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नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
(भाग
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
18
आगम १५ “प्रज्ञापना" मूलं एवं वृत्ति: [1]
आजामाजमा । आजम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
DEO HIEO HIRO
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
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सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
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MMARRIAGIAN
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपस्नसागरजी श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज
EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि] ShareA N प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885579825306275
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आगम आगम राजम
MINIS
आगम
STISTHE इरानम
भागम
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आजम
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आजम आजम आजम आजम
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अजम
आराम आराम आलम
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[भाग-१८] श्री प्रज्ञापना (उपांगसूत्रम्-१५/१)
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"प्रज्ञापना" मूलं एवं वृत्ति: (भाग-१)
मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः]
[आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
R
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१८
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट':
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब |
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज
एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक
हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
. सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - ..
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
*मुनि दीपरत्नसागर...
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____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर
का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं -1, ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRS
अहम् । श्रीमच्छयामाचार्यद्वन्धं श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवरणयुतं श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् भाग-१
प्रकाशयित्री-कर्पटवाणिज्यपुरीयश्रेष्ठिमीठाभाइकल्याणचंद्राख्यसंस्थाद्वारागतश्रीसङ्घसत्कभगवतासूत्राय२३३१ रूप्यक एकत्रिंशदधिकत्रयोविंशतिशतश्रेष्ठिमगनलालभाइचन्द्रकारितसुधातुमयखमप्रभवसप्तत्यधिकैकादशशत ११७० रूप्यकसाहाय्येनागमोदयसमितिः श्रेष्ठिसुरचन्द्रात्मजवेणीचन्द्रद्वारा
मोहमय्यां 'निर्णयसागर' मुद्रणालये रामचंद्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
EPSARAS-IPPERS
वीरसंवत् २४४४ विक्रमसंवत् १९७४ काईष्ट १९१८.
वेतनं ३-१४-० [Rs. 3-14-01
।
प्रतयः १...]
प्रज्ञापना (उपांग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
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मूलाका: ३४९ + २३१
प्रज्ञापना (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम - १
दीप-अनुक्रमा: ६२२
पृष्ठाक:
३५३
२५०
२९७
४०५
मूलाक: विषय: पृष्ठाक: मूलाक:
विषय: पृष्ठांक: मूलांक:
विषय: ००१ | पद ०१- प्रज्ञापना
०१३ | पद ०३- बहवक्तव्यता (वर्तते)
| पद ०७-उच्छवास: १९२ | पद ०२- स्थानं
१५४ --दवार २०- संजी
२८८
३५४ | पद ०८- संज्ञा २५७ | पद ०३- बहुवक्तव्यता
२३८
--द्वार २१- भवसिद्धिक: २८८ ३५६ | पद ०९- योनि: --द्वार ०१- दिशा
२३९ -द्वार २२- अस्तिकाय: २९१
३६१ पद १०- चरिम: |--द्वार ०२- गतिः
-वार २३- चरम: --- --द्वार ०३- इन्द्रियं
રકર --दवार २४- जीव:
२९८ ३७५ पद ११- भाषा --- --द्वार ०४- काय:
રદ્દ |--द्वार २५-क्षेत्रं
२९९
पद १२- शरीरं --द्वार ०५- योग:
२७९ -द्वार २६- बन्धं
३२२
| पद १३. परिणाम: | --द्वार ०६- वेदः
२८०
| --द्वार २७- पदगल, दिशा- ३२६ ४१३ पद १४- कषाय: | --द्वार ०७- कषाय: २८१
आदि अल्पबहत्वं |--द्वार ०८- लेश्या २८१
४१९ पद १५- इन्द्रियं |--द्वार ०९- द्रष्टि : २८४ २९८ पद ०४- स्थितिः
--उद्देशक: ०१- नामादि --दवार १०- ज्ञानं
२८५ | पद ०५- विशेष
३६९
--उद्देशक: ०२- उपचयादि |--द्वार ११- अज्ञानं २८५ ३२६ पद ०६- व्युत्क्रान्ति:
पद १६- प्रयोग: --दवार १२- दर्शनं
૨૮૬
|--द्वार ०१- द्वादश: --द्वार १३- संयत:
२८६ --द्वार ०२- चतुर्विंशति:
| पद १७- लेश्या --दवार १४- उपयोग: --दवार ०३- सांतरं
--उद्देशक: ०१- समाहारादि --द्वार १५- आहारक:
२८६ ।। --द्वार ०४- एकसमयं
--उद्देशक: ०२- षड्भेदा: --दवार १६- भाषक: ____२८८ ।। --दवार ०५- आगति:
--उद्देशक: ०३- उपपातादि --द्वार १७- परित्त: | २८८ ।। -- --द्वार ०६- उद्वर्तना/गति:
--उद्देशक: ०४- परिणामादि | --दवार १८- पर्याप्त: | २८८ ।। -- |--दवार ०७- परभवाय:
--उद्देशक: ०५- वर्णादि --द्वार १९- सूक्ष्म
૨૮૮ -द्वार ०८- आकर्ष:/आयुबंध:
--उद्देशक: ०६- मनुष्यापेक्षया पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
३४८
واه في
४३८
૨૮૬
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मूलाका: ३४९ + २३१
प्रज्ञापना (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम - २
दीप-अनुक्रमा: ६२२
पष्ठाक:
मूलांक: | विषय: | पृष्ठांक: । । मूलांक: |
विषय: | पृष्ठांक: | मूलांक:
विषय: ४४१ | पद १८- कायस्थिति:
| पद १८- बहवक्तव्यता (वर्तते)
पद २८-आहाराउद्देशक:२-वर्तते --दवार ०१- जीव: --दवार २१- अस्तिकाय:
--दवार ०२- भवसिद्धिकत्वं | --द्वार ०२- गति: ---- --द्वार २२- चरिम:
-द्वार ०३- संज्ञी --द्वार ०३- इन्द्रिय
-द्वार ०४- लेश्या --दवार ०४- काय: ४९५ | पद १९- सम्यकत्वं
-द्वार ०५-द्रष्टि : --दवार ०५- योग: ४९६ | पद २०- अंतक्रिया
--दवार ०६- संयत: |--द्वार ०६- वेदं ५०९ | पद २१- अवगाहनासंस्थान/शरीर |
-द्वार ०७- कषाय: --द्वार ०७- कषाय: ५२५ | पद २२- क्रिया
-द्वार ०८- ज्ञानं |--द्वार ०८- लेश्या
--द्वार ०९- योग: |--द्वार ०९- सम्यकत्वं ५३४ पद २३- कर्मप्रकृत्ति :
-द्वार १०- उपयोग: --- --दवार १०- ज्ञानं | --उद्देशक: ०१- अष्टविधा
-वार् ११- वेदः ---- --उद्देशक: ०२-भेद-प्रभेदा:
-द्वार १२- शरीरं | -दवार ११- दर्शनं
-दवार १३- पर्याप्ति: |--दवार १२- संयत:
५४६ पद २४- कर्मबन्धं --दवार १३- उपयोग: ५४७ पद २५- कर्मवेदनं
५७२ | पद २९- उपयोग: --द्वार १४- आहार: ५४८ पद २६- कर्मवेदबन्धं
५७३ | पद ३०- पश्यता --दवार १५- भाषक: ५४९ पद २४- कर्मवेदवेदनं
५७५ पद ३१- संज्ञी --द्वार १६- परित:
पद ३२- संयत: --वार १७- पर्याप्त: ५७० | पद २८- आहार:
५७९ | पद ३३-अवधि: --द्वार १८- सूक्ष्म
--उद्देशक: ०१- सचित्तादि
५८४ | पद ३४- प्रविचारणा | --वार १९- संज्ञी --- --उद्देशक: ०२
५९५ | पद ३५- वेदना --द्वार २०- भवसिद्धिक:
-द्वार ०१- आहारकत्वं
५९९-६२२ | पद ३६- समुद्घात: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
५७७
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['प्रज्ञापना' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “प्रज्ञापना सूत्रम्" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमदसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर पद, उद्देश, द्वार, और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा पद, उद्देश, द्वार एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है।
हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक पद, उद्देश, द्वार और मूल लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है।
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१८ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
......मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
- दारं [-],
मूलं [-]
पदं [-], ---------------- उद्देशक: [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्र. १
॥ अर्हम् ॥ श्रीमदार्यश्यामाचार्य संकलितम् श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविरचितवृत्तिपरिकरित
श्रीप्रज्ञापनासूत्रम्
जयति नमदमरमुकुट प्रतिविम्बच्छद्मविहितबहुरूपः । उद्धर्त्तुमिव समस्तं विश्वं भवपङ्कतो वीरः ॥ १ ॥ जिनवचनामृतजलधिं वन्दे यद्विन्दुमात्रमादाय । अभवन्नूनं सत्त्वा जन्मजराव्याधिपरिहीणाः ॥ २ ॥ प्रणमत गुरुपदपङ्कजमधरीकृतकामधेनुकल्पलतम् । यदुपास्तिवशान्निरुपममश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः ॥ ३ ॥ 'जडमतिरपि गुरुचरणोपास्तिसमुद्भूतविपुलमतिविभवः । समयानुसारतोऽहं विदधे प्रज्ञापनाविवृतिम् ॥ ४ ॥ अथ प्रज्ञापनेति कः शब्दार्थः १, उच्यते, प्रकर्षेण निःशेषकुतीर्थितीर्थंकरासाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धावारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना, इयं च समवायाख्यय चतुर्था
वृत्तिकारकृत् मङ्गल-गाथा:, प्रज्ञापना-शब्दस्य व्याख्या
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [-1, ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
जस्योपानं, तदुक्तार्थप्रतिपादनात् , उक्तप्रतिपादनमनर्थकमिति चेत्, न, उक्तानामपि विस्तरेणाभिधानस्य मन्दमति-18 १ प्रज्ञापयाः मल
विनेयजनानुग्रहार्थतया सार्थकत्वात् । इदञ्चोपाङ्गमपि प्रायः सकलजीवाजीवादिपदार्थशासनात् शास्त्र, शास्त्रस्य नापदं उय. वृत्तौ. चादौ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थमवश्यं प्रयोजनादित्रितयं मङ्गलं च वक्तव्यम्, उक्तं च-"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादि- पोद्धात
त्रितयं स्फुटम् । मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥१॥ इति” तत्र प्रयोजनं द्विधा-परमपरं च, पुनरे॥१॥
|कैकं द्विधा-कर्तृगतं श्रोतृगतं च, तत्र द्रव्यास्तिकनयमतपर्यालोचनायामागमस्य नित्यत्वात् कर्तुरभाय एव, तथा-IN Sचोक्तम्-“एषा द्वादशाङ्गीन कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचिन्न भविष्यति,धुवा नित्या शाश्वती"त्यादि,
पर्यायास्तिकनयमतपर्यालोचनायां चानित्यत्वादवश्यंभावी तत्सद्भावः, तत्त्वपर्यालोचनायां तु सूत्रार्थोभयरूपत्वादा-1 गमस्यार्थापेक्षया नित्यत्वात् सूत्रापेक्षया चानित्यत्वात् कथञ्चित् कर्तृसिद्धिः, तत्र सूत्रकर्तुरनन्तरं प्रयोजनं सत्त्वानुग्रहः परम्परं त्वपवर्गप्रासिः, उक्तं च-"सर्वज्ञोकोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम् । करोति दुःखतसानां, स प्राप्नोसचिराच्छिवम् ॥ ११॥" तदर्थप्रतिपादकस्याहतः किं प्रयोजनमिति चेत्, न किञ्चित् , कृतकृत्यत्वात् , प्रयोजन-1॥ मन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासो निरर्थक इति चेत्, न, तख तीर्थकरनामकर्मविपाकोदयप्रभवत्वात्, उक्तं च-"तं च ॥ कहं वेइज्जइ ?, अगिलाए धम्म देसणाए उ" इति, श्रोतृणामनन्तरं प्रयोजनं विवक्षिताध्ययनार्थपरिज्ञानं, परम्परं
१ तच्च कथं वेयते !, भालान्या धर्मदेशनायैव (० देसणाईहिं (माव. नि०)।
॥
१
॥
'प्रज्ञापना' पदस्य उपोद्घात:
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं -1, ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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तु निःश्रेयसावाप्तिः, ते हि विवक्षितमध्ययनमर्थतः सम्यगवगम्य संसाराद्विरज्यन्ते, विरक्ताश्च सन्तः संसाराद्विनिर्जिगमिषवः संयमाध्वनि यथाऽऽगमं सम्यक् प्रवृत्तिमातन्वते, प्रवृत्तानां च संयमप्रकर्षवशत उपजायते सकलकर्मक्षयानिःश्रेयसावाप्तिरिति, उक्तं च-"सम्यग्भावपरिज्ञानाद्विरक्ता भवतो जनाः । क्रियाऽऽसक्ता बविलेन, गच्छन्ति परमां गतिम् ॥१॥” इति, अभिधेयं जीवाजीवस्वरूपं, तच प्राक् प्रदर्शितनामव्युत्पत्तिसामर्थ्यमात्रादव-1 गतम् । सम्बन्धो द्वेधा-उपायोपेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च, तत्राद्यस्तकानुसारिणः प्रति, तद्यथा-वचनरूपापन्नं प्रकरणमुपायः तत्परिज्ञानं चोपेयं, गुरुपर्वक्रमलक्षणः केवलश्रद्धानुसारिणः प्रति, तं चाग्ने खयमेव सूत्र-1|| कृदभिधास्यति । इदं च प्रज्ञापनास्यमुपाङ्गं सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादत एव परम्परया मुक्तिंपदप्रापकत्वात् श्रेयोभूतम्, अतो मा भूदत्र विन इति विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्याणां मालबुद्धिपरिग्रहाय खतो मङ्गलभूतस्याप्यस्यादिमध्यावसानेषु मालमभिधातव्यम् , आदिमङ्गलं बविलेन शास्त्रपारगमनार्थ, मध्यमङ्गलमवगृहीतशास्त्रार्थस्थिरीकरणार्थम् , अन्तमङ्गलं शिष्यप्रशिष्यपरम्परया शास्त्रस्याव्यवच्छेदार्थ, उक्तं च-"तं' मङ्गलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय निदिई ॥१॥ तस्सेव यथेजत्थं मज्झिमयं अन्तिमपि तस्सेव । अन्वोच्छित्तिनिमित्त
१ तन्मङ्गलमादी मध्ये पर्यन्ते च शास्त्रस्य । प्रथमं शास्त्रार्थी (वस्या ) विघ्नपारगमनाय निर्दिष्टम् ।। १ ।। तस्यैव च (तु) स्थैर्यार्थ | मध्यमन्त्यमपि तस्यैव । अव्युच्छित्तिनिमित्तं + प्रदर्शितमेव व्यु०प्र०
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'प्रज्ञापना' पदस्य उपोद्घात:
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-],---------------- उद्देशक: -,---------------- दारं [-], ---------------- मूलं गाथा-१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना-
प्रत
सूत्रांक
या वृत्ती.
||१||
॥२॥
गाथा-१
सिस्सपसिस्साइक्सस्स ॥२॥" तत्र प्रथमपदगतेन 'ववगयजरमरणभये' इत्यादिना ग्रन्थेनादिमङ्गलम् , इष्टदेवता- १ प्रज्ञापस्तवस्य परममङ्गलत्वात् , उपयोगपदगतेन 'काबिहे णं भन्ते ! उबओगे पन्नत्ते' इत्यादिना मध्यमङ्गलम् , उपयोगस्य नापदं मज्ञानरूपत्वात् , ज्ञानस्य च कर्मक्षयं प्रति प्रधानकारणतया मङ्गलत्वात् , न च कर्मक्षयं प्रति प्रधान कारणता तस्य न झलम्. प्रसिद्धा, तस्याः साक्षादागमेऽभिधानात्,तथा चागम:-"ज अन्नाणी कम खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं। तं नाणी |तिहि गुत्तो खवेद उस्सासमित्तेणं ॥१॥" तथा समुद्रातपदगतेन केवलिसमुद्घातपरिसमाप्त्युत्तरकालभाविना | सिद्धाधिकारप्रतिबद्धेन-निच्छिन्नसबदुक्खा जाइजरामरणबन्धणविमुका। सासयमव्यावाहं चिट्ठन्ति सुही सुहं | पत्ता ॥१॥"इत्यादिना अवसानमङ्गलम् ॥ अधुनाऽऽदिमङ्गलसूत्रं व्याख्यायते
ववगयजरमरणभये सिद्धे अभिवन्दिऊण तिविहेणं । बन्दामि जिणवरिन्दं तेलोकगुरु महावीरं ॥१॥ सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं-दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः, अथवा || 'षिधु गो' सेधन्ति सा-अपुनरावृत्त्या निवृतिपुरीमगच्छन् यदिवा 'पिध संराद्धी' सिध्यन्ति स्म-निष्ठिताथों भव-1॥ |न्ति स्म यद्वा 'पिधु शाने माङ्गल्ये च' सेधन्ते स्म-शासितारोऽभवन् माल्यरूपतां वाऽनुभवन्ति खेति सिद्धाः, अथवा
॥ २ ॥ १शिष्यप्रशिष्यादिवशे ॥२॥२ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीमिः । तत्, मानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्यासमात्रेण ॥ १॥ ३ निश्छिन्नसर्वदुःखा जातिजरामरणवन्धनविमुक्ताः । शाश्वतमव्यावाधं तिष्ठन्ति मुखिनः सुखं प्राप्ताः ॥ १॥
Sasarasasraee
दीप
अनुक्रम
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SHARERIEatinintenthatkiral
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'प्रज्ञापना' पदस्य उपोद्घात:, 'प्रज्ञापना' पदस्य मङ्गलम्
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
||||
गाथा-१
दीप
अनुक्रम [8]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
• दारं [-1,
पदं [-1,
------------- उद्देशकः [-],
• मूलं [गाथा - १]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
| सिद्धाः - नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात् प्रख्याता वा भव्यैरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् उक्तं च- "मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृतिसोधमूर्ध्नि । ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे ॥ १ ॥” सिद्धाश्च नामादिभेदतोऽनेकधा ततो यथोक्तसिद्धप्रतित्त्यर्थं विशेषणमाह-'व्यपगतजरामरणभयान्' जरावयोहानिलक्षणा मरणं - प्राणत्यागरूपम् भयम् - इहलोकादिभेदात्सप्तप्रकारम् उक्तं च- "ईहपरलोगादाणं अकम्ह आजीवमरणमसिलोए" इति, विशेषतः - अपुनर्भावरूपतया अपगतानि - परिभ्रष्टानि जरामरणभयानि येभ्यस्ते तथा तान्, 'त्रिविधेन' मनसा वाचा कायेन, अनेन योगत्रयव्यापारविकलं द्रव्यवन्दनमित्याह, 'अभिवन्द्य' अभिमुखं वन्दित्वा, प्रणम्येत्यर्थः । अनेन समानकर्तृकतया पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानान्नित्यानित्यैकान्तपक्षव्यवच्छेदमाह, एकान्तनित्यानित्यपक्षे क्त्वाप्रत्ययस्यासम्भवात् तथाहि अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं नित्यम्, तस्य कथं भिन्नकालक्रियाद्वय कर्तृत्वोपपत्तिः १, आकालमेकस्वभावत्वेनैकस्या एव कस्याश्चित् क्रियायाः सदा भावप्रसङ्गात् अनित्यमपि प्रकृत्यैकक्षणस्थितिधर्मकम्, ततस्तस्यापि भिन्नकालक्रियाद्वय कर्तृत्वायोगः, अवस्थानाभावादित्यलं विस्तरेण, अन्यत्र सुचर्चितत्वात् क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रिया सापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह - 'बन्दामि जिणवरिन्द' मित्यादि, 'सूर वीर विक्रान्ती' वीरयति स्म कषायादिशत्रून् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः, महांश्वासौ वीरश्च महावीरः, इदं च 'महावीर' १ इहपरलोकादाना कस्मादाजीवमरणाश्लोकाः ।
'प्रज्ञापना' पदस्य मङ्गलम्
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं -1, ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं गाथा-१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
गाथा-१
प्रज्ञापना- इति नाम न यादृच्छिकम्, किन्तु यथावस्थितमनन्यसाधारणं परीषहोपसर्गादिविषय वीरत्वमपेक्ष्य सुरासुरकृतम्, प्रज्ञापयाः मल-18 उक्तं च-"अयले भयभेरवाणं खन्तिखमे परीसहोवसग्गाणं । देवेहि कए महावीर" इति, अनेनापायापगमातिशयोनापदं मवृत्ती. ध्वन्यते, तं कथंभूतमित्याह-'जिनवरेन्द्रम्' जयन्ति-रागादिशत्रूनभिभवन्ति जिनाः, ते च चतुर्विधाः, तद्यथा
श्रुतजिना अवधिजिना मनःपर्यायजिना केवलिजिनाः, तत्र केवलिजिनत्वप्रतिपत्तये वरग्रहणम् , जिनानां वराउत्तमा भूतभवद्भाविभावखभावावभासिकेवलज्ञानकलितत्वात् जिनवराः, ते चातीर्थकरा अपि सन्तः सामान्यकेव-18 लिनो भवन्ति ततस्तीर्थकरत्वप्रतिपत्त्यर्थमिन्द्रग्रहणम् , जिनवराणामिन्द्रो जिनवरेन्द्रः, प्रकृष्टपुण्यस्कन्धरूपतीर्थ-18 करनामकर्मोदयातीर्थकर इत्यर्थः । अनेन ज्ञानातिशयं पूजातिशयं चाह, ज्ञानातिशयमन्तरेण जिनेषु मध्ये उत्तमस्वस्य पूजातिशयमन्तरेण जिनवराणामपि मध्ये इन्द्रत्वस्यायोगात् , तं पुनः किंभूतमित्याह- त्रैलोक्यगुरुम्' गृणाति यथावस्थितं प्रवचनार्थमिति गुरुः त्रैलोक्यस्य गुरुबैलोक्यगुरुः, तथा च भगवान् अधोलोकनिवासिमवनपतिदेवेभ्यतिर्यगलोकनिवासिव्यन्तरनरपशुविद्याधरज्योतिष्केभ्य ऊर्यलोकनिवासिवैमानिकदेवेभ्यश्च धर्म दिदेश, तम् , अनेन वागतिशयमाह । एते चापायापगमातिशयादयश्चत्वारोऽप्यतिशया देहसौगन्ध्यादीनामतिशयानामुप-INI॥३॥ लक्षणम् , तानन्तरेणैषामसम्भवात् , ततश्चतुर्विंशदतिशयोपेतं भगवन्तं महावीरं वन्दे इत्युक्तं द्रष्टव्यम् ॥ आइ-ननु | १मचलो भयभैरवेषु क्षान्तिक्षमः परीषहोपसर्गाणां देवैः कृतं (अमणो भगवान् ) महावीरः (इति)।
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अनुक्रम
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'प्रज्ञापना' पदस्य मङ्गलम्
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं -1, ---------------- उद्देशक: -, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं गाथा-२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
||२||
गाथा-२
ऋषभादीन् ब्युदस्य किमर्थं भगवतो महावीरख वन्दनम् ?, उच्यते, वर्तमानतीर्थाधिपतित्वेनासन्नोपकारित्वात्, तदेवासन्नोपकारित्वं दर्शयति। सुपरयणनिहाणं जिणवरेणं भवियजणणिव्वुइकरेणं । उवदंसिया भगक्या पन्नवणा सम्वभावाणं ॥२॥ | अत्र प्रज्ञापनेति विशेष्यं शेष सामानाधिकरण्येन वैय्यधिकरण्येन च विशेषणं, 'जिणवरेण'न्ति जिनाः-सामा-1 न्यकेवलिनः तेषामपि वरः-उत्तमस्तीर्थकृत्त्वात् जिनवरस्तेन सामर्थ्यात् महावीरेण, अन्यस्य वर्तमानतीर्थाधिपति| त्वाभावात् , इह छद्मस्थक्षीणमोहजिनापेक्षया सामान्यकेवलिनोऽपि जिनवरा उच्यन्ते ततस्तत्कल्पं मा ज्ञासीहिनेयजन इति तीर्थकृत्त्वप्रतिपत्तये विशेषणान्तरमाह-'भगवता भगः-समप्रैश्चर्यादिरूपः, उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्वाथ प्रयत्नस्य, पण्णां भग इतीजना ॥१॥" भगोऽस्याऽस्तीति भगवान् , अतिशायने वतुप्रत्ययः, अतिशायी च भगो वर्द्धमानखामिनः शेषप्राणिगणापेक्षया, त्रैलोक्याधिपतित्वात् , तेन भगवता, परमा-18 हन्त्यमहिमोपेतेनेत्यर्थः, पुनः कथंभूतेनेत्याह-भव्यजननितिकरण' भव्यः-तथाविधानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यः स चासौ जनश्च भव्यजनः निर्वृतिः-निर्वाणं सकलकर्ममलापगमनेन खखरूपलाभतः परमं स्वास्थ्य तद्धेतुः सम्यग्दर्शनाद्यपि कारणे कार्योपचारात् नितिखकरणशीलो नितिकरः भव्यजनस्य नितिकरो भव्यजननिर्वृतिकरस्तेन, आह-भव्यग्रहणमभन्यव्यवच्छेदार्थमन्यथा तस्य नैरर्थक्यप्रसङ्गात्, तत इदमापतितं-भव्यानामेय
20209023030038satarawasa
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Receneरब
'प्रज्ञापना पदस्य उद्भव:
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं -1, ---------------- उद्देशक: -, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं गाथा-२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
याः मलयवृत्ती.
॥
४
॥
गाथा-२
शसम्यग्दर्शनादिकं करोति नामव्यानाम् , न चैतदुपपन्नम्, भगवतो वीतरागत्वेन पक्षपातासम्भवात् , नैतत्सारम् ,
सार१प्रज्ञापसम्यकवस्तुतत्त्यापारिज्ञानात् , भगवान् हि सवितेव प्रकाशमविशेषेण प्रवचनार्थमातनोति, केवलमभन्यानां तथा- नापदं श्रीखाभाच्यादेव तामसखगकुलानामिव सूर्यप्रकाशो न प्रवचनार्थ उपदिश्यमानोऽपि उपकाराय प्रभवति, तथा चाहावीरादुनवादिमुख्यः-"सद्धर्मचीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकवान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेषु हि || वः तामसेपु, सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥१॥" ततो भव्यानामेव भगवद्वचनादुपकारो जायते इति भन्यजननितिकरणेत्युक्तम् । किमित्याह-उवदंसिय'त्ति उप-सामीप्येन यथा श्रोतॄणां झटिति यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्वावबोधो | भवति तथा, स्फुटवचनैरित्यर्थः, दर्शिता-श्रवणगोचरं नीता, उपदिष्टा इत्यर्थः, काऽसौ १-'प्रज्ञापना' प्रज्ञाप्यन्तेप्ररूप्यन्ते जीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति प्रज्ञापना, किंविशिष्टेत्यत आह-'श्रुतरबनिधानम्' इह रलानि द्विविधानि भवन्ति, तद्यथा-द्रव्यरत्नानि भावरत्नानि (च), तत्र द्रव्यरत्नानि वैडूर्यमरकतेन्द्रनीलादीनि, भावरतानि श्रुतव्रतादीनि, तत्र द्रव्यरत्नानि न तात्त्विकानीति भावरलैरिहाधिकारः, तत एवं समासः-श्रुतान्येव रत्नानि श्रुतरत्नानि न तु श्रुतानि च रखानि च, नापि श्रुतानि रत्नानीवेति, कुत इति चेत् ?, उच्यते, प्रथमपक्षे श्रुतव्यतिरिक्तद्रव्यरबैरिहाधिकाराभावात्, द्वितीयपक्षे तु श्रुतानामेव तात्त्विकरत्नत्वात् , शेषरलैरुपमाया अयोगात्, निधानमिव निधानं श्रुतरलानां निधानं श्रुतरत्ननिधानं, केषां प्रज्ञापनेसत आह-'सर्वभावानाम्' सर्वे च ते भावाश्च सर्वभावा:
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अनुक्रम
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'प्रज्ञापना पदस्य उद्भव:
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं -1, ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं गाथा-२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
||प्र०१
जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाः, तथाहि-अस्यां प्रज्ञापनाया पत्रिंशत्पदानि तत्र प्रज्ञापना बहुवैक्तव्यविशेपंचरमपरिणामसज्ञेषु पञ्चसु पदेषु जीवाजीवानां प्रज्ञापना प्रयोगपदे क्रियापदे चाश्रवस्य 'कायवाङ्मनःकर्म योगः।
(स) आश्रवः' (तत्त्वा० अ०६ सू०१-२) इति वचनात् , कर्मप्रकृतिपदे बन्धस्य समुद्घातपदे केवलिसमुद्घातप्ररूपKणायां संवरनिर्जरामोक्षाणां त्रयाणां, शेषेषु तु स्थानादिषु पदेषु कचित्कस्यचिदिति, अथवा 'सर्वभावाना मिति
द्रव्यक्षेत्रकालभावानाम्, एतद्वषतिरेकेणान्यस्य प्रज्ञापनीयस्याभावात् , तत्र प्रज्ञापनापदे जीवाजीवद्रव्याणां प्रज्ञापना
स्थानपदे जीवाधारस्य क्षेत्रस्य स्थितिपदे नारकादिस्थितिनिरूपणात् कालस्य शेषपदेषु सङ्ख्याज्ञानादिपर्यायव्युत्क्रा1न्त्युच्छवासादीनां भावानामिति । अस्याश्च गाथाया 'अज्झयणमिणं चित्त' मित्यनया गाथया सहाभिसम्बन्धः॥ केवलं
येनेयं सत्त्वानुग्रहाय श्रुतसागरादुद्धृता असावयासनतरोपकारित्वादस्मद्विधानां नमस्कारार्ह इति तन्नमस्कारविषयमिदमपान्तराल एवान्यकर्तृक गाथाद्वयम्
वायगवरवंसाओ तेवीसइमेण धीरपुरिसेणं । दुद्धरधरेण मुणिणा पुन्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥१॥
सुवसागरा विणेऊण जेण सुयरयणमुत्तमं दिन । सीसगणस्स भगवओ तस्स नमो अञ्जसामस्स ॥२॥ (प्र.) वाचका:-पूर्वविदः वाचकाश्च ते वराश्च वाचकवराः-वाचकप्रधानाः तेषां वंश:-प्रवाहो वाचकवरवंशः तस्मिन्, सूत्रे च पञ्चमीनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि सर्वासु विभक्तिष्वपि सर्वा विभक्तयो यथायोगं प्रवर्त्तन्ते, तथा चाह पाणिनिः खप्राकृतव्याकरणे-'व्यत्ययोऽप्यासा मिति, प्रयोविंशतितमेन तथा च सुधर्मखामिन आरभ्य भगवा
दीप अनुक्रम [३-४]
SantarataniMALA
wranimurary.org
३६ अध्ययनानि-नामानि, कर्ता-सम्बन्धी गाथा-द्वयम्
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [-], ---------------- उद्देशक: -, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [गाथा-(प्र०१-२)] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
॥
५
॥
|| प्र०१
प्र०२||
18 नार्यश्यामस्त्रयोविंशतितम एच, किंभूतेन ?-धीरपुरुषेण धी:-बुद्धिस्तया राजते इति धीरः धीरवासी पुरुषश्च प्रज्ञापयाः मल- धीरपुरुषस्तेन, तथा दुर्द्धराणि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि पञ्च महाव्रतानि धारयतीति दुर्द्धरघरस्तेन, तथा नापदं आय० वृत्ती. मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्तेन, विशिष्टसंवित्समन्वितेनेत्यर्थः, पुनः कथंभूतेनेत्याह-'पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिनारा
येश्यामाय पूर्वाणि च तत् श्रुतं च पूर्वश्रुतं तेन समृद्धा-वृद्धिमुपगता बुद्धिर्यस्य स पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिस्तेन, आह-यो वाचकवरवं
नतिः . शान्तर्गतः स पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिरेव भवति, ततः किमनेन विशेषणेन', सत्यमेतत् , किन्तु पूर्वविदोऽपि पट्रस्थानपतिता भवन्ति, तथा च चतुर्दशपूर्व विदामपि मतिमधिकृत्य षट्स्थानकं वक्ष्यति, तत आधिक्यप्रदर्शनार्थमिदं विशेषणमियदोषः, 'समिद्धबुद्धीणे' सत्र णाशब्दस्य इखत्वं द्विशब्दस्य च दीर्घताऽऽर्षत्वात् , तथा श्रुतमनर्वापारत्वात् सुभा-IN |षितरनयुक्तत्वाच सागर इव श्रुतसागरः 'व्याघ्रादिभिर्गौणैस्तद्गुणानुक्ताविति(म० नामप्र० पा०८ सू०३१) समासः, तस्मात् 'विणेऊणन्ति' देशीवचनमेतत् , साम्प्रतकालीनपुरुषयोग्य वीनयित्वेत्यर्थः, येनेदं प्रज्ञापनारूपं श्रुतरल-11
मुत्तम-प्रधान, प्राधान्यं च न शेषश्रुतरत्वापेक्षया, किन्तु वरूपतः, दत्तं शिष्यगणाय तस्मै, भगवते-ज्ञानेश्वर्यधर्मा-18 ISI दिमते आरात्सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः-प्राप्तो गुणैरित्यार्यः स चासौ श्यामश्च आर्यश्यामः तस्मै, सूत्रे च षष्ठी चतुर्थ्यर्थे । द्रष्टव्या, 'छट्ठिविमत्तीऍ मन्नइ चउत्थी' इति वचनात् ॥ अधुमोक्तसम्बन्धवेयं गाथा
षष्ठीविभक्त्या भण्यते चतुर्थी।
दीप अनुक्रम [३-४]
| कर्ता-सम्बन्धी गाथा-द्वयम्
~22
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं -1, ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं गाथा-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
रररररररररररaeeee
___ अज्झयणमिणं चित्तं सुपरयणं दिद्विवायणीसन्दं । जह वलियं भगवया अहमवि तह वनइस्सामि ॥३॥
अध्ययनमिदं-प्रज्ञापनाख्यम्, ननु यदीदमध्ययनं किमित्यस्सादावनुयोगादिद्वारोपन्यासो न क्रियते', उव्यते, नायें नियमो यदवश्यमध्ययनादावुपक्रमाद्युपन्यासः क्रियते इति, अनियमोऽपि कुतोऽवसीयते । इति चेत्, उच्यते, नन्यध्ययनादिष्वदर्शनात् , तथा चित्रार्थाधिकारयुक्तत्वाचित्रम् , श्रुतमेव रत्नं श्रुतरलं दृष्टिवादस्य-द्वादशा-15 अस्य निष्यन्द इव रष्टिवादनिष्यन्दः, सूत्रे नपुंसकतानिर्देशः प्राकृतत्वात् , यथा वर्णितं भगवता-श्रीमन्महावीर-18 वर्धमानखामिना इन्द्रभूतिप्रभृतीनामध्ययनार्थस्य वर्णितत्वात् अध्ययनं वर्णितमित्युक्तम् , अहमपि तथा वर्णयिष्या-18 मि ॥ आह-कथमस्य छनस्थस्य तथा वर्णयितुं शक्तिः, नैष दोषः, सामान्येनाभिधेयपदार्थवर्णनमात्रमधिकृत्यैवम|भिधानात् , तथा चाहमपि तथा वर्णयिच्यामीति किमुक्तं भवति?-तदनुसारेण वर्णयिष्यामि, न खमनीषिकयेति ॥ अस्खां च प्रज्ञापनायां पत्रिंशत् पदानि भवन्ति, पदं प्रकरणमर्थाधिकार इति पर्यायाः, तानि च पदान्यमूनि
पनवणा ठाणाई बहुवतव्व ठिई" बिसेसी य । वन्ती ऊसींसो सभी जोणी ये चरिमाई" ॥४॥ भासा सरीर परिणाम कसीए इन्दिएँ पओगे य । लेसा कायठिई यो सम्मत्वे अन्तकिरियों" य ॥५॥ ओगाहणसण्ठाणा किरियो कम्मे झ्यावरे । [कम्मस्स] बन्धएँ [कम्मस्स] वेर्दै [ए] वेदस्स बन्धए वेयवेयर ॥६॥ हिारे वैओगे पासणया सैनि संजमे चेव । ओही पवियारण वेदणी य तत्तो समुग्धाएं ॥७॥
गाथा-३
दीप
अनुक्रम
३६ अध्ययनानि/(पदानि)-नामानि
-~23~
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्तिः ) पदं [-], ---------------- उद्देशक: -,---------------- दारं [-],---------------- मूलं [गाथा ४-७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
||४-७||
गाथा
तत्र प्रथमं पदं प्रज्ञापनाविषयं प्रश्नमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात् प्रज्ञापना १ एवं द्वितीय स्थानानि २ तृतीयं बहुचक्क- प्रज्ञापव्यम् ३ चतुर्थं स्थितिः ४ पञ्चमं विशेषाख्यं ५ षष्ठं व्युत्क्रान्तिः, व्युत्क्रान्तिलक्षणार्थाधिकारयुक्तत्वात ६ सप्तममु- नापदं पवास:७ अष्टम सज्ञा ८ नवमं योनिः ९ दशमं चरमाणि चरमाणीति प्रश्नमुद्दिश्य प्रवृत्तत्वात् १० एकादशं मांषा ११ दाभिधेयद्वादशं शरीरं १२ त्रयोदशं परिणामः १३ चतुर्दशं कषायं १४ पञ्चदशमिन्द्रियं १५ षोडशं प्रयोगः १६ सप्तदशं लेश्या निर्देशः. |१७ अष्टादशं कायस्थितिः १८ एकोनविंशतितमं सम्यक्त्वम् १९ विंशतितममन्तक्रिया २० एकविंशतितममवगाहनास्थानं २१द्वाविंशतितमं क्रिया २२ त्रयोविंशतितमं कर्म २३ चतुर्विंशतितमं कर्मणो बन्धकः, तस्मिन् हि यथाश जीवः कर्मणो वन्धको भवति तथा प्ररूप्यते इति तत्तथानाम २४ एवं पञ्चविंशतितमं कर्मवेदकः २५ षड्विंशतितम वेदस्य बन्धक इति, वेदयते-अनुभवतीति वेदस्तस्य बन्ध एव बन्धकः, किमुक्तं भवति ?-कति प्रकृतीर्वेदयमानस्य कतिप्रकृतीनां वन्धो भवतीति तत्र निरूप्यते ततस्तद्वेदस्य बन्ध इति नाम २६ एवं का प्रकृति वेदयमानः कति प्र-19 कृतीर्वेदयति इत्यर्थप्रतिपादक वेदवेदको नाम सप्तविंशतितमम् २७ अष्टाविंशतितममाहारप्रतिपादकत्वादाहारः २८ एवमेकोनत्रिंशत्तममुपयोगः २९ त्रिंशत्तमं 'पासणय'त्ति दर्शनता ३० एकत्रिंशत्तमं सजा ३१ द्वात्रिंशत्तमं संयमः ॥६॥ ३२ त्रयस्त्रिंशत्तममवधिः ३३ चतुखिंशत्तमं प्रविचारणा ३४ पञ्चत्रिंशत्तम वेदना ३५ पत्रिंशत्तमं समुद्घातः ३६ ॥ तदेवमुपन्यस्तानि पदानि ॥ साम्प्रतं यथाक्रमं पदगतानि सूत्राणि वक्तव्यानि, तत्र प्रथमपदगतमिदमादिसूत्रम्
४-७
दीप
अनुक्रम
[६-९]
HOM
SAREairabhimanand
३६ अध्ययनानि/(पदानि)-नामानि
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
aesese
सूत्रांक
से किं तं पभषणा, पनवणा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपन्नवणा य अजीवपत्रवणा य॥ (मू०१) अथास्य सूत्रस्य का प्रस्तावः१, उच्यते, प्रश्नसूत्रमिदम् , एतवादावुपन्यस्तमिदं ज्ञापयति-पृच्छतो मध्यस्थबुद्धिमतोऽर्थिनो भगवदहेदुपदिष्टतत्त्वप्ररूपणा कायों, न शेषस्य, तथा चोक्तम्-'मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति | स्मृतः', तत्र सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातः तत्रशब्दार्थे, अथवा अथशब्दार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः, किमिति परप्रश्ने, 'तंति तापदिति द्रष्टव्यम् , तच क्रमोद्योतने, तत एष समुदायार्थ:-तिष्ठन्तु स्थानादीनि पदानि प्रष्टव्यानि, वाचः क्रमवर्तित्वात् प्रज्ञापनाऽनन्तरं च तेषामुपन्यस्तत्वात् , तत्रैतावदेव तावत् पृच्छामि-किं प्रज्ञापनेति, अथवा प्राकृतशैल्या 'अभिधेयवलिङ्गवचनानि योजनीयानि' इति न्यायादेवं द्रष्टव्यम्, तत्र का तावत् प्रज्ञापनेति १, एवं सा-2 मान्येन केनचित्प्रश्ने कृते सति भगवान् गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनादरार्थ किश्चित् शिष्योक्तं प्रत्युच्चार्याह-पन्नवणा दुविहा पत्नत्ता' इति, अनेन चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वाचनसूत्रेणैतदाचष्टे न सर्वमेव सूत्रं गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्व
चनरूपम् , किन्तु किञ्चिदन्यथाऽपि, बाहुल्येन तु तथारूपम् , यत उक्तम्-'अत्थं भासद अरिहा सुत्तं गन्थन्ति गणहरा |निउण'मित्यादि, तत्र प्रज्ञापनेति पूर्ववत् , 'द्विविधा' द्विप्रकारा 'प्रजप्ता' प्ररूपिता, यदा तीर्थकरा एव निर्वक्तारस्तदाऽयमर्थोऽबसेयः-अन्यैरपि तीर्थकरैः, यदा पुनरन्यः कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी तदा तीर्थकरगणधरैरिति, द्वैवि
१ अर्थ भाषतेऽहन सूत्र प्रश्नन्ति गणधरा निपुणम् ।
अनुक्रम [१०]
IMeinrayog
अथ पद (०१) “प्रज्ञापना" आरभ्यते मूल-सूत्रस्य आरम्भः, प्रश्नसूत्रम् एवं तस्योत्तरे विशद् विवरणं
~25
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आगम
(१५)
प्रत सूत्रांक
[8]
दीप
अनुक्रम
[१०]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) ------------- उद्देशकः [-],
- दारं [-],
• मूलं [१]
पदं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
ध्यमेवोपदर्शयति- 'तंजहा जीवपन्नवणा व जजीवपत्रवणा य' 'तयथेति वक्ष्यमाणभेदकथनप्रकाशनार्थः, जीवन्तियाः मल- 8 प्राणान् धारयन्तीति जीवाः, प्राणाश्च द्विधा द्रव्यप्राणा भावप्राणाथ, तत्र द्रव्यप्राणा इन्द्रियादयो भावप्राणा ज्ञानादीय० वृत्तौ. नि, द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः संसारसमापन्ना नारकादयः, केवलभावप्राणैः प्राणिनो व्यपगत समस्त कर्मसङ्गाः सिद्धाः, 8 जीवानां प्रज्ञापना जीवप्रज्ञापना, न जीवा अजीवा जीवविपरीतस्वरूपाः, ते च धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायाद्धासमयरूपास्तेषां प्रज्ञापना अजीवप्रज्ञापना, चकारौ द्वयोरपि प्राधान्यख्यापनार्थी, न खल्विहान्यतरस्याः प्रज्ञापनायाः गुणभावः, एवं सर्वत्राप्यक्षरगमनिका कार्या ॥ तदेवं सामान्येन प्रज्ञापनाद्वयमुपन्यस्य सम्प्रति विशेषख रूपावगमार्थ| मादावल्पवक्तव्यत्वा दजीवप्रज्ञापनां प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह
॥७॥
से किं तं अजीव पावणा १, अजीवपत्रवणा दुविहा पद्मत्ता, तंजहारूविअजीवपत्रवणा य अरूचिअजीवपत्रवणा य (सू०२) अथ किं तत् अजीवप्रज्ञापनेति १, अथवा का साऽजीवप्रज्ञापना १, सूरिराह - ' अजीवपन्नबणा दुविधा पन्नता, तंजा' इत्यादि, अजीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-रूप्यजीवप्रज्ञापना च अरूप्यजीवप्रज्ञापना च, रूपमेषामस्त्रीति रूपिणः, रूपग्रहणं गन्धादीनामुपलक्षणम्, तद्व्यतिरेकेण तस्यासम्भवात् तथाहि प्रतिपरमाणु रूपरसगन्धस्पर्शाः, उक्तं च- "कारणमेव तदन्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यठिङ्ग ॥ १ ॥” १ परमश्चासावणुश्चेति, वर्णगन्धरसस्पर्शादिकारणमेव तदन्त्यमित्यादि, सूक्ष्मो नित्यश्च परमाणुर्भवति, सर्वेभ्यः पुनलेभ्योऽतिसूक्ष्म इत्यर्थः,
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अजीव-सम्बन्धी प्रज्ञापना
For Parts Only
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१ प्रज्ञाप
नापदे अजीवप्र. (सू. २)
॥ ७ ॥
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[२]
दीप
अनुक्रम [११]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [१],
------------- उद्देशकः [-],
- दारं [-],
• मूलं [२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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तस्मादव्यतिरेकः परस्परं रूपादीनामिति, अथवा रूपं नाम-स्पर्शरूपादिसम्मूर्च्छनात्मिका मूर्त्तिस्तदेषामस्तीति रूपिणः, रूपिणश्च तेऽजीवाश्च रूप्यजीवाः तेषां प्रज्ञापना रूप्यजीवप्रज्ञापना, पुद्गलखरूपाजीवप्रज्ञापनेतियावत्, पुद्गलानामेव रूपादिमत्त्वात्, रूपिव्यतिरेकेणारूपिणो धर्मास्तिकायादयस्ते च तेऽजीवाश्चारूप्यजीवाः तेषां प्रज्ञापना अरूप्यजीवप्रज्ञापना, चशब्दौ प्राग्वत् ॥ तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथमतोऽरूप्यजीवप्रज्ञापनां चिकीर्षुरिदमाह
से किं तं अरूविअजीवपत्रवणा १, अरूविअजीवपन्भवणा दसविहा पन्नत्ता, तंजहा- घम्मत्थिकार धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पदेसा अधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसे अधम्मत्थिकायस्थ पदेसा आगासत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासत्थिकायस्स पदेसा अद्धासमए १०, सेचं अरूविअजीवपत्रवणा ॥ ( सू०३ )
अरूपिअजीव प्रज्ञापना
शब्दोऽथशब्दार्थः अथ का सा अरूप्यजीवप्रज्ञापना १, सूरिराह-अरूप्यजीव प्रज्ञापना 'दशविधा' दशप्रकारा पर्यायार्थतयाऽनित्यत्वेपि द्रव्यार्थतया तु नित्यः पुनः कीदृशः परमाणुः १ एकरसवर्णगन्धः' एक एव वर्णो गन्धो रसध परमाणौ यस्मिन् सः, पुनः की ०१ - 'द्विस्पर्शः' द्वौ स्पर्शो यस्मिन् स शीतोष्णस्त्रिग्धरुक्षाख्यानां चतुर्णा स्पर्शानां मध्यादविरुद्धस्पर्शद्वयोपेत इत्यर्थः पुनः कीदृशः परमाणुः ?- 'कार्यलिङ्गः' कार्य घटपटादिवस्तुजातं तहि ज्ञापकं यस्य स कथमित्याह यतः, तत्परमाण्वाख्यं सर्वेषां पदार्थानामन्त्यं कारणं वर्चते, अयमत्र भावार्थः सर्वेऽपि द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः, तथा सङ्घघातप्रदेशा असङ्ख्यातप्रदेशा अनन्तप्रदेशाश्च ये स्कन्धास्तेषां सर्वेषां पदार्थानामन्त्यं कारणं परमाणरस्तीत्यर्थः.
