमाद सहित परिणति असते, त्याला प्रमत्तसंयत गुणस्थान म्हणतात. आहार-विहार-उपदेश देणे इत्यादि क्रिया याच गुणस्थानात होतात. या गुणस्थानात जरी प्रमादरूप परिणति असते तथापि ती फारवेळ टिकत नाही. आत्मस्वरूपात स्थिर होण्याची भावना त्याची निरंतर जागृत असल्यामुळे अंतर्मुहूर्तात तो सातव्या अप्रमत्त गुणस्थानात जाऊन पुन: खाली सहाव्या गुणस्थानात येतो. प्रमादामुळे त्याचे परिणामाची चंचलता असल्यामुळे त्याचा उपयोग आत्मस्वरूपात जास्तवेळ स्थिर राहू शकत नाही. अंतर्मुहूर्तामध्ये प्रमत्तातून अप्रमत्तात, अप्रमत्तातून पुन: प्रमत्तात. याप्रमाणे चढ-उतार नेहमी सुरू असते. ७ अप्रमत्त संयतो ह्यप्रमत्तः स्यात् पूर्ववत् प्राप्तसंयमः । प्रमादविरहाद् वृत्तेर्वृत्तिमस्खलितां दधत् ॥ २४ ।। अर्थ- पूर्वीप्रमाणे प्रत्याख्यानाधरणाच्या क्षयोपशमाने येथे सकल विरतिरूप महाव्रतरूप संपत असतो. येथे संज्वलन कषायाचा मंदउदय असल्यामुळे प्रमाद परिणति नसते. आत्मस्वरूपात सावधानता असते. या गुणस्थानाचा काल अंतर्मुहूर्त असल्यामुळे आत्मस्वरूपात अखंड प्रवृत्ति-स्थिरता असते पण जास्तवेळ टिकत नाही. काही काल पुनः खाली प्रमत्त गुणस्थानात जातो पुनः लागलीच अप्रमत्तात येतो. या गुणस्थानाचे २ भेद आहेत. १ स्वस्थान अप्रमत्त २ सातिशय अप्रमत्त. १ स्वस्थान अप्रमत्त जीव अंतर्मुहूर्तात प्रमत्त-अप्रमत्त अशी चढउतार करीत असतो. २ सातिशय अप्रमत्त- जीव चढ-उतार न करता वर चढण्यासाठी तीन करणरूप परिणाम करतो. १ अधःकरण २ अपूर्वकरण ३ अनिवृत्तिकरण. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थसार अधिकार २ रा ७ सातव्या गुणस्थानात हा सातिशय अप्रमत्तजीव अधःकरणरूप परिणाम करतो. ८ आठव्या गुणस्थानात अपूर्वकरण परिणाम होतात. ९ नवव्या गुणस्थानात अनिवृत्तिकरण परिणाम होतात. या सातव्या गणस्थानामधील अध:करण परिणामामध्ये वरच्या जीवाचे परिणाम खालच्या जीवाच्या परिणामासारखे समान होऊ शकतात म्हणून या परिणामास अधःकरण म्हणतात. या गुणस्थानापासून परिणामाची विशुद्धी श्रेणीरूपाने वृद्धी होत जाते. श्रेणीरूप विशुद्धीचे २ प्रकार आहेत. १ उपशमश्रेणी २ क्षपकश्रेणी. १ उपशमश्रेणीने चढणारा जीव श्रेणीक्रमाने ७-८-९-१०-११ या गुणस्थानापर्यत चढून उपशमाचा काल अंतर्मुहूर्त असल्यामुळे तेथून नियमाने खाली येतो वर चढत नाही. २ क्षपक श्रेणीने चढणारा जीव-श्रेणीक्रमाने ७-८-९-१०-१२.व्या गुणस्थानात जातो तेथून नियमाने १३-१४ गुणस्थानात जाऊन मोक्षास जातो. खाली पडत नाही. १ उपशम श्रेणीने चढणारा उपशम सम्यग्दृष्टी किंवा क्षायिक सम्यग्दृष्टीजीव चारित्र मोहनीय प्रकृतीच्या २१ प्रकृतीचा (अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, संज्वलन ४, नोकषाय ९) क्रमाने उपशम करीत. वर ११ व्या गुणस्थानापर्यंत जातो. २ क्षपकश्रेणीने चढणारा क्षायिक सम्यग्दृष्टी जीव चारित्र मोहाच्या २१ प्रकृतीचा क्रमाने क्षय करीत १२ गुणस्थानात जातो. (११ व्या गुणस्थानात जात नाही.) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ६५ २१८ २१० सातव्या गुणस्थानात अधःकरण परिणामाची अनुकृष्टि रचना असते (अंकसंदृष्टि) (परिणाम ६३००) | परिणाम १ खंड । २ खंड । ३ खंड | ४ खंड २२२ | ६९१ ते ७४४ ७४५ ते ७९९/८०० ते ८५५/८५६ ते ९१२ १६३८ ते ६९०४६९१ ते ७४४/७४५ ते ७९९/८०० ते ८५५ २१४ |५८६ ते ६३७/६३८ ते ६९०/६९१ ते ७४४/७४५ ते ७९९ ५३५ ते ५८५/५८६ ते ६३७/६३८ ते ६१०/६९१ ते ७४४ २०६ ४८५ ते ५३४/५३५ ते ५८५/५८६ ते ६३७/६३८ ते ६९० |४३६ ते ४८४|४८५ ते ५३४/५३५ ते ५८५/५८६ ते ६३७ ३८८ ते ४३५/४३६ ते ४८४४८५ ते ५३४/५३५ ते ५८५ |३४१ ते ३८७/३८८ ते ४३५/४३६ ते ४८४.४८५ ते ५३४ ते ३४०३४१ ते ३८७,३८८ ते ४३५/४३६ ते ४८४ | २५० ते २९४/२९५ ते ३४०/३४१ ते ३८७,३८८ ते ४३५ २०६ ते २४९/२५० ते २९४ २९५ ते ३४०/३४१ ते ३८७ ते २०५/२०६ ते २४९/२५० ते २९४/२९५ ते ३४० १६२१६३ ते २०५/२०६ ते २४ २५० ते २९४ ते १२०/१२१ ते १६२१६३ ते २०५:२०६ ते २४९ ..४० ते ७९ ८० ते १२०,१२१ ते १६२/१६३ ते २०५ १ ते ३९, ४० ते ७९/ ८० ते १२०/१२१ ते १६२ १८२ ༼ १७४ १७० अंकसंदष्टीने अधःकरण परिणाम ६३०० मान्ले १६ समयकाल पहिल्या समयातील प्रथमखंडाचे परिणाम १ ते ३९ दुसऱ्या इतर समयात होत नाहीत. पहिल्या समयातील दुसन्या खंडाचे परिणाम ४० ते ७९ दुसऱ्या समयातील पहिल्या खंड सदश आहेत. पहिल्या समयातील तिसऱ्या खंडाचे परिणाम ८० ते १२० दुसऱ्या समयातील दुसन्या खंड सदृश तिसन्या समयातील प्रथमखंड सदृश. पहिल्या समयातील चतुर्थखंडाचे परिणाम १२१ ते १६२ दुसऱ्या समयातील ततीयखंड सदश तिसऱ्या समयातील द्वितीय खंड सदृश चवथ्या समयातील प्रथमखड सदृश. याप्रमाणे वरचे परिणाम खालच्या समय सदृश असणे यास अध:करण परिणाम म्हणतात. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ तस्वार्थसार अधिकार २ रा ८ अपूर्वकरण अपूर्व करणं कुर्वन्नपूर्वकरणो यतिः । शमकः क्षणकश्चैव स भवत्युपचारतः ।। २५ ।। अर्थ - अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनि चारित्रमोहप्रकृतीच्या २१ प्रकृतीचा उपशम श्रेणीवाला उपशम करीत वर चढतो. क्षपक श्रेणीवाला क्षय करीत वर चढतो. यद्यपि या गुणस्थानात चारित्र मोहाचा पूर्ण उपशम किंवा क्षय झाला नसतो तथापि क्रमाने उपशम किंवा क्षय करीत जातो म्हणून उपचाराने या गुणस्थानास उपशमक किंवा क्षपक असे नाव दिले आहे. चार ते सात गुणस्थानापर्यंत धर्मध्यान असते. या अपूर्वकरण गुणस्थानापासून परिणामाची अपूर्व विशुद्धि होत जाते. श्रेणी चढणारे मुनि ध्यानस्थ असतात शुक्लध्यानास प्रारंभ या गुणस्थानापासून होतो. ९ अनिवृत्तिकरण कर्मणां स्थूलभावेन शमकः क्षपकस्तथा । अनिर्वृत्तिनिर्वृत्तिपरिणामवशाद् भवेत् ॥ २६ ॥ अर्थ- चारित्रमोहप्रकृतीच्या २१ प्रकृतीचा या गुणस्थानवर्ती जीव देखील उपशम किंवा क्षय करीत जातो. या गुणस्थानातील समानसमयवर्ती नाना जीवाचे परिणाम एक सारखे असतात त्यांचे परिणामात निवृत्ति भेद फरक नसतो म्हणून या गुणस्थानास अनिवृत्तिकरण गुणस्थान म्हणतात. या गुणस्थानास दुसरे नाव बादरकृष्टि असे देखील आहे या गुणस्थानात स्थूल संज्वलन कषायांची कृष्टि कर्षण - उपशम किंवा क्षय होतो म्हणून यास बादरकृष्ट म्हणतात. या गुणस्थानात प्रथम सवेद भागात नपुंसकवेद - स्त्री वेद-पुरुषवेद यांचा उपशम किंवा क्षय होतो नंतर वेदातीत अवेद भागात संज्वलन क्रोध, मान, माया व स्थूल लोभ यांचा क्रमाने उपशम किंवा क्षय करीत वर १० व्या गुणस्थानात जातो. - - - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १० सूक्ष्मसांपराय सूक्ष्मत्वेन कषायाणां शमनात् क्षपणात् तथा । स्यात् सूक्ष्मसाम्परायो हि सूक्ष्मलोभोदयानुगः ।। २७ ।। अर्थ- या गुणस्थानात जीव सूक्ष्म कषायाचा उपशम किंवा क्षय करतो म्हणून यास सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान म्हणतात. या गुणस्थानास सूक्ष्मकृष्टि असे दुसरे नाव आहे. या गुणस्थानात संज्वलनकषायाच्या सूक्ष्म लोभाचा उदय असतो. त्यामुळे यागुणस्थानातील परिणाम विशद्धीच्या अंतापर्यंत अत्यंत मंद कषायरूप असतात. त्यानंतर तो नियमाने उपशम श्रेणीने चढणारा ११ व्या उपशांत कषाय गुणस्थानात जातो. क्षपकश्रेणीने चढणारा १० व्यातून एकदम १२ व्या क्षीणमोह गुणस्थानात जातो. ११ उपशांतमोह १२ क्षीणमोह उपशांतकषायः स्यात् सर्व मोहोपशांतितः । भवेत् क्षीणकषायोऽपि मोहस्यात्यन्तसंक्षयात् ॥ २८ ॥ अर्थ- संपूर्ण मोहनीय प्रकृतीचा उपशम करणारा ११ व्या गुणस्थानवर्ती उपशांतमोह म्हटला जातो. संपूर्ण मोहकर्म प्रकृतीचा क्षय करणारा जीव १२ व्या गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह म्हटला जातो. तो नियमाने १३-१४ व्या गुणस्थानात जाऊन मोक्षास जातो. उपशांत मोह नामक ११ व्या गुणस्थानवी जीव उपशमाचा काल अंतर्मुहूर्त असल्यामुळे तो काल संपताच सूक्ष्मलोभाचा उदय येऊन नियमाने दहाव्या गुणस्थानात जातो. तेथून क्रमाने खाली जातो. उपशमश्रेणी चढणारा जीव जर उपशम सम्यग्दृष्टी असेल आणि जर त्याला ११ व्या गुणस्थानातून क्रमाने खाली ७ व्या अप्रमत्त गुणस्थानापर्यंत आल्यानंतर मिथ्यात्व कर्माचा उदय आला तर एकदम ७ व्या तून १ ल्या मिथ्यात्व गुणस्थानात जातो. परिणामाची चंचलता इतकी तीव्र असते की बाह्य दृष्टीने त्याचे द्रव्यलिंग मुनीचे नग्न दिगंबर रूप Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा असते परंतु परिणामात मिथ्यात्वाचा उदय आल्यामुळे तो शास्त्रीय दृष्टीने प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्या दृष्टि म्हटला जातो जर उपशमश्रेणी चढणारा क्षायिक सम्यग्दृष्टी असेल तर ११ व्यातून खाली ७ व्या गुणस्थानापर्यंत येऊन नंतर यथायोग्य काळी क्षपकश्रेणी चढून मोक्षासजातो. १३ सयोगकेवली १४ अयोगकेवली उत्पन्नकेवलज्ञानो घातिकर्मोदयक्षयात् । सयोगश्चाप्ययोगश्च स्यातां केवलिनावुभौ ॥ २९ ॥ अर्थ- क्षीणकषाय नामक १२ व्या गुणस्थानवर्ती जीव जेव्हा अंत्यसमयात ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अंतराय या तीन घातिकर्माचा पूर्णपणे क्षय करतो तेव्हा त्यास जीवाचे स्वाभाविक अनंतचतुष्टयगुण१ अनन्तज्ञान २ अनन्तदर्शन ३ अनन्तसुख ४ अनन्तवीर्य प्रगट होतात. केवलज्ञानाची प्राप्ति होते. सर्वज्ञ-अरिहंत अवस्था प्राप्त होते, या गुणस्थानात अघातिकर्माचा सद्भाव असतो. समवसरण विहाररूप काययोग असतो. म्हणून या गुणस्थानवी जीवास सयोगकेवली म्हणतात. याना दुसरे एकत्ववितर्क शुक्लध्यान असते आयुष्यकर्माची स्थिति संपत असताना शेवटल्या अंतर्मुहर्तात त्यांचा समवसरण विहार बंद होतो. तेव्हा सूक्ष्मक्रियापति नामक तिसरे शुक्लध्यान प्राप्त होतो. विहार बंद झाल्यामुळे योगाचा अभाव होतो म्हणून या गुणस्थानास अयोगकेवली नामक १४ वे गुणस्थान म्हणतात. या गुणस्थानात चवथे व्युपरतक्रियानिवति नामक शुक्लध्यान प्राप्त होते. आयुकर्माची स्थिति पूर्ण होताच बाकीच्या तीन अघाति कर्माबरोबर चारही अघाति कर्माचा पूर्णपणे क्षय होऊन, ऊर्ध्वगमन स्वभाव असल्यामुळे जीव एकसमयात वर लोकाकाशाच्या अंतापर्यंत जाऊन तेथे सिद्धशिलेवर जाऊन विराजमान होतो. पुन: संसारात येत नाही. या प्रमाणे १४ गुणस्थानातील जीव संसारी म्हटले जातात. सिद्धजीव गुणस्थानातीत म्हटले जातात. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा संसारी जीवाचे १४ जीवसमास वर्णन एकाक्षा बादराः सूक्ष्मा द्वयक्षाद्या विकलास्त्रयः । संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्चैव द्विधा पंचेन्द्रियास्तथा ॥३०॥ पर्याप्ताः सर्व एवैते सर्वेऽपर्याप्तकास्तथा । जीवस्थानविकल्पाः स्युरेते सर्वे चतुर्दश ॥ ३१ ॥ अर्थ- एकेद्रियाचे २ भेद आहेत. १ बादर २ सूक्ष्म. विकलत्रयजीव तीन प्रकारचे आहेत, द्वीद्रिय २ त्रींद्रिय ३ चतुरिंद्रियः पंचेंद्रियाचे दोन भेद आहेत. १ संज्ञी २ असंज्ञी याप्रमाणे एकेंद्रियाचे २ विकलत्रय ३ पंचेंद्रिय २ असे एकूण ७ भेद होतात. यांचे ७ पर्याप्तक-७ अपर्याप्तक असे एकूण जीवसमासाचे १४ भेद आहेत. द्वींद्रियापासून पंचेंद्रियापर्यंत सर्व बादरच असतात. एकेंद्रियापासून असंज्ञीपंचेंद्रियापर्यंत सर्व असंज्ञी (मनरहित) असतात. ६ पर्याप्ति आहार-देह-करण-प्राणापान विभेदतः । वचो-मनो-विभेदाच्च सन्ति पर्याप्तयो हि षट् ॥ ३२ ।। अर्थ- पर्याप्तिचे ६ भेद आहे. १ आहारपर्याप्ति २ शरिरपर्याप्ति ३ इंद्रियपर्याप्ति ४ प्राणापान (श्वासोच्छवास) पर्याप्ति ५ वचनपर्याप्ति ६ एनःपर्याप्ति. १ आहारपर्याप्ति- जीव एका गतितून मरून दुसन्या गतीत जाऊन जन्म घेतो त्यावेळी आपल्या आपल्या गतीस अनुसरून औदारीक शरीररूप किंवा वैक्रियक शरीररूप नोकर्मवर्गणेच्या परमाणुस्कंधाला ग्रहण करण्याच्या योग्यतेची पूर्णतारूप जीवाची जी शक्ती तिला आहार पर्याप्ति म्हणतात. ही आहारपर्याप्ति सर्व पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवाना मारखी असते. २ शरीरपर्याप्ति- आहार पर्याप्तिच्या योग्यते मुळे आलेल्या शरीरवर्गणारूप नोकर्मवर्गणेच्या परमाणुस्कंधाना शरीराकार रचना रूप Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा परिणमविण्याची जीवाची शक्ती तिला शरीर पर्याप्ति म्हणतात. पर्याप्तनाकर्माच्या उदयात शरीर पर्याप्तीची योग्यता ज्या जीवाना असते त्याना पर्याप्तक म्हणतात. अपर्याप्तिनामकर्माच्या उदयाने ज्या जीवाना शरीरपर्याप्ति पूर्ण होण्याची योग्यता नसते, शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होताच त्यांचे मरण होते, त्याना अपर्याप्तक म्हणतात. ३ इंद्रियपर्याप्ति- शरीरपर्याप्ति पूर्ण होण्याची योग्यता असणाऱ्या पर्याप्तक जीवाना त्या नोकर्म वर्गणा परमाणु स्कंधाना आपापल्या यथायोग्य स्पर्शनेंद्रियादि इंद्रियाकार रचना परीणमविण्याची योग्यतेची पूर्णतारूप जी जीवाची शक्ती तिला इंद्रिय पर्याप्ति म्हणतात. ४ प्राणापानपर्याप्ति- नोकर्म परमाणु स्कंधाना श्वासोच्छवासरूप परिणमविण्याची योग्यतेची पूर्णतारूप जीवाची जी शक्ती तिला प्राणापान पर्याप्ति म्हणतात. ५ वचनपर्याप्ति- भाषावर्गणेच्या परमाणु स्कंधाला वचनरूप, ध्वनिरूप, शब्दरूप परिणमविण्याची योग्यतेची पूर्णतारूप जी जीवाची शक्ती तिला वचनपर्याप्ति म्हणतात. ६ मनःपर्याप्ति- मनोवर्गणेच्या परमाणुस्कंधाला अष्टदलकमलाकार परिणमविण्याची योग्यतेची पूर्णतारुप जी द्रव्यमनरुप जीवाची शक्ती तिला मनःपर्याप्ति म्हणतात. १ लब्ध्यपर्याप्तक जीवाला शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होताच मरण येते म्हणून त्याला अपर्याप्तक म्हणतात. २ पर्याप्तकजीवाला आपापल्या योग्य पर्याप्तिीचा प्रारंभ तर सर्वांना युगपत् होतो. पण पूर्णता क्रमाक्रमाने होते. शरीरपर्याप्ती पूर्ण झाल्यावरच शरीरामध्ये इंद्रियादि काचो रचना होऊन त्या त्या इंद्रियाद्वारे विषय ग्रहण करण्याची योग्यता दिसून येते. त्रासोच्छवासरूप श्वसनक्रिया, कंठ आदि स्थानातून वचनध्वनि-आवाज करण्याची वचनक्रिया, मनाच्याद्वारे हित-अहितरूप विचार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ ॥ करण्याची योग्यतारूप मनःक्रिया या सर्व शरीरपर्याप्तिच्या आधारावरच सुरू होतात. कोणास किती पर्याप्ति असतात एकाक्षेषु चतस्रः स्युः पूर्वाःशेषेषु पंच ताः । सर्वा अपि भवन्त्येताः संज्ञिपंचेन्द्रियेषु षट् ॥ ३३ ॥ अर्थ- एकेंद्रियास ४ पर्याप्ति असतात. १ आहारपर्याप्ति २ शरीरपर्याप्ति, ३ इंद्रियपर्याप्ति, ४ प्राणापानपर्याप्ति. द्वींद्रियापासून असंज्ञी पंचेद्रियापर्यंत वचनपर्याप्तिसहित वरील चार पर्याप्ति याप्रमाणे पाच पर्याप्ति असतात. संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवाला मन.पर्याप्ति असतात. प्राणाचे भेद पंचेन्द्रियापि वाक कायमानसानां बलानिच । प्राणापानस्तथाऽऽयुश्च प्राणा: स्यु प्राणिनां दश ॥ ३४ ॥ अर्थ- प्राणाचे १० भेद आहेत. ५ इंद्रिय, ३ बल (मनोबल-वचनवल-कायवल) श्वासोच्छवास व आयु याप्रमाणे प्राणाचे १० भेद आहेत . प्रश्न- पर्याप्ति व प्राण यात काय फरक आहे ? उत्तर- पर्याप्ति ही पूर्णताहोण्याची योग्यतारूपशक्ति कारण आहे. ज्याची पर्याप्तिरूप योग्यताशक्ति असते तो जीव आपापल्या यथायोग्य दहा प्राणाच्या आधारावर जगतो जीवनअवस्था धारण करतो. प्राणाच्या वियोगात मरण अवस्था धारण करतो. पर्याप्ति शक्तिरूप कारण आहे. प्राण त्याचे कार्य आहे. इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण असतानाच इंद्रियप्राणाचेद्वारे विषय ग्रहण करण्याचे सामर्थ्य प्राप्त होते. शरीरपर्याप्ति पूर्ण असतानाच शरीराच्या द्वारे हलन-चलन क्रिया करण्याचे कायबल सामर्थ्य प्राप्त होते. भाषापर्याप्ति पूर्ण असतानाच वचनबल सामर्थ्य प्राप्त होते. मनःपर्याप्ति Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा पूर्ण असतानाचा हित-अहिताचा विचार करण्याचे मनोबल - सामर्थ्य प्राप्त होते. प्राणापान पर्याप्ति पूर्ण असतानाच श्वासोच्छवासरूप श्वसनक्रिया सामर्थ्य प्राप्त होते. ७२ पर्याप्ति व प्राण यांच्या आधारावरच आयुकर्माच्या स्थिति कालास व पर्याय कालास अनुसरुन जीव जीवन अवस्था धारण करतो. जेव्हा आयुकर्माचा स्थितिकाल जास्त असतो व पर्यायकाल, भोगकाल कमी असतो त्यावेळी आयुस्थितीचे अपकर्षण होऊन जीव आपल्या नियत क्रमबद्ध पर्यायकाली मरण अवस्था धारण करतो. जीवाचे जन्म-मरण, सुख-दुःखरूप परिणमन हे आपापल्या नियतक्रम पर्यांयकालीच होते. कधी - कधी बाह्य अपघातादि निमित्त कारणाने अपघात मरण झाले असे अचारनयाने म्हटले जाते. परंतु वास्तविक त्या जन्म-मरणरूप परिणमणाचा नियत, क्रमबद्ध पर्यायकाल हे त्याचे मुख्य - निश्चय कारण असते. हा नियत, क्रमबद्ध पर्यायकाल आपणास छद्मस्थ पुरुषास ज्ञात नसतो म्हणून मरण टाळण्याचा शक्यतां पुरुषार्थ प्रयत्न करतो. पण जेव्हा पुरुषार्थ करूनही पुरुषार्थ सफल होत नाही तेव्हा शेवटी देवाला शरण जातो स्वकाल, नियतक्रमवध्द पर्यायकाल, दैव, काललब्धि, भवितव्यता हे सर्व सामान्यपणे एकार्थवाचक आहेत. 'बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगत स्वभाव : वाह्य निमित्त ( अपघातादि ) व इतर - उपादानाचा परिणमनाचा नियतक्रमबद्ध पर्यांयकाल, स्वकाल यालाच भवितव्यता म्हणतात प्रत्येक द्रव्याचे परिणमन कार्य आपल्या नियत स्वकाली नियत स्वभाव पुरुषार्थाने होते, असा वस्तुगत सहजसिद्ध स्वभाव आहे. " सर्व सदैव नियतं नियत स्वकीयकर्मोदयात् मरण जीवित सौख्यदुःख सर्व द्रव्याचे परिणमन, मरण-जीवन-सुख-दुःख, आपापल्या नियत उपदान व निमित्त कारणवश नियत सुव्यवस्थित आहे. त्यामध्ये परिवर्तन, मागे-पुढे करण्याचे सामर्थ्य जगातील कोणत्याही शक्तीमध्ये नाही. ( जो सक्को इंदो जिगिदोवा ) 1 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा कोणास किती प्राण असतात कायाक्षायूंषि सर्वेषु पर्याप्तेष्वान इष्यते । वाग व्यक्षादिषु पूर्णेषु मनः पर्याप्तसंज्ञिषु ।। ३५ ।। अर्थ - कायबल, इंद्रियप्राण, आयुःप्राण हे तीन प्राण सर्व पर्याप्तक, अपर्याप्तक जीवाना असतात. श्वासोच्छ्वास सहित चार प्राण पर्याप्तक जीवाना असतात. वचन प्राण सहित द्वीद्रियापासून असंज्ञि पंचेद्रियापर्यंत सर्व जीवाना, द्रियास ६, त्रींद्रियास ७, चतुरंद्रियास ८, असंज्ञि पंचेंद्रियास ९ प्राण असतात. संज्ञी पंचेंद्रिय जीवाना मनःप्राणसहित दहा प्राण असतात. चार संज्ञा ( वांछा) आहारस्य भयस्यापि संज्ञा स्यान्मैथुनस्य च । परिग्रहस्य चेत्येवं भवेत् संज्ञा चतुविधा ।। ३६ ।। अर्थ- संसारी जीवाचे विशेष वर्णन करताना सांगतात की, सर्व संसारी जीवाना प्रायः चार प्रकारच्या संज्ञा ( अभिलाषा वांछा ) असतात. १ आहारसंज्ञा, २ भयसंज्ञा, ३ मैथुनसंज्ञा, ४ परिग्रहसंज्ञा, 'आहार-निद्रा-भय-मैथुनानि सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां ' आहार, निद्रा, भय, मैथुनसेवन या चार प्रकारच्या संज्ञा अभिलाषा प्रायः सर्व मनुष्य तिर्यंच ( देव नारकी ) संसारी जीवाना असतात. या चार प्रकारच्या संज्ञेने प्रायः सर्व संसारी जीव दुःखी पीडित असतात. ७३ १४ मार्गणा' गत्यक्ष काययोगेषु वेदक्रोधादिवित्तिषु । वृत्तदर्शन- लेश्यासु भव्यसम्यक्त्व संज्ञिषु ॥ आहारके च जीवानां मार्गणाः स्युश्चतुर्दश ।। ३७ ।। ( षट्पदी ) अर्थ- मार्गणाचे १४ भेद आहेत. टीप - १ गइ इंदिये सु काये जोगे वेदे कसाय णाणे य । संजय सण-लेस्सा भविया सम्मत्त सणि आहारे || Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १ गति, २ इंद्रिय, ३ काय, ४ योग, ५ वेद, ६ कषाय, ७ ज्ञान, ८ संयम, ९ दर्शन, १० लेश्या, ११ भव्य मार्गणा, १२ सम्यक्त्व मार्गणा, १३ संज्ञी मार्गणा, १४ आहार मार्गणा. शास्त्रामध्ये जीवाचे वर्णन ओघनिर्देशरूपाने १४ गुणस्थान रूपाने केले आहे. आदेश निर्देशरूपाने १४ मार्गणारूपाने केले आहे. १ गति मार्गणा गतिर्भवति जीवानां गतिकर्मविपाकजा। श्वभ्र-तिर्यग-नरामर्त्यगतिभेदाच्चतुविधा ॥ ३८ ॥ अर्थ- गति नामकर्माच्या उदयाने संसारी जीवाची गति चार प्रकारची होते. १ नरकगति, २ तिर्यचगति, ३ मनुष्यगति, देवगति. २ इंद्रियमार्गणा इंद्रियं लिंगमिन्द्रस्य तच्च पंचविधं भवेत् । प्रत्येकं तद् द्विधा द्रव्य-भावेन्द्रियविकल्पतः ॥ ३९ ॥ अर्थ- जाति नामकर्माच्या उदयाने जीवाचे पाच प्रकार आहेत. १ एकेंद्रिय, २ द्वींद्रिय, ३ त्रींद्रिय, ४ चतुरिंद्रिय, ५ पंचेंद्रिय. इंद्र' म्हणजे आत्मा-जीव त्याचे ओळखण्याचे चिन्ह त्यास इंद्रिय म्हणतात. इंद्रिये पाच आहेत. १ स्पर्शनेंद्रिय, २ रसनेंद्रिय, ३ घ्राणेंद्रिय, ४ चक्षुरिंद्रिय, ५ कर्णेद्रिय. याचे प्रत्येकी दोन भेद आहेत. १ द्रव्ये द्रिय, २ भावेंद्रिय. द्रव्येन्द्रिय वर्णन निर्वृत्तिश्चोपकरणं द्रव्येन्द्रियमुदाहृतं । बाहयाभ्यन्तर-भेदेन द्वैविध्यमनयोरपि ।। ४० ॥ अर्थ- द्रव्येन्द्रियाचे २ भेद आहेत. १ निर्वृत्ति, २ उपकरण १ निर्वृत्ति- - इंद्रियाकार पुद्गल प्रदेशाची व आत्मप्रदेशाची रचना टीप- १ इंदनात् इंद्र:आत्मा । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा २ उपकरण - निर्वृत्तिचे जे रक्षण करते त्यास उपकरण म्हणतात. प्रत्येकाचे बाह्य अभ्यंतर असे दोन दोन भेद आहेत. १ आभ्यन्तर निर्वृत्ति नेत्रादीन्द्रिय संस्थानावस्थितानां हि वर्तनं । विशुद्धात्मप्रदेशानां तत्र निर्वृत्तिरान्तरा ॥ ४१ ॥ अर्थ - नेत्रादिक इंद्रियांच्या आकार प्रमाण विशुद्ध-क्षयोपशम विशिष्ट आत्मप्रदेशाची जी रचना ती अभ्यंतर निर्वृत्ति होय. २ बाह्य निर्वृत्ति तेष्वात्मप्रदेशेषु करणव्यपदेशिषु । नामकर्मकृतावस्थः पुद्गलप्रयोऽपरा ॥ ४२ ॥ अर्थ - भावेन्द्रिय नामक क्षयोपशम विशिष्ट त्या इंद्रियाकार आत्मप्रदेशप्रमाण जातिनामकर्म व अंगोपांग नामकर्माच्या उदयाने नोकर्मवर्गणारूप पुद्गल स्कंधाची रचना त्यास बाह्य निर्वृत्ति म्हणतात. जसे चक्षुरिद्रियांचे मसुराकार मध्य बिंदु मंडल . आभ्यन्तर-बाह्य उपकरण आभ्यन्तरं भवेत् कृष्ण-शुक्ल मंडलकादिकं । बायोपकरणं त्वक्षिपक्ष्मपत्रद्वयादिकं ॥ ४३ ॥ ७५ अर्थ - ज्या प्रमाणे नेत्रेंद्रियाच्या मध्यबिंदुमंडला भोवती असणारे कृष्ण- शुक्ल मंडल ते आभ्यन्तर उपकरण होय. डोळयाच्या पापण्या, केस इत्यादि बाह्य उपकरण होय. भावेन्द्रिय स्वरूप लब्धिस्तथोपयोगश्च भावेन्द्रियमुदाहृतं । सा लब्धिर्बोधरोधस्य यः क्षयोपशमो भवेत् ॥ ४४ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २रा __अर्थ- द्रव्येद्रियाप्रमाणे भावेंद्रियाचे ही २ भेद आहेत. १ लब्धि, २ उपयोग. ज्ञानावरण कर्माच्या क्षयोपशमाने इंद्रियाच्याद्वारे विषयाना ग्रहण करण्याची जी शक्ति-योग्यता प्रात्त होते त्यास लब्धि म्हणतात. उपयोग स्वरूप स द्रव्येन्द्रिय निर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते यतः । कर्मणो ज्ञानरोधस्य क्षयोपशमहेतुकः ॥ ४५ ॥ आत्मनःपरिणामो य उपयोगः स कथ्यते । ज्ञानदर्शनभेदेन द्विधा द्वादशधा पुनः ।। ४६ ॥ अर्थ- ज्ञानावरण कर्माच्या क्षयोपशमाने प्राप्त होणारा तो लब्धिरूप आत्मपरिणाम द्रव्येद्रिय निर्वत्तिच्याद्वारे विषयग्रहण करण्याचा व्यापार करतो त्यास उपयोग म्हणतात. आपापल्या योग्यतेप्रमाणे लब्धिरूप क्षयोपशम तर पांच ही इंद्रियांचा युगपत् असू शकतो पण उपयोगरूप व्यापार एकावेळी एकाच इंद्रियद्वारे होतो. लब्धि-उपयोगरूप भावेंद्रिय व द्रव्योंद्रिय यांचा समागम असेल तरच ज्ञान होते तो उपयोग दोन प्रकारचा आहे. ५ दर्शनोपयोग, २ ज्ञानोपयोग. १ दर्शनोपयोग ४ प्रकारचा आहे. १ चक्षुदर्शन, २ अचक्षदर्शन, ३ अवधि दर्शन, ४ केवल दर्शन, २ ज्ञानोपयोग ८ प्रकारचा आहे. १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्ययज्ञान, ५ केवलज्ञान, ६ कुमतिज्ञान, ७ कुश्रुतज्ञान, ८ कुअवधि ज्ञान, याप्रमाणे उपयोगाचे १२ प्रकार आहेत. इंद्रियाचे भेद स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमतः परं । इतीन्द्रियाणां पंचानां संज्ञानुक्रमनिर्णयः ॥ ४७ ॥ अर्थ- १ स्पर्शनेंद्रिय, २ रसनेद्रिय, ३ घ्राणेंद्रिय, ४ चक्षुरिद्रिय, ५ कर्णेद्रिय याप्रमाणे इंद्रियाचा नामानुरूप त्यांच्या विषयाचा अनुक्रम जाणावा. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ । ७७ ७७ इंद्रियाचे विषय स्पर्शो रसस्तथा गंधो वर्णः शब्दो यथाक्रम । विज्ञेया विषयास्तेषां मनसस्तु तथा श्रुतं ।। ४८ ॥ . अर्थ- स्पर्शनेन्द्रियाचा विषय स्पर्श, रसनेंद्रियाचा विषय रस, घ्राणेद्रियाचा विषय गंध, चक्षुरिद्रियाचा विषय वर्ण, श्रोत्रंद्रियाचा विषय शब्द. गतिज्ञानपूर्वक होणारे पदार्थाचे जे विशेष स्वरूप श्रुतज्ञान तो मनाचा विषय आहे. इंद्रियाचा पदार्थाशी विषयसंबंध रूपं पश्चत्यसंस्पृष्टं स्पृष्टं शद्वं शृणोति तु । बद्धं स्पृष्टं च जानाति स्पर्श गंधं तथा रसं ।। ४९ ।। अर्थ- चक्षु पदार्थाशी स्पृष्ट न होता दुरूनच वर्णाचे ज्ञान करतो. कर्ण द्रियाप्रत शद्व स्पाट होऊन ऐकला जातो. स्पर्शनेंद्रिय, रसनेंद्रिय, घ्राणेंद्रिय नें पदार्थाशो स्पृष्ट होऊन स्पर्शाचे, रसाचे, गंधाचे ज्ञान करतात मन देखील चक्षुप्रमाण पदार्थाशी स्पष्ट न होता पदार्थ समोर असो किंवा नसो तरी मन त्या पदार्थाविषयी विचार करू शकते. इंद्रियाचे आकार यवनाल मसूरतिमुक्तेन्द्वर्धसमाः क्रमात् । श्रोत्राक्षिघ्राणजिव्हाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः ॥ ५० ॥ अर्थ- श्रोत्रंद्रियाचा आकार यवनाली प्रमाणे पोकळीच्या आकाराप्रमाणे आहे. चक्षुरिद्रियाचा आकार मसुराप्रमाणे गोल बिन्दुरूप आहे. घाणेंद्रियाचा आकार अतिमुक्तवेलीच्या पुष्पाप्रमाणे आहे. जिव्हेंद्रियाचा आकार अर्धचंद्राच्या आकारा सारखा बाणाकार आहे. स्पर्शनेंद्रियाचा आकार अनेक प्रकारचा आहे. द्रव्य मनाचा आकार अष्टदल कमलाच्या आकारासारखा आहे. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा कोणाला किती इंद्रिये असतात स्थावराणां भवत्येकमेकैकेन विवर्धयेत् । शम्बूक - कुंथु - मधुप- मर्त्यादीनां ततः क्रमात् ।। ५१ ।। अर्थ - पाच स्थावर एकेंद्रिय जीवाना एक स्पर्शनेंद्रिय असते. आळी-शंख इत्यादि द्वीद्रिय जीवाना स्पर्शन व रसना दोन इंद्रिये असतात मुंगी - मुंगळा आदि त्रींद्रियजीवाना स्पर्शन रसना घ्राण तीन इंद्रिये असतात. माशी- भुंगा आदि चतुरिंद्रिय जीवाना चक्षुसहित चार इंद्रिये असतात. मनुष्य - पशु-पक्षी याना पाच इंद्रिये असतात. एकेंद्रियाचे भेद स्थावराः स्युः पृथिव्यापस्तेजो वायुर्वनस्पतिः । स्वः स्वैर्भेदैः समा ह्येते सर्व एकेंदियाः स्मृताः ।। ५२ ।। अर्थ- स्थावर एकेंद्रिय जीव पाच प्रकारचे आहेत. १ पृथ्वीकायिक २ अपकायिक ( पाणी ) ३ अग्निकायिक ४ वायुकायिक ५ वनस्पतिकायिक यांचे प्रत्येकी पोटभेद अनेक आहेत. द्वींद्रिय जीव कोणते आहेत शम्बूकः शंख शुक्ती वा गण्डूपद- कपर्दकाः । कुक्षिकृम्यादयश्चैते द्वींद्रियाः प्राणिनो मताः ॥ ५३ ॥ अर्थ - शम्बूक शंख, शीप, गण्डूपद कपर्दक ( कवडी ) कांखेत उत्पन्न होणारे कृमि-कीटक हे द्वींद्रिय जीव मानले आहेत. त्रींद्रिय जीव कुंथु: पिपीलिका कुम्भी वृश्चिकश्चन्द्रगोपकाः । घुण - मत्कूण- यूकाद्या स्त्रींद्रियाः सन्ति जन्तवः ।। ५४ ॥ अर्थ- मुंगळा-मुंगी, कुंभी विंचू, इंद्रगोप, धान्यातील घुण कीडे, ढेकूण, उवा इत्यादि त्रींद्रिय जीव आहेत. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा ७९ चतुरिंद्रिय जीव मधुपः कीटको दंशमशको मक्षिकास्तथा । वरटो शलभाद्याश्च भवान्ति चतुरिद्रियाः ।। ५५ ।। अर्थ- भ्रमर, किडे, डास, मच्छर, माशी, वरटी (गांधीलमाशी) शलभ ( टोळ ) इत्यादिक जीव चतुरिंद्रिय आहेत. पंचेंद्रिय पंचेंद्रियाश्च माः स्युरिकास्त्रिदिवौकसः । तियंञ्चोऽप्युरगा भोगिपरि सर्पचतुष्पदाः ॥ ५६ ।। अर्थ- मनुष्य-नारकी, देव, तिर्यंच, सर्प, उरग, चारपायाने चालणारे पशु-पक्षी हे सर्व पचेंद्रिय जीव आहेत. एकेंद्रियजीवांचे आकार मसूराम्बुपृषत्सूचीकलापध्वजसन्निभाः । धराप्तेजो मरूत्काया नानाकारास्तरुत्रसाः ।। ५७ ।। अर्थ- पृथ्वी काय जीवाचा आकार मसूराप्रमाणे गोल आहे. जलकायिक जीवाचा आकार जलबिंदु प्रमाणे आहे. अग्निकायिक जीवाचा आकार अनेक सुईच्या टोकाच्या समुदायासारखा आहे. वायुकायिक जीवाचा आकार ध्वजाप्रमाणे आहे. वनस्पति व द्वींद्रियादि त्रसजीव यांचे नानाप्रकारचे आकार आहेत. पृथ्वीचे प्रकार मृत्तिका वालुका चैव शर्करा चोपलः शिला । लवणोऽप्ययस्तथा तानं त्रपुः सीसकमेणच ॥५८ ।। रौप्यं सुवर्णं वज्रं च हरितालं च हिंगुलं ।। मनः शिला तथा तुत्थमञ्जनं सप्रवालकं ॥ ५९ ।। किरोलकाभ्रके चैव मणिभेदाश्च बादराः। गोमेदो रुचकांकश्च स्फटिको लोहितप्रभः ।। ६० ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा वैड्यं चन्द्रकान्तश्च जलकान्तो रविप्रभः । गैरिकश्चन्दनश्चैव बर्चुरो रुचकस्तथा ।। ६१॥ मोठो मसारगल्लश्च सर्व एते प्रशिताः। षत्रिंशत् पृथिवीभेदा भगवद्भिजिनेश्वरैः ।। ६२ ।। अर्थ- माती, वाळू चुम कांकरी, दगड, शिला, लवण-(मीठ) लोखंड, तांबे, सुरमा, शिसे, चांदी, सोने, वज्र (हीरा) हरताळ, हिंग, मनसिल, तूतिया, अंजन, प्रवाळ, तांबडालोध्र (लालबोळ) अभ्रक, (१५ प्रकारचे रत्न)-गोमेदमणि, रुचकांक, (टाकणखार) स्फटिकमणि, लोहितप्रभ, वैडूर्यमणि, चंद्रकांतमणि, जलकांतमणि, सूर्यकांतमणि, गेरू, गोपीचंदन, बर्चुर ( गुगुळ ) रुचकमणि, मोठ मसार (इंद्रनील) गल्ल ( राळ ) असे एकूण पृथ्वीकायचे ३६ भेद आहेत. जलकायभेद अवश्यायो हिमबिन्दुस्तथा शुद्ध घनोदके । शीतकाद्याश्च विज्ञेया जीवाः सलिलकायिकाः ॥ ६३ ॥ अर्थ- ओस (दव) हिमकण, (धुके) शुद्धजल, मेघजल, शीतल (बर्फ) इत्यादि जलकाय जीव आहेत. अग्निकाय भेद ज्वालाङ्गारस्तथाचिश्च मुर्मुरः शुद्ध एव च । अग्निश्चेत्यादिका ज्ञेया जीवा ज्वलनकायिकाः ॥ ६४ ॥ अर्थ- ज्वाला, अंगार, अचि (ज्योत) मुर्मुर (भुशाचा अग्नि) शुद्धअग्नि इत्यादिक अग्निकाय जीव आहेत . वायुकाय भेद महान् धनस्तनुश्चैव गुञ्जामण्डलिरुत्कलिः । वातश्चेत्यादयो ज्ञेया जीवाः पवनकायिकाः ।। ६५ ।। अर्थ- महान्वायु, घनवायु, तनुवायु, गुंजामंडलिवायु (गुंजारव करणारा वारा), उत्कलितवायु (सोसाट्याचा वारा) शुद्धवायु इत्यादि वायुकायजीव आहेत. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ८१ वनस्पति कायभेद मूलाग्रपर्वकन्दोत्थाः स्कन्ध बीजरुहास्तथा । संमूछिनश्च हरिताः प्रत्येकानन्तकायिकाः । ६६ । अर्थ- मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज, कंदबीज, स्कंधरुह, बीजरुह, संमूर्च्छन वनस्पति हराळी वगैरे,प्रत्येक वनस्पति, अनन्तकाय वनस्पति हे सर्व वनस्पतिकायजीव आहेत. ४ योग मार्गणा सति वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमसंभवे । योगोह्यात्मप्रदेशानां परिस्पन्दो निगद्यते । ६७ । अर्थ- वीर्यान्तराय कर्माचा क्षयोपशम झाला असताना आत्मप्रदेशामध्ये जो परिस्पंद होतो त्यास योग' म्हणतात. योगाचे भेद चत्वारो हि मनोयोगा वागयोगानां चतुष्टयं । काययोगाश्च सप्तैव योगाः पंचदशोदिताः । ६८ । अर्थ- ४ मनोयोग, ४ वचनयोग, ७ काययोग असे योगाचे पंधरा भेद आहेत. मनोयोगाचे ४ भेद मनोयोगो भवेत् सत्यो मृषा सत्यमृषा तथा । तथाऽसत्यमृषा चेति मनोयोगश्चतुर्विधः । ६९ । टीप- १ काय-वाङ मनःकर्म योगः । मन-वचन-कायेच्या अवलंबनाने आत्मप्रदेशाचे कंपन, परिस्पंदन हलनचलनरूप जी क्रिया त्याला योग म्हणतात. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ- मनोयोग ४ प्रकारचा आहे. १ सत्यमनोयोग, २ असत्यमनोयोग, ३ सत्यमृषा (उभय) मनोयोग, ४ असत्य मृषा (अनुभय) मनोयोग. वचनयोग भेद वचोयोगो भवेत् सत्यो मषा सत्यमृषा तथा । तथाऽसत्यमृषा चेति वचोयोग श्चतुर्विधः । ७० । अर्थ- वचनयोग ४ प्रकारचा आहे. १ सत्यवचन योग- सम्यग्ज्ञानपूर्वक जे वचन तो सत्यवचनयोग. जसे- जलाला जल म्हणणे. २ असत्यवचनयोग- मिथ्याज्ञानपूर्वक जे वचन तो अगत्यवचनयोग जसे- मृगजलाला जल म्हणणे. ३ सत्यमृषा (उभव) वचनयोग-- कथंचित् सत्य, कथंचित् असत्य तो उभय वचनयोग. ४ असत्यमृषा (अनुभय) वचनयोग- आमंत्रण, आज्ञा, याचना रूपवचन त्यास अनुभय वचन म्हणतात. (सत्य व मृषा यानी रहित) काययोग भेद औदारिको वैक्रियिकः कायश्चाहारकश्च ते । मिश्राश्च कार्मणश्चैव काययोगोऽपि सप्तधा । ७१ । अर्थ- काययोग ७ प्रकारचा आहे. १ औदारिक काययोग, २ औदारिक मिश्र काययोग, ३ वैक्रियिक काययोग, ४ वैक्रियिक मिश्रकाययोग, ५ आहारक काययोग, ६ आहारक मिश्रकाययोग, ७ कार्भागकाययोग. मनुष्य व तिर्यंचाना जन्मघेताना प्रथम अंतर्मुहुर्त पर्यंत औदारिक मिश्रयोग असतो. नंतर औदारिक काययोग असतो. देव व नारकी यांना जन्म घेताना प्रथम अंतर्मुहर्त पर्यंत वैक्रियि कमिश्र काययोग असतो. नंतर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा वैक्रियिक काययोग असतो. आहारक ऋद्धिधारी मुनीना आहारकशरीर उत्पन्न होताना प्रथम अंतर्मुहूर्त पर्यंत आहारक मिश्रयोग असतो. नंतर आहारक काययोग असतो. विग्रह गतीतील जीवाना कार्मणकाययोग असतो. औदारिकादि शरीरांची परस्पर सूक्ष्मता औदारिको वैयिक स्तथाऽऽहारक एव च । तैजसः कार्मणश्चैवं सूक्ष्माः सन्ति यथोत्तरं । ७२ । असंख्येयगुणौ स्यातामाद्यादन्यौ प्रदेशतः । यथोत्तरं तथाऽनन्तगुणौ तेजसकार्मणी । ७३ । अर्थ- शरीराचे ५ भेद आहेत. १ औदारिक, २ वैक्रियिक, ३ आहारक, ४ तैजस, ५ कार्माण. ही शरीरे क्रमाने उत्तरोत्तर सूक्ष्मसूक्ष्म आहेत. परंतु प्रदेशाच्या अपेक्षेने औदारिक शरीरापेक्षा वैक्रियक व आहारक शरीराचे प्रदेश असंख्यातपट जास्त आहेत. तेजस व कार्माण शरीराचे प्रदेश अनंतपट जास्त आहेत. तेजस व कार्माणशरीर यातील विशेषता उभौ निरूपभोगौ तौ प्रतिघातविवजितौ । 'सर्वस्यानादि सम्बद्धौ स्यातां तेजसकार्मणौ । ७४ । तौ भवेतां क्वचिच्छुद्धौ क्वचिदादारिकाधिकौ । चिद्वैयिकोपेतौ तृतीयाद्ययुतौ क्वचित् । ७५ । ८३ अर्थ - तेजस व कार्माण शरीर उपभोग रहित आहेत. इंद्रियाच्या द्वारे विषयाचे ग्रहण त्याला उपभोग म्हणतात. विग्रहगतीमध्ये औदारिकादि तीन शरीरे नसतात, इंद्रिये नसतात त्यामुळे तेजस कार्माण शरीर उपभोग रहित असतात. ही दोन शरीरे सूक्ष्म असल्यामुळे त्याना कोणी प्रतिघात अडथळा रोकणे करू शकत नाही. या दोन शरीरांचा प्रत्येक संसारी जीवाशी अनादिकालापासून संबंध असतो. ही दोन शरीरे कोठे कोठे इतर शरीरानी रहित शुद्ध ( केवळ ) एकटी दोनच शरीरे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ तत्त्वार्थसार अधिकार २रा विग्रह गतीत असतात. तिर्यंच- मनुष्यगतिमध्ये ही दोन शरीरे औदारिक शरीराने सहित असतात. नरक देवगतीमध्ये ही दोन शरीरे वैक्रियिक शरीराने सहित असतात. आहारक ऋद्धिधारी मुनीना ही तैजस-कार्माण दोन शरीरे औदारिक-आहारक शरीरानी सहित असतात. लब्धिप्रत्यय तैजस व वैक्रियिक शरीर औदारिकशरीरस्थं लब्धिप्रत्यय मिष्यते । अन्यादृक् तैजसं साधोपुवैक्रियिकं तथा । ७६ । । अर्थ- ऋद्धिधारी मुनीना औदारिक शरीरस्थित लब्धिप्रत्यय तैजस व वैक्रियिकशरीर असते. त्याला तेजसऋद्धि, वैक्रियिकऋद्धि म्हणतात. लब्धिप्रत्यय तैजस शरीराचे २ भेद आहेत. १ शुभ तेजस, २ अशुभ तेजस १ शुभ तेजस शरीर चंद्राच्या कांतिप्रमाणे शुभ्र-शांति देणारे असते. मुनीच्या उजव्या खांद्यातून निघते. याच्या प्रभावाने १२ योजन पर्यंत चोहीकडे सुभिक्षता प्राप्त होते. रोगराई नष्ट होते. सर्व जीवाना शांति देणारे आहे. २ अशुभ तैजस- सिंदूराप्रमाणे लाल रंगाचे असते. मुनीच्या डाव्या खांद्यातून निघते. बारह योजनप्रमाण क्षेत्रात सर्व जीवाना दुःख देते. भस्मसात करते. मुनीच्या शरीरात परत प्रवेश करून मुनीलाही भस्मसात करते. जसे- द्वीपायन मुनीची कथा शास्त्र प्रसिद्ध आहे. भगवान नेमिनाथाना कृष्णानी भविष्याविषयी प्रश्न विचारला. त्यांनी सांगितले- १२ वर्षानी द्वारकानगरी द्वीपायन मुनीच्याद्वारे भस्मसात होईल. द्वीपायन मुनी त्यावेळी तेथे होते. भगवंतांची वाणी खोटी ठरावी म्हणून ते १२ वर्ष द्वारकानगरीच्या बाहेर लांब राहिले. पण १२ वर्षाचा काळ मोजण्यात काही दिवसाचा फरक पडला. भगवंताची वाणी खोटी ठरली असे मानून द्वीपायन मुनी द्वारका नगरीत आले. नगरीच्या बाहेर उद्यानात ध्यानस्थ बसले. कर्मधर्म Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा संयोगाने विधिघटना जी होणार होती ती टळली नाही. दारूमुळे ही विधीघटना घडणार होती म्हणून लोकानी नगरीतील सर्व दारू उद्यानातील विहीरीमध्ये टाकली होती. कांही उनाड लोकाना भान राहिले नाही, तहानेने व्याकुळ होऊन त्या विहीरीचे पाणी पिऊन उन्मत्त होऊन त्या लोकानी ध्यान करीत असलेल्या द्वीपायन मुनीना उपसर्ग केला. मुनीना क्रोधाचा आवेश आला. त्यांच्या शरीरातून अशुभ तैजस शरीराबाहेर पडले. सर्व द्वारकानगरी भस्मसात झाली. मुनीही भस्मसात झाले. तैजस ऋद्धीप्रमाणे लब्धिधारी मुनीना वैक्रियिक ऋद्धि देखील प्राप्त होते. यासंबंधी विष्णुकुमार मुनीची कथा प्रसिद्ध आहे. पूर्वी एकदा हस्तिनापूरमध्ये पद्मनाभ नामक राजा राज्य करीत होता. त्याचे दरबाररात बलि आदि चार मंत्री होते. त्यानी आपल्या गुणांनी राजाला वश करून सात दिवसाचे राज्य मागितले. राजा भोगविलासी होता. त्याने मंत्र्याला ७ दिवसाचे राज्य दिले. कर्मधर्म संयोगाने त्याच वेळी तेथे अकंपनाचार्यांचा ७०० मुनींचा संघ विहार करीत आला. मुनीच्या संघातील एका क्षुल्लकाने त्यांना पूर्वी वादामध्ये जिंकून त्यांचा अपमान करविला होता. त्या अपमानाचा सूड घेण्यास ही संधि वरी आहे असे समजून त्या बलीराजाने मुनीना घोर उपसर्ग केला. धर्मावर असा घोर आघात प्रसंग आला की कर्मधर्म संयोगाने आकाशात नक्षत्र कंपायमान होऊन घोर उपसर्ग सूचित करतात. एका मुनीनी रात्री तो नक्षत्रतारा कंपायमान पाहून, हा ! हा! असा शद्बोचार केला. रात्री मुनी बोलत नसतात. अशावेळी मुनीनी हा ! हा! शद्वोच्चार का केला असावा हा विचार तेथील एका विद्याधर क्षुल्लकाच्या मनात उत्पन्न झाला. त्याने मुनीना विचारले. त्यांनी अवधिज्ञानाने जाणले की श्री अकंपनाचार्यादि मुनिसंघावर घोर उपसर्ग होत आहे. त्यावर क्षुल्लकाने विचारले हा उपसर्ग दूर होण्याचा काय Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ तत्वार्थसार अधिकार २ रा उपाय आहे. मुनीनी सांगितले की तुम्ही विष्णुकुमार मुनीकडे जा. त्याना वैक्रियिकऋद्धी प्राप्त झाली आहे. ते हा उपसर्ग दूर करू शकतील. लागलीच ते क्षुल्लक विद्येच्या सहायाने आकाशमार्गाने विष्णुकुमार मुनीकडे गेले. त्यांनी मुनींना नमस्कार करून सर्व घटना निवेदन केली. मुनीना आपणास ऋद्धिप्राप्त झाल्याचे भान देखील नव्हते. त्यांनी प्रयोगादाखल हात लांब करून पाहिला तो मेरूपर्वतापर्यंत लांब पसरला. ऋध्दिप्राप्त झाल्याचे लक्षात येताच धर्माचे रक्षण व्हावे. या विचाराने ते तत्काळ आपला बंधू पद्मनाभ राजाकडे गेले. पद्मनाभ राजाने सर्व हकीकत सांगितली. माझे वचन दिले गेले असल्यामुळे मला काही उपाय करता येत नाही. आपणच यावर उपाय करावा. विष्णुकुमार मुनीनी ब्राम्हण बटूचे रुप धारण करून बलीकडे जाऊन त्याला 'भिक्षांदेहि' पूर्वक आशीर्वाद दिला. बलीला तो शुभशकुन वाटला. त्यानें ब्राह्मण बटूला वरदान मागण्यास सांगितले. ब्राह्मण बटूने 'तीन पावले जागा दे' एवढीच भिक्षा मागितली. वलिने 'तथास्तु' म्हणून वरदान दिले. ब्राह्मण बटूने आपले अक्राळ विक्राळ रूप वाढवून एकपाय मेरूपर्वतावर, दुसरा विध्याचल पर्वतावर ठेवला. तिसरा पाय कोठें ठेऊ ? असा प्रश्न त्या बलिराजास केला. तुझ्या या घोर कृत्याबद्दल तुझ्या डोक्यावर पाय ठेवून तुला यमसदनास पाठवीन अशी भीति दाखविली. बलाने क्षमा मागितली. मुनीवरील घोर उपसर्ग दूर केला. विष्णुकुमार मुनींनी धर्माचे रक्षण केले म्हणून त्या दिवसा पासून रक्षाबंधन पर्व प्रचलित झाला. जन्माचे प्रकार औदारिकं शरीरं स्याद् गर्भ संमूच्र्छतोद्भवं । तथा वैक्रियिकाख्यं तु जानीयादौपपादिकं । अर्थ - औदारिक शरीराची उत्पत्ती दोन प्रकाराने होते. ९ गर्भ जन्म २ संमूर्च्छन जन्म. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा १ गर्भजन्म - माता - पित्याच्या रजोवीर्यं संयोगापासून गर्भधारणा होऊन जे औदारिक उत्पन्न होते तो गर्भजन्म म्हटला जातो. २ संमूर्च्छन जन्म- माता- पित्याच्या रजो- वीर्याशिवाय निसर्गतः नो कर्म वर्गणे पासून हवा-पाणी-ऊन यांच्या सयोगापासून जे औदारिक शरीर उत्पन्न होते त्यास संमूच्छेन जन्म म्हणतात. एकेंद्रियापासून असंज्ञी पंचेंद्रियापर्यंत सर्व जीव संमूर्च्छनज असतात. संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच व मनुष्य यामध्ये काही गर्भज व काही संमूर्च्छनज असतात. ८७ पावसाळ्यात हवा-पाणी यांच्या संयोगापासून जे बेडूक- साप उत्पन्न होतात ते संमूर्च्छन संज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंच होत. तसेच स्त्रीच्या काखेमध्ये योनीमध्ये जे घाम वगैरे पासून मनुष्य उत्पन्न होतात त्यांना संमूर्च्छन मनुष्य म्हणतात. ते सूक्ष्म असतात. ते डोळयाने दिसत नाहीत. ३ देव नारकी यांचे वैक्रियिक शरीराच्या उत्पत्तिला उपपाद जन्म म्हणतात. देवांचे शरीर उपपाद शय्येपासून उत्पन्न होते तो देवांचा उपपाद जन्म होय. तसेच नारकी जीवांची उत्पत्ति घंटेसारख्या आकाराच्या नरक बिळाच्या उपपाद स्थानातून खाली डोके, वर पाय अशा उलट्या आकाराने होते तो नारकी जीवांचा उपपाद जन्म होय. आहारक शरीराचे वर्णन अव्याघाती शुभः शुद्धः प्राप्तदेर्यः प्रजायते । संयतस्य प्रमत्तस्य स खल्वाहारकः स्मृतः ॥ ७८ ॥ अर्थ- प्रमत्तसंयत नामक ६ व्या गुणस्थानवर्ती ऋद्धिधारी मुनींना जेव्हा तत्वचिननामध्ये शंका उत्पन्न होते तेव्हा ती शंका निवारण होण्यासाठी अथवा अकृत्रिम चैत्यालयाची वंदना करण्यासाठी त्यांच्या औदारिक शरीरातून जो एक अरत्नि ( मुंडाहात ) प्रमाण मनुष्याच्या आकाराचा, शुभ्रवर्णाचा, तेज:पुंज जो पुतळा निघतो त्या पुतळ्याच्या शरीरास आहारक शरीर म्हणतात. हा पुतळा सूक्ष्म असल्याने Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ तत्वार्थसार अधिकार २रा अव्याघाती असतो. पर्वतादिकामुळे या शरीराला व्याघात- अडथळा होत नाही. तो पर्वतातून देखील आर-पार निघून जातो. तो पुतळा केवली किंवा श्रुतकेवली जवळ जाताच मुनीच्या तत्वशंकेचे निवारण होते. नंतर तो पुतळा परत मुनीच्या शरीरात येऊन प्रवेश करतो. या पुतळ्याच्या शरीराला आहारकशरीर किंवा आहारकऋद्धि म्हणतात. ५ वेदमार्गणा वर्णन भाववेदस्त्रिभेदः स्यान्नो कषायविपाकजः । नामोदयनिमित्तस्तु द्रव्यवेदः स च त्रिधा ॥ ७९ ।। अर्थ- वेदाचे दोन भेद आहेत. १ भाववेद, २ द्रव्यवेद, १) भाववेद- नोकषाय मोहनीय कर्माच्या उदयाने स्त्री-पुरूषाशी परस्पर संभोग- मैथुन सेवन करण्याची इच्छा होणे यास भाववेद म्हणतात. २ द्रव्यवेद- नाम कर्माच्या उदयाने स्त्री-पुरूषांच्या शरीरामध्ये जननेंद्रियरूप अंगोपांगाची रचना होते त्यास द्रव्य वेद म्हणतात. वेदाचे तीन भेद आहेत. १ पुंवेद, २ स्त्रीवेद, ३ नपुंसक वेद. १ पुंवेद- ज्या नोकषाय वेदकर्माच्या उदयाने पुरूषाची स्त्री-बरोबर संभोग करण्याची इच्छा होते त्यास पुवेद म्हणतात. २ स्त्रीवेद- ज्या नोकषायवेदकर्माच्या उदयाने स्त्रीची पुरूषाबरोबर संभोग करण्याची इच्छा होते त्यास स्त्रीवेद म्हणतात. ३ नपुंसकवेद- ज्या नोकषायवेद कर्माच्या उदयाने पुरूषाची पुरूषाबरोबर, स्त्रीची-स्त्रीबरोबर संभोग घेण्याची इच्छा होणे, अथवा संभोग घेण्याची तीव्र इच्छा असूनही द्रव्यलिंगरूप जननेंद्रियाच्या अभावात संभोग घेण्याचे सामर्थ्य नसणे त्यास नपुंसकवेद म्हणतात. कोणास कोणता वेद असतो द्रव्यानपुंसकानि स्युः श्वाभ्राः संमूछिनस्तथा । पल्यायुषो न देवाश्च त्रिवेदा इतरे पुनः ॥ ८० ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा उत्पादः खलु देवीनां ऐशानं यावादिष्यते । गमनं त्वच्युतं यावत् पुंवेदा हि ततः परं ॥ ८१ ।। अर्थ- नारकी जीव व संमूर्च्छन ज जीवाना जननेंद्रियाच्या अभावामुळे द्रव्य वेद व भाववेद नपुंसकच असतो. पल्यप्रमाण असंख्यात वर्ष आयुष्य धारण करणारे भोगभूमीतील तिर्यंच मनुष्य व देव यांना नपुंसकलिंग नसते. त्यांना स्त्रीवेद व वेद हे दोनच वेद असतात. बाकीचे कर्मभूमिज तिर्यंच मनुष्य याना तीन प्रकारचे वेद असू शकतात. स्वर्गामध्ये देवींचा उत्पाद सौधर्म ऐशान स्वर्गापर्यंतच होतो. वर होत नाही. परंतु वरील अच्युत स्वर्गापर्यंतचे देव खाली सौधर्म- ऐशान स्वर्गात येऊन आपापल्या देवीना वर घेऊन जाऊ शकतात. देव- नारकी भोगभूमीतील जीवांचा जो द्रव्यवेद असतो तोच भाववेद असतो. परंतु इतर मनुष्य व तिर्यंच यांच्या द्रव्यवेद व भाववेदामध्ये असमानता देखील असू शकते. द्रव्यवेद ज्यांचा नपुंसकवेद असेल ते मिथ्यादृष्टि असतात. द्रव्यवेद स्त्रीवेद ज्यांचा असतो असे तिर्यंच मनुष्य १ ते ५ गुणस्थानपर्यंत चढू शकतात. व्रतीश्रावक होऊ शकतात. संयम धारण करू शकत नाहीत. परंतु द्रव्यवेद ज्यांचा पुरूष वेद असतो ते भाववेदाने पुंवेद स्त्रीवेद नपुंसकवेद सहित असले तरी सम्यग्दृष्टी श्रावक मुनी होऊ शकतात. नवव्या गुण-स्थानापर्यंत सवेद भागापर्यंत चढू शकतात. भूतपूर्वनयाने वेदातीत झाल्यावर देखील भाववेदाच्या अपेक्षेने वेदमार्गणेत भावस्त्रीवेदी भावनपुंसकवेदी यांची गुणस्थाने १४ सांगितली आहेत. परंतु त्यांचा द्रव्यवेद पुरुषवेदच असतो. भाववेदाने वेदातीत असून देखील द्रव्यवेद पुरुषवेद असल्यामुळे पुरुषवेदीना देखील १४ गुणस्थाने भूतपूर्वनयाने सांगितली आहेत. ६ कषाय मार्गणा चारित्रपरिणामानां कषायः कषणान्मतः । क्रोधो मानस्तथा माया लोभश्चेति चतुर्विधः ।। ८२ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ- जीवाचा जो परिणाम जीवाच्या चारित्र परिणामाचा घात करतो त्याला कषाय म्हणतात. कषायाचे चार भेद आहेत. ५ क्रोध, २ मान, ३ माया, ४ लोभ. कषायाचे चार प्रकार आहेत. १ अनंतानुबंधी. २ अप्रत्याख्यानावरण, ३ प्रत्याख्यानावरण, ४ संज्वलन. १ पहले अनंतानुबंधी कषाय सम्यक्त्व व चारित्र गुणाचा घात करतात. गुणस्थान ४ पासून अनंतानुबंधीचा अभाव असल्यामुळे सम्यग्दर्शन सहित आत्मानुभूतिरूप स्वरूपाचरण चारित्र (सम्यकत्वचरण चारित्र ) प्रगट होते. २ जे कषाय थोडादेखील प्रत्याख्यान-त्याग-देशसंयम होऊ देत नाहीत त्यास अप्रत्याख्यानावरण कषाय म्हणतात. यांचा अभाव (क्षयोपशम ) झाल्याने पाचव्या गुणस्थानात देशव्रत धारण करतो ३ जे कषाय मुनीचे सकलसंयमरूप परिणाम होऊ देत नाहीत त्यास प्रत्याख्यानावरण कषाय म्हणतात. यांचा क्षयोपशम झाला असताना जीव ६ व्या प्रमत्तअप्रमत्तगुणस्थानात मुनीचे सकलसंयमरूप महाव्रत धारण करतो. ४ जे कषाय यथाख्यात चारित्र होऊ देत नाहीत त्यास संज्वलन कषाय म्हणतात. अनंतानुबंधीचा उदय हा पहिल्या व दुसऱ्या गुणस्थान पर्यंतअसतो अप्रत्याख्यानावरण कषायाचा उदय १ ते ४ गुणस्थानापर्यंत असतो प्रत्याख्यानावरण कषायाचा उदय १ ते ५ गणस्थानपर्यंत असतो. संज्वलन कषायाचा उदय १ ते १० गुणस्थानपर्यंत असतो. अकराव्या उपशांतमोह गुणस्थानात संपूर्ण कषायांचा उपशम असतो. बाराव्या क्षीणमोह गुणस्थानात संपूर्ण कषायांचा क्षय झालेला असतो. कषायाप्रमाणे नोकषाय देखील चारित्र गुणाचे किंचित घात करणारे आहेत म्हणून त्यांना नोकषाय म्हणतात. नोकषायाचे ९ भेद १ टोप- आद्याः सम्यक्त्व चारित्रे व्दितीया घ्नन्त्यणुव्रतं । तृतीयाः संयमं ध्यन्ति यथाख्यातं तुरीयकाः। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा आहेत. १ हास्य, २ रति, ३ अरति, ४ शोक, ५ भय, ६ जुगुप्सा, ७ नपुंसकवेद, ८ स्त्रीवेद, ९ पुरूषवेद या नोकषायांचा उदय सामान्यपणे १ ते ९ गुणस्थानापर्यंत असतो. ७ ज्ञान मार्गणा वर्णन तत्त्वार्थस्यावबोधो हि ज्ञानं पंचविधं भवेत् । मिथ्यात्वपाटककलुषमज्ञानं त्रिविधं पुनः ॥ ८३ ।। अर्थ- जीवादि तत्वांचे हेयउपादेयरूप यथार्थ भेदविज्ञान त्यास सम्यग्ज्ञान म्हणतात. सम्यग्ज्ञानाचे ५ भेद आहेत. १ मतिज्ञान, २ श्रूतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्यथज्ञान, ५ केवलज्ञान. यापैकी पहिली तीन ज्ञाने जेव्हा मिथ्यात्वाच्या उदयाने कलुषित-विपरीतरूप परिणमतात तेव्हा ती अज्ञाने म्हटली जातात. ते विपरीतज्ञानस्वरूप अज्ञान तीन प्रकारचे आहे. १ कुमतिज्ञान, २ कुश्रुत ज्ञान, : कुअवधिज्ञान (विभंगज्ञान) या प्रमाणे ज्ञानमार्गणेचे ८ भेद आहेत. ८ संयम मार्गणा संयमः खलु चारित्रमोहस्योपशमादिभिः प्राणस्य परिहारः स्यात् पंचधा स च वक्ष्यते ।। ८४ ।। विरता विरतत्वेन संयमासंयमः स्मृतः । प्राणिधाताक्षविषयभावेन स्यादसंयमः ॥ ८५ ॥ अर्थ- चारित्र मोहकर्माचा उपशम-क्षय-क्षयोपशम झाला असताना जे आत्म्याचे वीतरागरूप परिणाम होतात त्यास संयम म्हणतात. ज्यामध्ये षट् काय जीवांच्या हिंसेचा परिहार-त्याग नियमरूपाने असतो त्यास प्रामुख्याने संयम किंवा चारित्र म्हणतात. संयमाचे ५ भेद आहेत. १ सामायिक, २ छेदोपस्थापना, ३ परिहार विशुद्धी, ४ सूक्ष्मसांपराय, ५ यथाख्यात. १ सामायिक- समय म्हणजे आत्मा. स्थिर चित्ताने आत्म्याची निरंतर भावना भावणे ते सामायिक चारित्र होय (गुण. ६ ते ९) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा २ छेदोपस्थापना - सामायिका पासून च्युत झाले असता त्यामध्ये पुनः स्थिर राहण्याचा अभ्यास करणे त्यास छेदोपस्थापना चारित्र म्हणतात. ( गुण. ६ वे ९ ) ३ परिहारविशुद्धि विहारकरताना जमिनीवरून अधर चालण्याची ऋद्धि प्राप्त होणे त्यास परिहारविशुद्धिचारित्र म्हणतात. ( गुण ६ ते ७ ) ४ सूक्ष्मसांपराय- स्थूल कषायांचा अभाव होऊन सूक्ष्म लोभ शिल्लक राहिला असताना जी परिणामाची विशुद्धि त्याला सूक्ष्मसांपरायचारित्र म्हणतात. ( गुण. १० ) अभाव ( उपशम किंवा क्षय ) ५ यथाख्यात- कषायांचा झाला असताना जसे आत्म्याचे स्वरूप आहे त्यात उपयोग स्थिर होणे यास यथाख्यातचारित्र म्हणतात. ( गुण. ११ ते १४ ) ६ विरताविरत ( संपमासंयम - देशसंयम ) - अप्रत्याख्यानावरण कषायाचा क्षयोपशम झाला असता त्रसजीवाच्या हिंसेचा त्यागरूप परंतु स्थावर जीवाच्या हिंसेचा प्रयोजन कार्यवश त्याग करू शकत नाही असे विरनअविरतरूप जीवाचे जे मिश्र परिणाम संयमासंयम किंवा देशसंयमचारित्र म्हणतात. ( गुण. ५ ) त्याला ७ असंयम - षट्काय जीवाच्या हिंसाप्रवृत्तीमुळे होणारी ६ प्रकारची अविरतिरूप व पाच इंद्रिये व मन यांच्या विषयामध्ये होणाऱ्या प्रवृत्तिमुळे होणारी ६ प्रकारची अविरतिरूप परिणति त्यास असंयमभाव म्हणतात ( गुण. १ ते ४ ) या प्रमाणे संयम मार्गणेचे ७ भेद आहेत. ९ दर्शन मार्गणा दर्शनावरणस्य स्यात् क्षयोपशामसन्निधौ । आलोकनं पदार्थानां दर्शनं तच्चतुविधं ॥ ८६ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार २ रा चक्षुर्दर्शन मेकं स्यादचक्षुर्दर्शनं तथा । अवधिदर्शनं चैव तथा केवल दर्शनं ।। ८७ ।। अर्थ- दर्शनावरण कर्माचा क्षयोपशम किंवा क्षय झाला असताना जीवादिक पदार्थाचे जे सामान्य सत्तामात्र अवलोकन ( प्रतिभास ) त्यास दर्शनचेतना किंवा दर्शनोपयोग म्हणतात. दर्शनोपयोगाचे ४ भेद आहेत. १ चक्षुदर्शन, २ अचक्षुदर्शन, ३ अवधिदर्शन, ४ केवलदर्शन. ९३ १ चक्षुदर्शन - चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय जीवाना चक्षुरिंद्रिय मतिज्ञान होण्यापूर्वी जो पदार्थाचा सामान्य सत्तामात्र प्रतिभास होतो त्यास चक्षुदर्शन म्हणतात. २ अचक्षुदर्शन- चक्षुशिवाय इतर चार इंद्रियानी होणाऱ्या मतिज्ञानापूर्वी जो पदार्थाचा सामान्य सत्तामात्र प्रतिभास होतो त्यास अचक्षुदर्शन म्हणतात हे एकेंद्रियापासून पंचेंद्रियापर्यंत सर्व जीवाना होते. ३ अवधिदर्शन - अवधिज्ञानापूर्वी जो पदार्थाचा सामान्य सत्तामात्र प्रतिभास होतो त्यास अवधिदर्शन म्हणतात. अवधिज्ञानी देव नारकी - तिर्यंच मनुष्य याना हे अवधिदर्शन होते. ४ केवलदर्शन - केवलज्ञानाबरोबर युगपत् जो पदार्थाचा सामान्य सत्तामात्र प्रतिभास होतो त्यास केवलदर्शन म्हणतात. १-२ चक्षुदर्शन - अचक्षुदर्शन १ ते १२ गुणस्थानपर्यंत सर्व जीवाना ( मिथ्यादृष्टि - सम्यग्दृष्टि सर्वाना ) होते. ३ अवधिदर्शन - अवधिज्ञानी, सम्यग्दृष्टी जीवाना (देव नारकी - तिर्यंच - मनुष्य ) या सर्वाना होते. मिथ्यादृष्टि विभंगावधिज्ञानाला अवधिदर्शन होत नाही. त्याना चक्षुदर्शन अचक्षु दर्शनजन्य कुश्रुतज्ञानपूर्वक विभंगावधिज्ञान होते. ४ केवलदर्शन- केवलज्ञानी सर्वज्ञ ( गुण. १३-१४ ) सर्वाना होते. याप्रमाणे दर्शन मार्गणेचे चार भेद आहेत. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १० लेश्या मार्गणा योगप्रवृत्तिर्भवेल्लेश्या कषायोदय रंजिता । भावतो द्रव्यतः काय नामोदय कृताङ्गरुक् ।। ८८ ॥ कृष्णा नीला च कापोता पीता पद्मा तथैव च । शुक्ला चेति भवत्येषः द्विविधाऽपि हि षड्विधा ।। ८९ ॥ अर्थ- कषायाच्या उदयाने अनुरंजित अशी मन-वचन-कायेच्या अवलंबनाने आत्मप्रदेश परिस्पंदक्रियारूप जी योगप्रवृत्ति तिला लेश्या म्हणतात. लेश्या २ प्रकारची आहे, १ भावलेश्या २ द्रव्यलेश्या १ भावलेश्या- कषायोदयजनित जी योगप्रवृत्ति तिला भावलेश्या म्हणतात. २ द्रव्यलेश्या- शरीरनामकर्माच्या उदयाने शरीराचा जो बाह्य वर्ण त्याला द्रव्यलेश्या म्हणतात. लेश्येचे ६ भेद आहेत १ कृष्ण २ नील ३ कापोत ४ पीत ५ पद्म ६ शुक्ल. १ कृष्णलेश्या- फलासाठी मूळापासून झाड उपडण्याची इच्छा करणान्याप्रमाणे जे तीव्रतम (उत्कृष्ट) संक्लेश परिणाम त्यास कृष्णलेश्या म्हणतात. २ नील- फलासाठी झाडाच्या बुंधापासून तोडण्याची इच्छा करणा-या प्रमाणे तीव्रतर ( मध्यम ) संक्लेश परिणाम त्यास नीललेश्या म्हणतात. ३ कापोत- फलासाठी झाडाची शाखा (फांदी) तोडण्याची इच्छा करणा-या प्रमाणे जे तीव्र (जघन्य) संक्लेश परिणाम त्याला कापोत लेश्या म्हणतात. ४ पीत- फलासाठी फळ असलेली उपशाखा (लहानफांदी) तोडण्याची इच्छा करणाऱ्या प्रमाणे मंद संक्लेश (जघन्य विशुद्धिरूप) जे परिणाम त्याला पीत लेश्या म्हणतात. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ र ५ पद्मलेश्या - फलासाठी फळ असलेला गुच्छ तोडण्याची इच्छा करणाऱ्या प्रमाणे जे मंदतर संक्लेश ( मध्यम विशुद्धिरूप) परिणाम त्याला पद्मलेश्या म्हणतात. ६ शुक्ललेश्या - फलासाठी झाडाला त्रास न देता खाली पडलेले फळ घेण्याची इच्छा करणाऱ्या प्रमाणे जे मंदतम संक्लेश ( उत्कृष्ट विशुद्धिरूप) परिणाम त्यास शुक्ललेश्या म्हणतात. कोठेकोठे द्रव्यलेश्या ( शरीराचा वर्ण) हा भावलेश्यानुरूप त्या त्या लेश्यावर्णाचा असतो. परंतु कोठे कोठे भावलेश्या व द्रव्यलेश्या यामध्ये विषमता देखील असते. गोमटसार ग्रंथामध्ये सहा लेश्या परिणामाचे स्वरूप वर्णन केले आहे. १) कृष्णलेश्या - चंडो ण मुचइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ । दुट्टो ण य एदि वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स || ९५ तीव्र क्रोधी, दीर्घकाल वैरभाव ठेवणारा, कलहप्रिय, धर्म दयाभाव न ठेवणारा, दुष्ट, कोणाच्यावश-आधीन न होणारा तो कृष्णलेश्याधारी समजावा. २) नील्लेश्या - मंदो बुद्धि विहोणो, णिविण्णाणी य विसय लोलोय । णिद्दावचनबहुलो धण धण्णे होदि तिव्व सण्णाय । माणी मायी य तहा आलस्सो चेव भेज्जो य ॥ लक्खण मेयं भणियं समासदो णीललेस्सस्स || मंद - आळशी, बुद्धि विहीन विवेक रहित, विषयलंपट, मानी, मायावी, आळशी, दुर्भेदी निद्रालु, दुसन्यास ठकविणारा, धन धान्य परिग्रहाविषयी तीव्र आसक्ती ठेवणारा, नीललेश्यावाला जाणावा. ३) कापोतलेश्या - रूसइ दिइ अण्णे दूसइ बहुसो य सोयभय बहुलो । असुयइ परिभवइ परं पसंसये अध्वयं बहुसो ॥ ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणमिव परं विमण्णंतो । थूसइ अभित्युवंतो ण य जाणइ हाणि वड्ढि वा ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा मरणं पत्थेइ रणे, देइ सुबहुगं वि थूयमाणो दु । ण गणइ कज्जाकज्जं लक्खणमेयं तु काउस्स ॥ जो रोष करतो, 'दुसऱ्याची निंदा करतो, दुसन्यास दोष लावतो, तीव्रशोक, तीव्र भय धारण करतो, मत्सर करतो. दुसऱ्याचा पराभव करण्यात आनंद मानतो. आपली प्रशंसा करतो. दुसऱ्यावर विश्वास ठेवीत नाही, आपल्या प्रमाणे दुसन्यास ठक समजतो. स्तुतिकरणाऱ्याची स्तुति करतो, हानि-लाभ याचा सारासार विवेक करीत नाही. मरण आले तरी जो लढणे सोडीत नाही. दुसऱ्याने स्तुतिकेल्यास त्याला आपले सर्वस्व अर्पण करतो, कार्य-अकार्यांचा विवेक ठेवीत नाही हे कापोत लेश्यावान् जीवाचे लक्षण समजावे. ४) पीतलेश्या - जाणइ कज्जाकज्जं सेयमसेयं च सव्वसमपासी । दय शरदो य मिदू लक्खणमेयं तु तेस्स ॥ जो कार्य अकार्य याचा विवेक ठेवतो, भक्ष्य- अभक्ष्याचा विवेक तो. सर्व प्राणीमात्राविषयी समता भाव ठेवतो, दया दान पूजा इत्यादि शुभ आचरण करतो. मृदु भाषण करतो ते तेजोलेश्या धारीचे लक्षण समजावे. ५) पद्मलेश्या - चागी भद्दो चोक्खो उज्जवकम्मो य खमदिबहुगंपि साहुगुरुपूजणरदो लक्खणमेयं तु पम्मस्स || दानी, भद्रपरिणामी, चांगले कार्य करणारा, उद्योगशील, क्षमाशील, देवशास्त्र गुरू यांची पूजा करणारा हे पद्मलेश्याधारी जीवाचे लक्षण होय. ६) शुक्ललेश्या - ण य कुणइ पक्खवायं ण विय णिदाणं समो य सव्वेसि । पत्थिय रायद्दोसा हो वि य सुक्कलेस्सस्स ।। जो पक्षपात करीत नाही. निदान भोगाची इच्छा ठेवीत नाही. समता भाव ठेवतो, राग द्वेष करीत नाही परपदार्थाविषयी ममत्व ठेवीत नाही ते शुक्लश्याधारी जीवाचे लक्षण समजावे. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ११ भव्यत्व मार्गणा भव्याभव्यविभेदेन द्विविधाः सन्ति जन्तवः । भव्याः सिद्धत्वयोग्याः स्युविपरीतास्तथापरे ।। ९० ।। अर्थ- जीवाचे दोन भेद आहेत. १ भव्य, २ अभव्य. १ भव्य- जे सिद्ध-मुक्तहोण्यायोग्य आहेत. ज्याना सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रत्नत्रय प्राप्त होण्याची योग्यता असते त्याना भव्य म्हणतात. २ अभव्य- ज्याना मुक्त होण्याची योग्यता नसते. ज्याची रत्नत्रययुक्त परिणाम होण्याची योग्यता नसते त्याना अभव्य म्हणतात ज्या प्रमाणे ज्वर असणान्यास गोडपदार्थं रुचत नाही. गोड पदार्थही कडू वाटतो, त्याप्रमाणे ज्याला धर्माचा उपदेश रुचत नाही त्याना अभव्य म्हटले आहे. ही भव्य जीवराशी व अभव्य जीवराशी निसर्गसिद्ध आहे. कदापि यात बदल होत नाही. भव्याचा अभव्य होत नाही. अभव्याचा भव्य होत नाही. अभव्य जीव अनंत आहेत. अभव्य जीवापेक्षा भव्यजीव अनंतानंतपट अधिक आहेत. भव्य राशि अक्षय अनंत आहेत पुढे अनंत काळ जरी गेला तरी अनन्तजीव मोक्षास गेले तरी अनन्त भव्य जीव यासंसार राशी मध्ये सदासर्वकाल राहतात. अशी अक्षय-अनन्त भव्यराणी आहे. ज्याचा अनन्तकाळ गेला तरी अंत होत नाही त्याला अक्षयअनन्त म्हणतात. १२ सम्यक्त्व मार्गणा सम्यक्त्वं खलु तत्वार्थश्रध्दानं तत् त्रिधा भवेत् । स्यात् सासादन- सम्यक्त्वं पाकेऽनन्तानुबंधिनां ॥९१ ॥ सम्यग्मिथ्यात्व पाकेन सम्यग्मिथ्यात्वमिष्यते । मिथ्यात्वमुदयेनोक्तं मिथ्यादर्शनकर्मणः ॥ ९२ ॥ अर्थ- जीव अजीव आदि सात तत्वांचे हेय उपादेयरूप जे यथार्थ श्रद्धान त्यास सम्यग्दर्शन म्हणतात. सम्यग्दर्शनाचे तीन भेद आहेत. १ औपमिक सम्यवत्व, २ क्षायिक सम्परत्व, ३ क्षयोपशामिक सम्यक्त्व. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १) औपशमिकसम्यक्त्व- दर्शन मोहाच्या तीन प्रकृति मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति व अनंतानुबंधी चार प्रकृति या ७ प्रकृतीचा उपशम झाला असताना जे समीचीन तत्वश्रद्धान होते त्यास औपशामिक सम्यग्दर्शन म्हणतात (गुण. ४ ते ११) क्षायिक सम्यक्त्व- उपरोक्त ७ प्रकृतीचा क्षय झाला असताना जे समीचीन तत्वश्रद्धान होते त्यास क्षायिकसम्यग्दर्शन म्हणतात, (गुण. ४ ते १४) क्षायोपशामिक सम्यक्त्व- दर्शन मोहाच्या २ प्रकृति. मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी ४ प्रकृति यांचा वर्तमान निषेकाचा उदयाभावी क्षय व पुढे उदयास येणा-या निषेकाचा सद्वस्थारूप उपशम व सम्यकप्रकृतिचा उदय असताना जे समीचीन तत्वश्रद्धान होते परंतु त्यामध्ये चल-मलीन अगाढ दोष उत्पन्न होतात त्यास क्षायोपशामिक सम्यक्त्व म्हणतात (गण. ४ ते ७) ४) सासदन सम्यक्त्व- जव्हा सम्यग्दृष्टी जीव अनंतानुबंधीच्या उदयाने सम्यक्त्वापासून भ्रष्ट होतो परंतु अद्यापि मिथ्यात्वाप्रत पोहोचत नाही अशा मधल्या परिणामास सासादनसम्यक्त्व म्हणतात. (गुण. २) ५) सम्यग्मिथ्यात्व- सम्यग्मिथ्यात्वदर्शन मोहाचा उदय असताना जीवाचे जे मिश्र परिणाम होतात त्यांना शुद्ध सम्यक्त्वरूप म्हणता येत नाही व शुद्ध मिथ्यात्वरूप म्हणता येत नाही अशा मिश्र परिणामास सम्यग्मिथ्यात्व म्हणतात. (गुण. ३) ६)मिथ्यात्व- मिथ्यात्व कर्माच्या उदयाने जीवाचे अतत्वश्रद्धानरूप विपरीतश्रद्धान परिणाम होतात त्यास मिथ्यात्व म्हणतात. (गुण १) सम्यक्त्व घातक दर्शनमोह व अनंतानुबंधी यांच्या सद्भावात व अभावात जीवाचे जे परिणाम होतात त्या अपेक्षेने सम्यक्त्व मार्गणेचे ६ भेद केले आहेत. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १३ संज्ञी मार्गणा यो हि शिक्षाक्रियात्मार्थग्राही संज्ञी स उच्यते । अतस्तु विपरीतो यः सोऽसंज्ञी कथितो जिनः ।। ९३ ।। अर्थ- जो दुस-याने केलेला उपदेश ग्रहण करू शकतो, ज्याला आत्म्याच्या हित-अहिताचा विवेक आहे, जो शरीराच्या क्रियेवरून दुसऱ्याच्या मनातील संकेत अभिप्राय ओळखू शकतो त्यास संज्ञी म्हणतात. जो उक्त लक्षणाने रहित आहे, ज्याला हित-अहिताचा विवेक नाही, त्यास असंज्ञी म्हणतात. एकेंद्रियापासून असंज्ञी पंचेंद्रिया पर्यत सर्व जीव असंज्ञीच असतात. ते सर्व मिथ्यादृष्टिच असतात. संज्ञी पंचेंद्रियजीव गुण. १ ते १२ गुणस्थानवर्ती असतात. १३१४ गुणस्थानातील जीव याचे क्षायिकज्ञान असल्यामुळे संज्ञी- असंज्ञी-या संज्ञेच्या अतीत असतात. १४ आहार मार्गणा गण्हाति देहपर्याप्ति योग्यान् यः खलु पुद्गलान् । आहारकः स विज्ञेयस्ततोऽनाहारकोऽन्यथा ॥ ९४ ।। अर्थ- पर्याप्ति नामकर्माच्या उदयाने जो शरीर पर्याप्ति पूर्ण होण्यायोग्य नोकर्मवर्गणा पुद्गलस्कंधाना ग्रहण करतो त्यास आहारक म्हणतात. जोपर्यंत शरीर पर्याप्ति पूर्ण होण्यायोग्य नोकर्म आहारक वर्गणेचेग्रहण नसते तोपर्यंत तो जीव अनाहारक म्हटला जातो. जन्माच्या प्रथम समयापासून नोकर्म आहार वर्गणे चेग्रहण सुरू होते. यद्यपि आहाराचे अनेक प्रकार आहेत. १ कर्माहार, २ नोकर्माहार, ३ तेजाहार, ४ ओजाहार, ५ लेपाहार, ६ कवलाहार, ७ मानसाहार इ. तथापि येथे आहारमार्गणेमध्ये नोकर्मवर्गणचे ग्रहण या अपेक्षेने आहार मार्गणेचे वर्णन केले आहे. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अनाहारक जीव कोणते आहेत ? अस्त्यनाहारकोऽयोगः समुद्घातगतः परः । सासनो विग्रहगतौ मिथ्यादृष्टि स्तथाऽव्रतः । ९५ ।। अर्थ - अयोग केवली ( गुण. १४ ), समुद्घातगत केवली ( गुण. १३ ) तथा विग्रहगतिमध्ये असणारे सासादन, मिथ्यादृष्टि, व असंयत सम्यग्दृष्टि हे अनाहारक आहेत. याशिवाय बाकीचे १ ते १३ गुणस्थानवर्ती जीव आहारक आहेत. मरताना जीवाचे १ ले, २ रे, ४ थे हे तीनच गुणस्थान असतात म्हणून मरणानंतर विग्रहगतीतील मिथ्यादृष्टि सासादन व अविरत सम्यग्दृष्टि हे जीव अनाहारक असतात. विग्रहगति वर्णन विग्रहो हि शरीरं स्यात् तदर्थं या गतिर्भवेत् । विशीर्णपूर्वदेहस्य सा विग्रहगतिः स्मृता ॥ ९६ ॥ अर्थ - विग्रह म्हणजे शरीर ज्याने मरणानंतर पूर्व शरीर सोडले आहे अशा जीवाची नवीन शरीर धारण करण्यासाठी जे गमन ती विग्रहगति होय. विग्रहगतीत कोणता योग असतो ? जीवस्य विग्रहगतौ कर्मयोगं जिनेश्वराः । प्राहुर्देशान्तरप्राप्तिकर्मग्रहण कारणं ।। ९७ ।। अर्थ - विग्रह गतीमध्ये जीवाला कार्माणकाययोग असतो हा कार्माणकाययोग एक भवातून दुसन्या भवात जाण्यास कारणीभूत होतो. या कामणिकाययोगाने जीवाला कर्मबंध होतो परंतु येथे विग्रहगतीमध्ये असणारे कार्माण शरीर औदारिक- वैक्रियिक शरीराच्या अभावात इंद्रियांचा अभाव असल्यामुळे इंद्रियद्वारे विषयाचा उपभोग घेऊ शकत नाही म्हणून ते कार्माण शरीर निरूपभोग-उपभोग रहित असते. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २रा विग्रहगतिमध्ये जीवाचे गमन कसे असते ? जीवानां पंचताकाले यो भवान्तरसंक्रमः । मुक्तानां चोर्ध्वगमनमनुश्रेणिगतिस्तयोः ॥९८॥ अर्थ- मरणानंतर जीव जेव्हा एक भवातून दुसन्याभवात गमन करतो ते गमन व मुक्त जीवाचे ऊर्ध्वगमन हे आकाशप्रदेशाच्या श्रेणीस अनुसरून श्रेणीबद्ध षट्क अपक्रमरूप असते. पूर्व-पश्चिम दक्षिण-उत्तर खाली-वर या सहा दिशेने श्रेणीबद्ध गमन करणे यास षट्क अपक्रम म्हणतात. विग्रहगतीतील जीवाचे गमन ईशान्य, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य या चार विदिशेने तिरपे होत नाही. विग्रहगतीचे प्रकार व त्यांचा काल सजिग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिद्विधा । अविग्रहैव मुक्तस्य शेषस्थानियमः पुनः ॥ ९९ ।। अविग्रहकसमया कथितेषुगतिजिनैः । जाया द्विसमया प्रोक्ता पाणिमुक्तकविग्रहा ।। १०० ॥ द्विविद्महा त्रिसमयां प्राहुल गलिकां जिनाः । गोमुत्रिकां तु समयैश्यतुभिः स्यात् त्रिविग्रहा ॥१०१।। समयं पाणिमुक्तायामन्यस्यां समयद्वयं । तथागोमूत्रिकायां बीन अनाहारक इध्यते ॥१०२।। अर्थ- मरण कालीन विग्रहगती दोन प्रकारची असते. विग्रह म्, णजे बक्रता (मोडा.) १ विग्रहसहित, २ विग्रह-रहित. मुक्त जीवाची गति अविनइच मोडारहित सरळ उर्ध्वगमन असते. अविग्रहगतीचा काळ एक समय असतो. मुक्तजीव मध्यमलोक व ऊर्ध्वलोक प्रमाण ७ राज क्षेत्र एक समयात गमन करून लोकाकाशाच्या अग्रभागी सिद्ध शिलेवर जाऊन विराजमान होतात. यद्यपि मुक्तजीवाचा स्वभाव ऊर्ध्वगमन सांगितला आहे. तथापि त्याचा काल एकसमयमात्र असतो. व तो लोकाकाशाच्या अंतापर्यंतच गमनशील सांगितला आहे. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा लोकाकाशाच्या बाहेर अलोकाकाशामध्ये धर्मास्तिकायाचा अभाव असल्यामुळे गमन करीत नाहीत. विग्रहगतीचे चार प्रकार आहेत. १ इषुगति २ पाणिमुक्तागति ३ लांगलिकागति ४ गोमूत्रिकागति. १ इषुगति- इषु म्हणजे बाण ज्याप्रमाणे बाण हा सरळ जातो त्याप्रमाणे विग्रहगतीतील काही जीव आकाश प्रदेशश्रेणीस अनुसरून सरळ जातात. विग्रहमोडा घेत नाहीत म्हणून यास इषुगति म्हणतात. या अविग्रहरूप इषुगतिचा काल १ समयमात्र असतो. एका समयात जीव लोकाकाशाच्या खालच्या टोकापासून वरच्या टोकापर्यंत चौदा राज गमन करतो. ज्यासमयात जीव मरतो त्या समयात तो आहारकच असतो दुसन्या समयात अन्यभवात जाऊन उत्पन्न होऊन शरीरपर्याप्तियोग्य नोकर्मपुद्गल स्कंधाचे ग्रहण करतो. म्हणून या इषुगतिमध्ये जीव आहारकच असतो, अनाहारक नसतो. २ पाणिमुक्तागति- पाणिमुक्ता-म्हणजे विळा ज्याप्रमाणे एकवक्रता (मोडा) वाला असतो त्याप्रमाणे ज्या विग्रहगतिमध्ये जीव एकमोडा घेऊन आकाशप्रदेशश्रेणीने अन्यभव धारण करतो तिला पाणिमुक्तागति म्हणतात. या गतीचा काल दोन समय असतो. हा जीव एकसमय अनाहारक असतो. ३ लांगलिकागति- लांगल म्हणजे नांगर- ज्याप्रमाणे नांगरास त्रिशुलाप्रमाणे दोन वक्रतारूपमोडे असतात. त्याप्रमाणे ज्या विग्रहगतीत जीव दोनमोडे घेऊन अन्यभव धारण करतो तिला लांगलिकागति म्हणतात. या गतिचा काल तीन समयाचा असतो. व दोन समय जीव अनाहारक असतो. ४ गोमूत्रिकागति- ज्याप्रमाणे गोमूत्र खाली पडताना अनेक वक्रता मोडे घेते त्याप्रमाणे ज्या विग्रहगतीमध्ये निष्कट क्षेत्र आल्यामुळे तीन मोडे घ्यावे लागतात तिला गोमूत्रिका विग्रहगति म्हणतात. या Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १०३ विग्रहगतिचा काल चार समयाचा असतो. हा जीव तीन समय अनाहारक असतो. जेथे दोन लोकाकाशाच्या भागामध्ये अलोकाकाशाचा भाग येतो त्याला निष्कट क्षेत्र म्हणतात. त्यामुळे या विग्रहगतिमध्ये जीवाला तीन मोडे घ्यावे लागतात. ___ जन्माचे प्रकार त्रिविधं जन्म जीवानां सर्वज्ञैः परिभाषितं । संमूर्छनात् तथा गर्भादुपपादात् तथैवच ॥ १०३ ॥ अर्थ- जन्माचे तीन प्रकार आहेत. १ संमूर्छनजन्म २ गर्भजन्म ३ उपपादजन्म संमूर्छनजन्म- माता-पित्याच्या रजो-वीर्याशिवाय बाह्यनिसर्ग वातावरण-वारा-ऊन-पाणी यांच्या संयोगापासून जीवाचा जो जन्म होतो त्यास संमूर्छनजन्म म्हणतात. २ गर्भजन्म- माता-पित्याच्या रजोवीर्यापासून गर्भधारणा होऊन जो जन्म होतो त्यास गर्भजन्म म्हणतात. ३ उपपादजन्म- देव व नारकी यांचा विवक्षित उपपादस्थानापासून जो जन्म होतो त्यास उपपादजन्म म्हणतात. कोणाचा कोणता जन्म असतो भवन्ति गर्भजन्मानः पोताण्डजजरायुजाः । तथोपपादजन्मानो नारकास्त्रिदिवौकसः ॥ १०४ ॥ स्युः संमूर्छनजन्मानः परिशिष्टास्तथापरे ॥ अर्थ- मनुष्य व संज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंच यांचा गर्भ जन्म असतो. गर्भ जन्माचे तीन प्रकार आहेत. १ पोत २ अंडज ३ जरायुज. १ पोत- जे जन्मतःच चालू-फिरू शकतात त्यांचा पोत जन्म असतो. जसे- सिंह-वाघ वगैरे. २ अंडज- अंड्यापासून ज्यांचा जन्म होतो तो अंडज होय. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ तत्वार्थसार अधिकार २ रा ३ जरायुज - जन्मताना ज्यांचे अंगावर जरायु ( जाळे) असते त्यातून जो जन्म होतो तो जरायुजजन्म होय. मनुष्य - गाय-बैल यांचा जरायुजन्म असतो. उपपादजन्म - देव व नारकी यांचा उपपादजन्म होय देवांचा उपपाद शय्येवर जन्म होतो. जन्म होताच ते तरुणासारखे चालू-फिरू लागतात. देवाना बालपण - म्हातारपण नसते. जन्मल्यापासून मरेपर्यंत ते तरुणासारखे असतात. नारकी जीवांचे उपपाद - जन्मस्थान घंटेच्या आकारासारखे बिळ असते तेथून जन्म होतो. जन्मताना डोके खाली पाय वर असे खाली भूमीवर पडतात. तीन वेळा चेंडूप्रमाणे उसळी घेतात. जन्मताना तेथील भूमिच्या स्पर्शाने तीव्र वेदना उत्पन्न होतात. संमूर्छनजन्म - एकेंद्रियापासून असंज्ञी पंचेंद्रियापर्यंत सर्व तिर्यंच जीवांचा संमूर्छन जन्म होतो. त्यांच्या शरीराची उत्पत्ति- जमीन-वारापाणी - ऊन इत्यादि निसर्ग वातावरणापासून होते काही संज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंच व मनुष्य देखील संमूर्च्छन जन्मधारी असतात. पावसातून पडणारे बेडूक साप यांचा संमूर्छन जन्म असतो. स्त्रीच्या योनिमुखामध्ये काखेमध्ये या संमूर्च्छनज मनुष्यांचा जन्म होतो. सर्व संमूर्छन जन्मधारी नपुसकलिंगी असतात. जन्मस्थानयोनिचे प्रकार, कोणाची कोणती योनि असते योनयो नव निर्दिष्टा स्त्रिविधस्यापि जन्मनः ।। १०५ ।। सचित्त-शीत-वित्रता अचित्ताशीत संवृताः । सचित्ताचित्त-शीतोष्णौ तथा संवृत विवृताः ॥ १०६ ॥ योनि नरक-देवानांमचित्तः कथितो जिनैः । गर्भजानां पुनश्चः शेषाणां त्रिविधो भवेत् ।। १०७ ।। उष्णः शीतश्च देवानां नारकाणां च कीर्तितः । उष्णोऽग्निकायिकानां तु शेषाणां त्रिविधो भवेत् ।। १०८ ।। नारकैकाक्ष देवानां योनिर्भवति संवृतः । विवृतो विकलाक्षाणां मिश्रः स्याद् गर्भजन्मनां ॥ १०९ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा १०५ अर्थ- योनीचे नऊ प्रकार आहेत. तीन प्रकारचा जन्म धारण करणान्या जीवाची योनि नऊ प्रकारची आहे. १ सचित्त २ अचित्त ३ शीत ४ उष्ण ५ संवृत ६ विवृत ७ सचित्ताचित्त ८ शीतोष्ण ९ संवृतविवृत. देव-नारकी यांची अचितयोनि असते. गर्भजन्मधारीची मिश्रयोनि असते. बाकीच्या संमूर्छनजन्मधारीची तीन पैकी कोणतीही एक योनि असू शकते. काही देव-नारकी यांची उष्ण व शीत यापैकी कोणतीही एक योनि असते. अग्निकायिक जीवांची उष्णयोनि असते. बाकीच्यांची तीनपैकी कोणतीही एक योनि असते. नारकी-देव व एकेंद्रिय जीवांची संवतयोनि असते. विकलेंद्रियाची विवृत योनि असते. गर्भजन्मधारी तिर्यंच व मनुष्यांची मिश्र- (संवृतविवृत) योनि असते. चौयांशीलाख योनिचे प्रकार नित्येतरनिगोदानां भूम्यम्भोवाततेजसा । सप्तसप्त भवन्त्येषां लक्षाणि दश शाखिनां ।। ११० ॥ पट तथा विकलाक्षाणां मनुष्याणां चतुर्दश । तिर्यङ-नारक देवानामेकैकस्य चतुष्टयं ।। एवं चतुरशीतिः स्युर्लक्षाणां जीवयोनयः ॥ १११ ॥ (षट्पदं) अर्थ- (योनि म्हणजे जन्मस्थान)- नित्यनिगोद इतर निगोदपृश्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक जीवांची प्रत्येकी सात-सात ४२ लाख, वनस्पती कायिक जीवाच्या १० लाख विकलत्रय- (द्वींद्रिय-त्रींद्रिय-चतुरिंद्रिय) जीवांची प्रत्येकी तीन-दोन ( ३ ४ २ = ६) लाख, मनुष्यांची १४ लाख, पंचेंद्रिय तिर्यंच, नारकी व देव यांच्या प्रत्येकी चार-चार लाख योनि असतात. याप्रमाणे सर्व मिळून एकूण ( ८४) लाख योनि आहेत. जन्माचे कुलकोटि प्रकार वर्णन द्वाविंशतिस्तथा सप्त त्रीणि सप्त यथाक्रमं । कोटि लक्षाणि भूम्यम्भस्तेजोऽनिल शरीरिणां ॥ ११२ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा वनस्पति शरीराणां तान्यष्टाविंशतिः स्मृताः । स्युद्धि-त्रि-चतुरक्षाणां सप्ताष्ट नव च क्रमात् ।। ११३ ।। तानि द्वादश सार्दानि भवन्ति चलचारिणां । नवाहिपरिसर्पाणां गवादीनां तथा दश ॥ ११४ ॥ वीनां (पक्षिणां) द्वादश तानि स्युश्चतुर्दश मृणामपि । षड्विंशतिः सुराणां तु श्वाभ्राणां पंचविंशतिः ।। ११५ ।। कुलानां कोटिलक्षाणि नवतिर्नवभि स्तथा।। पंचायुतानि कोटीनां कोटिकोटी च मीलनात् ॥ ११६ ॥ अर्थ- सर्वजीवांचे मिळून जन्माचे कुलाचे प्रकारपृथ्वीकायिक जीवाचे २२ लाखकोटि, जलकायिक जीवाचे ७लाखकोटि, अग्निकायिक जीवाचे ३ लाखकोटि, वायुकायिक जीवाचे ७ लाखकोटि, वनस्पती कायिक जीवाचे २८ लाख कोटि द्वींद्रिय जीवांचे ७ लाखकोटि, त्रींद्रिय जीवांचे ८ लाखकोटि, चतुरिंद्रिय जीवाचे ९ लाखकोटि, जलचर पंचेंद्रियाचे १२॥ लाखकोटि, स्थलचर पंचेंद्रियांचे १० लाखकोटि नभचर पंचेंद्रियाचे १२ लाखकोटि, मनुष्याचे १४ लाखकोटि, देवांचे २६ लाखकोटि, नारकीयाचे २५ लाख कोटि याप्रमाणे जन्माचे कुलभेदाचे प्रकार ( १९९५०,०००,००००००० ) आहेत. ___एक कोटि, नव्याण्णव लाख, पन्नास हजार, कोटि जन्मकुल भेदाचे प्रकार आहेत. मनुष्य-तिर्यच आयुवर्णन द्वाविंशतिर्भुवां सप्त पयसां दश शाखिनां । नभस्वतां पुनस्त्रीणि वीनां द्वासप्ततिस्तथा ।।११७।। उरगाणां द्विसंयुक्ता चत्वारिंशत् प्रकर्षतः । आयुर्वर्षसहस्राणि सर्वेषां परिभाषितम् ।।११८। दिशान्येकोन पंचाशत् व्यक्षाणां त्रीणि तेजसः । पणमसा श्चतुरक्षाणां भवत्यायुः प्रार्षतः ।।११९।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा नवायु परिसर्पाणां पूर्वागानि प्रकर्षतः । वयक्षाणां द्वादशाद्वानि जीवितं स्यात् प्रकर्षतः ।। १२० ।। असंज्ञिनस्तथा मत्स्याः कर्मभूजाश्चतुष्पदाः । मनुष्याश्चैव जीवन्ति पूर्वकोटि प्रकर्षतः ।। १२१ ॥ एकं द्वे त्रीणि पत्यानि नृ-तिरश्चां यथाक्रमं । जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भोगभूमिषु जीवितं ॥ कुभोग भूमिजानां तु पत्यमेकं तु जीवितं ( षट्पदं ) ॥ १२२ ॥ अर्थ - पृथ्वीकायिक जीवांचे उत्कृष्ट आयुष्य बावीस हजार वर्ष जलकायिक जीवांचे सात हजार वर्ष, वनस्पतीकायिक जीवांचे दहा हजार वर्ष वायुकायिक जं वांचे तीन हजार वर्ष, पक्ष्यांचे बाहत्तर हजार वर्ष, सर्पाचे बेचाळीस हजार वर्ष उत्कृष्ट आयुष्य आहे. तीन इंद्रियजीवांचे उत्कृष्ट आयुष्य एकोनपन्नास दिवस आहे. अग्निकायिक जीवांचे तीन दिवस चतुरिद्रिय जीवांचे सहा महिने, सरीसृप ( अजगर वगैरे) यांचे आयुष्य नऊ पूर्वांग वर्ष, द्वींद्रिय जीवांचे बारा वर्ष, असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यच, मच्छ (मासे) कर्मभूमिज चतुष्पाद गाय-बैल वगैरे संज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंच, व मनुष्य यांचे उत्कृष्ट आयुष्य एक कोटि पूर्ववर्ष असते. १०७ जघन्य भोगभूमि जीवांचे १ पल्य, मध्यम भोगभूमि जीवांचे २ पल्य, उत्कृष्ट भोगभूमि जीवांचे ३ पल्य उत्कृष्ट आयुष्य असते. कुभोगभूमि जीवांचे १ पल्य उत्कृष्ट आयुष्य असते. नारको जीवांचे आयुष्य एकं त्रीणि तथा सप्त दश सप्तदशेतिच | द्वाविंशति स्त्रयस्त्रिशद् धर्मादिषु यथाक्रमं ॥ १२३ ॥ स्यात् सागरोपमाण्यायुर्नरकाणां प्रकर्षतः । दशवर्षाणि धर्मायां पृथिव्यां तु जघन्यतः || १२४ ।। वंशादिषु तु तान्येकं त्रीणि सप्त तथा दश । तथा सप्तदश द्वयग्रा विंशतिश्च यथोत्तरं ।। १२५ ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ - नरकभूमिचे ७ भेद आहेत. १ घर्मा, २ वंशा, ३ मेघा, ४ अंजना, ५ अरिष्टा, ६ मघवी, ७ माघवी. यातील जीवांचे उत्कृष्ट आयुष्य क्रमाने एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दहा सागर, सतरा सागर, बावीस सागर, तेहतीस सागर आहे. घर्मा पृथ्वीतील जीवांचे जघन्य आयुष्य दहा हजार वर्ष आहे. वंशा आदि पृथ्वीतील जीवांचे जघन्य आयुष्य क्रमाने एक सागर, तीन सागर, सात सागर दहा सागर सतरा सागर, बावीस सागर प्रमाण आहे. वरच्या पृथ्वीतील नारकी जीवांचे जे उत्कृष्ट आयुष्य ते खालच्या पृथ्वीतील नारकी जीवांचे जघन्य आयुष्य समजावे. १०८ भवनवासी देवांचे आयुष्य भावनानां भवत्यायुः प्रकृष्टं सागरोपमं । दशवर्षसहस्रं तु जघन्यं परिभाषितं ।। १२६ ।। अर्थ - भवनवासी देवांचे उत्कृष्ट आयुष्य १ सागर प्रमाण आहे जघन्य आयुष्य दहा हजार वर्ष आहे. व्यंतरदेवांचे आयुष्य पल्योपम भवत्यायु: सातिरेकं प्रकर्षतः । दशवर्षसहस्रं तु व्यंतराणां जघन्यतः ।। १२७ ॥ अर्थ- व्यंतर देवांचे उत्कृष्ट आयुष्य कांही अधिक १ पल्य प्रमाण आहे. जघन्य आयुष्य दहा हजार वर्ष प्रमाण आहे. ज्योतिष्क देवांचे आयुष्य पस्योपमं भवत्यायुः सातिरेकं प्रकर्षतः । पल्योमाष्टभ । गेषु ज्योतिष्काणां जघन्यतः ।। १२८ ।। अर्थ - ज्योतिष्क देवांचे उत्कृष्ट आयुष्य साधिक १ पल्य प्रमाण आहे जघन्य आयुष्य ? पत्यप्रमाण आहे. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा १०९ विशपार्थ- चंद्राचे आयुष्य एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य. सूर्याचे आयुष्य एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य, शुक्र ग्रहाचे आयुष्य शंभर वर्ष अधिक एक पल्य. बृहस्पति (गुरु)चे आयुष्य पूर्ण एक पल्य वाकीच्या ग्रहांचे व नक्षत्रांचे आयुष्य अर्धा पल्य तारांकाचे आयुष्य / पल्य प्रमाण आहे. ___ वैमानिक देवांचे आयुष्य द्वयो ह्रयो रुभौ सप्त दश चैव चतुर्दश । षोडशाष्टादशाप्यते सातिरेकाः पयोधयः ॥ १२९ ॥ समुद्रा विशतिश्चैव तेषां द्वाविंशति स्तथा । सौधर्मादिषु देवानां भवत्यायु : प्रकर्षत ः ॥ १३० ॥ एकैकं वर्धयेब्धि नवग्रैवेयकेष्वतः । नवस्वनुदिशेषु स्यात् द्वात्रिंशदविशेषतः ।। १३१ ।। त्रयस्त्रिशत् समुद्राणां विजयादिषु पंचसु । साधिकं पल्यमायुः स्यात् सौधर्मेशानयोर्द्वयोः ॥ १३२॥ परतः परतः पूर्व शेषेषु च जघन्यतः । आयुः सर्वार्थसिद्धौ तु जघन्यं नैव विद्यते ।। १३३ ॥ अर्थ- वैमानिक देवांचे आयुष्य - १-२ सौधर्म- ऐशान स्वर्गातील देवांचे दोन सागर कांही अधिक ३-४ सानत्कुमार-महेद्र स्वर्गातील देवांचे सात सागर कांही अधिक ५-६ ब्रम्ह ब्रम्होत्तर स्वर्गातील देवांचे दहा सागर कांही अधिक ७-८ लांतव-कापिप्ट स्वर्गातील देवांचे चौदा सागर कांही अधिक ९-१० शुक्र महाशुक्र स्वर्गातील देवांचे सोळा सागर कांही अधिक ११-१२ शतार-सहस्रार स्वर्गातील देवांचे अठरासागर कांही अधिक १ टीप- ज्यानी प्रथम वरच्या स्वर्गातील देवांचे आयुस्थितिचा बंध बांधला आहे पण पुढे संक्लेश परिणामाने मरताना जे खालच्या स्वर्गात जन्म घेतात त्याना घातायष्क देव म्हणतात. त्यांचे आयुष्य काही अधिक असते. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार २ रा १३-१४ आनत - प्राणत स्वर्गातील देवांचे वीस सागर १५-१६ आरण- अच्युत स्वर्गातील देवांचे बावीस सागर उत्कृष्ट ११० आयुष्य आहे नवग्रैवेयक स्वर्गातील देवाचे आयुष्य क्रमाने एक-एक सागर अधिक २३ ते ३१ सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य आहे. नव अनुदिश विमानातील देवांचे आयुष्य ३२ सागर प्रमाण पाच पंचोत्तर देवांचे उत्कृष्ट आयुष्य ३३ सागर प्रमाण आहे. सौधर्मे ऐशान स्वर्गांतील देवांचे जघन्य आयुष्य १ पल्य काही अधिक सानत्कुमार- महेंद्र स्वर्गातील देवांचे जघन्य आयुष्य ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्गातील देवांचे जे उत्कृष्ट आयुष्य तत् प्रमाण समजावे. याप्रमाणे वरील वरील स्वर्गातील देवांचे उत्कृष्ट आयुष्य ते खालच्या स्वर्गातील देवांचे जघन्य आयुष्य समजावे सर्वार्थसिद्धी देवांचे जे उत्कृष्ट-आयुष्य ३३ सागर तेच त्यांचे जघन्य आयुष्य समजावे - त्यांचेमध्ये उत्कृष्ट जघन्य हा भेद नाही. -- तियंच मनुध्याचे जघन्य आयुष्य अन्यत्रानपमृत्युभ्यः सर्वेषामपि देहिनां । अन्तर्मुहूर्तमित्येषां जघन्येनायुरिष्यते ॥ १३४ ॥ अर्थ- ज्यांचा अपमृत्यु - अकाल मरण होत नाही असे तिच मनुष्य सोडून बाकी सर्व तिर्यंच- मनुष्यांचे जघन्य आयुष्य अन्तर्मुहूर्त आहे. अपमृत्यु कोणास होत नाही असंख्येयमायुष्काश्चरमोत्तममूर्तयः । देवाश्च नारकाश्चैषामपमृत्युनं विद्यते ।। १३५ ॥ अर्थ- ज्याचे असंख्यात वर्ष प्रमाण ( तीन पत्य- दोन पल्यएक पल्य ) आयुष्य आहे असे भोगभूमीतील जीव, चरम शरीर व उत्तम शरीर धारण करणारे- कांही पुण्यवान जीव मनुष्य, देव व नारकी जीव याना अपमृत्यु होत नाही. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १११ ज्यांचा मरण पर्याय काल व आयु स्थितिकाल एक असतो त्यांना अपमृत्यु होत नाही. आयुस्थिती काल जास्त व मरण पर्याय काल कमी असतो त्याना विष-वेदना रक्तक्षय-शस्त्राघात- संक्लेश श्वास निरोध इत्यादि दुर्घटनारूप निमित्त प्राप्त होऊन मरण येते त्यास अपमृत्यु म्हणतात. प्रत्येक द्रव्याचे पर्याय परिणमन जन्म-मरण हे सर्व नियत क्रमबद्ध आपल्या स्वकालीन होते. ज्याचा स्थितिकाल जास्त व पर्यायकाल कमी असतो त्यावेळी एखादे बाह्य निमित्त मिळते- अघटित घटना घडते व मरण येते, आपण प्रयत्न करूनही जेव्हा प्रयत्न सफल होत नाही तेव्हा शेवटी म्हणतो की त्याचा मरण काल आला होता त्यामुळे मेला. लोकव्यवहार भाषेत तो अपमृत्यु म्हटला जातो. शास्त्रीय भाषेत जन्म किंवा मरण हे आपल्या नियतक्रमबद्ध पर्याय काली होते असे म्हटले जाते. नारको जीवांची शरीराची उंची घम्मायां सप्त चापानि सपादं च करत्रयं । उत्सेधः स्यात् ततोऽन्यासु द्विगुणो द्विगुणो हि सः ।। १३६ ।। अर्थ- घर्मा नामक प्रथम नरकातील जीवाच्या शरीराची उंची सात धनुष्य ( ३॥ हात=१ धनुष्य ) व ३। हात अधिक अर्थात् २७।।। हात असते त्याच्या खालच्या खालच्या पृथ्वीतील नारकी जीवांची उंची दुप्पट दुप्पट होत जाते. सातव्या नरकातील जीवांची उंची पाचशे ५०० धनुष्य असते. मनुष्याची शरीराची उंची शतानि पंच चापानां पंचविंशतिरेव च । प्रकर्षेण मनुष्याणामुत्सेधः कर्मभूमिषु ॥ १३७ ।। एक: क्रोशो जघन्यासु द्वौ कोशौ मध्यमासु च । क्रोशत्रयं प्रकृष्टासु भोगभूषु समुन्नतिः ।। १३८॥ अर्थ- कर्मभूमितील मनुष्यांच्या शरीराची उंची (उत्कृष्टपणे) (५२५) पाचशे पंचवीस धनुष्य असते. जघन्यभोगभूमितीलजी वांची उंची Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १ कोस, मध्यम भोगभूमीतील जीवांची २ कोस, उत्कृष्ट भोगभूमीतील जीवांची शरीराची उंची ३ कोस असते. __ भवनत्रिक देवांची उंची ज्योतिष्काणी स्मृतः सप्तसुराणां पंचविशतिः । शेष भावन भौमानां कोदंडानि दशोन्नतिः ।। १३९ ।। अर्थ- ज्योतिष्क देवांची उंची ७ धनुष्य, भवनवासी असुरकुमार देवांची उंची २५ धनुष्य, बाकीचे भवनवासी व व्यंतर देवांची उंची १० धनुष्य असते. वैमानिक देवांची उंची द्वयोः सप्तद्वयोः षट्च हस्ताः पंच चतुर्वतः। ततश्चतुषु चत्वारः सार्धाश्चातो द्वयोस्त्रयः ।। १४० ।। द्वयोस्त्रयश्च कल्पेषु समुत्सेधः सुधाशिनां । अधोवेयकेषु स्यात् सार्ध हस्तद्वयं तथा ।। १४१ ।। हस्तद्वितयमुत्सेधो मध्यप्रैवेयकेषु तु । अंत्यप्रैवेकेषु स्यात् हस्तोऽप्यर्धसमुन्नतिः ।। एकहस्तसमुत्सेधो विजयादिषु पंचसु ।। १४२ ।। अर्थ- १-२ सौधर्म-ऐशान देवांची उंची ७ हात. ३-४ सानत्कुमार-माहेंद्र देवांची उंची ६ हात ५ ते ८ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लांतव कापिष्ट देवांची उंची ५ हात ९ ते १२ शुक्र- महाशुक्र- शतार सहस्रार देवांची उंची ४ हात १३ ते १४ आनत-प्राणत देवांची उंची ३॥ हात १५ ते १६ आरण-अच्युत देवांची उंची ३ हात अधोग्रैवेयक तीन विमानांतील देवांची ऊंची २॥ हात मध्यम ग्रैवेयक तीन विमानातील देवांची उंची २ हात अंतिम ग्रैवेयक तीन विमानवासी व ९ अनुदिश देवांची उंची १॥ हात पांच पंचोत्तर विमानवासी देवांची उंची १ हात प्रमाण असते. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ११३ ११३ तिर्यंचजीवांची उत्कृष्ट उंची योजनानां सहस्रं तु सातिरेकं प्रकर्षतः । एकेंद्रियस्य देहः स्याद् विज्ञेयः स च पद्मनि ।। १४३ ॥ त्रिकोशः कथितः कुंभी शंखो द्वादशयोजनः। सहस्र योजनो मत्स्यो मधुपश्चैक योजनः ॥ १४४ ॥ अर्थ- एकेंद्रियाच्या शरीराची उंची उत्कृष्टपणे एक हजार योजन कांही अधिक आहे. ही उत्कृष्ट शरीर अवगाहना कमलाची असते. त्रींद्रिय जीव कुंभी-मुंगी- मुंगळा यांची अवगाहना तीन कोस प्रमाण असते. चतुरिद्रिय भ्रमराची अवगाहना चार कोस- एक योजनप्रमाण असते. पंचेंद्रिय जीव महामस्त्य यांची अवगाहना एक हजार योजन विस्तार असते. हे उत्कृष्ट अवगाहना धारण करणारे जीव शेवटच्या स्वयंभूरमण द्वीपातील स्वयंप्रभ पर्वताच्या पलिकडच्या भागातील जीवांची असते. उत्कृष्ट अवगाहना धारण करणारा महामत्स्य हा स्वयंभूरमण समुद्रात असतो. तिर्यंच जीवाची जघन्य अवगाहना असंख्य ततमो भागो याबानस्त्यंगुलस्य तु । एकाक्षादिषु सर्वेषु देहस्तावात् जघन्यतः ॥ १४५ ।। अर्थ- एकेंद्रियादि सर्व तिर्यंच जीवांची जघन्य अवगाहना सामान्यपणे घनांगुलाच्या असंख्यातवाभाग प्रमाण सूक्ष्म असते. सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य पर्याप्तक एकेंद्रियजीवाची अवगाहना उत्पत्तीच्या तिसऱ्या समयात सर्वांत सुक्ष्म घनांगलाच्या असंख्यातवाभाग प्रमाण असते. द्वींद्रिय जीवाची अनंधरी ( आळी ) ची जघन्य अवगाहना असते त्रींद्रीय जीवाची कुंथु नामक सूक्ष्म मुंगीची जघन्य अवगाहना असते. चतुरिंद्रिय जीवाची काण मक्षिकाची जघन्य अवगाहना असते. पंचेंद्रिय जीवाची महामत्स्याच्या कानामध्ये असणाऱ्या तंदुल मत्स्याची जघन्य अवगाहना असते. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा कोणता जीव कोणत्या नरकापर्यंत जातो धर्मामसंज्ञिनो यान्ति वंशान्तश्च सरीसृपाः । मेघान्ताश्च विहंगाश्च अंजनांन्ताश्च भोगिनः ॥ १४६ ॥ तामरिष्टांच सिंहास्तु मघव्यन्ताश्च योषितः । नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माघव्यंताश्च पापिनः ।। १४७ ।। अर्थ - एकेंद्रियापासून असंज्ञीपंचेंद्रियापर्यंतचे मनरहित असंज्ञीजीव पापकर्मामुळे धर्मा नामक पहिल्या नरकापर्यंत जातात. त्याचे खाली जात नाहीत. सरीसृप - पाय नसलेले पोटाने घसरणारे अजगर वगैरे जीव पापकर्म केल्यामुळे वंशानामक दुसन्या नरकापर्यंत जातात. नभचर पक्षी पापकर्मामुळे मेघानामक तिसन्या नरकापर्यंत जातात. सापासारख विषारी प्राणी पापकर्मामुळे अंजना नामक चवथ्या नरकापर्यंत जातात. सिंहानगर क्रूर प्राणी पापकर्मामुळे अरिष्टा नामक पाचव्या नरकापर्यंत जातात. मानवापैकी स्त्री मानव पापकर्मामुळे मधवी नामक सहाव्या नरकापर्यंत जातात- खाली सातव्या नरकात जात नाहीत. पुरुषमानव व मत्स्यापैकी तंदुल मत्स्य पापकर्मामुळे मात्रवी नामक सातव्या नरकापर्यंत जातात. कोणत्या नरकातून जीव कोठे उत्पन्न होतो. न लभन्ते मनुष्यत्वं सप्तम्या निर्गता क्षितेः । तिर्यक्त्वे च समुत्पद्य नरकं यान्ति ते पुनः ॥ १४८ ॥ मधव्या मनुष्यलाभेन षष्ठ्या भूमविनिर्गताः । संयमं तु पुनः पुण्यं नाप्नुत्रन्तीति निश्चयः ॥ १४९ ॥ निर्गताः खलु पंचम्या लभन्ते केचन व्रतं । प्रयान्ति न पुनर्मुक्ति भावसंक्लेशयोगतः । १५० ।। लभन्ते निर्वृति केचित् चतुर्थ्या निर्गताः क्षितेः । न पुनः प्राप्नुवन्त्येव पवित्रां तीर्थकर्तृतां ।। १५१ ॥ लभन्ते तीर्थकर्तृत्वं ततोऽन्याभ्यो विनिर्गताः । निर्गत्य नरकान्न स्युर्बलकेशव चत्रिणः ।। १५२ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ - सातव्या नरकातून निघालेला जीव मनुष्य गतीत उत्पन्न होत नाही. नियमाने तिर्यंच होतो. व पुनः नियमाने तेथून मरून सातव्या नरकातच जातो. सहाना नरकातून निघालेला जीव मनुष्य तिर्यंच होऊ शकतो. पण व्रत संयम धारण करीत नाही. पाचव्या नरकातून निघालेला जीव व्रत-संयम धारण करू शकतो. परंतु मोक्षाला जात नाही. चवथ्या नरकातून निघालेला जीव मोक्षाला जाऊ शकतो. पण पुण्यवान तीर्थंकरपणा प्राप्त करू शकत नाही. तिसऱ्या दुसऱ्या व पहिल्या नरकातून निघालेला जीव तीर्थंकर होऊ शकतो. पण बलदेव नारायण- प्रतिनारायण चक्रवर्ती होऊ शकत नाही. कोणता जीव कोठे जातो S सर्वे पर्याप्तका जीवाः सूक्ष्मकायाश्च तैजसाः । वायवोऽसंज्ञिनश्चैषां न तिर्यग्भ्यो विनिर्गमः ॥ १५३ ॥ त्रयाणां खलु कायानां विकलानामसंज्ञिनां । मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धः संक्रमोमिथः ॥ १५४ ॥ नारकाणां सुराणां च विरुद्धः संक्रमो मिथः । नारको न हि देवः स्यान्न देवो नारको भवेत् ॥ १५५ ॥ भूम्याः स्थूल पर्याप्ताः प्रत्येकांगवनस्पतिः । तिर्यङ मानुषदेवानां जन्मेषां परिकीर्तितं ।। १५६ ॥ सर्वेऽपि तैजसा जीवाः सर्वे चानिलकायिकाः । मनुजेषु न जायन्ते ध्रुवं जन्मन्यनन्तरे ।। १५७ ।। पूर्णासंज्ञितिरश्चामविरुद्धं जन्म जातुचित् । नारकामरतिर्यक्षु नृषु वा न तु सर्वतः ।। १५८ ॥ संख्यातीतायुषां मर्त्य तिरश्चां तेभ्य एव तु । संख्यातवर्षजीविभ्यः संज्ञिभ्यो जन्म संस्मृतं ।। १५९ ॥ संख्यातीतायुषा नूनं देवेष्वेवास्ति संक्रमः । निसर्गेण भवेत् तेषां यतो मंदकषायतः ॥ १६० ॥ शलाकापुरुषा नैव सन्त्यनन्तर जन्मनि । तिर्यञ्चो मानुषारचैव भाज्याः सिद्धगती तु ते ॥ १६१ ॥ ११५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ- सर्व लब्धयपर्याप्तक तिर्यंच व मनुष्य नियमाने तिर्यंच च होतात. अन्यगतीत जात नाहीत. तसेच सूक्ष्म एकेंद्रिय जीव, वादर अग्निकायिक व वायुकायिक जीव व असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव हे पुनः तिर्यंच च होतात, अन्य गतीत जात नाहीत. बादर पृथ्वीकायिक जलकायिक. पर्याप्त जीव व प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव मरून तिर्यंच किंवा मनुष्य होऊ शकतात. सर्वं अग्निकायिक जीव व वायुकायिक जीव मरून नियमाने तिर्यंच गतीत जातात- मनुष्यगतीत जात नहीत. पर्याप्त असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव मरून कदाचित् चार हो गतीत तिर्यंच मनुष्य-देव- नारकी होऊ शकतात. असंख्यात वर्ष आयु अपणारे भोग भूमीतील पुण्यवान मनुष्य व तिर्यंत्र मंदकषाय परिणामाने नियमाने देवगतीतच जातात इतर गतीत जात नाहीत. ते नियमाने संख्यातवर्ष आयुवाले मनुष्य व तिर्यच गतीतून च भोग भूमीत येतात. नारकी व देव भोगभूमीत जन्म घेत नाहीत. तसेच भोग भूमीतील तिर्यंच मनुष्य मरून पुनः भोगभूमीत जन्म घेत नाहीत. तसेच देवगतीतून मरून पुनः देवगतीत उत्पन्न होत नाही. नरकगतीतून मरून पुन: नरकगतीत उत्पन्न होत नाहीत. देवगतीत उत्पन्न होत नाही. त्रेसठ शलाका पुरूष पुण्यवान् असल्यामुळे मरून तिर्यंच किंवा मनुष्य होत नाहीत. पुण्यकर्मामुळे देवगतीत किंवा पापकर्मामुळे नरक गतीत जातात. तीर्थंकर व कांही शलाका पुरुष राम - भरतचक्रवर्ती वगैरे नियमाने मोक्षास जातात. नारायण व प्रतिनारायण नियमाने नरकास जातात. ११६ देवगतीत कोण उत्पन्न होतो ये मिथ्यादृष्टयो जोवा: संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽथवा । व्यंतरास्ते प्रजायन्ते तथा भवनवासिनः ।। १६२ ।। संख्यातीतायुषो मर्त्यास्तिर्यञ्चोऽप्यसदृशः । उत्कृष्टास्तापसा चैव यान्ति ज्योतिष्कदेवतां ।। १६३ ।। १ टीप- २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती ९ बलभद्र ९ नारायण ९ प्रतिनारायण याना ६३ गलाका पुरुष म्हणतात. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ब्रह्मलोके प्रजायन्ते परिवाजः प्रकर्षतः। आजीवास्तु सहस्रारं प्रकर्षेण प्रयान्ति हि ॥ १६४ ।। उत्पद्यन्ते सहस्रारे तिर्यञ्चो व्रत संयुताः । अत्रैव हि प्रजायन्ते सम्यक्त्वधारका नराः ॥ १६५ ।। न विद्यते परं ह्यस्मादुपपादो ऽ यालगिनां । निग्रन्थ श्रावका ये ते जायन्ते यावदच्युतं ।। १६६ ।। धृत्वा निग्रंथलिंग ये प्रकृष्टं कुर्वते तपः।। अन्त्यग्रेवेयकं यावद् अभव्याः खलु यान्ति ते ।। १६७॥ यावत् सर्वार्थसिद्धिं तु निर्ग्रन्था हि ततः परं । उत्पद्यन्ते तपोयुक्ता रत्नत्रयपवित्रिताः ॥ १६८ ॥ अर्थ-- जे मिथ्यादृष्टि संज्ञी किंवा असंज्ञी पंचेंद्रिय असतात ते व्यंतर व भवनवासी देव होतात. मिथ्यादृष्टि भोगभूमि मनुष्य व तिर्यंच जीव ज्योतिष्क देव होतात. परिव्राजक संन्यासी ब्रह्मलोक स्वर्गापर्यंत उत्पन्न होऊ शकतात आजीवक ( संन्यासी ) सहस्रार नामक बाराव्या स्वर्गापर्यत उत्पन्न होऊ शकतात. तसेच व्रती तिर्यंच व सम्यग्दृष्टी मनुष्य सहस्रार स्वर्गापर्यंत उत्पन्न होऊ शकतात. याचे पुढे अन्य कुलिंग धारण करणारे जीव उत्पन्न होऊ शकत नाहीत. आनत प्राणतादि पुढच्या स्वर्गात निर्ग्रन्थ लिंग धारण करणारेच उत्पन्न होऊ शकतात. निर्ग्रन्थ श्रावक सोळाव्या अच्युत स्वर्गापर्यत उत्पन्न होऊ शकतात. बाह्य निर्ग्रन्थ. द्रव्यलिंग धारण करून घोर तप करतात असे मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव देखील नवग्रैवेयक विमानापर्यत जन्म घेऊ शकतात निर्ग्रन्थ रत्नत्रयधारी तप करणारे मुनिच सर्वार्थसिद्धि विमानापर्यत उत्पन्न होऊ शकतात. नवग्रैवेयकापासून पुढे नव अनुदिश व पाच पंचोत्तर विमानात उत्पन्न होणारे सर्व जीव सम्यग्दृष्टि च असतात. मिथ्यादृष्टि जीव तेथे उत्पन्न होऊ शकत नाहीत. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा देवगतीतून येणारे जीव कोठे उत्पन्न होतात भाज्या एकेंद्रियत्वेन देवा ऐशानतश्च्युताः । तिर्यक्त्त्व मानुष्यत्वाभ्या मासहस्रा रतः पुनः ॥ १६९ ॥ ततः परं तु ये देवास्ते सर्वेऽनन्तरे भवे । उत्पद्यन्ते मनुष्येषु न हि तिर्यक्षु जातुचित् ।। १७० ।। शलाका-पुरुषा न स्युभौंमज्योतिष्क भावनाः । अनन्तर भवे तेषां भाज्या भवति निर्वृतिः ॥ १७१ ॥ ततः परं विकल्प्यन्ते यावद्ग्रैवेयकं सुराः । शलाकापुरुषत्वेन निर्वाणगमनेन च ।। १७२ ॥ तीर्थेश - राम-चत्रित्वे निर्वाणगमनेन च । च्युताः सन्तो विकल्प्यन्तेऽनुदिशानुत्तरामरा: ।। १७३ ।। भाज्या स्तीर्थेश चक्रित्वे युताः सर्वार्थ सिद्धितः । विकल्या रामभावेपि सिध्यन्ति नियमात् पुनः ।। १७४ ॥ दक्षिणेन्द्रास्तथा लोकपाला लौकान्तिका शची । शक्रश्च नियमाच्च्युत्वा सर्वे ते यान्ति निर्वृति ।। १७५ ।। अर्थ - भवनवासी - व्यंतर ज्योतिष्क व ऐशान स्वर्गापर्यंतने देव एकेंद्रिया पर्यंत उत्पन्न होऊ शकतात. सहस्रारस्वर्गापर्यंतचे देव तिर्यंच व मनुष्य होऊ शकतात. सहस्रार स्वर्गानंतरच्या पुढील स्वर्गातील देव हे केवळ मनुष्य गतीतच उत्पन्न होतात. तिर्यंच गतीत उत्पन्न होत नाहीत. भवनवासी- वानव्यंतर ज्योतिष्क देव हे मरून शलाका पुरुष होत नाहीत. परंतु तेथून येणारे जीव मनुष्यगतीत उत्पन्नहं ऊन निर्वाणाला जाऊ शकतात. सौधर्म ऐशान स्वर्गापासून ग्रैवेयक विमानवासीपर्यंतचे देव मरून शलाका पुरुष होऊ शकतात. व निर्वाणाला देखील जाऊ शकतात. नवअनुदिश व पाच पंचोत्तर विमानवासी देव तेथून च्युत होऊन तीर्थंकर-वलदेवचक्रवर्ती होऊ शकतात. मोक्षाला देखील जाऊ शकतात. सर्वार्थसिद्धि विमानातून येणारे जीव अनन्तर भवात तीर्थंकर - बलभद्र चक्रवर्ती होऊ शकतात. नियमाने मोक्षास जातात. एक भवात्रतारी असतात. त्याना अनन्तर मनुष्यभव धारण केल्यानंतर पुनः दुसरा भव धारण करावा लागत Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा ११९ नाही. तसेच दक्षिणेन्द्र (सौधर्म- ऐशान युगलापैकी दक्षिण- उजवा पहिला सौधर्म इंद्र, सानत्कुमार-माहेन्द्र युगलापैकी दक्षिणउजवा पहिला सानत्कुमार · इंद्र, ब्रह्म-ब्रह्मोनर लांतव- कापिष्ट या स्वर्गातील पहिला दक्षिण ब्रम्हेन्द्र, शुक्र महाशुक्र शतार-सहस्रार या स्वर्गातील पहिला दक्षिण शुक्र-इन्द्र, आनत प्राणत युगलातील पहिला दक्षिण आनतेन्द्र व आरण-अच्युत युग यातील पहिला दक्षिण आरणेंद्र) ज्याप्रमाणे दक्षिणेंद्र सर्व स्वर्गातील लोकपालजातीचे देव, लौकान्तिक देव, सर्व शची (इंद्राणी) व सौधर्म इन्द्र हे सर्व स्वर्गातून च्युत होऊन मनुष्यभव धारण करून नियमाने त्याच भवात मोक्ष स जातात. त्याना दुसराभव धारण करावा लागत नाही. त्रिलोक विभाग वर्णन धर्माधर्मास्तिकायाभ्यां व्याप्तः कालाणुभिस्तथा । व्योम्नि पुद्गल संछन्नो लोकः स्यात् क्षेत्रमात्मनां ।। १७६ ।। अर्थ- आकाशाच्या बहुमध्यभागी जेवढे आकाशद्रव्य धर्मास्तिकाय अधर्मास्ति काय यानी व्याप्त आहे. तसेच लोकाकाशाच्या एक एक प्रदेशावर एक एक कालाण याप्रमाणे असंख्यात कालाण द्रव्यानी व्याप्त अ हे व जे पुद्गलद्रव्याच्या महास्कंधाने व्याप्त आहे व जेथे अनन्तानन्तजीव गचपच भरले आहेत, असे अस त्यात प्रदेश प्रमाण जे क्षेत्र त्याला लोकाकाश म्हणतात. लोककाशाचा आकार अधोवेत्रासनाकारो मध्येऽसौ झल्लरीसमः। ऊर्ध्वं मृदंगसंस्थानो लोकः सर्वज्ञणितः ।। १७७ ॥ अर्थ - लोकाकाशाचे तीन विभाग आहेत. १ अधोलोक, २ मध्यलोक ३ ऊर्ध्वलाक, १ अधोलोक वेत्रासनाकार खाली मुळात रुंदी ७ राजू. पुढे क्रमाने कमी होत होत ७ राजू व्या उंचीवर-रुंदी १ राजू, सर्वत्र जाडी ७ राजू. २ मध्यलोक झालरीचे आकार समान १ राजू रुंद व जाडी ७ राजू प्रमाण आहे. त्यामध्ये असंख्यात द्वीप-समुद्र आहेत. मध्यभागी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा वृत्त ( गोल ) परातीचे आकाराचा जंबूद्वीप आहे. व त्याचे भोवती वलयाकार एकसमुद्र एकद्वीप असे परस्परास वेष्ठित असंख्यात द्वीपसमुद्र आहेत. १२० ३ ऊर्ध्वलोक मृदुंगाचे आकाराचा आहे. मध्यलोकाची रुंदी १ राजू आहे. त्याचेवर क्रमाने वाढत जात १०॥ राजूच्या उंचीवर रुंदी ५ राजू आहे. पुढे वर क्रमाने कमी होत होत १४ राजूच्या उंचीवर रुंदी १ राजू आहे. एकूण उंची १४ राजू सर्वत्र जाडी ७ राजू. दोन पाय पसरून कमरेवर दोन्ही बाजूस दोन हात ठेवून उभा असलेल्या मनुष्याच्या आकाराचा हा लोक आहे. लोकामध्ये कोणते जीव कोठे रहातात सर्वसामान्यतो लोकस्तिरश्चां क्षेत्र मिष्यते । व्वाभ्र- मानुष - देवानामथातस्तद् विभज्यते ।। १७८ ।। अर्थ- सर्वसामान्यपणे संपूर्ण लोकाकाशामध्ये तिर्यंच सूक्ष्म एकेंद्रिय जीव गचपच भरले आहेत. म्हणून संपूर्ण लोकाला तिर्यक्लोक हे सामान्य नाव आहे. त्यामध्ये खाली अधोलोकात नारकी जीव राहतात म्हणून तो नरकलोक म्हटला जातो. मध्यभागी मध्य लोकांत मनुष्य व तिर्यंच राहतात. मधल्या २|| द्वीपात मनुष्य राहतात म्हणून त्यास मनुष्य लोक म्हणतात. पुढे असंख्यात द्वीप समुद्रामध्ये तिर्यंच जीव राहतात. म्हणून त्यास तिर्यक् लोक म्हणतात. वर ऊर्ध्वलोकात स्वर्गातील देव राहतात म्हणून त्यास स्वर्गलोक किंवा देवलोक म्हणतात. अधोलोक वर्णन अधोभागे हि लोकस्य सन्ति रत्नप्रभादयः । घनाम्बुपवनाकाशे प्रतिष्ठाः सप्तभूमयः ॥ १७९ ।। रत्नप्रभादिभा भूमिस्तोऽधः शर्कराप्रमा । स्याद् वालुकाप्रभाऽतोऽधस्ततः पंकप्रभा मता ।। १८० ॥ ततो धूमप्रभाऽधस्तात् ततोऽ ऽधस्तात् तमः प्रभा । तमस्तमः प्रभातोऽधो भुवामित्थं व्यवस्थितिः ।। १८१ ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ - अधोलोकामध्ये सात नरकभूमि आहेत. प्रत्येक भूमि घनवात- घनोदधिवात तनुवातवलय व आकाश यानी वेष्टित आहेत. पहिली रत्नप्रभा, तिच्या खाली दुसरी शर्कराप्रभा, तिचे खाली तिसरी वालुकाप्रभा, तिचे खाली चवथी पंकप्रभा, तिचे खाली पाचवी धूमत्रभा, तिचे खाली सहावी तमःप्रभा, तिचे खाली सातवी महातमः प्रभा याप्रमाणे सात नरकभूमि व्यवस्थित आहेत. नरकातील बिलांची संख्या त्रिशनर कलक्षाणि भवन्त्युपरिमक्षितौ । अध: पंचकृतिस्तस्यास्ततोऽधो दशपंच च ॥ १८२ ॥ ततोऽधो दशलक्षाणि त्रीणि लक्षाण्यधस्ततः । पंचोनं लक्षमेकं तु ततोऽधः पंच तान्यतः ॥ १८३ ॥ अर्थ - पहिल्या नरकभूमित ३० लाख नरकबिले आहेत त्याच्या खाली २५ लाख, त्याच्या खाली १५ लाख, त्याच्या खाली १० लाख, त्याच्या खाली ३ लाख, त्याच्या खाली १ लाखाला ५ कमी, व शेवटल्या भूमीत केवळ ५ बिले आहेत. नरकातील जीवांचे दुःखवर्णन परिणाम वपु-र्लेश्या वेदन्त-विक्रियादिभिः । अत्यन्त मशुभैर्जीवा भवन्त्येतेषु नारकाः ।। १८४ ।। अन्योन्यो दीरितासकृदुःखभाजो भवन्ति ते । संक्लिष्टासुरनिर्वृत्त दुःखाश्चोर्ध्वक्षितित्रये ।। १८५ ॥ पाकान्नरकगत्यास्ते तथाच नरकायुषः । भुञ्जते दुष्कृतं घोरं चिरं सप्तक्षितिस्थिताः ॥ १८६ ॥ १२१ अर्थ - नारकी जीवांचे परिणाम शरीर- लेश्या - वेदना-विक्रिया अत्यन्त अशुभतर असतात. नारकी जीव अवधिज्ञानाने पूर्ववैर ओळखून परस्पर एकमेकास तीव्र दुख देतात. तिसऱ्या नरकापर्यंत संक्लिष्ट परिणामधारी असुरकुमार देव नरकभूमीत जाऊन परस्परामध्ये कलह निर्माण करतात- याप्रमाणे नरकायू व नरकगतिनाम Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा कर्मामुळे नारकी जीव दीर्घकालापर्यंत नानाप्रकारचे दुःख भोगतातनरकभूमिचे वातावरणच इतके दुःखकारक असते की नरकभूमीत पाय ठेवताच हजारो विचू चावतील अशा असह्य वेदना सुरू होतात. तेथील शमी वृक्षाची लांब लांब पाने इतकी तीक्ष्ण असतात की शरीराला बोचली असता शरीराचे तुकडे होतात. पूर्वजन्मी केलेल्या पापाचे फल घोर दुःख नरकगतीत भोगावे लागते. मध्यलोक वर्णन मध्यभागे तु लोकस्य तिर्यक् प्रचयद्धिन । असंख्य शुभनामानो भवन्ति द्वीप सागराः ॥ १८७ ॥ अर्थ- लोकाकाशाच्या मध्यभागी मध्यलोक तिर्यक् विस्ताररुप पसरलेला आहे. त्यात एक राजू रुंद, एक राजू लांब अशा चौकोन चौरस क्षेत्रात शुभ नावे धारण करणारे असंख्यात द्वीप समुद्र आहेत. द्वीप - समुद्रांची रचना जंबूद्वीपोऽस्ति तन्मध्ये लक्षयोजनविस्तरः । आदित्य मंडलाकारो बहुमध्यस्थमन्दरः ॥ १८८ ।। द्विगुण द्विगुणेनातो विष्कम्भेनार्णवादयः । पूर्व पूर्व परिक्षिप्य वलयाकृतयः स्थिताः ॥ १८९ ॥ जंबूद्वीपं परिक्षिप्य लवणोदः स्थितोऽर्णवः।। द्वीपस्तु धातकीखंडस्तं परिक्षिप्य संस्थितः ।। १९० ॥ आवेष्टय धातकीखंड स्थितः कालोदसागरः । आवेष्टय पुष्कर-द्वीपः स्थितः कालोदसागरं ।। १९१ ॥ परिपाटयाऽनया ज्ञेया : स्वयंभूरमणोदधि । यावज्जिनाज्ञया भव्यैरसंख्या द्वीपसागराः ॥ १९२ ॥ अर्थ – सर्वाच्या मध्यभागी जंबूद्वीप आहे. त्याचा व्यास एकलक्ष योजन आहे. ( २००० कोस = १ योजन ) तो आदित्य मंडळाचे आकाराप्रमाणे गोलाकार आहे. त्याच्या मध्यभागी मंदर नामक मेरु पर्वत आहे. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा १२३ जंबूद्वीपास वेष्ठन दुप्पट विस्तार असलेला लवणोदधि नामक समुद्र आहे त्याला परिवेष्ठित दुप्पट विस्तार असलेला धातकी खंड नामक द्वीप आहे. त्याला वेष्ठन दुप्पट विस्ताराचा कालोदधि समुद्र आहे. त्याला वेष्ठन दुप्पट विस्ताराचा पुष्करद्वीप आहे या क्रमाने असंख्यात द्वीप समुद्र एकमेकास वेष्ठित दुप्पट दुप्पट विस्तार असलेले वलयाकार स्थित आहेत. जंबूद्वीपांत क्षेत्ररचना सप्त क्षेत्राणि भरतस्तथा हैमवतो हरिः । विदेहो रम्यकश्चैव हैरण्यवत एव च ॥ ऐरावतश्च तिष्ठन्ति जंबूद्वीपे यथाक्रमं ।। १९३॥ ( षट्पदं ) अर्थ - जंबूद्वीपात ७ क्षेत्र आहेत. १ भरत २ हैमवत ३ हरि ४ विदेह ५ रम्यक ६ हैरण्यवत ७ ऐरावत. कुलाचल पर्वत पार्श्वेषु मणिभिश्चित्रा ऊर्ध्वाधस्तुल्यविस्तराः । तद्विभागकरा षट् स्युः शैलाः पूर्वापरायताः ॥१९४॥ हिमवान् महा निषधो नीलरुक्मिणौ । शिखरी चेति संचित्या एते वर्षधराद्रयः ॥। १९५ ।। कनकार्जुन कल्याण वैडूर्यार्जुन कांचनैः । यथाक्रमेण निर्वृताश्चिन्त्यास्ते षण्महीधराः ।।१९६ ।। अर्थ- वरील ७ क्षेत्राना विभागणारे सहा वर्षधर पर्वत आहेत सर्व पर्वत चित्रविचित्र मणिरत्नानी रत्नखचित आहेत पर्वतांचे दोन्ही भाग खाली बर समान विस्ताराचे आहेत. १ हिमवान् २ महाहिमवान ३ निषेध ४ नील ५ रुक्मि ६ शिखरिन् नामक ६ वर्षधर पर्वत आहेत. ते पर्वत क्रमाने पहिला पर्वत सुवर्णमय, दुसरा चांदीमय, तिसरा सुवर्णमय चौथा वैडूर्यमय, पाचवा चांदीमय व सहावा सुवर्णमय आहे. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ तस्वार्थसार अधिकार २ रा पर्वतावर ६ सरोवरवर्णन पद्मस्तथा महापद्मस्तिगिछ: केसरी तथा । पुंडरीको महान् क्षुद्रो न्हदा वर्षधराद्रिषु ॥ १९७ ॥ अर्थ - त्या सहा वर्षधर पर्वतावर क्रमाने पद्म, महापद्म, तिगिछ केसरी, पुंडरीक, महापुंडरीक नामक ६ सरोवरे आहेत. सरोवरांची क्षेत्रमर्यादा सहप्रयोजनायाम आद्यस्तस्यार्धविस्तरः । द्वितीयो द्विगुणस्तस्मात् तृतीयो द्विगुणस्ततः ॥ १९८ ॥ उत्तरा दक्षिणैस्तुल्या निम्नास्ते दशयोजनों । प्रथमे परिमापेन योजनं पुष्करं हदे ॥ १९९ ॥ द्विचतुर्योजनं ज्ञेयं तद् द्वितीयतृतीययोः । अपाच्यवदुदीच्यानां पुष्कराणां प्रमाश्रिताः ॥ २०० ॥ अर्थ- सहा सरोवरापैकी पहिले सरोवर १००० योजन आयाम ( लांब ) व ५०० योजन रुंद विस्ताराचे आहे. पहिल्या सरोवराची खोली १० गोजन आहे. दुसरे व तिसरे सरोवराची लांबी रुंदी खोली दुप्पट दुप्पट विस्तार आहे. मेरुपर्वताच्या उत्तरेकडील पर्यंत सरोवरांचा विस्तार दक्षिणेकडील पर्वत सरोवराच्या विस्तार प्रमाण आहे. प्रथम सरोवरात एक योजन विस्ताराचे पुष्कर नामक कमळ आहे दुसऱ्या सरोवरातील कमळ दोन योजन विस्ताराचे व तिसन्या सरोवरातील कमळ चार योजन विस्ताराचे आहे. पुढील उत्तरेकडील सरोवरातील कमलांचा विस्तार दक्षिणेकडील कमलांच्या विस्ताराप्रमाणेआहे. सरोवरातील कमलावर देवींचे निवासस्थान श्रीश्च हीश्च धृतिः कीर्तिर्बुद्धिर्लक्ष्मीश्च देवताः । पत्योपमायुषस्तेषु परिषद् सामानिकान्विताः ॥२०१॥ अर्थ- सहा पर्वताच्या ६ सरोवरातील एक एक सरोवरातील कमलावर क्रमाने ६ देवींचे निवासस्थान आहे. १ श्री २ ही ३ धृति -- Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ स १२५ ४ कीति, ५ बुद्धी, ६ लक्ष्मी देवी आपल्या पारिषद् व सामानिक देवपरिवारासह राहतात. त्या देवींचे आयुष्य पल्य प्रमाण असते. चौदा महानदी गंगा सिंधू उभे रोहिद् रोहितास्ये तथैवच । ततो हरिद्धरिकान्ते च सीतासीतोदके तथा ।।२०२॥ स्तो नारीनरकान्ते च सुवर्णार्जुन कूलिके । रक्तारक्तोदके च स्तो द्वे द्वे क्षेत्रे च निम्नगे ।।२०३।। पूर्वसागर गामिन्यः पूर्वा नद्यो द्वयोर्द्वयोः । पश्चिमार्णवगामिन्यः पश्चिमास्तु तयोर्मताः ॥२०४॥ गंगासिंधू परिवारः सहस्राणि चतुर्दश । नदीनां द्विगुणास्तिस्रस्तिसृतोऽर्धार्धहापनं ॥२०५।। अर्थ- जंबूद्वीपाच्या सात क्षेत्रामध्ये प्रत्येक क्षेत्रात दोन दोन महानद्या आहेत. १ गंगा, २ सिंधू, ३ रोहित, ४ रोहितास्पा' ५ हरित्, ६ हरिकान्ता, ७ सीता, ८ सीतोदा, ९ नारी, १० नरकान्ता, ११ सुवर्णकूला, १२ रूप्यकूला, १३ रक्ता, १४ रक्तोदा. या दोन दो! जोड नद्यापैकी पहिली पहिली नदी गंगा, रोहित, हरित्, सीता नारी, सुवर्णकूला, रक्ता या पूर्व दिशेला वाहात जाऊन लवण समुद्राच्या पूर्वभागाला जाऊन मिळतात. बाकीच्या दुस-या दुस-या नद्या सिंधू, रोहितास्या, हरिकान्ता, सीतोदा, रकान्ता, रूप्यकूला रक्तोदा या नद्या पश्चिम दिशेगा वाहात जाऊन लवण समुद्राच्या पश्चिम भागास जाऊन मिळतात. या महानद्यांना येऊन मिळणा-या लहान क्षुद्रनद्यांचा परिवार क्रमाने दुप्पट दुप्पट होत जाऊन पुढे क्रमाने निम्पट होत जातो. १ गंगा- सिंधू - १४ हजार नद्या परिवार. २ रोहित- रोहितास्या- २८ हजार नद्या परिवार ३ रित्- हरिकान्ता- ५६ हजार नद्या परिवार ४ सीता- सीतोदा- ११२ हजार नद्या परिवार Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ तरवार्थसार अधिकार २ रा ५ नारी- नरकान्ता- ५६ हजार नद्या परिवार ६ सुवर्णकूला- रूप्यकूला- २८ हजार नद्या परिवार ७ रक्ता- रक्तोदा- १४ हजार नद्या परिवार क्षेत्र व पर्वताचा विस्तार . दशोन द्विशतीभक्तो जंबूद्वीपस्य विस्तरः । विस्तारो भरतस्यासौ दक्षिणोत्तरतः स्मृतः ॥२०६॥ द्विगुणद्विगुणा वर्षधर-वर्षास्ततो मताः । आविदेहात् ततस्तु स्यु रुत्तरा दक्षिणैः समाः ॥२०७।। अर्थ- जंबूद्वीपाचा विस्तार (व्यास) १ लाख योजन आहे. ( २००० कोस = १ योजन ) त्याचे १९० भाग केले असता .. भाग विस्तार (५२६ ) योजन भरत क्षेत्राचा विस्तार आहे. पुढे विदेह क्षेत्रापयत पर्वत व क्षेत्र यांचा दक्षिणोत्तर विस्तार दुप्पट दुप्पट होत जातो. विदेहक्षेत्राच्या पलीकडील उत्तरेकडील पर्वत व क्षेत्र यांचा विस्तार निम्पट निम्पट होत जातो. १ भरतक्षेत्र ५२६ ६ योजन १ - हिमवन् पर्वत १०५२१२ योजन २ हैमवत क्षेत्र २१०५,योजन२ महाहिमवन् पर्वत ४२१०१० ३ हरिक्षेत्र ८४२१.१ योजन ३ निषधपर्वत १६८४२-१२ योजन. ४ विदेहक्षेत्र ३३६८४ . योजन ५ रम्यकक्षेत्र ८४२१-१६ यो ४ नीलपर्वत १६८४२-३२. योजन ६ हैरण्यवतक्षेत्र २१०५ १५. यो. ५ रुक्मिपर्वत ४२१०१९ योजन ७ ऐरावतक्षेत्र ५२६ कई यो ६ शिखरिन्पर्वत १०५२ १२ योजन Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा भरत व ऐरावत क्षेत्रात कालचक्र परिवर्तन उत्सपिण्यवसर्पिण्यौ षट्समे वृद्धिहानिदे । भरतैरावतौ मुक्त्वा नान्यत्र भवतः क्वचित् ॥ २०८॥ अर्थ - भरत ऐरावत क्षेत्राला सोडून अन्य क्षेत्रामध्ये ६ उत्सर्पिणी व ६ अवसर्पिणी कालाच्या अपेक्षेने आयु, शरीर, उंची, सुख, वैभव, यामध्ये वृद्धी व हानि होत नाही. १२७ भावार्थ - भरत व ऐरावत क्षेत्रामध्ये उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालाच्या अपेक्षेने मनुष्याचे आयुष्य, शरीर, उंची धनधान्यादि वैभवसुख यामध्ये वृद्धि हानि होत असते. इतर क्षेत्रात वृद्धि हानि होत नाही एक कल्पकाळ २० कोडाकोडी सागर प्रमाण आहे. त्याचे २ भेद आहेत. १ उत्सर्पिणो २ अवसर्पिणी प्रत्येक काळ १० कोडाकोडी सागर प्रमाण आहे. सध्या अवसर्पिणी कालावा पाचवा दुषमा काळ सुरु आहे. अवसर्पिणी कालाचे ६ भेद आहेण. १ सुषमा-सुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमा - दुषमा, ४ दुषमा- सुषमा, ५ दुषमा, ६ दुषमा-दुषमा. १ सुषमा - सुषमा ४ कोडाकोडी सागर काल असतो, मनुष्याचे आयुष्य ३ पल्य प्रमाण असते, या वेळी उत्कृष्ट भोग भूमीची रचना असते. उपजीविकेसाठी मनुष्याना काही व्यापार धंदा करावा लागत नाही. दहा प्रकारचे कल्पवृक्ष असतात. त्यापासून मनात इच्छा करताच सर्व भोग्य वस्तूची प्राप्ति होते. सर्व जीव अत्यंत सुखी असतात. J यथेच्छ भोग भोगण्यातच सर्व जीवन बरबाद होते. यावेळी व्रत-संयम घेण्याचे देखील परिणाम होत नाहीत. त्यामुळे या काळात कोणीच मोक्षाला जात नाहीत. भोगभूमीतील जीवांचे कषाय मद त्यामुळे तेथून ते नियमाने देवगतीत जातात. असतात. २ सुषमा काल - याचा काल ३ कोडीकोडीसागर प्रमाण आहे या काळात मनुष्याचे आयुष्य २ पत्यप्रमाण असते. या काळात मध्यम Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १२८ भोगभूमीची रचना असते. कल्पवृक्षाची रचना असल्यामुळे उपजीविके साठीकोणताच व्यापार करावा लागत नाही. भोग भोगण्यांतच सर्वजीवनसमाप्त होते. ३ सुषमा-दुषमा- याचा काल २ कोडाकोडीसागरप्रमाण या काळात जघन्य भोग भूमीची रचना असते. मनुष्यांचे आयुष्य १ पल्य प्रमाण असते. याकाळाचे शेवटी १४ मनु उत्पन्न होतात शेवटले मनु नाभिराज कुलंकर त्यांचे पासून पहिले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ यांचा जन्म होतो. या काळाचे शेवटी कल्पवृक्षाचा लोप होतो. कर्म भूमीची रचना सुरू होते. उपजीविका करण्याची लोकांना विवंचना सुरू होते. लोक नाभिराजाकडे जातात. नाभिराज यांनी उपजीविकेसाठी १ असि (क्षत्रिय विद्या) २ मसी (लेखन कला) ३ कृषि शेतकीचा व्यापार) ४ शिल्प (घरे बांधणे, कापड विणणे, इ. कला) ५ सेवा (नौकरी चाकरी करणे) ६ वाणिज्य (धन-धान्यादि देवघेव व्यापार) ही ६ उपजीविकेचो आवश्यक कर्मे करण्याचा उपदेश दिला. ४ दुषमा सुषमा-- चतुर्थकाल १ कोडाकोडीसागराला ४२००० वर्षे कमी इतका आहे. या कालात २४ तीर्थंकर जन्मास येतात. या कालात व्रते धारण करणे. देवपूजा दान भक्ती इत्यादि तीर्थं धर्माची प्रवृत्ति चालू करतात म्हणून त्याना तीर्थकर ही संज्ञा दिली जाते. या काळात मनुष्याचे आयुष्य सुरूवातीस १ कोटिपूर्व असते शरीराची उंची ५०० धनुष्य असते. (१ धनुष्य = ३ ३ हात) केवळ याच काळात मनुष्य संयम धारण करून मोक्षास जाऊ शकतात. धर्माची विशेष प्रभावना होते म्हणून यास धर्मयुग म्हणतात. ५ दुषमा-- पंचमकाळ २१००० वर्ष प्रमाण आहे. चतुर्थकाळात क्रमाक्रमाने मनुष्याचे आयुष्य व शरीराची उंची सुख-वैभव कमी कमी होत जाते. मनुष्याचे आयुष्य सरापरी १०० वर्ष प्रमाण असते शरीराची उंची सुरुवातीस ७ धनुष्य असते पुढे क्रमाने कमी होते. या काळात मनष्य व्रत-संयम धारण करतात. पण या काळात जीवाला मक्तीची प्राप्ती होत नाही. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ श ६ दुषमा - दुषमा काल - याचा काल २१००० वर्ष प्रमाण आहे. या कालाचे शेवटी मनुष्याचे आयुष्य १२ वर्ष प्रमाण असते. शरीराची उंची १ हात असते. मनुष्य मोठ्या कष्टाने आपले जीवन जगतात. शेवटी ४९ दिवस गारांचा वर्षाव होतो. उल्कापात होतात. अनेक जीवांची प्राण हानि होते. काही जोडपी ( स्त्री-पुरुष ) पर्वताच्या गुहेत - वृक्षाच्या ढोलीत लपून बसतात- स्वर्गातील इंद्र त्याना सुरक्षित ठेवतात. नंतर उत्सर्पिणी कालास सुरुवात होते. १२९ उत्सर्पिणी कालाचे ६ भेद आहेत - त्याचा काल १० कोडाकोडी - सागर प्रमाण असतो. १) दुषमा दुषमा, २) दुषमा, ३) दुषमा सुषमा, ४) सुषमा दुषमा, ५) सुषमा, ६) सुषमा सुषमा. ६) दुषमा - दुषमा काल २१ हजार वर्ष - ५) दुषमा काल २१ हजार वर्ष ४) दुषमा सुषमा काल १ कोडाकोडी सागरास ४२ हजार वर्ष कमी. या कालात चतुर्थकालाप्रमाणे २४ तीर्थंकर उत्पन्न होतात. मनुष्ये व्रत-संयम धारण करतात. धर्म प्रवृत्ती वाढत जाते. जीवास मोक्षाची प्राप्ति होऊ शकते. ३) सुषमा-दुषमा - काल २ कोडाकोडीसागर प्रमाण जघन्य भोग भूमि रचना. २) सुषमा - काल ३ कोडाकोडीसागर मध्यम भोगभूमि रचना १) सुषमा - सुषमा - काल ४ कोडाकोडी सागर उत्कृष्ट भोग भूमि रचना. या प्रमाणे भरत व एरावत क्षेत्रात पट्कालचक्र सतत सुरू असते विदेहक्षत्रात नेहमी चतुर्थकालाप्रमाणे रचना असते. तेथे ३२ विदेह क्षेत्रात निरंतर २० विमान तीर्थकर धर्म असतात तीर्थ प्रवृत्ति-दिव्य ध्वनी द्वारा धर्मोपदेश सतत चालू असतो. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० तत्वार्थसार अधिकार २ रा हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रात- नेहमी जघन्य भोगभूमिची रचना असते. ( १ पल्य आयुष्य ) हरि व रम्यक क्षेत्रात- नेहमी मध्यम भोग भूमिची रचना असते. ( २ पल्य आयुष्य ) उत्तरकुरु व दक्षिणकुरु क्षेत्रात नेहमी उत्कृष्ट भोग भूमिची रचना असते. ( ३ पल्य आयुष्य ) तसेच भरत व ऐरावत क्षेत्रातील ५ म्लेच्छखंड व विजया पर्वत येथे नेहमी चतुर्थकालाच्या आदि अंताप्रमाणे परिवर्तन होत असते. भरत व ऐरावत क्षेत्रातील आर्यखंडातच उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूपाने षट्काल चक्र रूपाने क्रमाने वृद्धि व हास होत असतो. धातकी खंड द्वीप व पुष्करार्ध द्वीप वर्णन जंबूद्वीपोक्त संख्याभ्यो वर्षा वर्षधरा अपि । द्विगुणा धातकीखंडे पुष्कराः च निश्चितः ॥ २०९।। पुष्कर द्वीप मध्यस्थो मानुषोत्तर पर्वतः । श्रूयते वलयाकारः तस्य प्रागेव मानुषाः ॥ २१० ॥ द्वीपे श्वर्धतृतीयेषु द्वयोश्चापि समुद्रयोः । निवासोऽत्र मनुष्याणामत एव नियम्यते ॥ २११ ॥ अर्थ- जंबूद्वीप वृत्ताकार गोल असून त्याच्या भोवती वलयाकार लवण समुद्र आहे. जंबूद्वीपाचा व्यास एक लाख योजन आहे. लवणसमुद्राचा सर्व ठिकाणी विस्तार दुष्पट दोन लाख योजन आहे. लवण समुद्राच्या भोवती वलयाकार धातकी खंड आहे. त्याचा सर्वत्र व्यास दुप्पट चार लाख योजन आहे. याचे पूर्वधातकी खंड व पश्चिमधातकीखंड दोन भाग आहेत. दोन्ही भागात जंबूद्वीपासारखी सात- सात क्षेत्र व त्याना विभागणारे सहा- सहा वर्षधर पर्वत आहेत. जंबूद्वीपामध्ये जला मध्यभागी १ मेरु पर्वत आहे. त्याप्रमाणे धातकी खंडाच्या पूर्व- पश्चिम दोन विभागातील Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा १३१ दोन जंबूद्वीपात दोन मेरु पर्वत आहेत. जंबू द्वीपांतील क्षेत्र वर्षधर पर्वत व नद्या यांचा जो विस्तार आहे त्याच्या दुप्पट विस्ताराचे वर्ष वर्षधर पर्वत व नद्या आहेत. धातकी खंडास वेढून कालोद समुद्र वलयाकार सर्वत्र विस्तार ८ लाख योजनाचा आहे. कालोद समुद्रास वेढून वलयाकार पुष्करवर द्वीप सर्वत्र १६ लाख योजन विस्ताराचा आहे. या पुष्करवर द्वीपात मध्यभागी वलयाकार मानषोत्तर पर्वत आहे. या मानुषोत्तर पर्वतापर्यंत अडीच द्वीप क्षेत्रात मनुष्य वास करतात. त्याच्या पलीकडे मनुष्य जाऊ शकत नाही. म्हणून या अडीच द्वीपास मनुष्य लोक असे नाव दिले आहे. या अडीच द्वीपातील ५ भरत-क्षेत्र, ५ ऐरावत क्षेत्र व ५ विदेहक्षेत्र या ठिकाणी कर्मभूमिची रचना असते. तेथील जीवाना उपजीविकेसाठी ६ आवश्यक कर्म करावे लागते. म्हणून त्या भूमिना कर्मभूमि म्हटले आहे वाकीच्या सर्व क्षेत्रात भोगभूमिची रचना असते. __ भोग भूमिमध्ये कल्पवृक्षाची रचना असते. त्यामुळे त्याना उपजीविकेसाठी सर्व भोग- उपभोग सामग्री कल्पवृक्षापासून इच्छा करताच प्राप्त होते. कोणतेही कर्म- क्रिया- व्यापार देवघेव करावी लागत नाही. मनुष्याचे भेद आर्य म्लेच्छ विभेदेन द्विविधास्ते तु मानुषाः । आर्यखंडोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचित शकादयः । म्लेच्छ खंडोद्भवा म्लेच्छा अन्तर द्वीपजा अपि ॥ २१२ ॥ (षट्पदी) अर्थ - मनुष्याचे दोन भेद आहेत, १ आर्य, २ म्लेच्छ, आर्य खंडात जे उत्पन्न होतात त्यांना आर्य म्हणतात. म्लेच्छ खंडात उत्पन्न झाले आहेत त्यांना म्लेच्छ म्हणतात. म्लेछाचे २ प्रकार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा आहेत. १ म्लेच्छ खंडात उत्पन्न होणारे कर्मभूमिज म्लेच्छ. २ अन्तरर्दीपज म्लेच्छ. कर्मभूमिज म्लेच्छ शक - यवन - शबर-पुलिंद वगैरे. अन्तर्वीपा मध्ये जे उत्पन्न होतात. त्याना अंत:पज म्लेच्छ म्हणतात. लवणोदधि व कालोदधि समुद्राच्या दोन्ही भागात जे पर्वताचे अंतिम भाग आंत गेले आहेत त्याना अंतर्वीप म्हणतात. दोन्ही समुद्रात एकूण ९६ अंतर्वीप आहेत. त्या ठिकाणी जे म्लेच्छ मनुष्य राहतात त्याना अन्तर्वीपज मनुष्य म्हणतात. ते काही एक जंघावाले, कांही लांगूल (शेपटी) असणारे, काही दीर्घ कर्ण, काही शिंगे असणारे, काही अश्वमुखी, काही गोमुखी, काही गजमुखी काही कपि (वानर) मुखी, काही मत्स्यमुखी काही व्याघ्र मुखी, काही सिंहमुखी, काही श्व (कुत्रा) मुखी इत्यादि अनेक प्रकारचे म्लेच्छ आहेत. देवांचे वर्णन भावन - व्यंतर ज्योतिर्वैमानिक विभेदतः । देवाश्चतुर्णिकायाः स्युर्नामकर्मविशेषतः ॥ २१३ ।। अर्थ - देवाचे ४ भेद आहेत. १ भवनवासी, २ व्यंतर, ३ज्योतिष्क, ४ वैमानिक. देव गतिनामकर्माच्या विशेषतेमुळे देवाचे चार निकायसमूह प्रकार आहेत. देवांचे अवांतरभेद दशधा भावना देवा अष्टधा व्यंतराः स्मताः । ज्योतिष्काः पंचधा ज्ञेयाः सर्वे वैमानिका द्विधा ।। २१४ ॥ अर्थ - भवनवासीचे १० भेद आहेत व्यंतरदेव ८ प्रकारचे आहेत. ज्योतिष्क देवांचे ५ प्रकार आहेत. वैमानिक देव २ प्रकारचे आहेत भवनवासीचे १० भेद नागासुर सुपर्णाग्नि दिग्वातस्तनितोदधिः । द्वीप-विद्युत्कुमाराख्या दशधा भावनाः स्मृताः ॥२१५।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा अर्थ- भवनवासीचे १० भेद आहेत.१ नागकुमार, २ असुरकुमार, ३ सुपर्णकुमार, ४ अग्निकुमार, ५ दिक्कुमार, ६ वातकुमार, ७ स्तनितकुमार, ८ उदधिकुमार, ९ द्वीपकुमार, १० विद्युत्कुमार. व्यंतराचे ८ भेद किन्नराः किंपुरुषाश्च गंधर्वाश्च महोरगाः । यक्ष-राक्षस-भूताश्च पिशाचा व्यंतराः स्मृताः ॥ २१६ ॥ अर्थ – व्यंतरदेव ८ प्रकारचे आहेत. १ किंनर, २ किंपुरुष, ३ गंधर्व, ४ महोरग, ५ यक्ष, ६ राक्षस, ७ भूत, ८ पिशाच्च. ज्योतिष्क देवाचे ५ भेद सूर्या चंद्रमसौ चैव ग्रह-नक्षत्र-तारकाः । ज्योतिष्काः पंचधा ज्ञेयास्ते चलाचलभेदतः ।। २१७ ॥ अर्थ – ज्योतिष्क देव ५ प्रकारचे आहेत. १ सूर्य, २ चंद्र, ३ ग्रह, ४ नक्षत्र, ५ तारका अडीत्र द्वीपातील ज्योतिष्क देव निरंतर मेरुपर्वताच्या भोवती फिरत राहतात. यांच्या गमनावरून दिवस रात्र घटिका मुहर्त या व्यवहार कालाची कल्पना लोकव्यवहारत प्रसिद्ध आहे. या ज्योतिष्क विमानांचे चार क्षेत्र भूमिपासून वर ७९० योजन उंच अंतराळ पासून ९०० योजन उंच पर्यंत एकूण ११० योजन अवगाह क्षेत्रात हे निरंतर गमनशील असतात. सर्वांचे खाली तारका गमन करतात. त्यानंतर १० योजन उच सूर्यविमान गमनशील आहे. त्यावर ८० योजन उंचीवर चंद्र विमान गतिशील आहे. त्याचेवर तीन योजन उंच नक्षत्र नमन करतात. त्यांचेवर ३ योजन उंच बुध ग्रह गमन करतो. त्याचेवर ३ योजन शुक्रग्रह गमन करतो त्याचेवर ३ योजन उंच गुरु ग्रह गमन करतो. त्याचेवर चार योजन उंच मंगळ ग्रह गमन करतो, त्याचेवर ४ योजन उंच शनिग्रह गमन करतो. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा वैमानिक देवाचे भेद कल्पोपपन्नास्तथा कल्पातीतास्ते वैमानिका द्विधा । इंद्राः सामानिकाश्चैव त्रास्त्रिशाश्च पार्षदाः ।।२१८॥ आत्मरक्षास्तथा लोकपालान्तक प्रकीर्णकाः । किल्बिषा आभियोग्याश्च भेदाः प्रतिनिकायकाः ॥२१९॥ त्रास्त्रिशस्तथा लोकपाल विरहिताः परे । व्यंतरज्योतिषामष्टौ भेदाः सन्तीति निश्चिताः ।।२२०॥ अर्थ- वैमानिक देवाचे २ भेद आहेत. १ कल्पोपपन्न २ कल्पातीत जेथे इंद्रादिक श्रेष्ठ-कनिष्ठ देवांची कल्पना असते. त्याना कल्पोपपन्न म्हणतात. जेथे इंद्रादिकांची कल्पना नसते. सर्व देव अहमिंद्र असतात त्यांना कल्पातीत म्हणतात. प्रत्येक निकाय भेदामध्ये हे इंद्रादिक देवांचे १० प्रकार असतात. व्यंतर व ज्योतिष्क देवामध्ये त्रायस्त्रिश व लोकपाल सोडून ८ प्रकार असतात. १ इंद्र - सर्व देवांचा मुख्य - सर्व देव याची आज्ञा पाळतात. २ सामानिक- जे इंद्रासारखे ऐश्वर्य युक्त असतात. इंद्राप्रमाणे आज्ञा देत नाहीत. ३ त्रायस्त्रिश- मंत्रीप्रमाणे जे इंद्राचा कार्यभार करतात. ४ पारिषद- जे इंद्रच्या सभेत बसू शकतात. ५ आत्मरक्ष- जे इंद्राचे अंगरक्षक असतात. ६ लोकपाल- जे पोलिसप्रमाणे इतर देवांचे रक्षण करतात. ७ अनीक- जे सैन्याप्रमाणे इंद्राची सेवा करतात. ८ प्रकीर्णक- जे इतर प्रजेप्रमाणे सर्वसामान्य देव असतात. ९ आभियोग्य- जे इंद्राच्या विमानाचे वाहक बनून सेवा करतात. १० किल्बिषिक- जे नीच देवाप्रमाणे सभेत वसण्यास लायक नसतात. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा १३५ देवांचे इंद्रियजन्य वैषयिकसुख पूर्वे कायप्रवीचारा व्याप्यशानं सुराः स्मृताः । स्पर्श-रूप-ध्वनि स्वान्त प्रवीचारास्ततः परे । ततः परेऽप्रवीचाराः कामक्लेशाल्पावतः ॥२२१॥ अर्थ- भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क व सौधर्म ऐशान स्वर्गातील देव मनुष्याप्रमाणे देवीबरोबर शरीराने मैथुन सेवन करून कामसुख भोगतात. त्यानंतर सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्गातील देव केवळ स्पर्शसुख भोगतात. शरीराने मैथुन सेवन करीत नाहीत. ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लांतवकापिष्ट स्वर्गातील देव केवळ देवीचे मुख पाहून काम सुख भोगतात. त्यानंतर शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रार स्वर्गातील देव केवळ देवींचा मधुर ध्वनि ऐकून संतुष्ट होतात. त्यानंतर आनत-प्राणत. आरण अच्युत स्वर्गातील देव केवळ देवीचे मनात चितवन करुन कामसुख भोगतात. पुढील कल्पातीत देव सर्व ब्रह्मचारी असतात. त्याना प्रवीवारकामसेवन करण्याची इच्छा नसते विरक्त असतात. कल्पातीत देवामध्ये देवींचा संसर्ग देखील नसतो. देवींचा जन्म केवळ सौधर्म ऐशान दोन स्वर्गापर्यंतच होतो वर होत नाही. वरील देव खाली येऊन आपापल्या देवींना वर घेऊन जातात. सोळाव्या स्वर्गापर्यंतच देवींचा सहवास असतो. कल्पातीत देवामध्ये काम भोगाची इच्छाच उत्पन्न होत नाही. सर्व ब्रह्मचारी असतात. भवनत्रिक देवांचे निवासस्थान धर्मायाः प्रथमे भागे द्वितीयेऽपिच कानि चित । भवनानि प्रसिद्धानि वसन्त्येतेषु भावनाः ।।२२२।। रत्नप्रभाभुवो मध्ये तथोपरितलेऽपिच । विविधेष्वन्तष्वरेत्र व्यंतरा निवसन्ति ते ॥२२३॥ उपरिष्टान्महीभागात् पटलेषु नभोऽङगणे । तिर्यग्लोकं समासाद्य ज्योतिष्का निवसन्ति ते ॥२२४॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसारआधिकार २ रा अर्थ- धर्मानामक प्रथम नरकाच्या पहिल्या खर भागामध्ये व दुसन्या पंकभागामध्ये भवनवासी देवांची काही भवने आहेत. तेथे भवनवासी देव राहतात. रत्नप्रभानामक प्रथमनरकाचा मध्यभाग व उपरितन भागामध्ये व मध्यलोकाच्या असंख्यात द्वीप समुद्र भागामध्ये व्यंतर देवांचे आवास स्थान आहेत. तसेच पृथ्वीच्यावर अंतराळात आकाशाच्या नभो मंडळामध्ये ज्योतिष्क देवांची विमाने आहेत. तेथे त्यांचा निवास आहे. तिर्यक्लोकामध्ये नभो मंडळामध्ये सर्वत्र व्यापून तारांगणाची विमाने आहेत. वैमानिक देवांचा निवास ये तु वैमानिका देवा ऊर्ध्वलोके वसन्ति ते । उपर्युपरि तिष्ठत्सु विमान प्रतरेष्विह ।। २२५ ॥ अर्धभागे हि लोकस्य त्रिषष्ठिः प्रतराः स्मृताः । विमानरिन्द्रकर्युक्ताः श्रेणीबद्धैः प्रकीर्णकैः ।।२२६।। सौधर्मेंशानकल्पौ द्वौ तथा सानत्कुमारकः । माहेन्द्रश्च प्रसिद्धौ द्वौ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरावुभौ ।। २२७ ।। उभौ लान्तवकापिष्टौ शुक्र-शुक्रौ महस्विनौ । द्वौ शतार सहस्त्रारौ आनतप्राणतावुभौ ।। २२८ ॥ आरणाच्युत नामानौ द्वौ कल्पाश्चेति षोडश । प्रैवेयाणि नवातोऽतो नवानुदिशचक्रकं ॥ २२९ ।। विजयं वैजयन्तंच जयन्तमपराजितं । सर्वार्थसिद्धिरेतेषां पंचानां प्रतरोऽन्तिमः ॥ २३० ।। एषु वैमानिका देवा जायमानाः स्वकर्मभिः । द्युति-लेश्या-विशुध्द्यायुरिन्द्रियावधिगोचरैः ॥ २३१ ।। तथा सुख प्रभावाभ्यामुपर्युपरितोऽ धिकाः । होनास्तथैव ते मान-गाति देह परिग्रहैः ।। २३२ ॥ अर्थ- वैमानिकदेव ऊर्वलोकात राहतात. कल्पोपपन्न देवाचे १६ भेद आहेत. दोन दोन देवांच्या विमानाचे वरवर विमान प्रतर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार २ रा आहेत. पहिल्या प्रतरात सौधर्म - ऐशान यांचे विमान युगल आहे. त्याचे" वर सानत्कुमार - माहेन्द्र देवांचे विमान युगल आहे. त्याचेवर ब्रह्मब्रह्मोत्तर देवांचे विमान युगल आहे. त्याचेवर लांतव- कापिष्ट देवांचे विमान युगल आहे त्याचेवर शुक्र - महाशुक्र देवाचे विमान युगल आहे. त्याचेवर शतार - सहस्त्रार देवांचे विमान युगल आहे. त्याचेवर आनतप्राणतदेवांचे विमान युगल आहे. त्याचेवर आरण - अच्युत देवांचे विमान युगल आहे. त्याचेवर नव ग्रैवेयक देवांचे अधस्तन - मध्यतन - उपरितन असे तीन तीन विमानांचे तीन पटल आहेत. त्यानंतर नव अनुदिश विमानांचे चक्राकार विमान पटल आहे. त्यानंतर विजय वैजयंत- जयंत अपराजित- सर्वार्थसिद्धि देवांचे चार दिशेला चार व वर टोकदार एक असे छत्राकार विमान पंचकाचे अंतिम पटल आहे. या विमानामध्ये देव आपापल्या देवगति नामकर्माच्या उदयवश उत्पन्न होतात. द्यति ( शरीरकांति ), लेश्या, परिणाम विशुद्धि, आयु, सुख, प्रभाव इंद्रियज्ञानाचे तथा अवधिज्ञानाचे विषय या अपेक्षेने वरील वरील देवामध्ये उत्तरोत्तर अधिक अधिक वृद्धि होत जाते. गमन, अभिमान, शरीराची उंची, परिग्रहाविषयी मूच्र्छा परिणाम हे उत्तरोत्तर कमी होत जातात. संसारी जीव व सिद्ध जीवांचे क्षेत्र इति संसारिणां क्षेत्रं सर्वलोकः प्रकीर्तितः । सिद्धानां तु पुनः क्षेत्रमूर्ध्वलोकान्त इष्यते ।। २३३ ।। १३७ अर्थ - याप्रमाणे सर्व संसारी जीवांचे क्षेत्र अधोलोक - मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक स्वरूप सर्व लोक आहे. सूक्ष्म एकेंद्रिय जीवानी हा लोक गचपच भरला आहे. लोकाकाशाच्या भोवती ३ वातवलय आहेत. १ घनवातवलय, २ घनोदधि वातवलय, ३ तनुत्रातवलय या तीन वातवलयाच्या वेगवान चक्राच्या आधारावर हा लोकाकाश प्रमाण पुद्गल महास्कंध अलोकाकाशाच्या बहु मध्यभागी अधर स्थित आहे. लोकाकाशाच्या चोहोबाजूनी अलोकाकाश अनंत अमर्याद निराकार स्थित आहे. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ तस्वार्थसार अधिकार २ रा लोकाकाशाच्या ऊर्ध्वभागी अडीच द्वीपाच्या क्षेत्राचा आकार प्रमाण ४५ लाख योजन विस्तार असलेली सिद्ध शिला नामक आठवी पृथ्वी आहे. तेथे सिद्धजीव अनन्त काल पर्यंत आपल्या अनन्त ज्ञान-दर्शन सुखाचे अनुभव घेतात. ते पुनः कधीही संसारात येत नाहीत. जीबराशि अक्षय अनन्त आहे. आतापर्यंत अतीत अनादि कालापासून अनन्त सिद्ध होऊन गेले. वर्तमान काळी विदेह क्षेत्रातून सिद्ध होत आहेत. पुढे अनन्त काल पर्यंत अनन्त सिद्ध होणार आहेत. दर ६ महिने ८ समयाला ६०८ जीव नित्य निगोद राशीतून संसारराशीत येत आहेत. व तितकेच जीव संसारराशीतून सिद्ध होत आहेत. तथापि नित्य निगोद राशी अनंतानंत जीव राशीने सदा युक्त राहणार आहे. ज्या प्रमाणे कालाच्या समयाला आदि- अंत नाही. अशी ही जीवराशि अक्षय अनन्त आहे. जीवाचे भेद सामान्या देकधा जीवो बद्धो मुक्तस्ततो द्विधा । स एवासिद्ध-नोसिद्ध-सिद्धत्वात् कीर्त्यते त्रिधा ।। २३४ ।। श्वाभ्रतिर्यग-नरामर्त्य विकल्पात् स चतुर्विधः । प्रशम-क्षय-तद्वन्द्व-परिणामोदयोद्भवात् ॥ २३५ ।। भावात् पंचविधत्वात् स पंच भेदः प्ररूप्यते । षड्- मार्ग गमनात् षोढा, सप्तधा सप्तभंगतः ॥ २३६ ।। अष्टधाऽष्ट गुणात्मत्वात् अष्टकर्मवृतोऽपि च । पदार्थ नवकात्मत्वात् नवधा दशधा तु सः । दशजीवभिदात्मत्वात्, इति चिन्त्यं यथागम ।। २३७ ।। अर्थ- १) सामान्य नय दृष्टीने अनन्न जीवराशी जीवत्वधर्माने एकसदृश आहे म्हणून जीव एक आहे. २) १ संसारी व मुक्त या भेदाने जीवाचे २ भेद आहेत. ३) १ असिद्ध, २ नोसिद्ध, ३ सिद्ध या भेदाने जीवाचे ३ प्रकार आहेत. १ बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि अज्ञानी असिद्ध, २ अन्तरात्मा सम्यक् Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार २ रा दृष्टि ज्ञानी नोसिद्ध ३ परमात्मा सिद्ध अथवा १ ते १२ गुणस्थानवर्ती जीव असिद्ध, अरिहंत परमात्मा जीवन्मुक्त नोसिद्ध, "सिद्ध परमात्मा सिद्ध असे जीवाचे ३ प्रकार आहेत. ४) नारकी, तिर्यंच, मनुष्य- देव या चार गतीच्या अपेक्षेने जीवाचे ४ भेद आहेत. १३९ ५) १ औपशामिक भाव, २ क्षायिक भाव, ३ क्षायोपशमिक भाव, ४ औदयिक भाव ५ पारिणामिक भाव या अपेक्षेने जीव ५ प्रकारचे आहेत. या ६) जीव एका भवातून दुसन्या भवात जाताना विग्रहगतीमध्ये आकाश प्रदेश श्रेणीने गमन करतो. पूर्व-पश्चिम दक्षिण-उत्तर- खालीवर या सहा दिशेने गमन करतो. आग्नेय - नैऋत्य- वायव्यप्र - ईशान्य. विदिशेने तिरपे गमन करीत नाही म्हणून जीव ६ प्रकारचा आहे. अथवा पृथ्वी-अप-तेज- वायु-वनस्पति पाच स्थावर काय व एक त्रसकाय या अपेक्षेने जीव ६ प्रकारचा आहे. 1 ७) १ स्याद् अस्ति, २ स्याद् नास्ति ३ स्याद् अस्तिनास्ति, ४ स्यात् अवक्तव्य, ५ स्याद् अस्ति अवक्तव्य, ६ स्याद् नास्ति - अवक्तव्य, ७ स्याद् अस्ति नास्ति - अवक्तव्य या सप्तभंगीनय अपेक्षेने जीवाचे ७ भेद आहेत. अथवा एकेंद्रियाचे सूक्ष्म बादर दोन भेद, विकलत्रयाने ३ भेद द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रियाचे २ भेद संज्ञी - असंज्ञी या अपेक्षेने जीवाचे ७ भेद आहेत. ८) आठ कर्माचा नाश झाला असताना जीवाला स्वाभाविक आठ गुण प्राप्त होतात. १ अनंतज्ञान ( ज्ञानावरण कर्माच्या अभावात. ) २ अनंतदर्शन ( दर्शनावरण कर्माच्या अभावात ). ३ अनंतसुख ( मोहनीय कर्माच्या अभावात). ४ अनंतवीर्य ( अंतराय कर्माच्या अभावात ). ५ अव्याबाधत्व ( वेदनीय कर्माच्या अभावात ) ६ अवगाहनत्व ( आयु Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार २ रा कर्माच्या अभावात ) ७ सूक्ष्मत्व ( नाम कर्माच्या अभावात ) ८ अगुरुलघुत्व ( गोत्र कर्माच्या अभावात) या अपेक्षेने जीव ८ प्रकारचा आहे. १४० ९) १ जीव, २ अजीव, ३आस्रव ४ बंध, ५ संवर, ६ निर्जरा, ७ मोक्ष, ८ पुण्य, ९ पाप या नव पदार्थाच्या अपेक्षेने जीव ९ प्रकारचा आहे. अथवा पांचस्थावर जीव, ४ त्रसजीव, (द्वींद्रिय-त्रींद्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेंद्रिय) याप्रमाणे जीव ९ प्रकारचा आहे. १०) १ ४ उत्तमशौच, उत्तमक्षमा, २ उत्तममार्दव, ३ उत्तमआर्जव, ५ उत्तम सत्य, ६ उत्तम संयम, ७ उत्तम तप, ९ उत्तम आकिंचन्य, १० उत्तम ब्रह्मचर्य ८ उत्तम त्याग, या अपेक्षेने जीव १० प्रकारचा आहे. ( अथवा ) - ५ पांच स्थावर, ३ विकलत्रय ( द्वीद्रिय-त्रींद्रियचतुरिंद्रिय) २ पंचेंद्रिय ( संज्ञी - असंज्ञी ) या अपेक्षेने जीवाचे १० प्रकार आहेत. याप्रमाणे गोम्मटसार आदि आगम ग्रंथातून जीवसमासाचे ११-१२-१३-१४ भेद सांगितले आहेत. ( १४ जीवसमास ) - एकेंद्रियाचे २ भेद सूक्ष्मबादर, ३ विकलत्रय, पंचेंद्रियाचे २ भेद संज्ञी - असंज्ञी या ७ प्रकारच्या जीवाचे पर्याप्तअपर्याप्त या अपेक्षेने १४ जीवसमासभेद आहेत. ( १९ जीवसमास ) एकेंद्रियाचे ७ भेद ( पृथ्वी - अप-तेज- वायुप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, साधारणवनस्पति) यांचे सूक्ष्म - बादर अपेक्षेने (७ २ = १४ भेद ) विकलत्रय ३ भेद - पंचेंद्रिय २ भेद ( संज्ञी - असंज्ञी ) या १९ जीवसमासभेदाचे पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्तक अपर्याप्तक या अपेक्षेने १९४३ = ५७ जीवसमासभेद आहेत. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार इत्येतज्जीवतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते । शेषतत्वः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग् भवेत् ॥ २३८ ॥ अर्थ- याप्रमाणे या दुसन्या अधिकारात जीवतत्त्वाचे जे विस्तार पूर्वक वर्णन केले आहे त्या जीवतत्त्वासह बाकीची ६ तत्त्वे अजीव-आस्त्रव-बंध-संवर- निर्जरा - मोक्ष या सात तत्त्वांचे यथार्थ स्वरूप जाणून घेऊन ही सात रूपे धारण करणारा जो परमपारिणामिक भावरूप कारणपरमात्मा त्यालाच उपादेय- आश्रयकरण्यायोग्य समजून त्याचेच जो सम्यग्दृष्टी - ज्ञानी ध्यान करतो. व ही साततत्वे जीवाचे परमार्थ स्वरूप नाही. जीवाने कर्माच्या संयोगात-वियोगात तावत्काल धारण केलेले पर्याय रूप आहे, असे जाणून पर्यायदृष्टीला गौण करून त्याची उपेक्षा करतो. त्यांना हेय आश्रय न करण्यायोग्य समजून या सात विकल्प भेदाचा त्याग करून, उपेक्षा करून या सात तत्वामध्ये सदा एकरूपाने विद्यमान राहणारा जो ध्रुव कारण परमात्मा त्यालाच एकांतपणे उपादेय- आश्रयकरण्यायोग्य मानून त्याचेच श्रद्धान, त्याचेच ज्ञान, मनन-चिंतन- ध्यान करून त्यात अविचल स्थिर होतो त्याला परम निर्वाण सुखाची प्राप्ती होते. कारणपरमात्म्याचे ध्यान हेच तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन, कारणपरमात्म्याचे ज्ञान हेच निश्चयसम्यग्ज्ञान कारणपरमात्म्यात अविचल स्थिर लीन होणे हेच निश्चय सम्पक्चारित्र हाच मोक्षमार्ग हाच साक्षात मोक्ष . आत्मा-अनात्मा रूप स्व-परभेद विज्ञान करून स्वतः सिद्ध आत्मस्वरूपाची प्राप्ती तोच मोक्ष होय ( सिद्धि: स्वात्मोपलब्धि: । ) संसार = ( आत्मा + अनात्मा ) ( द्रव्यकर्म - नोकर्म-भावकर्म ) मोक्ष = (संसार) ( अनात्मा ) = ( आत्मा + अनात्मा ) ( अनात्मा ) आत्मा. ( मोक्ष आत्मा सुखं नित्य: ) अधिकार दुसरा समाप्त मोक्ष : = प्रथम खण्ड समाप्तः Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार ( उत्तरार्ध ) अध्याय ३ रा ( अजीवाधिकार ) मंगलाचरण अनन्त केवल ज्योतिः प्रकाशित जगत्त्रयात् । प्रणिपत्य जिनान् सर्वानजीवः संप्रचक्ष्यते ॥ १ ॥ अर्थ - ज्यांच्या अनंत ज्ञान स्वरूप केवल ज्ञान ज्योतिमध्ये तीन्ही लोकातील सर्व चराचर पदार्थ स्वयं प्रकाशित होतात त्या सर्व सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवंताना नमस्कार रूप इष्टदेव स्मरण रूप मंगल करून या अधिकारात अजीव पदार्थाचे वर्णन केले जाते. अजीव द्रव्याचे ५ भेद धर्माधर्मावथाकाशं तथा कालश्च पुग्दला : । अजीवाः खलु पंचैते निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥ २ ॥ अर्थ- सर्वदर्शी जिनेंद्र भगवंतानी अजीव द्रव्य पाच प्रकारचे सांगितले आहे. १ धर्म २ अधर्म ३ आकाश ४ काल ५ पुग्दल. सहा द्रव्याचे निरूपण एते धर्मादयः पंच जीवाश्च प्रोक्त लक्षणाः षड् द्रव्याणि निगद्यन्ते द्रव्ययाथात्म्यवेदिभिः ॥ ३ ॥ अर्थ- द्रव्याचे जसे स्वरूप आहे तसे यथार्थ स्वरूप जाणणाऱ्या सर्वज्ञ देवानी वरील पांच अजीव द्रव्य व मागील दोन अध्यायात ज्यांचे वर्णन केले ते जीवद्रव्य याप्रमाणे द्रव्याचे सहाभेद सांगितले आहेत. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार पंचास्तिकाय वर्णन विना कालेन शेषाणि द्रव्याणि जिन पुंगवः । पंचास्तिकायाः कथिताः प्रदेशानां बहुत्वतः ।। ४ ।। अर्थ- या सहा द्रव्यापैकी काल द्रव्य सोडून बाकीच्या पाच द्रव्याना जिनेंद्र भगवंतानी पंचास्तिकाय म्हटले आहे सहाही द्रव्ये सत्रूप आहेत अनादि निधन आहेत म्हणून अस्तिरूप आहेत - पण काल द्रव्य सोडून बाकीची पांच द्रव्ये काय - शरीराप्रमाणे बहुप्रदेशी आहेत सावयव आहेत म्हणून त्याना अस्तिकाय म्हटले आहे. काल द्रव्य एकप्रदेशी आहे - बहुप्रदेशी नाही म्हणून त्याला अस्तिकाय म्हटले नाही. आकाशाच्या जेवढया भागाला एक अविभागी परमाणु व्यापतो त्याला एक प्रदेश म्हणतात. या अविभागी प्रदेशावरून प्रत्येक द्रव्याचे क्षेत्र मोजले असताना धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, प्रत्येक जीव द्रव्य हे लोकाकाश प्रमाण समान असंख्यात प्रदेशी आहेत. आकाश द्रव्य हे अनंत प्रदेशी आहे. पुग्दल द्रव्य वास्तविक मुख्य विवक्षेने एक परमाणु हा शुद्ध पुग्दल द्रव्य एक प्रदेशी आहे. परंतु पुग्दल द्रव्य अनेक परमाणूंचा समूह रूप स्कंधरूप होऊ शकतो. म्हणून त्याला उपचाराने बहु प्रदेशी म्हटले आहे. ज्या प्रमाणे इतर द्रव्यामध्ये एका अखंड द्रव्यामध्ये ही प्रदेश - अवयवरूप प्रदेश कल्पना केली जाते. तशी अखंड द्रव्यरूप प्रदेशकल्पना पुग्दल द्रव्यामध्ये केली नाही. अखंडरूप पुरद र द्रव्य तर परमाणु रूप एक प्रदेशीच आहे. परंतु स्कंधरूप पुद्वल द्रव्य जेवढ्या परमाणूंचा समूह रूप असतो त्या परमाणना उपचाराने प्रदेश मानन संख्यात परमाणंच्या समूह रूप स्कंधाला संख्यात प्रदेशी स्कंध असंख्यात परमाणूंचा समूह रूप स्कंधाला असंख्यात प्रदेशी स्कंध, अनंत परमाणूच्या समूहरूप स्कंधाला अनंत प्रदेश स्कंध म्हणतात. लोकाकाश प्रमाण जो पुग्दलाचा महास्कंध तो असंख्यात प्रदेशी आहे. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंतु आकाश प्रदेशामध्ये ज्याप्रमाणे अनेक द्रव्याना युगपत् अवकाश देण्याची शक्ती आहे. त्याचप्रमाणे एका पुग्दलपरमाणूमध्ये अशी अवगाहन शक्ती आहे कीं, तो जसा आकाशाच्या एका प्रदेशात राहतो त्याच प्रदेश भागात अनंत पुग्दल परमाणू देखील परस्पर अबद्ध परमाणू रूपाने किंवा परस्पर बद्ध स्कंध रूपाने देखील राहू शकतात. असंख्तप्रदेशी लोकाकाशामध्ये अनंतप्रदेशी पुग्दलद्रव्यांचा समूह एकक्षेत्र अवगाहरूपाने राहू शकतात. तत्वार्थसार प्रत्येक द्रव्यामध्ये प्रदेशवत्त्व नामक सामान्य गुण आहे. त्यामुळे कालद्रव्य व पुग्दल परमाणु हे एकप्रदेशवान् व बाकीची द्रव्ये बहुप्रदेशवान् आहेत. बहुप्रदेशी द्रव्याना जो आकार येतो तो प्रदेशवत्त्व गुणाच कार्य नसून आकार संस्थान हा पुग्दल द्रव्य पर्याय आहे. लोकाकाश प्रमाण एक पुद्वल महास्कंध आहे म्हणून लोकाकाश वेत्रासनाकार विशिष्ट आकाराचा म्हटला जातो. लोकाकाशाप्रमाणे धर्म अधर्म द्रव्याला केवली समुद्घात गत जीव द्रव्याला जो आर येतो तो या पुग्दल स्कंधामुळे येतो. www संसारी जीवाला जो आकार येतो तो ज्या शरीरात प्रवेश करतो त्या त्या विशिष्ट शरीराच्या आकाराचा होतो. विग्रह गतीमध्ये देखील जीव ज्या गतीतून अन्यगतीत जातो त्या त्या गत्यानुपूर्वीनाम कर्मामुळे पूर्वशरीराकार असतो. कर्ममुक्त सिध्द झाल्यावर देखील जीव ज्या पूर्वीच्या शरीराकाराने मुक्त होतो त्या त्या विशिष्ट आकाराचा राहतो. आकारवान् असणे हा जीव स्वभाव नाही. नाहीतर सर्व सिद्ध जीव भिन्न भिन्न आकाराचे राहिले नसते. सर्वांचा एकच आकार मानण्याचा प्रसंग आला असता. यावरून आकार - संस्थान हे प्रदेशवत्व गुणाचे कार्य नसून पूल द्रव्याचा पर्याय धर्म आहे. त्यामुळे बाकीच्या द्रव्याना आकार आलेला आहे. अलोकाकाश द्रव्याचा पुग्दलाशी संबंध नसल्यामुळे ते निराकार आहे तथापि आकाश द्रव्य बहुप्रदेशी अनंत प्रदेशी आहे. - Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार द्रव्य लक्षण समुत्पादव्यय ध्रौव्य लक्षणं क्षीण कल्मषाः । गुणपर्ययवद् द्रव्यं वदन्ति जिन पुंगवाः ।। ५ ।। .' अर्थ- अठरा दोषानो रहित वीतराग - सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवंतानी द्रव्याचे लक्षण सत् सांगून (सद् द्रव्य लक्षणं) ते सत् उत्पाद - व्यय -- ध्रौव्य या तीन अंशधर्मानी युक्त म्हटले आहे. (उत्पाद - व्यय – ध्रौव्य युक्तं सत्) अर्थात प्रत्येक वस्तु प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक द्रव्य हे शाश्वत अनादिनिधन सत् स्वरूप आहे. वस्तूचा हा सतधर्म प्रतिपक्ष सापेक्ष आहे. अर्थात् सत्चा प्रतिपक्ष उत्पाद - व्ययरूप असत् त्याने सहित आहे. . . .... ... येथे असत् याचा अर्थ तुच्छभावा असत् हा अभिप्रेत नसून उत्पाद - व्ययरूप परिणमशील असत अभिप्रेत आहे. वस्तुचे सत् लक्षण हे सत् - असत् स्वरूप अनेकान्तात्मक - परस्पर - विरोधी उभय धर्मात्मक आहे. या वस्तूच्या सत् - असत् धर्मालाच शास्त्रीय भाषेत उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य स्वरूप म्हणतात - त्यालाच सामान्य विशेष किंवा द्रव्य - गुण - पर्याय अशी शास्त्रीय परिभाषेत नावे आहेत. वस्तुचा सामान्य धर्म द्रव्य धर्म किंवा गुणधर्म हा सदा सत्रूप, ध्रुव, एकरूप, अभेद रूप तत्रूप - अन्वयरूप असतो. वस्तूचा विशेष धर्म पर्याय धर्म हा असत् रूप - उत्पाद - व्ययरूप, अध्रुवरूप, अनेकरूप, भेदरूप - अतत् रूप व्यतिरेक स्वरूप असतो. ___ याप्रमाणे प्रत्येक वस्तु सत् - असत्, उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य युक्त, द्रव्य गुण - पर्याय वान्, सामान्य - विशेषात्मक, एक - अनेकात्मक, नित्य - अनित्यात्मक, भेद -- अभेदात्मक, अन्वय व्यतिरेकात्मक इत्यादि परस्पर विरोधी धर्मानी युक्त असून देखील एकाच वस्तूमध्ये युगपत् हे परस्पर विरोधी धर्म अविरोधरूपाने, अविनाभ व रूपाने निरनिराळया नय – निक्षेप विवक्षेने राहतात, हे सिद्ध करणे हे अनेकान्त जैन शासनाचे वैशिष्ट्य आहे. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार वस्तूचा उत्पाद धर्म द्रव्यस्य स्यात् समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य च । भावान्तरपरिप्राप्ति निजां जातिमनुज्झतः ॥ ६ ॥ अर्थ- चेतन किंवा अचेतन द्रव्य आपल्या द्रव्यधर्माला किंवा गुणधर्माला न सोडता पूर्वपर्यायाचा त्याग करून नवीन पर्याय धारण करते त्यालाच उत्पाद म्हणतात. यद्यपि वस्तूचा हा उत्पाद धर्म नवीन पर्याय रूपाने उत्पाद रूपाने म्हटला जातो तरी तो उत्पाद पूर्वपर्यायाचा व्ययस्वरूप आहे व त्यामध्ये त्याच क्षणी द्रव्यधर्माचे ध्रुवत्व देखील आहे. जरी सामान्यपणे उत्पाद हा नवीन पर्यायाचा म्हटला जातो तरी तो उत्पादरूप पर्याय केवळ उत्पाद स्वरूप नसून पूर्वपर्यायाचा व्ययस्वरूप आहे व त्या नवीन पर्यायामध्ये अन्वयरूपाने द्रव्यधर्म ध्रुव असतो द्रव्य नवीन पर्यायरूपाने उत्पन्न होत असताना देखील द्रव्य आपला द्रव्यपणा सोडीत नाही. या अपेक्षेने वस्तु प्रत्येक समयी उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य या तीन्ही लक्षणानी सदा सर्वदा युक्त असते. वस्तूमध्ये हे प्रत्येक समयी उत्पाद रूपाने उत्पन्न होणारे पर्याय वस्तूमध्ये नसलेले बाहेरून येत नाहीत. किंवा वस्तूचा नष्ट होणारा पूर्वपर्याय वस्तूतून बाहेर जात नाही. वस्तूमध्ये वाढ होत नाही किंवा वस्तू कमी होत नाही. हे सर्व भत - भावी पर्याय वस्तू-तूनच नियत क्रमबद्ध रूपाने आपल्या नियत स्वकाली - नियत स्वभावशक्ति सामर्थ्याने प्रतिसमय उत्पन्न होतात व उत्तर समयी द्रव्यातच विलीन होतात. पूर्वपर्याय विशिष्ट द्रव्यच उत्तरपर्यायाचे कारण असते व उत्तरपर्याय विशिष्ट द्रव्यच पूर्वपर्याय विशिष्ट द्रव्याचे कार्य असते. असा द्रव्याच्या पूर्वोत्तरपर्यायामध्ये नियत क्रमबद्ध कार्य - कारणभाव - परिणमनशील - अर्थक्रियाकारित्व सुव्यवस्थित आहे. वस्तूच्या या नियतक्रमबद्ध अर्थक्रियेमध्ये - परिणमनक्रियेमध्ये कोणतेही निमित्तभूत परद्रव्य अथवा आपले स्वद्रव्य देखील अक्रमरूप - मागेपुढे करणे रूप परिवर्तन करू शकत नाही असा वस्तुगत स्वभाव आहे. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार ज्या पर्यायाचा स्थितिकाल व पर्यायकाल भिन्न असतो त्यावेळी स्थितिकाळामध्ये स्थित्यंतर होऊन पर्यायकाल समान स्थिति काल बदलू शकतो पण पर्यायकालामध्ये परिवर्तन होत नाही. असा वस्तुस्वभाव आहे. वस्तूचा व्ययधर्म स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविधस्य हि विगमः पूर्वभावस्य व्यय इत्यभिधीयते ॥ ७ ॥ अर्थ- चेतन अचेतन द्रव्य आपल्या द्रव्यधर्माला - गुणधर्माला न सोडता त्याच्या पूर्वपर्यायाचा प्रध्वंसरूप - अभाव होणे याला व्यय म्हणतात. उत्पादाप्रमाणे हा व्ययधर्म देखील एकटा राहात नसून नवीन पर्यायाचा उत्पादस्वरूप व अन्वयरूप द्रव्यधर्माचे ध्रुवत्व सहित त्रिलक्षणस्वरूप असतो. प्रत्येक द्रव्य सदा सर्वदा भावी भूत पर्यायधर्माच्या समुदायाने सदा परिपूर्ण - अखंड - अभेद रूप असते. अनित्यवादी बौद्ध मतवादी या पूर्वोत्तर पर्यायाच्या परिवर्तनाला पूर्वपर्यायाचा व्यय नाश व नवीन पर्यायाचा उत्पाद या नावाने सकेत करतात. - नित्यवादी सांख्यमतवादी यालाच आविर्भाव - तिरोभाव या नावाने संकेत करतात. - अनेकान्तवादी जैन शासनामध्ये यालाच 'भूत्वा भवन' रूपाने संकेत करतात. 'भूत्वा' शब्द हा व्यय किंवा तिरोभावाचा सूचक आहे. 4 'भवन' शब्द हा उत्पाद किंवा आविर्भाव यांचा सूचक आहे. भूत्वा - भवन हे दोन्ही शब्द वस्तूच्या ध्रुवत्व स्वभावाचे सूचक आहेत. ध्रुवत्वाशिवाय उत्पादव्यय होऊ शकत नाही. तसेच उत्पाद - व्ययाशिवाय वस्तु ध्रुव राहू शकत नाही. असा या परस्पर विरोधी धर्माचा अविरोध - अविनाभाव आहे हे अनेकान्त जैन शासनाने सिद्ध केले आहे. - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार वस्तूचा ध्रुवधर्म समुत्पाद - व्ययाभावो यो हि द्रव्यस्य दृश्यते । अनादिना स्वभावेन तद् ध्रौव्यं ब्रुवते जिनाः ॥ ८ ॥ अर्थ- द्रव्याचा पूर्वपर्यायरूपाने व्यय, नवीन पर्यायरूपाने उत्पाद होत असताना देखील दोन्ही अवस्थेमध्ये जो अन्वयरूप द्रव्यधर्म उत्पाद - व्यय न होता सदासर्वदा ध्रुवस्वभावरूपाने विद्यमान असतो त्याला सर्वज्ञ जिनदेवानी ध्रौव्य म्हटले आहे. धर्म - अधर्म आकाश व काल या द्रव्यांचे नेहमी शुद्ध परिणमनच होते. पुदगल द्रव्य व जीवद्रव्य अन्य द्रव्याच्या संयोगवश विभावरूप परिणमन होत असताना देखील वस्तूचा हा ध्रुवत्वधर्म सदा सत्रूप, एकरूप, ध्रुवरूप - शुद्धरूपच राहतो. पर्याय धर्मरूपाने जरी पुद्गल व जीव अशुद्ध अवस्था परिणमन करतात तथापि त्या अशुद्ध अवस्थेत देखील द्रव्याथिकनयाने द्रव्यधर्मरूपाने दोन्ही द्रव्य नित्य शुद्धच असतात. जीव कर्मसंयोगाने सहित असताना देखील किंवा रागपरिणामरूपाने परिणमन करीत असताना देखील जीवाचा शुद्धज्ञान स्वभाव ध्रुवरूपाने पूर्णज्ञान रूपाने सदा विद्यमान असतो. या ध्रुवस्वभावाच्या आश्रयानेच सरागी - अशुद्धजीव वीतरागी – शुद्ध पर्याय रूप परिणमन करू शकतो. ही स्वभाव दृष्टि - द्रव्यदृष्टि धारण न करता पर्याय दृष्टीने जर सराग अवस्थेत आत्म्याचा स्वभाव सराग - अशुद्ध मानला, वीतराग अवस्था प्राप्त झाल्यानंतर जर स्वभावाला वीतराग - शुद्ध मानले तर स्वभावदृष्टीच्या अभावी हा जीव केव्हाही वीतरागी शुद्ध होऊ शकत नाही. सराग अवस्थेत ही वीतराग - स्वभावाची अनुभूति - शुद्धसंवेदन नितांत आवश्यक आहे. त्याशिवाय पर्यायात शुद्ध - वीतराग होण्याचा दुसरा मार्ग नाही. मी आज अशुद्ध आहे व पुढे शुद्ध व्हावयाचे आहे, किंवा शुद्ध होण्याची शक्ती - योग्यता आहे हा केवळ पर्यायदृष्टिरूप विकल्प Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार जरी प्राथमिक अवस्थेत आवश्यक आहे तथापि तो पर्याय दृष्टिरूप विकल्प सोडून स्वभाव दृष्टिरूप निर्विकल्प अनुभूति झाल्याशिवाय मोक्षमार्गाचा प्रारंभच होत नाही मग मोक्षाची प्राप्ति ती कशी होणार ? द्रव्य-गुण- पर्याय गुणो द्रव्यविधानं स्यात् पर्यायो द्रव्यविक्रिया । द्रव्यं युतसिद्धं स्यात् समुदायस्तयो द्वयोः ॥ ९ ॥ अर्थ- जी शक्ति, प्रकृति, जो स्वभाव द्रव्याला सदा द्रव्यरूपाने कायम ठेवतो त्याला गुण म्हणतात. द्रव्याचे जे ( विकृति - विकार ) परिणमन त्याला पर्याय म्हणतात. गुण व पर्याय यांच्या अयुतसिद्ध समवाय तन्मय - तादात्म्य संबंधाला द्रव्य म्हणतात. एक च सत् चे द्रव्य - गुण - पर्याय हे तीन अंशधर्म आहेत. १ द्रव्यसत्, २ गुणसत्, ३ पर्यायसत्. याप्रमाणे हे भिन्न भिन्न तीन सत् वेगळे नाहीत. एकच सत् तीन अंशधर्मानी कथन केले जाते. कथंचित् भेदरूपाने एकाच सत् चे वर्णन केले जाते. १ सत् - द्रव्य, २ सत् गुण, ३ सत् पर्याय १ संपूर्ण सत् द्रव्य मुखाने द्रव्यरूप म्हटले जाते. २ संपूर्ण सत् गुणमुखाने गुणरूप म्हटले जाते. ३ संपूर्ण सत् पर्याय रूपाने पर्यायरूप म्हटले जाते. गुण व पर्याय यांची एकार्थ वाचक नावे सामान्यमन्वयोत्सर्गे शब्दाः स्युर्गुण वाचकाः । व्यतिरेको विशेषश्च भेदः पर्याय वाचकाः ॥ १० ॥ अर्थ - सामान्य, अन्वय, उत्सर्ग, शक्ति, स्वभाव, धर्म, स्वरूप, लक्षण, ही गुणाची एकार्थ वाचक नावे आहेत. व्यतिरेक विशेष, अपवाद, परिणमन, बहिस्तत्त्व, तावत्काळ धारण केलेले रूप स्वभाव विभाव अवस्था, स्वलक्षण, विलक्षण, परिणति, ही सर्व पर्यायाची एकार्थ वाचक नावे आहेत. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार गुण व द्रव्य यांत कथांचित् अभेद गुणैविना न च द्रव्यं विना द्रव्याच्च नो गुणाः । द्रव्यस्य च गुणानां च तस्मादव्यतिरिक्तता ।। ११ ।। अर्थ - गुणाशिवाय वेगळे द्रव्य राहू शकत नाही. सर्व गुणांच्या समुदायालाच द्रव्य हे एक नाव आहे. द्रव्याशिवाय गुण वेगळे राहू शकत नाहीत. गुणांचा आधार द्रव्य आहे. ( द्रव्याश्रयाः गुणाः ) गुण नेहमी द्रव्याच्या आश्रयाने राहतात. ( निर्गुणा: गुणा: ) जसे द्रव्य हे गुणवान आहे तसा गुण गुणवान नाही. एका गुणामध्ये दुसरा गुण राहत नाही. परंतु गुणाना सहभावी म्हटले आहे. एका द्रव्यामध्ये जेवढे अनंत गुण असतात त्यांचे अस्तित्व युगपत् असते. द्रव्य ज्याप्रमाणे आपल्यासर्व प्रदेशामध्ये व्यापून आहे त्याप्रमाणे प्रत्येक गुण द्रव्याच्या सर्व प्रदेशामध्ये भागामध्ये व्यापून असतो. द्रव्याच्या एका भागात एक गुण, दुसन्या भागात दुसरा गुण असे गुण खंड खंडरूपाने निरनिराळ्या भागात राहात नाहीत. प्रत्येक गुण प्रतिसमय आपापल्या गुणपर्याय रूपाने परिणमन करतो. सर्व गुणांचे परिणमन युगपत् सहवर्ती अक्रमवर्ती होत असते. प्रत्येक गुणाचे जे प्रतिसमय परिणमन होते त्या सर्व गुणपर्याय समूहाला गुण म्हणतात. अशा अनंत गुणांच्या समुदायाला द्रव्य म्हणतात. याप्रमाणे गुण व द्रव्य यामध्ये नित्य तादात्म्य तन्मय संबंध आहे. पर्याय व द्रव्य यांत कथंचित् अभेद न पर्यायाद् विना द्रव्यं विना द्रव्यान्न पर्ययः । वदन्त्यनन्यभूतत्वं द्वयोरपि महर्षयः ।। १२ ।। अर्थ - गुणांच्या समुदायाला द्रव्य म्हणतात. प्रत्येक गुण हा परिणमनशील आहे. प्रत्येक गुणाचे जे परिणमन तो गुणपर्याय म्हटला जातो. सर्व गुणांचे जे युगपत् परिणमन त्याला द्रव्यपर्याय म्हणतात. गुणसमुदायरूप द्रव्यच स्वयं पर्यायरूप परिणमते म्हणून पर्यायाशिवाय Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० द्रव्य वेगळे नाही. द्रव्याशिवाय पर्याय वेगळा नाही. परमागमाचे उपदेशक आचार्य महर्षी, सर्वज्ञकेवली भगवान् किंवा श्रुतकेवली गणधर यानी पर्याय व द्रव्य यामध्ये कथंचित् अनन्यभाव अभेद सांगितला आहे. तत्वार्थसार उत्पाद व्यय होणे हा पर्यायधर्म आहे न च नाशोऽस्ति भावस्य न चाभावस्य संभवः । भावस्य कुर्युव्ययोत्पादौ पर्यायेषु गुणेषु च ॥ १३ ॥ - अर्थ- सत् स्वरूप द्रव्याचा सतरूपाने द्रव्यरूपाने कदापि नाश होत नाही असत्ची कदापि उत्पत्ति होत नाही. प्रत्येक गुण व गुणसमूहरूप द्रव्य हे प्रतिसमय गुणपर्यायरूपाने व द्रव्यपर्यायरूपाने उत्पाद व्ययरूपाने परिणमन करतात उत्पाद व्ययाशिवाय द्रव्य किंवा गुण हे ध्रुवसत्रूपाने टिकून राहू शकत नाहीत. ध्रुवत्वाशिवाय उत्पाद व्यय परिणमन होऊ शकत नाही. असा उत्पाद व्यय व ध्रौव्य यांचा परस्पर अविनाभाव आहे. द्रव्याची व गुणाची द्रव्यरूपाने गुणरूपाने नित्यता द्रव्याण्येतानि नित्यानि तद्भावान्न व्ययन्ति यत् । प्रत्यभिज्ञानहेतुत्वं तद्भावस्तु निगद्यते ॥ १४ ॥ अर्थ - ( तद्भावाऽव्ययं नित्यं ) वस्तूचा जो गुणस्वभावधर्म द्रव्यधर्म याचा कदापि नाश न होणे यालाच नित्यत्व किंवा ध्रुवत्व म्हणतात. वस्तूचा द्रव्यधर्म किंवा गुणधर्म हा वस्तूच्या सर्व पर्यायामध्ये सदा अन्वयरूपाने तद्भावरूपाने कायम राहतो. कदापि नष्ट होत नाही. तो प्रत्यभिज्ञानाने जाणला जातो. वस्तु पर्यायरूपाने परिणमनशील उत्पाद व्ययरूप अनित्य अध्रुव असत् स्वरूप म्हटली जाते व द्रव्यधर्म गुणधर्म रूपाने अपरिणमनशील Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार ध्रुवस्वरूप नित्य तत्स्वरूप म्हटली जाते. पूर्वोत्तर पर्यायामध्ये ' तो च हा ' असा अन्वयरूप वस्तूचा जो तद्भाव प्रत्यभिज्ञानाने जाणला जातो त्यालाच ध्रुवत्व म्हणतात. द्रव्य द्रव्यरूपाने सदासुव्यवस्थित आहे इयत्तां नातिवर्तन्ते यतः षडपि जातुचित् । अवस्थितत्वमेतेषां कथयन्ति ततो जिनाः ।। १५ ।। अर्थ - ज्याअर्थी ही सहा प्रकारची द्रव्ये आपली द्रव्यमर्यादा उल्लंघन करून कमी जास्त होत नाहीत, सत्चा कदापि नाश होत नाही. असत् चा कदापि उत्पाद होत नाही. सत् स्वरूप सर्व द्रव्ये सदा सत्रूपाने विद्यमान राहतात त्याअर्थी जितेंद्र भगवंतानी सांगितले आहे की सर्व वस्तु व्यवस्था सुव्यवस्थित आहे. सर्व वस्तूंचे आपापले परिणमन नियत क्रमबद्ध होत आहे. आकस्मिक किंवा अक्रम अव्यवस्थित मागेपुढे असे काहीच घडत नाही. ११ जीव अज्ञान भ्रमाने स्वतःचे किंवा दुसऱ्या वस्तूचे परिणमन आपल्या इच्छे प्रमाणे मागे पुढे व्हावे असा पुरुषार्थ प्रयत्न धडपड करू इच्छितो. यद्यपि वस्तु व वस्तुचे परिणमन नियत व्यवस्थित आहे तथापि ज्ञानी नियतिच्या आधीन होऊन प्रमादी स्वच्छंदी बनत नाही. ज्यावेळी जे कार्य घडते तोच त्याचा स्वकाल व ते ज्या कारणाने घडते तोच त्याचा पुरुषार्थ प्रत्येक कार्य आपल्या कारण सामग्रीचा यथायोग्य एकत्र समवाय झाला असताना होते अशा वस्तुव्यवस्था सुव्यवस्थित आहे. रूपी अरुपी द्रव्यभेद शब्दरूप रसस्पर्शगन्धात्यन्तव्युदासतः । पंच द्रव्याण्यरूपाणि रूपिणः पुद्गलाः पुनः ।। १६ ।। अर्थ - ज्या मध्ये शब्द वर्ण रस स्पर्श गंध या मूर्त गुणांचा अत्यंत अभाव आहे अशी धर्म अधर्म आकाश काल व जीव पांच द्रव्ये अरूपी अमूर्त आहेत. पुद्गल द्रव्य रूपी मूर्त आहे. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार पुद्गल द्रव्याशी संसारी जीवाचा जोपर्यंत संबंध आहे तोपर्यंत जीव उपचाराने मूर्त म्हटला जातो. याप्रमाणे मूर्त कर्माचा मूर्त जीवाशीच संबंध होतो अमूर्त शुद्ध जीवाशी कर्माचा सबंध होत नाही. द्रव्याची संख्या धर्माधर्मान्तरिक्षाणां द्रव्यमेकत्वमिष्यते । कालपुद्गलजीवानां अनेकद्रव्यता मता ॥ १७ ।। अर्थ- धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य आकाश द्रव्य ही प्रत्येकी एक एक द्रव्ये आहेत. काल द्रव्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्यात आहेत. लोकाकाशाच्या एक एक प्रदेशावर एक एक कालाणु द्रव्य स्थित आहे. जीव द्रव्य अनंतानंत आहेत साधारण वनस्पति एकेंद्रिय जीवच फक्त अनंतानंत आहेत. बाकी प्रत्येक वनस्पति पथ्वीकाय जलकाय बायकाय अग्निकाय द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिद्रिं असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच, देव व नारकी सर्व जीव असंख्यातच आहेत. मनुष्यामध्ये लब्ध्य पर्याप्तक जीव असंख्यात आहेत. पर्याप्त मनुष्य संख्यात आहेत. एक एक संसारी जीवद्रव्याशी अनंतानंत पुद्गल द्रव्याचा संबंध असल्यामळे पुदगल द्रव्य जीवद्रव्य राशीच्या अनंतपट आहे. द्रव्यामध्ये सक्रिय निष्क्रिय भेद धर्माधमौं नभः कालश्चत्वारः सन्ति निष्क्रियाः । जीवाश्च पुद्गलाश्चैव भवन्त्येतेषु सक्रियाः ॥ १८ ॥ अर्थ- धर्म अधर्म आकाश व काल हे निष्क्रिय आहेत. आकाशाच्या एका प्रदेशावरून दुसऱ्या प्रदेशावर गमन तिला क्रिया म्हणतात. जीव व पुद्गल यांच्यामध्ये क्रियावती शक्ति असल्यामुळे ते सक्रिय आहेत. संसारी जीव कर्माच्या संयोगात चतुर्गति भ्रमण क्रिया करतात. मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावामुळे लोकाच्या अंतापर्यंत गमन करून सिद्ध शिलेवर शाश्वत विराजमान असतात. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार द्रव्यांच्या प्रदेशाचे वर्णन एकस्य जीवद्रव्यस्य धर्माधर्मास्तिकाययोः । असंख्येय प्रदेशत्वमेतेषां कथितं पृथक् ॥ १९ ॥ संख्येयाश्चाप्यसंख्यया अनन्ता यदि वा पुनाः । पुद्गलानां प्रदेशाः स्युरनन्ता वियत स्तु ते ।। २० ।। कालस्य परमाणोस्तु द्वयोरप्येतयोः किल । एकप्रशमात्रत्वादप्रदेशत्वमिष्यते ।। २१ ।। अर्थ- धर्म अधर्मास्तिकाय व प्रत्येक जीव यांचे प्रत्येकी लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश आहेत. पुद्गल द्रव्याचे संख्यात असंख्यात अनंत प्रदेश हे उपचारनयाने म्हटले आहेत. __एका अखंड द्रव्यामध्ये जी आकाशाच्या एक प्रदेशाच्या मापाने बहुप्रदेश कल्पना केली जाते ती मुख्य प्रदेश कल्पना होय. पुद्गल द्रव्याच्या एका परमाणुला एक प्रदेश उपचाराने मानून संख्यात परमाणुच्या स्कंधाला संख्यात प्रदेशी, असंख्यात परमाणुच्या स्कंधाला असंख्यात प्रदेशी, अनंत परमाणूच्या स्कंधाला अनंत प्रदेशी याप्रमाणे उपचारनयाने बहुप्रदेशी म्हटले आहे. शुद्ध पुद्गल द्रव्य एक एक परमाणु व कालाणु हे एक प्रदेशी असल्यामुळे त्याना अ-प्रदेशी म्हटले आहे. द्रव्यांचे अवगाहन क्षेत्र लोकाकाशेऽवगाहः स्याद् द्रव्याणां न पुनर्बहिः । लोकालोकविभागः स्यात् अत एवाम्बरस्य हि ।। २२ ।। अर्थ- सर्व द्रव्यांचा अवगाह लोकाकाशात आहे. लोकाकाशाच्या बाहेर अलोकाकाशात फक्त आकाश द्रव्य असते. बाकीची द्रव्ये राहात नाहीत. या कारणाने आकाश एक अखंड द्रव्य असून देखील आकाशाचे दोन विभाग आहेत १ लोकाकाश २ अलोकाकाश आकाशाच्या जेवढया मध्य भागात जीव पुद्गलादि सर्व द्रव्ये राहतात त्याला लोकाकाश म्हणतात. लोकाकाशाच्या खाली वर सर्व दिशेला अलोकाकाश म्हणतात. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तृतीय अधिकार धर्म -- अधर्म यांचे अवगाह क्षेत्र लोकाकाशे समस्तेऽपि धर्मधर्मास्तिकाययोः । तिलेषु तैलवत् प्राहुरवगाहं महर्षयः || २३ || अर्थ - धर्म व अधर्म अस्तिकाय द्रव्यांचे अवगाह क्षेत्र संपूर्ण लोकाकाशामध्ये तिळामध्ये ज्याप्रमाणे तेल सर्वत्र व्यापून असते त्याप्रमाणे व्यापून आहे असे महर्षी नी परमागमात सांगितले आहे. जीव द्रव्याचे अवगाह क्षेत्र संहाराच्च विसर्पाच्च प्रदेशानां प्रदीपवत् । जीवस्तु तदसंख्येयभागादीनवगाहते । २४ ॥ अर्थ - जीवाच्या आत्मप्रदेशामध्ये दिव्याच्या प्रकाशाप्रमाणे संकोच विस्तार शक्ती असल्यामुळे जीवाचे अवगाह क्षेत्र जघन्यपणे लोकाकाशाच्या असंख्यातवाभाग प्रमाण सूक्ष्म जीवाची शरीर अवगाहना असंख्यात प्रदेश प्रयाण आहे जीवाच्या शरीराचा उत्कृष्ट अवगाह महामत्स्याचा अवगाह एक हजार योजन प्रमाण आहे. केवली समुद्घात करताना जीवाचे अवगाह क्षेत्र संपूर्ण लोकाकाश प्रमाण व्यापक होते. पुद्गलाचे अवगाह क्षेत्र लोकाकाशस्य तस्यैकप्रदेशादोंस्तथा पुनः । पुद्गला अवगाहन्ते इति सर्वज्ञशासनं ॥ २५ ॥ अर्थ - पुद्गल द्रव्याचे अवगाह क्षेत्र एक पुद्गल परमाणु लोकाकाशाच्या एक प्रदेशामध्ये राहतो. दोन परमाणूचा द्वयणुक स्कंध दोन प्रदेशामध्ये, तीन परमाणूंचा त्र्यणुक स्कंध तीन प्रदेशामध्ये याप्रमाणे संख्यात असंख्यात प्रदेश प्रमाण अवगाह क्षेत्र आहे. सर्वात मोठा एक महास्कंध लोकाकाश प्रमाण आहे. त्याचे आधारावरच धर्म अधर्म द्रव्य लोकाकाश प्रमाण अवगाह क्षेत्रात राहतात. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार एक प्रदेशामध्ये अनेक परमाणूंचा अवगाह अवगाहन सामर्थ्यात् सूक्ष्मत्वपरिणामिनः । तिष्ठन्त्येकप्रदेशेऽपि बहवोऽपि हि पुद्गलाः ॥ २६ ।। एकापवरकेऽनेक प्रकाशस्थिति दर्शनात् । न च क्षेत्रविभागः स्यान्न चैक्यमवगाहिनां ।। २७ ।। अर्थ- अवगाहन गुण सामर्थ्यामुळे पुद्गल परमाणु सूक्ष्मत्व परिणामाला धारण करून आकाशाच्या एका प्रदेशात देखील अनेक पुद्गल परमाणु राहू शकतात. ज्याप्रमाणे एकाच खोलीमध्ये अनेक दीपकांचा प्रकाश एकत्र राहू शकतो त्याप्रमाणे अनेक परमाणु भिन्न भिन्न क्षेत्रात न राहता आपापले भिन्न द्रव्यत्व कायम ठेवून एकरूप न होता एकाच प्रदेशात राहू शकतात. शंका - समाधान अल्पेऽधिकरणे द्रव्यं महीयो नावतिष्ठते । इदं न क्षमते युक्ति दुःशिक्षितकृतं बचः । २८ ॥ अल्पक्षेत्रे स्थितिर्दृष्टा प्रचयस्य विशेषतः । पुद्गलानां बहूनां हि करीषपटलादिषु ॥ २९ ॥ अर्थ- शंका येथे शंकाकार शिष्य प्रश्न करतो की एकप्रदेशरूप लहान अवगाह क्षेत्रामध्ये अनेक परमाण कसे राहतात ? समाधान - या शंकेचे समाधान करताना आचार्य म्हणतात की विचार न करतां केलेला प्रश्न युक्तियुक्त वाटत नाही. एका गोवरीतून निघालेला धूम पटल आकाशामध्ये केवढा मोठा पसरलेला दिसतो. त्याप्रमाणे अल्प क्षेत्रात देखील पुष्कळ पुद्गल परमाणूचा अवगाह बाधक ठरत नाही. आकाशाच्या एका प्रदेशामध्ये व एक प्रदेशस्थित एका पुद्गल परमाणूमध्ये अशी अवगाहन शक्ती असते की अनेक परमाणू देखील तेवढ्याच क्षेत्रात अवगाह करू शकतात. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार द्रव्यांचा परस्पर उपकार धर्मस्य गतिरत्र स्यायदधर्मस्य स्थितिर्भवेत् । उपकारोऽवगाहस्तु नभसः परिकीर्तितः ॥ ३० ।। पुद्गलानां शरीरं वाक् प्राणापानौ तथा मनः । उपकारः सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा ॥ ३१ ॥ परस्परस्य जीवानामुपकारो निगद्यते । उपकारस्तु कालस्य वर्तना परिकीतिता ॥ ३२ ॥ अर्थ- गमन करण्यास तत्पर अशा जीव पुद्गलाना गमन करण्यास सहायभूत होणे हा धर्मद्रव्याचा उपकार आहे. स्थिर राहण्यास उद्युक्त अशा जीव-पुद्गलाना स्थिर राहण्यास सहायभूत होणे हा अधर्म द्रव्याच्या उपकार आहे. जीवादि सर्व द्रव्याना राहण्यास अवगाह देणे हा आकाश द्रव्याचा उपकार होय. शरीर-वाणी-श्वासोच्छ।स व मन, तसेच सुख-दुःख, जन्म-मरण, हा पुद्गलांचा जीवावर व जीव संबंधी पुद्गलावर व पुद्गलांचा अन्य पुद्गलावर उपकार आहे. जीवांचा अन्य जीवावर जो परस्पर सुख-दुखादिव-जन्म-मरणास निमित्तभूत उपकार किंवा अपकार तो सर्व निमित्तमात्र उपकार म्हटला जातो. काल द्रव्य सर्व द्रव्यांचे जे प्रतिसमय परिणमन होते त्यास वर्तना मात्र निमित्त होणे हा काल द्रव्याचा उपकार आहे. धर्म द्रव्य लक्षण क्रियापरिणतानां यः स्वयमेव क्रियावतां आदधाति सहायत्वं स धर्मः परिगीयते ।। ३३ !! जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये गत्युपग्रहे । जलवन्मत्स्यगमने धर्मः साधारणाश्रयः ।। ३४ ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार १७ अर्थ- स्वयं क्रिया करण्यास समर्थ असणा-या अशा क्रियापरिणत जीव व पुद्गलाना ज्या प्रमाणे पाणी माशाना गमन करण्यास निमित्त मात्र असते त्याप्रमाणे गमन करण्यास जे सर्व साधारण निमित्त मात्र असते त्याला धर्मद्रव्य म्हणतात. अधर्म द्रव्य लक्षण स्थित्या परिणतानां तु सचिवत्वं दधाति यः । तमधर्म जिनाः प्राहुनिरावरण दर्शनाः ॥ ३५ ॥ जीवानां पुदगलानां च कर्तव्ये स्थित्युपग्रहे । साधारणाश्रयोऽधर्मः पृथिवीव गवां स्थितौ ॥ ३६ ।। अर्थ- स्थिर राहण्यास उद्युक्त अशा जीव व पुद्गलाना जे द्रव्य स्थितिरुप उपग्रह-उपकार करण्यास साधारण आश्रय असते त्यास अधर्म द्रव्य म्हणतात. ज्या प्रमाणे पृथ्वी-गाय-बैल याना स्थिर राहण्यास निमित्त मात्र सहाय होते. त्याप्रमाणे अधर्मद्रव्य निमित्त मात्र सहाय होते. अथवा ज्या वाटसरुना झाडाची थंडगार छाया विसावा घेण्यासाठी निमित्तमात्र सहाय होते. येथे निमित्त मात्र-साधारण आश्रय याचा अर्थ धर्मद्रव्य हे गति परिणत किंवा स्थिति परिणत नसलेल्या जीव पुद्गलाना बलात् प्रेरक निमित्त होत नाहीत. उदासीन निमित्त मात्र होतात. त्याप्रमाणे सर्व द्रव्यांच्या या परस्पर उपकार-प्रत्युपकार प्रकरणामध्ये एक द्रव्य दुसऱ्या द्रव्याच्या कोणत्याही परिणमन क्रियेमध्ये केवळ निमित्त मात्र उदासीन निमित्त असतात. कोणत्याही संयोग किंवा वियोग कार्यात व्यवहार नय प्रधान भाषेत निमित्त मात्र सहकारक म्हटले जातात. वास्तविक परमार्थतः एकमेकाचा संयोग किंवा वियोग हा अन्य द्रव्याच्या परिणमन कार्यात कारक किंवा प्रेरक नसतो. प्रत्येक द्रव्य आपल्या स्वयं शक्ति सामर्थ्याने स्वयं परिणमते-असा वस्तु स्वातंत्र्यवाद सुव्यवस्थित वस्तुगत स्वभाव आहे. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 १८ तृतीय अधिकार आकाश द्रव्य लक्षण आकाशेऽत्र द्रव्याणि स्वयमाकाशतेऽथवा । द्रव्याणावकाशं वा करोत्याकाशमस्त्यतः ॥ ३७ ॥ जीवानां पुद्गलानां च कालस्याधर्मधर्मयोः । अवगाहन हेतुत्वं तदिदं प्रतिपद्यते ॥ ३८ ॥ अर्थ - ज्या मध्ये जीव- पुद्गल-धर्म-अधर्म - काल ही सर्व द्रव्ये स्वयं राहतात अथवा जे सर्व द्रव्याना अवकाश देते त्यास आकाश द्रव्य म्हणतात. सर्व द्रव्याना राहण्यास अवकाश देणे हा आकाश द्रव्याचा उपकार म्हटला जातो. शंका-समाधान क्रिया हेतुत्वमेतेषां निष्क्रियाणां न हीयते । यतः खलु बलाधानमात्रमय विवक्षितं ।। ३९ ॥ अर्थ - येथे शंकाकार शिष्य प्रश्न करतो की ही धर्मादिक द्रव्ये स्वयं निष्क्रिय असताना जीव पुद्गलाना गति-स्थिति क्रिया करण्यास कसे निमित्त होतात ? या शंकेचे समाधान करताना आचार्य म्हणतात येथे उपकार प्रकरणामध्ये धर्मादिक द्रव्याना गति-स्थिति क्रिया हेतुरुप म्हटले ते केवळ बलाधानमात्र विवक्षित आहे यांच्या संयोगात ती ( गतिस्थितिमान् जीव- पुद्गल द्रव्ये ) द्रव्ये गति स्थिति क्रिया करण्यास समर्थ बनतात. त्यांच्यामध्ये नसलेले बल किंवा सामर्थ्य ही द्रव्ये उत्पन्न करतात असे नसून यांच्या सहयोगात ती द्रव्ये आपले गति स्थिति कार्य सुलभरितीने करु शकतात म्हणून त्यांना उपचार नयाने बलाधान निमित्त किंवा उदासीन निमित्त मात्र म्हटले जाते कारक किंवा प्रेरक निमित्त नसतात. येथे 'मात्र' शब्द केवळ कथनमात्र उपचार भाषेचा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार सूचक आहे. परमार्थ कार्य-कारण भावाचा सूचक नाही व्यवहार नय भाषेचे उपचारकथनाचे गढ रहस्य अध्यात्म भाषेचे मर्म जाणल्याशिवाय यथार्थ समजू शकत नाही. काल द्रव्याचे लक्षण स कालो यन्निमित्ताः स्युः परिणामादिवृत्तयः । वर्तनालक्षणं तस्य कथयन्ति विपश्चितः ॥ ४० ॥ अर्थ- सर्व द्रव्यांचे प्रतिसमय होणारे सामान्य परिवर्तन व एक पर्यायरूप परिणामाचे अन्य-अन्य पर्याय रुपाने परिणामान्तर, गति आदि परिणमन क्रियेचा काल, जीवाच्या वयोमानाचे परत्व-अपरत्व-लहानमोठेपणा, वस्तूचा कालाश्रित जुने-नवेपणा या सर्वाचा बोध ज्याचे निमित्ताने होतो त्यास ज्ञानी लोक कालद्रव्य म्हणतात. काल द्रव्याचा उपकार अन्त तकसमया प्रतिद्रव्यविपर्ययं । अनुभूतिः स्वसत्तायाः स्मृता सा खलु वर्तना ॥ ४१ ॥ अर्थ- प्रत्येक द्रव्याच्या आपापल्या प्रतिसमय होणाऱ्या परिणमना मध्ये त्या त्या द्रव्याच्या स्वरुपसत्तेची जी प्रतिसमय होणारी अनुभूती तिला वर्तना म्हणतात. प्रत्येक द्रव्याचा तो निश्चयकाल स्वकाल म्हटला जातो. निश्चय-व्यवहार-कालाचा उपकार आत्मना वर्तमानानां द्रव्याणां निजपर्ययः । वर्तनाकारणात् कालो भजते हेतु कर्तृतां ॥ ४२ ॥ अर्थ- प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय आपापल्या पर्याय रूपाने स्वयं परिणमन करतात- काल द्रव्य त्यांचे बलात् परिणमन करवीत नाही Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार तथापि सर्व द्रव्यांचे परिणमन रूप वर्तना काल द्रव्याच्या समय आदि काल भेदावरुन ज्ञात होते म्हणून वर्तना हेतुत्व हे काल द्रव्याचे लक्षणउपकार या नावाने म्हटला जातो. वर्तना-प्रतिसमय-परिणमन हा निश्चयकाल द्रव्याचा उपकार म्हटला जातो- समय-घटका-पळे-दिवस रात्र इत्यादि व्यवहार कालाच्या द्वारे द्रव्याचे एका पर्यायाचे अन्य-अन्य पर्यायरुप परिणामांतर, गति आदिरुप परिणमन क्रिया, परत्व-अपरत्व- कालकृत लहान मोठेपणा, किंवा जुना-नवेपणा हा सर्व व्यवहार कालाचा उपकार म्हटला जातो. शंका-समाधान न चास्य हेतुकर्तृत्वं निष्क्रियस्य विरुध्यते । यतो निमित्त मात्रेऽपि हेतुकर्तृत्वमिष्यते ॥ ४३ ॥ अर्थ- येथे शंकाकार शिष्य शंका करतो की काल द्रव्य स्वयं निष्क्रिीय असताना अन्य द्रव्याच्या परिणमन क्रियेला ते निमित्त कारण कसे होऊ शकेल ? या शंकेचे समाधान करताना आचार्य म्हणतात. यद्यपि प्रत्येक द्रव्य आपल्या परिणमन शक्तीने स्वयं प्रतिसमय परिणमन करतात. तथापि प्रत्येक कार्याला सर्वसाधारण आश्रय भूत बाह्य निमित्ताची नितांत आवश्यकता असते. (बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगत स्वभावः ) प्रत्येक कार्यामध्ये बाह्य-निमित्त व अभ्यंतर निमित्त या दोन्ही कारणांच्या साधन सामग्रीची समग्रता पूर्णता अविकलता सकलता पूर्ण तयारी ही नितांत आवश्यक असते. त्याशिवाय कार्य होत नाही असा वस्तुचा वस्तुगत स्वभाव आहे. कार्याचे मुख्य-उपादान कर्तृत्व स्वद्रव्याचे सामर्थ्य हे प्रधान निमित्त असते व तदनुकूल इतर बाह्य निमित्ताचा सद्भाव निमित्त मात्र हा सहकारी कारण म्हटला जातो. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय अधिकार कालद्रव्याचा अवगाह एकैकवत्या प्रत्येकमणवस्तस्य निष्क्रियाः लोकाकाशप्रदेशेषु रत्नराशिरिव स्थिताः ।।४४।। अर्थ- लोकाकाशाच्या एक एक प्रदेशावर एक एक कालाणु द्रव्य रत्न राशिप्रचय प्रमाणे लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्यात कालद्रव्य स्थित आहेत. निष्क्रिय आहेत. पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी असल्यामुळे एक प्रदेशी पुदगल परमाणच्या परिणमनास निमित्त भूत काल द्रव्य देखील एक प्रदेशी मानणे क्रम प्राप्त आहे. व्यवहार काळाचे सूचक लिंग व्यावहारिक कालस्य परिणामस्तथा क्रिया। परत्वं चापरत्वं च लिगान्याहमहर्षयः ॥४५।। अर्थ- पुद्गलाचा एक परमाणु अत्यंत मंदगतीने आकाशाच्या एका प्रदेशावरुन दुसन्यप्रदेशाप्रत जाण्यास जो वेळ लागतो त्यास समय म्हणतात. असंख्यात समय म्हणजे एक आवली संख्यात आवली म्हणजे एक मुहूर्त- या प्रमाणे घटका- मुहूर्त- दिवस-रात्र-पक्ष महिना वर्ष इत्यादि हा सर्व व्यवहार काल म्हटला जातो. पुद्गल व जीव द्रव्य यांचे इंद्रियगम्य स्थूल परिणाम-पर्याय, एक पर्यायाचे दुसऱ्या पर्यायरुप परिणमन, एक क्षेत्रावरुन दुसऱ्याक्षेत्रात गमन करणे रुप क्रिया, कालकृत वयोमानाचे परत्व-अपरत्व-लहानमोठेपणा किंवा नवीन-जनेपणा या सर्व व्यवहार-कालाचे ज्ञान करुन देणारी स्थूल चिन्हे आहेत. परिणाम स्वरुप स्वजातेरविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः । परिणामः स निर्दिष्टोऽपरिस्पन्द्रात्मको जिनः ।।४६॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ तत्वार्थसार अर्थ- आपल्या द्रव्य जाति धर्माचे उल्लंघन न करताना जे वस्तूचे प्रतिसमय होणारे परिणमन त्याला परिणाम म्हणतात. यालाच विकृति विकार-अवस्था-पर्याय इत्यादि एकार्थ वाचक नावे आहेत. ज्या परिणममामध्ये प्रदेशाचे परिस्पंदन होते त्याला क्रिया म्हणतात. ज्या परिणमनामध्ये प्रदेशपरिस्पंदन न होता केवळ परिवर्तन होते त्याला परिणाम म्हणतात. हे परिणामरूप परिणमन सर्व द्रव्यामध्ये होते. क्रिया स्वरूप प्रयोग-विस्रसाभ्यां या निमित्ताभ्यां प्रजायते । द्रव्यस्य सा परिज्ञेया परिस्पन्दात्मिका क्रिया ॥ ४७ ।। अर्थ- द्रव्याच्या प्रदेशामध्ये परिस्पन्दनपूर्वक जे द्रव्याचे परिणमन त्याला क्रिया म्हणतात. हे परिस्संदानात्मक क्रियारुप परिणमन जीव व पुद्गल द्रव्यामध्ये होते. क्रियारुप परिणाम दोन प्रकारचा आहे. १) प्रायोगिक २) वैनसिक १) प्रयोगिक- जी क्रिया मनुष्याची बुद्धि -इच्छा-प्रयत्नपूर्वक होते तिला प्रायोगिक क्रिया म्हणतात. जसे मोटार गाडी चालविणे, विमान चालविणे. २) वैससिक- मनुष्याच्या बुद्धि-इच्छा-प्रयत्नाशिवाय जी क्रिया निसर्गत: होते तिला वैनासिक क्रिया म्हणतात. जसे आकाशामध्ये मेघाचे गमन. प्रश्न- गतिरूप क्रिया तर धर्म द्रव्याचा उपकार आहे तो व्यवहार द्रव्याचा उपकार कसा ? उत्तर- गतिरुप क्रिया जरी धर्म द्रव्याचा उपकार म्हटला जातो तथापि त्या क्रियेच्या कालक्रमाचा बोध हा व्यवहारकालामुळे होतो म्हणन येथे क्रिया व क्रियेची कालक्रमाने होणारी क्रमबद्धता हा व्यवहार कालाचा उपकार होय. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार परत्व अपरत्व ज्योतिर्गतिपरिच्छिन्नो मनुष्यक्षेत्रवर्त्यसौ । यतो न बहिस्तस्माज्ज्योतिषां गतिरिष्यते ।। ४८ ।। अर्थ- सूर्य-चंद्र-नक्षत्र यांच्या गतिवरून दिवस-रात्र-घटका मुहर्त इत्यादि व्यवहारकालाचा बोध होतो या ज्योतिष्क विमानांचे गमन फक्त मनुष्य लोकात अडीच द्वीपातच होते. अडीच द्वीपाच्या बाहेरील सर्व ज्योतिष्क विमाने स्थिर असतात गतिमान नसतात. या ज्योतिष्क विमानांच्या गतिवरुन दिवस - रात्र इत्यादि कालमानावरुन हा वयाने लहान हा वयाने मोठा, ही वस्तू नवी ही वस्तु जुनी असा बोध होतो म्हणून परत्व-अपरत्व हा काल द्रव्याचा उपकार म्हटला जातो. व्यवहार कालाचे भेद भतश्च वर्तमानश्च भविष्यनिति च विधा। परस्परव्यपेक्षत्वाद् व्यपदेशो हानेकधा ॥ ५० ॥ यथानुसारत: पंक्ति र्बहूनामिह शाखिनां । क्रमेण कस्यचित् पुंस एकैकानोकहं प्रति ॥ ५१ ॥ संप्राप्तः प्राप्नुवन् प्राप्स्यन व्यपदेश: प्रजायते । द्रव्याणामपि कालाणूंस्तथानुसरतामिमान । ५२ ॥ पर्यायं चानुभवतां वर्तनाया यथाक्रमं । भूतादिव्यवहारस्य गुरुभि: सिद्धिरिष्यते ।। ५३ ।। भूतादिव्यपदेशोऽसौ मुख्यो गौणोह्यनेहसि । व्यवहारिककालोऽपि मुख्यतामादधात्यौ ।। ५४ ।। अर्थ- दिवस मास वर्ष इत्यादि व्यवहारकालाच्या अपेक्षेने कालाचे तीन भेद व्यवहार भाषेत केले जातात. १) भूतकाल Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ तत्वार्थसार २) वर्तमान काल ३) भविष्य काल. कालचक्राच्या परस्पर भिन्न भिन्न अपेक्षेने कालाचे अनेक भेद देखील होतात. ज्याप्रमाणे एकादा पथिक वाटसरु रस्त्याने चालला असताना त्याला झाडांची रांग लागते. तो एका झाडाला ओलांडून दुसऱ्या झाडापाशी येतो तेव्हा मागचा वृक्ष की पूर्वी जो वर्तमान होता तो भूत होतो. पुढचा वृक्ष भविष्य होतो. त्याचप्रमाणे प्रत्येक द्रव्याचा वर्तमान पर्याय हा आज वर्तमान म्हटला जातो तोच पर्याय पुढच्या समयी भूत म्हटला जातो. जो आज भावी आहे तो पुढील समयात वर्तमान बनतो. याप्रमाणे ऊर्ध्व प्रचय रूप कालाच्या समयामध्ये भिन्न भिन्न अपेक्षेने भूत वर्तमान भविष्य कालाचा व्यवहार हा कालक्रमाने सारखा बदलत राहतो. कालाणुद्रव्य रुप निश्चयकाल मुख्यकाल हा स्थिर असतो परंतु कालचक्ररुपानें परिणामाच्या या व्यवहार कालात भूत भविष्य वर्तमान हे व्यवहार सारखे बदलत राहतात. ज्या प्रमाणे कालचक्राच्या परिणामात एका समयानंतर दुसरा समय हा जसा नियतक्रमबद्धपणा आहे तसाच प्रत्येक वस्तूच्या ऊर्ध्वप्रचयरुप पर्याय परिवर्तनात एकानंतर दुसरा पर्याय असा नियत क्रमबद्धपणा सुव्यवस्थित आहे. 3. पुद्गलाचे लक्षण भेदादिभ्यो निमित्तेभ्यः पूरणाद् गलनादपि । पुद्गलानां स्वभावज्ञः कथ्यन्ते पुद्गला इति ॥ ५५ ॥ अर्थ - पुद्गलांच्या संघातरुप स्कंधा पासून पुद्गल परमाणू भेद होऊन विभक्त होतात व भेदाचे विभक्त झालेले परमाणु पुनः संघात होऊन स्कंधरुप होतात. काही अचाक्षुष स्कंघातील परमाणू भेद रुपाने विभक्त होऊन चाक्षुष स्कंधामध्ये संघात रुपाने एकत्र होतात. याप्रमाणे पुद्गलपरमाणूंचे कधी भेदरुप, कधी संघातरुप कधी भेदपूर्वक संघात असे पूरण- गलन सारखे सुरु असते म्हणून वस्तुस्वभावज्ञ ज्ञानी मुनीनी त्याना पुद्गल असे सार्थक नांव ठेवले आहे. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार अर्थ- पुद्गलाचे दोन भेद आहेत. १) अणु २ ) स्कंध पुद्गलाच्या सर्वात लहान अविभागी द्रव्याला परमाणु म्हणतात. परमाणुचे ही दोन भेद आहेत १) कारण परमाणु २) कार्य परमाणु. परमाणु संघातरुपाने स्कंध होण्यास योग्य असतो त्यास कारण परमाणु म्हणतात. १ ) जो टीप पुद्गलाचे भेद अणु-स्कन्ध विभेदेन द्विविधाः खलु पुद्गलाः । स्कंधो देश : प्रदेशश्च स्कंधस्तु त्रिविधो भवेत् ॥५६॥ २ ) जो परमाणु स्कंधातून भेदरूपाने विभक्त होऊन परमाणुरुप होतो त्यास कार्य परमाणु म्हणतात. स्कंधाचे ३ भेद आहेत. १) स्कंध २ ) देश ३ ) प्रदेश १ स्कंध भेद वर्णन अनन्त परमाणूनां संघात स्कंध इष्यते । देशस्तस्याधमर्द्धार्द्ध प्रदेशः परिकीर्तितः ।। ५७ ।। अर्थ - अनंतपरमाणूंच्या संघाताला स्कंध म्हणतात. स्कंधाच्या अर्धभागाला देश म्हणतात. त्याच्या अर्ध भागाला प्रदेश म्हणतात. २५ स्कंध व अणूची उत्पत्ती भेदात् तथा च संघातात् तथा तदुभयादपि । उत्पद्यन्ते खलु स्कंधा भेदादेवाणवः पुनः ।। ५८ ।। स्कंध सयल समत्थं तस्स य अद्धं भांति देसोत्ति । अद्धद्धं च पदेसो अविभागी वेव परमाणू ।। गो. जी. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अर्थ- स्कंध हे कधी मोठया स्कंधाचा भेद करुन देखील लहान लहान स्कंध रुपाने उत्पन्न होतो. कधी दोन किंवा दोहोपेक्षा अधिक परमाणूंच्या संघातापासून किंवा दोन लहान स्कंधाच्या संघातापासून स्कंधाची उत्पत्ति होते. कधी भेदपूर्वक संघात होऊन अचाक्षुष स्कंधा-- पासून चाक्षुष स्कंध बनतो. मात्र अणूची उत्पत्ति भेदामुळेच होते. संघातामुळे होत नाही. वास्तविक अणू हा स्वतः सिद्ध पदार्थ असल्यामुळे त्याची उत्पत्ती होत नाही परंतु जो अणु स्कंधरुप झालेला असतो तो पुनः अणूरूप होण्यासाठी भेदाचाच प्रयोग करावा लागतो. परमाणु लक्षण आत्मादिरात्ममध्यश्च तथाऽऽत्मान्तश्च नोन्द्रियैः । गृह्यते योऽविभागी च परमाणुः स उच्यत । ५९ ॥ अर्थ- ज्याला आदि मध्य अंत असे अवयव विभाग नाहीत. परमाणु स्वतःच आदि, परमाणु स्वत: मध्य परमाणु स्वतः अंत स्वरुप आहे ज्याचा पुन: विभाग होत नाही अशा अविभागी द्रव्याला परमाणु म्हणतात. परमाणुचे भेद व परमाणूत किती गुण असतात सूक्ष्मो नित्यस्तथाऽन्तश्च कालिंगस्य कारणं । एक गंधरसश्चैकवर्णो द्विस्पर्शकश्च सः ।। ६० ।। अर्थ- परमाणु हा सर्वात लहान सूक्ष्म असतो. परमाणूचा स्कंध रूपाने उत्पाद-व्यय होतो पण परमाणु सदा नित्यच असतात. परमाण हा स्कंधरुप कार्य लिंगाचे कारण आहे. प्रत्यक परमाणुमध्ये दोन गंधा पैकी (सुगंध दुर्गंध) एक गंध, पाच रसापैकी कोणताही एक रस, पांच वर्णापैकी कोणताही एक वर्ण व स्निग्ध रुक्ष स्पर्शापैकी कोणताही एक स्पर्श व शीत उष्ण स्पर्शापैकी कोणताही एक स्पर्श असे Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार ३ रा २७ दोन स्पर्श एकूण पाच स्पर्शादि गुण असतात स्पर्शापैकी मृदु-कर्कश गुरु-लघु हे भेद स्कंधामध्ये होतात परमाणुमध्ये नसतात. सव अणु व स्कंध वर्णादिमान् असतात. वर्ण गंधरसस्पर्शसंयुक्ताः परमाणवः । स्कन्धा अपि भवन्त्येते वर्णादिभिरनुज्झिताः ॥ ६१ । ___ अर्थ- कोणी अन्यमती वायूमध्ये केवळ स्पर्श मानतात. रस-गंध वर्णं मानीत नाहीत. कोणी अग्नीमध्ये स्पर्श व वर्ण मानतात रस व गंध मानीत नाहीत कोणी पाण्यामध्ये स्पर्श-रस-वर्ण मानतात पण गंध मानीत नाहीत. पृथ्वीमध्ये स्पर्श-रस-गंध-वर्ण हे चारीही गण मानतात. परंतु यद्यपि काही पदार्थात काही गुण व्यक्त दिसत नाहीत तथापि ज्या अर्थी परमाणुमध्ये हे स्पर्शादिगुण नियमाने असतात त्याअर्थी परमाणुपासून उत्पन्न झालेल्या सर्व स्कंध रुप अग्नी पाणी, वारा, पृथ्वी यामध्ये हे चार ही प्रकारचे गुण अविनाभाव रुपाने निरंतर असतात. कोणामध्ये काही गुण मात्र दिसत नाहीत एवढयावरून त्यावस्तूमध्ये त्यांचा अभाव मानणे हे युक्ति संगत नाही. पुद्वलाचे पर्याय वर्णन शब्द संस्थान-सूक्ष्मत्व-स्थौल्य बन्ध-समन्विताः । तमश्छायातपोद्योत भंदवन्तश्च सन्ति ते ।। ६२ ।। अर्थ- शब्द, संस्थान, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, बंध, तम ( अंध:कार ) छाया ( साबली ), आतप, उद्योत, भेदवान पणा हे सर्व पूद्वल द्रव्यांचे पर्याय अवस्थाभेद आहेत. प्रदेशत्व हा जरी सर्व द्रव्यांचा सामान्य गण आहे. तथापि प्रदेशत्व गुणामुळे जो द्रव्याला आकार येतो तो सर्व द्रव्यांचा स्वभाव नसून संस्थान हा केवळ पुदल द्रव्याचा पर्याय आहे. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ तत्वार्थसार काही आचार्यानी अनेक परमाणूंचा मिळून झालेला संस्थानरुप सजातीय व्यंजन पर्याय व पुद्वल व जीव यांच्या संयोगापासून होणारा विजातीय व्यंजन पर्याय केवळ जीव व पुद्वल द्रव्यांचाच मानला आहे. इतर शुद्ध द्रव्यामध्ये संस्थानरुप व्यंजन पर्याय मानलाच नाही. सिद्ध जीवाना जो आकार आहे तो देखील जीवाचा स्वभाव पर्याय नसून पूर्व शरीराच्या संयोगात जो आकार होता तोच कर्माचा अभाव झाल्यानंतर कायम राहतो. जीवाच्या प्रदेशामध्ये संकोच विस्तार रुप संस्थान परिवर्तन कार्य कर्मसंयोगातच होते. कर्माचा अभाव झाल्यानंतर संकोच विस्तार कार्य बंद होते म्हणून सिद्ध जीवाचे पूर्व शरीरारानुरुप नानाविध आकार राहतात. यावरून संस्थान हा पुद्वल पर्याय सिद्ध होतो. शब्दाचे भेद साक्षरोऽनक्षरश्चैव शब्दो भाषात्मको द्विधा । प्रायोगिको वैस्रासिको द्विधाऽभाषात्मकोऽपि च ॥ ६३ ॥ अर्थ- शब्दाचे २ प्रकार आहेत. १) भाषात्मक २) अभाषात्मक भाषात्मक शब्दाचे २ प्रकार आहेत. १) साक्षर २) अनक्षर २) अभाषात्मक शब्दाचे २ प्रकार आहेत. १) प्रायोगिक २) वैनसिक १) साक्षरभाषा- संस्कृत प्राकृत आदि २) अनक्षरात्मक- द्वींद्रियादि तिर्यंचपशंची ३) प्रायोगिक- वीणा बासरीचा आवाज ४) वैस्रसिक- मेघगर्जना संस्थान भद संस्थाणं कलशादीनामित्थं लक्षण मिष्यते । ज्ञेयमम्भोधरादीनाममित्यं लक्षणं तथा ॥ ६४ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार अर्थ- संस्थानाचे २ भेद आहेत. १) इत्थंलक्षण- त्रिकोण चतुष्कोण गोल २) अनित्थं लक्षण- मेघादिकाचे आकार. सूक्ष्मत्व भेद अन्त्यमापेक्षिकं चेति सूक्ष्मत्वं द्विविधं भवेत् । परमाणुषु तत्रान्त्यमन्यद् बिल्वामलकादिषु ॥ ६५ ॥ अर्थ- सूक्ष्मत्वाचे २ प्रकार आहेत. १) अन्तिमसूक्ष्मत्व २) आपेक्षिक १) अन्तिम सूक्ष्मत्व- परमाणु २) आपेक्षिक सूक्ष्मत्व - आवळा, बेल, भोपळा आदि. स्थैल्यके भेद अन्त्यापेक्षिक भेदेन ज्ञेयं स्थौल्यमपि द्विधा । महास्कन्धेऽन्त्यमन्य वदरामल कादिषु ।। ६६ ।। अर्थ- स्थौल्य कर्म प्रकृतीचे देखील २ भेद आहेत. १) अन्त्य २) आपेक्षिक १) अन्तिम स्थलता लोकाकार महास्कन्ध आहे. २) आपेक्षित स्थूलता बोर, आवळा इत्यादी पदार्थ एकमेकापेक्षा स्थूल म्हगले जातात. बंधाचे भेद द्विधा वैससिको बन्धस्तथा प्रायोगिकोऽपि च । तत्र वैससिको वन्हि विद्युदम्भोधराविषु । बंधः प्रायोगिको ज्ञेयो जतुकाष्ठादिलक्षणः ॥६७॥ (पट्पदं) कर्म नोकर्म बन्धो य: सोऽपि प्रायोगिको भवेत् ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अर्थ- बंधाचे २ भेद आहेत. १) वैनसिक २) प्रायोगिक १) वैस्रसिक- मेघाच्या परस्पर संघर्षाणामुळे जी वीज निर्माण होते त्यामध्ये जो अग्नि कणाचा संबंध तो वैससिक बंध होय. २) प्रायोगिक- लाख व लाकूड यांचा जो परस्पर बंध तो प्रायोगिक बंध होय. अथवा, जीवाच्या रागादि परिणामामळ जो जीवाशी कर्म-नोकर्माचा बंध होतो तो प्रायोगिक बंध होय. तम (अंधःकार) लक्षण तमो दृप्रतिबंध: स्यात् प्रकाशस्य विरोधि च ॥६८।। अर्थ- तम अंधःकार हा ही पुद्गल द्रव्याचा पर्याय आहे प्रकाशाच्या अभावात ज्याच्या सद्भावात डोळ्याने पदार्थ दिसत नाही. दृष्टिला जो विरोध होतो त्याला अंध:कार म्हणतात. छाया लक्षण प्रकाशावरणं यत् स्यानिमित्तं षपुरादिकं । छायेति सा परिज्ञेया द्विविधा सा च जायते ।। ६९ ॥ तत्रैका खलु वर्णादि विकार परिणामिनी । स्यात् प्रतिबिंबमात्राऽन्या जिनानामिति शासनं ।। ७० ।। अर्थ- शरीरादिक पुद्गल पदार्थ जेव्हा प्रकाशाचे आड येतात त्यामळे जो प्रकाश रोकला जातो त्याला छाया म्हणतात. छायेचे २ प्रकार आहेत. १) प्रकाशामध्ये जी शरीरादिकाची पडछाया वर्णादि विकार रुप पडते तो छायेचा एक प्रकार होय. २) दर्पणामध्ये किंवा पाण्यामध्ये पदार्थाचे प्रतिबिंब पडते, पदार्थाची आकृति प्रतिबिंबित होते तो छायेचा दुसरा प्रकार होय छाया हा पुद्गल द्रव्याचा पर्याय आहे. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार उद्योत लक्षण आतपोऽपि प्रकाशः स्यादुष्णश्चादित्यकारणः । उद्योतश्चंद्ररत्नादि प्रकाशः परिकीर्तितः ॥ ७१ ॥ आतप अर्थ- सूर्याचा जो उष्ण प्रकाश त्याला आतप म्हणतात. चंद्राच्या किंवा रत्नादि मण्याचा, शीत प्रकाशाला उद्योत म्हणतात. आतप उद्योत हे पुद्गलाचे पर्याय आहेत भेद लक्षण उत्करश्चूर्णिका चूर्णः खण्डोऽणुचटनं तथा । प्रतरश्चेति षड् भेदा भेदस्योक्ता महर्षिभिः ।। ७२ ।। ३१ अर्थ - भेदाचे ६ भेद आहेत. ३ ) चूर्ण ४) खंड ५ ) अणुचटन ६ ) प्रतर १) लाकूड करवतीने कापताना जो बारीक भुसा पडतो त्यास उत्कर म्हणतात. १) उत्कर २) चूर्णिका २) उडीद - मूग यांची जी चुनी तिला चूर्णिका म्हणतात. ३) गहू - ज्वारी याचे बारीक पीठ त्याला चूर्ण म्हणतात. ४) घटाचे जे तुकडे होतात त्याला खंड-खापर म्हणतात. ५) तापलेल्या लोखंडावर घनाचे घाव मारताना जे अग्निचे कण निघतात त्यास अणुचटन म्हणतात. ६) मेघाचे जे पटल वाहतात त्यास प्रतर म्हणतात परमाणूंचा परस्पर बंध होण्याचे नियम विसद्दक्षा: सद्दक्षाः वा ये जघन्यगुणा न हि । प्रयान्ति स्निग्धरुक्षत्वाद् बंध ते परमाणवः ॥ ७३ ॥ संयुक्ता ये खलु स्वस्माद् द्वयाधिक गुणैगुणः । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार बंधः स्यात् परमाणूनां तैरेव परमाणुभिः ॥ ७४ ।। बंधऽधिकगुणो यः स्यात् सोऽन्यस्य परिणामकः । रेणोरधिकमाधुर्यो दृष्ट: क्लिन्नगुडो यथा ।। ७५ ॥ अर्थ- दोन किंवा दोहोपेक्षा अनेक परमाणूंचा जो परस्पर बंध होतो त्यामध्ये मळ कारण त्या परमाणंमध्ये जो स्निग्धत्व रुक्षत्व गण असतो त्यामळे यांचा परस्पर संबंध होतो. स्निग्धत्व किंवा रुक्षत्व गुणाचे जे अविभाग प्रतिच्छेद रुप शक्तिचे अंश त्याना येथे 'गुण' असे म्हटले आहे या अविभाग प्रतिच्छेदामध्ये षट्स्थान पतित हानि वृद्धि होत असते. हानिक्रमाने जेव्हा या अनंत अविभाग प्रतिच्छेदामध्ये हानि होत सर्व जघग्य एक अविभाग प्रतिच्छेद राहतो त्याला जघन्य गुण म्हणतात. जघन्य गुणयुक्त पुद्गल परमाणूचा अन्य कोणत्याही परमाणूशी बंध होत नाही. तसेच ज्या दोन परमाणूमध्ये समान अविभाग प्रतिच्छेद असतील त्यांचा ही परस्पर बध होत नाही. जसे दोन गुणयुक्त परमाणूचा दोन गुणयुक्त परमाणूशी. तीन गुणयुक्त परमाणूचा तीन गुणयुक्त परमाणशी बंध होत नाही. दोन किंवा अधिक परमाणंचा परस्पर बंध होताना एकापेक्षा दुसऱ्यामध्ये २ गण अधिक आवश्यक पाहिजेत. जसे- दोन गुण युक्त परमाणूचा ४ गुणयुक्त परमाणूशी बंध होतो. तीन गुणयुक्त परमाणूचा पाच गुण युक्त परमाणशी बंध होतो. ज्या परमाणूमध्ये स्निग्ध किंवा रुक्ष गुणाचे दोन अधिक अविभाग प्रतिच्छेद असतील तो परमाणू दुसऱ्या कमी अविभाग प्रतिच्छेद असणाऱ्या परमाणूला आपल्या अधिक गुणरुपाने परिणमवितो. जसे- ओला गूळ त्यावर जे धूळीचे रेणुकण येऊन चिकटतात. त्या रेणुकणामध्ये माधुर्य गुणरुपाने परिणमन होते. पुद्गल परमाणूमध्ये हे अविभाग प्रतिच्छेदरूप गुण काहीमध्ये समसंख्यारुप २-४-६-८ याप्रमाणे असतात काही परमाणू मध्ये विषम संख्यारुप ३-५-७-९ याप्रमाणे असतात. समान जातीय स्निग्ध गुण युक्त परमाणूशी देखील बंध होतो. रुक्षगुणयुक्त परमाणूचा रुक्षगुणयुक्त परमाणूशी देखील बंध होतो किंवा परस्पर विजातीय स्निग्ध गुणयुक्त Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार ३ परमाणूचा रुक्षगुण युक्त परमाणूशी देखील बंध होतो. परंतु त्यामध्ये परस्पर दोन अधिक अविभागच्छेदरुप अंश आवश्यक पाहिजेत. जघन्य गुणाचा किंवा परस्पर समान अविभाग प्रतिच्छेद युक्त परमाणूंचा परस्पर बंध होत नाही. हा वस्तु विज्ञान सिध्दांत नियम आहे. स्कंधाचे अनंत प्रकार व्द्यणुकाद्याः किलानन्ता: पुद्गलानामनेकधा। सचित्तमहास्कंधा पर्यन्ता बंध पर्यया: ॥ ७६ ॥ अर्थ- दोन परमाणूच्या स्कंधाला व्यणुक स्कंध, तीन अणूच्या स्कंधाला ध्यणुक स्कंध असे स्कधाचे अनंत प्रकार आहेत. स्कंधामध्ये सर्वात मोठा स्कंध लोकाकाश प्रमाण महास्कंध आहे त्यामुळे या लोकाकाशाला विशिष्ट आकार आलेला आहे आकारधर्म हा पुद्गलादा पर्याय आहे. याप्रमाणे पुद्गलाच्या बंध पर्यायाचे वर्णन केले. अजीवतत्त्व समारोप इतीहाजीवतत्त्वं यः श्रद्धत्तं वेत्त्युपेक्षते । शेषतत्त्वः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग भवेत् ।। ७७ ।। अर्थ- याप्रमाणे जो वाकी च्या ६ तत्त्वा सहित या अजीव तत्त्वाचे स्वरूप जाणून श्रद्धा ठेवतो, त्यांचे यथार्थ स्परूप जाणून त्याविषयी परम उपेक्षाभाव राग-द्वेषरहित साम्यभाव धारण करतो त्याला क्रमाने मोक्षाची प्राप्ति हीते. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ तत्वार्थसार अधिकार ४ था ( आस्रव तत्त्व वर्णन ) मंगलाचरण अनन्तकेवलज्योतिः प्रकाशित जगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् सर्वानास्रवः परिचक्ष्यते ॥ १ ॥ अर्थ - ज्यानी आपल्या दिव्य केवलज्ञान ज्योतिने तीन्ही लोकातील सर्व चेतन-अचंतन पदार्थ प्रकाशित केले. अशा सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवंताना नमस्कार करुन या अधिकारात आस्रवतत्त्वाचे वर्णण केले जाते आस्त्रवलक्षण कायवाङ्मनसां कर्म स्मृतो योगः स आस्रवः । शुभः पुण्यस्य विज्ञेयो विपरीतश्च पाप्मनः || २ || सरसः सलिलावाहि द्वारमत्र जनैर्यथा । तदास्रवण हेतुत्वादा स्त्रवोव्यपदिश्यते ॥ ३ ॥ आत्मनोऽपि तथैवेषा जिनैर्योगप्रणालिका । कर्मास्रवस्य हेतुत्वादास्रवो व्यपदिश्यते ॥ ४ ॥ अर्थ- जीवाच्या योगनामक विभावशक्तीच्या निमित्ताने मनवचन- काय यांच्या अवलंबनाने आत्मप्रदेशांचे जे परिस्पदन होते त्यास योग म्हणतात. त्या योग सहित उपयोग परिणामामुळे नवीन कर्माचा आस्रव होतो म्हणून कारणामध्ये कार्याचा उपचार करून योगालाच आस्रव म्हटले आहे. तो योग दोन प्रकारचा आहे. १ शुभयोग २ अशुभयोग. १) शुभयोग - खरादेव शास्त्र - गुरु यांची भक्ति रूप जी मन-वचन-कायप्रवृत्ति त्याला शुभयोग म्हणतात. २) अशुभयोग - पंचेंद्रियाच्या विषयसेवनाकडे जी मन-वचन-कायप्रवृत्ति तिला अशुभयोग म्हणतात. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार १) शुभयोग हा प्रशस्त राग पूर्वक असतो त्यामुळे शुभयोगाने जीवाला सातादि-पुण्यकर्माचा आस्रव होतो. २) अशुभयोग हा अप्रशस्त रागपूर्वक असतो त्यामुळे अशुभयोगाने जीवाला पापकर्माचा आस्रव होतो. ज्याप्रमाणे सरोवरामध्ये नदीचे पाणी येण्याचे जे द्वार त्याला व्यवहारजन भाषेत आस्रव म्हणतात. त्याप्रमाणे जीवाच्या मन-वचनकाय प्रवृत्तिरूप योग प्रणालिकेच्या द्वारे नवीन कर्माचा आस्रव होतो म्हणून योग परिणामालाच आस्रव म्हटले आहे. आसवाचे भेद जन्तवः सकषाया ये कर्म ते सांपरायिक । अर्जयन्त्युपशान्ता द्या ईर्यापथमथापरे ॥५॥ सांपरायिकमेतत् स्यादाचर्मस्थरेणुवत् । सकषायस्य यत् कर्म योगानीतं तु मूर्च्छति ॥ ६ ॥ ईयापथं तु तच्छुष्क कुड्य प्रक्षिप्त लोष्ठवत् । अकषायस्य यत् कर्म योगानीतं न मर्छति ।। ७॥ अर्थ- आस्रवाचे २ भेद आहेत. १) सांपरायिक आस्रव २) ईर्यापथ आस्रव १) सांपरायिक आस्रव कषाय सहित जीवाना जो आस्रव होतो तो सांपरायिक आस्रव होय. ज्याप्रमाणे ओल्या चर्मावर जसे बाहेरचे रेणुधूळ येऊन चिकटते- त्याप्रमाणे आत्म्याचा जो योग-उपयोग परिणाम कषाय सहित असतो त्यामुळे जे कर्म येते त्या कर्म परमाणूचा जीव प्रदेशाशी संश्लेष संबंध होतो ते कर्म स्थितिबंधास अनुसरुन आत्मप्रदेशात सत्तारूप काही काळ स्थित असते. स्थिती संपल्यानंतर अनुभाग बंधास अनुसरून फल देऊन निघून जाते. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार २) ईर्यापथ आस्रव- उपशांत मोहनामक ११ व्या गुणस्थान वर्ती जीवापासुन गुण ११-१२-१३ या गुणस्थानात कषाय रहित योगउपयोग परिणामानी जो आस्रव होतो त्यास ईर्यापथ आस्रव म्हणतात, येथे कषायाचा अभाव असल्यामुळे स्थितिबंध-अनुभाग बंध होत नाही. केवळ प्रकृति-प्रदेश बंध होतो. योग परिणामानी नवीन कर्माचा आस्रव होतो. परंतु ते कर्म आत्म प्रदेशाशी संश्लिष्ट न होता ज्या समयात येते त्याच समयात फल न देता तसेच निमूटपण निघून जाते. ज्याप्रमाणे शुष्क-पाणी नसलेल्या भांड्यात लोष्ठ-मातीचा खडा विरघळत नाही. त्या भांड्यापासून अलिप्त राहतो. त्याप्रमाणे कषायाच्या अभावात आलेले कर्म जीवाशी संश्लिष्ट न होता नयन निधन जाते. एकाच समयात आस्रव-प्रदेशबंध-प्रदेशोदय निर्जरा होऊन कर्म निघून जाते. सांपरायिक आस्रवाची कारणे चतुः कषाय-पंचाक्षैस्तथा पचभिरखतः । क्रियाभि: पंचविशत्या सांपरा यकमास्रवेत् । ८॥ अर्थ- मिथ्यात्व, चारकषाय, पांचइंद्रियांच्या विषयामध्ये प्रवृत्ति हिंसादि पंचपाप प्रवृत्तिरूप पाच अविरति २५ क्रिया या कारणानी सांपरायिक आस्रव होतो. कषायाचे ४ भेद आहेत. १ क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ. यांचे प्रत्येकी अनंतानुबंधा अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण संज्वलन भेदाने चार-चार भेद होतात. पांच इंद्रियद्वारे इंद्रियांच्या विषयाकडे जी योग-उपयोग प्रवत्ति त्यामळे कर्माचा आस्रव होतो. हिंसादिक पंच प्रवृत्तिरूप अविरति हे देखील कर्माच्या आस्रवाचे कारण आहे. प्रशस्त व अप्रशस्त योग पूर्वक होणान्या २५ क्रिया आस्रवाचे कारण आहेत. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार १) सम्यक्त्वक्रिया- देव-शास्त्र-गुरु भक्तिरूप सम्यग्दर्शन पोषक प्रशस्त रागरूप क्रिया करणे. ३७ २) मिथ्यात्वक्रिया - कुदेवादि भक्तिरूप मिथ्यात्व वर्धक अप्रशस्त रागरूप क्रिया करणे. ३) प्रयोगक्रिया - मन-वचन-काय व्यापार प्रवृत्ति रूप क्रिया करणे. ४) समादानक्रिया - व्रतसंयमापासून आसादना - विराधना रूप क्रिया करणे. ५ ) ईर्यापथ क्रिया- गमनागमन रूप क्रिया करणे. ६) प्रादोषिकी क्रिया - मनामध्ये क्रोधादि दुष्ट परिणाम आणणे. ७) कायिकी क्रिया - शरीराने वाईट क्रिया करणे. ८) आधिकरणकी क्रिया - जेणे करुन हिंसेचे अधिकरण स्थान बनेल अशी क्रिया करणे. ९) पारितापिकी क्रिया - दुसन्यास संताप उत्पन्न होईल असे कटु वचन बोलणे. १०) प्राणातिपातिकी क्रिया स्वतः प्राणघात करण्यास प्रवृत्त होणे. ११) दर्शनक्रिया सुंदर स्त्री आदिचे रमणीयरूप पाहण्याची इच्छा होणे १२ ) स्पर्शन क्रिया - स्त्री आदि रमणीय पदार्थाचे स्पर्श सुख घेण्याची इच्छा होणे. १३ ) प्रात्ययिकी क्रिया - सुख भोगण्याच्या इच्छेने दुसऱ्याचे मनात आपणाविषयी विश्वास उत्पन्न करणे. १४ ) समंतानुपात क्रिया- येण्या जाण्याच्या रस्त्यावर मलमूत्र विसर्जन करणे. १५) अनाभोग क्रिया-- जीव-जंतु न पाहता, न झाडता जमिनीवर बसणे - उठणे करणे. १६ ) स्वहस्त क्रिया -- दुसन्याकडून करण्यायोग्य हलकी कामे स्वतः करणे. १७) निसर्ग क्रिया -- पापक्रियेला मन-वचन-कायेने संमति देणे. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ तत्वार्थसार १४) विदारण क्रिया-- दुसन्याचे दोष उघडकीस आणण्याचा प्रयत्न करणे. १९) आज्ञाव्यापादिकी क्रिया-- आपल्या कृतीस अनुसरून शास्त्राची आज्ञा बदलविणे- आज्ञाभंग करणे. २०) अनाकांक्षा क्रिया-- प्रमादवश गुरुच्या आज्ञेचा अनादर करणे. २१) प्रारंभ क्रिया-- पापारंभ क्रिया स्क्तः करणे, दुसन्यास प्रवृत्त करणे. २२) पारिग्राहिकी क्रिया-- आवश्यकतेपेक्षा जास्त परिग्रह ठेवणे. २३) मायाक्रिया-- कपटबुद्धीने दुसऱ्यास फसविणे. २४) मिथ्यादर्शन क्रिया-- मिथ्यात्व पोषक क्रिया करणे, सरागी कुदेवादि याना भजणे. २५) अप्रत्याख्यान क्रिया-- बत-संयम न पाळणे. आस्रवामध्ये विशेषता तीव मंद परिज्ञात-भावेभ्योऽज्ञात भावतः । वीर्याधिकरणाभ्यांच तद्विशेषं विजिनाः ॥ ९ ॥ अर्थ- तीव्रकषाय - मंदकषाय - ज्ञातभाव - अज्ञात भाव - अधिक शक्ति- कमीशक्ति- असमर्थता- हिंसेची भिन्न भिन्न अधिकरण स्थाने यामुळे कर्माच्या आस्रवाच्या स्थिति मध्ये- अनुभाग- फलामध्ये विशेषता कमी- अधिकपणा दिसून येतो. अधिकरणाचे भेद तत्राधिकरणं द्वधा जीवाजीव विभेदतः । त्रिः संरंभ-समारंभारंभ योगैस्तथा त्रिभिः ।। १० ।। कृतादिभि स्त्रिभिश्चैव चतुभिश्च क्रुधादिभिः । जीवाधिकरणस्येति भदादष्टोत्तरं शतं ॥ ११ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार संयोगौ द्वौ निसर्गास्त्रीनिक्षेपाणां चतुष्टयं । निर्वर्तना द्वयं चाहुर्भेदानित्यपरस्य तु ।। १२ ।। अर्थ- आस्रवाचे अधिकरण स्थानाचे २ भेद आहेत. १) जीवाधिकरण २) अजीवाधिकरण. जीवाधिकरण स्थानाचे १०८ भेद आहेत. अजीवाधिकरण स्थानाचे अनेक भेद आहेत. १) जीवाधिकरणाचे भेद-- १ संरंभ- पापक्रियेचा संकल्प करणे. (१०८)- २ समारंभ- पापक्रियेची साधने गोळा करणे. ३ आरंभ- पापक्रियेचा प्रारंभ करणे. या तीन क्रिया मनाने, वचनाने- कायेने करणे-(३ x ३-९)प्रकार वरील ९ प्रकारच्या क्रिया कृत-कारित-अनुमोदन- स्वतः करणे, दुसऱ्याकडून करविणे, करण्यास अनुमति देणे याप्रमाणे ९४ ३ = २७ प्रकार. या २७ प्रकारच्या क्रिया क्रोध-मान-माया-लोभ कषायपूर्वक करणे याप्रमाणे जीवाधिकरणाचे (२७ x ४ = १०८ प्रकार) आहेत या १०८ प्रकारानी होणाऱ्या आस्रवाचे प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यानपरिमार्जन होण्यासाठी १०८ वेळा णमोकार मंत्राचे स्मरण करावे. १) अजीवाधिकरणाचे भेद- संयोगाचे २ भेद- १ भक्तपान संयोगसचित्त-अचित्त अन्न, शीत-उष्ण पाणी एकमेकात मिसळणे २ उपकरण संयोग-- उन्हातून सावलीत जाताना पिछीने शरीराचे संमार्जन करणे. निसर्गाधिकरणाचे ३ भेद-- १ मनोनिसर्ग २ वचन निसर्ग ३ काय निसर्ग निक्षेपाचे ४ भेद-- १) अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण-- जीवजंतु न पाहता, पिंछीने परिमार्जन न करता वस्तु ठेवणे. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार २) दुःप्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण-- जीव-जंतूचे रक्षण न करता वाईट रितीने पिंछीने परिमार्जन करून वस्तू ठेवणे. ३) सहसा निक्षेपाधिकरण-- सावधानता न ठेवता अविचारपूर्वक घाईने वस्तू ठेवणे. ४) अनाभोगनिक्षेपाधिकरण-- अयोग्य ठिकाणी वस्तू ठेवणे. निर्वर्तनाधिकरणाचे २ भेद१ मूलगुण निर्वतना- प्रमादपूर्वक मूलगुणात दोष लागणे. २ उत्तरगुण निर्वर्तना- प्रमादपूर्वक उत्तर गुणात दोष लागणे. याप्रमाणे जीवाधिकरण- अजीवाधिकरणाच्या निमित्ताने कर्माचे आस्रवात स्थिति अनुभागफलात तीव्र-मंदता होते. ज्ञानावरणाच्या आत्रवाची कारणे मात्सर्यान्तरायश्च प्रदोषो निन्हवस्तथा । आसादनो-पघातौ च ज्ञानस्योत्सूत्रचोदितौ ।। १३ ।। अनादरार्थश्रवणमालस्यं शास्त्रविक्रयः । बहुश्रुताभिमानेन तथा मिथ्योपदेशनं ॥ १४ ॥ अकालाधीति राचार्योपाध्याय प्रत्यनीकता। श्रद्धाभावोऽप्यनाभ्यासस्तथा तीर्थोपरोधनं ।। १५ ॥ बहुश्रुतावमानश्च ज्ञानाधीतेश्च शाठ्यता । इत्येते ज्ञानरोधस्य भवन्त्यास्त्रव हेतवः ।। १६ ।। अर्थ- ज्ञानी लोकाविषयी मत्सर भाव ठेवणे, दुसऱ्याच्या ज्ञानकार्यात अंतराय करणे, ज्ञानी माणसास दोष लावणे, आपणास जे माहीत आहे ते दुसन्यास न सांगणे, ज्ञानाची विराधना करणे, अडथळा करणे, शास्त्राच्या विपरीत उत्सूत्रवचन बोलणे, ज्ञानाचा अनादर करणे, Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार ज्ञान श्रवण करण्यात आळस करणे, शास्त्र विक्री करणे, आपल्या बहुश्रुत ज्ञानाचा गर्व करणे, खोटा उपदेश देणे, अकाली शास्त्राध्ययन करणे, आचार्य - उपाध्याय यांच्या विरुद्ध प्रचार करणे, सम्यग्ज्ञानाविषयी श्रद्धा नसणे, ज्ञानाचा अभ्यास न करणे, ज्ञानतीर्थ पाठशाळा याना विरोध करणे, ज्ञानी लोकांचा अपमान करणे. ज्ञानाध्ययन करणाऱ्या शिष्याविषयी शाठयता करणे. ही सर्व ज्ञानावरण कर्माच्या आसवाची कारणे आहेत. दर्शनावरण कर्माच्या आस्रवाची कारणे दर्शनस्यान्तरायश्च प्रदोषो निन्हवोऽपि च । मात्सर्यमुपघातश्च तस्यैवासादनं तथा ॥ १७ ॥ नयनोत्पाटनं दीर्घस्वापिता शयनं दिवा | नास्तिक्य वासना सम्यग्दृष्टि संदूषणं तथा ॥ १८ ॥ कुतीर्थानां प्रशंसा च नु गुप्सा च तपस्विनां । दर्शनावरणस्यैते भवन्त्यात्रवहेतवः ॥ १९ ॥। अर्थ- दुसऱ्याच्या पाहण्यात अंतराय विघ्न करणे, दुसन्यास दोष लावणे, आपले दोष झाकणे, मत्सर करणे, दुसऱ्याच्या दर्शनात अडथळा करणे, विराधना करणे, दुसऱ्याचे डोळे फोडणे, दीर्घकाल झोप घेणे, दिवसा झोपणे, पाप-पुण्याविषयी अनास्था - नास्तिक भावना ठेवणे, सभ्यदृष्टि पुरुषास दोष लावणे, मिथ्यात्वपोषक देव-शास्त्र-गुरु कुर्तार्थ यांची प्रशंसा करणे, तपस्वी लोकांची निंदा-जुगुप्सा करणे, ही सर्व दर्शनावरण कर्माच्या आसवाची कारणे आहेत. असातावेदनीय कर्माच्या आस्रवाची कारणे दुःखं शोको वधस्तापः क्रन्दनं परिदेवनं । परात्म द्वितयस्थानि तथा च परपैशुनं ॥ २० ॥ ४१ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार छेदनं भेदनं चैव ताडनं दमनं तथा । तर्जनं भर्त्सनं चैव सद्यो विशंसनं तथा ॥ २१ ॥ पापकर्मोपजीवित्वं वक्रशीलत्वमेव च । शस्त्रप्रदानं विश्रम्भघातनं विषमिश्रणं ॥ २२॥ शृंखला वागुरा पाश रज्जुजालादि सर्जनं । धर्मविध्वंसनं धर्मप्रत्यूहकरणं तथा ॥ २३ ।। तपस्विगर्हणं शीलवतप्रच्यावनं तथा । इत्यसवेंदनीयस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ २४ ॥ अर्थ- १ दुःख- अनिष्ट संयोग झाला असताना दुःख करणे. २ शोक- इष्ट वियोग झाला असताना शोक करणे. ३ वध- आयु-इंद्रिय प्राणाचा वध करणे. ४ ताप- निन्देच्या कारणाने पश्चात्ताप करणे. ५ क्रन्दन- अश्रुपात करणे, रडणे. ६ परिदेवन- ऐकून दुसन्यास दया उत्पन्न होईल असा मोठा आक्रोश करणे याप्रमाणे स्वतः दुःख करणे, दुसन्यास दुःख देणे, उभयतास दुःख उत्पन्न करणे. परपैशुन- दुष्ट बुद्धीने दुसऱ्यास दोष लावणे. छेदन- शरीराचे अवयव-नाक-कानाप. कणे भेदन- डोके फोडणे, हात-पाय तोडणे. ताडन- काठीने मारणे. दमन- दुसऱ्यास दम-धाक-भीति दाखविणे. तर्जन- दुसऱ्यास दुखविणे- भर्त्सन- दुसन्याची निंदा करणे सद्यो विशंसन- (विश्वसन) विचार न करताना अविचाराने टीप- १ विश्वसनं इत्यपि पाठान्तर । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार दुसन्याचा घात करणे-फसविणे, हिंसा आदि पापकार्य करून उपजीविका करणे, कुटील स्वभाव-मायाचार प्रवृत्ति, हिंसाजनक शस्त्र दुसन्यास देणे, विश्वासघात करणे, स्वतः किंवा दुसऱ्यास विषप्रयोग करून मरणे किंवा मारणे, जनावरास साखळदांडाने बांधणे, पक्षी पकडण्यासाठी जाळे पसरणे, मासे पकडण्यासाठी पाश-जाळे तयार करणे, जनावरास रज्जुदोरीने बांधणे, धर्म विध्वंसक कार्य करणे, धर्म कार्यास अडथळा करणे, तपस्वी-साधूची निंदा करणे, शील-व्रताचा भंग करणे, दुसन्यास शील व्रतापासून च्युत करणे ही सर्व असाता वेदनीय कर्माच्या आस्रवाची कारणे आहेत. सातावेदनीय कर्माच्या आस्रवाची कारणे दया दानं तपः शीलं सत्यं शौचं दमः क्षमा । वैयावृत्यं विनीतिश्च जिन पूनार्जवं तथा ।। २५ ॥ सरागसंयमश्चैव संयमासंयमस्तथा । भूत-व्रत्यनुकंपा च सवेद्यास्त्रव हेतवः ॥ २६ ।। अर्थ- सर्व प्राणीमात्रावर दयाभाव ठेवणे, सत्पात्राना दान देणे, तप धारण करणे, शील पाळणे, सत्य बोलणे, लोभ-ममत्व भाव न ठेवता शुद्ध परिणाम ठेवणे. इंद्रिय दमन करणे, क्षमा भाव ठेवणे, व्रती पुरुषांची सेवा शुश्रुषा करणे, गुणीजनाविषयी नम्रता धारण करणे, देवदर्शन जिनपूजा करणे, मायाचार न करता आर्जव भाव ठेवणे, संयम, सरागसंयम, देशसंयम धारण करणे, सर्व प्राणीमात्रावर अनुकंपादयाभाव ठेवणे, व्रती लोकाविषयी अनुराग ठेवणे, ही सर्व सातावेदनीय कर्माच्या आस्रवाची कारणे आहेत. संसारात असेपर्यंत दुःखी जीवन जगण्यापेक्षा सुखी जीवन जगण्याचा हा सदाचरण धर्म आहे. सदाचार धर्माचे पालन करणाराच आत्म धर्माची साधना करू शकतो म्हणून या सदाचारालाही व्यवहार धर्म म्हटले आहे. हा परपरेने मोक्षास कारण आहे. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ तत्वार्थसार दर्शन मोहनीय कर्माच्या आत्रवाची कारणे केवलित संघानां धर्मस्य त्रिदिवौकसां । अवर्णवाद ग्रहणं तथा तीर्थकृतामपि ॥ २७ ।। मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्ग दर्शनं । इति दर्शन मोहस्य भवन्त्यात्रव हेतवः ।। २८ । अर्थ - केवली, श्रुत, संघ, स्वर्गातील देव, व तीर्थंकर भगवान यांचे विषयी अवर्णवाद करणे मोक्षमार्गाला दोष लावणे, मिथ्यामार्गाचा उपदेश करणे ही सर्व दर्शन मोहनीय कर्माच्या आस्रवाची कारणे आहेत केवली कवलाहार घेतात, शास्त्रामध्ये स्त्रीला मोक्ष होतो असे सांगितले आहे, देवाना बलिदान दिल्याने ते प्रसन्न होतात, जैनधर्म नास्तिक आहे ईश्वर मानीत नाही इत्यादि मिथ्या आरोप करणे हा अवर्णवाद होय. चारित्र मोहनीय कर्माच्या आस्रवाचे कारण स्यात् तीव्र परिणामो यः कषायाणां विपाकतः । चारित्र मोहनीयस्य स एवासव कारणं ॥ २९ ॥ अर्थ - कषायाच्या उदयाने जीवाचे हिंसादि पापकार्य करण्यामध्ये जे क्रोधादि तीव्र कषाय रूप परिणाम होतात ते चारित्र मोहनीय कर्माच्या आस्रवाचे कारण आहेत. नरकायुच्या आत्रवाचे कारण उत्कृष्ट मानता शैलराजी सदृश रोषता । मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता ॥ ३० ॥ अनत्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता । परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुन सेवनं ॥ ३१ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार ४५ कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता। जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनं ।। ३२ ।। मार्जार-ताम्रचूडादि-पापीय: प्राणिपोषणं । नैःशील्यं च महारंभ परिग्रह तया सह ॥ ३३॥ कृष्ण लेश्या परिणतं रौद्रध्यानं चतुविधं । आयुषो नारकस्येति भवत्त्यात्रवहेतवः ॥ ३४ ॥ अर्थ- खोटा अभिमान करणे, पाषाणरेखा समान तीव्र क्रोध करणे, जीवादितत्त्वाविषयी मिथ्यामान्यता ठेवणे, तीव्र लोभ करणे, निरंतर निर्दय परिणाम ठेवणे, निरंतर हिंसा परिणाम ठेवणे, सतत खोटे बोलणे, परधन हरण करण्याचे परिणाम ठेवणे, परस्त्री सेवन करणे, निरंतर काम-भोगाची अभिलाषा करणे, जिनाज्ञेचे उल्लंघन करणे, जिनागमाचे खंडन करणे, मांजर, कोंबडी, पापी जीवांचे पालन करणे, शील-व्रत रहित स्वच्छंद प्रवृत्ति करणे, बहु आरंभ, बहु परिग्रह धारण करणे, कृष्णलेश्या सहित निरतर आत- रौद्र ध्यान परिणाम ठेवणे ही सर्व नरकायुच्या आस्रवाची कारणे आहेत. . तिथंच आयुच्या आस्रवाची कारणे. नःशील्यं निर्वतत्वं च मिथ्यात्वं पर वञ्चनं । मिथ्यात्वसमवेतानामधर्माणां च देशनं ॥ ३५ ॥ कृत्रिमा गरुकपूर कुंकुमोत्पादनं तथा । तथा मानतुलादीनां कूटादीनां प्रवर्तनं ॥ ३६ ॥ सुवर्ण मौक्त्तिकादीनां प्रतिरूपक निमितिः । वर्णगन्धरसादीना मन्यथापादनं तथा ॥३७॥ तत्र-मीर-घृतादीनामन्य द्रव्य विमिश्रणं । वाचाऽन्य दुत्काकरण मन्यस्य क्रियया तथा ।। ३८।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ तत्वार्थसार कपोत- नील लेश्यात्वमार्तध्यानं च दारुणं । तैर्यग्योनायुषो ज्ञेया माया चास्रवहेतवः ॥ ३९ ॥ अर्थ - शील-संयम व्रत न पाळणे, मिथ्यात्व परिणाम ठेवणे, दुसन्यास फसविणे, हिंसादि मिथ्याधर्माचा उपदेश करणे, कृत्रिम - अगरु चंदन, कापूर, केशर तयार करून खोटा व्यापार करणे, देव घेवीच्या वेळी देण्याचे वजन-माप कमी ठेवणे, घेण्याचे माप मोठे ठेवणे, सोनेचांदीमध्ये अन्य धातूचे मिश्रण करून विकणे, खोटे कल्चर मोती खरे मोती म्हणून विकणे, पदार्थाचे वर्ण-गंध-रस बदलून नकली पदार्थ खरे पदार्थ म्हणून विकणे, ताक - दूध-तूप- तेल यामध्ये अन्य पदार्थाचे मिश्रण करून विकणे, वचनाने शरीराने दुसऱ्याच्या कुचेष्टा करणे, कृष्ण-नीलकपोत अशुभ लेश्या परिणाम ठेवणे, निरंतर दुसन्याचे वाईट चितवन करणे, आर्तध्यान करणे मन-वचन-कायेने निरंतर मायाचार करणे ही सर्व तिर्यंच आयुच्या आस्रवाची कारणे आहेत. मनुष्यायुच्या आत्रवाची कारणे ऋजुत्व मीषदारंभ परिग्रह तथा सह । स्वभावमार्दवं चैव गुरुपूजनशीलता ॥ ४० ॥ अल्पसंक्लेशता दानं विरतिः प्राणिघाततः । आयुषो मानुषस्येति भवन्त्यात्रवहेतवः ॥ ४१ ॥ अर्थ- कपट रहित ऋजु सरळ परिणाम ठेवणे, मनात जे असेल तेच कृतीत दाखविणे, कपटाचार न करणे, अल्प- आरंभ - अल्प परिग्रह धारण करणे, मृदु-कोमल स्वभाव धारण करणे, देवपूजा, गुरुभक्ति. शास्त्र स्वाध्याय यामध्ये आपले जीवन घालविणे, संक्लेश परिणाम न ठेवणे, सत्पात्रास दान देणे, आपले हातून दुसऱ्या जीवाचा घात न होईल अशी दक्षता ठेवणे. ही सर्व मनुष्यायुच्या आस्रवाची कारणे आहेत. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार ४७ देवायुच्या आस्रवाची कारणे अकामनिर्जरा बालतपो मन्दकषायता। सुधर्म श्रवणं दानं तथायतनं सेवनं ॥ ४२ ॥ सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः । इति देवायुषो ह्येते भवन्त्यास्रवहेतवः ।। ४३ ।। अर्थ- अकामनिर्जरा, बालतप (मिथ्यातप) मन्दकषाय, सद्धर्माचे श्रवण, पात्रदान, जिनायतनाची सेवा-भक्ती, सरागसंयम, सम्यग्दर्शन, देशसंयम ही सर्व देवायुच्या आस्रवाची कारणे आहेत. अशुभ नामकर्माच्या आस्रवाची कारणे मनो-वाक्कायवक्रत्वं विसंवादनशीलता । मिथ्यात्वं कूट साक्षित्वं पिशुनास्थिर चित्तता ।। ४४ ।। विषक्रियेष्टाकापाक दाबाग्नीनां प्रवर्तनं । प्रतिमायतनोद्यान प्रतिश्रय विनाशनं ॥ ४५ ॥ चंत्यस्य च तथा गन्धमाल्य धूपादि मोषणं । अति तीव्र कषायत्वं पापकर्मोण जीवनं ॥ ४६ ॥ परुषासह्यावादित्वं सौभाग्यकारणं तथा । अशुभस्येति निर्दिष्टा नाम्न आस्रव हेतवः ॥ ४७ ।। अर्थ- मन-वचन-कायेची वक्रता-कुटिलता-मायाचार, साधर्मीजनाशी वितंडवाद, मिथ्यात्व, जीवादि पदार्था विषयी विपरीत मान्यता, खोटी साक्ष, चुगली करणे, आर्तध्यानामुळे मनाची अस्थिरता, स्वतः विषप्राशन करणे, अथवा दुसऱ्यास विषप्रयोग करून त्याचा प्राणघात करणे, इष्ट कापाक-विटा भाजणे-भट्टीचा व्यापार करणे, शेतात-दावाग्नि पेटविणे, मंदिर संबंधी उद्यान-जमीन-पाठशाळा-धर्मशाळा जाळणे-भस्मसात करणे, प्रतिमेची चोरी करणे किंवा मंदिरातील उपकरणे-गंधपात्र Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार धूपपात्र-माला-तोरण-ध्वना इ. ची चोरी करणे, तीव्र कषाय करणे, पापकार्य करुन उपजीविका करणे, कठोर वचन बोलणे, आपले वैभवसौभाग्य वाढविणेसाठी वशीकरण विद्येचा प्रयोग करुन दुसन्यास फसविणे ही सर्व अशुभनामकर्माच्या आस्रवाची कारणे आहेत. शुभनामकर्माच्या आस्रवाची कारणे संसारभीरुता नित्यमविसंवादनं तथा । योगानां चार्जवं नाम्नः शुभस्यास्रवहेतवः ॥४८॥ अर्थ- संसारविषयी निरंतर भयभीत राहून पापकार्याकडे प्रवृत्ति न होऊ देणे, दुसऱ्याशी वितंडवाद न करणे, मन-वचन-काय याची सरळता-आर्जवभाव धारण करणे, कुटिल-मायाचार न करणे, ही सर्व शुभ नामकर्माच्या आस्रवाची कारणे आहेत. तीर्थकर नामकर्माच्या आत्रवाची कारणे षोडशकारणभावना चितन. विशुद्धिदर्शनस्यो च्चै स्तपस्त्यागौ च शक्तितः । मार्ग प्रभावना चैव सम्पत्तिविनयस्यच ॥४९॥ शीलवतानतीचारो नित्यं संवेगशीलता। ज्ञानोपयुक्तताभीक्ष्णं समाधिश्च तपस्विनः । ५० ।। वैयावृत्य मनिहा॑णिः षड्विधावश्यकस्य च । भक्तिः प्रवचनाचार्य-जिन प्रवचनेषु च ।। ५१॥ वात्सल्यं च प्रवचने षोडशैते यथोदिताः । नाम्नस्तीर्थकरत्वस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ ५२॥ अर्थ-१ दर्शनविशुद्धि २ विनयसंपन्नता ३ शील-व्रताचे अतिचार रहित पालन ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ५ संवेग ६ यथा शक्ति त्याग Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार ७ यथाशक्ति तप ८ साधुसमाधि ९ वैयावृत्य १० अर्हद् भक्ति ११ आचार्य भक्ति १२ बहुश्रुत भक्ति १३ प्रवचन भक्ति १४ षट् आवश्यक-अपरिहाणि १५ मार्ग प्रभावना १८ प्रवचन वत्सलत्व या षोडश कारण भावना तीर्थंकर नाम कर्माच्या आस्रवाची कारणे आहेत. भावार्थ- या षोडशकारण भावनामध्ये पहिली दर्शनविशुद्धि भावना प्रमुख कारण आहे. ही भावना नसेल व बाकीच्या भावना भावल्या तरी तीर्थंकर नामकर्माचा बंध पडत नाही. दर्शनविशुद्धि भावना पूर्वक जर बाकीच्या भावना असतील तर तीर्थकर नामकर्माचा बंध होतो. वास्तविक सम्यग्दर्शन हे मोक्षाचे कारण आहे. (मोक्षोपायो न बंधनोपायः) जो मोक्षाचा उपाय-कारण असतो तो कर्मबंधाचे कारण होऊ शकत नाही- तथापि सम्यग्दर्शन सहित जो शुभराग असतो, अपायविचय नामक धर्मध्यान असते, सर्व जीवांचे अज्ञान दूर व्हावे असा जो शुभरागरूप करूणाभाव-दयाभाव त्यामुळे तीर्थकर नामकर्माचा बंध होतो. केवली किंवा श्रुतकेवलीच्या सांनिध्यांत असताना तीर्थकर प्रकृतीचा बध गुण ४ ते ७ पर्यंत प्रथमोपशम सम्यक्त्व द्वितीयोपशम सम्यक्त्व - क्षयोपशम सम्यक्त्व - किंवा क्षायिक सम्यक्त्व असताना होतो. सम्यग्दृष्टी-ज्ञानी पुरुष अथवा प्रामुख्याने संयमी-तपस्वी मुनि जेव्हा धर्मध्यान पूर्वक षोडशकारण भावनेचे चितवन करतात तेव्हा त्याना तीर्थकर नामकर्माचा बंध होतो. - तीर्थकर प्रकृतीचा बंध झाल्यानंतर कोणास त्याच भवात मोक्षाची प्राप्ति होते त्यावेळी त्यांचे गर्भ-जन्म कल्याणिक न होता गृहस्थ असेल तर संयम धारण करुन तीन कल्याणिक होतात, संयमी मुनी असेल तर केवलज्ञान व मोक्ष दोन कल्याणिक होतात. जर तीर्थंकर प्रकृतीचा बंध पडण्याचे अगोदर नरकायचा बंध पडला असेल तर तो जीव नरकात जातो. तीर्थंकर प्रकृतीचा बंध पडल्यानंतर जर आयुकर्माचा बंध पडला तर त्यावेळी सम्यग्दर्शन किंवा संयम असल्यामुळे तो नियमाने देवगतीत Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार जातो. नंतर तो देव किंवा नारकी नियमाने मनुष्यभव धारण करून तीर्थंकर होतो. त्याचे गर्भ-जन्म-तप-केवलज्ञान-मोक्ष पाच कल्याणिक महोत्सव होतात. पुण्यफला अरिहंता अरिहंताचे किंवा तीर्थंकराचे वैभव प्राप्त होणे हे सातिशय पुण्याचे फल आहे. ज्याला पुण्याफलाची संसारसुखाची इच्छा नसते अशा सम्यग्दृष्टि पुरुषालाच या सातिशय पुण्य कर्माचा बंध होतो. सातिशय सम्यग्दृष्टी पुण्यफलाचा उपभोग घेतो. पण त्याचा उपभोग निदानशल्य रहित असतो. संसारसुख वैभवाची सम्यग्दृष्टीला इच्छा नसते म्हणून त्याचे उपभोग अनंत संसाराला कारण न होता उलट कर्म निर्जरेला कारण होतात असे म्हटले जाते. वास्तविक पुण्यकर्म किंवा हे पुण्यकर्माचे भोग संवर-निर्जरेचे कारण नाहीत. आस्रवाचे कारण असतात परंतु त्याबरोबर सम्यग्दर्शनामुळे असंख्यातपट गुणश्रेणी निर्जरा होते म्हणून उपचार नयाने पुण्यभोग निर्जरेचे कारण म्हटले जातात. जो सम्यग्दृष्टी-व्रती आपले भोग संवर निर्जरेला कारण मानतो तो सप्ततत्त्वाची विपरीत मान्यता असल्यामुळे खरा सम्यग्दृष्टी म्हटला जात नाही. नीच गोत्र कर्माच्या आस्रवाची कारणे असद्गुणाना माख्यानं सदगणाच्छादनं तथा। स्वप्रशंसाऽन्यनिन्दा च नीचैर्गोत्रस्य हेतवः ।। ५३ ।। अर्थ- असत्-अविद्यमान नसलेल्या गुणांचे वर्णन करणे, दुसन्याचे सत्-विद्यमान-असलेल्या गुणांचे आच्छादन करणे, आत्म प्रशंसा व परनिंदा ही नीच गोत्र कर्माच्या आस्रवाची कारणे आहेत. उच्च गोत्र कर्माच्या आस्रवाची कारण नीचर्वृत्तिरनुत्सेकः पूर्वस्य च विपर्ययः । उच्चैर्गोत्रस्य सर्वज्ञैः प्रोक्ता आस्रव हेतव ॥५४॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार अर्थ- नेहमी नम्रवृत्ति धारण करणे, आपल्या गुणाचा गर्व न करणे, आपल्यामध्ये असत्- नसलेल्या अविद्यमान गुणाचे उद्भावन न करणे, दुसन्यामध्ये सत् असलेल्या विद्यमान गुणाचे आच्छादन न करणे, प्रगट करणे ही उच्चगोत्र कर्माच्या आस्रवाची कारणे सर्वज्ञभगवंतानी सांगितली आहेत. अंतरायकर्माच्या आस्रवाची कारणे तपस्वि-गुरु-चैत्यानां पूजा-लोप-प्रवर्तनं । अनाथ-दीन-कृपण-भिक्षादि प्रतिषेधनं ।। ५५ ॥ वध-बंध-निरोधश्च नासिकाच्छेदकर्तनं । प्रमादात् देवता दत्त नैवेद्यग्रहणं तथा ॥ ५६ ॥ निरवद्योपकरणपरित्यागो वधोऽड्गिनां । दान भोगोपभोगादि प्रत्यूहकरणं तथा ॥ ५७ ।। ज्ञानस्य प्रतिषेधश्च धर्म विघ्नकृतिस्तथा । इत्येवमन्तरायस्य भवन्त्यासदहेतवः ॥ ५८ ॥ अर्थ- तपस्वी-संयमी मुनि, दीक्षा-शिक्षा गुरु, चैत्य जिनप्रतिमा भक्ति-पूजा यांची लोप करण्याचा प्रयत्न करणे, अनाथ-दीन, गरीब लोकाना जर कोणी भिक्षा देत असेल तर ती देऊ न देणे, प्रतिषेध करणे, अनाथ-मूक जनावर प्राण्याचा वध करणे, त्याना बांधून ठेवणे, त्यांचे नाक-कान कापणे, प्रमादपूर्वक देव-देवताना अर्पण केलेले नैवेद्य ग्रहण करणे, पीछी-कमंडलु-शास्त्र आदि उपकरण निरवद्य-निर्दोष असताना-जीर्ण नसताना त्यांचा त्याग करुन नवीन नवीन उपकरणाची हाव ठेवणे, ढेकण-डांस-मच्छर आदि प्राण्यांचा वध होईल असा उपाय करणे, दुसऱ्यास दान देणान्यास अडथळा करणे, दुसन्यास भोग-उपभोगाची सामग्री मिळू न देणे, आपणास असलेले ज्ञान दुसन्यास न देणे, धर्मकार्यात विघ्न करणे ही अंतराय कर्माच्या आम्रवाची कारणे आहेत. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ तत्वार्थसार व्रताचे फलपुण्य अवताचे फलपाप क्वात् किलात्रवेत् पुण्यं पापं तु पुनरवतात् । संक्षिप्यास्रवमित्येवं चिन्त्यतेऽतो व्रताव्रतं ॥ ५९॥ अर्थ- व्रताचे पालन केल्यामुळे पुण्यकर्माचा आस्रव होतो. अवतापासून पापकर्माचा आस्रव होतो. याप्रमाणे आस्रवतत्वाचे संक्षेपात वर्णन करुन आता व्रत अवताविषयी चिंतन करतात. व्रताचे लक्षण हिसाया अनृताच्चैव स्तेयादब्रम्हतस्तथा । परिग्रहाच्च विरतिः कथयन्ति व्रतं जिनाः ॥ ६० ।। अर्थ- हिंसा-असत्य-चोरी-अब्रम्ह- (कुशील) व परिग्रह या पाच पापापासून विरंति त्याला जिनेंद्र भगवंतानी व्रत म्हटले आहे. व्रताचे भेद कात्स्न्येन विरतिः पुंसां हिंसादिभ्यो महाव्रतं । एकदेशेन विरतिः विजानीयादणुव्रतं ॥ ६१ ।। अर्थ - हिंसादिक पाच पापासून पूर्णपणे विरति त्याला महाव्रत म्हणतात. एकदेश विरति त्याला अणुव्रत म्हणतात. प्रत्येक व्रतांच्या भावना व्रतानां स्थैर्य सिध्द्यर्थ पंच पंच प्रतिवतं । भावना: संप्रतीयन्ते मुनीनां भावितात्मनां ।। ६२॥ अर्थ- व्रतामध्ये स्थिरता- दृढता राहण्यासाठी मोक्षमार्गा पासून च्युत न होण्यासाठी प्रत्येक व्रताच्या पाच पाच भावना सांगितल्या Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार आहेत. ज्याना सम्यग्दर्शन स्वरूप आत्मानुभव झाला आहे जे निरंतर आत्मभावना भावतात अशा देशव्रती श्रावक व महाव्रती मुनीसाठी या भावना सांगितल्या आहेत. १ अहिंसा व्रताच्या भावना बचोगुप्तिर्मनोगुप्तिरोर्या समितिरेव च । ग्रहनिक्षेपसमितिः पानान्नमवलोकितं ॥ ६३ ॥ इत्येताः परिकीर्त्यन्ते प्रथमे पंच भावनाः | अर्थ- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, ईयासमिति, आदाननिक्षेप समिति व आलोकित पान भोजन या पाच अहिंसाव्रताच्या भावना आहेत. (२) सत्यव्रत भावना क्रोध लोभ परित्यागौ हास्यभीरुत्ववर्जने ॥ ६४ ॥ अनुवीचिवचश्चेति द्वितीये पंच भावनाः । ५३ अर्थ - क्रोध-लोभ- हास्य-भीरुत्व यांचा त्याग व पूर्वाचार्य परंपरेने शास्त्राचा उपदेश देणे या सत्यव्रताच्या पाच भावना आहेत. भावार्थ- मनुष्य कषाय व अज्ञान वश खोटे बोलतो- मनुष्य क्रोधाने लोभाने, हास्य थट्टामस्करीने अथवा भयाने खोटे बोलतो. यासाठी क्रोध-लोम- हास्य- भीरुत्व याचा त्याग केल्याने सत्यव्रताचे रक्षण होते. अज्ञानजन्य असत्य दोष दूर होण्यासाठी आगमास अनुसरुन बोलले पाहिजे. ३) अचौर्यव्रत भावना शून्यागारेषु वसनं विभोवित गृहेषु च ॥ ६५ ॥ उपरोधाविधानं च भैक्ष्यशुद्धिर्यथोदिताः । सतधर्मा विसंवादर तृतीये पंच भावनाः ॥ ६६ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ तत्वार्थसार अर्थ - १) शून्यागार वास जेथे कोणी राहात नाही अशा शून्य वसतिके मध्ये राहणे, २) विमोचितावास - दुसन्यानी जी वसतिका सोडून दिली असेल तेथे राहणे, ३) उपरोध- अकरण- आपण जेथे राहतो तेथे जर दुसरा कोणी राहू इच्छित असेल तर त्याला अडथळा न करणे, ४) भिक्षा शुद्धि- माधुकरी वृत्तिने जे वृत्ति परिसंख्यात केले असेल, त्याप्रमाणे आहार न मिळाला तर त्यात बदल न करणे ५) साधर्मी मुनिजनाशी पीछी- कमंडल उपकरण संबंधी वितंडवाद न करणे या पाच अचौर्यव्रताच्या भावना आहेत. भावार्थ - सामान्यपणे विरक्त साधुजनाना क्षेत्र संबंधी, खाण्यापिण्याच्या भोग वस्तू संबंधी, उपकरण पोंछी - कमडलु-शास्त्र इत्यादि परिग्रह वस्तू संबंधी अचौर्य व्रतात दोष उत्पन्न होण्याचा संभव असतो यासाठी अचौर्यव्रताचे रक्षण करण्यासाठी या पाच भावना सांगितल्या आहेत. ४ ) ब्रम्हचर्व व्रताच्या भावना स्त्रीयां रागकथाश्रावोऽरमणीयाङ्ग वीक्षणं । पूर्वरत्यस्मृतिव वृष्येस्येष्ट रसवर्जनं ॥ ६७ ॥ शरीरसंस्क्रिया त्यागश्चतुर्थे पंच भावनाऽ । अर्थ - १ ) स्त्री रागकथा अश्रवण - स्त्री विषयी राग-कामवासना उत्पन्न होईल अशा नाटक - कादंबरीच्या कथा न ऐकणे, २) स्त्रियांचे रमणीय- य- मुख - केशभार स्तन आदि अंगाकडे पाहण्याची इच्छा न करणे = ) पूर्व कामभोगाचे स्मरण न करणं, ४) कामोद्दीपक असा पौष्टिक आहार न घेणे, ५) शरीर संस्कार त्याग - अंगाला तेल अत्तर लावणे, केश-संस्कार- भांग पाडणे वगैरे क्रिया न करणे या पाच ब्रम्हचर्य व्रताच्या भावना आहेत. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार ५५ ५) अपरिग्रहवत भावना मनोज्ञा अमनोज्ञाश्च ये पंचेंद्रिय गोचरा: ।। ६८।। रागद्वेषोज्झनान्येषु पंचमे पंच भावनाः । अर्थ- मनोज्ञ-(इष्ट )-अमनोज्ञ (अनिष्ट) असे जे पंचेंद्रियाचे विषयभूत बाह्य पदार्थ त्याविषयी राग-द्वेष भाव न ठेवणे या पाचव्या परिग्रहत्याग व्रताच्या पाच भावना आहेत. भावार्थ- हा जीव दर्शन-मोह-मिथ्यात्व-अज्ञानामुळे बाह्य पदार्थाविषयी इष्ट-अनिष्ट भ्रमात्मक भावना ठेवतो. इष्ट पदार्थाचा रागपूर्वक संग्रह करतो. अनिष्ट पदार्थाचा द्वष पूर्वक त्याग करतो. मोहामुळे अज्ञानामुळे ही भ्रमात्मक राग-द्वेष भावना निर्माण होते. त्यालाच मूर्छा-मोह-ममत्व भाव म्हणतात. 'मूर्छा परिग्रहः' अन्य पदार्थाविषयी ही इष्ट-अनिष्ट रूप ममत्व बुद्धिच अंतरंग-भाव परिग्रह आहे. ही ममत्व बद्धि कमी होण्यासाठी बाह्य परिग्रहाचा त्याग देखील आवश्यक आहे. ममत्व भावाचा मूर्छचा त्याग केल्याशिवाय केवळ बाह्य पदार्थाचा त्याग हा खरा परिग्रहत्याग म्हटला जात नाही. __अंतरंग परिग्रह १४ प्रकारचा आहे- मिथ्यात्व-क्रोध-मान-मायालोभ नव नोकषायं ( हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद-नपुंसकवेद) बाह्य परिग्रह १० प्रकारचा आहे- क्षेत्र (जमीन) वास्तु (घर) हिरण्य-(हिरा-माणिक-मोती) सुवर्ण (सोने) धन (गोधन) धान्य, दासी-दास, कुप्य ( वस्त्र-कापड ) भाण्ड ( तांबा-पितळीची भांडी ) अंतरंग परिग्रहाचा त्याग पूर्वक बाह्य परिग्रहाचा त्याग करणे याला परिग्रहत्याग महाव्रत म्हणतात. पंच पापाविषयी दुःखरूप चितवन इह व्यपायहेतुत्व ममुत्रा पायहेतुतां ॥६९ ॥ हिंसादिषु विपक्षेषु भावयेच्च समन्ततः । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार स्वयं दुःखरूपत्वाद् दुःखहेतुत्वतोऽपि च ॥ ७० ॥ हेतुत्वाद् दुःखहेतूनामिति तत्त्वपरायणः ।। हिंसादीन्यथवातित्यं दुःखमेवेति भावयेत् ।। ७१ ।। अर्थ- आत्मतत्त्वाचे चितवन करणा-या संयमी मुनीने व्रताच्या विपक्षभूत हिंसादिक पाच पापे ही इह-परलोकी अपायकारक आहेत. स्वतः दुःख रूप आहेत, नरकादि दुर्गति दुःखाचे कारण आहे, अतएव निरंतर ही साक्षात् दुःख स्वरूप आहेत असे चितवन करावे. मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ भावना सत्त्वेषु भावयेन्मैत्री मुदितां गणशालिए । क्लिश्यमानेषु करुणां उपेक्षां वामदृष्टिषु ।। ७२॥ अर्थ- सर्व प्राणिमात्राविषयी मैत्रीभाव, गुणी लोकाविषयी प्रमोद-आदर, प्रेमभाव, दैवहत दुःखी जीवा विषयी करुणाभाव, वाममार्ग धारण करणा-या मिथ्यादृष्टि लोका विषयी ना राग, ना द्वेषरूप, माध्यस्थ भाव, साम्यभाव धारण करावा. संसार व शरीरभोगाविषयी संवेग-वैराग्य भावना संवेग सिद्धये लोकस्वभावं सुष्ठु भावयेत् । वैराग्यार्थ शरीरस्य स्वभावं चापि चित्तयेत् ॥ ७३ ॥ अर्थ- संसारापासून संवेग-भीति उत्पन्न होण्यासाठी चतुर्गतिभ्रमषा रूप इहलोक-परलोकरूप संसाराचे चितवन करावे. शरीर-इंद्रिय सुखापासून विरक्ति होण्यासाठी शरीराच्या अपवित्रतेचा विचार करावा भावार्थ- शरीराच्या संसर्गाने स्वच्छ कपडे आदि वस्तू देखील घाण होतात. शरीराच्या नव द्वारातून सारखा मल बाहेर पडतो. या प्रमाणे संवेग भावनेने संसार भीरुता उत्पन्न होते, स्वर्गादिसुख देखील Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार दुःखरूप वाटू लागते. वैराग्य भावनेने शरीरसुख-इंद्रियसुख यापासून विरक्ति निर्माण होते. १ हिंसा लक्षण द्रव्य-भाव स्वभावानां प्राणानां व्यपरोपणं । प्रमत्तयोगतो यत् स्यात् सा हिंसा संप्रकीर्तिता ।। ७४ ।। अर्थ- प्रमत्तयोग पूर्वक द्रव्यप्राण व भावप्राण यांचा घात करणे याला हिंसा म्हणतात. भावार्थ- पाच इंद्रिय, तीन बल ( मनोबल-वचनबल-कायबल ) आयुष्य, श्वासोच्च्छास हे दहा द्रव्यप्राण आहेत. आपला ज्ञान-दर्शन स्वभाव चेतनाप्राण याला भावप्राण म्हणतात. हा जीव अज्ञानाने जेव्हा दुसऱ्याच्या प्राणाचा घात करण्याची भावना करतो त्याला प्रमत्तयोग. अशभोपयोग म्हणतात. मी या जीवास मारतो अशा दुष्ट भावने पूर्वक हा जीव दुस्न्याच्या द्रव्यप्राणाचा घात करू इच्छितो त्याचे अगोदर हा आपल्या चेतन प्राणाचा घात प्रथम करतो. दुसऱ्याचे तोंड काळे करण्यासाठी प्रथम आपणास आपले हात काळे करावे लागतात. दुसन्याचा घात करण्याची इच्छा करणे हा प्रमत्तयोगच खरी भावहिंसा म्हटली जाते. जेथे प्रमत्तयोग असेल तेथे जरी दुसऱ्याचा घात न झाला तरी ती हिंसा म्हटली जाते. त्याला हिंसेचे पातक लागते. जेथे प्रमत्त योग नसेल. दुसऱ्याचा घात करण्याची भावना नसेल, पण चुकून कदाचित् दुसयात्रा घात होण्याचा प्रसंग आला तरी ती हिंसा म्हटली जात नाही. त्यास हिंसेचे पातक लागत नाही. डॉक्टर-वैद्य-रोग्याला वाचविण्याचा प्रयत्न करतो. पण त्याचा रोग असाध्य असेल तर डॉक्टरने प्रयत्न करूनही त्याचे हातून रोगी मरतो, तरी पण त्यावेळी डॉक्टर दोषी म्हटला जात नाही. यावरून प्रमत्तयोग रूप भाव हिंसा हीच खरी हिंसा म्हटली जाते Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार परपदार्थाचे स्वतंत्र अस्तित्व अपहरण करणे, पर पदार्थावर आपले स्वामित्व- प्रभुत्व मानणे, पर पदार्थाचे परिणमन आपल्या इच्छेप्रमाणे व्हावे अशी भावना ठेवणे हा प्रमत्तयोग आहे. मिथ्यात्व बुद्धि हीच खरी भावहिंसा आहे. हिंसादि पंच पापप्रवृत्तीचे मूळ कारण मिथ्यात्व हे महापाप आहे. पंचपापाचा त्याग रूप व्रत धारण करण्याचे अगोदर या मिध्यात्वाचा त्याग करणे हे खरे अहिंसावत होय. मिथ्यात्वाचा त्याग व अष्टमूळ गुण धारण करणे यापासून व्रताचा खरा प्रारंभ होतो. २ असत्य पाप लक्षण प्रमत्तयोगतो यत् स्यात, असदर्थाभिभाषणं । समस्तमपि विज्ञेयमनृतं तत्समासत: ।। ७५ ।। अर्थ- प्रमत्तयोग पूर्वक वस्तूचे जसे स्वरूप असेल तसे न सांगता, असत्-विपरीत सांगणे ते असत्य पाप होय. भावार्थ- वस्तूच्या ध्रुव सत् स्वरूपावरुन वस्तूचे स्वरूप कथन करणे तो वस्तूचे खरे परीक्षण म्हटले जाते. वस्तूचा तावत्काल धारण केलेल्या पर्यायरूपावरुन वस्तूचे परीक्षण करणे ते वस्तूचे मिथ्यापरीक्षण होय. मिथ्यात्वपूर्वक वस्तू बा स्वरुप विपर्यास, कार्य-कारण विपर्यास, भेद-अभेद विपर्यास ते सर्व अपत्य पाप म्हटले जाते.जीव १४ गुणस्थान१४ जीवसमास-१४ मार्गणा रूप धारण करतो, त्याला जीव समजणे, त्याविषयी अहंबद्धि-आत्मत्व बद्धि ठेवणे ते स्वरूप विपर्यासरूप असत्य होय. ज्या निमित्तभूत पर वस्तूच्या सांनिध्यात कार्य होते त्याला कारण समजण ते कारण विपर्यास रूप असत्य होय. शरीर व आत्मा यामध्ये भेद असताना त्याना एक समजणे, आत्मा व स्वभाव यामध्ये अभेद असताना केवलज्ञान स्वभावाचा अभाव समजणे हे भेदाभेद विपर्यास Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार असत्य होय. जे सत्य दुसऱ्याच्या प्राणाचा घात होण्यास कारण असेल असे सत्य बोलणे देखील शास्त्रीय भाषेत असत्य पाप म्हटले जाते. ३ चौर्यपाप लक्षण प्रमत्तयोगात् यत् स्यात्, अदत्तार्थ परिग्रहः । प्रत्येयं तत् खलु स्तेयं स संक्षेपयोगतः ।। ७६ ।। अर्थ - प्रमत्तयोग पूर्वक दूसऱ्याने न दिलेला पदार्थ त्याला न विचारता घेणे ती चोरी होय. शरीरादि बाह्य पदार्थ- व शरीर संबंधी बाह्य पदार्थ वस्त्रअलंकार-घर-दार-जमीन वगैरे या अन्य पदार्थावर आपले स्वामित्व मानणे ही देखील शास्त्रीय दृष्टीने चोरी म्हटली जाते. आत्म वस्तूला आत्मा मानणारा तो खरा स्वसमय-सावकार व परवस्तूला आत्मा मानणारा तो परसमय-चोर म्हटला जातो अध्यात्म दृष्टीने रागद्वेष पूर्वक कर्माचा बंध करणे ही देखील चोरी म्हटली जाते. जो आत्मप्रदेश रूप, आत्मस्वभावरूप स्वघरात राहणारा तो स्वसमय-सावकार, व कर्मप्रदेश रूप-रागद्वेष रूप परघरात राहणारा तो परतमय चोर म्हटला जातो. ४-५ मैथन व परिग्रह पाप लक्षण मैथुनं मदनोद्रेकात् अब्रम्ह परिकीर्तितं । ममेदमिति संकल्परूपा मर्छा परिग्रहः ॥ ७७ ।। अर्थ- प्रमत्तयोग पूर्वक - कामवासनेने स्त्री-पुरुषांचा जो परस्पर काम-संभोग त्याला मैथुन किंवा अब्रम्ह पाप म्हणतात पर पदार्थ हा सूखाला कारण आहे अशी विपरीत-मिथ्यामान्यते पासन काम सेवन करण्याची पाप बुद्धी होते. आत्मस्वभावा विषयी रुचि-रति-प्रेम ठेवणारा तो ब्रम्हचारी पर पदार्थाविषयो किंवा रागादि परभावाविष रुचि-यी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० तत्वार्थसार प्रेम ठेवणारा तो अब्रम्हचारी पापी म्हटला जातो. ज्ञानी सहज वैरागी, जेथे आत्मस्वभावाचे खरे ज्ञान असते तेथे इंद्रियाच्या विषयापासून सहज विरक्ति उत्पन्न होते. पर पदार्थाविषयी मूर्च्छा याला परिग्रह म्हणतात. १) अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रम्ह परमं । २) न सा सत्रारंभोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ।। ३ ) ततस्तत् सिध्द्यर्थं परमकरुणो ग्रंथमुभयं । ४) भवानेवात्याक्षीत् न च विकृतवेषोपधिरतः ॥ अहिंसा हे सर्व प्राणीमात्राचे परमब्रम्ह आहे. आत्म ब्रम्हाचे आत्म ब्रम्हात राहणे तीच खरी अहिंसा, तोच अहिंसा धर्म - आत्म ब्रम्हाचा उपयोग आत्म ब्रम्हातून अन्य परवस्तूकडे जाणे ही हिंसा. ज्याच्या जीवनामध्ये अणुमात्र देखील आरंभ व परिग्रह असेल तेथे अहिंसा ब्रम्हाचे रक्षण होऊ शकत नाही. म्हणून आचार्य समंतभद्र स्वयंभू स्तोत्रात भगवंताची स्तुति करताना म्हणतात - हे भगवन् आपण या अहिंसा परम ब्रम्हाची सिद्धि करण्यासाठी आत्मस्वभावावर परमदयाभाव ठेवून बाह्य व अभ्यंतर दोन्ही प्रकारच्या ग्रंथ परिग्रहाचा त्याग करुन बाह्य विकृत वेष धारण न करता परम वीतराग निग्रंथ जिनलिंग धारण केले. हिंसादि पंचपापा पासून परावृत्त होऊन अहिंसा धर्माचे रक्षण होण्यासाठी दिगंबर निग्रंथ जिनलिंग धारण करणे नितांत आवश्यक आहे. व्रतीचे लक्षण माया निदान - मिथ्यात्व - शल्याभाव विशेषतः । अहिंसादि व्रतोपेतो व्रतीति व्यपदिश्यते ।। ७८ ।। अर्थ- माया - मिथ्यात्व - निदान या तीन शल्याचा त्याग करून जो अहिंसादि पाच व्रताचे निरतिचार पालन करतो त्याला व्रती म्हणतात. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार व्रत-संयम धारण करण्याचे परिणाम मनुष्य जन्मातच होतात. व्रत-संयम धारण करण्याच्या मनुष्याला नियमाने देवायुचाच बंध होतो. नरकतिर्यचादि दुर्गतिचा बंध होत नाही. यासाठी पूर्वी चक्रवर्ती-राजे-महाराजे वगैरे मनुष्य जीवनात पूर्व वयात यथेच्छ राज्य लक्ष्मीचा उपभोग घेऊन शेवटी अफाट राज्य लक्ष्मी वैभवाचा देखील त्याग करुन जिनदीक्षा धारण करुन मनुष्य जन्म सार्थक करीत असत. व्रत संयत धारण करुन शेवटी सल्लेखना धारण करणे यातच मानव जीवनाची खरी सार्थकता आहे. ( निःशल्यो व्रती )- मायामिथ्यात्व-निदान या तीन शल्यानी जो रहित असतो तो व्रती म्हटला जातो. ज्याचा दर्शन मोह नष्ट झाला आहे, ज्याला स्व-पराचे आत्माअनात्माचे यथार्थ भेद विज्ञान झाले आहे असा सम्यग्दष्टी ज्ञानी च पंचेंद्रियाच्या विषयापासून व हिंसादि पांच पापापासून परावृत्त होऊ शकतो. ज्याला स्व-पराचे भेदविज्ञान नाही, आत्मा-अनात्म्याचा हित अहिताचा विवेक नाही असा अविवेकी-अज्ञानी मिथ्यादृष्टि माया बुद्धीने जर केवळ बाह्य व्रत-संयम रूप क्रियाकांड करीत असेल, अथवा जो स्वर्गादि संसार-सुख वैभवाच्या आशेने व्रत-संयम धारण करीत असेल तर त्याला आगमामध्ये द्रव्यलिंगी-अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि म्हटले आहे. माया-मिथ्यात्व-निदान या तीन शल्यानी रहित जो व्रत-सयमाचे निरतिचार-निर्दोष पालन करतो तोच व्रती म्हटला जातो हिंसादिपंच पापामध्ये प्रवृत्ति, व इंद्रियांच्या विषयाकडे प्रवृत्ति हा अशुभोपयोग म्हटला जातो. अशुभयोग तीव्र कषायरूप असल्यामुळे पापास्रवाला कारण आहे. पापापासून निवृत्ति व व्रत-संयमामध्ये प्रवृत्ति हा शुभोपयोग म्हटला जातो. शुभोपयोग हा मंदकषायरूप परिणाम असल्यामुळे पुण्यासवाला कारण आहे. अशुभयोगापासून परावृत्त करून जीवनामध्ये व्रत-संयमरूप त ,धर्म प्रवृत्ति चालत राहावी म्हणून व्रत-संयम प्रवृ. त्तीला आगमामध्ये व्यवहार धर्म म्हणन व्यवहार धर्माला परंपरेने मोक्षाचे कारण म्हटले आहे वास्तविक व्यवहार धर्म प्रवृत्ति करणारा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ तत्वार्थसार सम्यग्दृष्टि आपल्या शुभरागरूप व्यवहार धर्म प्रवृत्तीला संवर- निर्जरामोक्षाचे कारण न समजता. आस्रव बंधाचे कारण समजतो. निरंतर शुद्ध परमात्मभावनारूप शुद्धोपयोगाची भावना ठेवतो त्याचा शुभोपयोग हा परंपरेने मोक्षास कारण म्हटला जातो. व्रतीचे भेद अनगारस्तथाऽगारी स द्विधा परिकथ्यते । महाव्रतोऽनगारः स्यादगारी स्यादणुद्रतः ।। ७९ ॥ अर्थ- व्रतीचे दोन भेद आहेत. १ अनगार सागार १) पाच महाव्रत- पाच समिति तीन गुप्ती यांचे पालन करणारा निग्रंथ दिगंबर मुनी अनगार म्हटला जातो. २) पाच अणुव्रत तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत पालन करणारा श्रावक गृहस्थ हा सागार म्हटला जातो. आचार्य समतभद्र रत्नकरंड श्रावकाचार ग्रंथात सागार व अनगार यांचे वर्णन करताना म्हणतातमोह - मिथ्यात्व - माया - निदान यानी रहित असा गृहस्थ देखील मोक्षमार्गस्थ म्हटला जातो. परंतु मोह - मिथ्यात्व - सात तत्त्वाची विपरीतमान्यता यानी सहित असा अनगार- महाव्रती-मुनी देखील मोक्षमार्गस्थ म्हटला जात नाही. मोक्षमार्गामध्ये मोही - मिथ्यादृष्टि द्रव्यलगी मुनी पेक्षा निर्मोही - सम्यग्दृष्टी श्रावकाचे स्थान श्रेष्ठ मानले आहे. श्रावकाची १२ व्रते दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिः समता तथा । सत्रोषधोपवासश्च संख्याभोगोपभोगयोः ॥ ८० ॥ 1 अतिथेः संविभागश्च व्रतानीमानि गेहिनः । अपराण्यपि सप्त स्युरित्यमी द्वादश व्रताः ॥ ८१ ॥ अर्थ - श्रावकाचे मूलगुण आठ आहेत व उत्तर गुण बारा आहेत. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार मद्य-मांस-मध व पाच उदंबर फळे यांचा आजन्म त्याग करणारा श्रावक म्हटला जातो. जलगालन व रात्री भोजन त्याग देवदर्शन हे देखील श्रावकाच्या मूलगुणामध्ये आवश्यक सांगितले आहेत. पाच अणुव्रते, तीन गुणव्रते चार शिक्षाव्रते हे वारा श्रावकाचे उत्तर गुण आहेत. पाच अणुव्रताचे पालन हे श्रावकाचे मुख्य लक्षण आहे. अणुव्रताचे रक्षण करण्यासाठी तीन गुणव्रते व चार शिक्षाव्रते याना सप्त शील म्हटले आहे. ६३ तीन गुणव्रत - १ द्विव्रत २ देश ३ अनर्थदंडवत १) दिग्व्रत- आपल्या जीवनास प्रयोजनभूत अशा क्षेत्रास सोडून बाहेरील क्षेत्रामध्ये होणारी त्रस स्थावर हिंसा न व्हावी या उद्देशाने चारही दिशेच्या प्रसिद्ध क्षेत्राची मर्यादा नियमित करून त्याच्या बाहेर आजन्म न जाणे याला दिव्रत म्हणतात. मर्यादेच्या बाहेरील क्षेत्राच्या अपेक्षेने श्रावकाचे दिग्व्रत मुनीप्रमाणे संपूर्ण हिंसेचा त्याग केल्यामुळे महाव्रतासारखे म्हटले जाते. २) देशव्रत - दिवस - महिना - चातुर्मास इत्यादि काही काळाची मर्यादा करून दिग्वतात केलेल्या मर्यादेच्या आंत क्षेत्र मर्यादा नियमित करून काहीकाळ पर्यंत त्याच्या बाहेर न जाणे यास देशव्रत म्हणतात. दिग्व्रतामध्ये बाह्यक्षेत्र मर्यादेचा आजन्म त्याग असतो म्हणून तो यम म्हटला जातो. देशव्रतामध्ये काहीकाळ त्याग असतो म्हणून तो नियम म्हटला जातो. ३) अनर्थदंडव्रत - प्रयोजनाशिवाय निरर्थक स्थावर जीवाची हिंसा देखील काहीकाळ पर्यंत न करणे याला अनर्थ दंडव्रत म्हणतात. विना प्रयोजन पाणी सांडण, वृक्ष तोडणे, अग्नि पेटविणे, जमीन खोदणे हा सर्व अनर्थदंड म्हटला जातो. त्याचा त्याग करणे ते अनर्थदंडव्रत होय चार शिक्षाव्रत - १ सामायिक २ प्रोषधोपवास ३ भोगोपभोग परिणाम ४ अतिथिस विभाग. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार १) सामायिक- काही काळ मर्यादा करून सकाळ, मध्यान्ह, सायंकाळ, त्रिकाळ सामायिक करणे, आत्म स्वरूपाचे चितवन करणे, बारा भावनाचे चितवन करणे यास सामायिक म्हणतात. २) प्रोषधोपवास-- अष्टमी, चतुर्दशी या दोन पर्वदिवशी उपवास धारण करणे, चारही प्रकारच्या आहाराचा त्याग करून आत्मचिंतन, शास्त्रस्वाध्याय करणे, सप्तमी व नवमीला, तसेच त्रयोदशीला व पौणिमा-अमावस्येला एकाशन करणे, याप्रमाणे प्रोषध सहित उपवास याला प्रोषधोपवास व्रत म्हणतात. ३) भोग-उपभोग वस्तूचा आजन्म अथवा काही काळाची मर्यादा करुन त्याग करणे यास भोगोपभोग परिमाण व्रत म्हणतात. भोग-ज्याचे एकच वेळ सेवन केले जाते. असे भोजन वगैरे उपभोग- ज्याचे पुन: पुनः सेवन केले जाते जसे वस्त्र-अलंकार. ४) अतिथि संविभाग- दररोज आहार घेण्यापूर्वी आपणासाठी तयार केलेल्या प्रासुक भोज्य वस्तूचा व्रती-संयमी-मुनी यांची प्रतीक्षा करुन प्रथम त्याना नवधा विधिपूर्वक आहार दान देऊन नंतर आपण आहार करणे यास अतिथिसंविभाग व्रत म्हणतात. देव-देवतासाठी जो नैवेद्य काढला जातो ते देखील अतिथिसंविभागवत होय. मारणसमयों सल्लेखनावत अपरं च व्रतं तेषामपश्चिममिहेष्यते । अन्ते सल्लेखनादेव्याः प्रीत्या संसेवनं च यत् ।। ८३ ।। अर्थ- मरणसमयी शेवटी शांतिपूर्वक सल्लेखनाव्रत धारण करण हे श्रावकाचे सर्वोत्कृष्ट व्रत म्हटले जाते. भावार्थ- समताभाव पूर्वक काय, कपाय व आहार यांचा त्याग करणे यास सल्लेखना व्रत म्हणतात. यालाच समाधिमरण किवा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार संन्यासमरण म्हणतात. ज्याचा प्रतीकार होऊ शकत नाही असा उपसर्ग आला असताना, महान् दुष्काळ पडला असताना, म्हातारपणामुळे सर्व अवयव शिथिल झाले असताना, असाध्य रोग झाला असताना रत्नत्रय धर्माचे रक्षण होण्यासाठी सल्लेखना मरण धारण करावे. सल्लेखनेचे तीन भेद आहेत. १ भक्त प्रत्याख्यान २ इंगिनीमरण ३ प्रायोपगमन- १) भक्तप्रत्याख्यान- भोज्य व पेय पदार्थाचा क्रमपूर्वक त्याग करणे. २) इंगिनीमरण- शरीराची सेवा-हात-पाय दाबणे स्वतः करू शकतो पण दुसऱ्याकडून न करून घेणे. ३) प्रायोपगमनशरीर सेवा स्वतः देखील न करणे, दुसऱ्याकडून करून न घेणे- मरताना आर्तध्यान-रौद्रध्यान न करता धर्मध्यानपूर्वक--आत्मचिंतन पूर्वक मरण धारण करणे यास सल्लेखनामरण म्हणतात. प्रत्येक व्रताचे अतीचार सम्यक्त्व-व्रत-शोलेषु तथा सल्लेखना विधौ । अतीचाराः प्रवक्ष्यन्ते पंच पंच यथाक्रम ।। ८३ ॥ अर्थ- सम्यग्दर्शन पाच व्रते, सात शीलव्रत व सल्लेखनामरण यांचे प्रत्येकी पाच पाच अतीचार दोष आहेत त्याचे वर्णन अनुक्रमाने करतात. सम्यग्दर्शनाचे ५ अतीचार शंकन कांक्षणं चैव तथा च विचिकित्सनं । प्रशंसा परदृष्टीनां संस्तवश्चेति पंच ते ॥ ८४ ॥ अर्थ- १) शंका- सर्वज्ञ भगवंतानी सांगितलेल्या सप्त तत्त्वाविषयी, मोक्षमार्गाविषयी, सूक्ष्म पदार्थ (परमाणु वगैरे) अतरित पदार्थ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ तत्वार्थसार ( कालांतरित राम-रावणादि पुरुष ) दूरार्थ - ( नरक- स्वर्ग मेरुपर्वत आदि पदार्थ ) या विषयी शंका-कुशंका घेणे हा शंका नामक अतीचार होय. जिज्ञासापूर्वक प्रश्न विचारणे हा दोष नाही. २) कांक्षा - स्वर्गादि संसार सुख वैभवाची इच्छा करणे. ३) विचिकित्सा - धर्मात्मा पुरुषाची सेवा करताना त्यांच्या मलीन शरीराबद्दल घृणा - किळस करणे. ४) मिथ्यादृष्टि लोकांची, मिथ्या मार्गाची प्रशंसा करणे. ५) मिथ्या मार्गाची वचनाने स्तुति करणे - हे सम्यग्दर्शनाचे पाच अतीचार आहेत. जेणे करून सम्यग्दर्शनामध्ये दोष न येईल असा यथोचित लौकिक विनय रूप सदाचार पाळणे हा दोष म्हटला जात नाही. अहिंसा अणुव्रताचे अतीचार बन्धो वधस्तथा छेदो गुरुभाराधिरोपणं । अन्नपान निरोधश्च प्रत्येया इति पंच ते ।। ८५ ।। अर्थ- जनावरास साखळदांडाने वगैरे बांधणे, त्याना चाबकाने मारणे, त्यांचे कान-नाक छेद करणे, जास्त ओझे लादणे, त्याना वेळेवर अन्न-पाणी न देणे, हे अहिंसा अणुव्रताचे अतिचार आहेत. सत्य अणुव्रताचे अतीचार कूट लेखो रहोभ्याख्या न्यासापहरणं तथा । मिथ्योपदेश - साकार मंत्रभेदौ च पंच ते ॥ ८६ ॥ गोष्ट उघड अर्थ - खोटे कागद पत्र लिहून घेणे. दुसऱ्याची गुप्त कीस आणणे, दुसऱ्याने ठेवलेली ठेव अपहरण करणे, आगम विरुद्ध Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार ६७ शास्त्राचा उपदेश देणे, दुसऱ्याचे गुप्त विचार प्रगट करणे हे पाच सत्याणुव्रताचे अतीचार आहेत. अचौर्य अणुव्रताचे अतीचार स्तेनाहतस्य ग्रहणं तथा स्तेनप्रयोजनं । व्यवहार: प्रतिच्छन्दैर्मानोन्मानोनवृद्धिता ॥ ८७॥ अतिक्रमो विरुद्धे च राज्ये सन्तीति पंच ते ।। अर्थ- दुसन्याने चोरलेली वस्तु ग्रहण करणे, दुसन्यास चोरी करण्यास प्रवृत्त करणे, भारी किंमतीच्या वस्तूमध्ये हलक्या किंमतीची वस्तू मिसळून विकणे, देण्याचे माप लहान व घेण्याचे माप मोठे ठेवणे, राज्य शासनाचे नियम-कायद्याचे उल्लंघन करणे हे पाच अचौर्य अणुव्रताचे अतिचार आहेत. ब्रम्हचर्य अणुव्रताचे अतीचार अनंगक्रीडितं तीब्रोऽभिनिवेशो मनोभुवः ।। ८८ ॥ इत्वर्योर्गमनं चैव संगृहीतागृहीतयोः । तथा पर विवाहस्य करणं चेति पंच ते ॥८९ ।। अर्थ- हस्तमैथुन करणे, नेत्र कटाक्ष करणे इत्यादि अनंगक्रीडा करणे, स्वस्त्रीशी देखील तीव्र मैथुन करण्याची इच्छा ठेवणे, इत्वरिकावेश्यागमन करणे, पर विवाहित स्त्री अथवा बाल कन्या यांचेशी संपर्क ठेवणे, दुसऱ्याच्या मुला-मुलीचे विवाह प्रसंग घडवून आणणे हे पाच ब्रम्हचर्य अणुव्रताचे अतीचार आहेत परिग्रह परिमाण अणुव्रताचे अतीचार हिरण्य-स्वर्णयोः क्षेत्र-वास्तुनोर्धनधान्ययोः । दासीदासस्थ कूप्यस्य मानाधि क्यानि पंच ते ।। ९० ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ तत्वार्थसार अर्थ- सोने-चांदीचे अलंकार, क्षेत्र वास्तु जमीन घरदार, धनधान्य, दासी - दास, वस्त्र- भांडी वगैरे यांचे जे मर्यादा प्रमाण केले असेल त्यामध्ये वाढ करणे हे पाच परिग्रह परिमाण अणुव्रताचे अतीचार आहेत. परिग्रहाचे प्रमाण केलेल्या वस्तूमध्ये लोभवश अंशतः भंग करणे याला अनाचार म्हणतात. दिव्रताचे अतीचार तिर्यग्व्यतिक्रमस्तद्वदध ऊर्ध्वमतिक्रमौ । तथा स्मृत्यन्तराधानं क्षेत्र वृद्धिश्च पंच ते ॥ ९१॥ अर्थ - दिव्रतामध्ये जी मर्यादा केली असेल त्यापैकी पूर्व - पश्चिमदक्षिण-उत्तर चार दिशा क्षेत्राची मर्यादा उल्लंघन करणे, क्षेत्र मर्यादा केलेली विसरून जाणे, प्रयोजनवश एकादिशेची मर्यादा कमी करून दुसन्या दिशेची मर्यादा वाढविणे हे पाच दिग्वताचे अतीचार आहेत. देशव्रताचे अतीचार अस्मिन्नायनं देशे शब्दरूपानुपातनं । प्रेष्य प्रयोजनं क्षेप: पुद्वलानां च पंच ते ।। ९२ ॥ अर्थ- मर्यादा केलेल्या क्षेत्राच्या बाहेरील वस्तू आणविणे, शद्वाने आवाज करून किंवा हात दाखवून मर्यादेच्या बाहेरील क्षेत्राशी संपर्क ठेवणे, प्रयोजनवश दुसन्यास पाठवून व्यापार करणे, खडा किंवा काही वस्तु फेकून बाहेरील व्यक्तीशी संकेत व्यवहार करणे हे पाच देशव्रताचे अतीचार आहेत. अनर्थदंडव्रताचे अतीचार असमीक्ष्याधिकरणं भोगानर्थक्यमेव च । तथा कंदर्प कौत्कुच्य मौखर्याणि च पंच ते ।। ९३ ॥ अर्थ- प्रयोजन नसताना देखील लोभवंश अधिक आरंभ हिंसा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार जनक कार्य करणे आवश्यकते पेक्षा जास्त भोग-उपभोग वस्तूचा संग्रह करणे, दुसन्यास दुष्टवचन बोलणे, कुत्सित चेष्टा करणे, प्रयोजन नसताना सारखी बडबड करीत राहणे हे पाच अनर्थदंडाचे अतीचार आहेत सामायिक शिक्षावत अतीचार त्रीणि दुःप्राणिधानानि वाङ्मन: काय कर्मणां । अनादरोऽनुपस्थानं स्मरणस्येति पंच ते ।।९।। अर्थ- मन-वचन-काय यांची विषय-कपायाकडे प्रवृत्ति, वचनाने दुष्ट वचन बोलण, मात वाईट विचार आणणे, शरीराने कुचेष्टा करणे, सामायिक क्रियेमध्ये अनादर करणे, अन्य मनस्क होऊन सामायिक पाठ विसरण, हे पाच सामायिक व्रताचे अतीचार आहेत. प्रोषधोपवास शिक्षाबत अतीचार संस्तरोत्सर्जनादानमसंदृष्टाप्रमाजितं । अनादरोऽनपस्थानं स्मरणस्येति पंच ते ॥ ९५॥ अर्थ- प्रमाद पूर्वक जीवजंतू न पाहतां न झाडतां बिछानाआसन-चटई वगैरे टाकणे, जीवजंतू न पाहतां मलमूत्र विसर्जन करणे, कोणतीही वस्तू उचलणे किंवा ठेवणे, प्रोषधोपवास क्रियेमध्ये अनादर करणे, पर्व दिवशी प्रोषधोपवासाचे विस्मरण होणे हे प्रोषधोपवास व्रताचे पाच अतीचार आहेत. भोगोषभोग परिमाण व्रताचे अतीचार सचित्तस्तेन संबंधस्तेन संमिश्रित स्तथा। दुःपक्वोऽभिषवश्चैवमाहारा: पंच पंच ते ॥ ९६ ।। अर्थ -- सचित्त हरित फळ भाजी खाणे, सचित्त पानावर ठेवलेला आहार घेणे, सचित्त पदार्थाचे मिश्रण केलेला आहार घेणे, अर्धवट शिजविलेला कच्चे अन्नाचा आहार घेणे, पौष्ठिक-गरिष्ट अन्नाचा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० तत्वार्थसार आहार घेणे, जेणे करुन सामायिकादि क्रियेत प्रमाद उत्पन्न होईल असा आहार घेणे हे पाच भोगोपभोग परिमाण व्रताचे अतीचार आहेत. अतिथिसंविभाग व्रताचे अतीचार कालव्यतिक्रमोऽन्यस्य व्यपदेशोऽथ मत्सरः । सचित्तेस्थापनं तेन पिधानं चेति पंच ते ॥ ९७ ॥ अर्थ - अतिथिच्या आहाराचा काल ओलांडल्यानंतर अतिथीची प्रतीक्षा करणे, हे दुसन्याने पाठविलेले पदार्थ आहेत असे सांगून ते अतिथी - मुनीला देणे, दुसऱ्या दातान्या विषयी मत्सर भावना ठेवून, दुसऱ्यास मनाई करून आपण अतिथीस आहार देणे, सचित्त हरित पानावर ठेवलेला आहार देणे, हरित पानाने झाकलेले पदार्थ आहार दान देणे हे पाच अतिथिसंविभाग व्रताचे अतीचार आहेत. सल्लेखनेचे अतीचार पंचत्वजीविताशंसे तथा मित्रानुरंजनं । सुखानुबंधनं चैव निदानं चेति पंच ते ॥ ९८ ॥ अर्थ - शरीर दुःख सहन न होऊन शीघ्र मरणाची इच्छा करणे, शरीर किंवा आप्त नातलग यांच्या प्रेमामुळे मरण न यावे, आणखी काही दिवस जगावे अशी इच्छा करणे, मरताना आप्त नातलग लोकांची आठवण करणे, पूर्वी भोगलेल्या सुखाची आठवण करणे, पुढील भवात संसारसुख वैभवाची प्राप्ति होवो अशी इच्छा करणे हे पाच सल्लेखना व्रताचे अतीचार आहेत. दानाचे लक्षण परात्मनोऽनुग्राहि धर्म वृद्धिकरत्वतः । स्वस्योत्सर्जन मिच्छन्ति दानं नाम गृहिव्रतं ॥ ९९ ॥ अर्थ - स्व-पर- अनुग्रह बुद्धीने, धर्मवृद्धि भावनापूर्वक पूर्वजन्मी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार केलेल्या पुण्यकर्मामुळे प्राप्त झालेल्या धन-धान्यादि वस्तूचे निरीहबुद्धीने दान देणे हे श्रावकाचे आवश्यक कर्म आहे. __ आहार दान, औषध दान, ज्ञानदान, अभयदान, वसतिकादान इत्यादि दानाचे अनेक प्रकार आहेत. नावाची किंवा प्रत्युपकाराची अपेक्षा न ठेवता परोपकार बुद्धीने, धर्माचे रक्षण व्हावे, धर्माची प्रभावना व्हावी या धर्मबुद्धीने दान देणे हे श्रावकाचे एक आवश्यक कर्म होय. देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिनेदिने ॥ वीतराग जिनदेव पूजा, निर्ग्रन्थ गुरूची उपासना, स्याद्वाद अनेकान्त जिनवाणीचा स्वाध्याय, इंद्रिय संयम, यथाशक्ति तप व दान ही श्रावकाची दैनंदिन सहा आवश्यक कर्मे आहेत. दानाचे फल विधिद्रव्य विशेषाभ्यां दातपात्रविशेषतः । ज्ञेयो दानविशेषस्तु पुण्यात्रव विशेषकृत् ॥ १० ॥ अर्थ - विधि विशेष द्रव्यविशेष, दातृविशेष व पात्रविशेष या प्रमाणे चार प्रकारे दानविशेषाचे फळ विशेष प्रकारे सातिशय पुण्यास्रवपुण्यबंधाची प्राप्ति होऊन अभ्युदय सुख प्राप्त होऊन शेवटी मोक्ष सुखाची प्राप्ति होते. पुण्यात्रवाची कारणे हिंसानतचुराब्रम्हसंग संन्यासलक्षणं । व्रतं पुण्यास्रवोत्थानं भावेनेति प्रपंचितं ।। १०१॥ अर्थ-- आत्मस्वरूपाची भावना पूर्वक हिंसा-असत्य-चोरी-अब्रम्ह(कुशोल) व परिग्रह या पाच पापापासून विरति त्याला व्रत म्हणतात. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तत्वार्थसार सम्यग्दृष्टी व्रती श्रावक व्रत-संयम पूर्वक आपले दैनंदिन जीवन घालवितो त्यामुळे त्याला जोपर्यंत संसारस्थिति आहे तोपर्यंत नरकादि दुर्गति दुःख प्राप्त होत नाही. स्वर्गादि अभ्युदय सुख प्राप्त होऊन शेवटी त्याला शाश्वत मोक्ष सुखाची प्राप्ति होते. पापासवाची कारणे हिंसानृतचुराब्रम्हसंगासंन्यास लक्षणं । चिन्त्यं पापात्रवोत्थानं भावेन स्वयमव्रतं ॥ १०२ ॥ अर्थ- हा जीव जोपर्यंत हिंसा-असत्य-चोरी-अब्रम्ह परिग्रह यांचा त्याग न करता निरंतर आपले जीवन पापारंभ करण्यामध्ये घालवितो त्याला स्वतःच्या राग-द्वेषादि विकार भावाने अज्ञान भावाने अवती असंयमी जीवनाचे फळ निरतर पापकर्माचा आश्रव होतो व त्यामुळे त्याला नरक-निगोदादि दुर्गतिची प्राप्ति होते व त्याला निरंतर चतुर्गति भ्रमणाचे दुःख भोगावे लागते. व्यवहार नयाने पुण्य-पापामध्ये विशेषता हेतु-कार्य-विशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः । हेतू शुभाशुभी भावी कार्ये चैव सुखासुखे ।। १०३ ।। अर्थ- व्यावहारिक सांसारिक जीवनाच्या अपेक्षेने कारण-कार्य विशेषामुळे पुण्य व पाप यामध्ये आकाश व पाताळ याप्रमाणे महान् अंतर आहे. पुण्यकर्माचे कारण जीवाचे शुभभाव आहेत. पापकर्म बधाचे कारण अशुभभाव आहेत. जो आपले जीवन अवत-असंयम-स्वच्छद वृत्तीने अशुभ परिणामाने पापारंभ करण्यात घालवितो त्याला पापकर्माचा आस्रवबंध होतो. त्याला पापकर्माचे फल नरकादि दुर्गति दुःख भोगावे लागते. जो देव-पूजा दान इत्यादि शुभ भावानी आपले जीवन पवित्र बनवितो त्याला पुण्यकर्माचा बंध होऊन स्वर्गादि सुखाची प्राप्ति होते. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अधिकार सांसारिक जीवन जर सुखी असेल तर धर्मकार्य करण्याची सद्बुद्धि निर्माण होते लोक व्यवहारात म्हण आहे की ___ 'आधी पोटोबा मग विठोबा' मनुष्याचे मन जर सुखी असले तर त्याला देवाची आठवण येते. संसार दुःखाने गांगरलेल्या मानवाचे मन देवपूजेत रमत नाही. ज्याचे मन देवपूजेत रमत नाही त्याला आत्मदेवाचे दर्शन कसे होणार? देवदर्शन हाच आत्मदर्शन होण्याचा राजमार्ग आहे. पुण्य व पाप यामध्ये समानता संसार कारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषता । न नाम निश्चयेनास्ति विशेषः पुण्यपापयोः ॥ १०४ ॥ अर्थ- निश्चयनयाने परमार्थ दृष्टीने जर विचार केला तर पुण्य व पापकर्म ही दोन्ही संसार भ्रमणालाच कारण असल्यामुळे श्रावकाने दान-पूजा आदि पुण्यकर्म करीत असताना देखील पुण्यकर्मांच्या फलाची संसारसुखाची इच्छा भोगाकांक्षा न ठेवता निरंतर आत्मस्वभावाची भावना जागृत ठेवावी. देवदर्शनामध्ये आत्मदेवदर्शनाची भावना जागृत ठेवावी. तर तो पुण्यकर्मबंध करणारा शुभयोग हा परंपरेने मोक्षसुखास कारण म्हटला जातो. स्वर्गादि संसार सुखभोगाच्या इच्छेने केले जाणारे पुण्यकर्म हे परंपरेने देखील मोक्षास कारण न होता ससार भ्रमणालाच कारण होते. सम्यग्दृष्टी व्रती श्रावक देवपूजा-दान आदि पुण्यकर्म करीत असताना देखील पुण्य कर्माला संवर-निर्जरा-मोक्षाचे कारण न मानतां आस्रव-बंधाचे कारण मानतो. तो शेवटी शुभ-अशुभ भावाचा त्याग करून शुद्धोपयोगाच्याद्वारे आत्मस्वभावात लीन होण्याचा अभ्यास करतो त्याचाच शुभयोग परंपरेन मोक्षास कारण म्हटला जातो. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ तत्वार्थसार आस्रवतत्त्वाचा उपसंहार इतीहास्रवतत्त्वं यः श्रद्धत्तं वेत्त्युपेक्षते । शेषतस्त्वंः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग् भवेत् ॥ १०५ ॥ अर्थ - याप्रमाणे जो सम्यग्दृष्टीज्ञानी जीव अजीव आदि इतर सहा तत्त्वाबरोबर आस्रवतत्त्वाचे समीचीन स्वरूप जाणून प्रथम अशुभास्रवाचा त्याग करून तावत्काल शुभयोगाचा आश्रय घेतो व शुभयोगाच्या माध्यमातून देवदर्शनाच्या माध्यमातून आत्मदर्शन रूप शुद्धोपयोगात अविचल स्थिर होण्याचा अभ्यास करतो त्यालाच परंपरेने निर्वाण सुखाची प्राप्ति होते. चतुर्थ अधिकार समाप्त - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार अधिकार ५ वा ( बंधतत्त्व वर्णन ) मंगलाचरण अनन्तकेवल ज्योतिः प्रकाशित जगत् त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ना बन्धतत्त्वं निरूप्यते ॥ १॥ अर्थ- ज्यानी अनन्त केवल ज्ञान ज्योतिच्या द्वारे तीन्ही जगातील पदार्थाना प्रकाशित केले अशा सर्वज्ञ वीतराग जिन देवाना मस्तक नम. वून सांष्टांग प्रणिपात करून या पाचव्या अधिकारामध्ये बंध तत्त्वाचे निरूपण केले जाते. बंधाची कारणे बंधस्य हेतवः पंच स्युमिथ्यात्वमसंयमः । प्रमादश्च कषायश्च योगश्चेति जिनोदिताः ।। २॥ अर्थ- जिनेंद्र भगवंतानी बंधाची कारणे प्रामुख्याने पाच सांगितली आहेत. १ मिथ्यात्व २ असंयम ३ प्रमाद ४ कषाय ५ योग. मिथ्यात्वाचे भेद ऐकान्तिकं सांशयिकं विपरीतं तथैव च । अज्ञानिकं च मिथ्यात्वं तथा वनयिकं भवेत् ॥३॥ अर्थ- मिथ्यात्व हे कर्मबंधाचे मुख्य कारण आहे. जीव-अजीवआदि तत्वाविषयी विपरीत श्रद्धान याला मिथ्यात्व म्हणतात. त्याचे ५ भेद आहेत. १ एकान्त २ संशय ३ विपर्यय ४ अज्ञान ५ विनय ऐकांतिक मिथ्यात्व स्वरूप यत्राभिसंनिवेशः स्यादत्यन्तं मि-धर्मयोः । इदमेवेत्थमेवेति तदेकान्तिक मुच्यते ।। ४ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ तत्वार्थसार अर्थ- धर्मी-धर्म द्रव्य व गुण यांचे स्वरूप सत्-असत्, नित्यअनित्य-भेद-अभेद-तत्-अतत् द्वैत-अद्वैत स्वरूप अनेकांतात्मक असताना केवळ नित्य किंवा केवळ अनित्य असे एकांत स्वरूप मानणे यास ऐकान्तिक मिथ्यात्व म्हणतात. सांशयिक मिथ्यात्व कि वा भवेन्न वा जैनो धर्मोऽहिंसादि लक्षणः । इति यत्र मतिद्वैध्यं भवेत् सांशयिकं हि तत ॥५॥ अर्थ- जिन भगवंतानी सांगितलेला अहिंसादि लक्षण धर्म आहे की अन्य धर्मानी सांगितलेला यज्ञ यागादि धर्म आहे अशी धर्माच्या स्वरूपाविषयी द्विविधा मनोवृत्ति त्याला संशय मिथ्यात्व म्हणतात. विपरीत मिथ्यात्व सग्रन्थोऽपि च निग्रन्थो, प्रासाहारी च केवली । रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं हि तत् स्मतं ।। ६ ।। अर्थ- परिग्रह सहित गुरूला निग्रंथ गृरू मानणे, सरागी-देवदेवताना वीतरागी देवाप्रमाणे पूज्य मानणे, केवली भगवान् कवलाहार घेतात, द्रव्यलिंगी स्त्रीला देखील मक्ति होते अशी विपरीत मान्यता त्याला विपर्यय मिथ्यात्व म्हणतात. अज्ञान मिथ्यात्व हिताहित विवेकस्य यत्रात्यन्तमदुदर्शनं । यथा पशुवधो धर्मस्तदाऽज्ञानिक मुच्यते ।। ७ ।। अर्थ- जेथे हित-अहिताचा विवेक नाही. धर्म-अधर्माचा विचार नाही, यज्ञयागादिमध्ये पशुवध करणे याला धर्म मानणे, शुभ-अशुभ भाव हे आस्रव-बंधाला कारण असताना शुभ भाव संवर-निर्जरा-मक्षाचे कारण मानणे हे अज्ञान मिथ्यात्व होय. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार वैनयिक मिथ्यात्व सर्वेषामपि देवानां समयानां तथैवच । यत्र स्यात् समर्शित्वं ज्ञेयं वैनयिकं हि तत् ॥ ८॥ अर्थ- जेथे सर्व देव व त्यांचे सर्व आगम-दर्शनशास्त्र या सर्वाना समान मानणे, सर्वांचा विनय करणे हे वैनयिक मिथ्यात्व होय. मिथ्या एकांत मताचा विनय करणे यात मिथ्याधर्माचे पोषण- अनुमोदन होत असल्यामुळे ते वैनयिक मिथ्यात्व म्हटले जाते. असंयम लक्षण षड्जीवकाय- पंचाक्ष मनो विषय भेदतः। कथितो द्वादशविधः सर्वविद्भिरसंयमः ।। ९ । अर्थ - सर्वज्ञ देवानी असंयम-अविरतिचे १२ भेद सांगितले आहेत पाच स्थावर काय व त्रसकाय याप्रणे षट् काय जीवांची हिंसा करणे व पांच इंद्रिये व मन यांच्या विषयामध्ये प्रवत्ति करणे ही बारा प्रकारची अविरति होय. प्रमादाचे स्वरूप शुध्द्यष्ट के तथा धर्मे क्षान्त्यादिदश लक्षणे । योऽनुत्साहः स सर्वज्ञः प्रमादः परिकीर्तितः ॥ १० ॥ अर्थ- भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि भैक्ष्यशुद्धि, शयन-आसन शुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि व वचन शुद्धि या आठ प्रकारच्या शुद्धी विषयी व उत्तम क्षमादि दहा प्रकारच्या धर्माविषयी उत्साहभावना-दक्षता-सावधानता नसणे याला प्रमाद म्हणतात. आत्मस्वरूपाच्या अनुभूतीपासून च्युति याला देखील प्रमाद म्हणतात. प्रमादाचे १५ भेद आहेत. चार विकथा- १ स्त्रीकथा २ भक्तकथा ३ राष्ट्रकथा ४ चोरकया, चार कषाय-१ क्रोध २ मान ३ माया Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ तत्वार्थसार ४ लोभ पांच इंद्रिय विषय प्रवृत्ति-निद्रा व स्नेह (राग-द्वेष , कषायाचे भद षोडशैव कषायाः स्युनोंकषाया नवेरिताः । ईषभेदो न भेदोऽत्र कषाया: पंचविंशतिः ।। ११ ।। अर्थ- कषायाचे १६ भेद आहेत. १ अनंतानुबंधी क्रोध-मान-मायालोभ २ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ. ३ प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ ४ संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ. नोकषायाचे ९ भेद आहेत. हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद. योगाचे भेद चत्वासे हि मनोयोगा वाग्योगानां चतुष्टयं । पंच द्वीच वपुर्योगा: योगा: पंचदशोदिताः ॥ १२ ॥ अर्थ- ४ मनोयोग- ( १ सत्य मनोयोग २ असत्य मनोयोग ३ उभय मनोयोग ४ अनुभय मनोयोग) ४ वचन योग ( १ सत्यवचन योग २ असत्यवचन योग ३ उभयवचन योग ४ अनु भय वचनयोग. ७ काययोग ( १ औदारिक काययोग २ औदारिक मिश्रकाययोग ३ वैक्रियिक काययोग ४ वैक्रियिक मिश्र काययोग ५ आहारक काययोग ६ आहारक मिश्र काययोग ७ कार्माण काययोग. ) याप्रमाण योदाचे १५ भेद आहेत. बंधाचे लक्षण यज्जीव: सकषायत्वात् कर्मणो योग्य पुद्गलान् । आदत्ते सर्वतो योगात् स बन्ध: कथितो जिनैः ॥१३॥ अर्थ- जीव मोह (दर्शनमोह व चारित्रमोह) रूप कषाय परि Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार णाम व योग उपयोग रूप प्रवृत्ति परिणाम यामुळे आत्म्याच्या सर्व प्रदेशाच्या द्वारे कर्मरूप होण्या योग्य अशा कार्माण पुद्गल स्कंधाला ग्रहण करतो त्यास जिनेंद्र भगवंतानी बंध म्हटले आहे. ७९ विशेषार्थं -- श्लोकांत कर्मणः हे पद पंचमी व षष्ठी या दोन विभक्ति प्रत्यय सहित आहे जेव्हां पंचमी विभक्ति सहित विवक्षा असते तेव्हा कर्माच्या बंधाचे मूळ उपादान कारण पूर्व बद्ध कर्म जेव्हा उदयाला येते तेव्हा नवीन कर्माचा बंध होतो. त्यावेळी जीवाचे योग सहित कषायरूप (मोह-दर्शन-मोह व चारित्र मोह ) परिणाम हे निमित्त मात्र कारण असतात. जीवाच्या कषाय परिणामाचे उपादान कारण जीवाचे पूर्वकषाय परिणामच असतात. समयसार ग्रंथामध्ये शिष्य प्रश्न करतो की - कषायस्य कतरा खानिः ? कषायाची खाण ( उपादान कारण ) कोण आहे ? त्याचे उत्तर आचार्य देतात. ( रागः एव रागस्य खानि: ) जीवाचे पूर्व राग परिणामा विषयीं जी आत्मत्व बुद्धि- एकत्वबुद्धि हेच नवीन रागपरिणामाच्या उत्पत्तीचे उपादान कारण आहे. त्यावेळी कर्माचा उदय हा निमित्तमात्र कारण असतो. जीवाच्या मोह राग-द्वेष १४ गुणस्थानरूप परिणामाला अचेतन परिणाम म्हटले आहे. जीवाचे हे अचेतनभावरूप रागद्वेष मोहभावरूप परिणमन यालाच अजीवतत्व अनात्मा म्हटले आहे. समयसारामध्ये कर्म प्रदेशस्थित जीवाला परसमय अचेतन - अजीवतत्व म्हटले आहे. जीवाचे हे अचेतन परिणामच कर्मबंधाचे आस्रव बधतत्वाचे कारण आहे. जीव आपला चेतन स्वभाव कायम ठेवून राग-द्वेषरूप अचेतन भावाने परिणत होऊन जो पर्यंत कर्म परमाणूशी बद्ध असतं! तोपर्यंत त्याला कथंचित् मूर्त म्हटले आहे. (बंधादो मुत्ति) 'समानशीलव्यसनेषु सख्यं' या नीति वाक्यावरून अमूर्त जीव जेव्हा आपला अमूर्तस्वभाव कथंचित् ( भावरूपाने ) सोडून राग-द्वेष परिणामरूप अचेतनभाव धारण करून मूर्त बनतो तेव्हाच मूर्ताचा मूर्तकर्माशी परस्पर बंध- ( एकीभाव - सख्यपणा ) होतो. स्थूल दृष्टीने व्यव Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० तत्वार्थसार हार नयाने जीवाचा कर्माशी संबंध होतो असे आगम भाषेने म्हटले जाते. सूक्ष्म दृष्टीने अध्यात्मभाषेने - वास्तविक जीवाचा ( रागी जीवाचा ) आपल्या राग परिणामाशी बंध होतो. त्यावेळी कर्म-नोकर्माचा संयोग होतो म्हणून पर्यायार्थिक नयाने जीवाचा कर्माशी बंध होतो असे म्हटले जाते. वास्तविक जीव आपल्या अपराध दोषाने आपल्या रागद्वेष परिणामाचा कर्ता आहे. व्यवहारनयाने जीव कर्माचा कर्ता-भोक्ता म्हटला जातो. जसा जीवाला कर्मबंधाचा कर्ता म्हणणे हा उपचार व्यवहारनय आहे तसाच जीव कर्माचा क्षय करतो नाश करतो म्हणणे हा देखील उपचार आहे. वास्तविक जीव आपले वीतरागरूप शुद्ध ज्ञानदर्शन परिणाम करतो त्यावेळी कर्माचा क्षय हा स्वयं होतो म्हणून उपचारनयाने जीवाने कर्माचा नाश केला असे म्हटले जाते. कर्माचा नाश होण्यासाठी जीवाने आपल्या वीतराग विज्ञान स्वभावरूप परिणामाचा पुरुषार्थ केला पाहिजे मूर्त कर्माचा अमूर्त जीवाशी बंध का होतो ? न कर्मात्मगुणोऽमूर्तेस्तस्य बंधा प्रसिद्धितः । अनुग्रहोपद्यातौ हि नामूर्तेः कर्तुमर्हति ॥ १४ ॥ अर्थ - कर्म हा आत्म्याचा गुणस्वभाव नाही. आत्मा अमूर्त आहे वास्तविक निश्चयनयाने द्रव्यार्थिक नयाने अमूर्त आत्म्याचा मूर्त कर्माशी बंध होत नाही. मूर्त पुद्गल अमूर्त जीवावर कोणताही अनुग्रह उपकार किंवा उपघात - अपकार करू शकत नाही विशेषार्थ - ज्याप्रमाणे मूर्त कर्माशी बद्ध होण्यासाठी जीव हा रागद्वेष भाव रुप कथंचित् अचेतन भाव धारण करतो. कथंचित् मूर्तपणा धारण करतो, त्याच प्रमाणे मूर्त कार्माणस्कंध रूप पुद्गल द्रव्य देखील ज्ञानावरण आदि कर्म प्रकृति रूपाने कथंचित् चेतनपणा धारण Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार करते कार्माण वर्गणा कर्मरुप बनल्याशिवाय जीवाच्या ज्ञानादि गुणावर आवरण टाकण्याचे किंवा जीवाच्या दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुणाचा घात करण्याचे कार्य करु शकत नाही. ८१ निश्चय नयाने एक द्रव्य दुसऱ्या द्रव्यावर उपकार किंवा अपकार करू शकत नाही. प्रत्येक द्रव्य आपापल्या स्वभाव-विभाव शक्तीने स्वभाव-विभाव परिणति करते. जेव्हा जीव आपल्या विभाव शक्तीच्या विभाव परिणतिरूप अपराध दोषाने स्वयं राग द्वेषादिरूप अचेतनभाव रूप परिणमतो त्यावेळी जीवाचा पूर्वबद्ध कर्माशी निमित्तमात्र संबंध असतो म्हणून कर्माच्या उदयाने जीवाचे रागद्वेष परिणाम होतात असे निमित्तप्रधान उपचार नयाने म्हटले जाते जेव्हा जीव आपल्या स्वभाव शक्तीच्या सामर्थ्याने स्वभाव परिणति करतो वीतराग शुद्ध परिणाम करतो त्यावेळा कर्माचा-उपशम-क्षय स्वयं होतो म्हणून जीवाने कर्माचा क्षय-नाश केला असे उपचार नयाने म्हटले जाते. वास्तविक जीवाची रागद्वेष भावरूप विभाव अचेतन भावरूप परिणतिच जीवाचा अपकार करणारी आहे व जीवाची स्वभावरूप परिणति ही उपकार करणारी आहे वास्तविक पूर्वबद्ध मूर्तकर्मच कर्मबंधाचे कारण आहे औदारिकादि कार्याणां कारणं कर्म मूर्तिमत् । न मूर्तेन मूर्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते ॥ १५ ॥ अर्थ - जीव निरनिराळ्या भवामध्ये जो नवीन नवीन औदारिकादि शरीर धारण करतो त्याचे मूळ कारण पूर्वबद्ध मूर्तिमान् कर्मच कारण असते. मूर्त कर्मांशी बद्ध झालेले आत्मप्रदेश ही उपचारनयाने कथंचित् मूर्त म्हटले जातात अमूर्त-शुद्ध आत्मप्रदेश हे कदापि नवीन औदारिक मूर्त शरीराच्या उत्पत्तीला कारण होऊ शकत नाही. अमूर्तशुद्ध आत्म्याचा मूर्तकर्माशी कदापि संबंध होत नाही. कथंचित् मूर्तअशुद्ध कर्मबद्ध आत्माच नवीन कर्माशी बद्ध होतो. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वासार आत्म्याशी कर्मबंधाची सिद्धि न च बंधाप्रसिद्धिः स्यात्, मूर्तेः कर्मभिरात्मनः । अमूर्ते रित्यनेकान्तात् तस्य मूर्तित्व सिद्धितः ॥ १६ ॥ " अर्थ- अमूर्त आत्म्याचा मूर्त कर्माशी बंध कसा होतो या प्रश्नाचे उत्तर देताना आचार्य म्हणतात आत्मा स्वभावाने द्रव्यार्थिक नयाने जरी अमूर्त आहे तथापि अनादिकालापासून जीवास आपल्या स्वभावाची जाणीव नसल्यामुळे हा जीव पर्यायाथिकनयाने भाव रूपाने अनादि कालापासून राग-द्वेष-मोहरूप विभावरूप अचेतन परिणामानी युक्त असल्यामुळे मूर्तकर्म-नो कर्माशी बद्ध आहे. स्वभाव दृष्टीने द्रव्यदृष्टीने अमूर्तपणा व पर्यायदृष्टीने कर्मबद्ध असल्यामुळे मूर्तपणा असा भिन्न भिन्न दृष्टीने अनेकान्तात्मकपणा मानण्यात परस्पर विरोध येत नाही. कर्मबद्ध मूर्त आत्म्याचाच मूर्तकर्माशी बंध होतो अनादि नित्यसंबंधात् सह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्याऽपि सत्यक्ये मूर्तत्वमवसीयते ॥ १७ ।। अर्थ- आत्मा स्वभावाने अमूर्त असून देखील अनादिकालापासून मूर्त-कर्माशी बद्ध रूप एकपणा झाल्यामुळे अनेकद्रव्य पर्यायरूप व्यंजनपर्याय रूपाने आत्म्याचे मूर्तत्व दिसून येते. या शरीरात आत्मा आहे की नाही हे आपण प्रत्यक्ष जाणू शकतो. आत्मा व कर्म यांची बंधसिद्धि बंधं प्रति भवत्यैक्यं अन्योन्यानु प्रवेशतः । युगपत् द्रावित स्वर्ण-रोप्यवज्जीव कर्मणोः ॥ १८ ॥ अर्थ- ज्याप्रमाणे अग्नीने तापवून पातळ केलेले सुवर्ण व चांदी हे एकरूप होतात त्याप्रमाणे जीव व कर्म हे दोन्ही आपापला स्वभाव Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार सोडून कथंचित् पर्यायरूपाने विभावरूप अशुद्ध परिणति करतात, जीव रागादिरूप विभाव परिणति करतो व कामीण स्कंधरुप पुद्गल द्रव्य कर्मरुप अवस्था धारण करते तेव्हा यांचा परस्पर संबंध होतो. ___अमूर्त आत्म्याचा कर्माशी बंध होत नाही तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभव दर्शनात् । न ह्यमूर्तस्य नमसो मदिरा मदकारिणी ॥ १९ ॥ अर्थ- शरीर सहित मूर्तिमान् आत्माच दारू पिऊन मूछित होतो. मूर्तिक पदार्थ दारू-अमूर्त आकाशाला मद उत्पन्न करू शकत नाही. त्या प्रमाणे वास्तविक अमूर्त-कर्मबंधन रहित शुद्ध आत्मा कर्माशी बद्ध होत नाही. सिद्धशिलेवर कार्माण वर्गणा गचपच भरली असते पण तो सिद्धजीवाना बद्ध करू शकत नाही. गुण-गुणी यांचा समवाय संबंध निषेध गुणस्य गुणिनश्चैव न च बन्धः प्रसाज्यते । निर्मुक्तस्य गुणत्यागे वस्तुत्वानुपपत्तित: ।। २०॥ अर्थ- जसा आत्मा व कर्म या दोन पदार्थांचा परस्पर संबंध होतो तसा कोणी अन्यमत वादी गुण व गुणी हे दोन भिन्न पदार्थ मानतात त्यांचा परस्पर समवाय संबंध मानतात. संसार अवस्थेत आत्मा सुखदुःख, इच्छा, प्रयत्न इत्यादि गुणानी संयुक्त होऊन मनुष्यादि भव धारण करतो. जेव्हा आत्मा सुख-दुःखादि गुणांचा त्याग करतो तेव्हा तो मुक्त म्हटला जातो. दीप निर्वाणकल्पं आत्मनिर्वाणं मोक्षः ज्याप्रमाणे दिवा विझतो त्यावेळी ज्योति प्रकाश याचा पूर्णपणे नाश होतो त्या प्रमाणे ज्यावेळी सुख-दुःखादि गुणांचा पूर्ण अभाव होतो तेव्हा जी निर्गुण अवस्था प्राप्त होते त्याला मोक्ष म्हणतात. असे कोणी अन्यमतवादी मानतात त्यांचा निषेध करून कर्म व आत्मा यांचा जो परस्पर संबंध त्यालाच बंधतत्त्व म्हटले आहे. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार गुण व गुणी यांचा जो तादात्म्य संबंध त्याला बंध म्हटले नाही. ज्यांचा संयोग होतो त्यांचा वियोग अवश्य होतो. जर द्रव्याचा गुणाशी संयोग संबध मानला व गुण-गुणीच्या सबंधाला जर संयोगरूप संसार अवस्था मानून गुणांचा नाश याला जर मुक्ति मानली तर मुक्त अवस्थेत गुणाच्या अभावात आत्म्याला देखील शन्य-अवस्तु मानण्याचा प्रसंग येईल. याप्रमाणे गुण-गुणी यांचा जो संबंध त्याला बंध म्हटले नसून आत्मा व कर्म यांचा जो संश्लेष संबंध त्यालाच बंधतत्त्व म्हटले आहे. बंधाचे भेद प्रकृति-स्थिति बन्धौ द्वौ बन्धश्चानुभवाभिधः । तथा प्रदेशबन्धश्च ज्ञेयो बन्धश्चतुर्विधः ॥ २१॥ अर्थ- बंधाचे ४ भेद आहेत. १ प्रकृतिबंध, २ स्थितिबंध ३ अनुभागबंध ४ प्रदेशबंध १) प्रकृति बंध- प्रकृति म्हणजे स्वभाव बांधले गेलेल्या कर्मामध्ये ज्ञानावरणादि प्रकृति-स्वभाव निर्माण होणे यास प्रकृतिबंध म्हणतात. २) स्थितिबंध- बांधले गेलेले कर्म उदयास येईपर्यंत जोपर्यंत सत्तेत राहते त्या काल मर्यादेला स्थिति बंध म्हणतात ३) अनुभागबध स्थिति संपल्यानंतर कर्म उदयास येऊन फळ देते त्यास अनुभागबंध म्हणतात. ४) प्रदेशबंध- प्रत्येक समयाला जो समयप्रबद्ध प्रमाण अनंत परमाणूंचा बंध होतो त्याला प्रदेश बंध म्हणतात. जीवाच्या योग व कषायरूप (दर्शनमोह व चारित्रमोह) परिणामामुळे कर्मबध होतो त्यापैकी योगामुळे प्रकृतिबंध व प्रवेशबंध होतो व कषायरूप दर्शन मोह व चारित्रमोह परिणामामुळे स्थितिबंध व अनुभाग बंध होतो. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार १ ते १० गुणस्थाना पर्यंत योग व कषाय परिणाम असतात म्हणून तेथे चारही प्रकारचा बंध होतो. गुण ११ ते १३ कषायाचा अभाव असल्यामुळे स्थितिबंध-अनुभागबंध होत नाही. तेथे केवळ योगपरिणाम असतो त्यामुळे तेथे प्रकृतिबंध व प्रदेशबंध हे दोन प्रकारचेच बंध असतात. येथे कषायाचा अभाव असल्यामुळे सांपरायिक आस्रव होत नाही. केवळ योग असल्यामुळे ईर्यापथ आस्रव होतो. ज्या समयाला कर्म येते त्याच समयाला बंध-उदय-निर्जरा होऊन कम फल न देताच तसेच निमूटपणे निघून जाते. बंधाचे कारण मोहनीय कर्म आहे. त्याचा येथे अभाव असतो. येथे फक्त वेदनीय कर्माचा बंध होतो पण मोहनीय कर्माचा अभाव असल्यामुळे ते वेदनीय कर्म जीवाला सुख दुःख न देता ज्या समयाला बंध होतो त्याच समयाला फल न देता निर्जरा रूपाने तसेच निघून जाते - गुणस्थान १४ व्या मध्ये योगाचा देखील अभाव असल्यामुळे येथे बंध न होता केवळ पूर्वबद्ध कर्माची निर्जरा होऊन मोक्षाची प्राप्ति होते कर्माच्या आठ मूल प्रकृति ज्ञानदर्शनयो रोधी वेद्यं मोहायुषी तथा । नामगोत्रान्तरायाश्च मूल प्रकृतयः स्मृताः ॥ २२ ।। अर्थ- कर्माच्या आठ मूल प्रकृति आहेत. १ ज्ञानावरण २ दर्शनावरण ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ आयु ६ नाम ७ गोत्र ८ अंतराय. १)ज्ञानावरण- जे कर्म आत्म्याच्या ज्ञान गुणावर आवरण टाकते त्यास ज्ञानावरण कर्म म्हणतात. २) दर्शनावरण- जे कर्म आत्म्याच्या दर्शन गुणावर आवरण टाकते त्यास दर्शनावरण कर्म म्हणतात. ३) वेदनीय- जे कर्म जीवाच्या शुभ-अशुभ परिणामामी जीवाला Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार साता-असाता रूप सुख-दुःख देते त्यास वेदनीय कर्म म्हणतात. ४) मोहनीय- जे कर्म जीवाच्या सम्यक्त्व व चारित्रगुणाचा धात करते त्यास मोहनीय कर्म म्हणतात. ५) आयुकर्म- जे कर्म जीवाला चार गतीमध्ये काही काळपर्यंत अडकवून ठेवणे त्यास आयुकर्म म्हणतात. ६) नामकर्म- जे कर्म जीवाला मनुष्यादि गतीमध्ये शरीरइंद्रिये-संस्थान संहनन यांची रचना करते त्यास नामकर्म म्हणतात. ७) गोत्रकर्म- ज्यामुळे जीवाचा उच्च-नीच कुलामध्ये जन्म होतो त्यास गोत्रकर्म म्हणतात. ८) अंतराय कर्म- जे कर्म जीवाला दान-लाभ-भोग-उपभोगवीर्यशक्ति-सामर्थ्य यामध्ये विघ्न आणते त्यास अंतराय कर्म म्हणतात. कर्माच्या १४८ उत्तर प्रकृती अन्या: पंच नव द्वच तथाऽष्टा विशतिः क्रमात् । चतस्रश्च त्रिसंयुक्ता नवति च पंच च ॥ २३ ॥ अर्थ- वरील आठ मूल प्रकृतीचे १४८ उत्तर प्रकृतिभेद आहेत. ज्ञानावरणाच्या ५. दर्शनावरणाच्या ९, वेदनीयाच्या २, मोहनीयाच्या २८, आयुकर्माच्या ४, नामकर्माच्या ९३, गोत्रकर्माच्या २ व अंतराय कर्माच्या ५ याप्रमाणे सर्व मिळून १४८ उत्तर प्रकृति आहेत. ज्ञानावरणच्या ५ उत्तर प्रकृति मतिः श्रुतावधी चैव मन: पयय केवले। एषामावृतयो ज्ञानरोध प्रकृतयः स्मृताः ।। २४ । अर्थ- ज्ञानावरण कर्माच्या ५ उत्तर प्रकृति आहेत. १ मतिज्ञानावरण २ श्रुतज्ञानावरण ३ अवधिज्ञानावरण ४ मनःपर्ययज्ञानावरण ५ केवल ज्ञानावरण. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार ८७ या पाच प्रकृति आत्म्याच्या पाच प्रकारच्या ज्ञान गुणावर आवरण टाकतात.. दर्शनावरणाच्या २ उत्तर प्रकृति चतुर्णा चक्षुरादीनां दर्शनानां निरोधतः । दशनावरणाभिख्यं प्रकृतीनां चतुष्टयं ।। २५ ।। निद्रानिद्रा तथा निद्रा प्रचला प्रचला तथा । प्रचला स्त्यानगृद्धिश्च दृग्रोधस्य नव स्मृताः ॥ २ ॥ अर्थ · दर्शनावरण कर्माच्या ९ उत्तर प्रकृति आहेत. १ चक्षदर्शनावरण २ अचक्षदर्शनावरण ३ अवधि दर्शनावरण ४ केवल दर्शनावरण . ५ निद्रा ६ निद्रानिद्रा ७ प्रचला ८ प्रचला प्रचला ९ स्त्यानगृद्धि. जीवाच्या चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन-अवधिदर्शन-केवल दर्शन या चार प्रकारच्या दर्शन गुणावर जे कर्म आवरण टाकते त्यास दर्शनावरण कर्म म्हणतात. तसेच निद्रादि पाच प्रकारच्या निद्रा जीवाच्या दर्शन गुणावर आवरण टाकतात. १) निद्रा- मद-खेद-श्रम दूर होण्यासाठी जी झोप-विश्रांति घेतली जाते तिला निद्रा म्हणतात. २) निद्रानिद्रा- पुन: पुनः झोप येणे याला निद्रा निद्रा म्हणतात. ३) प्रचला- गाढ झोप येणे, झोपेमध्ये बडबडणे तिला प्रचला म्हणतात. ४) प्रचला प्रचला- पुन: पुन: गाढ झोपेमध्ये हात पाय हालविणे स्वप्न पडणे याला प्रचला प्रचला म्हणतात. ५) स्त्यानगृद्धि- गाढ झोपेमध्ये उठून अचाट शक्तीचे काम करुन पुनः झोपणे यास स्त्यान गृद्धि म्हणतात. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ तत्वार्थसार वेदनीय कर्माच्या २ उत्तर प्रकृति द्विधा वेद्यमसवेद्यं सद्धेद्यं च प्रकीर्तितं । अर्थ- वेदनीय कर्माच्या २ उत्तर प्रकृति आहेत. १ सातावेदनीय २ असातावेदनीय १) सातावेदनीय- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाला स्वर्गादि सुगतिमध्ये साता-सुख-वैभव सामग्री प्राप्त होते त्यास सातावेदनीय म्हणतात. २) असातावेदनीय- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाला नरकादि दुर्गतिमध्ये असाता-दुःख-दारिद्रय सामग्री प्राप्त होते त्यास असाता वेदनीय कर्म म्हणतात. मोहनीय कर्माच्या २८ उत्तर प्रकृति त्रयः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्व भेदतः ।। २७ ।। क्रोधो मानस्तथा माया लोभोऽनन्तानबंधिनः । तथात एव चाप्रत्याख्यानावरण संज्ञिभाः ॥ २८॥ प्रत्याख्यान रुधश्चैव तथा संज्वलनाभिधाः । हास्यं रत्य रती शोको भयं सह जगप्सया॥२९ ।। नारी-पुं-पंढवेदाश्च मोहप्रकृतयः स्मृताः । अर्थ- दर्शन मोहनीय कर्माच्या ३ उत्तर प्रकृति आहेत. १ मिथ्यात्व २ सम्यग्मिथ्यात्व ३ सम्यकप्रकृति चारित्र मोहनीय कर्माच्या २५ प्रकृति ( कषायरूप १६ नोकषायरूप ९ प्रकृति) अशा एकूण मोहनीय कर्माच्या २८ उत्तर प्रकृति आहेत. १) मिथ्यात्व- ज्या कर्मांच्या उदयाने जीवाला जीवादि ७ तत्त्वाविषयी विपरीत मान्यता असते त्याला मिथ्यात्व म्हणतात. (गुण १) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार ८९ २) सम्यग्मिथ्यात्व- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाचे सम्यक्त्व व मिथ्यात्व रूप उभयरूप मिश्र परिणाम असतात त्यास सम्यग्मिथ्यात्व कर्म म्हणतात. (गुण ३) ३) सम्यक् प्रकृति - ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाच्या सम्यक्त्व गुणाचा घात होत नाही परंतु त्यामध्ये चल-मलिन अगाढ रूप अतीचार दोष लागतात त्यास सम्यक् प्रकृति कर्म म्हणतात. (गुण ४ ते ७) १) अनंतानुबंधी क्रोधादि- जे कर्म जीवाच्या सम्यक्त्व व चारित्र गुणाचा घात करते त्यास अनंतानुबंधी कषाय म्हणतात. (गुण १-२) २) अप्रत्याख्यानावरण- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाचे असंयमरूप परिणाम होतात. अणुव्रत धारण करण्याचे अथवा किंचित् देखील त्याग संयम-व्रत धारण करण्याचे परिणाम होत नाहीत त्यास अप्रत्याख्यानावरण कषाय म्हणतात. (गुण- १ ते ४) ३) प्रत्याख्यानावरण- ज्या कर्माच्या उदयाने सकल सयमरूप महाव्रत धारण करण्याचे परिणाम होत नाहीत त्यास प्रत्याख्यानावरण कषाय म्हणतात. (गुण १ ते ५) ४) संज्वलन- ज्या कर्माच्या उदवाने यथाख्यात चारित्र धारण करण्याचे परिणाम होत नाहीत त्यास संज्वलन कषाय म्हणतात. (गुण १ ते १२) नोकषायाचे ९ भेद आहेत. १ हास्य- ज्या कर्माच्या उदयाने हंसू येते त्यास हास्य म्हणतात. २ रति- ज्या कर्माच्या उदयाने इष्ट पदार्थाविषयी प्रेम उत्पन्न होते. ३ अरति- ज्या कर्माच्या उदयाने अनिष्ट पदार्थाविषयी द्वेष उत्पन्न होतो. ४ शोक- ज्या कर्मांच्या उदयाने इष्ट वियोग किंवा अनिष्ट संयोग झाला असताना शोक होतो ५ भय- ज्या कर्माच्या उदयाने भीति उत्पन्न होते. ६ जुगुप्सा-ज्या कर्माच्या उदयाने घाण पदार्थ पाहून किळस उत्पन्न होतो. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार ७ स्त्रीवेद- ज्या कर्माच्या उदयाने पुरुषाबरोबर संभोग करण्याची इच्छा होते. ८ पुंवेद- ज्या कर्माच्या उदयाने स्त्रीबरोबर संभोग करण्याची इच्छा होते. ९ नपुंसकवेद- ज्या कर्माच्या उदयाने संभोग करण्याची इच्छा असूनही इंद्रियाच्या बलहीनतेमुळे संभोग करु शकत नाही त्यास नपुंसकवेद म्हणतात. आयुकर्माच्या ४ उत्तर प्रकृति श्वाभ्र तिर्यग्-नदेवायु:दायु श्चतुर्विधं ।। ३० ॥ अर्थ- आयुकर्माच्या उत्तर प्रकृति ४ आहेत. १ नरकायु २ तिर्यंचायु ३ मनुष्यायु ४ देवायु १ नरकायु- जे कर्म जीवाला नरकगतिमध्ये अडकवून ठेवते त्यास नरकायु म्हणतात. __२ तिर्यंचायु- जे कर्म जीवाला तिर्यंच गतीमध्ये अडकवून ठेवते त्यास तिर्यंचायु म्हणतात. ३ मनुष्यायु- जे कर्म जीवाला मनुष्य गतीमध्ये अडकवून ठेवते त्यास मनुष्यायु म्हणतात. ४ देवायु- जे कर्म जीवाला देवगतीत अडकवून ठेवते त्यास देवायु म्हणतात. ____ ज्या जीवांचा आयुकर्माचा स्थितिकाल व पर्यायभोग काळ समान असतो त्याना अपमृत्यु होत नाही. आयुस्थिति पूर्ण होऊन मरण येते. परंतु ज्यांचा आयुस्थिति काल जास्त व पर्याय भोगकाल कमी असतो त्याना रोग-विषबाधा दुर्घटना आदि बाह्यनिमित्तसंयोग वश आयुस्थितीचे अपकर्षण होऊन मरण येते ते अपघात मरण म्हटले जाते. स्थितिकाल कमी झाल्यामुळे ते अपघात मरण म्हटले जाते. परंतु वास्तविक प्रत्येक Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार जीवाचे जन्म किंवा मरण आपल्या नियतक्रमबद्ध पर्यायकाळीच होते. आपण मरणकाळी प्रयत्न करून ही जेव्हा प्रयत्न सफल होत नाही तेव्हा शेवटी मरणकाल टळत नाही, असे म्हणतो. नामकर्माच्या ९३ उत्तर प्रकृति चतस्रो गतयः पंच जातय: काय पंचकं । अंगोपांगत्रयं चैव निर्माण प्रकृतिस्तथा ।: ३१॥ पंचधा बंधनं चैव संघातोऽपि च पंचधा । समादि चतुरस्रं तु न्यग्रोधं स्वाति-कुब्जकं ॥ ३२॥ वामनं हुंडसंज्ञं च संस्थानमपि षडविधं । स्याद् वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराच मेव च ॥ ३३ ।। नाराच मर्द्धनाराचं कोलकं च ततः परं । तथा संहननं षष्ठमसंप्राप्तासपाटिका ॥ ३४ ॥ अष्टधा स्पर्शनामाऽपि कर्कशं मद-लघ्वपि । गुरु स्निग्धं तथा रुक्षं शीतमष्णं तथैव च ।। ३ ॥ मधुरोऽम्ल: कटुस्तिक्तः कषायः पंचधा रसः । वर्णः शक्लादयः पंच द्वौ गन्धो सुरभीतरी । ३६ ।। श्वभ्रादि गतिभेदात् स्यात् आनुपूर्वी चतुष्टयं । उपघात: परघातस्तथाऽगुरुलघुर्भवेत् ॥ ३७ ।। उच्छवास आतपोद्योती शस्ताशस्ते नभोगती । प्रत्येक त्रस पर्याप्त बादराणि शुभं स्थिरं ।। ३८॥ सुस्वरं सुभगादेयं यशःकीति: सहेतरैः । तथा तीर्थकरत्वं च मामप्रकृतयः स्मृताः ।। ३९ ।। अर्थ- नामकर्मांच्या उत्तर प्रकृति ९३ आहेत. ४ गति- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीव नरकादि गतिमध्य जन्म घेतो त्यास गतिनामकर्म म्हणतात, याचे ४ भेद- १ नरकगति र तिर्यंचगति ३ मनुष्यगात ४ देवगति Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ तत्वार्थसार ५ जाति- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीव एकेंद्रियादि जातिमध्ये जन्म घेतो त्यास जातिनाम कर्म म्हणतात. याचे ५ भेद आहेत १ एकेंद्रिय २ द्वींद्रिय ३ त्रींद्रिय ४ चतुरिंद्रिय ५ पंचेंद्रिद. ५ शरीर - ज्या नामकर्माच्या उदयाने औदारिकादि वर्गणेच्या परमाणूपासून शरीराची रचना होते त्यास शरीर नामकर्म म्हणतात याचे ५ भेद आहेत. १ औदारिक २ वैक्रियिक ३ आहारक ४ तैजस ५ कामण ३ अंगोपांग - ज्या नाम कर्माच्या उदयाने शरीराच्या अंग- उपांगाची रचना होते त्यास अंगोपांग नामकर्म म्हणतात. याचे ३ भेद आहेत १ औदारिक अंगोपांग २ वैक्रियिक अंगोपांग ३ आहारक अंगोपांग. १ निर्माण- ज्या नामकर्माच्या उदयाने शरीराच्या अंगोपांगाची यथायोग्य रचना होते त्यास निर्माण नामकर्म म्हणतात. ५ बंधन - ज्या नामकर्माच्या उदयाने औदारिकदि शरीर परमाणू परस्पर बद्ध होतात त्यास बंधन नामकर्म म्हणतात. त्याचे ५ भेद आहेत. १ औदारिक २ वैकियिक ३ आहारक ४ तैजस ५ कार्माण. ५ संघात - ज्या नामकर्माच्या उदयाने शरीराचे परमाणू छिद्र रहित एकरूप होतात त्यास संघात नामकर्म म्हणतात. याचे ५ भेद आहेत. १ औदारिक २ वैक्रियिक ३ आहारक ४ तैजस ५ कार्माण. ६ संस्थान - ज्या नामकर्माच्या उदयाने शरीराला विशिष्ट आकार उत्पन्न होतो त्यास संस्थान नामकर्म म्हणतात. याचे ६ भेद आहेत. १ समचतुरस्र - शरीराचा आकार योग्य प्रमाणात असतो. २ न्यग्रोधपरिमंडल - शरीराचा आकार वटवृक्षाप्रमाणे वरील अवयव मोठे व खालील अवयव बारीक असतात. ३ स्वाति - शरीराचा आकार वारुळाप्रमाणे खालील अवयव मोठेजाड व वरील अवयव बारीक असतात. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ कुब्जक - शरीराचा आकार कुबडा असतो. ५ वामन -- शरीराचा आकार बुटका असतो. ६ हुंडक - शरीराचा आकार कुरूप ओबड-धोबड असतो. पंचम अधिकार ६ संहनन - ज्या कर्माच्या उदयाने शरीराच्या हाडाचे परस्पर बंधन होते त्यास सहनन नामकर्म म्हणतात. याचे ६ भेद आहेत. १ वज्रर्षभनाराच संहनन - शरीराचे वेष्टन, हाडे, हाडातील सांधेखिळे वज्रमय असतात त्यास वज्र ऋषभ - नाराच संहनन म्हणतात. २ वज्रनाराच संहनन- शरीराची हाडे, सांधे खिळे वज्रमय असतात. परंतु वेष्टन वज्रमय नसते. त्यास वज्रनाराच संहनन म्हणतात. ३ नाराच संहनन -- शरीराच्या हाडांचे सांधे खिळयाने मजबूत असतात परंतु वज्रमय नसतात त्यास नाराच संहनन म्हणतात. ४ अर्धनाराच - शरीराच्या हाडांचे सांधे अर्धवट खिळे असतात त्यास अर्धनाराच संहनन म्हणतात. ९३ ५ कीलक- शरीराची हाडे परस्पर कीलित असतात पण त्यात खिळे नसतात त्यास कीलक संहनन म्हणतात. ६ असंप्राप्तास्पाटिका- शरीराची हाडे सांधे परस्पर नसानी बांधले असतात. कीलित नसतात त्यास असंप्राप्तासपाटिका संहनन म्हणतात. ८ स्पर्श - ज्या कर्माच्या उदयाने शरीर परमाणूमध्ये स्पर्श निर्माण होतो कर्कश - मृदु, लघु-गुरु, स्निग्ध-रुक्ष, शीत-उष्ण - रस होतो. १ मधुर २ आंबट ३ कडु ४ तिखट ५ तुरट. ज्या कर्माच्या उदयाने शरीर मरमाणूमध्ये रस निर्माण ५ वर्ण- ज्या कर्माच्या उदयाने शरीर परमाणूमध्ये वर्ण निर्माण होतो. १ पांढरा २ लाल ३ निळा ४ पिवळा ५ काळा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार २ गंध - ज्या कर्माच्या उदयाने शरीर परमाणूमध्ये गंध निर्माण होतो. सुगंध-दुर्गंध. ४ आनुपूर्वी- ज्या नामकर्माच्या उदयाने मरणानंतर विग्रह गतिमध्ये जीवाचा आकार पूर्व शरीराचे आकारासारखा असतो त्यास आनुपूर्वी नामकर्म म्हणतात. याचे ४ भेद आहेत. १ नरकगत्यानुपूर्वी २ तिर्यंचगत्यानुपूर्वी ३ मनुष्यगत्यानुपूर्वी ४ देवगत्यानुपूर्वी उपघात- ज्या कर्माच्या उदयाने आपल्या अवयवाने आपल्या शरीराचा घात होतो त्यास उपघात नामकर्म म्हणतात. परघात- ज्या कर्माच्या उदयाने दुसऱ्याचा घात करणारे अवयव प्राप्त होतात त्यास परघात नामकर्म म्हणतात. अगुरुलघु- ज्या कर्माच्या उदयाने शरीर दगडासारखे जड किंवा कापसाप्रमाणे हलके न होता यथायोग्य असते त्यास अगरुलघु नामकर्म म्हणतात. उच्छवास- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीव शरीराच्या द्वारे श्वास-उच्छवास करून जगतो त्यास उच्छवास नामकर्म म्हणतात. आतप- ज्या नामकर्माच्या उदयाने शरीर सूर्याप्रमाणे आतापरूप उष्ण प्रकाशमान असते त्यास आतप नामकर्म म्हणतात. उद्योत-- ज्या कर्माच्या उदयाने शरीर चंद्राप्रमाणे थंड प्रकाशमान असते त्यास उद्योत नामकर्म म्हणतात. विहायोगति- ज्या नामकर्माच्या उदयाने शरीर आकाश प्रदेशामध्ये गमन करू शकते त्यास विहायोगति नामकर्म म्हणतात. याचे २ भेद आहेत १ प्रशस्त विहायोगति र अप्रशस्त विहायोगति प्रत्यक- ज्या नामकर्माच्या उदयाने एका शरीराचा स्वामी एकच जीव असतो त्यास प्रत्येक नामकर्म म्हणतात. ___ साधारण- ज्या नामकर्माच्या उदयाने एका शरीराचे स्वामी अनेक जीव असतात त्यास साधारण नामकर्म म्हणतात. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार त्रस- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीव द्वींद्रिय-त्रींद्रिय चतुरिद्रिपंचेंद्रिय म पर्याय धारण करतो त्यास त्रस नामकर्म म्हणतात. ९५ स्थावर - ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीव पृथ्वी-पाणी- अग्निवायु-वनस्पति स्थावर पर्याय धारण करतो त्यास स्थावर नामकर्म म्हणतात पर्याप्त - ज्या नामकमीच्या उदयाने जीवास आहार पर्याप्तिशरीर पर्याप्ति आदि आपापल्या योग्य पर्याप्ति पूर्ण होण्याची योग्यता असते त्यास पर्याप्त नामकर्म म्हणतात. अपर्याप्त - ज्या नामकर्माच्या उदयाने शरीर पर्याप्ति पूर्ण होण्याची योग्यता न होताच मरण अवस्था प्राप्त होते त्यास अपर्याप्त नामकर्म म्हणतात. बादर - ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीव बादर एकेंद्रियादिकादि शरीर धारण करतो त्यास बादर नामकर्म म्हणतात. सूक्ष्म ' ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीव सूक्ष्म एकेंद्रियाचे शरीर धारण करतो त्यास सूक्ष्म नामकर्म म्हणतात. शुभ - ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाला शुभ शरीर अवयव प्राप्त होतात त्यास शुभ नामकर्म म्हणतात. अशुभ - ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाला अशुभ शरीर अवयव प्राप्त होतात त्यास अशुभ नामकर्म म्हणतात. स्थिर- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाच्या शरीरातील धातुउपधातु-स्थिर असतात त्यास स्थिर नामकर्म म्हणतात. अस्थिर - ज्या नामकर्मांच्या उदयाने जीवाच्या शरीरातील धातुउपधातु अस्थिर असतात. । रक्तपिती आदि रोग उत्पन्न होतात ) त्यास अस्थिर नामकर्म म्हणतात. १ टीप - सूक्ष्म व बादर हे एकेंद्रियाचेच भेद आहेत, बाकीचे ह्रींद्रियादिक जीब सर्व बादरच असतात. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार सुस्वर- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाचा आवाज सुस्वर कर्णमधुर-गोड आवाज प्राप्त होतो त्यास सुस्वर नामकर्म म्हणतात. दुःस्वर- ज्या नाम कर्माच्या उदयाने जीवाचा आवाज दुःस्वरकर्णकटु कठोर-भेसूर प्राप्त होतो त्यास दुःस्वर नामकर्म म्हणतात. सुभग- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाच्या शरीराचे सुंदर रूप पाहून सर्वाना प्रेम उत्पन्न होते त्यास सुभग नामकर्म म्हणतात. दुर्भग-- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाचे कुरुप शरीर पाहून किळस उत्पन्न होतो त्यास दुर्भग नामकर्म म्हणतात. आदेय- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाचे शरीर कांतिमान तेज-पुंज असते त्यास आदेय नामकर्म म्हणतात. अनादेय- ज्या नामकर्मांच्या उदयाने जीवाचे शरीर निस्तेजभेसूर असते त्यास अनादेय नामकर्म म्हणतात. यशःकीति- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाची सर्व लोकात कीर्ति होते, मान-सन्मान होतो त्यास यशःकीति नामकर्म म्हणतात. अयश:कीर्ति - ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाची सर्व लोकात अप. कीर्ति होणे-अनादर-निंदा-गर्दा होणे त्यास अयशःकीर्ति नामकर्म म्हणतात तीर्थकर नामकर्म- ज्या नामकर्माच्या उदयाने जीवाला तीर्थकर अवस्था प्राप्त होते त्यास तीर्थकर नामकर्म म्हणतात. गोत्र कर्माचे भेद गोत्रकर्म द्विधा ज्ञेयमुच्च-नीच प्रभेदतः । अर्थ- गोत्र कर्माचे २ भेद आहेत. १ उच्चगोत्र २ नीचगोत्र १ उच्च गोत्र- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाचा जन्म धर्माचे पालन करणा-या उच्च-पवित्र कुलात होतो त्यास उच्च गोत्र म्हणतात. २ नीचगोत्र- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाचा जन्म अधर्म कृत्य Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार ९७ हिंसादि करणा-या नीच कुलात होतो त्यास नीच गोत्र म्हणतात. अंतराय कर्माचे ५ उत्तर प्रकृति भेद स्यात् दान-लाभ-वीर्याणां परिभोगोपभोगयोः ॥ ४०॥ अन्तरायस्य वैचित्र्यादन्तरायोऽपि पंचधा । अर्थ- अंतराय कर्माचे ५ भेद आहेत. 2 दानांत राय- ज्या कर्माच्या उदयाने दान देण्याची इच्छा असून दान देण्यात अंतराय विघ्न उत्पन्न होते. त्यास दानांतराय कर्म म्हणतात र लाभान्त राय- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाला इष्ट वस्तुचा लाभ होत नाही त्यास लाभांतराय कर्म म्हणतात. ३ भोगान्त राय- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाला आहारादि भोग्य वस्तूचा लाभ होत नाही त्यास भोगांतराय कर्म म्हणतात. ४ उपभोगान्तराय- ज्या कर्माच्या उदयाने जी वाला वस्त्र-अलंकार आदि उपभोग वस्तूचा लाभ होत नाही त्यास उपभोगान्त राय कर्म म्हणतात. ५ वीर्यान्तराय- ज्या कर्माच्या उदयाने जीवाला कोणताही पुरुषार्थ करण्याचे सामर्थ्य-बल प्राप्त होत नाही त्यास वीर्यान्तराय कर्म म्हणतात. बन्ध योग्य प्रकृति १२० द्वे त्यक्त्वा मोहनीयस्य नाम्न: षड्विंशतिस्तथा ॥४१॥ सर्वेषां कर्मणां शेषा बंधप्रकृतयः स्मृतः । अबन्धा मिश्रसम्यक्त्वे बंध-संघातयोर्दश ॥४२॥ स्पर्श सप्त तथैका च गंधेऽष्टो रसवर्णयोः । अर्थ- दर्शन मोहनीयाच्या प्रकृतिपैकी सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्व प्रकृति या दोन प्रकृति अबंध प्रकृति आहेत. नामकर्माच्या प्रकृतीपैकी Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार امر به ५ बंधन ५ संघाता या अबंध प्रकृति आहेत. स्पर्श-रस गंध-वर्ण यापैकी कोणतीही एक एक प्रकृति बध प्रकृति आहे बाकीच्या १६ प्रकृति अबध असतात. १ ज्ञानावरण- ५ बंधप्रकृति २ दर्शनावरण- ९ , ३ वेदनीय४ मोहनीय 1 (सम्यग्मिथ्यात्व-सम्वत्व प्रकृति सोडून) ५ आयु६ नामकर्म- ६७ , ( ९३ पैकी २६ प्रकृति मोडून ) ७ गोत्रकर्म ८ अंतराय १२० बंधप्रकृति आहेत. مه » به - भावार्थ- एकूण कर्मांच्या १४८ उत्तर प्रकृति आहेत त्यापैकी बंधयोग १२० उदययोग्य १२२ सत्त्वयोग १४८ प्रकृति ज्यावेळी जीवाला प्रथम उपशम सम्यक्त्वाची प्राप्ति होते त्यावेळी जीवाच्या शुद्ध परिणामामळे सत्त्व प्रकृतीत असलेले मिथ्यात्वकर्माचे तीन खड पडतात. १ मिथ्यात्व २ सम्बग्मिथ्यात्व ३ सम्यकप्रकृति दर्शन मोहाच्या या तीन प्रकृतीपैकी बंध केवळ मिथ्यात्व प्रकृतीचा होतो. उदय तिन्ही पैकी एकावेळी कोणत्याही एका प्रकृतिचा असतो. सत्ता तिन्ही प्रकृतीची दोन प्रकृतीची किंवा एक प्रकृतीची असू शकते. कर्माचा उत्कृष्ट स्थिति बंध वेद्यान्तराययोर्ज्ञानदृगावरणयोस्तथा ।। ४३ ।। कोटीकोटयः स्मृतास्त्रिशत् सागराणां परास्थितिः । मोहस्य सप्ततिस्ताः स्युविशतिर्नामगोत्रयोः ॥ ४४ ।। आयुषस्तु त्रयस्त्रिंशत् सागराणां परास्थितिः । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार अर्थ- ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीय व अंतराय या चार कर्मांची उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडाकोडीसागर आहे. मोहनीय कर्माची उत्कृष्टस्थिति ७० कोडाकोडी सागर आहे. नाम व गोत्र कर्माची उत्कृष्ट स्थिति २० कोडाकोडीसागर आहे. आयुकर्माची उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर आहे. कर्माचा जयन्य स्थितिबंध मुहूर्ता द्वादश ज्ञेया वेद्येऽष्टौं नामगोत्रयोः ॥ ४५ ।। स्थिति रन्तर्मुहूर्तस्तु जघन्या शेषकर्मसु ।। अर्थ- वेदनीय कर्माची जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त नाम व गोत्र कर्माची सघजस्थिति ८ मुहूर्त बाकीच्या कर्माची जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त आहे. (मुहूर्त = ४८ मिनिटे) अनुभाग बंध विपाकः प्रागुपात्तानां यः शुभाशुभकर्मणां ॥ ४६ ।। असावनुभवो ज्ञेयो यथानाम भवेच्च स: । अर्थ- पूर्वी बांधलेले कर्म स्थिति संपल्यानंतर जेव्हा उदयास येऊन फल देऊन निघून जाते त्या कर्मफलास अनुभाग बंध म्हणतात. कर्माच्या ज्या मल व उत्तर प्रकृति आहेत त्यांच्या त्यांच्या नावाप्रमाणे त्या प्रकृति उदयास येऊन फल देतात. __भावार्थ- प्रत्येक समयाला सिद्धराशिच्या अनन्तावा भाग व अभव्य राशिच्या अनन्तपट समयप्रबद्ध प्रमाण कर्म परमाणूचा जोवाशी बंध होतो. कर्माचा बंध झाल्यानंतर कर्माचा जो स्थितिबंध असतो त्याच्या योग्य प्रमाणात आबाधा काळ असतो. जो पर्यंत बांधले गेलेले कर्म उदयास येण्यास सुरुवात होत नाही त्यास आबाधा काल म्हणतात. सामान्यत: आबाधा काळाचे प्रमाण. एक कोडाकोडीसागर स्थितीचा आवाधाकाल १०० वर्ष याप्रमाणे असतो. आबाधाकाल संपल्यानंतर ज्यांची स्थिति कमी असते ते कर्मपरमाणू निषेक अनुक्रमाने उदयास Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० तत्वार्थसार येऊन फल देऊन अथवा फल न देता तसेच निमूटपणे जीवापासून निघून जातात. सर्व कर्मांच्या जघन्य स्थितिचा आबाधाकाल स्थितीचा संख्याताधा भाग प्रमाण असतो. आयुकर्माचा आबाधाकाल आयुस्थितिच्या तृतीयांश भागापासून असंक्षेपाद्धाकाल- अर्थात् आवलीच्या असंख्यातवा भागप्रमाण असतो. जीवाच्या परिणाम निमित्त वश कर्मस्थिति संपण्याच्या अगोदर कर्म उदयास येणे यास उदीरणा म्हणतात. सर्व कर्माचा उदीरणाच्या अपेक्षेने आबाधाकाल एक आवलीप्रमाण आहे. ज्या कर्माचा जो स्थितिकाल असेल त्याचा अबाधावाल संपेपर्यत बांधलेले कर्म उदयास येत नाही. आबाधकाल संपल्यानंतर ज्यांची स्थिति संपते त्या कर्म परमाणूंची निषेक रचना होते. उदयास येण्यास तयार असलेल्या कर्म परमाणूना निषेक म्हणतात. निषेक रचनानुसार कर्म परमाणु उदयास येऊन जीवापासून निघून जातात. प्रथम निषेकामध्ये सर्वात जास्त कर्म परमाणू खिरतात. नंतर पुढच्या पुढच्या निष्कामध्ये गुणहानिक्रमानुसार गुणाकार रूपाने हीन हीन कर्म परमाणू खिरतात. गुणहानिक्रम अनेक प्रकारचा असतो त्याला नाना गुणहानि म्हणतात. पहिल्या गुणहानि पेक्षा पुढच्या गुणहानिमध्ये उदयास येणारे निषेक प्रदेश संख्येने निम्पट निम्पट उदयास येऊन खिरतात जसे- उदाहरणार्थ एका समयात बांधले गेलेले परमाणु ६३०० आहेत तर त्यांची उदयास येताना निषेक रचना खालील प्रमाणे होते. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय ८ ७ ६ ४ ३ २ १ गुणहानि निषेक रचना ( गुणहानि ६ गुणहानि आयाम ८ समय - ४८ ) एकूण परिणाम ६३०० ३२०० ३२ कमी पंचम अधिकार १ गुणहानि २ गुणहानि ३ गुणहानि ४ गुणहानि ५ गुणहानि ६ गुणहानि १६०० ८०० ४०० १०० १६ कमी ८. कमी ४ कमी १ कमी २८८ १४४ ३१० १६० ३५२ १७६ ३८४ १९२ ४१६ २०८ ४४८ २२४ ४८० २४० ५१२ २५६ ७२ ८० ८८ ९६ १०४ ११२ १२० १२८ ३६ ४० ४४ ४८ ५२ ५६ ६० ६४ २०० २ कमी १८ २० २२ २४ २६ २८ ३० १०१ ३२ १० ११ १२ १३ १४ याप्रमाणे प्रत्येक समयात गुणहानि पूर्वबद्ध निषेक क्रमाने उदयास येऊन निघून जातात व म्हणून त्यास उदय म्हणतात. जेव्हा जीवाच्या शुद्ध परिणामामुळे उदयास येणारे निषेक फल न देता निघून जातात, त्यावेळी नवीन कर्म परमाणूचा बंध होत नाही त्यास उदयाभावीक्षय किंवा उदयक्षय म्हणतात. यालाच अविपाक निर्जरा किंवा सकाम निर्जरा म्हणतात. जेव्हां ते निषेक फल देऊन निघून जातात त्यास सविपाक निर्जरा किंवा अकामनिर्जरा म्हणतात. सामान्यपणे ही सविपाक निर्जरा सर्व जीवांची होते सम्यग्दृष्टी- ज्ञानी जीवास संवर पूर्वक होणारी निर्जरा ती अविपाक निर्जरा म्हटली जाते. म्हणून सम्यग्दृष्टी- ज्ञानी जीव मोक्षमार्गस्थ म्हटला जातो. १५ १६ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ तत्वार्थसार जीवाचे परिणाम ३ प्रकारचे होतात. १ संक्लेश ( तीव्रराग ) २ विशुद्ध (मंदराग) ३ शुद्ध (वीतराग). १ संक्लेश परिणामानी पाप प्रकृतीचा उत्कृष्ट अनुभाग बंध होतो. २ विशुद्ध परिणामानी पुण्य प्रकृतीचा उत्कृष्ट अनुभाग बंध होतो. ३ वीतराग शुद्ध परिणामानी संवर-निर्जरा होते. अनंतानुबंधी आदि चार कषाय परिणामाच्या अपेक्षेने घाति कर्मांच्या अनुभाग शक्तीना शिला (पाषाण) अस्थि (हाड, दारु-लता (लाकूड) या चार उपमा दिल्या आहेत. अघाति कर्माच्या पुण्यप्रकृतीच्या अनुभाग शक्तीना गूळ, खांडसरी साखर, पिठीसाखर, अमृत या चार उपमा दिल्या आहेत. अघाति कर्माच्या पापप्रकृतींच्या अनुभाग शक्तीना निंब, कांजीर, विष, हालाहल विष या चार उपमा दिल्या आहेत. प्रदेशबंधाचे स्वरूप घनांगुलस्यासंख्येयभागक्षेत्राव गाहिन। ।। ४७ ।। एक-द्वि-त्र्याधसंख्येय समयस्थितिकास्तथा । उष्ण-रूक्ष-हिम-स्निग्धान सर्ववर्णरसान्वितान् ॥ ४८ ।। सर्वकर्म प्रकृत्यर्हान् सर्वेष्वपि भवेषु यत् । द्विविधान् पुद्गलस्कंधान सूक्ष्मान् योग विज्ञेषतः ॥ ४९ ॥ सर्वेष्वात्म प्रदेशेष्वनन्तानन्त प्रदेशकान् । आत्मसात् कुरुते जीव: स प्रदेशोऽभिधीयते ॥ ५० ।। अर्थ- घनांगलाच्या असंख्याताव्या भागप्रमाण क्षेत्रादगाहस्थितएक-दोन-तीन आदि संख्यात-असंख्यात समय स्थितिला जे धारण करतात उष्ण-शीत, स्निग्ध-रुक्ष स्पर्श व सर्ववर्ण, सर्व रस, दोनगंध या पुद्गल गुणाना धारण करतात, पुण्य व पाप रूप दोन प्रकारच्या कर्माणवर्गणा सूक्ष्म स्कंधपरमाणूना जीव आपल्या योगशक्ति विशेष सामर्थ्याने सर्व आत्मप्रदेशामध्ये समय प्रबद्ध प्रमाण अनन्तानन्त परमाणना प्रतिसमय ग्रहण करतो त्याला प्रदेशबंध म्हणतात. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अधिकार पुण्य-पाप रूपाने बंधाचे भेद शुभाशुभोपयोगाख्य निमित्तो द्विविधस्तथा । पुण्य-पापतया द्वेधा सर्व कर्म विभिद्यते ॥५१॥ अर्थ- जीवाच्या शभोपयोग व अशभोपयोगाच्या निमित्ताने आस्रव-बंधरूपाने जीवाशी एकरूप बद्ध झालेले कर्मपरमाणू पुण्यकर्म व पापकर्मरूपाने दोन प्रकाराने व ज्ञानावरणादि आठ प्रकृतिभेद रूपाने विभागले जातात पुण्य प्रकृतीची नावे उच्चैर्गोत्रं शुभायूंषि सवेद्यं शुभनाम च ।। द्विचत्वारिंशदित्येवं पुण्य प्रकृतयः स्मृताः ॥५२॥ अर्थ- १ उच्चगोत्र, ३ आयुकर्म, (देव-मनुष्य-तिर्यंच) १ सातावेदमीय व नामकर्माच्या ३७ (अभेदविवक्षेने) ६३ (भेदाविवक्षेने) एकूण बंधाच्या अपेक्षेने अभेदाविवक्षेने ४२ पुण्यप्रकृति आहेत भेदविवक्षेने ६८ पुण्य प्रकृति आहेत. (नामकर्माच्या अभेद विवक्षेने ४५ प्रकृति, व भेदविवक्षेने ६३ प्रकृति ) २ मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी, २ देवगतिदेवगत्यानुपूर्वी पंचेंद्रिय जाति, ५ औदारिकादि शरीरभेद विवक्षेने (५ बधन ५ संघात,) ३ अंगोपांग, ४ वर्णादिक ( अभेद विवक्षने ) भेदविवक्षेने २० प्रकृति ५ समचतुरस्र संस्थान, १ वज्रर्षभ नाराच संहनन, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय यशःकीति, निर्माण, तीर्थक र. पाप प्रकृतिचे भेद नीचर्गोत्रमसवेद्यं श्वभ्रायुर्नामचा शुभं । व्यशीतिर्घातिभिः साध्द पापप्रकृतय स्मृताः ।। ५३ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अर्थ - १ नीचगोत्र. १ असाता वेदनीय, १ नरकायु, अशुभनाम३४किंवा भेद विव५० (४५घातिकर्माच्या (ज्ञानावरण५, दर्शनावरण ९, मोहनीय २६, अंतराय ५ ) एकूण पापप्रकृति बंधाच्या अपेक्षेने अभेद विवक्षेने ८२, भेदविवक्षेने ९८ प्रकृति आहेत ( अशुभनाम प्रकृति ) २ तिर्यंचगति तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, २ नरकगति नरक गत्यानुपूर्वी ४ एकेंद्रियादि जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन भेदविवक्षेने स्पर्शादि २०, ( अभेदविवक्षेने ४ ) उपघात, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर, अपर्याप्तक, अस्थिर अशुभ दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, अप्रशस्त विहायोगति ) बंधतत्त्व उपसंहार - तत्त्वार्थसार इत्येतद् बंधतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते । शेष - तत्त्वः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग् भवेत् ॥ ५४ ॥ अर्थ - याप्रमाणे जो भव्यजीव या बंधतत्त्वाचे इतर सहा तत्त्वासह यथोचित श्रद्धान करतों, जाणतो व परम उपेक्षाभाव धारण करतो तो निर्वाणपदाची प्राप्ति करून घेतो. ( पाचवा अधिकार समाप्त ) Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खंड अधिकार ६ वा संवर तत्व वर्णन मंगलाचरण अनन्त केवलज्योतिः प्रकाशितजगत्त्रयं । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ना संवरः संप्रचक्ष्यते ॥ १॥ अर्थ- ज्यानी आपल्या अनन्त ज्ञानरुपी केवलज्ञान ज्योतिने तिन्ही जगाला प्रकाशित केले आहे अशा सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवंताना मस्तक नमवून नमस्कार रूप मंगल करून संवरतत्त्वाचे वर्णन या अधिकारात केले जाते. संवरलक्षण यथोक्तानां हि हेतूनामात्मनः सति संभवे । आसवस्य निरोधो यः स जिनैः संवरः स्मृतः ।। २ ॥ अर्थ- जीवाच्या ज्या शुद्ध स्वभाव परिणामांचा सद्भाव असताना नवीन कर्माच्या आस्रवाचा निरोध होतो त्या परिणामास सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवंतानी संवर म्हटले आहे. संवराची कारणे गुप्तिः समितयो धर्माः परीषहजयस्तपः । अनुप्रेक्षाश्च चारित्रं सन्ति संवरहेतवः ॥ ३ ।। अर्थ- ३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, २२ परीषहजय, १२ तप, १२ अनुप्रेक्षा व ५ प्रकारचे चारित्र ही संवराची कारणे आहेत. ___ गुप्तिचे स्वरूप योगानां निग्रहः सम्यग् गुप्तिरित्यभिधीयते । मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च सा त्रिधा ॥ ४ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ६ वा अर्थ- सम्यग्दर्शन पूर्वक मन-वचन-काय या तीन योगांचा निग्रह करणे याला गुप्ति म्हणतात. गुप्तिचे तीन भेद आहेत. १ मनोगुप्ति, २ वचन गुप्ति, ३ कायगुप्ति. संवराचे मुख्य कारण गुप्ती आहे तत्र प्रवर्तमानस्य योगानां निग्रहे सति । तनिमित्ता स्वाभावात् सद्यो भवति संवरः ॥ ५॥ अर्थ- जीव मन-वचन-कायेच्या द्वारे आपली उपयोग प्रवृत्ती करीत असताना त्या तीन योगाचा निग्रह केला असताना योग प्रवृत्ती निमित्तक नवीन कर्माचा आस्रव होत नाही तत्क्षणी नवीन कर्माचा संवर होतो. समितिचे स्वरूप ईर्या भाषणादान निक्षेपोत्सर्ग भेदतः। पंच गुप्तावशक्तस्य साधोः समितयः स्मृताः ॥ ६ ॥ अर्थ- तीन गुप्तीचे पालन करण्यास असमर्थ अशा साधूची ईर्या (गमन करणे) भाषा (वचन बोलणे) एषणा (आहार घेणे) आदान निक्षेप (वस्तु घेणे व ठेवणे) उत्सर्ग (मळ-मूत्र विसर्जन) या क्रिया प्रवृत्ती करीत असताना प्राणिवध होणार नाही अशी सावधानता ठेवणे यास समिति म्हणतात. समितिचे ५ भेद आहेत. १ ईर्या समिति, २ भाषा समिति, ३ एषणा समिति, ४ आदान निक्षेपण समिति ५ उत्सर्ग समिति. ईर्या समिति लक्षण मार्गोद्योतोपयोगाना मालंध्यस्य च शुद्धिभिः । गच्छतः सूत्रमार्गेण स्मृतेर्यासमितिर्यतेः ॥ ७ ॥ अर्थ- शास्त्रात सांगितलेल्या यथोचित मार्गाचे गमन करीत मार्गशुद्धि-चार हात जमीन पाहून चालणे, उद्योत शुद्धी सूर्य प्रकाश Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार ६ वा असताना, उपयोगशुद्धि पूर्वक, आलंब्यशुद्धि गमनकरण्याचा उद्देश पवित्र भावना ठेवून गमन करणे ही मुनीची ईर्यासमिति म्हटली जाते. भाषा समिति लक्षण व्यलीकादि विनिर्मुक्तं सत्यासत्यामृषाद्वयं । वदतः सूत्रमार्गेण भाषासमिति रिष्यते ॥ ८ ॥ अर्थ - शास्त्रात सांगितलेल्या विधिपूर्वक असत्य व उभय ( सत्यासत्य ) हे दोन प्रकारचे वचन न बोलता केवळ सत्य व अनुभय ( असत्य - मृषा ) असे दोन प्रकारचे वचन बोलणे याला भाषासमिति म्हणतात. विशेषार्थ - शास्त्रात भाषेचे ४ प्रकार सांगितले आहेत. १ सत्य - हित, मित, प्रिय वचन बोलणे ते सत्यवचन होय. २ असत्य - अहितकारक, अप्रिय, असे खोटे वचन बोलणे ते असत्य वचन होय. ३ ३ उभय- कपटपूर्वक असत्यभावना पूर्वक सत्यवचन बोलणे ते उभय वचन होय. ४ अनुभय- ज्यामध्ये सत्य-असत्याची भावना विवक्षा नसते जसे आमंत्रण याचना पृच्छा ( प्रश्न विचार ) आदेश - उपदेश इ. जे वचन ते अनुभय वचन होय, या पैकी असत्य व उभय हे दोन प्रकारचे वचन हिंसामूलक असल्यामुळे बोलणे पाप आहे मुनि लोक प्रयोजनवश सत्य व अनुभय हे दोन प्रकारचे वचन च बोलतात. त्याबद्दल यथोचित प्रतिक्रमण प्रायश्चित करतात. एषणा समिति पिण्डं तथोर्पाधि शय्यामुद्गमोत्पादनादिना । साधोः शोधयतः शुद्धा ह्येषणा समितिर्भवेत् ॥ ९ ॥। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ६ वा अर्थ- उद्गम-उत्पादना आदि दोष शुद्धीचे पालन करीत भोजन, उपाधि- पिछी-कमंडलु वगैरे शुद्धीचे उपकरण बसण्या उठण्याचे व झोपेचे आसन चटई, पाट वगैरे यांचा वापर करीत असताना जीव-जंतु प्राणिवध न होईल अशी सावधानता ठेवणे ती एषणा समिति होय. आदान-निक्षेपण समिति सहसाऽदृष्ट-दुर्मुष्ट प्रत्यवेक्षण दूषणं । त्यजतः समितिञ्जेयाऽऽदाननिक्षेपगोचरा ॥ १० ॥ अर्थ- घाईने सहसा एकदम न पाहता, न झाडता, जीवजंतूचे निरीक्षण न करता पिछी-कमंडलु-शास्त्र आदि उपकरण वस्तू घेणे- ठेवणे त्याग करणे, अर्थात् पिंछीने परिमार्जन करून कोणतीही वस्तु उचलणे किंवा ठेवणे यास आदान निक्षेपण समिति म्हणतात. उत्सर्ग समिति समितिशिताऽनेन प्रतिष्ठापनगोचरा । त्याज्यं मूत्रादिकं द्रव्यं स्थण्डिले त्यजतो मुनेः ।। ११ ॥ अर्थ- उपरोक्त विधीने अर्थात् जीवजंतुचा वध न होईल अशी सावधानता पूर्वक निर्जन्तुक अशा प्रासुक भूमीवर मल-मूत्रादि विसर्जन करणे याला प्रतिष्ठापन समिति अथवा उत्सर्ग समिति म्हणतात. समितिचे फल इत्थं प्रवर्तमानस्य न कर्माण्यासवन्ति हि। असंयमनिमित्तानि ततो भवति संवरः ।। १२ ॥ अर्थ- या प्रमाणे सावधानपूर्वक समितिचे पालन करणा-याला असंयम निमित्तक कर्माचा आस्रव होत नाही त्यामुळे आस्रव निरोध झाल्यामुळे संवर होतो. दहा धर्माची नावे क्षमा मृद्वजुते शौचं ससत्यं संयमस्तपः । त्यागोऽकिंचनता ब्रह्म धर्मो दशविधः स्मृतः ।। १३ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ६ वा अर्थ- उत्तम क्षमा- मार्दव- आजव- शौच- सत्य- संयम- तप- त्याग आकिंचन्य व ब्रह्मचर्य हा दहा प्रकारचा धर्म आहे. क्षमा धर्म क्रोधोत्पत्ति निमित्तानामत्यन्तं सति संभवे। आक्रोश ताडना दीनां कालुष्योपरमः क्षमा ॥ १४ ॥ अर्थ- आक्रोश-ताडन मारण-आदि क्रोधाच्या उत्पत्तीचे कारण उपस्थित असताना देखील कलुषित परिणाम न होऊ देणे त्यास क्षमा धर्म म्हणतात. मार्दव धर्म अभावो योऽभिमानस्य परैः परिभवे कृते । जात्यादीनामनावेशान्मदानां मार्दवं हि तत् ॥ १५ ॥ अर्थ- दुस-यानी आपला अपमान पराभव केला असताना जाति, कुल, इ. अभिमानवश गर्व उत्पन्न न होणे यास मार्दव धर्म म्हणतात. आर्जव धर्म वाङमनः काय योगानामवक्रत्वं तदार्जवं ।। अर्थ- मन-वचन-काय- प्रवृत्तीमध्ये मायाचार-कुटिलता नसणे यास आर्जव धर्म म्हणतात. मन वचन कायेच्याद्वारे सचोटीचा सत्य सरळ व्यवहार करणे तो आर्जव धर्म होय. शौच धर्म परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रिय भेदतः । चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते ।। १६ ॥ अर्थ- दासी-दास- व स्त्रीअलंकार आदि वस्तू परिभोग, भोजनचंदन- लेपन इत्यादि भोग वस्तू, जीवित व पंचेंद्रियाचे विषय भोग या चार प्रकारच्या वस्तूविषयी मूर्छा- ममत्व भाव त्याला लोभ म्हणतात. लोभ परिणामापासून निवृत्ति तो शौचधर्म होय. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार ६ वा सत्य धर्म ज्ञान-चारित्र शिक्षादौ स धर्मः सुनिद्यते । धर्मोपबृंहणार्थ यत् साधु सत्यं तदुच्यते ॥ १७ ॥ अर्थ- रत्नत्रय धर्माचे पालन-रक्षण-वृद्धि होण्यासाठी ज्ञानशास्त्र स्वाध्याय व व्रत-संयमादि चारित्र या संबंधी जो उपदेश दिला जातो तो शास्त्रोक्त निर्दोष सन्मार्गाचा उपदेश देणे तो साधुलोकांचा सत्य धर्म होय. संयम धर्म इंद्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां वधवर्जनं । समितौ वर्तमानस्य मुनर्भवति संयमः ॥ १८ ॥ अर्थ- पंचेंद्रियाच्या विषयापासून विरक्ति, षट्काय जीवांच्या हिंसेपासून विरक्ति, पाच समितीचे पालन हा श्रेष्ठ मुनिलोकांचा संयम धर्म होय. तप धर्म परं कर्मक्षयार्थ यत् तप्यते तत् तपः स्मृतं । अर्थ- कर्माचा क्षय होण्यासाठी बारा प्रकारच्या बाह्य व अभ्यन्तर तपाचे आचरण करणे तो उत्कृष्ट तपधर्म होय. त्याग धर्म त्यागस्तु धर्मशास्त्रादि विश्राणन मुदाहृतं ॥ १९ ॥ अर्थ- धर्मशास्त्रदान-आहारदान-औषधदान-वसतिका आदि अभयदान असे चार प्रकारचे दान देणे हा त्यागधर्म होय. आकिंचन्य धर्म ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित् ।। अभिसंधि निवृत्तिर्या तदाकिचन्यमुच्यते ॥ २० ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ६ वा अर्थ- शरीरादि पर द्रव्याविषयी ममत्व बुद्धीचा त्याग व राग द्वेषादि परभावाविषयी आत्मत्व बुद्धि-अहंकार बुद्धिचा त्याग, आर्त-रौद्रध्यानादि दुष्ट अभिप्रायाचा त्याग तो आकिंचन्य धर्म होय. ब्रह्मचर्य धर्म स्त्रीसंसक्तस्य शय्यादेरनुभूताङ्गना स्मृतेः । तत्कथायाः श्रुतेश्च स्याद् ब्रह्मचर्य हि वर्जनात् ॥ २१ ॥ अर्थ- स्त्रीसंसर्गाने दूषित शय्या-आसन-संभाषण याचा त्याग करणे, पूर्वी अनुभवलेल्या स्त्री संभोगाचे स्मरण न करणे, स्त्री विषयी रागभाव उत्पन्न होईल अशा नाटक-कादंबरीतील कथा श्रवण न करणे तो ब्रह्मचर्य धर्म होय. धर्माचे फल इति प्रवर्तमानस्य धर्मे भवति संवरः । तद्विपक्षनिमित्तस्य कर्मणो नाश्रवे सति ॥ २२ ॥ अर्थ- या प्रमाणे जो जीव या दशधर्माचे पालन करतो त्याला अधर्म निमित्तक पापकर्माचा आस्रव होत नाही संवर- निर्जरारूप मोक्षमार्गाची साधना करीत शाश्वत सुखाची प्राप्ती होते. बावीस परीषहजय क्षुत्-पिपासा च शीतोष्णदंशमत्कुणनग्नते। अरतिः स्त्री च चर्या च निषद्या शयनं तथा ।। २३ ॥ आक्रोशश्च वधश्चैव याचनाऽलाभयोयं । रोगश्च तृणसंस्पर्शस्तथाच मलधारणं ॥ २४ ॥ असत्कार पुरस्कारं प्रज्ञाऽज्ञानमदर्शनं । इति द्वाविंशतिः सम्यक् सोढव्याः स्युः परीषहाः ॥ २५ ।। अर्थ- परीषह २२ आहेत. परीषह सहन करणे यास परीषहजय म्हणतात. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ६ वा १) क्षुधा परीषह - अहिंसा धर्मांचे पालन होण्यासाठी, आत्मस्वरूपात स्थिर राहण्यासाठी चारही प्रकारचा ( खाद्य स्वाद्यपेय-- ) आहाराचा त्याग करणे यास उपवास म्हणतात. आत्मस्वरूपात राहणे हा निश्चय उपवास. आहाराचा त्याग हा व्यवहार उपवास. उपवास धारण केला असताना, अथवा अंतराय आला असताना जी क्षुधेची बाधा उत्पन्न होते ती सहन करणे तो क्षुधा परीष हजय होय. २) पिपासा परीषह - पित्त आदिक दोष उत्पन्न झाले असताना, प्रकृतीविरुद्ध आहार मिळाला तर जी तृषेची बाधा उत्पन्न होते ती सहन करणे हा तृषापरीषहजय होय. ३) शीत परीषह - थंडीचे दिवसात थंडीची बाधा उत्पन्न होते ती सहन करणे ( थंडीचे दिवसात नदीचे काठी जाऊन थंडीची बाधा सहन करणे. तो शीत परीषहजय होय. -- ४) उष्ण परीषह - गरमीचे दिवसात उष्णतेची बाधा सहन करणे ( गरमीचे दिवसात पहाडाचे शिखरावर जाऊन उष्ण शिलेवर बसून ध्यान करणे तो उष्ण परीषहजय होय. ५) दंशमशक परीषह - डांस, मच्छर इत्यादिकाचा उपसर्ग सहन करणे त्यास दंशमशक परीपहजय म्हणतात. ६ ) नाग्न्य परीषह - नग्नता धारण केली असताना लहान बालकाप्रमाणे मनामध्ये विकार उत्पन्न न होणे यास नाग्न्य परीषहजय म्हणतात. ७) अरति परीषह - बाह्य अनिष्ट पदार्थाच्या रोगादिकाचा संयोग झाला असल्यास त्या बद्दल द्वेष न करणे या अरतिपरीष हजय म्हणतात. ८) स्त्रीपरीषह - स्त्रीला पाहून कामविकार उत्पन्न न होऊ देणे घास स्त्री परीषहजय म्हणतात. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ६ वर ९) चर्यापरीषह - दीर्घकाल गमन करीत असताना जे श्रम होतात जे दुःख होते ते सहन करणे त्यास चर्या - परीषहजय म्हणतात. १० ) निषद्यापरीषह - दीर्घकाळ एका आसनाने बसले असता होणारे दुःख सहन करणे यास निषद्या परीषहजय म्हणतात. ११) शय्यापरीषह - एका अंगावर संकुचित अंगकरून झोपले असताना होणारे दुःख सहन करणे यास शय्या परीषहजय म्हणतात. १२) आक्रोशपरीषह - दुसन्याने उपसर्ग केला असताना त्याबद्दल आक्रोश न करणे यास आक्रोश परीषहजय म्हणतात. १३ ) वधपरीषह - दुसन्याने ताडन मारण उपसर्ग केला असताना होणारे दुःख सहन करणे यास वधपरीषहजय म्हणतात. १४) याचना परीषह - आहार, औषध इत्यादी विषयी याचना न करणे यास याचना परीषहजय म्हणतात. १५) अलाभपरीषह - आहारादि वसतिकास्थान इत्यादिकाचा लाभ न झाल्यामुळे होणारी बाधा सहन करणे यास अलाभ परीषहजय म्हणतात. १६ ) रोगपरीषह - शरीरात वात पित्तादि रोग उत्पन्न झाले असताना होणारे दुःख सहन करणे यास रोग परीषहजय म्हणतात. १७) तृणस्पर्शपरीषह - चालताना पायात खडे - चिपरे - काटे टोचत असताना होणारे दुःख सहन करणे यास तृणस्पर्श परीषहजय म्हणतात. १८) मलपरीषह - शरीरावर घामामुळे मल उत्पन्न झाला असताना होणारे दुःख सहन करणे त्यास मलपरीषहजय म्हणतात. १९ ) असत्कार पुरस्कार परीषह- दुसयानी कोणी सत्कारपुरस्कार केला नाही, मान-सन्मान केला नाही, अपमान केला तरी त्याबद्दल खेद न वाटू देता तो सहन करणे. यास असत्कार-पुरस्कार परीषहजय म्हणतात. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तत्त्वार्थसार अधिकार ६ वा २०) प्रज्ञा परीषह- आपल्या विशेष ज्ञानाचा अभिमान न बाळगणे यास प्रज्ञा परीषहजय म्हणतात. २१) अज्ञान परीषह- दुसऱ्या ज्ञानवान् लोकाकडून आपल्या अज्ञान दोषा बद्दल जर निंदा झाली तर ती सहन करणे यास अज्ञानपरीषहजय म्हणतात. २२) अदर्शन परीषहय- घोरतपश्चरण करूनही जर कार्यसिद्धि झाली नाही तर मोक्षमार्गाला दोष न लावणे यास अदर्शन परीषहजय म्हणतात. या बावीस परीषहापैकी शीत-उष्ण यापैकी एक, चर्या-निषद्याशय्या यापैकी कोणताही एक असे तीन परीषह सोडून युगपत् जास्तीतजास्त १९ परीषह प्राप्त होऊ शकतात. १) ज्ञानावरण कर्माच्या उदयाने प्रज्ञा व अज्ञान परीषह उत्पन्न होतात. २) दर्शन मोहनीयाच्या उदयाने अदर्शन परीषह उत्पन्न होतो. ३) अंतरायकर्माच्या उदयाने अलाभ परीषह उत्पन्न होतो. ४) चारित्रमोहकर्माच्या उदयाने नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश याचना असत्कार-पुरस्कार हे ७ परीषह उत्पन्न होतात. ५) वेदनीय कर्माच्या उदयाने वाकीचे ११ परीषह उत्पन्न होतात. गुणस्थान ११-१२ सूक्ष्मसापराय व छद्मस्थ वीतराग उपशांत मोह क्षीणमोह या गुणस्थानात- क्षुधा, तृषा, शीत उष्ण दंशमशक चर्याशय्या, वध-अलाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल, प्रज्ञा-अज्ञान हे १४ परीवह उत्पन्न होऊ शकतात. गुणस्थान १३- के वाली गाना- वेदनीयकर्माचा सत्तामात्र उदय असल्यामुळे नाममात्र तज्जनित ११ परीषह सांगितले आहेत. वास्तविक मोहनीय कर्माच्या अभावात वेदनीय कर्माचे फट सुख-दुःख क्षुधादिकपरीषह भगवंताना नसतात. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थसार अधिकार ६ वा बादर सांपराय-अर्थात् गुणस्थान ६ पासून ९ व्या गुणस्थानापर्यंत २२ परीषह उत्पन्न होऊ शकतात. परीषहजयाचे फळ संवर निर्जरा संवरो हि भवत्येतानसंक्लिष्टेन चेतसा । सहमानस्य रागादि निमित्तास्वरोधतः ।।२६॥ अर्थ- हे परीषह प्राप्त झाले असताना देखील आत्मज्ञानी मुनि शांतपणाने सहन करतात. संक्लिष्ट परिणाम होऊ देत नाहीत. त्यामुळे रागादिपरीणामामुळे येणारे नवीन कर्म येत नाही. त्यांचा आश्रव निरोध होऊन महान् संवर होतो. तपाचे फळ संवर व निर्जरा तपो हि निर्जराहेतुरुत्तरत्र प्रचक्ष्यते । संवरस्यापि विद्वांसो विदुस्तन्मुख्य कारणं ॥२७॥ अनेककार्यकारित्वं म चैकस्य विरुध्यते । दाहपाकादि हेतुत्व दृश्यते हि विभावसोः ॥२८॥ अर्थ- तप हे निर्नरचे कारण आहे असे पुढील निर्जरा अधिकारात सांगणार आहेत. परंतु तप हे संबर।चे देखील मुख्य कारण आहे असे विद्वान् लोक मानतात. एक वस्तु अनेक कार्याचे कारण होऊ शकते त्यात काही विरोध येत नाही. एकच अग्नि हा (दाह) जाळणे व ( पाक ) अन्नादि शिजविणे इत्यादि अनेक कार्य करणारा दिसून येतो. त्याप्रमाण तप हे संवर व निर्जरा या दोघांचे कारण मानण्यात विरोध येत नाही. बारा अनुप्रेक्षा अनित्यं शरणाभावो भवश्चैकत्व मन्यता । अशौचमाशवश्चैव संवरो निर्जरा तथा ॥२९॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ तत्वार्थसार अधिकार ६ वा लोको दुर्लभता बोध: स्वारव्यातत्वंवृषस्यच । अनुचिन्तनमेतेषामनुप्रेक्षाः प्रकीर्तिताः ||३०|| अर्थ - वारंवार चितवन करणे यास अनुप्रेक्षा भावना म्हणतात. भावनाचे १२ भेद आहेत १) अनित्यभावना २) अशरणभावना ३ ) संसार भावना ४ ) एकत्वभावना ५) अन्यत्वभावना ६ ) अशुचित्वभावना ७) आस्वभावना ८ ) संवरभावना ९ ) निर्जराभावना १०) लोकभावना ११) बोधिदुर्लभ भावना १२) धर्मस्वारव्यात तत्त्वानुचितन भावना. १ अनित्य भावना कोडीकरोति प्रथमं जातजन्तुमनित्यता । धात्री च जननी पश्चाद् धिङमानुष्यमसारकं ॥ ३१ ॥ अर्थ- जन्मजात झालेल्या प्राण्याला ही अनित्यता प्रथम कवटाळते. जन्मास आलेला प्राणी दुसऱ्या समयापासून एक एक समय मरणासन्न होतो. जन्मलेल्या बालकाला दाई किंवा आई नंतर आपल्या जवळ घेते. त्याचे अगोदर मृत्युच एक एक समय मरण रूपाने त्याला कवटाळतो. रत्नत्रयधर्मांने रहित मनुष्याचे जीवन हे असार - निरर्थक म्हटले जाते. याप्रमाणे जीवनाचे क्षणभंगुरत्व जाणून रत्नत्रयधमत स्थिर होणे ही अनित्यभावना होय. २ अशरण भावना उपन्नातस्य धीरेण मृत्युव्याघ्रेण देहिनः । देवा अपि न जायन्ते शरणं किमु मानवाः ।। ३२ ॥ अर्थ - मृत्युरूपी शूर वाघाने ज्या प्राण्याला एक वेळ सुंघले त्याचे त्या मृत्यु पासून स्वर्गातील देव देखील रक्षण करु शकत नाहीत. मग माणसाची काय कथां ! मरण आले असताना दुर्गतीत जाऊ न देता सद्गतीत नेणारा एक धर्मच या जीवाला शरण आहे. याप्रमाणे धर्मास शरण जाणे ही अशरण भावना होय. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसारआधिकार ६ वा ३ संसार भावना चतुर्गति घटीयंत्रे सन्निवेश्य घटीमिव । आत्मानं भ्रमयत्येष हा कष्टं कर्मकच्छिक : ॥ ३३ ॥ अर्थ- घटीयंत्राच्या रहाटगाडग्यामध्ये बसलेल्या मनुष्याला जसे ते घटीयंत्र फिरविते त्याप्रमाणे कर्म या जीवाला चतुर्गति रूप घटीयंत्रामध्ये बसवून सारखा चतुर्गतिमध्ये भ्रमण करवीत आहे. याप्रमाणे संसारदुःखाविषयी उद्वेग निर्माण होणे ही संसारभावना होय. ४ एकत्व भावना कस्यापत्यं पिता कस्य कस्याम्बा कस्य गेहिनी । एक एव भवाम्भोधौ जीवो भ्रमति दुस्तरे।। ३४ ॥ अर्थ- या तरून जाण्यास कठीण अशा दुस्तर संसारामध्ये हा जीव एकटाच चतुर्गति भ्रमण करतो. कोण कोणाचा मुलगा, कोण कोणाचा बाप, कोण कोणाची आई, कोण कोणाची स्त्री ही सर्व नाती एकाच भवापुरती असतात. दुसऱ्या भवात त्यांचा काही संबंध राहात नाही. ५ अन्यत्व भावना अन्यः सचेतनो जीवो वपुरन्यदचेतनं । हा तथापि न मन्यन्ते नानात्वमनयोर्जना ।। ३५ ॥ अर्थ- जीव सचेतनलक्षण वेगळा आहे. शरीर अचेतन लक्षण वेगळे आहे. तथापि हे अज्ञानी जीव शरीर व आत्मा यांचे अन्यत्व मानीत नाहीत. शरीराविषयी एकत्वबुद्धी मानून संसारात भटकत आहेत. ६ अशुचित्वभावना नानाकृमिशताकीर्णे दुर्गधे मलपूरिते । आत्मनश्च परेषां च क्व शुचित्वं शरीरके ।। ३६ ।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ६ वा अर्थ- आपले शरीर असो की दुसऱ्या कोणाचे ही शरीर असो हैं शरीर नाना शेकडो कीटकानी गचपच भरले आहे या शरीरातून नव द्वारातून सारखा मल वाहात आहे. मलाने भरलेले. हे दुर्गंध' शरीर पवित्र कसे असणार ? अशा अपवित्र शरीरावर प्रेम करणे योग्य नाही अशी भावना भावणे ही अशुचित्व भावना होय. १४ ७ आस्रव भावना कर्माम्भोभिः प्रपूर्णोऽसौ योगध्रसमाहृतः । हा दुरन्ते भवाम्भोधौ जीवो मज्जति पोतवत् ॥ ३७ अर्थ - या संसाररूपी सागरामध्ये ही संसारीजीवरूपी नौका मन-वचन-काय योगरूपी छिद्रातून येणान्या कर्मरूपी पाण्याने परिपूर्ण भरून बुडत आहे. या संसार समुद्रातून तरूत जाणे अत्यंत कठीण आहे. अंशी भावना भावणे ही आस्रव भावना होय. ८ संवर भावना योगद्वाराणि रुन्धन्तः कपाटैरिव गुप्तिभिः । आपतद्भिर्न बाध्यन्ते धन्याः कर्मभिरूत्कटैः ।। ३८ ।। अर्थ - मन वचन काय योग प्रवृत्तीला कपाटरूपी गुप्तीच्याद्वारे बंद करून नवीन येणाऱ्या घोर कर्मानी जे बाध्यमान होत नाहीत ते सम्यग्दृष्टी ज्ञानी पुरुष धन्य होत. याप्रमाणे सम्यग्दर्शन सहित गुप्तिसमितिचे पालन करण्याचे परिणाम ठेवण ही संवर भावना होय. ९ निर्जरा भावना गाढोपजीर्यते यद्वदामदोषो विसर्पणात् तद्वन्निर्जीर्यते कर्म तपसा पूर्वसंचितं ।। ३९ ।। अर्थ- ज्याप्रमाणे (विसर्पण) विरेचक औषधीच्याद्वारे शरीरातील पूर्वीचा गाढ महान् आमदोष (अजीर्णाचा दोष ) नष्ट होतो Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ६ वा त्याप्रमाणे तपाच्याद्वारे अनेक भवामध्ये पूर्वसंचित कर्म निघून जाते त्यास निर्जरा म्हणतात. या प्रमाणे बारा प्रकारच्या तपाचे आचरण करणे ही निर्जरा भावना होय. १० लोक भावना नित्याध्वगेन जीवेन भ्रमता लोकवर्मनि । वसतिस्थानवत् कानि कुलान्यधुषितानि न ।। ४० ।। अर्थ- या तीन लोकामध्ये चतुर्गतिमध्ये एकसारखा हा जीव भ्रमण करीत आहे. या जीवाने या चतुर्गतिमध्ये कोणत्या कुलयोनीमध्ये जन्म घेऊननिवास केला नाही? अर्थात नाना कुलयोनीमध्ये हा जीव सारखा भटकत आहे. जेणे करुन माझे त्रिलोक भ्रमणाचे दुःख नाहीसे होवो अशी भावना भावणे ही लोकभावना होय. ११ बोधिदुर्लभ भावना मोक्षारोहण निश्रेणिः कल्याणानां परंपरा । अहो कष्टं भवाम्भोधौ बोधि वस्य दुर्लभा ॥ ४१ ।। अर्थ- मोक्षरुपी महालावर चढण्यासाठी जी नीशानी (जिना) आहे. जी सर्व कल्याण सुखाची परंपरा प्राप्त करून देणारी आहे. जी मोक्षरूपी वृक्षाची बीजभूत कारण आहे अशी आत्मस्वरूपाची जाणीव आत्मज्ञान रूप बोधि या संसार समुद्रामध्ये भटकणा-या जीवाला मोठ्या कष्टाने महान्प्रयासाने प्राप्त होते अशा आत्मस्वरुपोपलब्धा निरंतर भावना भावणे ती बोधिदुर्लभ भावना होय. १२ धर्मस्वाख्यात तत्वानुचितन भावना क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः स्वाख्यातो जिनपुंगवैः । अयमालम्बनस्तम्भो भवाम्बोधौ निमज्जतां ।। ४२ ॥ अर्थ- या संसार समुद्रामध्ये बुडणा-या जीवाना उत्तमक्षमामार्दव-आर्जव-शौच-संघम-तप-त्याग-आकिं चन्य-ब्रह्मचर्य स्वरूप दशलक्षण Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ६ वा धर्म जिनेंद्र भगवंतानी सांगितला आहे. त्याचे निरंतर अनुशीलन पालन करणे ही धर्मस्वाख्यात तत्वानुचिंतन भावना होय. बाराभावनाचे फल संवर एवं भावयतः साधोर्भवेद् धर्ममहोद्यमः । ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥ ४३ ।। अर्थ- याप्रमाणे बारा भावनेचे जो साधु निरंतर प्रमाद रहित होऊन चिंतन करतो त्याला महान् संवराची प्राप्ती होते. संवराचे कारण ५ प्रकारचे चारित्र सामायिकं ज्ञेयं छेदोपस्थापन तथा । परिहारं च सूक्ष्मं च यथाख्यातं च पंचमं ।। ४४ ॥ अर्थ- संवराचे कारण चारित्र त्याचे पाच प्रकार आहेत. १ सामायिक, २ छेदोपस्थापना, ३ परिहारविशुद्धि, ४ सूक्ष्मसांपराय, ५ यथाख्यात चारित्र. १ सामायिक चारित्रस्वरूप प्रत्याख्यानमभेदेन सर्वसावद्यकर्मणः । नित्यं नियतकालं वा वृत्तं सामायिकं स्मृतं ।। ४५ ।। अर्थ- अभेदनयाने सर्व सावद्य क्रियारंभाचा त्याग करून काही नियतकाल किंवा सदासर्वकाल आत्मस्वरूपामध्ये आपला उपयोग स्थिर करणे यास सामायिक चारित्र म्हणतात. (गुणस्थान ६ ते ९) २ छेदोपस्थापना चारित्र स्वरूप यत्र हिंसादिभेदेन त्यागः सावद्यकर्मणः ।। व्रतलोपे विशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ।। ४६ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ६ वा अर्थ - हिंसादि पांच पापरूप सावद्यकर्माचा त्याग करून महाव्रतामध्ये जर काही दोष लागले तर त्याबद्दल यथायोग्य प्रायश्वित्तादि घेऊन पुनः व्रतामध्ये स्थिर होणे यास छेदोपस्थापना चारित्र म्हणतात. ( गुण. ६ ते ९ ). ३ परिहारविशुद्धि चारित्र विशिष्ट परिहारेण प्राणिघातस्य यत्र हि । शुद्धिर्भवति चारित्रं परिहारविशुद्धि तत् ॥ ४७ ॥ अर्थ - सहाव्या गुणस्थानवर्ती मुनीना तपाच्या प्रभावाने अशी विशिष्ट ऋद्धि ( चारण ऋद्धि ) प्राप्त होते की ज्यामुळे जमिनीवरून अधर गमन करतात. त्यांच्या विहाराने जमिनीवरील प्राण्याचा घात होत नाही अशा ऋद्धि पूर्वक परिणामाची जी विशुद्धि त्याला परिहार विशुद्धि चारित्र म्हणतात. ( गुण. ६-७ ) ४ सूक्ष्म सांपराय चारित्र कषायेषु प्रशान्तेषु प्रक्षीणेस्वखिलेषु वा । स्यात् सूक्ष्मसांपरायाख्यं सूक्ष्म लोभवतो मुनेः ॥ ४८ ॥ अर्थ - जेव्हा दाम गुणस्थानवर्ती मुनीना क्रोधादि सर्व कषायांचा उपशम किंवा क्षय होऊन केवळ सूक्ष्म लोभ शिल्लक राहतो त्यामुळे जी परिणाम विशुद्धि होते त्यास सूक्ष्मसांपराय चारित्र म्हणतात. ( गुण १० ) ५ यथाख्यात चारित्र क्षयाच्चारित्र मोहस्य कात्स्न्यें नोपशमात् तथा । यथाख्यात मथाख्यातं चारित्रं पंचमं जिनैः ।। ४९ ।। १७ अर्थ- संपूर्ण चारित्र मोहनीय कर्माचा उपशम किंवा क्षय झाला असताना जसे आत्म्याचे स्वरूप जिन भगवंतानी सांगितले आहे. तशी परिणामाची पूर्ण विशुद्धि - ( वीतरागता ) प्राप्त होणे त्यास यथाख्यात चारित्र म्हणतात. ( गुण ११ - १२ ) Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तरवार्थसार अधिकार ६ वा चारित्र हे संवराचे कारण आहे सम्यक् चारित्र मित्येतद् यथारस्वं चरतो यतेः । सर्वासवनिरोधः स्यात् ततो भवति संवरः ॥ ५० ॥ अर्थ- याप्रमाणे पाच प्रकारचे सम्यक चारित्राचे यथायोग्य पालन करणाऱ्या मुनीला मोहनीयाच्या अभावात सर्व घातिकर्माच्या आस्रवाचा निरोध होतो त्यामुळे महान् संवर होतो. तप संवराचे कारण आहे तपस्तु वक्ष्यते तध्दि सम्यग् भावयतो यतेः । स्नेहक्षयात् तथा योगरोधाद् भवति संवारः ॥५१॥ अर्थ- तपाचे वर्णन पुढील आधिकारात सांगणार आहेत तपाची उत्तमप्रकारे भावना करणा-या मुनीला राग द्वेषाचा क्षय झाल्यामुळे तसेच योगाचा निरोध झाल्यामुळे महान् संवर होतो. उपसंहार इति संवरतवं यः श्रद्धत्ते वेत्त्युपेक्षते । शेषतत्त्वेः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग भवेत् ॥ ५२ ॥ अर्थ - जो मुनि याप्रमणे इतर सहा तत्वा बरोबर संवर तत्वाचे यथोचित ज्ञान करून घेऊन त्यावर श्रध्दा करतो, परमउपेक्षाभाव वीतरागभाव, समताभाव, उदासीन भाव धारण करतो त्याला मोक्षाची प्राप्ती होते. श Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार ७ वा ७ निर्जराधिकार मंगलाचरण अनन्तकेवल ज्योतिः प्रकाशित जगत् त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ना निर्जरा तत्त्वमुच्यते ॥१॥ अर्थ- ज्यानी आपल्या केवल ज्ञान ज्योतिने तिन्ही लोकातील सर्व पदार्थाना प्रकाशित केले अशा जिनेंद्र भगवंताना मस्तक नमवून नमस्कार करून निर्जरातत्त्वाचे वर्णन या अधिकारात सांगितले जाते. निर्जरा लक्षण व भेद उपात्तकर्मणः पातो निर्जरा द्विविधा च सा । आद्या विपाकजा तत्र द्वितीया चाविपाकजा ॥२॥ अर्थ- पूर्वी बांधलेले कर्म सत्ता संपल्यानंतर उदयास येऊन निघून जाते त्यास निर्जरा म्हणतात. निर्जरा २ प्रकारची आहे १) सविपाक निर्जरा, २) अविपाक निर्जरा. १ सविपाक निर्जरा लक्षण अनादिबंधनोपाधिविपाकवशतिनः । कारब्धफलं यत्र क्षीयते सा विपाकजा ॥३॥ अर्थ- अनादि बंधन बध्द शक्तीच्या विपाक वश पूर्वी बांधलेले कर्म सत्ता स्थिति संपल्यानंतर उदयास येऊन फळ देऊन निधन जाते त्यास सविपाक निर्जरा म्हणतात. २ अविपाक निर्जरा अनुदीर्णं तपः शक्त्या यत्रोदीर्णोदयावलीं। प्रवेश्य वेद्यते कर्म सा भवत्यविपाकजा ॥४॥ अर्थ- तप शक्तीच्या प्रभावाने पूर्वी बांधलेल्या व सत्तेमध्ये असलेल्या कर्माची स्थिति न संपल्यामुळे जे कर्म अद्यापि उदयावलीत Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा आले नाही. त्याच्या स्थितीचे अपकर्षण करून उदीरणारुपाने त्याला उदयावलीत आणून अनुदीर्णरूपाने खिरते. आपले फल न देता तसेच निमूट पणे निघून जाते त्यास अविपाक निर्जरा म्हणतात. याला अनुदय-उदयक्षय किंवा उदयाभावी क्षय अशी नावे आहेत. निघून जाताना कर्म आपले फळ देण्याचे काम करते पण त्या फळाशी जीव समरस होत नाही किंवा उदय क्षय झाल्यामूळे तो उदय मुखाने जात नाही. त्यालाच अनुदय, खिरणे, क्षय होणे हाच ज्याचा उदय म्हटला जातो. त्यास उदयाभावी क्षय असे म्हणतात. अविपाक निर्जरा दृष्टांत यथाम्रपनसादीनि परिपाकमुपायतः । अकालेऽपि प्रपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनां ॥ ५ ॥ अर्थ- ज्याप्रमाणे कच्चा आंबा किंवा फणस आदि फळे याना अकाली गवत आदि गरमीच्या उपायाने पिकविले जाते त्याप्रमाण उदयास न येणारे कर्म स्थिति संपण्याचे अगोदर त्याची उदीरणा होऊन ते अनुदीर्ण रूपाने फळ न देताच तसेच खिरते. क्षय पावते त्यास अविपाक निर्जरा म्हणतात. कोणती निर्जरा कोणास होते अनुभूय क्रमात् कर्म विपाक प्राप्त मुज्झतां । प्रथमाऽस्त्येव सर्वेषां द्वितीया तु तपस्विनां ॥ ६ ॥ अर्थ- पहिली सविपाक निर्जरा ही सामान्यपणे सर्व प्राणीमात्राना होते. जेव्हा कर्म उदयास येऊन आपले फळ देते तेव्हा त्या कर्माच्या सुख-दुःखरूप फळाशी जीव समरस होऊन सुख-दुःखाचे अनुभवन करतो ती सविपाक निर्जरा होय. ही निर्जरा नवीन कर्माच्या आस्वाला कारण असते. दुसरो अविपाक निर्जरा ही सम्यग्दृष्टी-ज्ञानी-तपस्वी लोकाना होते. जेव्हा सम्यग्दृष्टी-ज्ञानी-तपस्वी उदीरणारूपाने उदयास येणा-या कर्माच्या सुख-दुख फलाशी समरस होत नाही तेव्हा त्यामुळे त्याला नवीन कर्माचा आस्रव होत नाही. ही आस्त्रवनिरोध लक्षण Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा २१ संवरपूर्वक होणारी निर्जरा मोक्षास परंपरेने कारण होते. ही निर्जरा सम्यग्दृष्टी-रत्नत्रयसंपन्न ज्ञानी तपस्वी लोकानाच होते. तपाचे भेद वर्णन तपस्तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्याभ्यंतरभेदतः । प्रत्येकं षड्विधं तच्च सर्व द्वादशधाभवेत् ॥ ७ ॥ अर्थ- तपाचे २ भेद आहेत. १ बाह्य तप, २ अभ्यंतरतप. प्रत्येकाचे ६ भेद आहेत. याप्रमाणे एकूण तप १२ प्रकारचे आहे. १ बाह्यतपाचेभेद बाह्यं तत्रावमौदर्यमुपवासो रसोज्झनं । वृत्तिसंख्या वपुःक्लेशो विविक्तशयनासनं ॥ ८॥ अर्थ-- बाह्य तपाचे ६ भेद आहेत. १ अब मौदर्य, २ अनशन, ३ रसपरित्याग, ४ वृत्तिपरिसंख्यान, ५ कायक्लेश, ६ विविक्तशय्यासन, १ अवमौदर्यतप सर्वं तदवमौदर्यमाहारं यत्र हापयेत् । एक-द्वि-त्र्यादिभिर्मासै रामासं समयान्मुनिः ।। ९ ॥ अर्थ- जेव्हा मुनि काही कालाची मर्यादा नियम करून एकघास दोन-घास तीन-घास याप्रमाणे आहारातुन कमी करीत करीत एक घासच आहार घेतो. पुढे क्रमाने एक घास दोन घास तीन घास असा आहार वाढवीत जातो त्याला अवमौदर्य तप म्हणतात. यालाच कवलचंद्रायणवत म्हणतात. २ अनशनतप मोक्षार्थं त्यज्यते यस्मिन्नाहारोऽपि चतुर्विधः । उपवासः स तद्भेदाः सन्ति षष्ठाष्टमादयः ।। १० ।। अर्थ- आहारामुळे प्रमाद उत्पन्न होतो. प्रमादामुळे आत्मस्वरूपात उपयोग स्थिर राहात नाही. त्यामुळे आत्मस्वरूपात स्थिरतारूप मोक्षाची Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा प्राप्ती होण्यासाठी १ खाद्य - ( अन्न वगैरे ), २ पेय - ( दूध पाणी वगैरे), ३ स्वाद्य (आंबा वगैरे ), ४ लेह्य ( चाटण वगैरे), चारही प्रकारच्या आहाराचा त्याग करणे यास उपवास म्हणतात. एक दिवसाचा उपवास याला चतुर्भुक्ताहारत्याग, दोन दिवसाचा उपवास याला षष्ठ भुक्ताहारत्याग, तीन दिवसाचा उपवास याला अष्टभुक्त आहारत्याग. याप्रमाणे पक्षोपवास, मासोपवास, इत्यादि उपवासाचे अनेक भेद आहेत. आहाराचा त्याग करून आत्म्यामध्ये वास करणे याला निश्चय उपवास म्हणतात. आहाराचा त्याग याला व्यवहार उपवास म्हणतात. ३ रसपरित्याग तप रसत्यागो भवेत् तैल-क्षीरेक्षु दधि-सर्पिषां । एक द्वि-त्रीणि चत्वारि त्यजतस्तानि पंचधा ॥। ११ ॥ अर्थ - तेल- दूध - इक्षुरस ( साखर ) - दही तूप या पाच प्रकारच्या रसापैकी एक-दोन-तीन - चार - पाच रसाचा त्याग करणे याला रस परित्याग तप म्हणतात. तूप, तेल, तिखट, गोड-आंबट- खारट या षड् रसापैकी एक-दोनतीन इत्यादि रसाचा त्याग करणे यालादेखील रसपरित्याग तप म्हणतात. ४ वृत्तिपरिसंख्यान तप एक वास्तु-दशागार मान मुद्गादि गोचरः । संकल्पः क्रियते यत्र वृत्तिसंख्या हि तत् तपः ॥ १२ ॥ अर्थ - आहार घेण्यासाठी एक घर-दोन घर - दहा घर इत्यादि प्रमाण करणे, मूंग-उडीद इत्यादि खाद्य पदार्थाचा संकल्प करून आहारासाठी निघणे, संकल्पाप्रमाणे आहार मिळाल्यास आहार घेणे, नाहीतर न घेणे यास वृत्ति परिसंख्यान तप म्हणतात. ५ कायक्लेश तप अनेक प्रतिमास्थानं मौनं शीतसहिष्णुता । आतपस्थानमित्यादि कायक्लेशो मतं तपः ।। १३ ।। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसारआधिकार ७ वा अर्थ- पद्मासन, कुक्कुटासन आदि अनेक आसन घालून ध्यान करणे, मौनव्रत धारण करणे, हिवाळयात नदीच्या काठी ध्यान करून शीत परीषह सहन करणे, उन्हाळ्यात पर्वताच्या शिखरावर शिलेवर बसून ध्यान करणे याप्रमाणे शरीरावरील ममत्व कमी करण्यासाठी शरीरक्लेश सहन करणे यास कायक्लेश तप म्हणतात. ६ विविक्तशय्यासन तप जंतुपीडाविमुक्तायां वसतौ शयनासनं । सेवमानस्य विज्ञेयं विविक्तशयनासनं ॥ १४ ॥ अर्थ- जेथे मुंग्या-डांस वगैरे जंतु पीडा बाधा होत नाही अशा एकांत स्थानी शयन ( झोप घेणे ) आसन बसणे-उठणे करणे याला विविक्त शय्यासन तप म्हणतात. ___ अभ्यंतर तपाचे भेद स्वाध्यायः शोधनं चैव वैयावृत्यं तथैवच । व्युत्सर्गो विनयश्चैव ध्यानमाभ्यन्तरं तपः ।। १५ ।। अर्थ- अभ्यंतर तपाचे ६ भेद आहेत. १ स्वाध्याय, २ प्रायश्चित, ३ वैयावृत्य, ४ व्युत्सर्ग, ५ विनय, ६ ध्यान. स्वाध्याय तपाचे भेद वाचना प्रच्छनाऽऽम्नायस्तथा धर्मस्य देशना । अनुप्रेक्षा च निर्दिष्टः स्वाध्यायः पंचधा जिनैः ।। १६ ॥ अर्थ- स्वाध्याय तपाचे ५ भेद आहेत. १ वाचना, २ पच्छना ३ आम्नाय, ४ धमपिदेश, ५ अनुप्रक्षा. १ वाचना स्वाध्याय लक्षण वाचना सा परिज्ञेया यत्पात्रेप्रतिपादनं । गद्यस्य वाऽथ पद्यस्य तत्त्वार्थस्योभयस्थ वा ॥ १७ ।। अर्थ- गद्य-पद्य ग्रंथांचे, त्यातील कथन केलेल्या जीव-अजीव आदि तत्त्वाचे त्यांच्या स्वरूपाचे योग्य पात्र शिष्याला प्रतिपादन करणे याला वाचना स्वाध्याय म्हणतात. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ७ वा २ पृच्छना स्वाध्याय तत्संशयापनोदाय तन्निश्चय बलाय च । परं प्रत्युनुयोगो यः प्रच्छनां तां विदुजिनाः ॥ १८ ॥ अर्थ - परमागम शास्त्रांतील गूढ अर्थाबद्दल संशय - शंका उत्पन्न झाली असताना ती दूर होण्यासाठी जीवादि तत्त्वाचे यथार्थ दृढ श्रद्धान होण्यासाठी विशेष ज्ञानीगुरूजवळ जिज्ञासा पूर्वक प्रश्न विचारणे याला पृच्छना स्वाध्याय जिनेंद्र भगवंतानी म्हटला आहे. ३ आग्नाय ४ धर्मोपदेश स्वाध्याय २४ आम्नायः कथ्यते घोषो विशुद्धं परिवर्तनं । कथाधर्माद्यनुष्ठानं विज्ञेया धर्म देशना ।। १९ ॥ अर्थ- शास्त्रसूत्र ग्रंथाचे निर्दोष शुद्ध उच्चारण करणे याला आम्नाय स्वाध्याय म्हणतात. पुराण कथा श्रावक - मुनिधर्माचे व्रताचे अनुष्ठान आचरण याचा उपदेश देणे याला धर्मोपदेश स्वाध्याय म्हणतात. ५ अनुप्रेक्षा स्वाध्याय साधोरधिगतार्थस्य योऽभ्यासो मनसाभवेत् । अनुप्रेक्षेति निर्दिष्टः स्वाध्यायः स जिनेशिभिः ॥ २० ॥ अर्थ- वाचलेल्या पठन केलेल्या शास्त्रसूत्राचा मनाने पुनः पुनः स्मरण - चितनभावना करणे यात जिनेंद्र भगवंतानी अनुप्रेक्षा स्वाध्याय म्हटले आहे. प्रायश्चित तपाचे भेद आलोचनं प्रतिक्रान्तिस्तथा तदुभयं तपः । व्युत्सर्गश्च विवेकश्च तथोपस्थापना मता ॥ २१ ॥ परिहारस्तथा च्छेदः प्रायाश्चित्तभिदा नव || अर्थ- प्रायश्चित तपाचे ९ भेद आहेत. १ आलोचना, २ प्रतिक्रमण, ३ तदुभय (आलोचनापूर्वक प्रतिक्रमण ), ४ तप, ५ व्युत्सर्ग, ६ विवेक, ७ उपस्थापना, ८ परिहार, ९ छेद. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा २५ १ आलोचनालक्षण आलोचनं प्रमादस्य गुरवे विनिवेदनं ।। २२ ॥ अर्थ- व्रतामध्ये लागलेल्या दोषाचे गुरुजवळ निवेदन करणे यास आलोचन। प्रायश्चित तप म्हणतात. २ प्रतिक्रमण ३ तदुभय अभिव्यक्त प्रतिकारं मिथ्या मे दुष्कृतादिभिः । प्रतिकान्ति स्तदुभयं संसर्गे सति शोधनात् ॥ २३ ॥ अर्थ- व्रतामध्ये लागलेले दोष व्यक्त करूब 'मिच्छा मे दुक्कडं' माझे दोष मिथ्या होवो. मी पुनः दोष होऊ देणार नाही. याप्रमाणे दोषाचे प्रतिक्रमण करणे व प्रतिक्रमणसहित इतर मुनीच्या संसर्गात आलोचना करणे यास तदुभय प्रायश्चित म्हणतात. ४ तप, ५ व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त भवेत् तपोऽवमौदर्य वृत्तिसंख्यादि लक्षणं । कायोत्सर्गादि-करणं व्युत्सर्गः परिभाषितः ।। २४ ॥ अर्थ- अवमौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान वगैरे तपधारण करणे. ते नप प्रायश्चित्त होय. कायोत्सर्गव्यान करणे याला व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त तप म्हणतात. ६ विवेक ७ उपस्थापना अन्नपानौषधीनां तु विवेकः स्याद् विवेचनं। पुनःक्षाप्रदानं यत् सा हयुपस्थापना भवेत् ॥ २५ ॥ अर्थ- अन्न-दूध-पाणी-औषध इत्यादिक भोज्य पदार्थाचा काही कालाची मर्यादा करून त्याग देणे यास विवेकप्रायश्चित्त म्हणतात. पूर्वदीक्षेचा छेद करून पुनः दोक्षा देणे यास उपस्थापना प्रायश्चित्त म्हणतात. ८ परिहार ९ छेद परिहारस्तु मासादिविभागेन विवर्जनं । प्रवज्याहापनं छेदो मासपक्षदिनादिना ॥ २६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा अर्थ- महिना-दोन महिने चारमहिने इत्यादि काही कालमर्यादा भरून आपल्या संघातून काढून टाकणे यास परिहार प्रायश्चित्त म्हणतात. कांही महिने कांही दिवसाची दीक्षा काल कमी करणे यास छेद प्रायश्चित्त म्हणतात. वैयावृत्य तप सूर्युपाध्याय साधूनां शैक्ष्यग्लान तपस्विनां । कुलसंघ मनोज्ञानां वैयावृत्त्यं गणस्य च ॥ २७ ॥ व्याध्याद्युपनिपातेऽपि तेषां सम्यग् विधीयते । स्वशक्त्या स्यात् प्रतीकारो वैयावृत्त्यं तदुच्यते ॥ २८ ॥ अर्थ- आचार्य - उपाध्याय साधू, अध्ययन करणारे शैक्ष्य साधू रोगाने पीडित ग्लान साधू, तपस्वी, दीक्षाचार्यकुल, मुनिसंघ, लोकप्रिय मनोज्ञ साधू आचार्य परंपरा प्रसिद्धगण अशा दहा प्रकारच्या साधूचे वैयावृत्य करणे, त्यांचेवर रोग उपसर्ग वगैरे आला त्यांची यथायोग्य सेवा शुश्रूषा करणे त्यांचा उपसर्ग दूर करणे हे वैयावृत्य तप होय. व्युत्सर्ग तप बाद्यांत रोपधि त्यागाद् व्युत्सर्गो द्विविधो भवेत् । क्षेत्रादिरुपधिर्बाह्यः क्रोधादिरपरः पुनः ।। २९ ।। अर्थ - बाह्य उपाधि - क्षेत्र संयम उपकरण पिंछी वगैरे, शुद्धिउपकरण कमंडलु ज्ञान उपकरण शास्त्र यावरील ममत्व त्याग व अभ्यंतर उपाधि राग-द्वेष वगैरे त्यांचा त्याग याला व्युत्सर्ग तप म्हणतात. विनय तप दर्शन-ज्ञान- विनयौ चारित्रविनयोऽपि च । तथोपचार विनय विनयः स्याच्चतुविधः ॥ ३० ॥ अर्थ - विनयतपाचे ४ भेद आहेत. १) दर्शनविनय, २) ज्ञानविनय, ३) चारित्रविनय, ४) उपचार विनय. १ दर्शन विनय यत्र निःशंकितत्वादि लक्षणोपेतता भवेत् । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्स्वार्थसार अधिकार ७ वा अर्थ- जेथे निःशंकितादि आठ अंगाचे पालन आहे, शंकादि आठ दोष, तीन मूढता, सहा अनायतन इत्यादि दोष रहित जीव-अजीव आदि सात तत्त्वांचे यथार्थ श्रद्धान आहे तो दर्शन विनय होय. २ ज्ञानविनय ज्ञानस्य ग्रहणाभ्यास-स्मरणादीनि कुर्वतः । बहुमानादिभिः साद ज्ञानस्य विनयो भवेत् ।। ३२ ॥ अर्थ- सम्यग् ज्ञानाचे ग्रहण अभ्यास-स्मरण-चिंतन भावना इत्यादिक्रिया बहुमानपूर्वक-आदरपूर्वक करणे ज्ञान विनय होय. ३ चारित्र विनय दर्शन-ज्ञान युक्तस्य या समीहितचिन्तता । चारित्रं प्रति जायेत चारित्रविनयो हि सः ॥ ३३ ॥ अर्थ- सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक ब्रत-नियम- संयम चारित्र या व्रत उत्सुकतापूर्वक मनाची ओढ-लगन-लीनता स्थिरच्तिता तो चारित्रविनय होय. उपचार ४ विनय अभ्युत्यानानुगमनं वन्दनादीति कुर्वतः । आचार्यादिषु पूज्येषु विनयो ह्यौपचारिकः ॥ ३४ ।। अर्थ- आचार्य किंवा श्रेष्ठ मुनि आले असताना उठून उभे राहणे, त्यांचे सामोरे जाणे, त्यांच्या पाठीमागून गमन करणे, त्याना वंदना प्रतिवंदना करणे हा उपचार विनय होय. ध्यानतप वर्णन आर्त रौद्रंच धयंच शुक्लंचेति चतुर्विधं । ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽगमुभयं भवेत् ।। ३५ ।। अर्थ- ध्यानाचे ४ भेद आहेत. १ आर्तध्यान २ रौद्रध्यान ३ धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान त्यापैकी शेवटची दोन ध्याने धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान तपाचे मुख्य अंग आहे. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्वार्थसार अधिकार ७ वा १ आर्तध्यान लक्षण व भेद प्रियम्शेभ्रऽप्रियप्राप्ते निदाने वेदनो दये। आतं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः ।। ३६ ॥ अर्थ- आर्त म्हणजे दुःखरूप चिंतन. आर्तध्यानाचे ४ भेद आहेत. १) इष्टवियोगज- स्त्री-पुत्र आदि इष्ट वस्तूचा वियोग झाला असता जे दुःख चितवन. २) अनिष्ट संयोगज- रोग- उपसर्ग- शत्रू यांचा संयोग झाला असताना जे दुःख चितवन. ३) निदान- पुढे स्वर्ग सुख वैभव- प्राप्त व्हावे अशी अभिलाषा करणे. ४) वेदनाजन्य- शरीरात रोग उत्पन्न झाला असताना. उपसर्ग प्राप्त झाला असताना दुःखाचे वेदन होणे. २ रौद्रध्यान लक्षण व भेद हिंसायामनृते स्तेये तथा विषयरक्षणे । रौद्रं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः ।। ३७ ।। अर्थ- हिंसेमध्ये, असत्य भाषणामध्ये चोरी करण्याविषयी परिग्रहाचे संरक्षण होण्याविषयी राग-द्वष मोहपूर्वक कषाययुक्त चितवन त्याला संक्षेपाने रौद्रध्यान म्हणतात. याचे ४ भेद आहेत. १ हिंसानंद, २ अनृतानंद, ३ स्तेयानंद, ४ परिग्रहानंद. ध्यानाचे लक्षण एकाग्रत्वेऽतिचिताया निरोधो ध्यानमिष्यते । अन्तर्मुहूर्ततस्तच्च भवत्युत्तमसंहतेः ॥ ३८ ।। अर्थ- मन-वचन- कायरूप योग प्रवृत्तीला रोकून उपयोग एकाग्र-स्थिर करणे याला ध्यान म्हणतात. हे ध्यान उत्तम संहननधारी पुरुषाला जास्तीत जास्त अंतर्मुहूर्त पर्यंत होऊ शकते. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ७ वा धर्मव्यानाचे लक्षण व भेद आज्ञापायविपाकानां विवेकाय च संस्थितेः । मनसः प्रणिध्यानं यद् धर्मध्यानं तदुच्यते ।। ३९ ॥ अर्थ- रत्नत्रयधर्म स्वरूप आत्मस्वरूपाचे चितवन ते धर्मध्यान होय. याचे ४ भेद आहेत. १ आज्ञाविचय, २ अपायत्रिचय, ३ विपाकविचय, ४ संस्थानविचय. १ आज्ञाविचय धर्मध्यान प्रमाणीकृत्य सार्वज्ञाभाणंज्ञामय विधारं । गहनानां पदार्थानामाज्ञाविचयमुच्यते ॥ ४० ॥ कथंमार्ग प्रपद्येरन्नमी उन्मार्गतो जनाः । अपायमिति या चिन्ता तदपायविचारणं ॥ ४१ ॥ अर्थ- सर्वज्ञ भगवंताची वाणी ही अन्यथा होऊ शकत नाही म्हणून आगमवचन आज्ञा प्रमाण मानून गहन सूक्ष्म-कालांतरितक्षेत्रांतरित पदार्थावर श्रद्धा ठेवून त्यांचे स्वरूपाविषयी चितवन करणे यास आज्ञाविचय धर्मध्यान म्हणतात. २ अपायविचय धर्मध्यान २९ - अर्थ- हे संसारातील भव्य प्राणी उन्मार्गापासून संसारमार्गापासून परावृत्त होऊन मोक्षमार्गामध्ये कसे प्रवृत्त होतील असे चितवन करणे यास अपायत्रिय धर्मध्यान म्हणतात. ३ विपाकविचय धर्मध्यान द्रव्यादिप्रत्ययं कर्मफलानुभवनं प्रति । भवति प्राणिधानां यद् विपाकविचयस्तु सः ॥ ४२ ॥ अर्थ- जीव जे शुभ-अशुभ परिणाम करतो. त्यामुळे जो पुण्य पाप कर्माचा बंध होतो त्याचे फल स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभाव या स्वचतुष्टयास अनुसरून मिळते असे कर्मफलाचे चितवन करणे यास विपाकविचय धर्मध्यान म्हणतात. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० तत्वार्थसार अधिकार ७ वा ४ संस्थानविचय धर्मध्यान लोक संस्थान - पर्याय स्वभावस्य विचारणं । लोकानुयोगमार्गेण संस्थानविचयो भवेत् ।। ४३ ।। अर्थ - ऊर्ध्वलोक मध्यलोक अधोलोकाचा आकार क्षेत्ररचना त्याठिकाणी उत्पन्न होणारे जीवाचे चतुर्गतिरूप पर्याय त्यामध्ये जीवाला होणारे दुःख याविषयी लोकानुयोग शास्त्रद्वारे विचार करणे ते संस्थानविवय धर्मध्यान होय. शुक्लध्यानाचे ४ भेद शुक्लं पृथकत्वमाद्यं स्यादेकत्वं तु द्वितीयकं । सूक्ष्मक्रियं तृतीयं तु तुर्यं व्युपरतक्रियं ।। ४४ । अर्थ- शुक्लध्यानाचे ४ भेद आहेत. १ पृथक्त्ववितर्क वीचार २ एकत्रवितर्क, ३ सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति, ४ व्युपरत क्रियानिवर्ति. पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान द्रव्याण्यनेक भेदानि योगैर्ध्यायति यत् त्रिभिः । शान्तमोहस्ततो ह्येतत् पृथक्त्वमिति कीर्तितं ॥ ४५ ॥ अर्थ - जीव- अजीव आदि अनेक द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी मन वचन - काय योगाच्या द्वारे ज्याचा दर्शनमोह व चारित्र मोह शांत झाला आहे असा उपशमक क्षपक व उशांतमोह गुणस्यावर्ती जे चितवन करतो त्यास पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान म्हणतात. - पृथवत्वध्यानाची विशेषता श्रुतं यतो वितर्कः स्याद् यतः पूर्वार्थशिक्षितः । पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्क ततो हि तत् ॥ ४६ ॥ अर्थ व्यंजन योगानां विचारः संक्रमो मतः । वीचारस्य च सद्भावात् सवीचारमिदं भवेत् ॥ ४७ |; Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ७ वा अर्थ- श्रुत ज्ञानाला वितर्क म्हणतात. अकरा अंगे व चौदा पूर्व यांचा पाठी निरनिराळया नय-प्रमाण- निक्षेप तर्क ज्ञानाच्या द्वारे चितवन करतो. म्हणून यास सवितर्कध्यान म्हणतात. एका बीजाक्षरावरून दुस-या बीजाक्षराचे चितवन, एका योगावरून दुस-या योगद्वारे चितवन याप्रमाणे या ध्यानात विचाराचे संक्रमण होते म्हणून हे शुक्लध्यान सवी चार ध्यान म्हटले जाते. एकत्वशुक्लध्यान द्रव्यमेकं तथैकेन योगेनान्यतरेण च । ध्यायति क्षीणमोहो यत् तदेकत्वमिदं भवेत् ।। ४८ ॥ अर्थ- क्षीणमोह गणस्थान वर्ती जीव जेव्हा मन-वचन काययोग यापैकी कोणत्याही एका योगाने एक द्रव्याचेच चितवन करतो ते एकत्ववितर्क शुक्लध्यान होय. एकत्ववितर्क ध्यानाची विशेषता श्रुतं यतो वितर्कः स्याद् यतः पूर्वार्थशिक्षितः । एकत्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्कं ततो हि तत् ॥ ४९ ॥ अर्थव्यंजन योगानां बीचारः संक्रमो मतः। वीचारस्य यसद्भावादवीचारमिदं भवेत् ॥ ५० ॥ अर्थ- श्रुतज्ञान रूप विकल्पाला वितर्क म्हगतात. या ध्यानामध्ये अकरा अंगे व चौदापूर्व श्रुताच्या अर्थाचे पठन करणारा जो श्रुतसंबंधी एका पदार्थाचे चितवन करतो म्हणून या ध्यानास सवितर्क ध्यान म्हणतात. परंतु या ध्यानामध्ये अर्थ संक्रान्ति, व्यंजन संक्रान्ति किंवा योग संक्रान्ति रूप वीचार-परिवर्तन नसते म्हणून हे ध्यान दुसरे शुक्ल अवीचार ध्यान म्हटले जाते. मोह-जिज्ञासेच्या अभावात येथे उपयोगाचे संक्रमण नसते, स्थिरता असते, म्हणून या ध्यानास एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान म्हणत त. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ तत्वार्थसार अधिकार ७ वा ३ सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान अवितर्कमवीचारं सूक्ष्मकायावलंबनं । सूक्ष्मक्रियं भवेद्ध्यानं सर्वभावगतं हि तत् ॥ ५१ ॥ काययोगेऽति सूक्ष्मे तद् वर्तमानो हि केवली । शुक्लं ध्यायति संरोद्धं काययोगं तथाविधं ॥ ५२ ॥ अर्थ - जेव्हा सयोग केवली अरिहंत भगवान विहार बंद करून सूक्ष्म योग धारण करतात तेव्हा त्याना हे सूक्ष्मक्रिया - अप्रतिपाति शुक्लध्यान होते. येथे केवलज्ञान असल्यामुळे श्रुतरूप विकल्प -वितर्क नसतो. व योगाचे संक्रमण देखील नसते म्हणून हे ध्यान अवितर्क अविचार ध्यान असते. केवलज्ञानामध्ये लोक अलोकातील सर्व पदार्थ स्वयं प्रतिबिंबित होतात म्हणून हे ध्यान सर्वगत म्हटले जाते. येथे विहार बंद झाल्यामुळे स्थूल काययोगाचा निरोध होतो. सूक्ष्म काययोग श्वासोच्छ्वासाची धुगधुगी राहते. म्हणून या ध्यानास सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान म्हणतात. ४ व्युपरतक्रिया निर्वात शुक्लध्यान हे ध्यान अवितर्कमवीचारं ध्यानं व्युपरतक्रियं । परं निरूद्धयोगं हि तत् शैलेश्यमपश्चिमं ॥ ५३ ॥ तत्पुनः रूद्धयोगः सन् कुर्वन् कायत्रयासनं । सर्वज्ञः परमं शुक्लं ध्यायत्यप्रतिपत्ति तत् ॥ ५४ ॥ अर्थ - या ध्यानामध्ये वितर्क- वीचार नसतो. म्हणून अवितर्क अवीचाररूप असते. येथे सूक्ष्मकाय योगरूप प्रदेश परिस्पंद बंद होऊन श्वासोच्छवास प्राणाचाही अभाव असतो. केवळ येथे एक आयुप्राण असतो. अशा अयोग केवलीनामक १४ व्या गुणस्थानात हे सर्व क्रियेपासून निवृत्त व्युपरत क्रिया निर्वात नामक शुक्लध्यान होते. येथे अठराहजार शीलाचे परिपूर्ण पालन होते. चारित्राची उत्कृष्ट परिपूर्णता प्राप्त होते. हे गुणस्थान संसाराचा अंत शेवट असल्यामुळे संसाराची अंतिम अवस्थारूप हे ध्यान अपश्चिम म्हटले जाते. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसारअधिकार ७ वा ३ ३ गुणश्रेणीनिर्जरेची १० स्थाने सम्यग्दर्शनसंपन्नः संयतासंयतस्ततः । संयतस्तु ततोऽनन्तानुबन्धि प्रवियोजकः ।। ५५ ॥ दृङमोहक्षपकस्तस्मात् तथोपशमकस्ततः । उपशान्तकषायोऽतस्ततस्तु क्षपको मतः ।। ५६ ॥ ततः क्षीणकषायस्तु घातिमुक्तस्ततो जिनः । दशैते क्रमशः सन्त्यसंख्येयगुणनिर्जराः ।। ५७ ॥ अर्थ- संवरपूर्वक असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा होण्याची दहा स्थाने आहेत. १ सर्वप्रथम ज्या समयाला सम्यग्दर्शन उत्पन्न होते ते असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरेचे प्रथम स्थान होय तेथून मोक्षमार्ग सुरू होतो. २ त्यानंतर हा जीव संयता संयत गुणस्थानात चढतो. ते दुसरे स्थान होय. ३ त्यानंतर हा जी.. अप्रमत्त संयत गुणस्थानात चढतो. ते निर्जरेचे तिसरे स्थान होय. ४ त्यानंतर अनंतानुबंधीचे विसंयोजन करणारा ४-५-६-७ गुणस्थानवर्ती हे निर्जरेचे चवथे स्थान होय. ५ त्यानंतर जो जीव दर्शन मोहाचा क्षय करून क्षायिकसम्यग्दृष्टि होतो असा ४-५-६-७ गणस्थानवी जीव निर्जरेचे पाचवे स्थान होय. ६ त्यानंतर उपशम श्रेणी चढणारा सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानापासून गुण ७-८-९-१० गणस्थानवर्ती जीव हे निर्जरेचे सहावे स्थान होय. - ७ त्यानंतर उपशांतमोह नामक ११ व्या गुणस्थानवर्ती निर्जरेचे सातवे स्थान होय. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा ८ त्यानंतर क्षपक श्रेणी चढण्यारा गुण ७-८-९-१० गुणस्थानवर्ती क्षपक निर्जरेचे आठवे स्थान होय. ९ त्यानंतर क्षीणमोह नामक १२ व्या गुणस्थानवी जीव निर्जरेचे नववे स्थान होय. १० त्यानंतर घातिकर्माचा नाश करणारे १३-१४ गुणस्थानवर्ती सयोगी-अयोगी जिन भगवान हे निर्जरेचे दहावे स्थान होय. या क्रमाने या दहास्थानामध्ये गुणाकार श्रेणीरूपाने असंख्यात पट निर्जरा उत्तरोत्तर वाढत जाते. जीवाचा अशुभोपयोग हा पापकर्माच्या आस्रवबंधाला कारण असतो. जीवाचा शुभोपयोग हा पुण्यकर्माच्या आस्रव बंधाला कारण असतो. जीवाचा शुद्धोपयोग हा एकटाच संवर-निर्जरारूप मोक्षाचा कारण आहे. म्हणून जेथून संवर पूर्वक निर्जरा सुरू होते तेथून शुद्धोपयोगाचा प्रारंभ तारतम्यरूपाने सुरू होतो. (शुद्धोपयोगादेव संवर:) तसेच प्रवचनसार ग्रंथात (चारित्रादेव संवरः) म्हटले आहे. यावरून जथून संवरपूर्वक निर्जरेचा प्रारंभ होतो. तेथून मोक्षमार्गा वा प्रारंभ होत असल्यामुळे व मोक्षमार्ग हा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र यांची एकता स्वरूप असल्यामुळे गुणस्थान चवथ्यापासून अनंतानुबंधीच्याअभावात सम्यक्त्व सहित सम्यक्त्व चरण चारित्र अथवा स्वरूपाचरण चारित्र याचाही प्रारंभ होतो. स्वरूपाचरण चारित्रसहित देशचारित्र व सकल चारित्र धारण करणान्याचे गुणस्थान पाचवे व सहावे-सातवे मानले जाते. स्वरूपाचरण चारित्राशिवाय बाह्य देशवत किंवा सकल संयमव्रत धारण करणा-या द्रव्यलिंगीचे गणस्थान आगमात कारणानयोग शास्त्रात प्रथम गुणस्थान सांगितले आहे. यावरून संवर-निर्जरारूप मोक्षमार्गाचा प्रारंभ करणारा चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टी ज्ञानीच नियमाने स्वरूपाचरण चारित्र संपन्न व शुद्धोयोग संपन्नच अवश्य मानला पाहिजे. त्याशिवाय तो संवर-निर्जरारूप मोक्षमार्गाचा प्रारंभ कसिद्ध होऊ शकत नाही. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार ७ वा निग्रंथ मुनीचे ५ प्रकार पुलाको बकुशो द्वेधा कुशीलो द्विविधस्तथा । निर्ग्रन्थः स्नातक श्चैव निर्ग्रन्थाः पंच कीर्तिताः ॥ ५८ ।। अर्थ- दिंगबर निग्रंथ मुनीचे ५ प्रकार आहेत. १ पुलाक मुनि- तुच्छ धान्याप्रमाणे ज्याचा संयम जघन्य असतो मलगुणाची विराधना असते. पण उत्तरगुणाचे जे निरतिचार पालन करू शकत नाहीत. त्यांना पुलाक मुनि म्हणतात. २ बकुश मुनिचे २ प्रकार आहेत- १ उपकरण बकुश, २ शरीर बकुश. जे मुनि उपकरण पिंछीकमंडलु याविषयी सूक्ष्म राग बुद्धी ठेवतात ते मलिन नसावे चांगला असावे अशी इच्छा करतात त्याना उपकरण वकुश म्हणतात जे मुनि शरीर हे घामाने-रजःकणाने मलीन झाले असताना शुद्ध करण्याची इच्छा करतात त्याना शरीर बकुश म्हणतात. ३ कुशील मुनीचे २ प्रकार आहेत . १ प्रतिसेवना कुशील, २ कषाय कुशील. ज मुनि आपल्या शिष्य परिवार मुनिची काळजी वाहतात त्याना प्रतिसेवना कुशील म्हणतात. जे मुनि तीव्र संज्वलन कषाय सहित असतात. त्याना कषाय कुशील म्हणतात. ४ निर्ग्रन्थ- क्षीण मोह गुणस्थानवती निर्ग्रन्थ मुनि होत. ५ स्नातक- घातिकर्माचा नाश करून केवलज्ञानो बनलेले मुनि स्नातक मुनि म्हटले जातात. मुनीमध्ये विशेषता संयमतलेश्याभिलिगेनप्रतिसेवया । तीर्थस्थानोपपादैश्च विकल्प्यास्ते यथागमं ।। ५९ ॥ अर्थ- संयम - श्रुत - लेश्या - लिंग - प्रतिसेवना - तीर्थ - स्थान व Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ७ वा उपपाद याप्रमाणे आठ. अनुयोग द्वारे या मुनीमध्ये परस्पर विशेषता सांगितली आहे. विशेषार्थ ३६ १ संयम - पुलाक- बकुश प्रतिसेवनाकुशील हे सामायिक छेदोपस्थापना संयमधारी असतात. कषायकुशील सामायिकछेदोपस्थापना- परिहार- विशुद्धि-सूक्ष्मसांपराय चार संयमधारी असतात. निग्रंथ व स्नातक हे प्रथाख्यात संयमधारी असतात. - · २ श्रुत पुलाक- वकुश प्रतिसेवता कुशील हे दशपूर्वधारी असतात. कषायकुशील निग्रंथ चौदापूर्वधारी असतात. स्नातक केवलज्ञानी असतात. जघन्यपणे पुलाक मुनीना आचारांग वस्तुचे ज्ञान असते कुश - कुशील निग्रंथ याना अष्ट प्रवचन मातृका ( ५ समिति ३ गुप्ति ) यांचे ज्ञान असते. - ३ लेश्या - पुलाक मुनी तीन शुभलेश्या, बकुश प्रतीसेवना कुशील याना आर्त ध्यान असू शकते त्यामुळे सहा लेश्या संभवतात. निग्रंथ स्नातक याना एक शुक्ल लेश्या असते अयोग केवलीना लेश्या नसते. ४ लिंग- लिंगाचे २ भेद आहेत. १ द्रव्यलिंग, २ भावलिंग. भावलिंगाचे अपेक्षेने सर्व प्रकारचे मुनी भावलिंगी संयमी मुनी असतात द्रव्यलेश्या - द्रव्यलिंग शरीराचावर्ण या अपेक्षेने भिन्न असू शकते. अथवा लिंग म्हणजे वेद द्रव्यवेद, अपेक्षेने सर्व मुनी पुरुषवेदीच असतात भाववेदाच्या अपेक्षेने पुलाक- वकुश कुशील याना तीनही वेद अमू शकतात निग्रंथ स्नातक वेद रहित असतात. ५ प्रतिसेवना- प्रतिसेवा म्हणजे मूलगुण उत्तरगुणामध्य विराधका दोष. पुलाक मूनीना मूलगुणात दुसन्याने उपसर्ग केला असताना विराधना होऊ शकते. उपकरण बकुश मुनी याना उपकरण संबंधी सूक्ष्म ममत्व असते. शरीर वकुश मुनीना शरीरमलाविषयी सूक्ष्म द्वेष असतो प्रतिसेवना कुशील उत्तरगुणात विराधना होते. कषायकुशील निग्रंथ व स्नातक याना मूलगुण उत्तरगुणात विराधना नसते. निरतिचार पालन करतात. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ५ वा ३७ ६ तीर्थ- तीर्थंकरांच्या मधल्या तीर्थकाळात सर्व प्रकारचे मुनी होऊ शकतात. ७ स्थान- कषायाच्या तरतमतेमुळे प्राप्त होणारी संयम लब्धि. स्थाने याला स्थान म्हणतात पुलाक-बकुश मुनीना सर्व जघन्य लब्धि स्याने असतात. नंतरअसंख्यात लब्धिस्थाने गेल्यानंतर पुलाक मुनी गळतो पुलाक मुनीना पुढील स्थाने होत नाही. एकटा बकुशमुनी असंख्यात लब्धिस्थानापर्यंत जातो. पुढे बकुश कुशील मुनी काही स्थाने बरोबर चढतात. नंतर बकुश मुनी गळतो त्या पुढील स्थाने होत नाहीत. काही स्यानानंतर प्रतिसेवना कुशील गळतो नंतर शेवटी कषायकुशील गळतो. याप्रमाणे कषायाच्या तरतमतेने संयमस्थाने बदलतात. पुढे निर्ग्रन्थ व स्नातक हे कषाय रहित असतात. त्याना अकषायस्थाने असतात. पुढे काही स्थाने गेल्यानंतर निर्ग्रन्य गळतो शेवटी स्नातकच एक सयमलब्धिस्थान प्राप्त करून निर्वाण पदाला जातात. ८ उपपाद- उपपाद म्हणजे जन्म उत्कृष्टपणे पुलाक मुनी सहस्रार नामक १२ व्या स्वर्गापर्यत उत्पन्न होऊ शकतात. बकुशमूनि व प्रतिसेवना कुशील आरण अच्युत नामक १६ व्या स्वर्गापर्यत उत्पन्न होतात. कषायकूशील व निर्ग्रन्थ (उपशांतकषाय) गुणस्थानवर्ती सर्वार्थसिद्धी मध्ये उत्पन्न होतात. या सर्वमुनींचा उपपाद जन्म जघन्यपणे सौधर्मस्वर्गात उत्पन्न होतात. निग्रंथ (क्षीणमोह) व स्नातक नियमाने निर्वाणपदाला जातात निर्जरातत्त्व उपसंहार इति यो निर्जरातत्त्वं श्रध्दत्ते वेत्त्युपेक्षते । शेषतत्त्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग भवेत् ॥६०॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा अर्थ- याप्रमाणे जो भव्य मुमुक्षु निर्जरातत्त्वाचे स्वरूप इतर सहा तत्त्वाबरोबर परमार्थरितीने जाणतो. श्रध्दा करतो व वीतरागरुप परम उपेक्षाभाव धारण करतो तो निर्वाणपदाला प्राप्त होतो. अधिकार ७ वा समाप्त Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार ८ वा मोक्षतत्व वर्णन मंगलाचरण अन्नत केवल ज्योतिः प्रकाशित जगत् त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ना मोक्षतत्त्वं प्ररूप्यते ॥ १ ॥ अर्थ- ज्यानी आपल्या अनन्त केवल ज्ञान ज्योतिच्याद्वारे तिन्ही लोकातील सर्व पदार्थाना प्रकाशित केले अशा सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवंताना मस्तक झुकवून नमस्कार करून या अधिकारात मोक्षतत्त्वाचे प्ररूपण केले जाते. मोक्षाचे स्वरूप अभावाद् बंध हेतूनां बद्ध निर्जरया तथा । कृत्स्नकर्मप्रमोक्षो हि मोक्ष इत्यभिधीयते ।। २ ।। अर्थ- आस्व-बंधाच्या कारणाचा अभावरूप संवर, तत्पूर्वक पूर्वबद्ध कर्माची निर्जरा यामुळे जेव्हा सर्व कर्माचा पूर्णपणे अभाव होतो त्यास मोक्ष म्हणतात. मोक्ष होण्याचा म बध्नाति कर्म सवेद्यं सयोगः केवलो विदुः । योगाभावादयोगस्य कर्मबंधो न विद्यते ।। ३ ।। ततो निर्जीर्ण निःशेष पूर्व संचित कर्मणः । आत्मनः स्वात्मसंप्राप्तिर्मोक्षः सद्योऽवसीयते ॥ ४ ॥ अर्थ- प्रथम मोक्षमार्गावर आरूढ असलेला जीव गुण ४ ते ७ पर्यत दर्शन मोहाचा क्षय करतो. नंतर गुण ८ ते १० चारित्र मोहाचा क्षय करून क्षीणमोहनामक १२ व्या गुणस्थानात चार घातिकर्मांचा क्षय करून सयोगकेवली बनतो, तेथे फक्त साता वेदनीय कर्माचा बंध Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा सातिशय पुण्याची प्राप्ती होते नंतर अयोग केवल गुणस्थानात योगाच्या अभावात नवीन कर्माचा आस्रव होत नाही. पूर्वबद्ध संचित कर्माचा क्षय होतो. शुद्ध आत्मस्वरूपाची प्राप्ती होते (सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः) शुद्ध आत्मस्वरूपाची प्राप्ती यालाच अध्यात्मनय भाषेत मोक्ष म्हणतात. व्यवहारनय भाषेत आठ कर्मांच्या अभावाने मोक्ष होतो असे म्हटले जाते. जीव आपल्या शुद्धोपयोग सामर्थ्याने आपल्या शुद्ध आत्मस्वरूपात राहण्याचा पुरुषार्थ करतो त्यावेळी सर्व कर्माचा अभाव हा स्वयं होतो. मोक्षामध्ये कशाचा अभाव होतो तथौपशामिकादीनां भव्यत्वस्यच संक्षयात् । मोक्षः सिद्धत्वसम्यक्त्व ज्ञानदर्शनशालिनः ।। ५ ।। V अर्थ-- तसेच कर्माच्या सद्भावात-विभावात होणारे जे संयोगज व वियोगज भाव औपशमिक क्षायोपशाणिक-औदयिक भाव व परिणामिक भावापैकी भव्यत्व भाव यांचा ही नाश होतो. केवळ जीवत्व परिणामिकभाव शिल्लक राहतो. व क्षायिकभाव की जे स्वाभाविकभाव असतात. सिद्धत्व-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन क्षायिकदान लाभ-भोग-उपभोग वीर्य आदि स्वभाव शिल्लक राहतात. तसेच अस्तित्व वस्तुत्वादि सामान्यभाव शिल्लक राहतात. क्षायिकभाव हे स्वाभाविकभाव असतात. परंतु त्यांचा स्वाभाविकपणा कायम राहतो. कर्माच्या अभावात त्याला जी क्षायिक संज्ञा दिली गेली होती ती विवक्षा राहत नाही. अनादि कर्मबंधाचा अंत कसा शंका-समाधान आद्यभावान्न भावस्य कर्मबंधन संततेः । अंताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्त्य बीजवत् ।। ६ ।। दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाडकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङकुरः ।। ७ ।। अर्थ- शंका- येथे शंकाकार शंका करतो. की कर्मबंध संतति रूपाने जर अनादि आहे तर ज्या पदार्थाचा आदि नाही त्याचा अंत Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा कसा होणार? कर्माचा अंत न होण्याचा प्रसंग येईल? समाधान- त्याचे आचार्य उत्तर देतात कर्माचा अंत न होण्याचा प्रसंग येत नाही. अर्थात कर्मबंध संतति अनादि असली तरी त्याचा अत होऊ शकतो ही गोष्ट दृष्टांतावरून सिद्ध करतात. ज्याप्रमाणे बीज व अंकुर यांची संतति परंपरा अनादि आहे. बीजापासून अंकुर अंकुरापासून वीज, याना आदि नाहो तथापि शेवटले बीज जर अग्नीने नष्ट केले. तर पुनः अंकुर उत्पन्न होत नाही त्याप्रमाणे शेवटला कर्मबंध जर नवीन कर्मबंधाचा निरोध पूर्वक संवर पूर्वक पूर्णपणे नष्ट झाला तर नवीन कर्मबंध न झाल्यामुळे त्यापासून जन्म मरणरूपी संसाररुपी अंकुर पुन: उत्पन्न होत नाही. जीव कर्माचा नाश करुन मोक्षास गेल्यानंतर पुन: कधीही संसारात येत नाही. कर्ममुक्त झाल्यानंतर पुन: कर्मबंधन मानला तर कार्य-कारण व्यवस्था राहणार नाही शंका समाधान अव्यवस्था न बंधस्य गवादीनामिवात्मनः । कार्यकारणविच्छेदात मिथ्यात्वादि परिक्षये ।। ८ ।। अर्थ- शंका- ज्याप्रमाणे बैल.गाय आदि जनावराना बंधन मुक्त करून पूनः बांधन ठेवले तर ते आपल्या एका ठाण्यावर राहतात. बंधन नसते तर ते इकडे मोकाट फिरतील. तसा आत्मा कर्म बंधनातून मुक्त झाल्यावर जर पुनः कर्मबंध न मानला तर सर्वत्र कार्य-कारण भावाचा विच्छद होईल. कार्य-काराग भाव व्यवस्था राहणार नाही ? समाधान जो पर्यंत जीव मिथ्यात्वादि विभाव भाव रूपाने परिणमतो तो पर्यंतच जीवाचे रागादिपरिणाम व कर्म बंध यांचा कार्य कारण भाव संबध असतो जीव आपल्या अज्ञान अपराधाने मिथ्यात्वादि परिणाम करतो त्यामुळे कर्म बंध होतो. कर्मबंध झाल्यामुळे कर्म जेव्हां उदयास येते तेव्हा जीव पुनः राग द्वेषादि भाव करतो याप्रमाणे कर्म Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ तत्वार्थसार अधिकार ८ वा व जीव यांचा परस्पर संयोग रुप (संसार परंपरा रूप) कार्य कारण भाव हा अनादिकालापासून सतत चालू आहे. परंतु जीव जेव्हां मिथ्यात्वादि विभाव परिणामाचा त्याग करून आपल्या स्वभाव भावात स्थिर होतो. तेव्हा संसाररूप कार्यकारण भावाचा अत्यंत विच्छेद होऊन जीव आपल्या शुध्दात्मस्वरुपात कायमचा स्थिर होतो. अज्ञान जनावराप्रमाणे तो पुनः कर्मबंधनात पडत नाही तसेव कर्मबंधन नसल्यामुळे अज्ञ जनावराप्रमाणे मोकाट ही भटकत नाही. आपल्या शुध्दात्मस्वभावरूपी घरात नित्य वास करतो. सिध्द जीव जगाला जाणतात पाहतात पण पुनः कर्माने लिप्त होत नाहीत. जानतः पश्यतश्चोर्ध्वं जगत् कारुण्यतः पुनः । तस्य बंधप्रसंगो न सर्वांसव परिक्षयात् ।। ९ ।। अर्थ- मोक्षास गेल्यानंतर जीव लोकाकाशाच्या अग्रभागी सिध्द शिलेवर जाऊन विराजमान होतो. तेथून सर्व जगताला करुणाभावाने वीतराग भावाने जाणतात पाहतात तथापि संपूर्ण कर्माच्या आपत्र बंधाचा क्षय झाल्यामुळे पुनः नवीन कर्मबंधाचा प्रसंग येत नाही. संसार अवस्थेत जीवाच्या मिथ्यात्वादि आस्रव भावाशी कर्मबंधा का कार्य कारण भाव होता. आस्व भावाचा पूर्णपणे अभाव झाल्यामुळे कर्मबंधाचा प्रसंग येत नाही कारणाशिवाय कर्मबंध होत नाही. अकस्माच्च न बन्धः स्यादनिर्मोक्ष प्रसंगतः । बंधोपपत्तिस्त्तत्र स्यात् मुक्तिप्राप्तेरनन्तरं ॥ १० ॥ अर्थ- कोणतेही कार्य कारणाशिवाय होत नाही. कारणाशिवाय जर कर्मबंध मानला तर जीवाला कधीच मोक्ष होणार नाही. मुक्ती प्राप्तीनंतर ही पुनः कर्मबंधाची उपपत्ति संभावना मानण्याचा प्रसंग येईल. मोक्षस्थानापासून जीवाचे पतन होणे संबंधी शंका समाधान पातोऽपि स्थानवत्त्वान्न तस्य नास्वतत्वतः । आस्वाद यानपासस्य प्रपातोऽधो ध्रुवं भवेत् ।११।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा X3 अर्थ- शंका- येथे कोणी प्रश्न करतो की जमिनीवर भांडे असते जरी भांड्याला जमिनीचा आधार असला तरी भांडे कारण वश खाली पडू शकते त्याप्रमाणे जीव मोक्षस्थानी गेला तरी त्याचे पुनः पतन होऊ शकेल ? समाधान- ज्याप्रमाणे नौका किंवा जहाज यामध्ये पाणी शिरले तर नियमाने पाण्यात खाली बुडते परंतु जीव कर्मबंधन मुक्त झाल्या नंतर पुनः त्याला नवीन कर्माचा आस्रव होत नसल्यामुळे व तो आपल्या आत्मस्वरूपात अविचल स्थिर होते असल्यामुळे पूनः खाली संसारात कधीही पडत नाही, वर मोक्षस्थानातच आपल्या स्वरूपात निरंतर वास करतो. पूनः संसार पतनासंबंधी शंका- समाधान तथापि गौरवाभावान्न पातोस्ऽय प्रसज्यते । वृत्तसम्बन्धविच्छेदे पतत्यानफलं गुरु ।। १२ ।। अर्थ- शंका शंकाकार पुनः शंका करतो की तथापि जीव मोक्षस्थानातून खाली पडू शकेल ? समाधान- ज्याप्रमाणे देठाच्या संबंधापासून विच्छेद झाल्यावर जड आम्रफळ झाडावरून खाली पडू शकते परंतु आत्मा कर्मबंधनापासून मुक्त झाल्यामुळे नोकर्म शरीराचा गुरुभार जडपणा नाहीसा झाल्यामुळे मोक्षस्थानापासून कधीही खाली पडत नाही. मिध्वक्षेत्र लहान असताना अनन्त जीव कसे सामावतात ? शंका-समाधान अल्प क्षेत्रे तु सिध्दानामनन्तानां प्रसज्यते । परस्परोपरोधोऽपि नावगाहन शाक्तिः ।। १३ ।। नानादीपप्रकाशेषु मुतिमत्स्वपि दृश्यते । न विरोधः प्रदेशेऽल्पे हन्त मूर्तेषु किं पुनः ।। १४ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थसार अधिकार ८ वा अर्थ- शंका- शंकाकार शंका करतो की सिध्दशिला मोक्षस्थान फार लहान मनुष्य लोका एवढे अडीच द्वीपप्रमाण ४५ लाखयोजन विस्ताराचे व सिध्द जीव तर अनंतानंत आहेत तेव्हा ते परस्परास उपरोध अडथळा करीत असतील ? समाधान- आचार्य या शंकेचे समाधान करतात. की सिध्द जीवांच्या शुध्द अमूर्त आत्म प्रदेशामध्ये अवगाहन शक्ती असल्यामुळे ते परस्परास उपरोध करीत नाहीत. त्यासाठी दृष्टांत देतात की अनेक दिव्यांचा प्रकाश मुर्तीमान् पुग्दल द्रव्यपरमाणू असताना एका खोलीत परस्पराम सामावून घेतात. एकमेकास अडथळा करीत नाहीत. मग सिध्द जीवांचे आत्मप्रदेश तर शुब्द व अमूर्त आहेत ते जर परस्परास सामावून घेतील तर त्यात काय आश्चर्य ? अर्थात् ते परस्परास अडथळा न करता एक क्षेत्रावगाह रूपाने परस्परात सामावन राहतात. सिद्ध जीवना आकार नसतो मग त्यांचा सद्भाव कसा ? शंका-समाधान. आकाराभावतो भावो न च तस्य प्रसज्यते । अनन्तर परित्यक्त शरीराकार धारिणः ।। १५ ।। अर्थ- शंका- शंकाकार शंका करतो की संस्थान (आकार) हा पुग्द्ल मूर्त द्रव्याचा पर्याय धर्म आहे. अमूर्त द्रव्याला आकार नसतो. संसार अवस्थेत जीव शरीर सहित असतो म्हणून जे शरीर धारण करतो त्या आकाराचा जीव म्हटला जातो. सिद्ध जीवाना शरीर नसते. मग त्याना आकार नसल्यामुळे त्यांचे अस्तित्व आहे की नाही हे कसे समजावे ? ___समाधान- आचार्य या शंकेचे समाधान करतात यद्यपि सिद्ध जीवाना नोकर्म शरीर नपते. तथापि जीत्राच्या प्रदेशामध्ये संकोन विस्तार शक्ती असते ती शरीराचा संयोग असताना च कार्य रूप परिण नते व त्यामुळे जीवाचा आकार शरीर प्रमाण लहान मोठा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ७ वा ४५ होतो. शरीराचा संयोग सुटल्यामुळे संसाराच्या अन्त्यसमयी ते ज्या शरीरातून मुक्त होतात तसाच त्यांचा आकार (किंचित् न्यून आकार) होऊन हातापायाच्या बोटाची. नाक कानाची मधली पोकळी कमी होऊन) कायम राहतो. शरीराचा संयोग नसल्यामुळे त्यांच्या आत्म प्रदेशाच्या आकारामध्ये संकोच विस्तार क्रिया बंद होते त्यांचा आकार पूर्वीशरीराचे आकाराचा राहतो. सर्व सिद्धजीबांचा आकार समान नसतो. वृषभनाथाचे शरीर ५०० धनुष्य व त्यांचा आकार ५०० धनुष्य तर महावीर स्वामीचे शरीर व त्याचा आकार ३३. हात याप्रमाणे सिद्ध जीवाना प्रत्येकाचा स्वतंत्र आकार असल्यामुळे त्यांचे अस्तित्व नष्ट होत नाही. कालाच्या अंता पर्यत अनंत काल पर्यत ते ध्रुवसत् रुपाने सदा तेथेच विराज मान असतात. सिध्द जीवाचे प्रदेश लोककाश प्रमाण असुन ही लोकाकाशभर पसरत नाहीत. शरीरानुविधायित्वे तदभावाद् विसर्पणं । लोकाकाश प्रमाणस्य तावन्नाकारणत्वतः ॥ १६ ।। अर्थ- पद्यापि प्रत्येक जीवाचे प्रदेश लोकाकाश प्रमाण असंख्यात असतात तथापि संमार अवस्थेत लहान मोठया शरीराच्या आकार झाल्या मुळे त्यांचे प्रदेश लोकाकाशभर पसरत नाहीत, यद्यपि त्यांचे प्रदेशामध्ये संकोच विस्तार शक्ती असते तथापि ती शक्ती शरीराच्या संयोगात व संकोच विस्तारने कार्य करते शरीराचा संपर्ग नसल्यामुळे ते सकोच विस्तारन करता पूर्वीशरीराच्या आकाराने च सदाकाल राहतात. दृष्टांत शरावाचंद्र शालादि द्रव्यावष्ट म्भयोगतः । अल्पो महांश्च दीपस्य प्रकाशो जायते यथा ।। १७ ।। संहारेच विसर्पच तथाऽऽत्माऽनात्मयोगतः : तदभावात् तु मुक्तस्य न संहार-विसर्पणे ॥ १८ ।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ८ वा अर्थ - ज्याप्रमाणे शराव (मातीचे भांडे ) चंद्रशाळा ( घरावरील गच्ची ) इत्यादि अनेक आकाराच्या आधाराने दीपकाचा प्रकाश हा लहान-मोठा होतो. त्याप्रमाणे आत्म्याचे प्रदेश अनात्मा नोकर्म शरीराच्या संयोगात आपल्या संकोच विस्तार शक्तीमुळे, शरीर प्रमाण लहान मोठया आकाराचे होतात. परंतु सिध्द अवस्थेत शरीराचा अभाव असल्यामुळे ते संकोच विस्तार होणेचे कार्य होतनाही. त्यामुळे सिध्द जीवाचे प्रदेश लोकाकाशभर न पसरता पूर्व शरीराच्या आकाराचे राहतात. संकोच विस्तार होणे ही जरी जीवाची शक्ती आहे, तथापि तिचे संकोच विस्तार होण्याचे कार्य हे शरीराच्या संयोगातच होते शरीर संयोगा शिवाय होत नाही. कारण शरीराच्या निमित्त कारणाच्या अभावात ते संकोच विस्तार होणे बंद होते जीवाचे प्रदेश पूर्व शरीराच्या आकाराचेच राहतात. मुक्त जीवाचा ऊर्ध्वगमन स्वभाव. कस्यचित् शंखला मोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात् । अवस्थानं न मुक्तानामूर्ध्वव्रज्यात्मकत्वतः ॥ १९ ॥ ४६ अर्थ - लोक व्यहारामध्ये एखद्याचे शृंखलाबंधन स्टले तरी त्याचे अवस्थान त्याच जागी राहते. परंतु मुक्त जीवाचे कर्मबंधन नाहीसे झाल्यानंतर तो तेथेच न राहता ऊर्ध्वगमन स्वभाव असल्यामुळे एका समयात लोकाकाशाच्या अग्रभागी सिध्द शिलेवर जाऊन विराज मान होतो. मोक्ष होण्याचा क्रम सम्यकज्ञान चारित्र संयुतस्यात्मनो भृशं । निरास्रवत्वाच्छिन्नायां नवायां कर्म संतम्तौ ।। २० ।। पूर्वजितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारबीजं कार्त्स्न्येन मोहनीयं प्रहीयते ।। २१ ।। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा ४७ ततोऽन्तराय ज्ञानधन दर्शन धन:न्यनन्तरं : प्रहीयन्ते ऽस्ययुगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥ २२ ॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा बालो विनश्यति । तथा कर्म क्षयं याति मोहनीये भयंगते ॥ २३ ॥ ततः क्षीणचतुः कर्मा प्रात्पोऽथाख्यात संयमः । बीतबंधन निर्मुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ।। २४ ।। शेषकर्म फलापेक्षः शुद्धो शध्दो निरामयः । सर्वज्ञः सर्वदर्शीच जिनो भवति केवली ॥ २५ ॥ कृत्स्नकर्मक्षयादूवं निर्वाण मधिगच्छति ।। यथा दग्धेन्धनो वन्हिनिरुपादान संततिः ॥ २६ ॥ । अर्थ- प्रथम हा जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र संपन्न होऊन नवीन कर्माचा आस्रवनिरोध रुप संवरभाव करतो नंतर पूर्ववध्द कर्माची निर्जरा करून दर्शन मोहाचा क्षय करून क्षपक श्रेणीच्या द्वारे चारित्र मोहाचा पूर्णपणे क्षय करून संसाराचे मुळ बीज मोहनीय कर्म त्याचा पूर्णपणे क्षय करून क्षीण मोह होतो. नंतर ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय या तीन घाति कर्मांचा युगपत् क्षय करतो. ज्याप्रमाणे जन्मजात मुलाची गर्भनाळ नष्ट झाली तर बालकाचा मृत्यु होतो. त्याप्रमाणे मोहनीय कर्मरूप संसार बीजाचा नाश झाला असताना यथाख्यात संयम धारण करून जीव चार घाति कर्मांचा नाश करून आयुकर्म स्थिति काळ संपेपर्यत बाकीच्या अघाती कर्माचे फळ भोगीत केवळी भगवान शुध्दोपयोगाच्या द्वारे आपल्या शुद्ध आत्मस्वरुपाचे चितवन करीत शेवटी सर्व कर्माचा क्षय करून वर लोकाकाशाच्या अग्रभागी निर्वाण स्थानाला जातो. ज्याप्रमाने दाह्य इंधन पूर्णपणे जळल्यानंतर अग्नि हा नामशेष होतो. त्याप्रमाणे कर्मरुपी इंधनाचा नाश झाल्यानंतर विकल्परुप ध्यानाग्निरुप संततिचा नाश होऊन जीव निर्विकल्प शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वरूप परिणमतो. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा मुक्तजीवच्या ऊर्ध्वगमन स्वभावाचे दृष्टांत द्वारा समर्थन तदनंतरमेवोलमालोकान्तात् स गच्छति । पूर्वप्रयोगावसंगत्वाद् बंधच्छेदोर्ध्वगौरवैः ।। २७ ।। कुलालचक्रे डोलायामिषो चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात् कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ।। २८ ।। मृल्लेपसंगतिर्मोक्षाद् यथा दृष्टाऽप्स्वलाम्बुनः । कर्मबंधविनिर्मोक्षात् तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ २९ ॥ एरंडस्फुटदेलासु बंधच्छेदाद् यथा गतिः । कर्मबंधन विच्छेदाज्जीवस्यापि तथेष्यते ॥ ३० ॥ यथाऽधस्तिर्यगवं च लोष्ठ-वाय्वग्नि वीचयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोर्ध्वगतिरात्मनां ॥ ३१ ।। ऊर्श्व गौरव धर्माणो जीवा इति जिनोत्तमः । अधोगौरव धर्माणः पुद्गला इति चोदितं ॥ ३२ ॥ अतस्तु गति वैकृत्यं तेषांयदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाता च्चते प्रयोगाच्च तदिष्य ।। ३३ ।। अधस्तिर्यक्तयोर्ध्वं च जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणां ।। ३४ ॥ अर्थ- सवै कर्माचा क्षय होताच त्यानंतर सिद्ध जीव पूर्वप्रयोग असंगत्व, बंधच्छेद, व ऊर्ध्वगौरव या चार कारणामुळे लोकाच्या अग्रभागापर्यंत ऊर्ध्वगमन करतात. ज्याप्रमाणे कुंभाराचे चाक गतिदिल्यानंतर पूर्व प्रयोगाने फिरत राहते किंवा पाळणा जसा फिरत राहतो. किंवा वाण हा धनुष्याचे दोरीपासून सुटला की गतिमान होतो त्या प्रमाणे पूर्वप्रयोगवश सिद्ध जीव देखील एकसमय पर्यंत ऊर्ध्व ग . मान होतात. ज्या प्रमाणे मातीच्या लेपामुळे पाण्यात बुडलेला भोपळा Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा लेप निघून जाताच पाण्याच्या वर येतो त्यामुळे कर्मलेपामुळे संसारसागरात बुडलेला आत्मा कर्मलेप निघून गेल्यामुळे ऊर्ध्वगमन करतो. ज्या प्रमाणे एरंडाचे बीज वरील टरफल फोडले असताना एकदम वर उसळते त्याप्रमाणे कर्म बंधाचा छेद झाला असताना जीव ऊर्ध्वगमन करतो. ज्या प्रमाणे मातीचा ढेकूळ स्वभावतः अधोगमन करतो, वायु हा स्वभावत: वर तिर्यक् दिशेने करतो, अग्निशिखा स्वभावत: वर जाते त्याप्रमाणे जीव देखील स्वभावतः ऊर्वगमन करतो. भगवंतानी जीवाचे गमन स्वभावत: ऊर्ध्वगमन सांगितले आहे व पुद्गलाचे गमन स्वभावतः अधोगमन सांगितले आहे संसार अवस्थेत जीव कर्माच्या संयोगवश चारदिशेला व खाली किंवा वर अशा ६ दिशेला आकाश प्रदेशाच्या श्रेणीबद्ध गतीने गमन करतो. तसेच कर्ममुक्त झाल्यानंतर सिद्धजीव स्वभावत: ऊर्ध्वगमन करतो. कर्मनाश व ऊध्वंगमन एकसमयात होतात. द्रव्यस्य कर्मणो यद्वद् उत्पत्यारंभवीतयः । समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ।। ३५ ।। उत्पतिश्च विनाशश्च प्रकाशतमसोरिह । युगपद् भवतो यद्वत् तद्वन्निर्वाण कर्मणोः ॥ ३६ ॥ अर्थ- ज्या प्रमाणे संसारी जीवाच्या पूर्ववद्ध द्रव्यकर्माचे उदयास येऊन निघून जाणे व नवीन कर्माचे आत्रवरूपाने येणे हे एकच समयात युगपत् होते, अथवा ज्याप्रमाणे प्रकाशाची उत्पत्ति व अंधःकाराचा नाश हा एकच समयात युगपत् होतो त्याप्रमाणे कर्माचा क्षय व जीवाचे ऊर्ध्वगमन युगपत् एकच समयात होते. कोणत्या कर्माच्या नाशाने कोणता गुण प्रकट होतो. ज्ञानावरणहानात् ते केवलज्ञान शालिनः । दर्शनावरणच्छेदाद् उद्यत्केवलदर्शनाः ॥ ३७ ।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० तत्वार्थसार अधिकार ८ वा वेदनीय समुच्छेदाद् अव्याबाधत्वमाश्रिताः । मोहनीय समुच्छेदात् सम्यक्त्वमचलं श्रिता ॥ ३८ ॥ आयुः कर्मसमुच्छेदाद् अवगाहनशालिनः । नामकर्मसमुच्छेदात् परमं सौक्ष्म्यमाश्रिताः ॥ ३९ ॥ गोत्रकर्म समुच्छेदाद् सदाऽगौरवलाघवाः । अंतराय समुच्छेदात् अनन्तवीर्यमाश्रिताः ॥ ४० ॥ अर्थ - १ ज्ञानावरण कर्माच्या नाशापासून केवल ज्ञान गुण प्रगट होतो. २ दर्शनावरण कर्माच्या नाशापासून केवल दर्शन गुण प्रगट होतो. ३ वेदनीय कर्माच्या नाशा पासून अव्याबाधत्व गुण प्रकट होतो. ४ मोहनीय कर्माच्या नाशापासून निर्मल वीतराग सम्यक्त्व गुण प्रगट होतो. सूक्ष्मत्व गुण ५ आयुकर्माच्या नाशापासून अवगाहनत्व गुण प्रगट होतो. ६ नामकर्माच्या नाशापासून प्राप्त होतो. ७ गोत्र कर्माच्या नाशापासून अगुरुलघुत्व गुण प्राप्त होतो. ८ अंतराय कर्माच्या नाशापासून अनंतवीर्य गुण प्राप्त होतो. सिध्दजीवामध्ये विशेषता काल-लिंग-गति क्षेत्र तीर्थ ज्ञानावगाहनैः । बुध्द बोधित चारित्र संख्याऽल्पबहुतान्तरैः ॥ ४१ ॥ प्रत्युत्पन्न नयादेशात् ततः प्रज्ञापनादपि । अप्रमत्तं बुधैः सिध्दा: साधनीया यथागणं ॥ ४२ ॥ अर्थ - अप्रमत्त- वीतराग- ज्ञानी विद्वान् आचार्यानी पूर्वाचार्य परंपरा आगमास अनुसरून सिध्दामध्ये काल-लिंग-गति क्षेत्र - तीर्थ ज्ञान अवगाहना- स्वयं बुध्द बोधितबुध्द चारित्र - संख्या- अल्पबहुत्व अंतर इत्यादि प्रकाराने प्रत्युत्पन्ननय ( वर्तमान नय ) वभूतप्रज्ञान नया विवक्षेने वशेषता प्रतिपादन केली आहे. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ८ वा १) काल- कालाच्या अपेक्षेने अवसर्पिणी काळात सुषमा दुषमा नामक तृतीय कालाच्या शेवटी उत्पन्न झालेला जीव व दुषमा सुषमा नामक चतुर्थ काळात उत्पन्न झालेला जीव मोक्षास जाऊ शकतो उत्सापिणी काळाच्या अपेक्षेने दुषमानामक पांचव्या काळाच्या शेवटी उत्पन्न झालेला व दुषमा सुषमा नामक चतुर्थ कालात उत्पन्न झालेला जीव मोक्षास जाऊ शकतो. सामान्यपणे मोक्षाचा काळ चतुर्थंकालच असतो. इतर कालान मोक्ष होत नाही. २) लिंग- लिंग म्हणजे वेद मोक्षाला जाताना वास्तविक जीवाचे परिणाम वेदातीत असतात तथापि भूतपूर्वनयाच्या अपेक्षेने कोणी भावलिंगाच्या अपेक्षेने नपुंसक वेदातून वेदातीत होऊन मोक्षास जातो. कोणी स्त्रीवेदातून वेदातीत होऊन मोक्षास जातो. कोणी पुरुष वेदातून वेदातीत होऊन मोक्षास जातो. परंतु द्रव्यलिंगाच्या अपेक्षेने पुरुष द्रव्यलिंगातूनच वेदातीत होऊन मोक्षास जातो. अथवा- लिंग म्हणजे बाह्य वेष. मोक्षास जाताना एक निग्रंथ लिग धारीच मोक्षास जातो. सग्रंथ लिंग धारीला श्रावकाला निग्रंथ लिंग धारण केल्याशिवाय मोक्ष होत नाही. ३) गती- गतिच्या अपेक्षेने प्रत्युत्पन्न नयाच्या अपेक्षेने प्रत्येक जीव मिद्धगतीतून सिद्ध होतो. मनुष्यगतीतूनच सिद्ध होतो अन्यगतीतून साक्षात् मोक्ष प्राप्ति होत नाही. भूतपूर्वनय अपेक्षेने कोणी देवगतीतून मनुष्य होवून मोक्षास जातो कोणी नरकगतीतून मनुष्य होऊन मास जातो. कोणी तिर्यंच गतीतून मनुष्यगति धारण करून मोक्षास जातो. ४) क्षेत्र- प्रत्युत्पन्न नय विवक्षेने आपल्या प्रदेश क्षेत्रात राहणे यालाच मोक्ष म्हणतात. भूतप्रज्ञापन नयाच्या अपेक्षेने अडीच द्वीपातील पाच भरतक्षेत्र, पाच ऐरावतक्षेत्र, पाच विदेहक्षेत्र या कर्मभमीतूनच मोक्षाची प्राप्ति होते. भोगभूमी क्षेत्रातून जीवास मोक्ष प्राप्ति होत नाही. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ८ वा ५) तीर्थ- कोणी तीर्थकर होऊन सिद्ध होतात. कोणी तीर्थकर न होता सामान्य केवली होऊन सिद्ध होतात कोणी तीर्थकराच्या काळात सिद्ध होतात. कोणी तीर्थकराच्या मधल्या तीर्थकाळात सिद्ध होतात. ६) ज्ञान- प्रत्युत्पत्र नयविवक्षेने प्रत्येक जीव केवल ज्ञानानेच मोक्षास जातो. भूतपूर्वनय विवक्षेने कोणास मतिश्रुतज्ञानातून केवलज्ञान होऊन मोक्ष होतो. कोणास मति-श्रुत अवधिज्ञानातून केवल ज्ञान होऊन मोक्ष होतो कोणास मति-श्रुत-अवधि-प्रनःपर्यय ज्ञानातून केवलज्ञान होऊन मोक्ष होतो. ७) अवगाहन- मुक्त जीवाचो अवगाहना पूर्वशरीराचा आकार प्रमाण असते. मुक्त जीवाची उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष्य असते. जघन्य अवगाहना सात धनुष्य (३१ हात)प्रमाण असते. ८) बुद्ध बोधित बुद्ध- कोणी जीव अन्य गुरूचा उपदेश न ऐकताच स्त्रयं बुद्ध होऊन मोक्षाय जातात. कोणी अन्य गुरूचा उपदेश एकून बुद्ध (ज्ञानी) होऊन मोक्षास जातात. ९) चारित्र- प्रत्युत्पन्न नयाने प्रत्येक मोक्षास जाणान्या जीवास यथाख्यात चारित्रातूनच मोक्ष होतो. भूतपूर्वनयाने कोणी सामाधिक सूक्ष्मभापराय यथाख्यात चारित्र धारण करून मोक्षाम जातात. कोणी सामायिक छेदोरस्थापना परिहारविशुद्धि, मूक्ष्म सांपराय-यथाख्यात चारित्र धारण करून मोक्ष स जातात. १०) संख्या- एकावेळी एकच जीव मोक्षास जातो. कधी जास्तीत जास्त एकावेळी १०८ जीव मोक्षास जातात. दर ६ महिने ८ समयात निगोद राशीतून ६०८ जीव संसाराशीत येतात व तितकेच ६०८ जीव मोक्षास जातात. ११) अल्प बहुत्व- १) संख्या- प्रत्युत्पन्ननय विवक्षन एका समयात एक जीव मोक्षास जातो. जास्तीतजास्त १०८ जीव मोक्षाम जातात. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ७वा २) क्षेत्र- भूतपूर्वनय विवक्षेने संहरण सिद्ध (उपसर्गाने हरण करून अन्यक्षेत्रात नेलेले) फार थोडे, जन्मसिद्ध (ज्या क्षेत्रात जन्म झाला तेथून सिद्ध झालेले) संख्यात गुणा आहेत. उर्ध्वलोकातून अधर आकाशातून सिद्ध झालेले अतिअल्प अधोलोक (दरी-गुफा) क्षेत्रातून सिद्ध होणारे संख्यातपट, तिर्यक्लोक भूमीवरून सिद्ध होणारे संख्यातपट समुद्रातून सिद्ध होणारे अल, द्वीपक्षेत्रातून होणारे संख्यातपट, लवणसमुद्रातून सिद्ध होणारे अल्प, कालोदधि समुद्रातून सिद्ध होणारे संख्यातपट जंबूद्वीपातून सिद्ध होणारे संख्यातपट धातकी खंडातून सिद्ध होणारे संख्यातपट पुष्करार्ध द्वीपातून सिद्ध होणारे संख्यातपट अकर्मभूमीतून (भोग) सिद्ध होणारे अल्प कर्म भूमीतून सिद्ध होणारे संख्यातपट. ३) काल- उत्सपिणी काळात सिद्ध होणारे अल्प, अवसर्पिणी काळात सिद्ध होणारे संख्यात पट. ४) गती- तिर्यग्गतीतून मनुष्य होऊन सिद्ध होणारे अल्प. नरक गतीतून मनुष्य होऊन सिद्ध होणारे असंख्यात घट, देवगतीतून मनुष्य होऊन सिद्ध होणारे असंख्यातपट. ५) वेद- प्रत्युत्पन्न नय विवक्षेने सर्व सिद्ध जीव वेदातीत होऊन मोक्षास जातात. त्यात अल बहुत्व नाही. भूतपूर्वनय विवक्षेने भाव नपुसंकवेदातून वेदातीत होऊन मोक्षःस जाणारे अल्प भाव स्त्रीवेदातून वेदातीत होऊन मोक्षाप जाणारे संख्यातपट पुरूषवेदातून वेदातीत होऊन सिद्ध होणारे संख्यातपट. ६) तीर्थ- तीर्थकर होऊन सिद्ध होणारे अल्प, सामान्य केवली होऊन सिद्ध होणारे संख्यातपट. ७) चारित्र- सामायि कादि पाच चारित्र धारण करून सिद्ध होणारे अल्प परिहारविशुद्धि रहित चार चारित्र धारण करून सिद्ध होणारे संख्यातपट. ८) प्रत्येक बुध्द अल्प बोधित बुध्द संख्यात पट Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ तरवार्थसार अधिकार ८ वा ९) ज्ञान- प्रत्युत्पन्न नविवक्षेने सर्व सिध्द केवलज्ञानीच सिध्द होतात. म्हणून अल्प बहूत्व नाही. भूतपूर्वनय विवेक्षने मतिश्रुन मन: पर्यय ज्ञानातून केवलज्ञानी होऊन सिध्द होणारे अल्प मतिश्रुत ज्ञानापासून केवल ज्ञानी होऊन सिध्द होणारे संख्यातपट मतिश्रुत अवधि मनः पर्यय ज्ञापासून केवली होऊन सिध्द होणारे संख्यातपट मतिश्रुत-अवधि-ज्ञानातून केवली होऊन सिध्द होणारे संख्यातपट. १०) अवगाहना- जघन्य अवगाहना धारण करून सिध्द होणारे अल्प उत्कृष्ट आवगाहन धारण करुन सिध्द होणारे संख्यातपट ११) आठ समयानंतर सिध्द होणारे अल्प. द्वि समयानंतर सिद्ध होणारे असंख्यातपट. १२) संख्येने युगपत् १०८ सिध्द होणारे अल्प युगपत १०८ पासून ५० संख्या पर्यंत युगपत् सिध्द होणारे अनंतपट सिध्द होतात. युगपत् ४९ पासून २५ संख्यापर्यत युगपत सिध्द होणारे असंख्यात पट २४ संख्यापासून एक संख्यापर्यत सिध्द होणारे उत्तरोतर संख्यातपट सिध्द होतात. १३) अंतर- जघन्यपण सिध्द होणा-या जीवामध्ये अंतर एकसमय उत्कृष्टपण अंतर ६ महिने याप्रमाणे सिध्द जोवामध्ये क्षेत्रादिच्या अपेक्षेने विशेषता असते सिध्द जीवातील विशेषता तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञान दर्शने। सम्यक्त्व सिध्दतावस्था हेत्वभावाच्च निष्क्रियाः॥ ४३ ॥ ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मानास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात् स हि हेतुर्गते परः ॥ ४४ ॥ अर्थ - सर्व सिध्द जीवामध्ये केवलज्ञान केवलदर्शन. सम्यक्त्व मिदत्व हे स्वभाविक भाव तादात्म्य स्वभावामुळे समान असतात. संमार अवस्थेन प्रदेशपरिस्पंदन रुप क्रिया व गमन क्रिया ही पराच्या संसानि होते होती सिध्द अवस्थेत परावा संमग नसल्यामुळे मर्वसिध्द जीव निष्क्रिय असतात. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा शंका- जर सिध्द जीवाचा ऊर्ध्वगमन स्वभाव आहे तर ते लोकाकाशाच्या वर का गमन करीत नाहीत? समाधान- जीवाचे गमन लोकांत पर्यतच असते पुढे धर्मास्तिकायाचा अभाव असल्यामुळे जीव लोकाकाशाच्या बाहेर गमन करू शकत नाहीत, सिध्दांच्या सुखाचे वर्णन संसार विषयातीतं सिध्दानामव्ययं सुखं । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमषिभिः ।। ४५ ।। अर्थ- सिध्दांचे सुख हे स्वभाविक मुख असल्यामुळे संसार विषयातीत अमते, अविनाशी असते. अव्यावाध असते. कर्माचा अभाव असल्यामुळे त्यांच्या सुखात कर्माच्या उदयाने व्याबाधा येत नाही. अनुमा श्रेष्ठ सुख सिद्ध अनन्नकाल पर्यन्त भोगतात. शरीराच्या अभावात सिध्दाता सुख कसे ? शका-समाधान स्यादेतत् अशरीरस्य जन्तोनष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्युत्तरं शृणु ।। ४६ ।। लोके चविहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च ।। ४७ ॥ सुखो वन्हिः सुखो वायुविषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः सुखितो.स्मीति भाषते ।। ४८ ॥ पुण्यकर्मविपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थतः। कर्मक्लेश विमोक्षाच्च मोक्षे सुखमनुत्तमं ।। ४९ ।। अर्थ- शंका-आठकर्माचा नाश ज्यांनी केला आहे अशा शरीर. रहित मुक्त जीवाला सुख कसे? समाधान- या शंकेचे आचार्य समाधान करतात लोकामध्ये मुखशब्दाचा प्रयोग चार अर्थी केला जातो कोणी इंद्रियाच्या विषयात मुख मानतात. कोणी दु:खाच्या अभावात मृग्व मानतात कोणी कर्माच्या विपाकात (फलांनो) सु व मानतात कोणी मोक्षामध्ये सुख मानतात. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा जसे- हिवाळ्यात अग्नि स्पर्शनेन्द्रियाला सुख कारक वाटतो उन्हाळ्यात शीतवारा सुख कारक वाटतो. कोणी रोगादि दुःखाचा अभाव झला की मी सुखी आहे असे समजतो पापकर्माचा नाश होऊन पुण्यकर्माचा उदय असताना जे वैभव ऐश्वर्य धन संपत्ति प्राप्त होते त्याला सुख समजतात परंतु या सर्व सुखापेक्षा मोक्ष सुख हे जीवाचे स्वाभाविक सूख असल्यामुळे सर्वात श्रेष्ठ सुख आहे. या सुखाला संसारातील कोणत्याही सुखाची उपमा देता येत नाही. मुक्त जीवाचे सुख सुषुप्त जीवाच्या सुखासारखे नाही सुषुप्तावस्थया तुल्यां केचिदिच्छन्ति निर्वति । तद्यक्तं क्रियावत्त्वात् सुखातिशय तस्तथा ।। ५० ॥ श्रम क्लेशमद व्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । मोहोत्पतिविपाकाऊ दर्शनघ्नस्य कर्मणः ॥ ५१ ॥ अर्थ- कोणी मोक्ष सुखाला झोपलेल्या माणसाच्या सुखाप्रमाणे समजतात. परंतु ते समजणे योग्य नाही. सुषप्त अवस्थेत मनुष्य स्वस्थ झोपलेला असतो. काही क्रिया करीत नाही. पण मुक्त जीव हा जागृत असतो. त्याची ज्ञान-दर्शन क्रिया चालू असते. ऊर्ध्वगमन स्वभावामुळे एक समय ऊर्ध्वगति क्रिया देखील स्वाभाविक होते. सिद्धजीवाचे सुख अनुपम सातिशय सुख असते. सुषप्त अवस्थेत श्रमखद-मद-व्याधि-कामविकार आदि मोहनीय कर्माच्या उदयात व दर्शनावरण कर्माच्या उदयात संभवतात. पण मोक्षसुखामध्ये कोणतेही विकारभाव नसतात. आत्म्याचे स्वाभाविक सुख अनुभवतात. मोक्षसुख अनुपम आहे लोके तत्सदृशो ह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयेत तद् येन तस्मात् तान्निरूपम स्मृतं ।। ५२ ।। लिंगप्रसिद्धेः प्रामाण्यमनमानोपमानयोः । अलिंगचाप्रसिद्धं यत् तेनानुपमं स्मृतं ।। ५३ ।। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा अर्थ- संपूर्ण लोकामध्ये असा कोणताही पदार्थ नाही. की ज्याची उपमा या मोक्षसुखाला देता येईल. म्हणून मोक्षसुख निरूपम म्हटले जाते. अनुमानप्रमाण किंवा उपमाप्रमाण हे त्याच्या प्रत्यक्ष प्रसिद्ध लिंग साधनावरून केले जाते. परंतु हे मोक्षसुख इंद्रियद्वारे प्रत्यक्ष दिसत नाही. मोक्षसुखाचे अर्थ कोणते ही बाह्य चिन्ह नाही की ज्या लिंगावरून हे मोक्षमुख अनुमानप्रमाणाने किंवा उपमाप्रमाणाने जाणले जाईल. मोक्षसुख हे प्रत्येक जीवाला आपल्या स्वसवेदन प्रत्यक्ष ज्ञानाच्या द्वारे प्रत्यक्ष अनुभवास येते म्हणून अनुपम आहे. आगमप्रमाणाने मोक्षसुख सिद्धि प्रत्यक्षं तद् भगवतामहंतां तैः प्रभाषितं । गह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्मच छद्मपरीक्षया ।। ५४ ।। अर्थ- हे मोक्षमुख अरिहंत भगवंतानी स्वसंवेदन प्रत्यक्षाच्याद्वारे प्रत्यक्ष अनुभवले व ते दिव्यध्वनिच्याद्वारे आगमद्वारे सर्व भव्य जीवाना मांगितले. म्हणून छद्मस्थ अल्पज्ञानी आपल्या परोक्ष अल्पमतिज्ञानाच्या द्वारे त्याची परीक्षा करू शकत नाही. छद्मस्थ जीवाला आगमप्रमाणानेच त्याचे परोक्षज्ञान होते. उपसंहार इत्येतन्मोक्षतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते । शेषतत्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ।। ५५ ॥ अर्थ- याप्रमाणे जो भव्य जीव इतर सहा तत्त्वाबरोबर या मोक्षतत्त्वाचे यथार्थ स्वरूप जाणून त्यावर श्रद्धान ठेवतो, त्याचे स्वरूप जाणून प्रत्यक्ष अनुभवन घेतो व ससारमुखाविषयी उदासीन उपेक्षाभाव ठवून रागद्वेयरहित वीतरागभाव धारण करतो तो निर्वाणपदाची प्राप्ती करून घेतो. अधिकार ८ वा समाप्त Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा उपसहार मोक्षमार्ग प्रमाणनय निक्षेपनिर्देशादि सदादिभिः । सप्ततत्त्वीमिति ज्ञात्वा मोक्षमार्ग समाश्रयेत् ॥ १॥ अर्थ- याप्रमाणे प्रमाण-नय-निक्षेप व सत् संख्या आदि अनुयोग यांच्याद्वारे जीवादि सात तत्त्वांचे स्वरूप जाणून मोक्ष मार्गाचा आश्रय घ्यावा. मोक्षमार्ग निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्ग द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनं ॥ २ ॥ अर्थ- मोक्षमार्गाचे कथन दोन प्रकाराने केले आहे. १ निश्चय, २ व्यवहार. त्यापैकी निश्चयमोक्षमार्ग हा साध्यरूप-उपादेय-आश्रय करण्यायोग्य आहे. दूसरा व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयाची भावना ठेवन व्यवहारमोक्ष मार्गात्री साधना करण तो व्यवहारमोक्षमार्ग साधनरूप आहे निश्चय मोक्षमार्ग श्रद्धानमधिगमोपेक्षा: शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः । सम्यक्त्व-ज्ञान-वृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः ।। ३ ।। अर्थ- शुद्ध आत्म्याचे श्रद्धान ते निश्चय-सम्यग्दर्शन शुद्ध आत्म्याचे ज्ञान ते निश्वयसम्यग्यज्ञान शुद्ध आत्मस्वरूपात अविचल स्थिर वृत्तिपरिणति-अनुभूति परमउपेक्षाभाव वीतरागभाव ते निश्चय सम्यकचारित्र वाला निश्चयमोक्षमार्ग म्हणतात. व्यवहार मोक्षमार्ग श्रद्धाधानाधिगमोपेक्षाः याः पुनः स्युः परात्मनां । सम्यक्त्वज्ञान वृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ॥ ४ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ८ वा अर्थ - ज्यांनी आपल्या शुद्धात्मस्वरूपाची प्राप्ति करून घेतली अशा पंचपरमेष्ठी परमात्म्यांचे जे श्रद्धान ते व्यवहार सम्यग्दर्शन त्यांच्या स्वरूपाचे ज्ञान ते व्यवहार सम्यग्ज्ञान, त्यांच्या स्वरूपाचे ध्यान चितवन-भक्ति ते व्यवहार सम्यक्चारित्र तो व्यवहार मोक्षमार्ग होय. व्यवहार मोक्षमार्गस्थ मुनि श्रद्दधानः परद्रव्यं बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च व्यवहारी स्मृतो मुनिः ॥ ५ ॥ अर्थ - खरादेव शास्त्र गुरु किंवा पंचपरमेष्ठी यांचे श्रद्धान करणारा त्यांचे स्त्ररूप जाणणारा व त्यांची भक्ति-अनुराग पूर्वक त्यांचे अनुसरण करणारा त्यांनी सांगितलेल्या वीतराग मार्गांचे आचरण करणारा तो व्यवहारमोक्षमार्गस्य मुनि होय. निश्चय मोक्षमार्गाची भावना ठेऊन व्यवहार मोक्षमार्गाची साधना करणारा तो व्यवहार मोक्षमार्गस्थ हो निश्चय मोक्षमार्गस्थ मुनि स्वद्रव्यं श्रद्दधानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमागश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः ।। ६ ।। ५९ अर्थ - जो आपल्या शुद्धपरमात्मतत्त्वाचे श्रद्धान करतो, त्याचीच निरंतर जागीव ठेवतो. व रागद्वेषरहित परमउपेक्षाभाव - वीतरागभाव धारण करतो तो निश्चयमोक्षमार्गस्य मुनि होय. देवदर्शन-शास्त्रस्वाध्यायपूर्वक व्यवहार मोक्षमार्गांची साधना करणाराच आत्मदर्शनरूप निश्चयमोक्षमार्गाची साधना करू शकतो. निश्चयनयाने अभेदरत्नत्रयस्वरूप आत्माच षट्कारक आहे आत्मा ज्ञातृतया ज्ञानं सम्यवत्वं चरितं हि सः । स्वस्थो दर्शन चारित्र मोहाभ्यामनुपप्लुतः । ७ ।। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा अर्थ- आत्माच ज्ञान दर्शन स्वभाव असल्यामुळे ज्ञातास्वरूप आत्माच स्वभावपरिणतिचा कर्ता आहे. दर्शनमोह व चारित्रमोहरूप मिथ्यात्व व असंयम यानी रहित आत्मस्वरूपस्थित आत्मा व सम्यग्यदर्शन चारित्ररूप आहे आत्माच रत्नत्रय परिणतिचा कर्ता आहे पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति च चरत्यपि । दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ।। ८ ॥ अर्थ- स्वस्वरूपाचे श्रद्धान आत्माच करतो, आत्मदर्शन आत्माच करतो. आत्मस्वरूपाला आत्माच जाणतो. स्वस्वरूपामध्ये अनुचरण-लीन होणे आत्माच करतो. याप्रमाणे अभेदनयाने दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणति क्रियेचा कर्ता परनिरपेक्ष स्वतंत्र एक आत्माच आहे. (स्वतंत्र:कर्ता) अभदनयाने आत्माच परिणति क्रियेचे कर्म आहे पश्यति स्वस्वरूपं यं जानाति च चरत्यपि । दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ ९ ॥ अर्थ- आत्मा ज्या स्वस्वरूपाचे श्रध्दान करतो तो आत्माच आहे. ज्या स्वरूपाला जाणतो तो आत्माच आहे. ज्या स्वरूपाचे अनुचरण करतो तो देखील आत्माच आहे, याप्रमाणे अभेदनयाने दर्शन-ज्ञान-चारित्रु परिणति क्रियेचे आत्माच कर्म आहे. (क्रियाव्याप्यं कर्म) आत्माच करण (साधन) आहे दृश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च । दर्शन-ज्ञान-चरित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १० ॥ अर्थ-आत्मद्वारेच आत्मा श्रध्दान करतो. आत्मद्वारेच आत्मा जाणतो आत्मद्वारेच आत्मा अनुचरण करतो याप्रमाणे रत्नत्रय परिणति क्रियेचे साधकतम करण साधन आत्माच आहे (साधकतमं करणं) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवार्थसार अधिकार ८ वा रत्नत्रयपरिणति क्रियेचे संप्रदान आत्माच आहे. यस्मै पश्यति ज्ञानाति स्वरूपाय चरत्यपि । दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।। ११ ॥ अर्थ- ज्या स्वस्वरूपाच्या प्राप्तीसाठी आत्मा श्रध्दान करतो, जाणतो व अनुचरण करतो ती स्वस्वरूपप्राप्ती आत्म्यालाच होते म्हणून दर्शन-ज्ञान चारित्र स्वरूप रत्नत्रय परिणतिचे संप्रदान तन्मय आत्माच आहे. ( तदर्थे संप्रदानं) रत्नत्रय परिणति क्रियेचे अपादन आत्माच आहे यस्मात् पश्यति जानाति स्वस्वरूपात् चरत्यपि । दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १२ ॥ अर्थ - ज्या स्वस्वरूप शक्तीपासून आत्मा श्रध्दान करतो, जाणतो अनुचरण करतो. ते दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयमय परिणति क्रियेचे मूल उगम स्थान आत्माच आहे. तन्मय आत्माच अपादान आहे ( किया हेतुः अपादानं ) रत्नत्रय परिणति क्रियेचा संबंध आत्म्याशीच आहे. यस्य पश्यति ज्ञानाति स्वरूपस्य चरत्यपि । दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १३ ॥ अर्थ- ज्या स्वस्वरूपाचे आत्मा श्रध्दान करतो, जाणतो, अन चरण करतो तो दर्श -ज्ञान-चारित्रमय आत्माच आहे. आत्म्याचा व आपल्या स्वरूपाचा तादाम्य संबंध आहे, (संबंध षष्ठी) रत्नत्रय परिणति क्रियेचे अधिकरण आत्माच आहे. यस्मिन पश्यति ज्ञानाति स्वस्वरूपे चरत्यपि । दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १४ ।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसार अधिकार ९ वा अर्थ- आत्मा आपल्या स्वस्वरूपात अधिष्ठान करूनच श्रद्धान करतो, जाणतो, अनुचरण करतो दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय परिणति करतो. म्हणून परिणति क्रियेचे अधिष्ठान आत्माच आहे. ( क्रियाधिष्ठानं अधिकरणं) । स्वभाव-स्वभाववान् तादात्म्य ये स्वभावाद् दशि-ज्ञप्ति चर्यारूप क्रियात्मकाः । दर्शन-ज्ञान-चारित्रवयमात्मैव तन्मयः ।। १५ ।। अर्थ- दर्शन-जान चारित्ररू क्रिया हा आत्म्याचा स्वभाव आहे. म्हणून दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभावमा आत्माच स्वभाववान आहे. __ गुण-गुणी अभेद दर्शन-ज्ञान-चारित्र गणानांच इहाश्रयः । ... दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रययात्मैव स स्मृतः ।। १६ ।। अर्थ- दर्शन-ज्ञान-चारित्र या गुणांचा आश्रय आधर आत्माच आहे. म्हणून दर्शन-ज्ञान चारित्रमय आत्माच गुण वान् आहे. पर्याय-पर्यायवान् अभे दर्शन-ज्ञान-चारित्र पर्यायाणां य आश्रयः । दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ।। १७ ॥ अर्थ- दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणतिरूप पर्यायाचा आश्रय दर्शनज्ञान-त्रारित्र मय आत्माच पर्यायवान आहे. प्रदेश प्रदेश वान अभेद दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रदेशाये प्ररूपिताः । दर्शन-ज्ञान-चारित्र मयस्यात्मन एव ते ।। १८ ।। अर्थ- दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूा जे आत्मप्रदेश सांगितले आहेत, ते दर्शन-ज्ञान चारित्रमय प्रदेश वन् आत्म्याचेच आहेत. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसार अधिकार ९ वा सामान्यगुण-गुणी अभेद दर्शन-ज्ञान-चरित्र गुरुलघ्वाव्हया गुणाः । दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥ १९ ॥ अर्थ- जे दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप विशेषगुण व अगुरुलघु अस्तित्व वस्तुत्व आदि सामान्य गुण ते सर्व दर्शन-ज्ञान चारित्रमय आत्म्याचेच अभिन्न तादात्म्य गुण आहेत. हत. उत्पाद-व्यय-Jव्य तादात्म्य दर्शन-ज्ञान-चारित्र ध्रौव्योत्पाद व्यवास्तु ते । दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयस्यात्मन एव ते ।। २० ॥ अर्थ- दर्शन-ज्ञान-चारित्र या गुणांचे ज उत्पाद व्यय ,व्यधर्म ते दर्शन-ज्ञान-वारित्र न प आत्म्याचेच अभित्र तादात्म्य धर्म आहेत. पर्यायाथिक व द्रव्याथिक मोक्षमार्ग स्यात् सम्यक्त्व ज्ञान चारित्ररूपः । पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः । एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः । स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ।। २१ ।। अर्थ- पर्यायाथिक-भेद नयादेशाने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तीन प्रकारचा मोक्षमार्ग म्हटला जातो. परंतु द्रव्याथिक अभेदनयादेशाने दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय एक अद्वितीय आत्माच साक्षात् मोक्षमार्ग आहे. एक आत्म्याचीच आराधना ही भेदनयाने सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राची आराधना म्हटली जाते. ग्रंथ पठनाचे फल तत्वार्थसारमिति यः समधीविदित्वा । निर्वाणमार्गमधितिष्ठति निः प्रकम्पः । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ तत्त्वार्थसार अधिकार ८ वा संसारबन्धमवधूय स धूतमोहः । चैतन्यरूपमचलं शिवतत्वमेति ॥ २२ ॥ अर्थ- जो वीतराग समताभाव धारण करणारा भव्य मुमुक्ष जीव या तत्वार्थसार ग्रंथाचे पठन-पाठन करून सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गाचे अविचल मनाने अनुष्ठान करतो तो संसारबंधनाचा नाश करून दर्शनमोह व चारित्रमोहाचा ज्याने नाश केला आहे असा ज्ञानी-संयमी होऊन आपले अविचल शुद्ध चैतन्य स्वरूप जे परमात्मतत्वकी जे सदा शिवस्वरूप सुख-शांति स्वरूप आहे ते प्राप्त करतो. अंतिम निवेदन वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां तु पदावलिः 5: 1 वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि न पुनर्वयं ॥। २३ ।। अर्थ - या शास्त्रातील पदांची रचना वर्णानी केली. वाक्याची रचना पदानी केली. शास्त्राची रचना वाक्यानी केली. भाषावर्गणात्मक वर्ण-पद-वाक्य या शास्त्राचे कर्ते आहेत. आम्ही केवळ निमित्त मात्र आहोत. साक्षात् कर्ता नाही. असा विनयभाव दाखवन ग्रंथ कर्तत्वाचा निरभिमान वीतरागभाव सूचित केला आहे. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Forvete Peso nelibrary.org