For Park Use Only
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, ---------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
सूत्रांक
प्रज्ञप्ता, अरूप्यजीवानां दशविधत्वात् तत्प्ररूपणाऽपि दशविधोक्ता, तदेव दशविधत्वं दर्शयति-तंजहे' त्यादि, तद्यथेति वक्ष्यमाणभेदकथनोद्योतनार्थः, 'त'दशविधत्वम् , यदिवा 'तदि'त्यव्ययं सर्वलिकवचनेषु सा दशविधाऽरूप्यजीवप्रज्ञापना यथा भवति तथा दर्श्यते-'धम्मत्यिकाए'त्ति जीवानां पुद्गलानां च खभावत एव गतिपरिणामपरि-19
रूप्यजीणतानां तत्वभावधरणात्-तत्वभावपोषणाद्धर्मः अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां काय:-सवातः, 'गण काए य निकाए खन्धे वग्गे तहेव रासी य' इतिवचनात् ,अस्तिकायः प्रदेशसङ्घात इत्यर्थः, धर्मश्चासौ अस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः, अनेन (सू. ३) च सकलमेव धर्मास्तिकायरूपमवयविद्रव्यमाह, अवयवी च नामावयवानां तथारूपसङ्घातपरिणामविशेष एव, न पुनरवयवद्रव्येभ्यः पृथगयोंन्तरं द्रव्यम्, तथाऽनुपलम्भात्, तन्तव एव हि आतानवितानरूपसङ्घातपरिणामविशेषमापन्ना लोके पटव्यपदेशभाज उपलभ्यन्ते, न तदतिरिक्तं पटाख्यं नाम, उक्तं चान्यैरपि-'तन्त्वादिव्यतिरेकेण, न पटाद्युपलम्भनम् । तन्त्वादयो विशिष्टा हि, पटादिव्यपदेशिनः ॥१॥" कृतं प्रसङ्गेन, अन्यत्र चिन्तितत्वादेतद्वादस्य, तथा 'धर्मास्तिकायस्य देश' इति तस्यैव धर्मास्तिकायस्य बुद्धिविकल्पितो धादिप्रदेशात्मको विभागः, 'धम्मत्थिकायस्स पदेसा' इति प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा:-निर्विभागा भागा इति भावः, ते चासङ्खयेयाः, लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् तेषाम् , अत एव बहुवचनम् , धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतोऽधर्मास्तिकायः, किमुक्तं भवति ?-जीवपुद्गलानां स्थिति| १ गणः कायो निकायः स्कन्धो वर्गः तथैव राशिश्च ।
अनुक्रम
[१२]
॥८
॥
Besercecene
अरूपिअजीवस्य दश-भेदा:
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, ---------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
(३)
परिणामपरिणतानां तत्परिणामोपटम्भकोऽमूर्तीऽसंख्यातप्रदेशसंघातात्मकोऽधर्मास्तिकायः 'अधर्मास्तिकायस्य देश' इत्यादि पूर्ववत्। तथा आङिति मर्यादया खखभावापरित्यागरूपया काशन्ते-खरूपेण प्रतिभासन्ते अस्मिन् व्यवस्थिताः पदार्था इत्याकाशम् , यदा त्वभिविधावाङ् तदा 'आङि'ति सर्वभावाभिव्याप्त्या काशते इत्याकाशम् , अस्तयःप्रदेशास्तेषां कायोऽस्तिकायः आकाशं च तदस्तिकायश्चाकाशास्तिकायः, 'आकाशास्तिकायस्य देश' इत्यादि पूर्ववत्,। नवरं प्रदेशा अनन्ता द्रष्टव्याः, अलोकस्यानन्तत्वात् । 'अद्धेति' कालस्याख्या, अद्धा चासो समयश्चाद्धासमयः, अथवाऽद्धायाः समयो निर्विभागो भागः, अयं च एक एव वर्चमानः परमार्थः सन् , नातीता नानागताः समयाः, तेषां यथाक्रम विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्वात् , ततः कायत्वाभाव इति देशप्रदेशकल्पनाविरहः, आवलिकादयस्तु पूर्वसमयनिरोधेनैवोत्तरसमयसद्भाव इति ततः समुदयसमित्याद्यसम्भवेन व्यवहारार्थमेव कल्पिता इति द्रष्टव्यम् । तथा अमीषामित्थं क्रमो-18] पन्यासे किं प्रयोजनम् ?, उच्यते, इह धर्मास्तिकाय इति पदं मङ्गलभूतम् , आदौ धर्मशब्दान्वितत्वात् , पदार्थप्ररूपणा च सम्प्रति प्रथमत उतक्षिता वर्त्तते, ततो मङ्गलार्थमादौ धर्मास्तिकायस्योपादानम्,धर्मास्तिकायप्रतिपक्षभूतश्चाधर्मा-13 स्तिकाय इति तदनन्तरमधर्मास्तिकायस्य, द्वयोरपि चानयोराधारभूतमाकाशमिति तदनन्तरमाकाशास्तिकायस्थ, ततः पुनरजीवसाधाददासमयस्स, अथवेह धर्माधर्मास्तिकायो विभू न भवतः, तद्विभुत्वे तत्सामर्थ्यतो जीवपुद्गलानामस्खलितप्रचारप्रवृत्तौ लोकालोकव्यवस्थाऽनुपपत्तेः, अस्ति च लोकालोकव्यवस्था, तत्र तत्र प्रदेशे सूत्रे साक्षाद्दर्शनात् ,
एव्यथ्टotreeseलर
अनुक्रम
[१२
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, ---------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती.
॥९
॥
ततो यावति क्षेत्रेऽवगाढौ तावत्प्रमाणो लोकः शेषस्त्वलोक इति सिद्धम् , उक्तं च-"धर्माधर्मविभुत्वात् सर्वत्र च प्रज्ञाप जीवपुद्गलविचारात् । नालोकः कश्चित्स्यान्न च सम्मतमेतदार्याणाम् ॥१॥ तस्माद्धर्माधर्माववगाढी व्याप्य लोकखं नापदे असर्वम् । एवं हि परिच्छिन्नः सिध्यति लोकस्तदविभुत्वात् ॥२॥" ततः एवं लोकालोकव्यवस्थाहेतू धर्माधर्मास्तिका-8 रुप्यजीयावित्यनयोरादावुपादानम् , तत्रापि माङ्गलिकत्वात् प्रथमतो धर्मास्तिकायस्थ, तत्प्रतिपक्षत्वात् ततोऽधर्मास्तिका-18 वप्रज्ञा. यस्य, ततो लोकालोकव्यापित्वादाकाशास्तिकायस्थ, तदनन्तरं लोके समयासमयक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वादद्धासमयस्य, (सू. ३) एवमागमानुसारेणान्यदपि युक्त्यनुपाति वक्तव्यम् , इत्यलं प्रसझेन । प्रकृतोपसंहारमाह-'सेत्तं अरूविअजीवपन्नवणा' सैषा अरूप्यजीवप्रज्ञापना । पुनराह विनेयः
से कि तं रूविअजीवपन्नवणा, रूविअजीवपन्नवणा चउन्विहा पबत्ता, तंजहा-खन्धा खन्धदेसा खन्धपएसा परमाणुपोग्गला, ते समासओ पञ्चविहा पत्रचा, तंजहा-वण्णपरिणया गन्धपरिणया रसपरिणया फासपरिणया सण्ठाणपरिणया।
अध का सा रूप्यजीवप्रज्ञापना, सूरिराह-रूप्यजीवप्रज्ञापना चतुर्विधा प्रज्ञता, तद्यथा-'स्कन्धा' स्कन्दन्ति शुप्यन्ति धीयन्ते च-पुष्यन्ते पुद्गलानां विचटनेन चटनेन चेति स्कन्धाः, 'पृषोदरादयं' इति रूपनिष्पत्तिः, अत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामानन्त्यख्यापनार्थम् , न चानन्त्यमनुपपन्नम् , आगमेऽभिधानात्, तथा च वक्ष्यति-'दधो गं पुग्गलत्थिकाए' इत्यादि, 'स्कन्धदेशाः' स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहतो बुद्धिपरिकल्पिता बादिप्रदेशात्मका
अनुक्रम [१२]
पा।
अत्र रूपी-अजीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[४]
दीप
अनुक्रम [१३]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [१],
------- उद्देशकः [-],
- दारं [ - ],
- मूलं [४...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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विभागाः, अत्रापि बहुवचनमनन्तानन्तप्रादेशिकेषु तथाविधेषु स्कन्धेषु देशानन्तत्वसम्भावनार्थम्, स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणामपरिणतानां बुद्धिपरिकल्पिताः प्रकृष्टा देशा निर्विभागा भागाः परमाणव इत्यर्थः स्कन्धप्रदेशाः, अत्रापि बहुवचनं प्रदेशानन्तत्वसम्भावनार्थम्, 'परमाणुपुद्गला इति' परमाथ तेऽणवश्च परमाणवो निर्विभागद्रव्यरूपाः ते च ते पुद्गलाश्च परमाणुपुद्गलाः, स्कन्धत्वपरिणामरहिताः केवलाः परमाणव इत्यर्थः । 'ते समासओ' इत्यादि, ते स्कन्धादयो यथासम्भवं 'समासतः' सङ्क्षेपेण पञ्चविधाः प्रज्ञसाः, तद्यथा- 'वर्णपरिणताः' वर्णतः परिणताः, वर्णपरिणाम भाज इत्यर्थः, एवं गन्धपरिणता रसपरिणताः स्पर्शपरिणताः संस्थानपरिणताः परिणता इत्यतीतकालनिर्देशो वर्त्तमानानागतकालोपलक्षणं, वर्त्तमानानागतत्वमन्तरेणातीतत्वस्यासम्भवात्, तथाहि यो वर्तमानत्वमतिक्रान्तः सोऽतीतो भवति, वर्त्तमानत्वं च सोऽनुभवति योऽनागतत्वमतिक्रान्तवान् उक्तं च- " भवति स नामातीतो यः प्राप्तो नाम वर्त्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्त्तमानत्वम् ॥ १ ॥” ततो वर्णपरिणता इति वर्णरूपतया परि णताः परिणमन्ति परिणमिष्यन्तीति द्रष्टव्यम्, एवं गन्धरसपरिणता इत्याद्यपि परिभावनीयम् ।
जे वण्णपरिणया ते पञ्चविदा पद्मत्ता, तंजहा- कालवण्णपरिणया णीलवण्णप० लोहियवण्णप हालिदवण्णप० सुकिलवण्णपरिणया, जे गन्धपरिणता ते दुबिहा पं० तं०- सुम्मिगन्धपरिणता य दुब्भिगन्धपरिणता य, जे रसपरिणता ते पश्वविद्या पं०सं०-तित| रसपरिणता कडुयरसपरिणता कसायरसपरिणया अम्बिलरसपरिणता मडुरसपरिणया, जे फासपरिणता ते अट्ठविहा पं०सं०
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना
प्रत
याः मल
यवृत्ती.
सूत्रांक
कक्खडफासपरिणया मउयफासपरिणया गुरुयफासपरिणता लहुयफासपरिणया सीयफासपरिणया उसिणफासपरिणया णिद्धफास-1
|१प्रज्ञापपरिणया लुक्खफासपरिणया, जे सण्ठाणपरिणया ते पञ्चविहा पं०२०-परिमण्डलसण्ठाणपरिणया वट्टसण्ठाणपरि० ससण्ठाणप०
नापदे रूचउरंससं०प० आयतसण्ठाणपरिणया ।
प्यजीवप्र। ये वर्णपरिणतास्ते पञ्चविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-कृष्णवर्णपरिणताः कजलादिवत् , नीलवर्णपरिणता नील्यादिवत् , ज्ञा.(सू.४) लोहितवर्णपरिणता हिङ्गुलकादिवत् , हारिद्रवर्णपरिणता हरिद्रादिवत्, शुक्लवर्णपरिणताः शङ्खादिवत् । ये गन्धपरिणतास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सुरभिगन्धपरिणताश्च दुरभिगन्धपरिणताश्च, चशब्दो परिणामभवनं प्रति वि-18 |शेषाभावख्यापनार्थी, तथाहि-यथा कथञ्चिदवस्थिताः सामग्रीवशतः सुरभिगन्धपरिणामं भजन्ते तथा कथञ्चिदवस्थिता एव सामग्रीवशतो दुरभिगन्धपरिणाममपीति, सुरभिगन्धपरिणताश्च यथा श्रीखण्डादयः, दुरभिगन्धपरिणता लसुनादिवत् । ये रसपरिणतास्ते पञ्चविधाः प्रजासाः, तद्यथा-तिक्तरसपरिणताः कोशातक्यादिवत्, कटुकरसपरिणताः सुण्ठ्यादिवत्, कषायरसपरिणता अपक्ककपित्थादिवत् ,अम्लरसपरिणता अम्लकेतसादिवत्, मधुररसपरिणताः शर्करादिवत् । ये स्पर्शपरिणतास्तेऽष्टविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कर्कशस्पर्शपरिणताः पाषाणादिवत् , मृदुस्पर्शपरिणता ॥१०॥ | हंसरुतादिवत् ,गुरुकस्पर्शपरिणताः वज्रादिवत् , लघुकस्पर्शपरिणता अर्कतूलादिवत् ,शीतस्पर्शपरिणता मृणालादिवत् ,13 उष्णस्पर्शपरिणता वह्नयादिवत्, स्निग्धस्पर्शपरिणता घृतादिवत् , रूक्षस्पर्शपरिणता भस्मादिवत् । ये संस्थानप
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पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
रिणतास्ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-परिमण्डलसंस्थानपरिणता वलयवत्, वृत्तसंस्थानपरिणताः कुलालचक्रादिवत् , त्र्यससंस्थानपरिणताः शृङ्गाटकादिवत्, चतुरस्रसंस्थानपरिणताः कुम्भिकादिवत्, आयतसंस्थानपरिणता दण्डादिवत्, एतानि च परिमण्डलादीनि संस्थानानि घनप्रतरभेदेन द्विविधानि भवन्ति, पुनः परिमण्डलमपहाय शेषाणि ओजःप्रदेशजनितानि युग्मप्रदेशजनितानीति द्विधा, तत्रोत्कृष्टं परिमण्डलादि सर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसङ्खयेयप्रदेशावगाढं चेति प्रतीतमेव, जघन्यं तु प्रतिनियतसञ्जयपरमाण्वात्मकम् , अतो नानिर्दिष्टं ज्ञातुं शक्यते इति विनेयजनानुग्रहाय तदुपदश्यते-तत्रीज प्रदेशप्रतरवृत्तं पञ्चपरमाणुनिष्पन्नं पश्चाकाशप्रदेशावगाढंच, तद्यथा-एकः परमाणुर्मध्ये स्थाप्यते, चत्वारः क्रमेण पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु, स्थापना
युग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं द्वादशपरमाण्वात्मकं द्वादशप्रदेशावगाढं च, तत्र निरन्तरं चत्वारः परमा-16 णवश्चतुष्कोकाशप्रदेशेषु रुचकाकारेण व्यवस्थाप्यन्ते, ततस्तत्परिक्षेपेण शेषा अष्टौ गम
ओजःप्रदेशं घनवृत्तं सप्तप्रदेशं ससप्रदेशावगाई च, तचैवं-तत्रैव पञ्चप्रदेशे प्रतरवृत्ते मध्यस्थितस्य परमाणोरुपरिष्टादधस्ताच एकैकोऽणुरवस्थाप्यते, तत एवं गगन सप्तप्रदेशं भवति ।
युग्मप्रदेशं घनवृत्तं द्वात्रिंशत्प्रदेशं द्वात्रिंशत्प्रदेशावगार्ड च, तचैव-पूर्वोक्तद्वा-00 दशप्रदेशात्मक४ स्य प्रतरवृत्तस्योपरि द्वादश,तत उपरिष्टादयश्चान्ये चत्वारश्चत्वारः परमाणव इति ॥ओजःप्रदेश प्रतरत्र्यसं त्रिप्रदेश
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पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनाया: मल
प्रत
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॥११॥
त्रिप्रदेशावगाडं च, तचैव-पूर्व तिर्यगणुद्वयं न्यस्यते, तत आद्यस्वाध एकोऽणुः, स्थापना-मान, युग्मप्रदेशं प्रज्ञापप्रतरत्र्यसं पदपरमाणुनिष्पन्नं पदप्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यग निरन्तरं त्रयः परमाणवः स्था- प्यन्ते, तत | नापदे रूआवस्याध उपर्यधोभावेनाणुद्वयं द्वितीयस्वाध एकोऽणुः, स्थापना
V ३ ओजः-18 | प्यजीवप्रप्रदेशं घनत्र्यसं पञ्चत्रिंशत्परमाणुनिष्पन्नं पञ्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढं च,
तवैव-तिर्यग् निरन्तराः शा.(सू.४) पञ्च परमाणवः स्थाप्यन्ते, तेषां चाधोऽधः क्रमेण तिर्यगेव चत्वारखयो।
द्वावेकश्चेति पञ्चदशात्मक प्रतरो जातः, स्थापना-नाल अस्यैव च प्रतरस्योपरि सर्व
परिष्वन्त्यान्त्यपरित्यागेन दश१०,तथैव तदुपर्युप-०009 रिपट त्रय एकश्चेति क्रमेणाणवः स्थाप्यन्ते, स्थापना-गगन
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॥११॥
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पदं [१], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
एते मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति , युग्मप्रदेशं धनध्यत्रं चतुष्प-181 oरमावात्मकं चतुष्प्रदेशावगादं च प्रतरत्र्यस्रस्यैव त्रिप्रदेशात्मकस्य ||
सम्बन्धिन एकस्याणोरुपर्येकोऽणुः स्थाप्यते, ततो मीलिताश्च
वारो भवन्ति ३२॥ ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं नवपरमाण्वात्मकं नवप्रदेशावगाढंच. तत्र तिर्यग निरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः पतयः स्थाप्यन्ते, स्थापना-बाना , युग्मप्रदेशं 18 प्रतरचतुरस्रं चतुष्परमाण्वात्मकं चतुष्प्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यग् द्विप्रदेशे
पनी स्थाप्येते. ओजःप्रदेशं घनचतुरस्रं सप्तविंशतिपरमाण्वात्मकं सप्तविंशतिप्रदेशा व गाढंच, तत्र नवप्रदेशात्मकस्यैव पूर्वोक्तस्य प्रतरस्याध उपरिच नवनव प्रदेशाःस्थाप्यन्ते,००० ततः सप्तविंशतिप्रदेशात्मकमोजःप्रदेशं घनचतुरस्रं भवति। अस्यैव युग्मप्रदेशं धनचतुरस्रमष्टपरमाण्यात्मक
मष्टप्रदेशावगाढं च, तवं-चतुष्प्रदेशात्मकस्य पूर्वोक्तस्य प्रतरस्वोपरि चत्वारोऽन्ये परमाणवः। स्थाप्यन्ते । ओजःप्रदेश श्रेण्यायतं त्रिपरमाणु त्रिप्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यग् निरन्तरं त्रयः स्थाप्यन्ते
युग्मप्रदेशं श्रेण्यायतं द्विपरमाणु द्विप्रदेशावगाढं च, तथैवाणुद्वयं स्थाप्यते 101, ओजःप्रदेश प्रतरायतं पञ्चदशपरमाण्वात्मकं पञ्चदशप्रदेशावगाढं च, तत्र पश्चप्रदेशात्मिकास्तिस्रः
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पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती .
॥१२॥
पलायस्तिर्यक स्थाप्यन्ते-नगगन, युग्मप्रदेशं प्रतरायतं पट्परमाण्यात्मकं षट्प्रदेशावगाढंच, तत्र त्रिप्र-IN
१प्रज्ञापदेश पशिद्वयं स्थाप्यते,०००/0/0 स्थापना-[ATA , ओजःप्रदेशं घनायतं पश्चचत्वारिंशत्- नापदे रू. परमाण्वात्मकं तावत्-0000 प्रदेशाव
-गाढं च, तत्र पूर्वोक्तस्यैव प्रतरायतस्य पञ्च-18 प्यजीवप्रदशप्रदेशात्मकस्याध उपरि तथैव पञ्चदश परमाणवः|००० स्थाप्यन्ते , युग्मप्रदेशं घनायतं द्वादश-1 ज्ञा.(सू.४) परमाण्वात्मकं द्वादशप्रदेशावगाढंच, तत्र प्रागुक्तस्य षट्प्रदेशस्य प्रतरायतस्योपरि तथैव तावन्तः परमाणवः स्था-IN प्यन्ते ॥ प्रतरपरिमण्डलं विंशतिपरमाण्वात्मकं विंशतिप्रदेशावगाढंच, तचैवं-प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु प्रत्येक चत्वारश्चत्वारोऽणवः स्थाप्यन्ते, विदिक्षु च प्रत्येकमेकैकोऽणुः स्थाप्यते, घनपरिमण्डलं चत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं | चत्वारिंशत्परमाण्वात्मकं च, तत्र तस्या एवं विंशतरुपरि तथैवान्या विंशतिरवस्थाप्यते ३५॥ इत्थं चैषां प्ररूपणमि-IN |तोऽपि न्यूनप्रदेशतायां यथोक्तसंस्थानाभावात् , एतत्सङ्घाहिकाश्चेमा उत्तराध्ययननियुक्तिगाथा:-"परिमण्डले य बढे | तसे चउरंस आयए चेव । घणपयर पढमबजं ओजपएसे य जुम्मे य ॥१॥ पञ्चगवारसगं खलु सत्तगवत्तीसगं च। बट्टम्मि । तिय छकपणगतीसा चत्तारि य होन्ति तंसम्मि ॥२॥ नव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे ।।
१ परिमण्डलं च वृत्तं व्यत्रं चतुरसमायतं चैव । धनपतरौ प्रथमवर्जेषु ओजःप्रदेशानि युग्मानि च ॥१॥ पञ्चकं द्वादशकं खलु सप्तक द्वात्रिंशच वृत्ते । त्रिकं पटु पञ्चविंशत् चत्वारश्च भवन्ति व्यस्रे ॥२॥ नव चैव तथा चत्वारः सप्तविंशतिवाष्टी चतुरक्ष।
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पदं [१], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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तिगदुगपन्नरसेव य छच्चेव य आयए होन्ति॥३॥पणयाला वारसगं तह चेव य आययम्मि सण्ठाणे । वीसा चत्तालीसा परिमण्डलए य सण्ठाणे ॥४॥" इत्यादि । सम्प्रत्येतेषामेव वर्णादीनां परस्परं संवेधमाह। जे वण्णओ कालवण्णपरिणता ते गन्धओ सुम्भिगन्धपरिणतावि दुन्भिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयाचि फासओ कक्खडफासपरिणयावि भउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि सिद्धफासपरिणयावि लुक्खफास-1 परिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि चट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि
आयतसण्ठाणपरिणयावि २०, जे वण्णओ नीलवण्णपरिणता ते गन्धओ मुभिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि रसओ |तित्तरसपरिणयावि कडयरसपरिणतावि कसायरसपरिणताबि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासओ कक्खडफास-18 परिणतावि मउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीतफासपरिणतावि उसिणफासपरिणतावि निद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयापि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसण्ठाणपरिणयावि २०, जे वण्णाओ लोहियवण्णपरिणया ते गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणयावि दुब्भि| त्रिकं द्विकं पञ्चदशैव च षटू चैवायते भवन्ति ॥३॥ पञ्चचत्वारिंशत् द्वादशक तथा चैव चायते भवन्ति । विंशतिश्चत्वारिंशत् परिमण्डले च संस्थाने ॥४॥
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गन्धपरिणयापि रसओ तित्तरसपरिणतावि कइयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणतावि१ प्रज्ञापफासओ कक्खडफासपरिणतावि भउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणताबि सीतफासपरिणतापि उसिण-18
जसण- नापदे रूफासपरिणतावि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि बट्टसण्ठाणपरिणतावि तंस- प्यजीवप्र. |सण्ठाणपरिणयापि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसण्ठाणपरिणतावि २०, जे वण्णी हालिद्दवण्णपरिणया ते गन्धओ सुम्भिगन्धपरिणयावि दुग्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणताबि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि णिद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बट्टस-श ण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणतावि आयतसण्ठाणपरिणतावि २०, जे वण्णओ सुकिल्लवण्णपरिणता । ते गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणतावि दुम्भिगन्धपरिणतावि रसओ तितरसपरिणताचि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणताबि फासओ कक्खडफासपरिणतानि मउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणतावि लहुय-1 फासपरिणतावि सीयफासपरिणतावि उसिणफासपरिणतावि णिद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डल-1 ॥१३॥ सण्ठाणपरिणयावि वहसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससष्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि २०,१००11 जे गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणया ते वणओ कालवण्णपरिणयावि णीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्यापरिणयावि हालिद्दवण्णपरिण-18 यावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि रसओ तिचरसपरिणयावि कडयरसपरिणतावि कसायरसपरिणताबि अम्बिलरसपरिणतावि महुररस
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परिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणतावि मउयफासपरिणतावि गरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीतफासपरिण-18 तावि उसिणफासपरिणयावि णिद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वहसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसष्ठाणपरिणयावि २३, जे गन्धओ दुन्भिगन्धपरिणया ते | वष्णो कालवण्णपरिणयावि णीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हारिदवण्णपरिणयाचि सुकिल्लवण्णपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासप० णिद्धफासप०
लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिपाणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि २६, ४६। जे रसओ तित्तरसपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि गीलवष्णपरिणयावि
लोहियवण्णपरिणयावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि फासो कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणतावि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीतफासपरिणतावि उसिणफासपरिणतावि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि२०, जे रसओ कडुयरसपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवष्णपरिणयाचि लोहियवण्णपरिणयावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धप रिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफासपरिणयावि
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प्रज्ञापना- याः मलय० वृत्ती.
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सूत्राक
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उसिणफासपरिणयावि णिद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि
|१प्रज्ञापतससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसष्ठाणपरिणयावि२०,जे रसओ कसायरसपरिणता ते वष्णओ कालवण्णप
नापदे रूरिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवण्णपरिणतावि हालिहवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि दुभिगन्धपरिणयावि फासओकक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफास-8| परिणतावि उसिणफासपरिणयावि पिद्धफासपरिणयाविलुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणताचि चट्टसपठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि२०,जे रसओ अम्बिलरसपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवणापरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिदवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुपफासपरिणयावि लहुयफासप-18 रिणयावि सीतफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निदफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयाचि आययसण्ठाणपरिणयावि २०, जे रसओ महुररसपरिणया ते वष्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिहवष्णपरिणयाविश॥१४॥ सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ मुबिभगन्धपरिणयाचि दुब्भिगन्धपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिण-18 यावि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणताबि सीतफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफासरिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि बट्टसण्ठाणपरिणतावि तंससण्ठाणपरिणतावि चउरंससण्ठाणपरिणताकि आय
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
- दारं [ - ],
पदं [१],
------- उद्देशकः [-],
मूलं [... ४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Educator
यसष्ठाणपरिणयादि २०, १००। जे फासतो कक्खडफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवण्णपरिणयादि हालिवण्णपरिणतावि सुकिलवण्णपरिगतावि गन्धओ सुम्भिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणतावि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि मधुररस परिणतावि फासओ गुरुयफासपरिणतावि लडुयफा सपरिणतावि सीतफासपरिणतावि उसिणफासपरिणतावि विद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणतावि सण्ठाणतो परिम ण्डलसण्ठागपरिणताबि वहसष्ठाणपरिणतावि तंस सण्ठाणपरिणतावि चउरंससष्ठाणपरिणतावि आयतसण्ठाणपरिणयादि २३, जे फासओ मउयासपरिणता ते वष्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवण्णपरिणतावि हालिदवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणताचि दुब्भिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणतावि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणताच अम्बिलरसपरिणताचि महुररसपरिणतावि फासओ गुरुयफा सपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफासपरिणयावि उसिणकासपरिणवाचि गिद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणयाचि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयाचि वट्टसण्ठाणपरिणवावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठागपरिणयादि आययसण्ठाणपरिणयाचि २३, जे फासओ गुरुयफासपरिगता ते वण्णओ कालवण्णपरिणताचि नीलवण्णपरिणताकि लोहियवण्णपरिणताचि हालिवण्णपरिणताचि सुकिल्लवण्णपरिणतावि गन्धओ सुमगन्धपरिणताचि दुब्भिगन्धपरिणतावि रसओ तित्तरसपरिणताचि कड्यरसपरिणताचि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणताचि महुररसपरिणतावि फासओ कक्खडफासपरिणतावि मउयफासपरिणतावि सीयफासपरिणतावि उसिणफासपरिणताचि गिफासपरिणतानि लुक्खफा सपरिणतावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि बसण्ठाणपरिणयाचि तंससण्ठाणप
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥१५॥
रिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयावि २३, जे फासओ लहुयफासपरिणता ते वष्णो कालवण्णपरिणतावि प्रज्ञापनीलवण्यापरिणयावि लोहियवण्णपरिणयावि हालिद्दवण्णपरिणतावि सुकिल्लवणापरिणतावि गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणयावि दुभिगन्ध- नापदे रूपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणतावि कडुयरसपरिणतापि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासओ प्यजीवम. कक्खडफासपरिणतावि मउयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि णिद्ध फासपरिणतावि लुक्खफासपरिणतानि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणतावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि ससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरि-N गयावि २३, जे फासओ सीयफासपरिणता ते घण्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवण्णपरिणयाचि हालिदवण्णपरिणतावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धो सुब्भिगन्धपरिणतावि दुन्भिगन्धपरिणताबि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडय|रसपरिणयावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणतावि महुररसपरिणतावि फासी कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिण-18 | यावि गुरुयफासपरिणतावि लहुयफासपरिणयावि निद्धफासपरिणतावि लुक्खफासपरिणयावि सष्ठाणो परिमण्डलसण्ठाणपरिण-II यावि बट्टसण्ठाणपरिणयावि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससण्ठाणपरिणयावि आयतसष्ठाणपरिणयादि २३, जे फासओ उसिण-11 फासपरिणता ते वणओ कालवण्णापरिणयावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवष्णपरिणयावि हालिदवण्णपरिणयावि सुकिल्लवणप-15॥१५॥ | रिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि रसओ तिचरसपरिणयावि कडयरसपरिणयावि कसायरसपरिण-18 यावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि निफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि सण्ठाणको परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि बहसण्ठाणपरिणयाविNI
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [१],
-------- उद्देशक : [ - ],
- दारं [ - ],
मूलं [... ४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Education in
तेससण्ठाणपरिणयाचि चउरंससण्ठाणपरिणयादि आयतसण्ठाणपरिणतावि २३, जे फासओ निद्वकासपरिणता ते वण्णओ कालवष्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतावि लोहियवष्णपरिणयावि हालिद्दवष्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयादि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि मधुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीतफासपरिणतावि उसिणफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणयावि वट्टसष्ठाणपरिणयादि तंससण्ठाणपरिणयावि चउरंससष्ठाणपरिणयावि आययसण्ठाणपरिणयादि २३, जे फासओ लुक्खफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णप|रिणयावि लोहियवष्णपरिणयावि हालिहवष्णपरिणयाचि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुब्भिगन्धपरिणयावि दुभिगन्धपरिणयावि तित्तरसपरिणयाचि कयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयाचि लहुयफासपरिणयावि सीतफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणताचि वट्टसष्ठाणपरिणयाचि संससण्ठाणपरिणयावि चउरंससष्ठाणप० आययसण्ठाणप०२३, १८४॥ जे सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणयावि लोहियवष्णपरिणयावि हालिद्दवष्णपरिणयावि सुकिल्वष्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुग्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयादि कइयरसपरिणयाचि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिण | यावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफा सपरिणयावि उसिणफासपरिणयाचि निद्धफासपरिणयावि लुक्खफास
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापना- परिणयावि २०, जे सण्ठाणओ बहसण्ठाणपरिणता ते वण्णाओ कालवणपरिणयावि नीलवणपरिणयाचि लोहियवण्णपरिणयावि।।
१प्रज्ञापयाः मल- हालिवण्णपरिणयावि मुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुन्भिगन्धपरिणयावि दुब्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणतावि नापदे रूय० वृत्ती. कद्वयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणतावि फासओ कक्खडफासपरिणतावि मउपफास-| प्यजीवप्र.
परिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि २०, जे सण्ठाणओ ससण्ठाणपरिणता ते वष्णओ कालवण्णपरिणयावि नीलवणपरिणयावि लोहियवण्णपरिण-1 यावि हालिद्दवण्णपरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धो सुब्भिगन्धपरिणयावि दुन्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरेसपरिणयावि कडुयरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि गिद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणयावि २०, जे सण्ठाणओ चउरंससग्ठाणपरिणता ते वणो कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणतापि लोहिय-1 वण्णपरिणतावि हालिवष्णपरिणवावि सुकिल्लवणपरिणयात्रि गन्धो सुबिभगन्धपरिणयावि दुम्भिगन्धपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयापि कडुपरसपरिणयावि कसायरसपरिणयावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररस्त्रपरिणयावि फासओ कक्खडफासपरिण-INI
तावि मउयफासपरिणताबि गुरुवफासपरिणतावि लहुयफासपरिणतावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि निद्धफासप-II IS रिणयावि लुक्खफासपरिणयावि २०, जे सण्ठाणओ आयतसण्ठाणपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणतावि नीलवण्णपरिणयावि
लोहियवण्णपरिणयावि हालिदवण्णापरिणयावि सुकिल्लवण्णपरिणयावि गन्धओ सुभिगन्धपरिणयावि दुम्भिगन्धपरिणयापि रसओ
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
तित्तरसपरिणतावि कडुयरसपरिणतावि कसायरसपरिणतावि अम्बिलरसपरिणयावि महुररसपरिणयावि फासओ कक्खडफासपपरिणयावि मउयफासपरिणयावि गुरुयफासपरिणयावि लहुयफासपरिणयावि सीयफासपरिणयावि उसिणफासपरिणयावि णिद्धफासपरिणयावि लुक्खफासपरिणतावि २०, १०० । सेचं रूविअजीवपन्नवणा, सेचं अजीवपण्णवणा । (सू०४)
ये स्कन्धादयो 'वर्णतो' वर्णमाश्रित्य कालवर्णपरिणता अपि भवन्ति ते 'गन्धतो' गन्धमाश्रित्य सुरभिगन्धपरिणता अपि भवन्ति, दुरभिगन्धपरिणता अपि, किमुक्तं भवति-गन्धमधिकृत्य ते भाज्याः, केचित् सुरभिगन्धपरिणता भवन्ति केचिदुरभिगन्धपरिणताः, न तु प्रतिनियतैकगन्धपरिणामपरिणता एवेति,एवं च रसतः स्पर्शतः संस्थानतश्ची वाच्याः, तत्र द्वौ गन्धौ पञ्च रसा अष्टौ स्पर्शाः पञ्च संस्थानानीति, एते च मीलिता विंशतिरिति कृष्णवर्णपरिणता| एतावतो भङ्गालभन्ते २०,एवं नीलवर्णपरिणता अपि २०,लोहितवर्णपरिणता अपि २०,हारिद्रवर्णपरिणता अपि २०, शुक्लवर्णपरिणता अपि २०, एवं पञ्चभिर्वर्णेलेब्धं शतम् १००। गन्धमधिकृत्याह-'ये गन्धतो' इत्यादि, ये 'गन्धतो गन्धमधिकृत्य सुरभिगन्धपरिणामपरिणतास्ते वर्णतः कालवर्णपरिणता अपि नीलवर्णपरिणता अपि लोहितवर्णपरिणता अपि हारिद्रवर्णपरिणता अपि शुक्लवर्णपरिणता अपि ५, एवं रसतः ५ स्पर्शतः ८ संस्थानतः ५, एते च मीलितास्त्रयोविंशतिः २३ इति सुरभिगन्धपरिणतात्रयोविंशतिभङ्गालभन्ते, एवं दुरभिगन्धपरिणता अपि २३,18 ततो गन्धपदेन लब्धा भङ्गानां षट्चत्वारिंशत् ४६ारसमधिकृत्याह-ये 'रसतो' रसमधिकृत्य तिक्तरसपरिणतास्ते वर्णतः
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापना- योः मल- २० वृत्ताः ॥१७॥
सुत्रांक
५ गन्धतः २ स्पर्शतः ८ संस्थानतः ५ एते सर्वेऽप्येकत्र मीलिता विंशतिः इति तिक्तरसपरिणता विशातभङ्गाल- १ प्रज्ञापभन्ते, एवं कटुकरसपरिणताः २० कषायरसपरिणताः२० अम्लरसपरिणताः २० मधुररसपरिणताश्च २०, एवं रस-18 नापदे रूपञ्चकसंयोगे लब्धं भङ्गकानां शतम् १०० [इत्यादि] । स्पर्शमधिकृत्याह-जे फासप्तो कक्खडफासपरिणया' इत्यादि, प्यजीवप्र. ये स्पर्शतः कर्कस्पर्शपरिणतास्ते वर्णतः ५ गन्धतः २ रसतः ५ स्पर्शतः ६ प्रतिपक्षस्पर्शयोगाभावात् संस्थानतः ५,
(सू.४) एते सर्वेऽप्येकत्र मीलितास्त्रयोविंशतिः २३, एतावतो भङ्गान् कर्कशस्पर्शपरिणता लभन्ते २३, एतावत एव मृदु-18 स्पर्शपरिणताः २३ गुरुस्पर्शपरिणताः २३ लघुस्पर्शपरिणताः २३ शीतस्पर्शपरिणताः २३ उष्णस्पर्शपरिणताः २३ ।। स्निग्धस्पर्शपरिणताः २३ रूक्षस्पर्शपरिणताः २३, एतेषामेकत्र मीलने जातं भड़कानां चतुरशीत्यधिकं शतं १८४| [इत्यादि]। संस्थानमधिकृत्याह-जे सण्ठाणओ परिमण्डलसण्ठाणपरिणया' इत्यादि,ये संस्थानतः परिमण्डलसंस्थानपरिणतास्ते वर्णतः ५ गन्धतः२ रसतः ५ स्पर्शतः ८ एते सर्वेऽप्येकत्र मीलिताः विंशतिः२० एतावतो भङ्गान् परिमण्ड|लसंस्थानपरिणता लभन्ते, एवं वृत्तसंस्थानपरिणताः २० व्यस्रसंस्थानपरिणताः २० चतुरस्रसंस्थानपरिणताः २०
आयतसंस्थानपरिणताः २०, अमीषां चैकत्र मीलने लब्धं भङ्गकानां शतम् , एतेषां च वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानानां सकलभङ्गसङ्कलने जातानि पञ्च शतानि त्रिंशदधिकानि ५३०॥ इह यद्यपि बादरेषु स्कन्धेषु पञ्चापि वर्णा द्वावपि गन्धी पञ्चापि रसाः प्राप्यन्ते, ततोऽवधिकृतवर्णादिव्यतिरेकेण शेषवर्णादिभिरपि भनाः सम्भवन्ति, तथापि तेष्वेव वाद
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Ceररहeeceae
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ----------------उद्देशक: -,---------------- दारं -1,---------------- मूलं [...४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
रेषु स्कन्धेषु ये व्यवहारतः केवलकृष्णवर्णाद्युपेता अपान्तरालस्कन्धा यथा देहस्कन्ध एव लोचनस्कन्धः कृष्णस्तदन्तगत एव कश्चिलोहितोऽन्यस्तदन्तर्गत एव शुक्ल इत्यादि ते इह विवक्ष्यन्ते, तेषां चान्यद्वर्णान्तरादि न सम्भवति, स्पर्शचिन्तायां त्ववधिकृतस्पर्श प्रति प्रतिपक्षव्यतिरेकेणान्ये स्पर्शा लोकेऽप्यविरोधिनो दृश्यन्ते ततो यथोक्तैव भङ्गस-
या, साऽपि च परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्याभिहिता, अन्यथा प्रत्येकमप्येषां तारतम्येनानन्तत्वादनन्ता भङ्गाः संभवन्ति, एतेषां च वर्णादिपरिणामानां जघन्यतोऽवस्थानमेकं समयमुत्कर्षतोऽसङ्खयेयं कालम् , सम्प्रत्युपसंहारमाह'सेतं रूविअजीवपन्नवणा, सेत्तं अजीवपन्नवणा' सैषा रूप्यजीवप्रज्ञापना, सैषाजीवप्रज्ञापना ॥ साम्प्रतं जीवप्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रं चा(त्रमा)हसे कि तंजीवपन्नवणा,२ दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संसारसमावण्णजीवपन्नवणा य असंसारसमावण्णजीवपष्णवणा य (सू०५)।
अथ का सा जीवप्रज्ञापना, सूरिराह-जीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-संसारसमापनजीवप्रज्ञापना चासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च, तत्र संसरणं संसारो-नारकतिर्यगनरामरभवानुभवलक्षणतं सम्यग-एकीभाविनापन्नाः संसारसमापन्नाः, संसारवर्तिन इत्यर्थः, तेच ते जीवाश्च तेषां प्रज्ञापना संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, न संसारोऽसंसारो-मोक्षस्तं समापन्ना असंसारसमापना मुक्ता इत्यर्थः, ते च ते जीवाच तेषां प्रज्ञापनाऽसंसारसमाप1. एवं वर्णस्य भेदाः १००, गन्धस्य भेदाः ४६, रसस्य भेदाः १००, स्पर्शस्य भेदाः १८४, संस्थानस्य भेदाः-१००, एवं च ५३०.
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अत्र 'जीव-प्रज्ञापना आरभ्यते
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, ---------------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापना-RI नजीवप्रज्ञापना, चशब्दौ प्राग्वत् । तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतोऽसंसारसमापनजीवप्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विषयं १ प्रज्ञापयाः मल- प्रश्नसूत्रमाह
नापदे सिय. वृत्ती. से कि तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा?, असंसारसमावण्णजीवषण्णवणा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-अणन्तरसिद्धअसंसार- प्रज्ञाप.
(सू. ६-७) समावण्णजीवपण्यावणा य परम्परसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा य (सू०६) से किं तं अणन्तरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णा॥१८॥
वणा, अणन्तरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पण्णरसविहा पण्णता,तंजहा-तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतिस्थगरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा इत्थीलिङ्गसिद्धा पुरिसलिङ्गसिद्धा नपुंसकलिङ्गासिद्धा सलिङ्गसिद्धा अनलिङ्गसिद्धा गिहिलिङ्गसिद्धा एगसिद्धा अणेमसिद्धा (सू०७)
अथ का सा असंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-असंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता,तद्यथा-IN अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च, तत्र न विद्यतेऽन्तरं-व्यव|धानमर्थात्समयेन येषां तेऽनन्तरास्ते च ते सिद्धाश्चानन्तरसिद्धाः, सिद्धत्वप्रथमसमये वर्तमाना इत्यः, ते च तेऽ-13 संसारसमापन्नजीवाथानन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवास्तेषां प्रज्ञापनाऽनन्तरसिद्धाऽसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, चश-RI॥ १८ ब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः, तथा विवक्षिते प्रथमे समये यः सिद्धस्तस यो द्वितीयसमयसिद्धः स परतस्यापि यस्तृतीयसमयसिद्धः स परः, एवमन्येऽपि वाच्याः, परे च परे चेति वीप्सायां 'पृषोदरादय' इति परम्पर
[१४]
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अत्र असंसारसमापन्न (सिद्ध) जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -,---------------- दारं -,---------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६-७]
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शब्दनिष्पत्तिः, परम्पराश्च ते सिद्धाश्च परम्परसिद्धाः विवक्षितसिद्धस्य प्रथमसमयात् प्राग द्वितीयादिषु समयेष्वनन्तामतीताद्धां यावदर्तमाना इति भावः, ते च तेऽसंसारसमापन्नाश्च परम्परसिद्धासंसारसमापन्नास्ते च ते जीवाश्च तेषां प्रज्ञापना परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, अत्रापि चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः ॥ 'से किन्त'मि-8 त्यादि, अथ का सा अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, सूरिराह-अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना पञ्चदशविधा प्रज्ञप्ता, अनन्तरसिद्धानामुपाधिभेदतः पञ्चदशविधत्वात् , तदेव पञ्चदशविधत्वं तेषामाह-'तंजहे'त्यादि, तद्यथेति पञ्चदशभेदोपदर्शनसूचक, तीर्थसिद्धाः तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ-यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम् , तच निराधारं न भवति इति सङ्घः प्रथमगणधरो वा वेदितव्यः, उक्तं च-"तित्थं भन्ते ! तित्थं तित्थकरे तित्थं ?, गोयमा !, अरिहा ताव (नियमा) तित्थकरे, तित्थं पुण चाउब्वणो समणसको पढमगणहरो वेति, तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः, तथा तीर्थस्थाभावोऽतीर्थ, तीस्थाभावश्चानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो वा तस्मिन् ये सिद्धास्तेऽतीर्थसिद्धाः, तत्र तीर्थस्थानुत्पाद सिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः, न हि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत् , तथा तीर्थस्य व्यवच्छेदः सुविधिखाम्याय
१ तीर्थ (शासनं ) भदन्त ! तीर्थ (तरणसाधनं ) तीर्थकरस्तीर्थम् !, गौतम ! अर्हन सावत् नियमातीर्थकरः, तीर्थ पुनश्चतुर्वर्णः श्रम-15|| णसङ्कः प्रथमगणधरो वा।
दीप अनुक्रम [१५-१६]
प्र.
४
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आगम
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -,---------------- दारं -,---------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मल
प्रत
यवृत्ती
सूत्रांक
॥१९॥
[६-6]
दीप अनुक्रम [१५-१६]
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पान्तरालेषु तत्र ये जातिस्मरणादिनाऽपवर्गमार्गमवाप्य सिद्धास्ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः २, तथा तीर्थकराः सन्तो ये १ प्रज्ञापSIसिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धाः ३ सामान्यकेवलिनः सन्तो ये सिद्धास्तेऽतीर्थकरसिद्धाः ४ तथा खयंबुद्धाः सन्तो ये सिद्धा- नापर्दै स्ते स्वयम्बुद्धसिद्धाः ५, प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते प्रत्येकबुद्धसिद्धाः ६, अथ खयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां का प्रतिवि- न्तरसि
प्रज्ञा. शेषः १, उच्यते, बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि-खयम्बुद्धा वायप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, खयमेय-बा
(सू. ७) प्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः खयम्बुद्धा इति व्युत्पत्तेः, ते च द्विधा-तीर्थकरास्तीर्थकरव्यतिरिताश्च, इह तीर्थकरव्यतिरिक्तैरधिकारः, आह च नन्यध्ययनचूर्णिकृत्-'ते दुविहा सयंबुद्धा-तित्थयरा तित्थयरवहरित्ता य, इह वइरित्तेहिं अहिगारों' इति । प्रत्येकबुद्धास्तु बाखप्रत्ययमपेक्ष्य, प्रत्येकं-बावं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बद्धाः प्रत्येकबुद्धा इति व्युत्पत्तेः, तथा च श्रूयते-बाह्यप्रत्ययसापेक्षा करकण्ड्वादीनां बोधिः, बहिःप्रत्यय-II मपेक्ष्य च ते बुद्धाः सन्तो नियमतः प्रत्येकमेव विहरन्ति, न गच्छवासिन इव संहताः, आह च नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत्-पत्तेयं-बाझं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः, बहिष्प्रत्ययं प्रति बुद्धानां च पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धा' इति, खयम्बुद्धानामुपधिर्वादशविध एव पात्रादिकः, प्रत्येकबुद्धानां तु द्विधा-जघन्यतस्त- ॥१९॥ थोत्कर्षतच, तत्र जघन्यतो द्विविधः, उत्कर्षतो नवविधः प्रावरणवर्जः, उक्तं च-"पत्तेयबुद्धाणं जहन्नेणं दुविहो। उक्कोसेणं नवविहो नियमा पाउरणवजो भवई" इति, तथा खयम्बुद्धानां पूर्वाधीतं श्रुतं भवति वा न वा, यदि
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६-७]
भवति ततो लिङ्गं देवता वा प्रयच्छति गुरुसन्निधौ वा गत्वा प्रतिपद्यते, यदि च एकाकिविचरणसमर्थः इच्छा वार तस्य तथारूपा जायते तत एकाकी विहरति, अन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठते, अथ पूर्वाधीतं श्रुतं तम्य न भवति तहि। हा नियमाद्दुरुसन्निधौ गत्वा लिङ्गं प्रतिपद्यते गच्छं चावश्यं न मुञ्चति, तथा चोक्तम्-"पुच्चाहीयं सुर्य से हवइ वा न
वा, जइसे नत्थि तो लिङ्गं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ गच्छे य विहरइत्ति, अह पुचाधीयसुयसम्भवोऽत्थि तो से लिदेवया पडियच्छा गरुसन्निहे वा पडिवजह, जइ य एगविहारविहरणसमत्थो इच्छा वा से तो एको चेव विहरह, अन्यथा गच्छे विहरद"त्ति प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति, तच जघन्यत एकादशाङ्गानि,
उत्कर्षतः किञ्चिन्यूनानि दश पूर्वाणि, तथा लिङ्गं तस्मै देवता प्रयच्छति लिकरहितो वा कदाचिद्भवति, तथा 18चोक्तम्-"पत्तेयबुद्धाणं पुवाहीयं सुयं नियमा हवइ, जहन्नेणं इक्कारस अशा, उकोसेणं भिन्नदसपुचा,लिङ्गं च से देव-13
या पयच्छइ, लिङ्गवजिओ वा भवइ, जओ भणियं-रुप्पं पत्तेयबुद्धा" इति । तथा बुद्धा-आचार्यास्तैबाधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धाः। एते च सर्वेऽपि केचित्खीलिङ्गसिद्धाः, स्त्रिया लिङ्गं स्त्रीलिङ्गं,स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः, तच त्रिधा, तद्यथा-वेदः शरीरनिवृत्तिर्नेपथ्यं च, तत्रेह शरीरनिवृत्त्या प्रयोजनम् , न वेदनेपथ्याभ्यां, वेदे सति | सिद्धत्वाभावात् , नेपथ्यस्य चाप्रमाणत्वात् , आह च नन्यध्ययनचूर्णिकृत्-"इत्थीए लिङ्गं इथिलिङ्गं,इत्थीए उवल-1 क्खणंति वुत्तं भवइ, तं च तिविह-वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च, इह सरीरनिबत्तीए अहिगारो, न वेयनेवत्थेहिति ।।
दीप अनुक्रम [१५-१६]
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[६-७]
दीप
अनुक्रम
[१५-१६]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [१],
------------- उद्देशकः [ - ],
, दारं [ - ], -------
- मूलं [६,७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
॥ २० ॥
| ततस्तस्मिन् स्त्रीलिङ्गे वर्त्तमानाः सन्तो ये सिद्धास्ते स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, एतेन यदाहुराशाम्बराः 'न स्त्रीणां निर्वाण' मिति, तदपास्तं द्रष्टव्यं, स्त्रीनिर्वाणस्य साक्षादनेन सूत्रेणाभिधानात् तत्प्रतिषेधस्य युक्तया अनुपपन्नत्वात्, तथाहि मुक्तिपथो ज्ञानदर्शनचारित्राणि 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति वचनात् (तत्त्वार्थे अ० १ सू० १ ), सम्यग्दर्श नादीनि च पुरुषाणामिव स्त्रीणामप्यविकलानि, तथाहि दृश्यन्ते स्त्रियोऽपि सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानाः, 5) जानते च पडावश्यककालिकोत्कालिकादिभेदभिन्नं श्रुतं, परिपालयन्ति सप्तदशप्रकारम कलङ्कं संयमं धारयन्ति च | देवासुराणामपि दुर्धरं ब्रह्मचर्य, तप्यन्ते च तपांसि मासक्षपणादीनि ततः कथमिव न तासां मोक्षसम्भवः ?, स्यादेतत्-अस्ति स्त्रीणां सम्यग्दर्शनं ज्ञानं वा न पुनधारित्रं, संयमाभावात्, तथाहि - स्त्रीणामवश्यं वस्त्रपरिभोगेन भवितव्यमन्यथा विवृताङ्गयस्तास्तिर्यक्रस्त्रिय इव पुरुषाणामभिभवनीया भवेयुः, लोके च गर्होपजायते, ततोऽवश्यं ताभिर्वखं परिभोक्तव्यं, वस्त्रपरिभोगे च सपरिग्रहता, सपरिग्रहत्वे च संयमाभाव इति, तदसमीचीनम्, सम्यक् | सिद्धान्तापरिज्ञानात्, परिग्रहो हि परमार्थतो मूर्द्धाऽभिधीयते, 'मुच्छा परिग्गहो बुत्तो' इतिवचनात् तथाहिमूर्च्छारहितो भरत चक्रवर्ती सान्तःपुरोऽप्यादर्शकगृहेऽवतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते, अन्यथा केवलोत्पादासम्भवात्, अपि च-यदि मूर्छाया अभावेऽपि वस्त्रसंसर्गमात्रं परिग्रहो भवेत् ततो जिनकल्पं प्रतिपन्नस्य कस्यचित्साधोस्तुषार१ आशाम्बरकृतगोमटसारे--अडयाला पुंवेया, इत्थीवेया हवन्ति चालीसा । बीस नपुंसकवेया, समएणेगेण सिज्झन्ति ॥ १ ॥
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
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१ प्रज्ञाप
नापदे अनन्तरसि
प्रज्ञा.
(सू. ७)
॥ २० ॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६-७]
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कणानुषक्ते प्रपतति शीते केनाप्यविषयोपनिपातमद्य शीतमिति विभाव्य धर्मार्थिना शिरसि वस्ने प्रक्षिप्ते तस्य सपरिप्र-12 हता भवेत् , न चैतदिष्टं, तस्मान्न वस्त्रसंसर्गमात्रं परिग्रहः, किन्तु मूळ, सा च स्त्रीणां वस्त्रादिषु न विद्यते, धर्मोपकरण| मात्रतया तस्योपादानात् , न खलु ता वस्त्रमन्तरेणात्मानं रक्षयितुमीशते, नापि शीतकालादिषु व्यग्रदशायां खाध्या[यादिक कतु, ततो दीर्घतरसंयमपरिपालनाय यतनया वस्त्रं परिभुजाना न ताः परिग्रहवत्यः, अथोच्येत-सम्भवति || नाम खीणामपि सम्यग्दर्शनादिकं रनत्रयं.परं न तत सम्भवमात्रेण मुक्तिपदप्रापकं भवति,किन्तु प्रकप्राप्तम् ,अन्यथा श दीक्षानन्तरमेव सर्वेषामप्यविशेषेण मुक्तिपदप्राप्तिप्रसक्तिः, सम्यग्रदर्शनादिरलत्रयप्रकर्षश्व स्त्रीणामसम्भवी, ततोन निवाणमिति, तदप्ययुक्तम् , स्त्रीषु रखत्रयप्रकर्षासम्भवे ग्राहकप्रमाणस्थाभावात् ,न खलु सकलदेशकालन्यात्या खी। रत्नत्रयप्रकोसम्भवग्राहकं प्रमाणं विज़म्भते, देशकालविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षस्थाप्रवृत्तेः, तदप्रवृत्ती चानुमानस्याप्यसम्भवात्, नापि तासु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवप्रतिपादकः कोऽप्यागमो विद्यते, प्रत्युत सम्भवप्रतिपादकः स्थाने स्थानेऽस्ति,यथेदर्भव प्रस्तुतं सूत्रं, ततो न तासां रतत्रयप्रकर्षासम्भवः, अथ मन्येथाः-स्वभावत एवातपेनेव छाया विरुध्यते स्त्रीत्वेन सह रत्नत्रयप्रकर्षः, ततस्तदसम्भवोऽनुमीयते, तदयुक्तमुक्तं, युक्तिविरोधात् , तथाहि-रत्नत्रयप्रकर्षः स उच्यते यतोऽन नन्तरं मुक्तिपदप्राप्तिः, स चायोग्ययस्थाचरमसमयभावी, अयोग्यवस्था चास्माशामप्रत्यक्षा, ततः कर्थ विरोधगतिः, न हि अदृष्टेन सह विरोधः प्रतिपतुं शक्यते, मा प्रापत्पुरुषेष्वपि प्रसङ्गः, ननु जगति सर्वोत्कृष्टपदप्राप्तिः सर्वोत्कृष्टेना
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
------------- उद्देशकः [-],
, दारं [ - ], [----------
- मूलं [६,७]
पदं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥ २१ ॥
ध्यवसायेनावाप्यते, नान्यथा, एतचोभयोरप्यावयोरागमप्रामाण्यवलतः सिद्धं, सर्वोत्कृष्टे च द्वे पदे- सर्वोत्कृष्टदुःखस्थानं सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं च तत्र सर्वोत्कृष्टदुःखस्थानं सप्तमनरकपृथ्वी, अतः परं परमदुःखस्थानस्याभावात्, सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं तु निःश्रेयसं तत्र स्त्रीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनमागमे निषिद्धं, निषेधस्य च कारणं तद्गमनयोग्यतथाविधसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः, ततः सप्तमपृथिवीगमनवत्त्वाभावात्, सम्मूर्छिमादिवत्, अपि च-यासां वादलब्धौ विकुर्वणत्वादिलच्धी पूर्वगतश्रुताधिगतौ च न सामर्थ्यमस्ति तासां मोक्षगमनसामर्थ्यमित्यतिदुःश्रद्धेयं, तदेतदयुक्तं, यतो यदि नाम स्त्रीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनं प्रति सर्वोत्कृष्टम नोवीर्यपरिणत्यभावः, तत एतावता कथमवसीयते-नि:| श्रेयसमपि प्रति तासां सर्वोत्कृष्टम नोवीर्यपरिणत्यभावो न हि यो भूमिकर्षणादिकं कर्मकर्तुं न शक्नोति स शास्त्राण्यप्यवगाढुं न शक्नोतीति प्रत्येतुं शक्यम्, प्रत्यक्षविरोधात् अथ सम्मूर्छिमादिषूभयत्रापि सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावो दृष्टः ततोऽत्राप्यवसीयते, ननु यदि तत्र दृष्टस्तर्हि कथमत्राचसीयते ?, न खलु वहिर्व्याप्तिमात्रेण हेतुर्गमको भवति, | किन्त्वन्तर्व्याप्या, अन्तर्व्याप्तिश्च प्रतिबन्धबलेन, न चात्र प्रतिबन्धो विद्यते, न खलु सप्तमपृथिवीगमनं निर्वाणगमनस्य कारणं, नापि सप्तमपृथिवीगमनाविनाभावि निर्वाणगमनं, चरमशरीरिणां सप्तमपृथिवीगमन मन्तरेणैव निर्वाणगमनभावात् न च प्रतिबन्धमन्तरेणैकस्याभावेऽन्यस्यावश्यमभावः, मा प्रापत् यस्य तस्य वा कस्यचिदभावे सर्वस्याभावप्रसङ्गः, यद्येवं तर्हि कथं सम्मूर्छिमादिषु निर्वाणगमनाभाव इति ?, उच्यते, तथाभवस्वाभाव्यात्, तथाहि-
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नापदे अनन्तरसिप्रज्ञा. (सू. ७)
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६-७]
तेसम्मठिमादयो भवस्वभावत एव न सम्यगदर्शनादिकं यथावत्प्रतिपत्तुं शक्यन्ते, ततो न तेषां निर्वाणसम्भवः. त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण यथावत्सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसम्पद्योग्याः, ततस्तासां न निर्वाणगमनाभावः, अपि च-भुज-18 परिसा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति न परतः, परपृथिवीगमनहेतुतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात् , तृतीयां या-18 वत्पक्षिणश्चतुर्थी चतुष्पदाः पञ्चमीमुरगाः, अथ च सर्वेऽप्यूर्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति,तन्नाधोगतिविषये मनो-13 वीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनादूर्ध्वगतावपि च तद्वैषम्यम् , आह च-"विषमगतयोऽप्यधस्तादुपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारम् ।। गच्छन्ति च तियश्चस्तदधोगत्यूनताऽहेतुः ॥१॥" तथा च सति सिद्धं स्त्रीपुंसानामधोगतिवैषम्येऽपि निर्वाणं सम, यदप्युक्तम्-'अपि च यासां यादलब्धावित्यादि' तदप्यश्लीलं, वादविकुर्वणत्वादिलब्धिविरहेऽपि विशिष्टपूर्वगतश्रुताभावेऽपि माषतुषादीनां निःश्रेयससम्पदधिगमश्रवणात्, आह च-"वादविकुर्वणत्वादिलब्धिविरहे श्रुते कनीयसि च। जिनकल्पमनःपर्यवविरहेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति॥१॥"अपि च-यदि वादादिलब्ध्यभाववनिःश्रेयसाभावोऽपि स्त्रीणामभविष्यत् ततस्तथैव सिद्धान्ते प्रत्यपादयिष्यत्, यथा जम्बूयुगादारात् केवलज्ञानाभावो, न च प्रतिपाद्यते कापि खीणां निर्वाणाभाव इति,तस्मादुपपद्यते स्त्रीणां निर्वाणमिति कृतं प्रसङ्गेन । तथा पुंल्लिङ्गे-शरीरनिवृत्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुंलिङ्गसिद्धाः, एवं नपुंसकलिङ्गसिद्धाः, तथा खलिङ्गे-रजोहरणादिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते खलिङ्गसिद्धाः,तथाऽन्यलिङ्गे-परित्राजकादिसम्बधिनि वल्कलकाषायादिरूपे द्रव्यलिङ्गे व्यवस्थिताः सन्तो
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -,---------------- दारं -,---------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापना- याः मल- य. वृत्ती.
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दीप अनुक्रम [१५-१६]
ये सिद्धास्तेऽन्यलिङ्गसिद्धाः, गृहिलिङ्गे सिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धाः मरुदेवीप्रभृतयः, तथैकसिद्धा एकस्मिन् २ समये एकका १प्रज्ञापएव सन्तः सिद्धा एकसिद्धाः, 'अणेगसिद्धा' इति एकस्मिन समयेऽनेके सिद्धा अनेकसिद्धाः, अनेके चैकस्मिन्समयेनापदे असिध्यन्त उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसङ्ख्या बेदितव्याः, यस्मादुक्तम्-"वत्तीसा अडयाला सट्टी बावत्तरी य बोद्धच्या । चुल-18 नन्तरसिसीई छनउइ उ दुरहियमहत्तरसयं च ॥१॥" अस्या विनयजनानुग्रहाय व्याख्या-अष्टौ समयान् यावनिरन्तरमेकाद-18 द्धप्रज्ञा. यो द्वात्रिंशत्पर्यन्ताः सिध्यन्तः प्राप्यन्ते, किमुक्तं भवति -प्रथमे समये जघन्यत एको द्वौ योत्कर्षतो द्वात्रिशसिध्यन्तःप्राप्यन्ते, द्वितीयेऽपि समये जघन्यत एको द्वौ बोत्कर्षतो द्वात्रिंशत् , एवं यावदष्टमेऽपि समये जघन्यत एको द्वी वोत्कर्षतो द्वात्रिंशत्, ततः परमवश्यमन्तरं, तथा त्रयशिदादयोऽष्टचत्वारिंशत्पर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः सप्त समयान् यावत्पाप्यन्ते, परतो नियमादन्तरं, तथा एकोनपञ्चाशदादयः षष्टिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतः षट् | समयान् वावदवाप्यन्ते परतोऽवश्यमन्तरं तथैकषष्ट्यादयो द्विसप्ततिपर्यन्ता निरन्तर सिध्यन्त उत्कर्षतः पञ्च समयान्। | यावदवाप्यन्ते ततः परमन्तरं,त्रिसप्तत्यादयश्चतुरशीतिपर्यन्ता निरन्तर सिध्यन्त उत्कर्षतश्चतुरःसमयान् यावत्तत ऊध्र्व|मन्तरं, तथा पञ्चाशीत्यादयः षण्णवतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतस्त्रीन् समयान् यावत्परतो नियमादन्तरं, तथा
॥२२॥ |ससनवत्यादयो बत्तरशतपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतो द्वौ समयौ परतोऽवश्यमन्तरं, तथा युत्तरशतादयोऽष्टोत्तरशतपर्यन्ताः सिध्यन्तो नियमादेकमेव समयं यावदवाप्यन्ते, न द्विवादिसमयान् , तदेवमेकस्मिन् समये उत्कर्ष
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------- उद्देशक: -, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६-७]
दीप अनुक्रम [१५-१६]
तोऽष्टोत्तरशतसङ्ख्याः सिध्यन्तः प्राप्यन्ते इत्यनेकसिद्धा उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतप्रमाणा वेदितव्याः । आह-तीर्थसिद्धा-11 तीर्थसिद्धरूपभेदद्वय एव शेषभेदा अन्तर्भवन्ति तत्किमर्थ शेषभेदोपादानम् !, उच्यते, सत्यमन्तर्भवन्ति परं न तीर्थ-1 सिद्धातीर्थ सिद्धभेदद्वयोपादानमात्राच्छेषभेदपरिज्ञानं भवति,विशेषपरिज्ञानार्थं च एष शास्त्रारम्भप्रयास इति शेषभेदोपादानम् , उपसंहारमाह-'सेत्तमित्यादि, सैषा अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ॥
से किं तं परम्परसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा?,२ अणेगविहा पण्णाचा, तंजहा-अपढमसमयसिद्धा दुसमयसिद्धा तिस-1 |मयसिद्धा चउसमयसिद्धा जाब सजिजसमयसिद्धा असजिजसमयसिद्धा अणन्तसमयसिद्धा, सेतं परम्परसिद्धासंसारसमावण्ण-18 जीवपण्णवणा, सेत्तं असंसारसमावण्णज्जीवपण्णवणा (सू०८)
अथ का सा परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनाऽनकेविधा प्रजप्सा, परम्परसिद्धानामनेकविधत्वात् , तदेवानेकविधत्वमाह-'तंजहे'त्यादि, 'तद्यथे'त्यनेकविधत्वोपदर्शने, IS 'अप्रथमसमयसिद्धा' इति, न प्रथमसमयसिद्धा अप्रथमसमयसिद्धाः-परम्परसिद्धविशेषणप्रथमसमयवर्त्तिनः, सिद्धत्वसमयाद्वितीयसमयवर्तिन इत्यर्थः, व्यादिषु तु समयेषु द्वितीयसमयसिद्धादय उच्यन्ते, यद्वा सामान्यतः प्रथममप्रथमसमयसिद्धा इत्युक्तं,तत एतद्विशेषतो याचष्टे-द्विसमयसिद्धानिसमयसिद्धाश्चतुःसमयसिद्धा इत्यादि यावच्छ-13
REmirator
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, ---------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
सुत्रांक
॥२३॥
ब्दकरणात् पश्चमसमयसिद्धादयः परिगृह्यन्ते । 'सेत्त'मित्यादि निगमनद्वयं सुगम, तदेवमुक्ता असंसारसमापनजी-1 वप्रज्ञापना ॥ सम्प्रतिसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विपयं प्रश्नसूत्रमाह
नापदेप| से किं तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा?, संसारसमावण्णजीवपन्नवणा पश्चविहा पण्णता, तंजहा-एगेंदियसंसारसमावण्ण-IN
रम्परसिजीवपण्णवणा बेइन्दियसंसारसमावण्णजीवषण्णवणा तेइन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा चउरिन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा
द्धप्रज्ञा. पश्चिन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा(मू०९)
संसारसअथ का सा संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना पञ्चविधा प्रज्ञसा,तद्यथा-एके- मापन्न. न्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनेत्यादि, तत्रैकं स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः-पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतयो वक्ष्यमाणस्वरूपास्ते च ते संसारसमापन्नजीवाश्च तेषां प्रज्ञापना एकेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, एवं सर्वपदेष्वक्षरघटना कार्या, नवरं द्वे स्पर्शनरसनालक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः शशशुक्तिकादयः, त्रीणि-स्पर्शनरस-11 नाप्राणलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः-यूकामत्कुणादयः, चत्वारि स्पर्शनरसनामाणचक्षुर्लक्षणानीन्द्रियाणि || येषां ते चतुरिन्द्रियाः-दंशमशकादयः, पञ्च स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः-मत्स्य-12 मकरमनुजादयः । अमीषां चैकादिसञ्जयानामिन्द्रियाणां स्पर्शनादीनामसंव्यवहारराशेरारभ्य प्रायोऽनेनैव क्रमेण लाभ इति सम्प्रत्ययार्थमित्थं क्रमेणैकेन्द्रियाधुपन्यासः । इन्द्रियाणि च द्विधा, तद्यथा-द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि
अनुक्रम
[१७]
॥२३॥
walanaurary.orm
अत्र संसारसमापन्न/संसारी-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-1, ---------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
च, तत्र द्रव्येन्द्रियाणि निवृत्त्युपकरणरूपाणि, तानि च सविस्तरं नन्द्यध्ययनटीकायां व्याख्यातानीति न भूयो व्याख्यायन्ते, भावेन्द्रियाणि क्षयोपशमोपयोगरूपाणि, तानि चानियतानि, एकेन्द्रियाणामपि क्षयोपशमोपयोगरूपमा-18 वेन्द्रियपञ्चकसम्भवात् , केपाश्चित्तत्फलदर्शनात्, तथाहि-बकुलादयो मत्तकामिनीगीतध्वनिश्रवणसविलासकटाक्षनिरीक्षणमुखक्षिप्तसुरागण्डपगन्धाघ्राणरसाखादतनाद्यवयवस्पर्शनतः प्रमोदभावनाकालक्षेपमुपलभ्यन्ते पुष्फफलानि प्रयच्छन्तः, उक्तं च-"ज किर बउलाईणं दीसइ सेसिन्दिओवलम्भोऽवि । तेणऽत्थि तदावरणक्खओवसमसम्भवो। तेसिं ॥१॥" ततो न भावेन्द्रियाणि लौकिकव्यवहारपथावतीणेकेन्द्रियादिव्यपदेशनिबन्धनं, किन्तु द्रव्येन्द्रियाणि, तथाहि-येषामेकं बाह्यं द्रव्येन्द्रियं स्पर्शनलक्षणमस्ति ते एकेन्द्रियाः येषां वे ते द्वीन्द्रियाः एवं यावद्येषां पञ्च ते पञ्चेन्द्रियाः, आह च-"पंचिदिओवि बउलो नरोच सबविसयोवलम्भाओ। तहवि न भण्णइ पश्चिन्दिओत्ति बज्झिन्दियाभावा॥१॥"
से किन्तं एगेन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा, एगेन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पश्चविदा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविका| इया आउक्काइया तेउक्काइया वाउकाइया वणस्सइकाइया (सू०१०) ' अथ का सा एकेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ?, सूरिराह-एकेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना पञ्चविधा
१ यत्किल बकुलादीनां दृश्यते शेषेन्द्रियोपलम्भोऽपि । तेनास्ति तदावरणक्षयोपशमसंभवस्तेषाम् ॥ १॥ २ पञ्चेन्द्रियोऽपि बकुलो नर इव सर्वविषयोपलम्भात् । तथापि न भण्यते पञ्चेन्द्रिय इति बालेन्द्रियाभावात् ॥ १ ॥
अनुक्रम
[१८
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
| यप्रज्ञा.
प्रज्ञापना- प्रज्ञप्ता, एकेन्द्रियाणां पञ्चविधत्वात् , तदेव पञ्चविधत्वमाह-'तंजहे'स्यादि, पृथिवी-काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता प्रज्ञापयाः मल- सैय कायः-शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः, खार्थे इकप्रत्ययः, आपो-द्रवास्ताच नापदे एयवृत्ती. प्रतीता एव ताः कायः-शरीरं येषां तेऽप्कायाः अकाया एवाप्कायिकाः, तेजो-बहिः तदेव कायः-शरीरं येषां ते
केन्द्रिय॥२४॥
तेजस्काया तेजस्काया एव तेजस्कायिकाः, वायुः-पवनः स एव कायो येषां ते वायुकायाः वायुकाया एच वायुका-IN विकाः, बनस्पतिः-लतादिरूपः स एव काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः वनस्पतिकाया एव वनस्पतिका
| पृथ्वीकायिकाः । इह सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः पृथिवीकायिकानां प्रथममुपादानं, तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितत्वादप्कायिकानां, अप्कायिकाथ तेजःप्रतिपक्षभूतास्तत्तदनन्तरं तेजस्कायिकानामुपादानं, तेजश्च वायुसम्पर्कतः प्रवृद्धिमुपयाति तत
(सू.११) ISI एतदनन्तरं वायुकायिकग्रहणं, वायुध दूरस्थितो वृक्षशाखादिकम्पनतो लक्ष्यते ततस्तदनन्तरं वनस्पतिकायिकोपा-15॥
दानं ॥ सम्प्रति पृथिवीकायिकमनवबुध्यमानस्तद्विषयं शिष्यः प्रश्नं करोति| से किं तं पुढविकाइया, पुढविकाइया दुविहा पण्णचा, तंजहा-सुहुमपुडविकाइया य वादरपुढविकाइया य । (सू० ११)
अघ के ते पृथिवीकायिकाः, सूरिराह-पृथिवीकायिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकाधिकाथा ॥ २४ ॥ बादरपृथिवीकायिकाच, सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माः बादरनामकर्मोदयाद्वादराः, कर्मोदयजनिते खल्वेते सूक्ष्मबादरत्वे नापेक्षिके बदरामलकयोरिव, सूक्ष्माश्च ते पृथिवीकायिकाश्च सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, चशब्दः खगतपर्या
अनुक्रम
[१९]
| अत्र पृथ्विकाय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
Recene
[११]
सापर्याप्तभेदसूचकः, बादराश्च ते पृथिवीकायिकाश्च बादरपृथिवीकायिकाः, अत्रापि चशब्दः शर्करावालुकादिभेदसूचकः, तत्र, सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः समुद्रकपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत्सकललोकव्यापिनो, बादराः प्रतिनियतदेशचारिणः, तच प्रतिनियतदेशचारित्वं द्वितीयपदे प्रकटयिष्यते ॥ तत्र सूक्ष्मपृथिवीकालिकानां खरूपं जिज्ञासु-18 रिदमाह
से किन्तं सुहुमधुढविकाइया, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पञ्जत्तसुहुमपुढविकाइया य अपञ्जत्चसुहुमपुढविकाइया य, से तं सुहुमपुढविकाइया । (सू. १२)
अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः?, सूरिराह-सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्चापर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाच, तत्र पर्याप्तिर्नाम आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयादुपजायते, किमुक्तं भवति ?-उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतः तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेषः आहारादिपुद्गलखलरसरूपताऽऽपादानहेतुर्य-| थोदरान्तर्गतानां पुद्गल विशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः, सा च पर्याप्तिः पोढा-आहारपर्याप्सिः शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्यासिः प्राणापानपर्याप्तिर्भाषापर्याप्तिर्मनःपर्याप्तिश्च, तत्र यया वाह्यमाहारमादाय खलरसरूप-18 तया परिणमयति सा आहारपर्याप्सिः, यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसमधातुरूपतया
अनुक्रम [२०]
SO900000
प्र.५
L
asarary.orn
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
नापदे सू
प्रत
|क्ष्मपृथ्वी
सूत्रांक
॥२५॥
[१२]]
श्रीप
परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः, यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः, १ प्रज्ञापतथा चायमर्थोऽन्यत्रापि भङ्ग्यन्तरेणोक्तः, पञ्चानामिन्द्रियाणां प्रायोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिवर्तितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरिति, यया पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यान् पुद्गलानादायोच्छ्वासरूपतया परिणम
कायपु. य्यालम्च्य च मुञ्चति सा उच्छासपर्याप्तिः, यया तु भाषाप्रायोग्यान पुद्गलानादाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्च्य च
(सू.१२) मुञ्चति सा भाषापर्यासिः, यया पुनर्मनःप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मन:पर्यासिः, एताच यथाक्रममेकेन्द्रियाणां संज्ञिवर्जानां द्वीन्द्रियादीनां सजिनां चतुःपञ्चषट्सङ्ख्या भवन्ति, उक्तं च । प्रज्ञापनामूलटीकाकृता-“एकेन्द्रियाणां चतस्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च सजिनां पट्" इति, उत्पत्तिप्रथमसमय एव 18 एता यथायथं सर्वा अपि युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते, क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति, तद्यथा-प्रथममाहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि, आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पत्तिमुपपद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तर्मु-18 न कालेन, अथाहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यते इति कथमवसीयते ?, उच्यते, यत आहारपदे द्वितीयोद्देशके सूत्रमिदम्-आहारपजत्तिए अपज्जत्तए णं भंते ! किं आहारए अणाहारए ?, गोयमा ! नो आहारए अणाहारए ॥२५॥ इति. तत आहारपर्याप्त्याऽपर्याप्सो विग्रहगतावेयोपपद्यते, नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रमागतस्य प्रथमसमय एवाहारकत्वात् , तत एकसामयिकी आहारपर्याप्तिनिवृत्तिः, यदि पुनरुपपातक्षेत्रमागतोऽप्याहारपर्याप्त्याऽपर्याप्तः
अनुक्रम [२१]
स
Sen
Uma
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं [-], ---------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]]
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स्यात् तत एवं सति व्याकरणसूत्रमित्थं भवेत्-"सिय आहारए सिय अणाहारए' यथा शरीरादिपर्याप्तिषु 'सिय आ-18 हारए सिय अणाहारए" इति, सर्वासामपि च पर्याप्तीनां परिसमासिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, पर्याप्सयो विद्यन्ते येषां ते पर्यासा "अभ्रादिभ्य' इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः, पर्याप्तकाश्च ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च पर्याप्तकसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, चशब्दो लब्धिपर्याप्तकरणपर्याप्तरूपस्वगतभेदद्वयसूचकः, ये पुनः खयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्यासाः अपर्याप्ताश्च ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्चापर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, चशब्दः करणलब्धिनिवन्धनखगतभेदद्वयसूचका, तथाहि-द्विविधाः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्सास्तद्यथा-लब्ध्या करणैश्च, तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तापन्निवर्तयन्ति अथचावश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः, उपसंहारमाह-'सेत्त' मित्यादि, त एते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः॥ तदेवं सूक्ष्मपृथिवीकायिकानभिधाय । सम्प्रति बादरपृथिवीकायिकानभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह
से कि तं बादरपुढविकाइया ?, बादरपुढविकाइया दुविहा पनचा, तंजहा-सण्हबादरपुढधिकाइया य खरवादरपुढविकाइया य (सू.१३) | अथ के ते बादरपृथिवीकायिकाः, सूरिराह-यादरपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्लक्षणवादरपृथिवीकायिकाश्च खरबादरपृथिवीकायिकाच, तत्र श्लक्ष्णा नाम चूर्णितलोष्ठकल्पा मृदुपृथिवी तदात्मका जीवा अप्युपचा
अनुक्रम [२१]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
सूत्राक
॥२६॥
[१३]
दीप
रतः श्लक्ष्णास्ते च ते वादरपृथिवीकायिकाश्च श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, अथवा श्लक्ष्णा च सा बादरपृथिवी च २ सा १ प्रज्ञापकायः-शरीरं येषां ते श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायाः त एव स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात् श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः, चशब्दो नापदे श्लवक्ष्यमाणस्वगतानेकभेदसूचकः, खरा नाम पृथिवीसङ्घातविशेष काठिन्यविशेष चापना तदात्मका जीवा अपि खरा
क्ष्णपृथ्वी. |स्ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरवादरपृथिवीकायिकाः, अथवा पूर्ववत्प्रकारान्तरेण समासः, चशब्दः खगतष
(सू. १४) क्ष्यमाणचत्वारिंशद्भेदसूचकः॥
से किं तं सहबायरपुढचिकाइया ?, सहबायरपुढविकाइया सत्चविहा पन्नता, तंजहा-किण्हमत्तिया नीलमत्तिया लो-11 हियमत्तिया हालिद्दमत्तिया सुकिल्लमत्तिया पाण्डुमत्तिया पणगमत्तिया, सेत्तं सहबादरपुढविकाइया । (मू. १४).
अथ के ते श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः, सूरिराह-श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तदेव सप्तवि-1 धत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति, कृष्णमृत्तिकाः-कृष्णमृत्तिकारूपा एवं नीलमृत्तिका लोहितमृत्तिका हारिद्रमृत्तिका शुक्लमृत्तिकाः, इत्थं वर्णभेदेन पञ्चविधत्वमुक्तं, पाण्डुमृत्तिका नाम देशविशेपे या धूलीरूपा सती पाण्डू इति प्रसिद्धा, ISI तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात् पाण्डुमृत्तिकेत्युक्ताः, 'पणगमट्टियत्ति' नद्यादिपूरप्लाविते देशे नद्यादिपूरेऽपगते || यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो जलमलापरपर्यायः पङ्कः स पनकमृत्तिका तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात्पनकमृत्तिकाः, निगमनमाह-सेत्तं सहवायरपुढविकाइया, सुगमम् ॥
अनुक्रम [२२]
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Hristianetaram.org
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं 1-1, ---------------- मूलं [१५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
+
गाथा:
SO900000000000000000ease
से किं तं खरवायरपुढविकाइया ?, खरबायरपुढविकाइया अणेगविहा पण्णता, तंजहा-पुढवी य सकरा वालुया य उवले | सिला य लोणूसे । अय तंब तय सीसय रुप्प सुबन्ने य वइरे य १४ ॥१॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले । अन्मपडलब्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा ८॥२॥ गोमेञ्जए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले भुयमोयग। इन्दनीले य९॥३॥ चंदण गेरुय हंसगब्भ पुलए सोगन्धिए य बोद्धच्चे | चन्दप्पमवेरुलिए जलकंते सरकते य९॥४॥४०॥ |जयावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पनत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थणं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपचा | तत्थ णं जे ते पजतगा एतेसिं वन्नादेसेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, सझे आई जोणिप्पमुहसत-18 | सहस्साई, पजत्तगणिस्साए अपजत्तमा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असखेजा, से सं खरवायरपुढविकाइया, से वायर| पुढविकाइया, सेनं पुढविकाइया। (मू०१५) __अथ के ते खरवादरपृथिवीकायिकाः १, सूरिराह-खरवादरपृथिवीकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, चत्वारिंश
झेदा मुख्यतया प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, तानेव चत्वारिंशद्भेदानाह-'तंजहा पुढवी य'इत्यादि गाथाचतुष्टयं, पृथिवीति |भामा सत्यभामावत् शुद्धपृथिवी च नदीतटभित्त्यादिरूपा, चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुचये १ शर्करा-लघूपलशकलरूपा २ वालुका-सिकताः ३ उपलः-टकाधुपकरणपरिकर्मणायोग्यः पाषाणः ४ शिला-घटनयोग्या देवकुलपीठाधुपयोगी महान् पापाणविशेषः ५ लवणं-सामुद्रादि ६ ऊपो-यदशादूषरं क्षेत्रम् ७ अयस्तानत्रपुसीसकरूप्यसुव
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अनुक्रम [२४-२९]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [१५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
गाथा:
प्रज्ञापना- नि प्रतीतानि १३ बज्रो-हीरकः १४ हरितालहिङ्गुलकमनःशिलाः प्रतीताः १७ सासगं-पारदः १८ अञ्जनं- १ प्रज्ञापयाः मल
सौवीराअनादि १९ प्रवालं-विद्रुमः २० अभ्रपटलं-प्रसिद्धम् २१ अभ्रवालुका-अभ्रपटलमिश्रा वालुका २२ 'वायरकाये नापदे खयवृत्ती. इति बादरपृथिवीकायेऽमी भेदा इति शेषः, मणिविहाणा'इति चशब्दस्य गम्यमानत्वान्मणिविधानानि च-मणिभे
रपृथ्वी
काय. ॥२७॥
दाश्च बादरपृथिवीकायभेदत्वेन ज्ञातव्याः। तान्येव मणिविधानानि दर्शयति-'गोमिज्जए'इत्यादि, गोमेजकः २३ चः समुचये रूचकः २४ अङ्क: २५ स्फटिकः २६ चः पूर्ववत् लोहिताक्षः २७ मरकतः २८ मसारगलुः २९ भुजमो-1 चक: ३० इन्द्रनीलश्च ३१ चन्दनो ३२ गैरिको ३३ हंसगर्भः ३४ पुलकः ३५ सौगन्धिकश्च ३६ चन्द्रप्रभो ३७ वैडूर्यो ३८ जलकान्तः ३९ सूर्यकान्तश्च ४०, तदेवमाद्यगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदा उक्ताः, द्वितीयगाथयाऽष्टी हरितालादयः, तृतीयगाथया गोमेज्जकादयो नव, तुर्यया गाथया नवेति सङ्ख्यया चत्वारिंशत् ४०, 'जे यावन्ने तहपगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकारा मणिभेदाः-पद्मरागादयस्तेऽपि खरवादरपृथिवीकायत्वेन वेदितव्याः 'ते समासओ'इत्यादि, 'ते' सामान्यतो बादरपृथिवीकायिकाः 'समासतः' सङ्केपेण द्विविधाः प्रज्ञताः, तद्यथा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाच, तत्र येऽपर्याप्तकाते खयोग्याः पर्यासीः साकल्येनासंप्राप्ता अथवाऽसंप्राप्ता इति-विशिष्टान् वर्णादी-18॥२७॥
ननुपगताः, तथाहि-वर्णादिभेदविवक्षायामेते न शक्यन्ते कृष्णादिना वर्णभेदेन व्यपदेष्टुं, किं कारणमिति चेद्, 18 उच्यते, इह शरीरादिपर्यासिषु परिपूर्णासु सतीषु वांदराणां वर्णादिविभागः प्रकटो भवति नापरिपूर्णासु, ते चाप
दीप
अनुक्रम [२४-२९]
A
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: -,---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [१५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
र्याप्सा उच्छ्रासपर्याप्त्याउपर्याप्सा एव नियन्ते, ततो न स्पष्टतरवर्णादिविभाग इत्यसंप्राप्ता इत्युक्तं, ननु कस्मादुच्छ्रासपर्याप्त्यैवापर्याप्सा म्रियन्ते नार्वाक् शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यामपर्यासा अपि ?, उच्यते, यस्मादागामिभवायुर्ववा म्रियन्ते सर्व एव देहिनो नाबवा, तच्च शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायाति नान्यथेति, अन्ये तु व्याचक्षते-सामान्यतो वर्णादीनसंप्राप्ता इति, तच न युक्तं, यतः शरीरमात्रभाविनो वर्णादयः, शरीरं च शरीरपर्याप्त्या सातमिति । 'तत्व णं जे ते पज्जत्तगा'इत्यादि, तत्र ये ते पर्याप्तका:-परिसमाप्तखयोग्यसमस्तपर्यासयः, एतेषां 'वर्णादेशेन' वर्णभेदविवक्षया एवं गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन 'सहस्रायशः' सहस्रसङ्ख्यया विधानानि-भेदाः, तद्यथा-वर्णाः कृष्णादिभेदात्पञ्च गन्धौ सुरभीतरभेदावी रसाः तिक्तादयः पञ्च स्पर्शा मृदुकर्कशादयोऽष्टी, एकैकस्मिंश्च वर्णादौ | तारतम्यभेदेनानेकेऽवान्तरभेदाः, तथाहि-भ्रमरकोकिलकज्जलादिषु तरतमभावात् कृष्णकृष्णतरकृष्णतमेत्यादिरूप-IN तया अनेके कृष्णभेदाः, एवं नीलादिष्वप्यायोज्यं, तथा गन्धरसस्पर्शष्वपि, तथा परस्परं वर्णानां संयोगतो धूसरकबुरत्वादयोऽनेकसङ्ख्या भेदाः, एवं गन्धादीनामपि परस्परं गन्धादिभिः समायोगाद् , अतो भवन्ति वर्णाद्यादेशैः सहसायशो भेदाः, 'सोजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साईति सङ्खोयानि योनिप्रमुखाणि-योनिद्वाराणि शतसहस्राणि, तथाहि-एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्श च संवृता योनिः पृथिवीकायिकानां, सा पुनखिधा-सचित्ता अचित्ता मिश्रा च, पुनरेकैका त्रिधा-शीता उष्णा शीताष्णा, शीतादीनामपि प्रत्येकं तारतम्यभेदादनेकभेदत्वं, केवलमेवं विशि
गाथा:
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अनुक्रम [२४-२९]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ---------------- उद्देशक: -1, ---------------- दारं 1-1, ---------------- मूलं [१५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
गाथा:
अज्ञापना- टवर्णादियुक्ताः सङ्ख्यातीता अपि खस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयो जातिमधिकृत्यैकैव योनिर्गण्यते, ततः सङ्खयेयानि १ प्रज्ञापयाः मल- पृथिवीकायिकानां योनिशतसहस्राणि भवन्ति, तानि च सूक्ष्मवादरगतसर्वसङ्ख्यया सप्त, 'पजत्तगनिस्साए'इत्यादि,
नापदेखय० वृत्ती. पर्याप्तकनिश्रयाऽपर्याप्तका व्युत्क्रामन्ति-उत्पद्यन्ते, कियन्त इत्याह-यत्रैकः पर्याप्तकसत्र नियमात्तन्निश्रयाऽसङ्खये
रपृथ्वी. ॥२८॥
याः-सङ्ग्यातीता अपर्याप्तकाः, उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि निगमनत्रयं सुगमम् ॥ तदेवमुक्ताः पृथिवीकायिकाः, सम्प्रत्यपकायिकप्रतिपादनार्थमाह
अप्काय .से कि त आउकाइया, आउकाइया दुविहा पण्णता, तंजहा-हुमआउकाइया य बादरआउकाइया य । से किं तं मुहुमआउ- (सू.१६) काइया, मुहुमाउका० दुविहा पत्रचा, तंजहा-पजत्तसुहुमाउकाइया य अपज्जत्तमुहुमआउकाइया य, सेत्तं सुहुमआउकाइया । से किं तं बादराउकाइया',२ अणेगविहा पत्रचा, तंजहा-उस्सा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए सीतोदए उसिणोदए खारोदए खट्टोदए अम्बिलोदए लवणोदए वारुणोदए खीरोदए घओदए खोतोदए रसोदए, जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ
विहा पण्णत्ता तं०-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पजत्तमा एतेसि वण्णादेपा सेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेजाई जोणिप्पमुहसयसहसाई, पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा। वकर्मति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखिजा, से तं बादरआउकाथिया, सेतं आउकाइया (सू०१६).
॥२८॥ | सुगमम् , 'उस्सा' इत्यवश्यायः हः 'हिम'स्त्यानोदकं 'महिका' गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षः करको-घनोपलः हरतनुर्यो भुवमुद्भिय गोधूमाकुरतॄणाग्रादिषु बद्धो बिन्दुरुपजायते 'शुद्धोदकं' अन्तरिक्षसमुद्भवं नद्यादिगतं च, तच स्पर्शरसादि-11
दीप
अनुक्रम [२४-२९]
For P
OW
अत्र अप्काय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------- उद्देशक: [-], ---------------- दारं -1, ---------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६]]
688288900905
भेदादनेकभेदं, तदेवानेकभेदत्वं दर्शयति-शीतोदक' नदीतडागावटयापीपुष्करिण्यादिपु शीतपरिणामं 'उष्णोदका स्वभावत एव क्वचिन्निर्झरादाबुष्णपरिणामं 'क्षारोदक' ईपलवणखभावं यथा लाटदेशादी के चिदवटेषु 'खट्टोदकम्' ईषदम्लपरिणामं 'अम्लोदकं' खभावत एवाम्लपरिणाम काजिकवत् लवणोदकं लवणसमुद्रे वारुणं वारुणसमुद्रे क्षीरोदकं क्षीरसमुद्रे क्षोदोदकं इक्षुसमुद्रे रसोदकं पुष्करवरसमुद्रादिपु, येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः-रसस्पर्शादिभेदभिन्ना घृतोदकादयो बादरा अप्कायिकाः ते सर्वे चादराकायिकतया प्रतिपत्तव्याः, ते समासओ इत्यादि प्राग्वत् , नवरं सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि इत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि ॥ उक्ता अप्कायिकाः, सम्प्रति तेजस्कायिकान् प्रतिपिपादयिपुराह
से किं तं तेऊकाइया?, २ दुविहा पन्नता, तंजहा-सहमतेऊकाइया य बादरतेऊकाइया य । से किन्तं सुहुमतेकाइया, २ दुविहा पन्नता, संजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, सेत्तं सुहुमतेऊकाइया । से किं तं बादरतेऊकाइया',२ अणेगविहा पण्णत्ता, जहा-इङ्गाले जाला मुम्मुरे अच्ची अलाए सुद्धागणी उका विजू असणी णिग्याए संघरिससमुट्टिए सूरकन्तमणिणिस्सिए, जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णता, तं-पजत्तगा य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्व गंजे ते पजत्तमा एएसिणं वनादेसेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई सद्देआई जोणिप्पमुहसयसह8 स्साई, पजत्तगणिस्साए अपजत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखिजा, सेतं चादरतेऊकाइया, से रोऊकाइया सू०१७1०
अनुक्रम [३०]
REmirandi
अत्र तेउकाय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
दीप
अनुक्रम
[३१]
दारं [-],
• मूलं [१७]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [१], ----------------- - उद्देशक: [ - ], --------------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५] उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥ २९ ॥
४
सुगमं, नवरमङ्गारो-विगतधूमः 'ज्वाला' जाज्वल्यमानखादिरादिज्वाला अनलसम्बद्धा दीपशिखेत्यन्ये 'सुर्मुरः" | फुफकादौ भस्ममिश्रितानिकणरूपः 'अर्चिः' अनलाप्रतिवद्धा ज्याला 'अलात' उल्मुकं 'शुद्धाग्निः' अयःपिण्डादौ 'उल्का' चुडली विद्युत् प्रतीता 'अशनिः' आकाशे पतन् अग्निमयः कणः निर्घातो वै क्रियाशनिप्रपातः सङ्घर्षसमुत्थि तः- अरण्यादिकाष्ठनिर्म्मथनसमुद्भूतः सूर्यकान्तमणिनिसृतः - सूर्यखरकिरणसम्पर्के सूर्यकान्तमणेर्यः समुपजायते, 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः - एवंप्रकारास्तेजस्कायिकास्तेऽपि वादरतेजस्कायिकतया वेदितव्याः, 'ते समासज' इत्यादि प्राग्वत्, नवरमत्रापि सङ्खधेयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि सप्त वेदितव्यानि ॥ उक्ताः तेजस्कायिकाः, वायुकायिकप्रतिपादनार्थमाह
सेकिन्तं वाकाइया १, २ दुबिहा पत्रचा, तंजहा - सुहुमवाउकाइया य बादरवाउकाइयाय । से किन्तं सुमवाउकाइया ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पत्तगमुहुमवाउकाइया य अपजत्तगमुहुमवाउकाइया य, सेतं सुहुमवाउकाइया । से किन्तं बादरवाउकाइया १, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा पाइणवाए पडीणवाए दाहिणवाए उदीणवाए उडवाए अहोवाए तिरियवाए विदिसीवाए बाउम्भामे वाउकलिया वायमंडलिया उकलियावाए मंडलियाबाए गुंजावाए झंझावाए संवट्टवाए घणवाए तणुवाए सुद्धवाए, जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुबिहा पत्रचा, तंजहा-पत्तगा य अपजसगा य, तत्थ जे ते अपजत्तगासे णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पजत्तगा एतेसिणं वण्णादेसेणं गन्धादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेजाई
अत्र वायुकाय जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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१ प्रज्ञापनापदे ते
जस्काय.
(सू. १६) वायुकाय. (सू. १७)
॥ २९ ॥
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[१८]
दीप
अनुक्रम
[३२]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
--------- उद्देशक: [ - ], -----
- दारं [-1,
- मूलं [१८]
पदं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
जोणिप्पमुहस्यसहस्साई, पजत्तगनिस्साए अपजत्तया वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा, से तं बादरवाउकाइया, से तं बाउकाइया ( सू० १८ )
प्रतीतं, नवरं 'पाईणवाए' इति यः प्राच्या दिशः समागच्छति वातः स प्राचीनवातः एवमपाचीनवातः दक्षिणवातः उदीचीनवातश्च वक्तव्यः, ऊर्ध्वमुद्गच्छन् यो वाति वातः स ऊर्ध्ववातः, एवमधोत्रात तिर्यग्वातावपि परिभा - वनीयौ, 'विदिग्यातो' यो विदिग्भ्यो वाति 'वातोद्धामः' अनवस्थितवातः वातोत्कलिका-समुद्रस्येव वातोत्कलिका 'वातमण्डली' वातोली 'उत्कलिकावात' उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रितो यो वातो 'मण्डलीकावातो' | मण्डलिकाभिर्मूलत आरभ्य प्रचुरतराभिः समुत्थो यो वातः 'गुञ्जवातो' यो गुञ्जन् शब्दं कुर्वन् वाति 'झन्झावातः सवृष्टिरशुभनिष्ठुर इत्यन्ये, 'संवर्त्तकवातः' तृणादिसंवर्तनखभावः 'घनवातो' धनपरिणामो रत्नप्रभा पृथिव्याद्यधोवर्त्ती 'तनुवातो' बिरलपरिणामो घनवातस्याधः स्थायी 'शुद्ध वातो' मन्दस्तिमितो बस्तिदृत्यादिगत इत्यन्ये, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वत्, अत्रापि सङ्घपेयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि सप्तावसेयानि ॥ उक्ता वायुकायिकाः, सम्प्र|तिवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाह
-------
से किं तं वणस्सइकाइया ?, वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- मुहुमवणस्सइकाइया य चायरवणस्सइकाइया य (०१९) से किन्तं सुहुमवणस्सइकाइया १, २ दुबिहा पण्णत्ता, तंजा-पञ्जन्तगमुहुमवणस्सइकाइया य अपजत्तगसुहुमवणस्सइकाइया य,
अत्र वनस्पतिकाय जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
For Parts Only
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[१९-२२]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम [३३-३७]
पदं [१],
------ उद्देशक: [ - ],
मूलं [१९-२२ ] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥ ३० ॥
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
• दारं [-], ---------
Education!
सेतं सुहुमवणस्सइकाइया ( सू० २०) से किन्तं चादरवणस्सइ० १, २ दुविहा पन्नत्ता, तंजा- पत्तेयसरीरवादरवणस्सइ० साहारणस० बादरवणस्सह० (सू० २१ ) से किन्तं पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइया १, २ दुवालसविहा पन्नत्ता, तंजहा- रुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पब्वगा चैव । तणवलयहरियओस हिजलरुहकुहणा व बोद्धव्या ॥ १ ॥ ( सू० २२ )
सुगमं यावत् 'सेत्तं सुदुमवणस्सइकाइया, ' 'से किन्त' मित्यादि, अथ के ते बादरवनस्पतिकायिकाः १, २ द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाश्च साधारणशरीरवादरवनस्पतिकायिकाथ, तत्रैकमेकं जीवं प्रति गतं प्रत्येकं प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः ते च ते वादरवनस्पतिकायिकाश्च प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः, चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः, समानं तुल्यं प्राणापानाद्युपभोगं यथा भवति एवमा - समन्तादे की भावेनानन्तानां जन्तूनां धारणं-सङ्ग्रहणं येन तत्साधारणं साधारणं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः ते च ते बादरवनस्पतिकायिकाश्च साधारणवादरवनस्पतिकायिकाः, चशब्दोऽत्रापि स्वगतानेकभेदसूचकः । 'से किन्त' मित्यादि, अथ के ते प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः १, सूरिराह-प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा'रुक्खे' त्यादि, 'वृक्षा:' चूतादयः 'गुच्छा' वृन्ताकीप्रभृतयः 'गुल्मानि' नवमालिकाप्रभृतीनि 'लता' चम्पकलतादयः, इह येषां स्कन्धप्रदेशे विवक्षितोर्ध्वगतैकशाखाव्यतिरेकेणाऽन्यच्छाखान्तरं परिस्थूरं न निर्गच्छति ते लता वि ज्ञेयास्ते च चम्पकादय इति, 'वहयः' कूष्माण्डीत्रपुपीप्रभृतयः, 'पर्वगा' इक्ष्वादयः, 'तृणानि' कुशजंजुकाऽर्जुनादीनि
For Parata Use Only
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१ प्रज्ञाप
नापदे वनस्पति. ( सू. १९ २०-२१ २२ )
॥ ३० ॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-, ------------- मूलं [२३...] + गाथा: (१२-१४) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक [१९-२२]
गाथा
'वलयानि' केतकीकदल्यादीनि तेषां हि त्वचा वलयाकारेण व्यवस्थितेति, 'हरितानि' तण्डुलीयकवास्तुलप्रभृतीनि 'औषध्यः' फलपाकान्ताः ते च शाल्यादयः, जले रुहन्तीति जलरुहा:-उदकावकपनकादयः 'कुहणा' भूमिस्फोटाभिधानाः ते चाकायप्रभृतयः। से किन्तं रुक्सा १,२ दुविहा पण्णता, तंजहा-एगहिया य बहुवीयगा य । से किं तं एगहिया ?, २ अणेगविहा पनत्ता, तंजहा-'णिबजंयुकोसंबसालअंकुल्ल पीलु सेलू य । सल्लइमोयइमालुय बउल पलासे करंजे य ॥१२॥ पुजीवयरिद्वे बिहेलए हरिडए य भिल्लाए । उंबेभरिया खीरिणि बोद्ध धायइ पियाले ॥ १३ ॥ पूक्ष्यनिवकरले सुण्हा तह सीसचा य असणे य । पुनागनागरुक्खे सीवणि तहा असोगे य ॥ १४ ॥जे यावण्णे तहप्पगारा, एएसिणं मूलावि असंखेजजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालावि पत्ता पचेयजीविया पुण्फा अणेगजीविया फला एगहिया, से तं एगहिया।
तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इतिन्यायात् प्रथमतो वृक्षप्रतिपादनार्थमाह-से किं तमि'स्यादि, अथ के ते वृक्षाः १, सूरिराह-वृक्षा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एकास्थिकाश्च बहुवीजकाच, तत्र फलं फलं प्रति एकमस्थि येषां ते एकास्थिकाः, चशब्दो वक्ष्यमाणखगतानेकभेदसूचकः, तथा प्रायोस्थिवन्धमन्तरेणैवमेव फलान्तर्वर्तीनि बहूनि बीजानि येषां| ते बहुबीजकाः, शेषाद्देति कप्रत्ययः, अत्रापि चशब्दो वक्ष्यमाणखगतानेकभेदसूचकः ॥ तत्रैकास्थिकप्रतिपादनार्थमाहअथ के ते एकास्थिकाः१, २ अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-णिवंबे सादि गाथात्रयं, तत्र निम्बाम्रजम्बुकोश
दीप
19
अनुक्रम [३८-४२]
प्र.६
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[१९-२२]
गाथा
दीप
अनुक्रम
[३८-४२]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
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पदं [१], ----- उद्देशकः [-], --------दारं [-], - मूलं [ २३...] + गाथा: ( १२-१४ ) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
8
स्वाः प्रतीताः शालः- सर्जः 'अङ्कोल'त्ति अङ्कोटः प्राकृतत्वात्सूत्रे ठकारस्य लादेशः, 'अङ्कोठे ल' इति वचनात्, पीलु:प्रतीतः शेलुः - लेप्मातकः सलकी -गजप्रिया मोचकीमालुको देशविशेषप्रतीतौ बकुलः - केसरः पलाशः - किंशुकः य० वृत्ती. 8 करञ्जो - नक्तमालः पुत्रजीवको - देशविशेषप्रसिद्धः अरिष्टः- पिचुमन्दः विभीतकः - अक्षः हरीतकः - कोङ्कणदेशप्रसिद्धः कषायवहुलः भल्लातको यस्य महातकाभिधानानि फलानि लोकप्रसिद्धानि उम्बेभरिकाक्षीरणीधातकीप्रियालपूति(निम्ब) करञ्जश्लक्ष्णाशिंशपाऽशनपुन्नागनागश्रीपर्ण्यशोका लोकप्रतीताः । 'जे यावण्णे तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः - एवंप्रकारास्तत्तद्देशविशेषभाविनः ते सर्वेऽप्येकास्थिका वेदितव्याः, एतेषाम् - एकास्थिकानां मूलान्यप्यसङ्घषेयजीव कानि-असङ्ख्येयप्रत्येकशरीरजीवात्मकानि एवं कन्दा अपि स्कन्धा अपि त्वचोऽपि शाखा अपि प्रवाला अपि प्रत्येकमसङ्घयेयप्रत्येक शरीरजीवकाः, तत्र मूलानि यानि कन्दस्याधस्ताद् भूमेरन्तः प्रसरन्ति तेषामुपरि कन्दास्ते च लोकप्रतीताः, स्कन्धाः स्थुडाः, त्वचः - छल्लयः शाला:- शाखाः प्रबालाः - पलवाङ्कुराः 'पत्ता पत्तेयजीवय'त्ति पत्राणि प्रत्येकजीविकानि-एकैकं पत्रमे (कै) केन जीवेनाधिष्ठितमिति भावः, 'पुप्फा अणेगजीविय'त्ति पुष्पाण्यनेकजीवानि, प्रायः प्रतिपुष्पपत्रं जीवभावात्, फलान्येकास्थिकानि, उपसंहारमाह-'से तं एगट्टिया' सुगमं ॥ बहुवीजकप्रतिपादनार्थमाह
॥ ३१ ॥
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१ प्रज्ञाप
नापदे बादरपुत्ये
कवन.
(सू. २३)
॥ ३१ ॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -, ------------ दारं -1, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१५-१७) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३]
गाथा:
से किं तं बहुबीयगा ?, बहुवीयगा अणगविहा पं० त०-अत्थिय तेंदु कविढे अंबाडगमाउलिंग बिल्ले या। आमलग फणिस दालिम आसोठे उंबर बडे य ॥१५।। णग्गोह गदिरुक्खे पिप्परी सयरी पिलुक्खरुक्खे य । काउंवरि कुत्धुंभरि बोबा देवदाली य ॥१६॥ तिलए लउए छत्तोह सिरीस सत्तवन्न दहि बन्ने । लोद्धवचंदणज्जुणणीमे कुडए कयंबे या॥१७॥ जे यावन्ने तहप्पगारा, एतेसि णं मूलावि असंखेजजीविया कंदावि खंधावि सालावि पत्ता पत्तेयजीविया पुण्फा अणेगजीविया फला बहुवीयगा । से तं बहुबीयगा, से तं रुक्खा ।
अथ के ते बहुबीजकाः १, सूरिराह-बहुबीजका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'अत्थिये'त्यादि गाथात्रय, एते च अस्थिंकतिन्दुककपित्थअम्बाडकमातुलिबिल्वामलँकपनसदाडिमअश्वत्थउदुम्बरवन्यग्रोधेनन्दिवृक्षपिप्पलीशत-15
रीप्लक्षकादुम्बैरिकुस्तुम्मैरिदेवदालिसिलकैलबैकच्छेत्रोपगशिरीपंससर्पर्णदधिपर्णलो, (ड)धर्वचन्दनीर्जुननीपकुटैजकद-1 सम्बकानां मध्ये केचिदतिप्रसिद्धाः केचिद्देशविशेषतो वेदितव्याः, नवरमिहामलकादयो न लोकप्रसिद्धाः प्रतिपत्तव्याः,
तेषामेकास्थिकत्वात्, किन्तु देशविशेषप्रसिद्धा बहुवीजका एव केचन, “जे यावन्ने तहप्पगार'त्ति, येऽपि चान्ये । तथा-प्रकाराः-एवंप्रकारास्तेऽपि च बहुवीजका मन्तव्याः, एतेषामपि मूलकन्दस्कन्धत्वशाखाप्रवालाः प्रत्येकमस-1 येयप्रत्येकशरीरजीवकाः, पत्राणि प्रत्येकजीवकानि, पुष्पाण्यनेकजीवकानि, फलानि बहुवीजकानि, उपसंहारमाह-19 सेत्तमित्यादि निगमनद्वयं सुगम ॥ सम्प्रति गुच्छप्रतिपादनार्थमाह
दीप अनुक्रम [४२-४६]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------ दारं -, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१८-४२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती .
|१प्रज्ञापनापदे वा
दरपुत्ये
सूत्राक [२३]]
कवन.
॥३२॥
गाथा:
Secessemeseseeट
से किं तं गुच्छा, गुच्छा अणेगविहा पन्नत्ता, त०-वाइंगणिसल्लइथुण्डई य तह कत्थुरी य जीभुमणा । रूवी आढइ णीली तुलसी तह माउलिंगी य ॥१८॥ कच्छंभरि पिपलिया अतसी बिल्ली य काइमाईया । वुधू पडोलकंदे विउव्वा वत्थलंदेरे ॥१९॥ पत्तउर सीयउरए हवति तहा जवसए य बोद्धचे । णिग्गुमिअंकतबरि अत्थई चेव तलउदाढा ॥२०॥ सणपाणकासमूग अग्घाडग साम सिंदुवारे य । करमद्दअद्दडूसग करीर एरावणमहित्थे ॥२शा जाउलगमीलपरिली गयमारिणि कुचकारिया भंडा । जीवइ केयह तह गंज पाडलादासिअंकोले ॥२२।जे यावना तहप्पगारा, सेत्तं गुच्छा । से किं तं गुम्मा, गुम्मा अणेगविहा पत्रचा, तं०-सेणयए णोमालिय कोरंटय बंधुजीवगमणोजे । पिइयं पाणं कणयर कुजय तह सिंदुवारे य ।।२३।। जाई मोग्गर तह जूहिया य तह मल्लिया य वासंती । वत्थुल कत्ल सेवाल गंठी मगदंतिया चेव ॥२४।। चंपगजीह णीया कुंदो (कन्दो) तहा महाजाई । एवमणेगागारा हवंति गुम्मा मुणेयव्वा, सेत्तं गुम्मा ॥ से किं तं लयाओ?, लयाओ अणेगविहाओ पन्नचाओ, तं-पउमलया णागलया असोग चंपगलया य चूतलता । वणलय वासंतिलया अइमुत्तय कुंदसामलया ॥ २५ ॥ जे यावने तहप्पगारा, से तं लयाओ।। से किं तं बल्लीओ ?, बल्लीओ अणेगविहाओ पन्नचाओ, तं०-पूसफली कालिंगी तुंची तउसी य एलवालुंकी । घोसाडइ पंडोला पंचंगुलि आयणीली या ॥ २६ ॥ कंगूया कंडइया ककोडई कारियल्लई सुभगा । कुयवाय वागली पाच वल्ली तह देवदाली य ।। २७ ।। अफेया अइमुत्तगणागलया कण्हसूरवल्ली य । संघट्टसुमणसावि य जामुवण कुविंदवल्ली य ॥२८॥ महिय अवावल्ली किण्हछीरालि जयंति गोवाली । पाणी मासाबल्ली गुंजीवल्ली य विच्छाणी ॥२९||ससिपी दुगोचफुसिया गिरिकण्णा मालुया य अंजणई ।दहिफोल्लइ कागलि मोगली
दीप अनुक्रम [४६-८१]
॥३२॥
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Anirasurary.com
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------दारं -1, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१८-४२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३]
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गाथा:
य तह अकबोंदी या॥३०॥जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं वल्लीओ।।से किं तं पश्चगा, पञ्चगा अणेगविहा पन्नता, तं०-इक्खू य इक्खुवाडी धीरुणी तह एकडे य मासे य। सुंठे सरेयवेत्ते तिमिरे सतपोरग णले य॥३शावंसे वेच्छू कणए कंकावंसे य चावबसे य। उदए कुडए विसए कंडा वेल्ले य कल्लाणे॥३२॥ जे यावना तहप्पगारा, से तं पञ्चगा ।। से किं तं तणा?, तणा अणेगविहा पन्नत्ता, तं-संडिय मंतिय होतिय दम्भकुसे पच्चए य पोडइला । अज्जुण असाढएरोहियंसे सुयवेयखीरभुसे॥३३शाएरंडे कुरुविंदे करजर सुंठे तहा विभंगू य । महुरतण छुरय सिप्पिय चोद्धचे संकलितणे य ॥३४॥ जे यावचे तहप्पगारा, से तं तणा ।। से कि तं वलया, वलया अणेगविहा पन्नत्ता,ता-ताल तमाले तकलि तोयली साली व सारकत्ताणे । सरले जावति केतह कदली तह धम्मरुक्खे य ॥३५।। मुयरुक्स हिंगुरुक्खे लवंगुरुक्खे य होह बोद्धये । पूयफली खजुरी चोद्धव्वा णालिएरी य॥३६॥जे यावचा तहप्पगारा, से तं बलया।से कि तं हरिया, हरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तं०-अजोरुह वोडाणे हरितग तह तंदुलेजगतणे य । वत्थल पोरग मजारयाइ पिल्ली य पालक्का ॥३७॥ दगपिप्पली य दब्बी सोचिय साए तहेव मंडुकी । मूलग सरिसव अंबिल साएय जियंतए चेव ॥३८॥ तुलस कण्ह उराले फणिजए अजए य भूयणए । वारगदमणग मखरुयग सतपुफीदीवरे य तहा ॥३९|| जे यावना तहप्पगारा, सेनं हरिया।। से किं तं ओसहिओ, ओसहिओ अणेगविहाओ पन्नताओ, तं०साली वीही गोहुम जब जवजवा कलममूरतिलमुग्गमासणिण्फावकुलत्थआलिसंदसतीणपलिमंधा अयसीकुसुंभकोद्दव कंगूरालगमासकोदंसा सणसरिसवमूलिगवीया, जे यावन्ना तहप्पगारा, से चं ओसहीओ से कितं जलरुहा ?, जलरुहा अणेगविहा पन्नचा, तं०-उदए अवए पणए सेवाले कलंचुया हढे कसेरुया कच्छभाणी उप्पले पउमे कुमुदे णलिणे सुभए सुगंधिए
दीप अनुक्रम [४६-८१]
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आगम
(१५)
ཝཱ + ཝཡྻཱ སྶ
[४६-८१]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [१], ------------- FÈNT: [-]), ------------- ¿T2 [-], ------------- मूलं [... २३] + गाथा : (१८-४२ ) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥ ३३ ॥
Education Int
पोण्डरीय महापुंडरीय सयपत्ते सहस्सपत्ते कल्हारे कोकणदे अरविंदे तामरसे भिसे भिसमुणाले पोक्खले पोक्खलत्थिभुए, जे यावन्ना तहपगारा, से चं जलरुहा ॥ से किं तं कुहुणा ?, कुहुणा अणेगविहा यन्नत्ता, तं आए काए कुहणे कुणके दव्वहलिया सफाए सज्झाए छत्तोए बंसीण हिताकुरए, जे यावन्ना तहप्पगारा, से तं कुहुणा || णाणाविह संठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता । संधावि एगजीवा तालसरलणालिएरीणं ॥ ४० ॥ जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वट्टिया बिट्टी । पत्तेयसरीराणं तहेति सरीरसंघाया ॥ ४१ ॥ जह वा तिलपप्पडिया बहुएहिं तिलेहि संहता संती । पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया ।। ४२ ।। से तं पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया || सू० २३ ॥
गुच्छादिभेदाः प्रायः खरूपत एव प्रतीताः केचिद्देशविशेषादवगन्तव्याः, अत्र वृक्षादिषु यस्यैकस्य नाम गृहीत्वाऽपरत्रापि तन्नाम गृहीतं तत्रान्यो भिन्नजातीयः सद्मामा प्रतिपत्तव्यः, अथवा एकोऽपि कश्चिदनेकजातीयको भवति, यथा --- नालिकेरीतरुरेकास्थिकत्वादेकास्थिकः, त्वचो वलयाकारत्वाच वलयः, ततोऽनेकजातीयत्वादपि तन्नाम निर्दिश्यमानं न विरुध्यते । साम्प्रतमुक्तानुक्तार्थसंग्रहार्थमिदमाह - 'नाणा विहेत्यादि' नानाविधं नानाप्रकारं संस्थानं-आकृतिर्येषां तानि नानाविधसंस्थानानि, 'वृक्षाणा' मिति वृक्षग्रहणमुपलक्षणं, तेन गुच्छगुल्मादीनामपि द्रष्टव्यं, पत्राणि एकजीवकानि एकजीवाधिष्ठितानि वेदितव्यानि, स्कन्धोऽपि एकजीवाधिष्ठितः, किं सर्वेषामपि १, ||नेत्याह - तालसर लनालिकेरीणां तालसरलनालिकेरीग्रहणमुपलक्षणं, तेनान्येषामपि यथाऽऽगममेकजीवाधिष्ठितत्वं
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१ प्रज्ञाप
नापदे बादरपुत्वे
कवन०
(सु. २३)
॥ ३३ ॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------दारं -1, ------------ मूलं [...२३] + गाथा: (१८-४२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३]
स्कन्धस्य प्रतिपत्तव्यं, अन्येषां तु स्कन्धाः प्रत्येकमनेकप्रत्येकशरीरजीवात्मका इति सामर्थ्यादवसेयं, 'खंधावि अणे-12 गजीविया' इति पूर्वमभिधानात् । अथ यदि प्रत्येकमनेकशरीरजीचाधिष्ठितास्ततः कथमेकखण्डशरीराकारा उपलभ्यन्ते इति ?, तदवस्थानखरूपमाह-'जह सगले त्यादि, यथा सकलसर्पपाणां 'श्लेष्ममिश्राणां श्लेष्मद्रव्यविमिश्रितानां वलिता वर्तिरेकरूपा भवति, अथ ते सकलसर्षपाः परिपूर्णशरीराः सन्तः पृथक्खस्वावगाहनयाऽवतिष्ठन्ते 'तथा' अनयेवोपमया प्रत्येकशरीराणां जीवानां शरीरसहाताः पृथक्पृथक्खखावगाहना भवन्ति, बहश्लेषद्रव्यस्थानीयं रागद्वेषोपचितं तथाविधं कर्म सकलसर्षपस्थानीयाः प्रत्येकशरीराः, सकलसर्षपग्रहणं सर्पपवैविक्त्यप्रतिपत्त्या पृथक्खखावगाहकप्रत्येकशरीरवैविक्त्यप्रतिपत्त्यर्थं। अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह-'जह वे'त्यादि, वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसूचने, यथा तिलशष्कुलिका-तिलप्रधाना पिष्टमयी अपूपिका बहुभिस्ति लैमित्रिता सती यथा पृथक २ खवावगाहतिला-18 |त्मिका भवति कथञ्चिदेकरूपा च 'तथा' अनयैवोपमया प्रत्येकशरीरिणां जीवानां शरीरसङ्घाताः कथञ्चिदेकरूपाः पृथक्खखावगाहनाच भवन्ति । उपसंहारमाह-सेत्तमित्यादि सुगम ॥ 'सेत्त'मित्यादि सुगम । सम्प्रति साधारणवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाहसे किं तं साहारणसरीरवादरवणस्सइकाइया, साहारणसरीरवादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पन्नता, तं०-अवए पणए सेवाले लोहिणी मिहुत्यु हुत्थिभागा(य)। अस्सकनि सीहकन्नी सिंउढि तनो मुसुंढी य ।। ४३ ।। रुरु कुण्डरिया जीरु छीर
गाथा:
0920000020292920
Sarasraerasasarenesadorabas
दीप अनुक्रम [४६-८१]
REnatantamana
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-1, ------------दारं -1, ------------ मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक [२४]
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
१प्रज्ञापनापदे साधारणवन. (सू.२४)
गाथा:
विराली तहेव किट्टीया । हालिदा सिंगबेरे य आतूलुगा भूलए इय ॥४४॥ कवूयं कन्नुफड सुमत्तओ क्लइ तहेव महुसिंगी। नीरुह सप्पसुबंधा छिबरुहा चेव बीयरुहा ॥४५॥ पाढामियबालुंकी महुररसा चेव रायवत्ती य । पउमा माढरि दंतीति चंडी किडीति यावरा॥४६॥ मासपण्णि मुग्गपण्णी जीवियरसहे य रेणुया चेव । काओली खीरकाओली वहा भंगी नहीं इस ॥४७॥ किमिरासि भद मुच्छा जंगलई पेलुगा इय । किण्ह पउले य हढे हरतणुया चेव लोयाणी ॥४८॥ कण्हे कंदे बजे सूरणकंदे तहेच खलूरे । एए अर्णतजीचा जे यावने तहाविहा ॥४९॥ तणमूल कंदमूले, वसीमलेत्ति आवरे । संखिजमसंखिञ्जा, बोद्धवाणंतजीवा य ॥ ५० ॥ सिंघाडगस्स गुच्छो अणेगजीवो उ होइ नायब्बो । पत्ता पत्त्यजीया दोनिय जीवा फले भणिया ॥५१॥जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ । अर्णतजीवे उ से मूले, जे यावन्ने तहाविहा॥५२॥ जस्स कंदस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसइ । अणंतजीवे उ से कंदे, जे यावन्ने वहाविहा ॥५३॥ जस्स खंधस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसह । अणंतजीवे उ से खंधे, जे यावन्ने तहाविहा ॥५४॥ जीसे तयाए भग्गाए, समो मंगो पदीसए । अणंतजीवा तया सा उ, जे यावने तहाविहा ।।५५।। जस्स सालस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अणतजीवे य से साले, जे यावने तहाविहा ।।५६।। जस्स पवालस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अणंतजीवे पवाले से, जे यावन्ने तहाविहा ।।५७।। जस्स पत्तस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अर्णतजीवे उ से पत्ते, जे यावन्ने तहाविहा ॥५८॥ जस्स पुफस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अर्णतजीवे उ से पुफे, जे यावने तहाविहा ।। ५९ ॥ जस्स फलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसए । अर्णतजीवे फले से उ, जे यावन्ने तहाविहा ।। ६०॥ जस्स बीयस्स भग्गस्स, सभी भंगो पदीसए । अणंतजीवे उ से बीए, जे यावने वहाविहा ।। ६१।।
दीप अनुक्रम [८२
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-1, ------------दारं -1, ------------ मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२४]
गाथा:
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जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगो(गे) पदीसए । परित्तजीवे उ से मूले, जे यावन्ने तहाविहा ॥६२।। जस्स कंदस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उ से कंदे, जे यावन्ने तहाविहा ।।६३।। जस्स खंधस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उसे खंधे, जे यावन्ने तहाविहा॥६४॥ जीसे तयाए भग्गाए, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवा तया साउ,जे यावन्ने तहाविहा ॥६५॥ जस्स सालस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परिचजीवे उ से साले, जे यावन्ने तहाविहा ॥६६॥ जस्स पवालस्स भग्गस्स, हीरोभंगो पदीसए। परित्तजीवे पवाले उ, जे यावने तहाविहा ।।६७।। जस्स पत्तस्स भग्गस्स, हीरो मंगो पदीसए । परित्तजीवे उ से पत्ते, जे यावन्ने तहाविहा ॥६८।। जस्स पुष्फस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उसे पुफे, जे यावन्ने तहाविहा ॥६९॥ जस्स फलस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे फले से उ, जे यावन्ने तहाविहा ||७०।। जस्स बीयस्स भग्गस्स, हीरो भंगो पदीसए । परित्तजीवे उसे बीए, जे यावन्ने तहाविहा ।।७१।। जस्स मूलस्स कट्ठाओ, छल्ली बहुलतरी भवे । अणंतजीवा उ सा छल्ली, जे यावने, तहाविहा ।।७२।। जस्स कंदस्स कहाओ, छल्ली चहलतरी भवे । अणंतजीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ने तहाविहा ।।७३|| जस्स खंधस्स कहाओ, छल्ली बहलतरी भवे । अणतजीवा उ सा छाली, जे यावन्ना तहाविहा ॥७॥ जीसे सालाए कहाओ, छल्ली बहलतरी भवे । अर्णतजीवा उ सा छली. जे यावना वहाबिहा ||७५।। जस्स मूलस्स कहाओ, छल्ली तणुययरी भवे । परित्तजीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ना तहाविहा ।।७६।। जस्स कंदस्स कहाओ, छल्ली वणुययरी भवे। परिचजीवा उ सा छल्ली, जे यावना तहाविहा ।।७७॥ जस्स खंधस्स कहाओ, छल्ली
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-1, ------------दारं -1, ------------ मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
मज्ञापनायाः मलय.वृत्ता .
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[२४]
३५॥
गाथा:
तणुययरी भवे । परित्तजीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ना तहाविहा ।।७८॥ जीसे सालाए कहाओ, छल्ली तणुयपरी भवे । परित्त- १प्रज्ञापजीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ना तहाविहा ॥ ७९ ॥ (मू०२४)
नापदे सा'से किं त'मित्यादि, अथ के ते साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः, सूरिराह-साधारणशरीरबादरवनस्प-18
धारणवन.
(सू. २४) तिकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'अवए'इत्यादि, एते च केचिदतिप्रसिद्धत्वात्केचिद्देशविशेषतः खयमवग-1 न्तव्याः। 'जे यावन्ने तहाविहा' इति, येऽपि चान्ये-उक्तव्यतिरिक्तास्तथाप्रकारा उक्तप्रकारास्तेऽपि अनन्तजीया ज्ञातव्याः । 'तणे'त्यादि, तृणमूलं कन्दमूलं यचापरं वंशीमूलं, एतेषां मध्ये कचिजातिभेदतो देशभेदतो वा सङ्ख्याता जीवाः कचिदसङ्ख्याता अनन्ताश्च ज्ञातव्याः । 'सिंघाडगस्से त्यादि, शृङ्गाटकस्य यो गुच्छः सोऽनेकजीवो भवति ज्ञातव्यः, त्वक्शाखादीनामनेकजीवात्मकत्वात् , केवलं तत्रापि यानि पत्राणि तानि प्रत्येकजीवानि, फले, पुनः प्रत्येकमेकैकस्मिन् द्वौ द्वौ जीवौ भणितौ। जस्स मूलस्से'त्यादि, यस्य मूलस्य भनस्य सतः समः-एकान्तसदशरूपः। चक्राकारो भङ्गः प्रकर्षेण दृश्यते तन्मूलमनन्तजीवमवसेयं । 'जे यावन्ने तहाविहा' इति, यान्यपि चान्यानि अभना-19॥३५॥ नि तथाप्रकाराणि अधिकृतमूलभमसमप्रकाराणि तान्यप्यनन्तजीवानि ज्ञातव्यानि । एवं कन्दस्कन्धत्वशाखाप्रवा। लपत्रपुष्पफलबीजविषया अपि नव गाथा व्याख्येयाः ॥ सम्प्रति प्रत्येकशरीरलक्षणाभिधानार्थ गाथादशकमाह
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -1, ------------ दारं -1, ------------ मूलं [२४] + गाथा: (४३-७९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२४]
गाथा:
'जस्से'त्यादि, यस्य मूलस भन्मस्य सतो भङ्गे-भङ्गप्रदेशे तु हीरो-विषमच्छेदमुद्दन्तुरं वा प्रदृश्यते-प्रकर्षेण स्पष्टरूपतया लक्ष्यते ततो मूलं 'परित्तजीय' प्रत्येकशरीरजीवात्मकं ज्ञातव्यं, 'जे यावन्ने तहाविहा' इति, यान्यपि चान्यानि भग्नानि तथाप्रकाराणि अधिकृतसहीरभन्नमूलसदृशानि मूलानि तान्यपि प्रत्येकशरीरजीवात्मकानि मन्त-IM व्यानि । एवं कन्दादिविषया अपि नव गाथा भावनीयाः, यत्र कुत्रापि लिङ्गव्यत्ययः स प्राकृतलक्षणादवसेयः ।। अधुना मूलादिगतानां वल्कलरूपाणामनन्तजीवत्वपरिज्ञानार्थं लक्षणमाह-यस्य मूलस्य काष्ठात्-मध्यसारात् छल्ली- वल्कलरूपा बहुलतरा भवति सा अनन्तजीवा ज्ञातव्या, 'जे यावन्ना तहाविह'त्ति याऽपि चान्या अधिकृतया अनन्तजीवत्वेन निश्चितया छहया समानरूपा छल्ली सापि तथाविधा-अनन्तजीवात्मिका ज्ञातन्या, एवं कन्दस्कन्धशाखाविषया अपि तिस्रो गाथाः परिभावनीयाः, अधुना तासामेव छल्लीनां प्रत्येकजीवत्वपरिज्ञानाय लक्षणमाह-'जस्स मूलस्से'त्यादि गाथाचतुष्टयं, यस्य मूलस्य काष्ठात्-मध्यसारात् छल्ली-वल्कलरूपा तनुतरा भवति सा 'परित्तजीवा' प्रत्येकशरीरजीवात्मिका द्रष्टव्या, 'जे यावन्ना तहाविहा' इति यापि चान्या अधिकृतया प्रत्येकशरीरजीवात्मकत्वेन नि|श्चितया छखया समानरूपा छली सापि तथाविधा-प्रत्येकशरीरजीवात्मिका अवगन्तव्या, एवं कन्दादिविषया अपि तिस्रो गाथा भावनीयाः॥ यदुक्तम्-'जस्स मूलस्स भग्गस्स समो भको पदीसई' इत्यादि, तदेव लक्षणं स्पष्टं प्रतिपिपादयिपुरिदमाह
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------ दारं [-], ------------ मूलं [२५...] + गाथा: (८०-९२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२५]
१ प्रज्ञापनापदे अ. नन्तप्रत्लेकलक्षणं. (सू.२५)
गाथा:
प्रज्ञापना
चक्कागं भजमाणस्स, गंठी चुन्नधणो भवे | पुढविसरिसेण भेएण, अणंतजीव वियाणाहि ॥८०॥ गूढसिरार्ग पत्तं सच्छीर जं याः मल-श च होइ निच्छीरं । जंपिय पणहसन्धि अणंतजीवं वियाणाहि ॥८१।। पुष्फा जलया थलया य बिटबद्धा य नालबद्धा य । य. वृत्ती. संखिजमसंखिआ बोद्धवाऽणतजीवा य ॥८२॥ जे केइ नालियाबद्धा पुष्पा संखिञ्जजीविया भणिया । निहुया अणंतजीवा
जे यावन्ने तहाविहा ॥८३॥ पउमुप्पलिणीकंदे अंतरकंदे तहेव झिल्ली य । एए अणंतजीवा एगो जीवो बिसमुणाले ॥४॥ ॥३६॥
पलंड्रल्हसुणकंदे य, कंदली य कुसुंबए । एए परित्तजीवा, जे यावन्ने तहाविहा ।।८५।। पउमुप्पलनलिणाण, सुभगसोगंधियाण य । अरविंदकुंकणाणं, सयवत्तसहस्सपत्ताणं ॥८६॥.बिट बाहिरपत्ता य, कनिया चेव एगजीवस्स । अम्भितरगा पत्ता पत्तेयं केसरा मिजा ।।८७|| वेणुनल इक्खुवाडिय समासइक्खू य इकडे रंटे । करकर सुठि विहंगू तणाण तह पन्चगाणं च ।।८८ अछि पन्वं बलिमोडओ य एगस्स हाँति जीवस्स । पत्तेयं पत्ताई पुष्फाई अणेगजीवाई ॥८९॥ पूसफलं कालिंगं तुंबं तउसेल एलवालुकं । घोसाढय पंडोलं तिंयं चेव तेंदूसं ॥९॥ विंटसमं सकडाई एयाई हवंति एगजीवस्स । पनेयं पत्ताई सकेसरं केसरं मिंजा ।। ९१ ।। सप्काए सज्झाए उव्वेहलिया य कुहणकंदुके । एए अणंतजीवा कंदुके होइ भयणा उ॥१२॥ (सू० २५)
'चकाग'मित्यादि, चक्रक-चकाकारं एकान्तेन समं भङ्गस्थानं यस्य भज्यमानस्य मूलकन्दस्कन्धत्वशाखापत्रपुष्पादेर्भवति तन्मूलादिकमनन्तजीवं विजानीहि इति सम्बन्धः, तथा 'गंठी जुन्नघणो भवे' इति प्रन्थिः पर्व सामान्यतो भास्थानं या स यस्य भज्यमानस्य चूर्णेन-जसा घनो-व्याप्तो भवति ॥ अथवा यस पत्रादेभेज्यमानस्य
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------ दारं [-], ------------ मूलं [२५...] + गाथा: (८०-९२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२५]
गाथा:
साक्राकारं भङ्गं प्रन्थिस्थाने रजसा व्याप्तिं च विना पृश्चिीसदृशेन भेदेन भास्थानं भवति, सूर्यकरनिकरप्रतसकेदार
तरिकाप्रतरखण्डस्खेव समो भनो मवतीतिभावः तमनन्तकार्य विजानीहि ॥ ८॥ पुनरपि लक्षणान्तरमाह-यत्पत्रं सक्षीरं निःक्षीरं वा गूढशिराक-अलक्ष्यमाणशिराविशेषं यदपि च प्रनष्टसन्धि-सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणपत्रार्द्धद्वयसन्धि तदनन्तजीवं विजानीहि ॥ ८१ ॥ सम्प्रति पुष्पादिगतं विशेषमभिधित्सुराह-पुष्पाणि चतुर्विधानि, तद्यथा-जलजानि-सहस्रपत्रादीनि स्थलजानि-कोरण्टकादीनि, एतान्यपि च प्रत्येकं द्विधा, तद्यथा-कानिचिहृन्तबद्धानि अतिमुक्तकप्रभृतीनि कानिचिन्नालबद्धानि जातिपुष्पप्रभृतीनि, अत्र एतेषां मध्ये कानिचित्पत्रादिगतजीवापेक्षया सञ्जयजीवानि कानिचिदसङ्ख्येयजीवानि कानिचिदनन्तजीवानि यथाऽऽगमं बोद्धव्यानि ॥ ८२॥ अत्रैव कश्चिद्विशेषमाह-यानि कानिचित् नालिकाबद्धानि पुष्पाणि जात्यादिगतानि तानि सर्वाण्यपि सङ्ख्यातजीवकानि भणितानि तीर्थकरगणधरैः, निहु:-लिहूपुष्प (योहरपुष्पं) पुनरनन्तजीवं, यान्यपि चान्यानि निहूपुष्पकल्पानि तान्यपि तथाक्विानि-अनन्तजीवात्मकानि ज्ञातव्यानि ॥ ८३॥ पद्मिनीकन्दः-उत्पलिनीकन्दः, अन्तरकन्दो-जलजवनस्पति[विशेषकन्दः, झिल्लिका-बनस्पतिविशेषरूपा, एते सर्वेऽप्यनन्तजीवाः, नवरं पमिन्यादीनां विसे (नाले) मृणाले च किमिति ? (एको जीवः) एकजीवात्मके बिसमृणाले इति भावः ॥८॥ पलण्डुकन्दो लसुनकन्दः कन्दलीकन्दको वनस्पतिविशेषः, कुस्तुम्बकोऽप्येवमेव, एते सर्वेऽपि परित्तजीया' प्रत्येकशरीरजीवात्मकाःप्रतिपत्तव्याः, येऽपि चान्ये
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------ दारं [-], ------------ मूलं [२५...] + गाथा: (८०-९२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
[२५]
गाथा:
प्रज्ञापना- एवंप्रकारा अनन्तजीवात्मकलक्षणविरहितास्तेऽपि तथाविधा:-प्रत्येकशरीरजीवात्मका वेदितव्याः ॥ ८५॥ पद्मानाम् १ प्रज्ञापयाः मल
M|उत्पलानां नलिनानां सुभगानां सौगन्धिकानां अरविन्दानां कोकनदाना शतपत्राणां सहस्रपत्राणां प्रत्येकं यत् वृन्तं- नापदे सा
प्रसवबन्धनं यानि च बाबपत्राणि प्रायो हरितरूपाणि या च कर्णिका-पत्राधारभूता एतानि श्रीण्यपि एकजीवा- धारणप्रIIत्मकानि, यानि पुनरभ्यन्तराणि पत्राणि यानि च केसराणि याश्च मिञ्जाः-फलानि एतानि प्रत्येकमेकैकजीयाधिष्ठि-18
त्येकवितानि ॥८६-८७ ॥ वेणुः-वंशो नड:-तृणविशेषः इक्षुवाटिकादयो लोकतः प्रत्येतव्याः, तृणानि दूर्वादीनि यानि च
शेषाः पर्वगानि-पर्वोपेतानि एतेषां यदक्षि यच पर्व यच 'बलिमोडउ'त्ति पर्वपरिवेष्टनं चक्राकारं, एतानि एकजीवस सम्ब-18
| (सू.२५) धीनि भवन्ति, एकजीवात्मकानि भवन्तीति भावः, पत्राणि एतेषां प्रत्येकमेकजीवाधिष्ठितानि पुष्पाण्यनेकजीवात्म-| कानि ॥८८-८९ ॥ पुष्पफलं एवं कालिङ्गं तुम्बं पुषं 'एलवालु'त्ति चिर्भटविशेषरूपं, वालुकं-चिर्भर्ट, तथा घोषातक पटोलं तेन्दुकं तिन्दुसं च यत्फलं, एतेषु प्रत्येकं वृन्तसमं 'सकडाई' ति समांसं सगिरं तथा कटाह एतानि । त्रीण्येकस्य जीवस्य भवन्ति, एकजीवात्मकान्येतानि त्रीणि भवन्तीत्यर्थः । तथा एतेषामेव पुष्पफलादीनां तिन्दुकपयन्तानां पत्राणि पृथक् 'प्रत्येक' मिति प्रत्येकशरीराधिष्ठितानि, एकैकजीवाधिष्ठितानीत्यर्थः । तथा सकेसरा अकेसरा वा मिा-बीजानि प्रत्येकमेकैकजीवाधिष्ठितानि ॥९०-९१॥ एते कुहनादिवनस्पतिविशेषा लोकतः प्रत्येतव्याः,
॥३७॥ एते चानन्तजीवात्मकाः, नवरं कंदुके भजना, स हि कोऽपि देशविशेषादनन्तः-अनन्तजीवात्मको भवति, कोऽप्य
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------दारं -1, ------------ मूलं [...२५] + गाथा: (९३-९४) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२५]
गाथा:
सङ्खयेयजीवात्मक इति ॥९२॥ आह-किं बीजजीव एव मूलादिजीवो भवति उतान्यस्तस्मिन्नपक्रान्ते उत्पद्यते । इति परप्रश्नमाशङ्कयाहबीए जोणिम्भूए जीवो वक्कमइ सो व अनो वा । जोऽविय मूले जीवो सोविय पत्ते पढमयाए ।१३।। सबोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ भणिओ । सो चेव विवहृतो होइ परित्तो अणंतो वा ।। ९४॥ बीजे योनिभूते-योन्यवस्था प्राप्ते, योनिपरिणाममजहतीति भावः, बीजस्य हि द्विविधाऽवस्था, तद्यथा-योन्य-| वस्था अयोन्यवस्था च, तत्र यदा बीजं योन्यवस्था न जहाति अथ च उज्झितं जन्तुना तदा तत् योनिभूतमित्यभि-IN धीयते, उज्झितं च जन्तुना निश्चयतो नावगन्तुं शक्यते ततोऽनतिशायिना सम्प्रति सचेतनमचेतनं वा अविध्वस्तयोनि योनिभूतमिति व्यवह्रियते, विध्वस्तयोनि तु नियमादचेतनत्वादयोनिभूतमिति, अथ योनिरिति किमभिधीयते ?, उच्यते, जन्तोरुत्पत्तिस्थानं अविध्वस्तशक्तिक-तत्रस्थजीवपरिणमनशक्तिसम्पन्नमिति भावः, तस्मिन् बीजे योनिभूते जीवो 'व्युत्क्रामति' उत्पद्यते ' स एव' पूर्वको बीजजीवः अन्यो वा आगत्य तत्रोत्पद्यते, किमुक्त। भवति ?-यदा बीजजीवनिर्वर्तकेन जीवेन खायुषः क्षयात् बीजपरित्यागः कृतो भवति, तस्य च बीजस्य पुनरम्बु-19 कालावनिसंयोगरूपसामग्रीसंभवस्तदा कदाचित्स एव प्राक्तनो वीजजीवो मूलादिनामगोत्रे उपनिवध्य बीजे उत्पद्यते-तत्रागत्य परिणमति, कदाचिदन्यः पृथिवीकायिकादिजीवः, 'योऽपि च मूले जीव इति' य एव मूलतया परि
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[२५]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
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१३४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [१], ------------- FÈNT: [-]), ------------- ¿T2 [-], ------------- मूलं [... २५] + गाथा : ( ९३-९४ ) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥ ३८ ॥
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जमते जीवः सोऽपि च पत्रे प्रथमतयेति स एवं प्रथमपत्रतयाऽपि परिणमते इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति, आह-यद्येवं 'सव्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतभ मणिओ' इत्यादि वक्ष्यमाणं कथं न विरुध्यते ?. उच्यते, इह बीजजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तदुत्सूनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरभाविनीं किसलयावस्थां नियमतोऽनन्ता जीवाः कुर्वन्ति, पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेषु असावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतनुं खशरीरतया परिणमध्य तावद्वर्द्धते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः, अन्ये तु व्याचक्षते - प्रथमपत्रमिह याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था, तेन एकजीवकर्त्तृके मूलप्रथमपत्रे इति, किमुक्तं भवति १- मूलसमुच्छ्रनावस्थे एकजीवकर्तृके, एतच नियमप्रदर्शनार्थयुक्तं - मूलसमुच्छ्रनावस्थे एकजीव परिणामिते एव, शेषं तु किसलयादि नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितमिति, ततः सव्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतओ गणिओ' इत्याद्यपि वक्ष्यमाणमविरुद्धं, मूलसमुच्छ्रनावस्थानिर्वर्त्तनारम्भकाले किसलयत्वाभावादिति, आह-प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायिकानां सर्वकालं शरीरावस्थामधिकृत्य किं प्रत्येकशरीरत्वमुत कस्मिंश्चिदवस्थाविशेषे अनन्तजीवत्वमपि सम्भवति ?, तथा साधारणवनस्पतिकायिकानामपि किं सर्वकालमनन्तजीवत्वमुत कदाचित् प्रत्येकशरीरत्वमपि भवति १, तत आह— 'सच्चोऽची त्यादि, इह सर्वशब्दोऽपरिशेषकाची, सर्वोऽपि वनस्पतिकायः प्रत्येकशरीरः साधारणो वा किसलयावस्थामुपगतः सन् अनन्तकावस्तीर्थ करगणधरैर्मणितः, स एव किसलयरूपोऽनन्तकायिकः प्रवृद्धिं गच्छन् अनन्तो वा भवति परीत्तो वा, कथम् ?,
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१ प्रज्ञापनापदे बी
जाद्यपत्र
किशलय
स्वरूपं
(सू. २५)
॥ ३८ ॥
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: -,------------दारं -1, ------------ मूलं [...२५] + गाथा: (९३-९४) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२५]
गाथा:
उच्यते, कति साधारणं शरीर निर्वय॑ते तदा साधारण एव भवति, अथ प्रत्येकशरीर ततः प्रत्येक इति, कियतः कालातून प्रत्येको भवति इति चेत्, उच्यते, अन्तर्मुहर्चात्, तथाहि-निगोदानामुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त कालं यावलियतिरुक्का स्तोऽन्तर्मुहूर्तात्परतो विवर्द्धमानः प्रत्येको भवतीति ॥ ९३-९४ ॥ सम्प्रति साधारणलक्षणमाह
समयं चकताणं समयं तेसिं सरीरनिवत्ती । समय आणुग्गहणं समयं ऊसासनीसासो ॥ ९५ ॥ इफस्स उजं गहणं बहूण साहारणाण तं चेव । जे बहुयाणं गहणं समासओ तंपि इक्कस्स ॥ ९६ ॥ साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एवं ॥ ९७॥ जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवणिजसंकासो । सबो अगणिपरिणी निगोयजीवे तहा जाण ॥ ९८ ।। एगस्स दोण्ह तिण्ह व संखिजाण व न पासिउं सका । दीसंति सरीराई निगोयजीवाणणताणं ॥ ९९ ॥ लोगागासपएसे निगोयजीवं ठवेहि इकिकं । एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंता उ ॥१०॥ लोगामासपएसे परित्तजीवं ठवेहि इकिक । एवं मविञ्जमाणा हवंति लोगा असंखिजा ॥१०१॥ पत्तेया पजत्ता पयरस्स असंखभागमिता उ । लोगाऽसंखा पजत्तयाण साहारणमणता ॥ १०२।। एएहिं सरीरेहि पञ्चक्खं ते परुविया जीवा । सुहुमा आणागिशा चक्खुप्फास न ते इति (१ प्र०)जे यावो तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पञता, ते०-पजत्तगा व अपचगा य, संस्थ थे जे ते अपजतगा ते णं असंपत्ता, तत्व णं जे ते पज्जत्तगा तेसिणं वनाएसेणं मंधाएसेणं रसाएसेणं फासाएसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई, पजचगनीसाएं अपञ्जत्तमा वकमंति, जत्थ एगो
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२६] + गाथा: (९५-१०५+प्र०१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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गाथा:
+ प्र०
प्रज्ञापना- तत्य सिय संखिजा सिय असंखिजा सिय अणंता । एएसिणं इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ, तंजहा-कंदा य कंदमूला य, 1
प्रज्ञापयाः मल
नापदे सारुक्खमूला इयावरे । गुच्छा य गुम्मवल्ली य, वेणुयाणि तणाणि य ॥ १०३ ।। पउमुप्पल संघाडे हढे य सेवाल किथए य० वृत्ती.
धारणलपणए । अवए य कच्छभाणी कंदुकेगूणवीसइमे ॥ १०४॥ तय छल्लि पवालेसु य पत्तपुफफलेसु य । मूलग्गमज्झवीएस,
क्षणं ॥३९॥ जोणी कस्सवि कित्तिया ॥ १०५ ॥ से तं साहारणसरीवायरवणस्सइकाइया, [से तं साहरणसरीखणस्सइकाइया ] से
(सू. २६) सं वायरवणस्सइकाइया, से तं वणस्सइकाइया, से तं एगिदिया ।। (मू०२६)
'समय' युगपद् व्युत्क्रान्तानां-उत्पन्नानां सतां तेषां साधारणजीवानां समकम्-एककालं शरीरनिवृत्तिर्भवति, |समकं च प्राणापानग्रहणं-प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादानम् ततः समकम्-एककालं तदुत्तरकालभाविनाच्छासनिःश्वासो |॥९५॥ तथा एकस्य यत् आहारादिपुद्गलानां ग्रहणं तदेव बहूनामपि साधारणजीवानामवसेयं, किमुक्तं भवति ?-यत् आहारादिकमेको गृह्णाति शेषा अपि तच्छरीराश्रिता बहवोऽपि तदेव गृह्णन्तीति, तथा च यबहूनां ग्रहणं तत्संक्षेपादे- कत्र शरीर समावेशात् एकस्यापि ग्रहणम् ॥ ९६॥ सम्प्रत्युक्तार्थोपसंहारमाह-सर्वेषामप्येकशरीराश्रिताना जीवानामुक्तप्रकारेण यत् साधारणं साधारणः, सूत्रे नपुंसकतानिर्देशः आपत्वात् , आहारः आहारयोग्यपुद्गलोपादानम् ।
॥३९॥ हायव साधारणं प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादानं उपलक्षणमेतत् यौ साधारणासनिःश्वासी या च साधारणा
शरीरनिवृत्तिः एतत्साधारणजीवानां लक्षणम् ॥९७॥ सम्प्रति यथैकस्मिन् निगोदशरीरे अनन्ता जीवाः परिणताः
दीप अनुक्रम [१३५
elesedeseesesears
-१४८]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[२६]
गाथा:
+ प्र०
दीप
अनुक्रम
[१३५
-१४८]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [१], | ------------ उद्देशकः [-], ------------ दारं [-], - मूलं [२६] + गाथा: ( ९५ - १०५+प्र०१ ) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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प्रतीतिपथमवतरन्ति तथा प्रतिपादयन्नाह--यथा अयोगोलो ध्मातः सन् तप्ततपनीयसंकाशः सर्वोऽभिपरिणतो भवति तथा निगोदजीवान् जानीहि निगोदरूपेऽप्येकैकस्मिन् शरीरे तच्छरीरात्मकतया अनन्तान् जीवान् परिण| तान् जानीहि ॥ ९८॥ एवं च सति - एकस्य द्वयोस्त्रयाणां यावत्संख्येयानां वाशब्दादसंख्येयानां वा निगोदजीवानां शरीराणि द्रष्टुं न शक्यानि, कुत इति चेत् ?, उच्यते-अभावात्, न हि एकादिजीवगृहीतानि अनन्तवनस्पतिशरीराणि सन्ति, अनन्तजीवपिण्डात्मकत्वात्तेषाम् कथं तर्हि उपलभ्यानि ?, इत्यत आह-'दीसंती' त्यादि, दृश्यन्ते शरीराणि निगोदजीवानां - बादरनिगोदजीवानां अनन्तानां न तु सूक्ष्मनिगोदजीवानां तेषां शरीराणामनन्तजीवसङ्घातात्मक| त्वेऽप्यनुपलभ्यस्वभावत्वात् तथासूक्ष्मपरिणामपरिणतत्वात्, अथ कथमेतदवसीयते - निगोदरूपशरीरं नियमादनन्तजीवपरिणामाविर्भावितं भवति ?, उच्यते - जिनवचनात् तच्चेदम् 'गोठा य असंखेज्या होंति निगोया असंखया गोले । एकेको य निगोओ अनंतजीवो मुणेयब्धो ॥ १ ॥ ॥ ९९ ॥ सम्प्रति एतेषामेव निगोदजीवानां प्रमाणमभि| धित्सुराह एकैकस्मिन् ठोकाकाशप्रदेशे एकैकं निगोदजीवं स्थापय, एवमेकैकस्मिन् आकाशप्रदेशे एकैकजीवरचनया मीयमानाः 'अनन्तलोका' अनन्तलोकाकाशप्रमाणा निगोदजीवा भवन्ति ॥ १०० ॥ सम्प्रति प्रत्येकवनस्पतिजीवप्रमाणमाह-एकैकस्मिन् लोकाकाशप्रदेशे एकैकं प्रत्येक वनस्पतिजीवं स्थापय, एवमुक्तप्रकारेण मीयमानाः प्रत्ये१ गोलावासंख्येया भवन्ति निगोदा असंख्येया गोलके । एकैकश्च निगोदोऽनन्तजीवो ज्ञातव्यः ॥ १ ॥
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२६] + गाथा: (९५-१०५+प्र०१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२६]
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥४०॥
गाथा: + प्र०
कतरुजीवा असवयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा भवन्ति ॥ १.१ ॥ सम्प्रति पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकसाधारणवनस्प-12
१प्रज्ञापतिजीवानां प्रमाणमाह-पर्यासाः प्रत्येकवनस्पतिजीवाः धनीकृतस्य सम्बन्धिनः प्रतरस्य असहयेयतमे मागे थावन्त
नापदे साआकाशप्रदेशातावत्प्रमाणा भवन्ति, अपर्यासानी पुनः प्रत्येकतरुजीवानामसङ्ख्यया लोकाः परिमाणे, पोसानी
धारणलअपर्याप्तानां च साधारणजीवानां अनन्तलोकाः, किमुक्त भवति ?-असायेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा अपयांसाः क्षणं प्रत्येकतरवः, अनन्तलोंकाकाशप्रदेशप्रमाणाः पर्याप्ता अपर्यासाश्च साधारणजीवा इति ॥ १०२ ।। 'जे यावन्ने तहप्पमारा' इति, येवि चान्ये-नुक्तरूपालथाप्रकाराः प्रत्येकतरुरूपा साधारणरूपाश्च, तेऽपि वनस्पतिकायत्वेन प्रतिषसव्याः, ते समासों इखादि प्राग्वत् , नेवरं यत्रैको बादरपर्याप्तस्तत्र तनिश्रया अपर्यासाः कदाचित् समयेयाः, कदाचिदसङ्ख्येया कदापिनन्ता, प्रत्येकतरवः सङ्ख्यया असहया वा, साधारणास्तु नियमादनन्ता इति भावः॥ 'एतेषां' साधारणप्रखेकतररूपााँ वनस्पतिविशेषाणां वक्ष्यमाणानामिमाः-विशेषप्रतिपादिका वक्ष्यमाणा गाया अनुगन्तव्याः-प्रतिपत्तव्याः, ता एवाह-'तंजहा' तद्यथा-'केदा येत्यादि गायात्रय 'कन्दा सूरणकन्दादयः कन्दमूलानि वृक्षमूलानि च साधारणवनस्पतिविशेषाः 'गुच्छा' गुल्मा, वत्यश्च प्रतीताः 'येणुका' वंशास्तृणानि-19॥४०॥ अर्जुनादीनि ॥१३॥ पद्मोत्पलशनाटकानि प्रतीतानि 'हडो' जलजवनस्पतिविशेषः सेवालः-प्रसिद्धः कृष्णकपनकावककच्छभाणिकन्तुकार-साधारणयनस्पतिविशेषाः॥१०४॥ एतेषामेकोनविंशतिसयानां त्वगादिशु मध्ये
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-१४८]
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------उद्देशक: [-], ------------ दारं [-], ------------ मूलं [२६] + गाथा: (९५-१०५+प्र०१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक
[२६]
गाथा:
+ प्र०
कसापिकापि योनि:, किमुक्त भवति ।-कखापि वह योनिः खापि कली यावत्कस्यापि मूल कस्याप्य । कस्यापि मध्य कलापि बीजमिति ॥ १०५ । 'सेस' मित्यादि निगगनचतुष्टयं सुगर्म ॥ तवेषमुक्ता एकेन्द्रि-3 याः, सम्प्रति हीन्द्रियप्रतिपादनार्थमाहसे किं तं बेईदिया ?, बेईदिया अणेगविहा पन्नचा, जहा-पुलाकिमिया कुच्छिकिमिया गडूयलगा गोलोमा णेउरा सोमंगलगा वंसीमहा मुइमुहा गोजलोया जलोया जालाउया संखा संखणगा घुल्ला खुल्ला गुलया खंधा वराडा सोतिया मुत्तिया कलुयावासा एगओवत्ता दुहओवत्ता नंदियावत्ता संबुका माइवाहा सिप्पिसंपुडा चैदणा समुहलिक्खा, जे यावने तहप्पगारा, सबे ते समुच्छिमा नपुंसगा, ते समासो दुविहा पन्नता, तंजहा-पञ्जत्तंगा य अपजसंगा य, एएसिणं एवमाइयाणं बेइंदियाणं पत्तापञ्जनाणं सच जाइकुलकोडिजीणीपमुहसयसहस्सा भवतीति मक्खाय । से से बेईदियसंसारसमावनजीवपनवणा । (१०२७)
अथ के ते द्वीन्द्रियाः, सूरिराह-द्वीन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञसाः, तद्यथा-"पुलाकिमिया' इत्यादि, पुलाकिमिया नाम पायुप्रदेशोत्पन्नाः कृमयः कुक्षिकमयः-कुक्षिप्रदेशोत्पन्नाः शङ्खा-समुद्रौद्भवाः प्रतीताः शङ्खनकाः त एवं लषयः घुल्ला:-धुलिकाः खुला-लषयः शङ्का:-सामुद्रशलाकाराः पराटी:-कपर्दकाः 'सिप्पिसंपत्तिा संपुटरूपाः शुक्तयः पन्दनका-अक्षाः, शेषास्तु यथासम्प्रदाय वाच्या, 'जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपिचान्ये
दीप अनुक्रम [१३९
-१४८]
REairatnand
weaturary.au
अत्र द्विइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-1,--------------- दारं -1, --------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना-
प्रत
याः मल
य० वृत्ती.
सूत्राक [२७]
॥४१॥
दीप अनुक्रम [१४९]
तथाप्रकारा-एवंप्रकारा मृतककडेवरसम्भूतकृम्यादयस्ते सर्वे द्वीन्द्रिया ज्ञातव्याः, ते संमुर्छिमत्वादेव च नपुंसकाः, 8|| |१ प्रज्ञापसंमुर्छिमानामवश्यं नपुंसकत्वात् 'नारकसंमुर्छिमा नपुंसका' (निनपुंसकानि तत्त्वा-अ-२-५०) इतिवचनात् , 'ते || नापदे द्वीसमासओ' इत्यादि, ते द्वीन्द्रियाः समासतः-संक्षेपेण द्विविधाः प्रजासाः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्च अपर्याप्तकाश्च, चशब्दो।
|न्द्रियमयोनिकुलभेदेन खगतानेकभेदसूचकी, एतेषांद्वीन्द्रियाणामेवमादीनां पुलाकृम्यादीनां द्वीन्द्रियाणां पर्याप्सापर्याप्सादीनां
ज्ञाप. सर्वसङ्ख्यया सर्वजातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि-योनिप्रवहाणि योनिशतसहस्राणि भवन्ति, सप्त जातिकुलको
(सू. २७) टिलक्षा भवन्तीति भावः, इत्याख्यातं तीर्थकृद्भिः, मकारोऽलाक्षणिकः, इयमत्र भावना-इह जातिकुलयोनीनां परिज्ञानार्थमिदं परिस्थूरमुदाहरणं पूर्वाचार्यरुपदर्शितम् , तद्यथा-जातिरिति किल तिर्यग्गतिः तस्याः कुलानि-कृमिकीटवृश्चिकादीनि, इमानि च कुलानि योनिप्रमुखाणि, तथाहि-एकस्यामेव योनी अनेकानि कुलानि भवन्ति, यथा । छगणयोनी कृमिकुलं कीटकुलं वृश्चिककुलमित्यादि, अथवा जातिकुलमित्येकं पदम् , जातिकुलयोन्योश्च परस्परं विशेषः, एकस्यामपि योनी अनेकजातिकुलसम्भवात्, यथा एकस्यामेव योनौ कृमिजातिकुलं कीटकजातिकुलं वृश्चिक- ॥४१॥ |जातिकुलमित्यादि, एवं च एकस्यामेव योनाववान्तरजातिभेदभावादनेकानि योनिप्रवहाणि जातिकुलानि सम्भवन्तीत्युपपद्यन्ते, वीन्द्रियाणां सप्त जातिकुलकोटीनां शतसहस्राणाम् , उपसंहारमाह-'सेत्त' मित्यादि, सैषा वीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ॥ सम्प्रति त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनार्थमाह
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-1,--------------- दारं -1, --------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२८]
से किं तं तेइंदियसंसारसमावनजीवपत्रवणा?, तेइंदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा अणेगविहा पन्नता, तं-ओवइया रोहिणिया कुंथ पिपीलिया उसगा उद्देहिया उक्कलिया उप्पाया उप्पडा तणहारा कहहारा मालुया पत्चाहारा तणवेंटिया पत्तबेटिया पुप्फबेटिया फलबेंटिया बीयाटिया तेवुरणमिजिया तओसिमिजिया कप्पासहिमिजिया हिल्लिया झिल्लिया झिंगिरा किंगिरिडा बाहुया लहुया सुभगा सोवस्थिया सुयर्वेटा इंदकाइया इंदगोवया तुरुतुंबगा कुच्छलवाहगा जूया हालाहला पिसुया सयवाइया गोम्ही हत्यिसोंडा, जे यावबे तहप्पगारा, सचे ते संमुच्छिमा नपुंसगा, ते समासओ दुविहा पन्नता, त-पजत्नगा य अपजत्तगा य, एएसिणं एवमाझ्याणं तेइंदियाणं पजत्तापजत्ताणं अह जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, सेत्तं तेइंदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा । (मू०२८) . 'अथ का सा त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना १, भगवानाह-त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना अनेकविधा प्रज्ञप्ता, तामेव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति, एते च औपयिकप्रभृतयस्त्रीन्द्रिया देशविशेषतो लोकतश्चावगन्तव्याः, नवरं | गोम्ही-कर्णसियालिया 'जे यावन्ने सहप्पगारा' येऽपि चान्ये तथाप्रकारास्ते सर्वे त्रीन्द्रिया ज्ञातव्या इति शेषः, सब्वे 'ते संमुच्छिमानपुंसका' इत्यादि पूर्ववत् , 'एतेसिण'मित्यादि, एतेषां-त्रीन्द्रियाणामेवमादिकानाम्-औपयिकप्र-II भृतीनां पर्याप्तापर्याप्सानां सर्वसङ्ख्यया अष्टौ जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि-योनिप्रवाहाणि शतसहस्राणि भवन्ति, अष्टौ कुलकोटिलक्षा भवन्तीति भावः, इत्याख्यातं तीर्थकृद्भिः, उपसंहारमाह-'सेत्त मित्यादि । तदेवमुक्ता त्रीन्द्रिय
दीप
अनुक्रम [१५०]
अत्र त्रिइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, --------------- दारं [-], --------------- मूलं [२९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापना- याः मलय० वृत्ती.
[२९]]
१ प्रज्ञापनापदे त्रीन्द्रियच| तुरिन्द्रियपु.(सू. २८-२९)
॥४२॥
गाथा
संसारसमापनजीवप्रज्ञापना, सम्प्रति चतुरिन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रशापनामाहसे किं तं चउरिदियसंसारसभावनजीवपनवणा , २ अणेगविहा प०, त-अंधिय पत्तिय मच्छिय मसगा कीडे तहा पयंगे य। ढेकुथा कुकट कुकुह नंदावचे व सिंगिरडे ॥१०६॥ किण्हपत्ता नीलपत्ता लोहियपत्ता हालिदपत्ता सुकिल्लपत्ता चित्तपक्खा विचित्तपक्खा ओहंजलिया जलचारिया मंभीरा णीणिया तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंमा नेउरा दोला भमरा भरिली जरूला तोहा विषा पत्तविच्छ्या छाणविच्छुया जलविच्छ्या पियंगाला कणगा गोमयकीडा, जे यावचे तहप्पगारा, सोते संमच्छिमा नपुंसगा, ते समासओ दुविहा पन्नत्ता, त०-पञ्जत्तगा य अपअत्तगा य, एपसिणं एवमाझ्याण चरिदियाणं पजत्तापजत्ताणं नव जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्साई भवंतीतिमक्खायं, से सं चरिंदियसंसारसमावमजीवपभरणा ।। (०२९) एतेऽपि चतुरिन्द्रिया लोकतः प्रस्खेतम्याः, एतेषां च पर्याप्तापर्याप्तानां सर्वसचथया जातिकुलकोटीनां नव लक्षा भवन्ति, शेषा अक्षरगमनिका प्राग्वत्, उपसंहारमाह-'सेत्त' मिलादि । उक्ता चतुरिन्द्रियसंसारसमापन्नजीवनज्ञापमा, सम्प्रति पञ्चेन्द्रियसंसारसमापनजीवप्रज्ञापनामाह
से कि ते पंचेदियसंसारसमावनजीवपावणा १,२ चउबिहा पं०,०-नेरइयपंचिदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा, तिरिक्खजोणियपंचिंदियसंसारसमावनजीवपनवणा मणुस्सपचिदियसंसारसमावनजीवपन्नवणा देवपंचिदियसंसारसमावसजीवपनवणा (१.१०)
दीप अनुक्रम
॥४२॥
-१५३]
SAREarathiAR
अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
अथ का सा पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना १, सूरिराह-पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-'नैरयिके' त्यादि, अयम्-इष्टफलं कर्म निर्गतमयं येभ्यस्ते निरया-नरकावासास्तेषु भवा नैरयिकास्ते |च ते पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवाश्च नैरयिकपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवास्तेषां प्रज्ञापना, तथा 'अञ्च गती' तिरोऽश्चन्तीति तिर्यश्चः, 'तिरसस्तिर्यतीति' तिरसस्तिर्यादेशः, तेषां योनिः-उत्पत्तिस्थानं तिर्यग्योनिस्तत्र भवास्तैर्यग्योनिकास्ते च ते पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवाश्च तेषां प्रज्ञापना तैर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, तथा मनुशब्दो मनुष्ययाची यथा राजशब्दो राजन्याभिधायकः, मनोरपत्यानि मनुष्याः, 'मनोर्यणौ यश्चेति' यः प्रत्ययः पकारश्चागमः, अयं च यः प्रत्ययो जाताविति मनुष्यशब्दोजातिवाची राजन्यशब्दवत्,ते च ते पश्चेन्द्रियसंसारसमा| पन्नजीवाच तेषां प्रज्ञापना मनुष्यपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, तथा दीव्यन्ति-खेच्छया क्रीडन्तीति देवाः1%
भवनपत्यादयः ते च ते पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवाश्च तेपांप्रज्ञापना देवपञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ॥ तत्र | नरयिकप्रतिपादनार्थ प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह
से किं ते नेरइया ?, नेरइया सत्तविहा पञ्चत्ता, सं०-यणप्पभापुढविनेरहया १ सकरप्पभापुढविनेरइया २ वालुयप्पभापुढविनेरहया ३ पंकप्पभापुढचिनेरइया ४ धूमप्पभापुढविनेरइया ५ तमप्पभापुढविनेरइया ६ तमतमप्पभापुढविनेरइया ७, ते समासओ दुविहा पन्नत्ता, तं०-पज्जतगा य अपजत्तगा य, से तं नेरहया ।। (मू०३१)
दीप अनुक्रम [१५४]
80000000000000000seases
1.८
अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये नैरयिक-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
नापदे नै
सूत्राक [३१]
| ३२)
दीप अनुक्रम [१५५]
प्रज्ञापना- सप्तविधत्वं नैरयिकाणां पृथिवीभेदेन अन्यथा अभूतभेदत्वमपि घटते, ततः पृथिवीभेदत एव सप्तवि-18
१प्रज्ञापमल- धत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति-रत्नानि-बनवैडूर्यादीनि, प्रभाशब्दोऽत्र सर्वत्रापि खभाववाची रत्नानि प्रभा-स्वरूपं । य० वृत्ती.
यस्याः सा रत्नप्रभा-रत्नबहुला रत्नमयीति भावार्थः, सा चासौ पृथिवी च २ तस्यां नैरयिका रत्नप्रभापृथिवीनरयिकाः,18 रयिकप॥४३॥ एवं 'सकरप्पहापुढविनेरइया' इत्यादि भावनीयम् , उपसंहारमाह-'सेत्तं नेरइया' ॥ अधुनोद्देशक्रमप्रामाण्यानुसर-18 केन्द्रिय INणतस्तिर्यपञ्चेन्द्रियान् प्रतिपिपादयिपुराह
(सू.३१से किं तं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?, पचिंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नत्ता, तं०-१ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजो
णिया य १ थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य २ खयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य ३ । (सू०३२) | अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, सरिराह-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानिषिधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथेत्यादि, 'जलयरे-' इत्यादि, जले चरन्ति-पर्यटन्तीति जलचराः, 'आधारादिति टप्रत्ययः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच जलचरपञ्चेINIन्द्रियतियंग्योनिकाः, स्थले चरन्तीति स्थलचराः, खे-आकाशे चरन्तीति खचराः, प्राकृतत्वादाषेत्वाच'खहचरा'।
इति सूत्रे पाठः, तत उभयत्रापि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकशब्देन सह विशेषणसमासः। II से किं तं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पन्नत्ता, तं०-१ मच्छा २ क
॥४३॥ च्छमा ३ गाहा ४ मगरा ५ सुसुमारा ॥से किं तं मच्छा ?, मच्छा अणेगविहा पत्रचा, तं०-सहमच्छा खवल्लमच्छा
SantaratinAnd
अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये तिर्यञ्चयोनिक-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक [३३]
Fersciences
जंगमच्छा विज्झडियमच्छा हलिमच्छा मगरिमच्छा रोहियमच्छा हलीसागरा गागरा वडा बडगरा गन्भया उसगारा तिमितिभिंगिला णका तंदुलमच्छा कणिकामच्छा सालि सत्थियामच्छा लंभणमच्छा पडागा पडागाइपडागा जे यावनेतहप्पगारा, सेत्तं मच्छा ।। से किं तं कच्छमा?, कच्छभा दुविहा पन्नचा, तं०-अहिकच्छमा य मंसकच्छभा य, से तं कच्छमा ॥ से किं तं गाहा, गाहा पंचविहा पनत्ता, तं०-१दिली २ वेढगा ३ मुद्धया ४ पुलया ५ सीमागारा, से तंगाहा ।।से किं तं मगरा, मगरा दुविहा पन्नता,त-१सोंडमगरा य२ महमगरा य, से तं मगरा ।।से कितं सुसुमारा', सुसुमारा एगागारा पबत्ता, से चं मुमुमारा । जे यावन्ने तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा प०२०-समुच्छिमा य गम्भवकंतिया य, तत्थ णं जे ते समुच्छिमा ते सो नपुंसगा, तत्थ णं जे ते गम्भवतिया ते तिचिहा प०, त-इत्थी पुरिसा नपुंसगा | एएसिणं एवमाइयाणं जलयरपचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पञ्जचापञ्जताणं अद्भुतेरसजाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं । सेतं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ॥ (मू०३३)
अथ के ते जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ?, सूरिराह-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञाप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति १ मत्स्याः २ कच्छपाः, सूत्रे पकारस्य भकारः प्राकृतत्वात् ३ ग्राहा ४ मकराः ५ शिशुमाराः, प्राकृतत्वात्सूत्रे 'सुसुमारा' इति पाठः । मत्स्यादीनां च विशेषा लोकतो वेदित-18 व्याः, नवरमस्थिकच्छपा मांसकच्छपा इति-ये अस्थिवदुलाः कच्छपास्ते अस्थिकच्छपाःये मांसबहुलास्ते मांसकच्छपाः।
दीप अनुक्रम [१५७-१६०]
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-1,--------------- दारं -1, --------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
मज्ञापनायाः मलयवृत्ती
सुत्राक
॥४४॥
[३३]
दीप अनुक्रम [१५७-१६०]
ते समासओ' इत्यादि, ते जलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः समासतः-संक्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञासाः, तद्यथा-समू-18|| ञ्छिमाश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकाच, "मूर्छा मोहसमुच्छ्राययोः" अस्मात् संपूर्वात् संमूर्च्छनं संमूर्छ।, "अकर्तरि" इति नापदे जभावे घजप्रत्ययः, गर्भोपपातव्यतिरेकेण एवमेव प्राणिनामुत्पाद इति भावः, तेन निर्वृत्ताः समूच्छिमाः "भावादिम"ISH लचरपञ्चे. इति इमप्रत्ययः । गर्भे व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते, व्युत्क्रान्तिशब्दोऽत्रोत्पत्तिवाची, तथा पूर्वाचार्यप्रसिद्धेः, यदिवा (सू. ३३) |'गर्भात्' गर्भावासाद् व्युत्क्रान्तिः-निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः “शेषाद्वा" इति कच्समासान्तः। चशब्दो प्रत्येकं खगतानेकभेदसूचकौ । तत्र येते संमूछिमास्ते सर्वे नपुंसकाः, संमूछिमभावस्य नपुंसकत्वाविनामावित्वात् । ये तु गर्भव्युत्क्रान्तिकास्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्त्रियः पुरुषा नपुंसकाः। एतेषां चोभयेषामपि शरीरावगाहनादिषुद्वारेषु यचिन्तनं यच्च गर्भव्युत्क्रान्तिकानां स्त्री[सनपुंसकानां परस्परमल्पबहुत्वचिन्तनं तज्जीवाभिगमटीकायां कृतमिति ततोऽवधार्यम् । 'एएसिणं' इत्यादि, एतेषामेवमादिकानामुपदर्शितप्रकारादीनां जलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकानां पर्याप्सापर्याप्तानां सर्वसंख्ययाऽर्धत्रयोदशजातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि-योनिप्रवहाणि शतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं भगवद्भिस्तीर्थकरैः । उपसंहारमाह-'सेत्तं' इत्यादि, तदेवमुक्ता जलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः॥ सम्प्रति स्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकानभिधित्सुराहसे किं तं थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?, थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा प०, ०-चउप्पयथलयरपंचिं
N
॥४४॥
NAAD
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं [-], --------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४]
दियतिरिक्खजोणिया य परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य । से किं तं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिवखजोणिया ?, चउपयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया चउब्विहा प०, तं०-एगखुरा चिखुरा गंडीपदा सणफदा । से किं तं एगखुरा, एगखुरा अणेगविहा प०,०-अस्सा अस्सतरा घोडगा गद्दमा गोरक्खरा कंदलगा सिरिकंदलगा आवत्तगा जे यावने तहप्पगारा, से एगखुरा । से किं तं दुखुरा, दुखुरा अणेगविहा प०,०-उट्टा गोणा गया रोज्झा पसुया महिसा मिया संबरा बराहा अया एलगरुरुसरभचमरकुरंगगोकनमादि जे यावचे तहप्पगारा, सेत्तं दुखरा । से कितं गंडीपया, गंडीपया अणेगविहा पं०, तं०-हत्थी हत्थीपूयणया मंकृणहत्थी खगा (ग्गा) गंडा जे यावने, सेत्तं गंडीपया । से किं तं सणफया?, अणेगविहा पं०, तं-सीहा वग्घा दीविया अच्छा मरच्छा परस्सरा सियाला बिडाला सुणगा कोलसुणगा (अं-५००) कोकंतिया ससगा चित्तगा चिल्लगा जे यावन्ने०, सेत्तं सणप्फया । ते समासओ दुविहा पं०, २०-समुच्छिमा य गम्भवकन्तिया य, तत्थ णं जे ते समुच्छिमा ते सत्वे नपुंसगा, तत्व णजे ते गम्भवतिया ते तिविहा पं०, तं०इत्थी पुरिसगा नपुंसगा। एएसिणं एवमाइयाण थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजत्तापजताणं दस जाइकुलकोडि. जोणिप्पमुहसयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं । सेत्तं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया । (मू०३४)
चत्वारि पदानि येषां ते चतुष्पदा:-अश्वादयः ते च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाश्च चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः, उरसा भुजाभ्यां वा परिसर्पन्तीति परिसर्पाः-अहिनकुलादयः, ततः पूर्ववत् स्थलचरपञ्चेन्द्रियतै-18
दीप
अनुक्रम [१६१]
REaratholomona
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-1,--------------- दारं -1, --------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मल. य० वृत्ती.
सूत्रांक [३४]
॥४५॥
दीप
Saeesa900908
यंग्योनिकपदेन सह विशेषणसमासः, चशब्दौ प्रत्येकं खगतानेकभेदसूचकौ, तदेवानेकभेदत्वं क्रमेण प्रतिपिपादयि-६१ प्रज्ञापपुरिदमाह-से किंत' इत्यादि, अथ के ते चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्रयोनिकाः, सूरिराह-चतुष्पदस्थलचर-18 नापदे चपञ्चेन्द्रियतैर्यगयोनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'एगखुरा' इत्यादि, तत्र प्रतिपदमेकः खुर:-शफो येषां ते एक- तुष्पदपञ्चे. खुराः-अश्चादयः, द्वौ द्वौ खुरौ प्रतिपदं येषां ते द्विखुराः-उष्ट्रादयः, तथा चैकैकस्मिन् पदे द्वौ द्वौ शफी दृश्येते, गण्डी-18(सू. व-सुवर्णकाराधिकरणीस्थानमिव पदं येषां ते गण्डीपदाः-हस्त्यादयः, तथा सनखानि-दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां ते सनखपदा:-श्वादयः, प्राकृतत्वाच सणप्फया इति सूत्रे निर्देशः । अधुना एतानेव एकखुरादीन् भेदतः क्रमेण प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-से किं तं' इत्यादि, सुगमम् , नवरं ये केचिज्जीवभेदाः प्रतीताते लोकतो बेदितव्याः। 'ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' इत्यादि सूत्रं प्राग्वद भावनीयम् , नवरमत्र जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि दश भवन्तीति वेदितव्यम् । अत्रापि च संमूच्छिमानां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां च प्रत्येकं यत् शरीरादि-14 द्वारेषु चिन्तनं यच्च स्त्रीपुंनपुंसकानां परस्परमल्पवहुत्वं तज्जीवाभिगमटीकातो वेदितव्यम् , सेत्तं चउप्पया' इत्यादि।
से किं तं परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?, परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पं०, तं०-उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य । से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ?, उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया चउन्विहा पं०, तं०-अही अयगरा आसालिया
अनुक्रम [१६१]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं -1, --------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३५]
महोरगा ।। से किं तं अही?, अही दुविहा पं०, तं०-दवीकरा य मउलिणो य, से किं तं दध्वीकरा', दवीकरा अणेगविहा पं००-आसीविसा दिट्टीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाविसा लालाविसा उस्सासविसा नीसासविसा कण्हसपा सेदसया काओदरा दज्झपुफा कोलाहा मेलिमिंदा सेसिंदा जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं दबीकरा । से किं तं मउलिणो?, मउलिणो अणेगविहा पं० सं०-दिवागा गोणसा कसाहीया वइउला चित्तलिणो मंडलिणो मालिणो अही अहिसलागा वासपडागा जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं मउलिणो, सेतं अही। से किं ते अयगरा, अयगरा एगागारा प०, सेनं अयगरा । से किं तं आसालिया?, कहिणं भंते ! आसालिया संमुच्छति', गोयमा! अंतो मणुस्सखिने अड्डाइजेस दीवेसु निहाषाएणं पन्नरससु कम्मभूमिसु वाघायं पडच्च पंचसु महाविदेहेसु चक्कवट्टिखंधावारेसु वासुदेवखंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावारेसु महामंडलियखंधावारेसु गामनिवेसेसु णगरनिवेसेसु णिगमनिवेसेसु खेडनिवेसेसु कब्बडनिवेसेसु मडंबनिवेसेसु दोणमुहनिवेसेसु पट्टणनिवेसेसु आगरनिवेसेसु आसमनिवेसेसु संचाहनिवेसेसु रायहाणीनिवेसेसु एएसिणं चेव विणासेसु एत्थ णं आसालिया संमुच्छति । जहनेणं अंगुलस्स असंखेजहभागमित्ताए ओगाहणाए उकोसेणं बारसजोयणाई तयणुरूवं चणं विक्खंभवाहल्लेणं भूमींदालिचा णं समुद्देइ, असन्नी मिच्छदिट्टी अण्णाणी अंतोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ, सेतं आसालिया । से किं तं महोरगा?, महोरगा अणेगविहा पं०, तं०-अत्थेगइआ अंगुलंपि अंगुलपुहुत्तियावि वियस्थिपि वियत्थिपुहुतियावि रयणिपि रयणिपुहुत्तियावि कुञ्छिपि कुच्छिपुहुत्तियावि ध[पि धणुपुहुत्तयावि गाउयपि गाउयाहुत्तयावि जोयणपि जोयणपुहुत्यावि जोयणसयंपि जोयणसयपुहुत्तयावि जोयणसहस्संपि, ते णं थले जाता जलेवि
दीप अनुक्रम [१६२]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं -1, --------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
१प्रज्ञापनापदे प| रिसर्पपश्चन्द्रि.
सुत्राक
॥४६॥
[३५]
दीप अनुक्रम [१६२]
चरति थलेऽवि चरन्ति, ते णस्थि इह, बाहिरएसु दीवेसु समुद्दएसु इवन्ति, जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं महोरगा । ते समासओ दुविहा पं० त०-समुच्छिमा य गम्भवतिया य, तत्थ णं जे ते समुच्छिमा ते सत्वे नपुंसगा, तत्थ णं जे ते गम्भवकंतिया ते णं तिविहा पं०, तं०-इत्थी पुरिसगा नपुंसगा । एएसिणं एवमाइयाणं पजत्तापजत्ताणं उरपरिसप्पाणं दस जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, से उरपरिसप्पा । से कितं भुयपरिसप्पा, भुवपरिसप्पा अणेगविहा प० तं०-नउला सेहा सरडा सल्ला सरंठा सारा खोरा घरोइला विस्संभरा मूसा मंगुसा पयलाइया छीरविरालिया जहा चउप्पाइया, जे यावचे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा प००-समुच्छिमा य गम्भवतिया य, तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सवे नपुंसगा, तत्थ णं जे ते गब्भवतिया ते ण तिविहा पं० त०-इत्थी पुरिसा नपुंसगा । एएसिणं एवमाझ्याणं पअत्तापजचाणं भुयपरिसप्पाणं नव जाइकुलकोडिजोणिपमुहसयसहस्सा भवन्तीति मक्खाय, सेत्तं भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, सेत्तं परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया । (मू०३५)
अथ के ते परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः?, सूरिराह-परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिका द्विविधाःद्विप्रकाराः प्रज्ञसाः, तद्यथा-'उरपरिसप्प' इत्यादि, उरसा परिसर्पन्तीति उरम्परिसर्पाः तेच ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यगयोनिकाः उरःपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः, भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति मुजपरिसर्पाः ते च ते स्थलचरपश्चेन्द्रियतैर्यगयोनिकाश्च भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः,चशब्दो प्रत्येक खगतानेकभेदसूचकी, तत्रोरःपरिसर्पस्थल
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[३५]
दीप
अनुक्रम [१६२]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
. दारं [ - ], --------
• मूलं [३५]
पदं [१], --------------- उद्देशक: [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
चरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकभेदानुपदिदर्शयिपुरिदमाह-'से किं तं उरपरिसप्प' इत्यादि, अथ के ते उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः?, सूरिराह - उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अयोऽजगरा आसालिगा महोरगाः ॥ एतेषामेव भेदानामवगमाय प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह - 'से किं तं' इत्यादि, अथ के तेऽहयः ?, गुरुराह- अहयो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथादर्वीकराश्च मुकुलिनश्च, तत्र दवव दव-फणा तत्करणशीला दर्वीकराः, मुकुलं-फणाविरहयोग्या शरीरावयवविशेषाकृतिः सा विद्यते येषां ते मुकुलिनः, फणाकरणशक्तिविकला इत्यर्थः, अत्रापि चशब्दी स्वगतानेकभेदसूचकौ । तत्र दर्बीकरभेदानभिधित्सुराह - 'से किं तं' इत्यादि, आश्यो- दंष्ट्राः तासु विषं येषां ते आशीविषाः, उक्तं च-- "आसी दाढा तग्गयविसा य आसीविसा मुणेयचा" इति, दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः उग्रं विषं येषां ते उग्रविषाः भोगः शरीरं तत्र विपं येषां ते भोगविषाः त्वचि विषं येषां ते त्वविषाः प्राकृतत्वाच्च 'तयाविसा' इति पाठः लाला-मुखात् स्रावः तत्र विषं येषां ते लालाचिपाः निःश्वासे विषं येषां ते निःश्वासविषाः कृष्णसर्पादयो जातिभेदा लोकतः प्रतिपत्तव्याः, उपसंहारमाह-- 'सेत्तं दधीकरा । मुकुलिनः प्रतिपिपादयिषुरिदमाह से किं तं' इत्यादि, एतेऽपि लोकतोऽवसेयाः । अजगराणामवान्तरजातिभेदा न विद्यन्ते तत उक्तम्- एकाकारा अजगराः प्रज्ञप्ताः । आसा लिगामभिधित्सुराह—' से किं तं आसालिया' अथ का सा आसालिगा ?, एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सति भगवान् आर्यश्यामो यदेव ग्रन्थान्तरेषु आसालिगाप्रतिपादकं गौ
For Parts Only
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं -1, --------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलया वृत्ती.
सूत्रांक
॥४७॥
दीप अनुक्रम [१६२]
तमप्रश्नभगवनिर्वचनरूपं सूत्रमस्ति तदेवागमबहुमानतः पठति-'कहिणं भंते!' इत्यादि, क्व'ण' इति वाक्याल- १ प्रज्ञापकारे भदन्त-परमकल्याणयोगिन् ! आसालिगा संमूर्छति ?, एषा हि गर्भजा न भवति किन्तु संमूछिमैव ततनापदे पउक्तं संमूर्च्छति, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गौतम ! अन्तः-मध्ये मनुष्यक्षेत्रे-मनुष्यक्षेत्रस्य न बहिः, एतावता
रिसर्प. मनुष्यक्षेत्राद् बहिरस्या उत्पादो न भवतीति प्रतिपादितं, तत्रापि मनुष्यक्षेत्रे सर्वत्र न भवति किन्वर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु
(सू. ३५) अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽद्धतृतीयाः, अवयवेन विग्रहः, समुदायः समासार्थः, तेषु, एतावता लवणसमुद्रे कालोदसमुद्रे वा न भवतीत्यावेदितमित्यर्थः 'निवाघाएणं' इत्यादि, निर्व्याघातेन-व्याघातस्थाभावो नियाघातं तेन यदि पञ्चसु भरतेषु पञ्चसु ऐरवतेषु सुषमसुषमादिरूपो दुष्यमदुष्षमादिरूपश्च कालो व्याघातहेतुत्वाद् व्याघातो न भवति तदा पञ्चदशसु कर्मभूमिषु संमूर्छति, व्याघातं प्रतीत्य, किमुक्तं भवति-यदि पञ्चसु भरतेषु पश्चखैरवतेषु यथोक्तरूपी व्याधातो भवति ततः पञ्चसु महाविदेहेषु संमूर्छति, एतावता त्रिंशत्यप्यकर्मभूमिषु नोपजायते इति प्रतिपादितम् , पञ्चदशसु कर्मभूमिषु पञ्चसु वा महाविदेहेषु न सर्वत्र संमूर्च्छति, किन्तु चक्रवर्तिस्कन्धावारेषु, वाशब्दः सर्वत्रापि विकल्पार्थो द्रष्टव्यः, बलदेवस्कन्धावारेषु वासुदेवस्कन्धावारेषु, माण्डलिक:-सामान्यराजाऽल्पर्धिकः, महामाण्डलिकः। स एवानेकदेशाधिपतिः तत्स्कन्धावारेषु, 'गामनिवेसेसु' इत्यादि, असति बुद्धयादीन् गुणानिति ग्रामः, यदिवा गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशकराणामिति ग्रामः, निगमः-प्रभूततरवणिग्वर्गावासः, पांसुप्राकारनिबद्धं खेटं, क्षुल-18
॥४७॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं -1, --------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३५]
प्राकारवेष्टितं कर्बटम् , अर्द्धतृतीयगन्यूतान्तामान्तररहितं मडम्बम्, 'पट्टणत्ति' पट्टन पत्तनं वा, उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात् , तत्र यन्नौभिरेव गम्यं तत् पट्टनं, वत्पुनर्शकटै|टकैनौभिर्वा गम्यं तत् पत्तनं, यथा भृगुकच्छं, उक्तं च-"पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च । नौभिरेव तु यद् गम्यं, पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥१॥"N द्रोणमुखं-बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेशम् , आकरो हिरण्याकरादिः, आश्रमः-तापसावसथोपलक्षित आश्रयः, संवाघोयात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः, राजधानी-राजाधिष्टानं नगरं । 'एएसिणं' इत्यादि, एतेषां चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामेव विनाशेषूपस्थितेषु 'एत्थ अंति' एतेषु चक्रवर्तिस्कन्धावारादिषु स्थानेषु आसालिका संमूर्च्छति, सा च जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयमागमात्रयाऽवगाहनया समुत्तिष्ठतीति योगः, एतयोत्पादप्रथमसमये वेदितव्यं, उत्कर्षतो द्वादश योजनानि, तदनुरूपं-द्वादशयोजनप्रमाणानुरूपं विक्खंभवाहलेणं' ति विष्कम्भश्च बाहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं समाहारो द्वन्द्वः तेन, विष्कम्भो-विस्तारः बाहल्यं-स्थूलता, भूमी 'दालित्ता गं' विदार्य समुपतिष्ठति, चक्रवर्तिस्कन्धावारादीनामधस्ताद् भूमेरन्तरुत्पद्यते इति भावः, सा चासंज्ञिनी-अमनस्का, संमूर्छिमत्वात् , मिध्यादृष्टिः, साखादनसम्यक्त्वस्यापि तस्या(अ)संभवात् , अत एवाज्ञानिनी अन्तर्मुहूर्तायुरेव कालं करोति, तदेवं ग्रन्थान्तर्गतं सूत्रं पठित्वा सूत्रकृत् सम्प्रति उपसंहारमाह-सेचं आसालिया' ॥ सम्प्रति महोरगानभिधित्सुराह'से किं तं' इत्यादि सुगम, नवरं वितस्तिौदशाङ्गुलप्रमाणा, रनिहस्तः, कुक्षिद्धिहस्तमानः, धनुश्चतुर्हस्तं, गव्यूतं
दीप अनुक्रम [१६२]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-1,--------------- दारं -1, --------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत
प्रज्ञापना- याः मलय. वृत्ती.
सुत्राक
[३५]
॥४८॥
दीप अनुक्रम [१६२]
द्विधनुःसहस्रप्रमाणं, चत्वारि गन्यूतानि योजनं, इदं च वितस्त्यादि उच्छ्याङ्गुलापेक्षया द्रष्टव्यं, शरीरप्रमाणस्य १ प्रज्ञापपरिचिन्त्यमानत्वात् , तथा अस्तीति निपातोऽत्र बहुत्वाभिधायी प्रतिपदं च संबध्यते, ततोऽयमर्थः-सन्येके के- नापदे पचन महोरगा अङ्गुलमपि शरीरावगाहनया भवन्ति, तथा सन्येके केचन येऽङ्गुलपृथक्त्विका अपि, अङ्गुलपृथक्त्वं रिसर्प. विद्यते येषां ते अङ्गुलपृथक्त्विकाः, “अतोऽनेकखरात्" इति इकप्रत्ययः, तेऽपि शरीरावगाहनया भवन्ति, अङ्गुल- (सू. ३५) पृथक्त्वमानशरीरावगाहना अपि भवन्तीति भावः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि । 'ते णं' इत्यादि, ते अनन्तरो[दितस्वरूपा महोरगाः स्थलचरविशेषत्वात् स्थले जायन्ते. स्थले च जाताः सन्तो जलेऽपि स्थल इव चरन्ति स्थलेऽपि चरन्ति, तथाभवखाभाब्यात् , यद्येवं ते कस्मादिह न दृश्यन्ते इत्याशङ्कायामाह-'ते नत्थि इहं' इत्यादि, 'ते' यथोक्तखरूपा महोरगा 'इह' मानुषे क्षेत्रे 'नस्थिति'न सन्ति, किन्तु बायेषु द्वीपसमुद्रेषु भवन्ति, समुद्रेवपि च | पर्वतदेवनगयोंदिषु स्थलेषूत्पद्यन्ते न जलेषु, स्थूलतरत्वात् , तत इह न दृश्यन्ते । जे यावन्ने तहप्पगारा' इति, येऽपि चान्ये अङ्गुलदशकादिशरीरावगाहनमानास्तधाप्रकाराः सन्ति तेऽपि महोरगा ज्ञातव्याः । उपसंहारमाह-'से' इत्यादि, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वद्भावनीयम्। एतेषामपि दश जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि ॥४८॥ एतेषामपि च यत् शरीरादिषु द्वारेषु चिन्तनं यच्च स्त्रीपुंनसकानामल्पवहुत्वं तज्जीवाभिगमटीकातो भावनीयम् । उर परिसर्पवक्तव्यतोपसंहारमाह-'से उरपरिसप्पा'। अधुना मुजपरिसानभिधित्सुराह-सुगम, नवरं ये भुज-16
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], --------------- दारं -1, --------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३५]
620
परिसर्पविशेषा अप्रतीतास्ते लोकतोऽवसेयाः । अमीषां च नव जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि भव-| न्ति, यत्पुनः शरीरादिषु द्वारेषु चिन्तनं यश्च खीपुंनपुंसकानामल्पबहुत्वं तज्जीवाभिगमटीकातो वेदितव्यं 'सेत्तं'। इत्यादि । सम्प्रति खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानभिधित्सुराहसे कि त खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?, खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया चउबिहा पं०, ०-चम्मपक्खी लोमपक्खी समुग्गपक्खी विययपक्खी, से किं तं चम्मपक्खी, चम्मपक्खी अणेगविहा प०,०-वग्गुली जलोया अडिल्ला भारंडपक्खी जीवंजीवा समुदवायसा कण्णनिया पक्खिविरालिया, जे यावने तहप्पगारा, सेनं चम्मपक्खी। से किं तं लोमपक्खी, लोमपक्खी अणेगविहा प०, तं-ढंका कंका कुरला वायसा चकागा हंसा कलहंसा रायहंसा पायहंसा आडा सेडी बगा बलागा पारिप्पवा कोंचा सारसा मेसरा मसूरा मयूरा सत्तहत्था गहरा पोंडरिया कागा कामिंजुया बंजुलगा तित्तिरा वगा लावगा कवोया कविजला पारेवया चिडगा चासा कुकुडा सुगा बरहिणा मयणसलागा कोइला सेहा परिलगमाइ, सेत्तं लोमपक्खी । से किं तं समुग्गपक्खी, समुग्गपक्खी एगागारा पत्रचा, ते णं नत्थि इई, बाहिरएसु दीवसमुदेसु भवन्ति, सेत्तं समुग्गपक्खी । से किं तं विययपक्खी ?, विययपक्खी एगागारा पन्नत्ता, ते णं नत्थि इह, पाहिरएसु दीवसमुदेसु भवन्ति, सेतं विययपक्खी । ते समासओ दुविहा प०,०-समुच्छिमा य गम्भवतिया य, तत्थ ण जे वे समुच्छिमा ते सो नपुंसगा,तत्थ णं जे ते गम्भवकंतिया ते णं तिविहा प०, तं०-इत्थी पुरिसा नपुंसगा। एएसिणं एवमाइ
दीप अनुक्रम [१६२]
प्र.
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३६] + गाथा(१०७) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती.
[३६]
॥४९॥
_ +
गाथा
याणं खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजतापजचाणं बारस जाइकुलकोडिजोणिपमुहसयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं । प्रज्ञापसत्तडजाइकुलकोडिलक्ख नव अद्भुतेरसाई च । दस दस य होन्ति नवगा तह वारस चेव बोद्ध्वा ॥ १०७॥ सेचं नापदे खेखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, सेत्तं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया । (सू० ३५)
चरपञ्चेअथ के ते खचरपञ्चेन्द्रियतैर्यगयोनिकाः १, सूरिराह-खचरपञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञसाः, तद्यथा
न्द्रियपु. RAT'चम्मपक्खी' इत्यादि, चर्मात्मको पक्षौ चर्मपक्षौ तौ विद्यते येषां ते चर्मपक्षिणः, लोमात्मको पक्षौ लोमपक्षी
तद्वन्तो लोमपक्षिणः, तथा गच्छतामपि समुद्गकवत् स्थिती पक्षी समुद्गकपक्षी तद्वन्तः समुद्गकपक्षिणः, वितती नित्यमनाकुञ्चिती पक्षी येषां (तो) विततपक्षी तद्वन्तो विततपक्षिणः । से किं तं' इत्यादि, अथ के ते चर्मपक्षिणः १, चर्मपक्षिणोऽनेकविधाः प्रज्ञप्ताः तदयथा-वलाली इत्यादि, एते च भेदा लोकतोऽवसेयाः, जे यावन्ने तहप्पगारा' इति,येऽपि चान्ये तथाप्रकारा:-एवंरूपास्ते चर्मपक्षिणो द्रष्टव्याः, उपसंहारमाह-'सेत्तं चम्मपक्खी' लोमपक्षिप्रति||पादनार्थमाह-'से कि तं' इत्यादि, एते च लोमपक्षिभेदा लोकतो वेदितव्याः।समुद्गकपक्षिप्रतिपादनार्थमाह-18
से किंत' इत्यादि पाठसिद्धं, एवं विततपक्षिसूत्रमपि। 'ते समासओ' इत्यादि प्रागवद् भावनीयं, एतेषां द्वादश जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि।अमीषामपि शरीरादिषु द्वारेषु चिन्तनं स्त्रीपुंनपुंसकानामल्पबहुत्वं । च जीवाभिगमटीकातः प्रतिपत्तव्यं, इह तु ग्रन्थगौरवभयान लिख्यते । अधुना विनयजनानुग्रहाय द्वीन्द्रियप्रभृति
दीप अनुक्रम [१६३
॥४९॥
-१६५]
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [-], ------------- मूलं [३६] + गाथा(१०७) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
[३६]
गाथा
जातिकलकोटिशतसहस्रसंख्याप्रतिपादिका संग्रहिणीगाथामाह-अत्र द्वीन्द्रियेभ्य आरभ्य यथासंख्येन संख्यापद-18
योजना, सा चैवं-द्वीन्द्रियाणां सप्स जातिकुलकोटिलक्षाणि, त्रीन्द्रियाणामष्टी, चतुरिन्द्रियाणां नव, जलचरपञ्चेन्द्रियाSणाम त्रयोदशानि, चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणां दश, उर परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणां दश, भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चे
न्द्रियाणां नव, खचरपञ्चेन्द्रियाणां द्वादशेति । उपसंहारमाह-'सेत्तं' इत्यादि । तदेवमुक्ताः पञ्चेन्द्रियतैर्यग्योनिकाः। सम्प्रति मनुष्यानभिषित्सुराहसे किं तं मणस्सा . मणुस्सा दुविहा पं०, तं०-समुच्छिममणुस्सा य गम्भवतियमणुस्सा य, से किं तं समुच्छिममणुस्सा, कहि णं भन्ते ! समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ?, गोयमा! अंतो मणुस्सखित्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीम तीसाए अकम्मभूमीसु छपनाए अंतरदीवएसु गम्भवतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा बंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुकेसु वा सुकपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा णगरनिद्धमणेसु वा सबेसु चेव असुइहाणेसु, एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति, अंगुलस्स असंखेजहभागमेत्ताए ओगाहणाए असन्नी मिच्छदिही अन्नाणी सहाहि पजत्तीहिं अपजत्तगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति । से तं समुच्छिममणुस्सा ॥ से किं तं गम्भवकंतियमणुस्सा, गम्भवतियमणुस्सा तिविहा प०,०-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अन्तरदीवगा, से कि तं अन्तरदीवगा?, अंतरदीवगा अठ्ठावीसविहा प०,
दीप अनुक्रम [१६३
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-१६५]
wrajurasurary.com
अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये मनुष्य-जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], --------------- उद्देशक: -,---------------दारं -,--------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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मज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
सूत्रांक
॥५०॥
[३७]
दीप अनुक्रम [१६६]
तं-एगोरुया आहासिया वेसाणिया गंगोली हयना गर्यकन्ना गोकना संकुलिकन्ना आयसमुहा मेंटमुंही अयोमुहा गोमुही प्रज्ञापआँसमुहा हत्यिमुंहा सीह हा वैधमुहा आँसकन्ना हरिकन्ना अंकना कोणपाउरणा उक्कामुहा मेहमुंहा विजुमुहा विजुदता
शनापदे मघणदंता लहदंता गूढ्दता सुद्धदंता । सेत्तं अन्तरदीवगा । से किं तं अकम्मभूमगा?, अकम्मभूमगां तीसविहा प०, ०
नुष्यप्रज्ञा. पंचहि हेमवएहि पंचहिं हिरण्णवएहिं पंचहि हरिवासेहिं पंचहि रम्भगवासेहिं पंचहिं देवकुरूहि पंचहिं उत्तरकुरूहिं । से अकम्मभूमगा।
अत्रापि संमूछिममनुष्यविषये प्रवचनबहुमानतः शिष्याणामपि च साक्षाद् भगवतेदमुक्तमिति बहुमानोत्पादनाथेमनान्तर्गतमालापकं पठति-'कहि णं भन्ते' इत्यादि, सुगम, नवरं 'सबेसु चेव असुइटाणेसुत्ति' अन्यान्यपि यानि कानिचिद् मनुष्यसंसर्गवशादशुचिभूतानि स्थानानि तेषु सर्वेष्विति । उक्ताः संमूछिममनुष्याः, अधुना गर्भव्युत्का|न्तिकमनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-'कम्मभूमगा' इति कर्म-कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते कर्मभूमाः आर्षत्वात् समासान्तोऽत्प्रत्ययः कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः, एवमकर्मा-यथोक्तकर्मविकला भूमिर्येषां ते अकर्मभूमाः ते एव अकर्मभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यबाची, अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः तद्गता। अन्तरद्वीपगाः, “अस्ति पश्चानुपूर्वी" इ(4पी)ति न्यायख्यापनार्थ प्रथमतोऽन्तरद्वीपगान् प्रतिपादयति-से किं तं'। इत्यादि सुगम, नवरमष्टाविंशतिविधा इति यादृशा एव यावत्प्रमाणा यावदपान्तराला यन्नामानो हिमवत्पर्वतपूर्वाप-19
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], --------------- उद्देशक: -,---------------दारं -,--------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३७]
दीप अनुक्रम [१६६]
रदिग्व्यवस्थिताः अष्टाविंशतिविधा अन्तरद्वीपास्तादशा एव तावत्प्रमाणा तावदपान्तरालास्तन्नामान एव शिखरिपतपूर्वापरदिग्व्यवस्थिता अपि, ततोऽत्यन्तसदृशतया व्यक्तिभेदमनपेक्ष्यान्तरद्वीपा अष्टाविंशतिविधा एव विवक्षिता इति तजातमनुष्या अप्यष्टाविंशतिविधा उक्ताः। तानेव नामग्राहमुपदर्शयति-तंजहा एगोरुया' इत्यादि, एते सप्त चतुष्काः, अष्टाविंशतिसंख्यत्वात् , एते च प्रत्येकं हिमवति शिखरिणि च, तत्र हिमवद्गतास्तावद्भाव्यन्ते-इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिनिममपञ्चविंशतियोजनो योजनशतोच्छ्रयपरिमाणो भरतक्षेत्रापेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयश्चीनपट्टयों नानावर्णविशिष्टधुतिमणिनिकरपरिमण्डितोभयपार्थः सर्वत्र तुल्यविस्तारो गगनमण्डलोलेखिरनमयैकादशकूटोपशोभितो वनमयतलविविधमणिकनकमण्डित तटभागदशयोजनावगाढपूर्वपश्चिमयोजनसहसायामदक्षिणोत्तरपञ्चयोजनशतविस्तारः पद्मदशोभितशिरोमध्यभागः सर्वतः कल्पपादपश्रेणिरमणीयः पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणोदार्णवजलसंस्पर्शी हिमवन्नामा पर्वतः, तस्य लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य पूर्वस्यां पश्चि-1 मायाच दिशि प्रत्येकं वे द्वे गजदन्ताकारे दंष्ट्रे विनिर्गते, तत्र ऐशान्यां दिशि या विनिर्गता दंष्ट्रा तस्यां हिमवतः पर्य-17 न्तादारभ्य त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगायात्रान्तरे योजनशतत्रयायामविष्कम्भः किश्चिन्यूनकोनपञ्चाशद|धिकनवयोजनशतपरिरय एकोरुकनामा द्वीपो वर्तते, अयं च पञ्चधनु शतप्रमाणविष्कम्भया द्विगव्यूतोच्छ्रितया पद्यवरवेदिकया सर्वतः परिमण्डितः, तस्याश्च पावरवेदिकाया वर्णको जीवाभिगमटीकायामिव वेदितव्यः, साऽपि च ।
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------उद्देशक: [-], --------------- दारं -,--------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापना- या: मलय. वृत्ती.
सूत्राक
॥५१॥
[३७]]
दीप अनुक्रम [१६६]
पद्मवरवेदिका सर्वतः सामस्त्येन वनखण्डपरिक्षिप्ता, वनाच वनखण्डस्यायं विशेषः-प्रायो बहूनां समानजातीयाना- प्रज्ञापमुत्तमानां महीरुहाणां समुदायो वनं, यथा अशोकवनं चम्पकवनमिति, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणांनापदे मसमूहो वनखण्डः, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकायाम्-"एगजाइएहि खण्डेहिं वणं, अणेगजाइएहिं उत्तमेहि वण- नुष्यप्रज्ञा. संडे" इति, तस्य च वनखण्डस्य चक्रवालतया विष्कम्भो देशोने द्वे योजने, परिक्षेपः पद्मवरवेदिकाप्रमाणः, अस्य च (सू. ३६) वनखण्डस्य वर्णकः प्रतिपादितोऽस्ति, स चातीय गरीयानिति नोपदर्शितः, केवलं जीवाभिगमटीकातोऽवसेयः तस्यैव हिमवतः पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाय द्वितीयदंष्ट्राया उपरि एकोरुकद्वीपप्रमाण आभासिकनामा द्वीपो वर्तते, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य दक्षिणप-28 |श्चिमायां-नैतकोण इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाव दंष्ट्राया उपरि यथोक्तप्रमाणो वैषाणिकना-IN मा द्वीपः, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरस्यां दिशि-वायव्यकोणे इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमध्ये दंष्ट्रामतिक्रम्यात्रान्तरे पूर्वोक्तप्रमाणो नाङ्गोलिकनामा द्वीपः, एवमेते चत्वारो द्वीपा हिमवतश्चतसृष्वपि विदिक्ष तुल्यप्रमाणा अवतिष्ठन्ते. उक्तं च-"चुलहिमवंतपुषावरेण विदिसासु सागरं तिसए । गंतूर्णतरदीवा तिण्णि सए हुन्ति विच्छिन्ना ॥१॥ अउणापन्ननवसए किंचूर्ण परिहि तेसिमे नामा। एगोरुयगाभा-IN |सिय वेसाणिय चेव नंगूली ॥२॥" तत एषामेकोरुकादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], ---------------उद्देशक: [-], --------------- दारं -,--------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[३७]]
प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि योजनशतान्यतिक्रम्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भाः किञ्चिन्यूनपञ्चषष्टिसहितद्वादशयोजनशतपरिक्षेपाः यथोक्तपमवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसराः जम्बूद्वीपवेदिकातश्चतुर्योजनशतप्रमाणान्तरा हयकर्णग-2 जकर्णगोकर्णशष्कुलीकर्णनामानश्चत्वारो द्वीपाः,तद्यथा-एकोरुकस्य परतो हयकर्णः आभासिकस्य परसो गजकर्णः वैपाणिकस्य परतो गोकर्णः नाङ्गोलिकस्य परतो शष्कुलीकर्ण इति । तत एतेषामपि हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतः। पुनरपि यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं पञ्च पञ्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा एकाशी-ISI त्यधिकपञ्चदशयोजनशतपरिक्षेपाः पूर्वोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितवायप्रदेशा जम्बूद्वीपवेदिकातः पञ्चयो-1 जनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुख १ मण्ढमुख २ अयोमुख ३ गोमुख ४ नामानश्चत्वारोद्वीपाः, तद्यथा-हयकर्णस्य परत आदर्शमुखः गजकर्णस्य परतो मेण्ढमुखः गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः शष्कुलीकर्णस्य परतो गोमुख इति । एवमग्रेऽपि भावना कार्या, एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं षट् पट् योजनशतान्यतिक्रम्य षट्रयोजनशतायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणप-5 वरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातः षड्योजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुखव्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एतेषामप्यश्चमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं सप्त २ योजनशतान्यतिक्रम्य सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशतियोजनशतपरिरयाः पूर्वोक्तप्रमाणपझ
दीप अनुक्रम [१६६]
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, --------------- दारं-1, --------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [३७]]
॥५२॥
दीप अनुक्रम [१६६]
प्रज्ञापना- वरवेदिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकातः सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णहरिकर्णाकर्णकर्णप्रावरणनामा- प्रज्ञापयाः मल- नश्चत्वारो द्वीपाः । तत एतेषामश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टावष्टौ यो-1 य० वृत्ती.
जनशतान्यतिक्रम्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपनवरवे- नुष्यप्रज्ञा. दिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातोऽष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुखमेघमुखविद्युन्मुखविद्युद्दन्ताभि
(सू.३६) धानाचत्वारो द्वीपाः । ततोऽमीषामपि उल्कामुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक नव नव योजनशतान्यतिक्रम्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टाविंशतियोजनशतपरिक्षेपा। यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकातो नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एवमेते हिमवति पर्वते चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसंख्ययाऽष्टाविंशतिः, एवं हिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणे पद्महदप्रमाणायामविष्कम्भावगाहपुण्डरीकहूदोपशोभिते शिखरिण्यपि पर्वते लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तरासु चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिता एकोरुकादिनामानोऽक्षणापान्तरालायामवि
५२॥ कम्भा अष्टाविंशतिसंख्या दीपा वक्तव्याः, सर्वसंख्यया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः, एतद्गता मनुष्या अप्येतनामानः
उपचारात्, भवति च तात्स्थ्यात् तद्ववपदेशः, यथा पञ्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पश्चाला इति, ते च मनुष्या वज्रशिर्षभनाराचसंहननिनः कङ्कपक्षिपरिणामा अनुलोमवायुवेगा समचतुरस्रसंस्थानाः, तद्यथा-सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणाः
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], --------------- उद्देशक: -,---------------दारं -,--------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]
1-सुकुमारश्लक्ष्णप्रविरलरोमकुरुविन्दवृत्तजङ्घायुगला निगूढसुबद्धसंधिजानुप्रदेशाः करिकरसमवृत्तोरवः कण्ठीरवसरश-8
कटीप्रदेशाः शक्रायुधसममध्यभागाः प्रदक्षिणावर्तनाभिमण्डलाः श्रीवत्सलाभिछतविशालमांसलवक्षःस्थलाः पुरपरिघाऽनुकारिदीर्घवाहवः सुश्लिष्टमणिबन्धा रक्तोत्पलपत्रानुकारिशोणपाणिपादतलाः चतुरङ्गुलप्रमाणसमवृत्तकम्बुग्रीवाः शारदशशाङ्कसीम्यवदनाः छत्राकारशिरसोऽस्फुटितस्निग्धकान्तिश्चक्ष्णमूर्द्धजाः कमण्डलु कलश यूंपैस्तूंप बोपी ध्वज पताका सौवस्तिक या मत्स्य मकर कर्म रथवर स्थीलांशुकाष्टीपर्दाईश सुप्रतिष्ठक मयूर श्रीदामाभिषेक तोरण में[दिनी जलधि वरभवनादर्शपर्वतगजवषमसिंहच्छत्रचामररूपप्रशस्तोत्तमद्वात्रिंशलक्षणधराः । स्त्रियोऽपि सुजातसङ्गिसुन्दर्यः समस्तमहेलागुणसमन्विताः संहताङ्गुलिपद्मदलवत्सुकुमारकूर्मसंस्थानमनोहारिचरणा रोमरहितप्रशस्तलक्षणोपेतजलायुगला निगूढमांसलजानुप्रदेशाः कदलीस्तम्भनिभसंहतसुकुमारपीवरोरुका वदनायामप्रमाणत्रिगुणांसलविशा- लजघनधारिण्यः स्निग्धकान्तिसुविभक्तश्लक्ष्णरोमराजयः प्रदक्षिणावर्ततरङ्गभङ्गुरनाभिमण्डलाः प्रशस्तलक्षणोपेतकुक्षयः संगतपार्थाः कनककलशोपमसंहितात्युन्नतवृत्ताकृतिपीवरपयोधराः सुकुमारबाहुलतिकाः सौवस्तिकशङ्खचक्राधाकृतिलेखालङ्कतपाणिपादतलाः वदनविभागोच्छूितमांसलकम्बुग्रीवाः प्रशस्तलक्षणोपेतमांसलहनुविभागा दाडिमपुष्पानुकारिशोणिमाधरौष्ठा रक्तोत्पलतालुजिह्वा विकसितकुवलयपत्रायतकान्तलोचना आरोपितचापपृष्ठाकृतिसुसंगतभूलतिकाः प्रमाणोपपन्नललाटफलकाः सुस्निग्धकान्तश्लक्ष्णशिरोरुहाः पुरुषेभ्यः किश्चिदूनोच्छ्रायाः स्वभावत उदारकारचारुषेषाः
दीप अनुक्रम [१६६]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना"
पदं [१], --------------- उद्देशक: -,---------------दारं -,--------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[३७]]
दीप अनुक्रम [१६६]
प्रज्ञापना- प्रकृत्यैव हसितमणितविलासविषयपरमनैपुण्योपेताः। तथा मनुष्या मानुष्यश्च खभावत एव सुरभिवदनाः प्रतनुक्रो- १ प्रज्ञापयाः मल- धमानमायालोभाः संतोषिणो निरौत्सुक्या मार्दवार्जवसंपन्नाः सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादौ ममत्वका-18 | नापदे मय. वृत्ती. रणे ममत्वाभिनिवेशरहिताः सर्वथाऽपगतवैरानुबन्धा हस्त्यश्वकरभगोमहिण्यादिसद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाःनुष्यप्रज्ञा.
पादविहारिणो ज्वरादिरोगयक्षभूतपिशाचादिग्रहमारिव्यसनोपनिपातविकलाः परस्परप्रेष्यप्रेषकभावरहितत्वादहमि- (सू. ३६) न्द्राः, तेषां पृष्ठकरण्डकानि चतुःषष्टिसंख्याकानि चतुर्थातिक्रमे चाहारग्रहणं, आहारोऽपि च न शाल्यादिधान्यनिप्पन्नः किन्तु पृथ्वीमृत्तिका कल्पद्रुमाणां पुष्पफलानि च, तथाहि-जायन्ते खलु तत्रापि विस्रसात एव शालिगोधूम|माषमुद्गादीनि धान्यानि, परं न तानि मनुष्याणामुपभोगं गच्छन्ति, या तु पृथ्वी सा शर्करातोऽप्यनन्तगुणमाधुर्या, यश्च कल्पद्रुमपुष्पफलानामाखादः स चक्रवर्तिभोजनादप्यधिकगुणः,तथा चोक्तम्-"तेसिणं भंते! पुप्फफलाणं केरिसए।
आसाए पन्नते ?,गोयमा ! से जहानामए रन्नो चाउरतस्स चक्कवहिस्स कलाणे भोयणजाए सयसहस्सनिष्फन्ने वन्नोवए। IS रसोबए फासोबए आसायणिज्जे दप्पणिजे मयणिज्जे बिहणिजे सदियगायपल्हायणिजे आसाएणं पन्नत्ते, एत्तोवि ISI इतराए चेव पन्नत्ते"। ततः पृथ्वी कल्पद्रुमपुष्पफलानि च तेषामाहारः, तथाभूतं चाहारमाहार्य प्रासादादिसंस्थाना
१ तेषां भदन्त ! पुष्पफलाना कीटश आस्वादः प्रज्ञप्तः ,गौतम!स यथानामकः राज्ञश्चातुरन्तस्य चक्रवर्तिनः कल्याणं भोजनजातं शतसहस्रनिष्पन्नं वर्णोपगं रसोपगं स्पर्शोपगं आस्वादनीयं दर्पणीय मदनीयं बृंहणीयं सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयमाखादेन प्रज्ञप्तं, इतोऽपीष्टतरक एवं प्राप्तः।
॥५३॥
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[३७]
दीप
अनुक्रम [१६६ ]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
----------- उद्देशकः [ - ], -----
दारं [-],
मूलं [३७...]
पदं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
ये गृहाकाराः कल्पवृक्षास्तेषु यथासुखमवतिष्ठन्ते, न च तत्र क्षेत्रे दंशमशकयूकामत्कुणमक्षिकादयः शरीरोपद्रवकारिणो जन्तव उपजायन्ते, येऽपि च जायन्ते भुजगव्यामसिंहादयस्तेऽपि मनुष्याणां न बाधायै प्रभवन्ति, नापि ते परस्परं हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते, क्षेत्रानुभावतो रौद्रानुभावरहितत्वात्, मनुष्ययुगलानि च पर्यवसानसमये युगलं प्रसुवते, तथ युगलमे कोनाशीतिदिनानि पालयन्ति तेषां शरीरोच्छ्रयोऽष्टौ धनुःशतानि, पल्योपमासंख्येय भागप्रमाणमायुः, उक्तं च-" अन्तरदीवेसु नरा धणुसयमसिया सया मुइया । पालंति मिहुणधम्मं पलस्स असंखभागाऊ ॥ ॥ १ ॥ चउसट्टि पिट्टकरंडयाणि मणुयाण तेसिंमाहारो। भत्तस्स चउत्थस्स य गुणसीइदिणाणि पालणया ॥ २ ॥" स्तोककषायत स्तोकप्रेमानुबन्धतया च ते मृत्वा दिवमुपसर्पन्ति, मरणं च तेषां जृम्भिकाकासश्रुतादिमात्रव्यापारपुरस्सरं भवति, न शरीरपीडारम्भपुरस्सरमिति । तदेवमुक्ता अन्तरद्वीपगाः ॥ साम्प्रतमकर्म भूमकप्रतिपादनार्थमाहअथ के तेऽकर्मभूमकाः १, सूरिराह - अकर्मभूमका त्रिंशद्विधाः प्रज्ञताः, तच त्रिंशद्विधत्वं क्षेत्रभेदात्, तथा चाह'तंजहा - पंचहिं हेमबएहिं ' इत्यादि, पञ्चभिर्हेमवतैः पञ्चभिर्हेरण्यवतैः पञ्चभिर्हरिवर्षैः पञ्चभी रम्यकवर्षेः पञ्चभिदेवकुरुभिः पञ्चभिरुत्तरकुरुभिर्भिद्यमाना त्रिंशद्विधा भवन्ति, षण्णां पञ्चानां त्रिंशत्संख्यात्मकत्वात् । तत्र पञ्चसु हैमवतेषु पंचसु हैरण्यवतेषु मनुष्या गब्यूतप्रमाणशरीरोच्छ्रयाः पल्योपमायुषो वज्रर्षभनाराचसंहननाः समचतुरस्रसंस्थानाः चतुःषष्टिपृष्ठकरण्डकाश्चतुर्थातिक्रमभोजिन एकोनाशीतिदिनान्यपत्यपालकाः, उक्तं च- "गाउअमुचा पलि
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, --------------- दारं-1, --------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती.
सूत्राक [३७]]
॥५४॥
दीप
ओवमाउणो बजरिसहसंघयणा । हेमवएरनवए अहमिदनरा मिहुणवासी ॥१॥ चउसट्ठी पिट्ठकरंडयाण मणुयाण १ प्रज्ञापतेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स य गुणसीदिणऽवचपालणया ॥२॥" पञ्चसु हरिवर्षेषु पञ्चसु रम्यकेषु द्विपल्योप-IN नापदे ममायुषो द्विगव्यूतप्रमाणशरीरोच्छ्या वज्रर्षभनाराचसंहननाः समचतुरस्रसंस्थानाः षष्ठभक्तातिकमे आहारग्राहिणोनुष्यप्रज्ञा. अष्टाविंशत्यधिकशतसंख्यपृष्ठकरण्डकाश्चतुःपष्टिदिनान्यपत्यपालकाः, आह च-"हरिवासरम्मएK आउपमाणं सरीर- (सू. २६ मुस्सेहो । पलिओवमाणि दोन्नि उ दोन्नि उ कोसुस्सिया भणिया ॥१॥छहस्स य आहारो चउसद्विदिणाणि पालणार तेसिं । पिट्ठकरंडाण सयं अट्ठावीसं मुणेयचं ॥२॥" पञ्चसु देवकुरूषु पञ्चसूत्तरकुरुषु त्रिपल्योपमायुपो गब्यूतत्रयप्र-18
माणशरीरोच्छ्या: समचतुरस्त्रसंस्थाना वज्रर्षभनाराचसंहननिनः षट्पञ्चाशदधिकशतयप्रमाणपृष्ठकरण्डका अष्टमभक्ता-18 &ातिकमाहारिण एकोनपश्चाशदिनान्यपत्यपालकाः, तथा चोक्तम्-"दोसुवि कुरूम मणुया तिपलपरमाउणो तिको-|
सुचा। पिट्टिकरंडसयाई दो छप्पन्नाई मणुयाणं ॥१॥ सुसमसुसमाणुभावं अणुभवमाणाणऽवश्वगोषणया । अउणा-18 पण्णदिणाई अट्ठमभत्तस्समाहारो ॥२॥" एतेषु सर्वेष्वपि क्षेत्रेवन्तरद्वीपेषिव मनुष्याणामुपभोगाः कल्पद्मसंपा-II
समा ॥५४॥ दिताः, नवरमन्तरद्वीपापेक्षया पञ्चसु हैमवतेषु पञ्चसु हैरण्यवतेषु मनुष्याणामुत्थानबलवीर्यादिकं कल्पपादपफलानामाखादो भूमेर्माधुर्यमित्येवमादिका भावाः पर्यायानधिकृत्यानन्तगुणा द्रष्टव्याः, तेभ्योऽपि पञ्चसु हरिवर्षेषु पञ्चसु
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना".
पदं [१], --------------- उद्देशक: -,---------------दारं -,--------------- मूलं [३७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३७]
रम्यकवर्षेषु अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि पञ्चसु देवकुरुषु पञ्चसूत्तरकुरुषु अनन्तगुणाः, तदेवमुक्ता अकर्मभूमकाः ॥ संप्रति कर्मभूमकप्रतिपादनार्थमाह
से कि तं कम्मभूमगा?, कम्मभूमगा पन्नरसविहा पं०,०-पंचहिं भरहेहिं पंचहिँ एवएहि पंचहि महाविदेहेहिं, ते समासओ दुविहा पं०,०-आ [य]रिया व मिलिक्खु य, से किं तं मिलिक्खू, मिलिक्खू अणेगविहा पं०,०-सगा जवणा चिलाया सबरबम्बरमुरंडोहभडगनिष्णगपकणिया कुलक्खगोंडसिहलपारसगोधा कोंचअंबडइदमिलचिल्ललपुलिंदहारोसदाबवोकाणगन्धा हारवा पहलियअझलरोमपासपउसा मलया य बंधुया य सूयलिकोंकणगमेयपल्हवमालव मग्गर आभासिआ कणवीर लहसिय खसा सासिय णदर मौढ डॉबिल गलओस पओस ककेय अक्खाग हणरोमग एणरोमग भरु मरुय चिलाय वियवासी य एवमाइ, से मिलिक्खू ।
अथ के ते कर्मभूमकाः १. सरिराह कर्मभूमकाः पञ्चदशविधाः प्रज्ञसाः, तच पञ्चदशविधत्वं क्षेत्रभेदात्, तथा|| |चाह-'पञ्चहिं भरहेहिं' इत्यादि. पञ्चभिर्भरतः पञ्चभिरैरवतैः पञ्चभिर्महाविदेहेभिद्यमानाः पञ्चदशविधा भवन्ति, त च पञ्चदशविघा अपि समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आर्या म्लेच्छाश्च, तत्र आराद् हेयधर्मेभ्यो याता:प्राप्ता उपादेयधर्मरित्यार्याः, "पृषोदरादयः" इति रूपनिष्पत्तिः, म्लेच्छा:-अव्यक्तभाषासमाचाराः, "म्लेच्छ अव्यकायां वाचि" इति वचनात्, भाषाग्रहणं चोपलक्षणं. तेन शिष्टाऽसंमतसकलव्यवहारा म्लेच्छा इति प्रतिपत्तव्यं ।
दीप अनुक्रम [१६६]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], ---------------उद्देशक: [-], --------------- दारं -,--------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्राक
[३७]]
दीप अनुक्रम [१६६]
प्रज्ञापना- तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथमतो म्लेच्छवक्तव्यतामाह-से कि तं' इत्यादि, अथ के ते म्लेच्छाः ?, 'मिलिक्खू' इति प्रज्ञापयाः मल-18निर्देशः प्राकृतत्वाद् आपत्वाच, सूरिराह-म्लेच्छा अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तचानेकविधत्वं शक-यवन-चिलात
नापदे म५०वृत्ती. शबर-बर्बरादिदेशभेदात् , तथा चाह-'तंजहा सगा' इत्यादि, शकदेशनिवासिनः शकाः, यवनदेशनिवासिनो यव-181
नुष्यप्रज्ञा.
(सू.३७) नाः, एवं सर्वत्र, नवरममी नानादेशा लोकतो विज्ञेयाः ॥ आर्यप्रतिपादनार्थमाहसे कि त आयरिया, आ[य]रिया दुविहा पं०, तं०-इहिपत्ता योरिया य अणिहिपत्ता[य]रिया य, से कि त इहिपत्ता[य]रिया ?, इहिपचा[य]रिया छबिहा पं०, तं०-अरहता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा चारणा विजाहरा, सेनं इहिपत्ता[य]रिया । से कितं अणिहिपत्ता [य]रिया, अणिढिपत्ता[य रिया नवविहा प०, तं०-खेता[य]रियो जातिआ[य]रियों कुलारिओं कम्मारियों सिप्पारिओं भासारियाँ नाणारियाँ दसणारियाँ चारित्तारियो । से किं तं खेत्तारिया, खेत्तारिया अद्धछबीसतिविहाणा पं०, ०-रायगिह मगह चंपा अंगा तह तामलित्ति वंगा य । कंचणपुरं कलिंगा वाणारसी चेव कासी य॥१०८॥ साएय कोसला गयपुरं च कुरु सोरियं कृसट्टा य । कपिल्लं पंचाला अहिछेचा जंगला चेव।।१०९।। बारवई सोरडा मिहिले विदेहा य बच्छ कोसंबी। नंदिपुरं संडिल्ला महिलपुरमेव मलया य॥११॥ वैराड वच्छ वरणा अँच्छा तह मनियावह दसण्णा । सोतियेबई य चेदी वीर्यमयं सिंधुसोचीरा ॥११।। महुरा य मूरसेणा पौवा भंगी य मौस पुरिवहा । सावत्थी य कुणाला कोडीवरिसंच लाटा य ॥११२॥ सेयबियाविय णयरी केकयअद्धं च आरियं भणियं । इत्थुप्पत्ती
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३७]
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गाथा:
जिणाणं चकीर्ण रामकण्हाणं ।। ११३ ।। से तं खेत्तारिया ॥ से किं तं जाइआरिया ?, जाइआरिया छबिहा पं०, तं.अंबहा य कलिंदा य, विदेहा वेंदगाइया । हरिया चुचुणा चेव, छ एया इन्भजाईओ॥११४॥ सत्तं जाइआरिया । से किं तं कुलारिया , कुलारिया छबिहा पं०, तं--उग्गा भोगा राइना इक्खागा णाया कौरवा, सेर्त कुलारिया । से किं ते कम्मारिया , कम्मारिया अगविहा प०, तं०-दोसिया सुचिया कप्पासिया मुत्तवेयालिया मंडवेयालिया कोलालिया नरवाहणिया जे यावन्ने तहप्पगारा, से कम्मारिया । से किं तं सिप्पारिया ?, सिप्पारिया अणेगविहा प०,०-तुण्णागा तंतुवाया पट्टामा देयडा वरुट्टा छविया कहपाउयारा मुंजपाउयारा छत्तारा वज्झारा पुच्छारा लेप्पारा चित्तारा संखारा दंतारा भंडारा जिज्झगारा सेल्लारा कोडिगारा, जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं सिप्पारिया ।। से किं भासारिया, भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासें ति, तथावि यणं जत्थ बंभी लिवी पबत्तइ, बंभीए णं लिवीए अद्वारसविहे लेक्खविहाणे प०,०--भी जवणार्णिया दोसापुरिया खरोही पुक्खरसारियो भोगवइयां पहराइयाँ अंतक्सरियाँ अक्खरपुडियां वेणइयाँ निण्हइया अंकलिवी गणियलिवी गंवलिवी आयंसलिवी माहेसरी दोमिलिवी पोलिन्दी, से भासारिया। से किं तं नाणारिया, नाणारिया पंचविहा प०, तं०-आभिणियोहियनाणारिया सुयनाणारिया ओहिनाणारिया मणपजवनाणारिया केवलनाणारिया, सेत्तं नाणारिया । से किं तं दसणारिया , दंसणारिया दुविहा पं०, तं०-सरागर्दसणारिया य वीयरायदसणारिया य, से किं तं सरागदसणारिया ?, सरागंदसणारिया दसविहा प०, तं-निसंग्गुवएसरुई आणरुई सुत्तबीयेरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेवेधम्मरुई ॥११५।। भूपत्थेणाहिगया जीवाजीवे य पुण्णपावं च ।
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दीप अनुक्रम [१६६-१९०]
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती
प्रज्ञापनापदे मनुष्यप्रज्ञा.
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गाथा:
सहसंमुइया आसवसंवरे य रोएइ उ निसग्गो ॥११६।। जो जिणदिवे भावे चउबिहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नहतिय निसग्गरुइत्ति नायबो ॥११७। एए चेव उ भावे उवदिहे जो परेण सद्दहह । छउमत्येण जिणेण व उपएसरुइति नायबो॥ ॥११८।। जो हेउमयाणतो आणाए रोयए पवयणं तु । एमेव नन्नहत्ति य एसो आणाई नाम ॥११९।। जो सुत्तमहिअन्तो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण वाहिरेण व सो सुत्तरुइत्ति गायत्रो॥१२०॥ एगपएणेगाई पदाई जो पसरई उ सम्म । उदएच तिल्लविंदू सो बीयरुइति नायबो ॥१२१॥ सो होइ अभिगमरुई सुयनाणं जस्स अत्यओ दिई । इकारस अंगाई पइनगा दिहिवाओ य ॥१२२।। दवाण सबभावा सबपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सबाहिं नयविहीहिं वित्थाररुइति नायबो ॥१२३शादसणनाणचरिते तवविणए सबसमिगतीस । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम ।।१२।।। अणभिगहियकुदिही संखेवरुदति होइ नायचो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु॥१२५।जो अस्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरिचधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइति नायवो ॥१२६॥ परमत्वसंथवो वा सुदिपरमत्थसेवणा बावि । बावनकुदंसणवजणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ १२७॥ निस्संकिय निकंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिही य । उवव्हथिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ट ॥१२८॥ से सरागर्दसणारिया। से किं तं वीयरायदंसणा [य] रिया ?, वीयरायदसणा [य] रिया दुविहा प०, तं०-उवसंतकसायवीयरायदसणा [यरिया य खीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य । से किं तं उपसंतकसायवीयरायदसणा [य] रिया ?, उपसंतकसायवीयरायदंसणा [य] रिया दुविहा प०, तं०-पढमसमयउवसंतकसायवीयरायदसणा [य] रियाय अपढमसमयउवसंतकसायवीयरायदसणा [य] रिया य, अहवा चरिमसमयउवसंतकसायवी
दीप अनुक्रम [१६६-१९०]]
992e
॥५६॥
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३७]
गाथा:
यरायदसणा [य] रियाय अचरिमसमवउपसंतकसायवीयरायदसणा यारिया य । से कितं खीणकसायवीयरायदंसणा[य] रिया, खाणकसायवीयरायदंसणा [व] रिया दविहा प०.०-छउमस्थखीणकसायवीयरायदसणारया य केवलिखीणकसायवीयरायदसणा [यरिया य । से कितं छउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया, छउमत्थखीणकसायवीयरायदसणायरिया दुविहा प०, तं०-सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य पुरोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा[य] रिया य, से कितं सर्यबुद्धछउमत्थखीणकसायचीयरायदसणा[य] रिया, सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा/वरिया दविहा प०,०-पढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायचीयरायर्दसणा [य] रिया य अपढमसमयसयंबद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा[य] रिया य, अहवा चरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा या रिया य अचरिमसमयसर्यबुद्धछउमथखीणकसायवीयरायदसणा [य] रियाय, से २ सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा यरिया । से किं तं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया ?, बुद्धचोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा[य] रिया दुविहा प०,तं--पढमसमयबुद्धबोहियखीणकसायवीयरायदंसणारिया य अपढमसमयबुद्धचोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया य, अहवा चारमसमयबुद्धयोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदसणा [य] रिया य अचरिमसमयबुद्धचोहियछउमत्थखीणकसायचीयरायदंसणा [य] रिया य, सेनं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा[य] रिया, सेत्तं छउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया । से कितं केवलिखीणकसायवीयरायदसणा [ रिवा, केवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया दुविहा प०,
दीप अनुक्रम [१६६-१९०]
emesese
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आगम
(१५)
ཎྞཀྐཡྻོཝཱ ཝཱ , ཙཡྻཱ ཡྻ
-१९०]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [१],
उद्देशक: [ - ], ----------दारं [-1, ----------- • मूल [... ३७] + गाथा : (१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥ ५७ ॥
------------
तं० - सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया य अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रियाय से किं तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य]रिया ?, सजोगिकेवलिखीणक सायवीयरायदंसणा [य] रिया दुबिहा प०, पढमसमय सजोगिकेव लिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया य अपढमसमयसजोगिकेवलि खीणकसायवीयरा यदंसणा [य] रिया य, अहवा चरिमसमयसजोगि केवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया य अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवी
दंसणा [] रियाय । सेत्तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया से किं तं अजोगिकेवलिखीणकसावीययदंसणा [] रिया है, अजोगिकेवलिखीणकसाथ वीयरायदंसणा [य] रिया दुविधा प०, वं० पढमसमयअजोगि केवलिखीणकसायचीयरायदंसणा [य] रिया य अपढमसमय अजोगिके वलिखीणकसायवीयायदंसणा [य] रिया य, अहवा चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य]रिया य अचरिमसमय अजोगिकेवलिखीण कसायवीयरायदंसणा [य]रिया य, सेतं अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया, सेतं केवलिखीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया, सेत्तं खीणकसायवीयरायदंसणा [य] रिया, सेतं दंसणा [य] रिया ।।
सुगमं, नवरं ‘रायगिहमगह' इत्यादि, राजगृहं नगरम्, मगधो जनपदः, एवं सर्वत्रापि अक्षरसंस्कारो विधेयः, भावार्थस्त्वयम्-१ मगधेषु जनपदेषु राजगृहं नगरम्, २ अङ्गेषु चम्पा ३ वङ्गेषु तामलिती ४ कलिङ्गेषु काञ्चनपुरं ५ काशिषु वाराणसी ६ कोसलासु साकेतं ७ कुरुषु गजपुरं ८ कुशावर्तेषु सौरिकं ९ पाञ्चालेषु काम्पिल्यं, १० जङ्गलेषु
Eucation intentional
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१ प्रज्ञाप
नापदे म
नुष्यप्रज्ञा. (सू. ३७)
॥ ५७ ॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३७]
गाथा:
अहिच्छत्रा ११ सुराष्ट्रेषु द्वारावती १२ विदेहेषु मिथिला १३ वत्सेषु कौशाम्बी १४ शाण्डिल्येषु नन्दिपुरं, १५ मलयेषु भद्दिलपुरं १६ वत्सेषु वैराटपुरं १७ वरणेषु अच्छापुरी १८ दशाणेषु मृत्तिकावती १९ चेदिषु शौक्तिकावती २० वीतभयं सिन्धुपु सौवीरेषु २१ मथुरा शूरसेनेषु २२ पापा भङ्गेषु २३ मास(सा)पुरिवट्टा( यां) २४ कुणालेषु श्रावस्ती २५ लाटासु कोटिवर्ष २६ ताम्बिकानगरी केकयजनपदार्ट्स एतावदर्द्धषड्विंशतिजनपदात्मक क्षेत्रमार्य भणितं, कुतः? इत्याह-'इत्थुप्पची' इत्यादि, यस्मादत्र-एषु अर्द्धषड्विंशतिसंख्येषु जनपदेषु उत्पत्तिर्जिनानां-तीर्थकराणां चक्रवर्तिनां रामाणां-बलदेवानां कृष्णानां-बासुदेवानां तत आर्य, एतेन क्षेत्रार्यानार्यव्यवस्था दर्शिता-यत्र तीर्थकरादी-IN नामुत्पत्तिस्तदार्य शेषमनार्यमिति । उक्ताः क्षेत्रार्याः, सम्प्रति जात्यार्यप्रतिपादनार्थमाह-सुगम, नवरं यद्यपि शास्त्रान्तरेष्वनेका जातय उपवर्ण्यन्ते तथाऽपि लोके एता एव अम्बष्ठ-कलिन्द-वैदेह-वेदंग-हरित-चुंचुणरूपा इभ्यजातयोऽभ्यर्चनीया जातयः प्रसिद्धाः, तत एताभिर्जातिभिरुपेता जात्यार्या न शेषजातिभिः। 'तुण्णागा' इत्यादि, तुन्नाकाः-सूच्याजीविनः तन्तुवायाः-कुविन्दाः पट्टकाराः-पट्टकूलकुपिन्दाः, देयडा-दृतिकाराः वरुट्टा:-पिच्छिकाः छर्विका:-कटादिकाराः कट्ठपाउरा-काष्ठपादुकाकाराः, एवं मुंजपाउयारा, 'छत्तारा' छत्रकाराः, एवं शेषापयपि पदानि भावनीयानि । श्राह्मी यवनानीत्यादयो लिपिभेदास्तु संप्रदायादवसेयाः । उक्ता भापार्याः, सम्प्रति ज्ञानानाह-से किं तं' इत्यादि सुगमम् । दर्शनार्यानाह-अथ के ते दर्शनार्याः, सूरिराह-दर्शनार्या द्विविधाः प्रज्ञप्ताः,
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[३७]
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥५८॥
गाथा:
तद्यथा-सरागदर्शनार्या वीतरागदर्शनार्याथ, तत्र सराग-सकपायं यदर्शनं तेनाः सरागदर्शनार्याः वीतराग-1
१प्रज्ञापउपशान्तकषायं क्षीणकषायं वा यद्दर्शनं तेनार्या वीतरागदर्शनार्याः । तत्र सरागदर्शनार्यप्रतिपादनार्थमाह-से किंत' नापदे मइत्यादि, अथ के ते सरागदर्शनार्याः १, सूरिराह-सरागदर्शनार्या दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'निसरगुवएस'- नुष्यमज्ञा. इत्यादि, अत्र रुचिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, ततो निसर्गरुचिरिति द्रष्टव्यं, तत्र निसर्गः-खभावः तेन रुचिः-जि-8 (सू.३७) नप्रणीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः, उपदेशो-गुदिना वस्तुतत्त्वकथनं तेन रुचिः-उक्तखरूपा यस्य स | उपदेशरुचिः, आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तस्यां रुचिः-अभिलापो यस्य स आज्ञारुचिः, जिना व मे तत्त्वं न शेष युक्तिजातमिति योऽभिमन्यते स आज्ञारुचिरिति भावार्थः, 'सुत्तबीयरुइमेवत्ति' अत्रापि रुचिशब्दः प्रत्येकमभिसं-11 बध्यते, सूत्रम्-आचाराङ्गाद्यङ्गप्रविष्टं अजवायम्-आवश्यकदशवकालिकादि तेन रुचिर्यस्य स तथा, सूत्रमाचारा-1 रादिकमाविष्टमङ्गवाखमावश्यकादिकमधीयानो यः सम्यक्त्वमवगाहते प्रसन्नप्रसन्नतराध्यवसायच भवति स सूत्ररु
चिरिति भावार्थः, बीजमिव बीजं-यदेकमप्यनेकार्थप्रबोधोत्पादकं वचः तेन रुचिर्यस्य स चीजरुचिः, अनयोश्च । हा पदयोः समाहारद्वन्द्वः तेन नपुंसकनिर्देशः, एवेति समुच्चये, 'अहिगमवित्थाररुइत्ति' अत्रापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकम- ॥५८॥ [भिसंवन्धः, अधिगमरुचिर्विस्ताररुचिश्च, तत्राधिगमो-विशिष्ट परिज्ञानं तेन रुचिर्यस्यासावधिगमरुचिः, विस्तारो-11 व्यासः सकलद्वादशाकस्य नयैः पर्यालोचनमिति भावः, तेनोपबृंहिता रुचिर्यस्य स विस्ताररुचिः, 'किरियासंखेव-18
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं -1, ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३७]
गाथा:
vedeoececest
धम्मरुइत्ति' रुचिशब्दस्यात्रापि प्रत्येकं संबन्धात् क्रियारुचिः संक्षेपरुचिधर्मरुचिरिति द्रष्टव्यं, तत्र क्रिया-सम्यक-18 |संयमानुष्ठानं तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः, संक्षेपः-संग्रहः तत्र रुचिर्यस्य विस्तरार्थापरिज्ञानात् स संक्षेपरुचिः धर्मअस्तिकायधर्मे श्रुतधर्मादी वा रुचिर्यस्य स धर्मरुचिरिति गाथासंक्षेपार्थः ॥ व्यासार्थं तु सूत्रकृदेव खत आह-'भूय-18 त्थेण' इत्यादि, 'भूयत्थेण' इति भावप्रधानो निर्देशः, ततोऽयमर्थः-भूतार्थत्वेन-सद्भता अमी पदार्था इत्येवंरूपेण [यस्याधिगताः-परिज्ञाता जीवाजीयाः पुण्यं पापमाश्रवं संवरः चशब्दाद् बन्धादयश्च, कथमधिगताः इत्याह-'सहसम्मुइआ' इति आर्षवाद विभक्तिलोपाय सहसंमत्या सह-आत्मना या संगता मतिः सा सहसंमतिः तया, किमुक्त भवति-परोपदेशनिरपेक्षया जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया मत्या, न केवलमधिगताः, किन्तु तान् जीवादीन् पदा-18 र्थान् वेदयतेऽनुरोचयति च तत्त्वरूपतयाऽऽत्मसात्परिणामयति चेति भावः, एष निसर्गरुचिर्विज्ञेय इति शेषः । अमुमेवार्थ स्पष्टतरमभिधित्सुराह-'जो जिणदिटे भावे' इत्यादि, यो जिनदृष्टान् भावान् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतो नामादिभेदतो वा चतुर्विधान् स्वयमेव-उपदेश निरपेक्षः श्रद्दधाति, केनोलेखेन श्रद्दधाति , तत आह-'एवमेव एतत्-जीवादि यथा जिनष्टं नान्यथा इति, चः समुच्चये, एष निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ उपदेशरुचिमाह-एए चेव' इत्यादि, एतानेव जीवादिभावान् परेण छद्मस्थेन जिनेन वोपदिष्टान् श्रद्दधाति एष उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः। आज्ञारुचिमाह-'जो हेउमयाणतो' इत्यादि, यो हेतु-विवक्षितार्थगमकमजानानः प्रवचनमाज्ञयैव तुशब्द एवकारार्थः
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SAREucational
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[३७]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१६६
-१९०]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [१],
------------- GERIT: [-], ---------- GTR [-], ------------ मूल [... ३७] + गाथा : (१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥ ५९ ॥
केवलया रोचते, कथम् ? इत्याह-एवमेतत् प्रवचनो कमर्थजातं नान्यथेति एव आज्ञारुचिर्नाम । सूत्ररुचिमाह-'जो सुत्तं' इत्यादि, यः सूत्रम् - अङ्गप्रविष्टमङ्गवाद्यं वा अधीयानस्तेन श्रुतेनाङ्गप्रविष्टेनाङ्गवायेन वा सम्यक्त्वमवगाहते स सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः । बीजरुचिमाह - 'एगपएणेगाई' इत्यादि, एकेन पदेन प्रक्रमाज्जीवादीनामनेकानि पदानि - प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययादनेकेषु जीवादिषु पदेषु यः सम्यक्त्वमिति धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् सम्यक्त्ववान् आत्मा प्रसरति तुशब्दोऽवधारणार्थः प्रसरत्येव, कथम् ? इत्याह- उदक इव तैलविन्दुः किमुक्तं भवति ? - यथा उदकैकदेशगतोऽपि तैलबिन्दुः समस्तमुदकमाक्रामति तथैकदेशोत्पन्नरुचिरप्यात्मा तथाविधक्षयोपशमभावादशेषेषु तत्त्वेषु रुचिमान् भवति स एवंविधो बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः । अधिगमरुचिमाह-' सो होइ' इत्यादि, यस्य श्रुतज्ञानमतो दृष्टमेकादशाङ्गानि, प्रकीर्णकमित्यत्र जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थः- प्रकीर्णकानि उत्तराध्ययनादीनि दृष्टिवादः चशब्दादुपाङ्गानि च स भवत्यधिगमरुचिः । विस्ताररुचिमाह-'दवाण' इत्यादि, द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनामशे पाणामपि सर्वे भावाः- पर्याया यथायोगं सर्वप्रमाणैः - प्रत्यक्षादिभिः सर्वैश्च नयविधिभिः - नैगमादिनयप्रकारैः उपलब्धाः स विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः सर्ववस्तुपर्यायप्रपश्चावगमेन तस्या रुचेरतिनिर्मलरूपतया भावात् । क्रियारुचिमाह - 'दंसण' इत्यादि, दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनज्ञानचारित्रं समाहारो द्वन्द्वः तस्मिन् तथा तपसि - विनये च तथा सर्वासु समितिषु - ईर्यासमित्यादिषु सर्वासु च गुसिषु-मनोगुप्तिप्रभृतिषु यः क्रियाभावः स क्रियारु
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१ प्रज्ञाप
नापदे म
नुष्यप्रज्ञा.
(सू.३७)
।। ५९ ।।
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प्रत
सूत्रांक
[३७]
चिः, किमुक्तं भवति ?-यस्य भावतो दर्शनाद्याचारानुष्ठाने रुचिरस्ति स खलु क्रियारुचिर्नाम । संक्षेपरुचिमाह|'अणभिग्गहिय' इत्यादि, नाभिगृहीता कुत्सिता दृष्टियेनासायनभिगृहीतकुदृष्टिः, अविशारदः प्रवचने जिनप्रणीते
शेषेषु च कपिलादिप्रणीतेषु प्रवचनेषु अनभिगृहीतो-न विद्यते आभिमुख्येनोपादेयतया गृहीतं-ग्रहणमय इत्यन|भिगृहीतः, पूर्वमनभिगृहीतकुदृष्टिरित्यनेन दर्शनान्तरपरिग्रहः प्रतिषिद्धः अनेन परदर्शनपरिज्ञानमात्रमपि निषिद्धमिति विशेषः, स इत्थंभूतः संक्षेपरुचिरिति ज्ञातव्यः॥ धर्मरुचिमाह-'जो अस्थिकाय' इत्यादि, यः खलु जीवोऽस्तिकायानां-धर्मास्तिकायादीनां धर्म-गत्युपष्टम्भकत्वादिरूपं खभावं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च जिनाभिहितं श्रद्दधाति
स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ तदेवं निसर्गाद्युपाधिभेदाद् दशधा रुचिरूपं दर्शनमुक्तं, सम्प्रति यैर्लिअरिदमुत्पन्नमस्ति & इति निश्चीयते तानि लिङ्गान्युपदर्शयन्नाह–'परमत्थसंथवो वा' इत्यादि, परमाच-तात्त्विकाश्च तेऽर्थाश्च-जीवाद
यस्ते परमार्थाः तेषु संस्तवः-परिचयः, तात्पर्येण बहुमानपुरस्सरं जीवादिपदार्थावगमायाभ्यास इतियावत् , वाशब्दः समुच्चये, सुष्टु-सम्यग्रीत्या दृष्टाः परमार्था-जीवादयो यैस्ते सुदृष्टपरमार्थाः तेषां सेवना-पर्युपास्तिः सुदृष्टपर|मार्थसेवनं, स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , वाशब्दोऽनुक्तसमुच्चये, यथाशक्ति तद्वैयावृत्यप्रवृत्तिश्च, अपिः समुच्चये, तथा 'वाव-1 बकुदसणत्ति' दर्शनशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, व्यापन्नं-विनष्टं दर्शनं येषां ते व्यापन्नदर्शनाः-निहवादयः तथा कु-11 त्सितं दर्शनं येषां ते कुदर्शनाः-शाक्यादयस्तेषां वर्जनं व्यापन्नकुदर्शनवर्जनम् , अत्रापि स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , 'सम्मत्त
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गाथा:
दीप अनुक्रम [१६६-१९०]
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[३७]]
गाथा:
प्रज्ञापना- सहहणा' इति सम्यक्त्वश्रद्धानं, एतैः परमार्थसंस्तवादिभिः सम्यक्त्वमस्तीति श्रद्धीयते इत्यर्थः । अस्य च दर्शनस्सा- १ प्रज्ञापया: मल- चारा अष्टौ, ते च सम्यक् परिपालनीयाः, तदतिक्रमेण दर्शनस्याप्यतिक्रमभावात् , अतस्तानुपदर्शयितुमाह-'निस्सं- नापदे मय. वृत्ती.
किय' इत्यादि, शङ्कनं शङ्कितं, देशशका सर्वेशका चेत्यर्थः, निर्गतं शङ्कितं यस्मादसी निःशक्तिः , देशसर्वशङ्कारहितीनुष्यप्रज्ञा. इति भावार्थः, तत्र देशशङ्का-समाने जीवत्वे कथमेको भव्यः अपरस्त्वभव्य इति ?, सर्वशङ्का-प्राकृतनिवन्धत्वा
(सू.३७) त्सकलमेवेदं प्रवचनं परिकल्पितं भविष्यतीति, न चेयं देशशङ्का सर्वशङ्का वा युक्ता, यत इह द्विविधा भावाः, तद्य-15 था-हेतुग्राडा अहेतुप्राखाव, तत्र हेतुप्राधा जीवास्तित्वादयः, तत्साधकप्रमाणसद्भावात् , अहेतुग्राह्या अभव्यत्वा-1 दयः, अस्मदाद्यपेक्षया तत्साधकहेतूनामसंभवात्, प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति, प्राकृतोऽपि च निबन्धः प्रवचनस्य पालाद्यनुग्रहार्थः, उक्तं -“बालखीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाशिणाम् । अनुग्रहार्थे तत्त्वज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥१॥" अपि च-प्राकृतोऽपि निवन्धः प्रवचनस्य दृष्टेष्टाविरोधी अतः कथमवान्तरपरिकल्पनाशङ्का, सर्वज्ञमन्तरेणान्यस्य दृष्टेष्टाविरोधिवचनासंभवात् , निःशङ्कित इति जीव एवार्हच्छासनप्रतिपन्नो दर्शनाचर
॥६॥ णात् तत्प्राधान्यविवक्षायां दर्शनाचार उच्यते, एतेन दर्शनदर्शनिनोः कथंचिदभेदमाह, एकान्तमेदे तु अदर्शनिन इव |
तत्फलायोगतो मोक्षाभावप्रसङ्गः, एवमुत्तरेष्वपि त्रिषु पदेषु भावना कार्या, तथा 'निष्काह्नित' इति, कालणं कासाहितं निर्गतं काहितं यस्मादसौ निष्कासितः, देशसर्वकाङ्खारहित इत्यर्थः, तत्र देशकाङ्क्षा-एकं दिगम्बरादिदर्शनम-18
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३७]
गाथा:
II भिकालते सर्वकासा-सर्वाण्येव दर्शनानि शोभनानीत्येवमनुचिन्तनं, इयं च द्विधाऽप्ययुक्ता, शेषदर्शनेषु षड्जीवनि
कायपीडाया असत्प्ररूपणायाश्च भावात् । तथा विचिकित्सा-मतिविभ्रमः फलं प्रति संशय इतियावत् निर्गता विचिकित्सा यस्मादसौ निर्विचिकित्सा, 'साध्वेवं जिनशासनं, किन्तु प्रवृत्तस्य सतो ममास्मात् फलं भविष्यति । न वा ?, क्रियायाः कृषिवलादिषु उभयथाऽप्युपलब्धेः' इतिविकल्परहितः, न विकल उपाय उपेयवस्तुप्रापको न भवतीति संजातनिश्चयो निर्विचिकित्स इति भावः, एतावताशेन निःशङ्किता भिन्नः, यद्वा 'निविदुगुंछो' इति । निर्विद्वज्जुगुप्सः साधुजुगुप्सारहित इत्यर्थः, उदाहरणं च विद्वजुगुप्सायां श्रावकदुहिता । तथा 'अमूढदिट्टी यत्ति' वालतपखितपोविद्यातिशयदर्शनैर्न मूढा-स्वभावाचलिता दृष्टिः-सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावमूढदृष्टिः, अनोदाहरणं सुलसाश्राविका, सा सम्बङपरित्राजकसमृद्धीरुपलभ्यापि न संमोहं गता । तदेवं गुणिप्रधान आचार उक्तः, सम्प्रति गुणप्रधानमाह-'उपवूह' इत्यादि, उपबृंहणं च स्थिरीकरणं च उपबृंहणस्थिरीकरणे, तत्रोपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तदृद्धिकरणं, स्थिरीकरणं धर्माद् विषीदतां तत्रैव स्थापनं । वात्सल्यं च प्रभावना च वात्सल्यप्रभावने, तत्र वात्सल्यं समानधार्मिकाणां प्रीत्योपकारकरणं, प्रभावना धर्मकथादिभिस्तीर्थप्रख्यापना । अयं च गुणप्रधाननिर्देशो गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदख्यापनार्थः, अन्यथा एकान्ताभेदे गुणनिवृत्ती गुणिनोऽपि निवृत्तः
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [१], ------------ उद्देशक: [-], ---------- दारं [-], ----------- मूलं [...३७] + गाथा:(१०८-१२८) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
|१प्रज्ञापनापदे क
सत्राक
२० वृत्ती.
[३७]]
मौकर्मानार्यजा
त्याचार्य
मनुष्यसूत्र
गाथा:
प्रज्ञापना-18| शून्यतापत्तिः। एतेऽष्टी दर्शनाचाराः॥ तदेवमुक्ताः सरागदर्शनभेदाः, तदभिधानाचाभिहिताः सरागदर्शनार्यभेदाः ॥ या: मल-1
सम्प्रति वीतरागदर्शनार्यादिभेदानाह-(से किं तमित्यादि, तदेवं दर्शनार्यभेदानुक्त्वा चारित्रार्यभेदानाह-)
से किं तं चरिचा[य]रिया ?, चरिचारिया दुविहा प०, तं०-सरागचरिचारिया य वीयरागचरिचारिया य, से कि ॥६१॥
तं सरागचरिचारिया ?, सरागचरित्तारिया दुविहा प०,०-सुहुमसंपरायसरागचरिचारिया य बायरसंपरायसरागचरित्तारिया य । से किं तं मुहमसंपरायसरागचरिचारिया , सुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा प०,०-पढमसम. यमुहुमसंपरायसरागचरिचारिया य अपढमसमयसुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयमुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया य अचरिमसमयसुहुमसंपरायसरागचरिचारिया य, अहवा मुहुमसंपरायसरागचरिचारिया दुविहा पर, तं०-संकिलिस्समाणा य विसुज्झमाणा य, सेत्तं सुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया । से किं तं पादरसंपरायसरागचरिचारिया , बादरसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा प०,०-पढमसमयबादरसंपरायसरागचरित्तारिया अपढमसमयबादरसंपरायसरागचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयबादरसंपरायसरागचरित्तारिया य अचरिमसमयबादरसंपरायसरागचरिचारिया य, अहवा बादरसंपरायसरामचरित्तारिया दुविहा प०, तं--पडिवाई य अपडिवाई य, सेर्त बादरसंपरायसरागचरित्तारिया, सेतं सरागचरित्तारिया । से किंत वीयरायचरित्तारिया?, वीयरायचरित्तारिया दुविहा प०, तं०-उवसंतकसायवीयरायचरिचारिया य खीणकसायवीयरायचरित्तारिया य । से किं तं उवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया, उवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया दुविहा प०,०-पढमसमयउवसंतकसायपीयरायचरिचारिया य अपढमसम
Resettesee sekesekese
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प्रत
सूत्रांक
[३७]
दीप अनुक्रम
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
- दारं [ - ], ------
मूलं [... ३७]
पदं [१], ------------- उद्देशकः [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
১৩১৬১, ৫১৬১৬,১৩ ১৬১৬A৬
यउवसंत कसायवीयरायचरितारिया य, अह्वा चरिमसमयउवसंतकसायवीयरायचरितारिया य अचरिमसमयउवसंतकसायवीयरायचरितारिया य, सेत्तं उवसंतकसायचीयरायचरितारिया से किं तं खीणकसायवीयरायचरितारिया ?, खीणकसायवीयरायचरितारिया दुविहा प०, तं० छउमत्थखीणकसायवीयरायचरितारिया य केवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया य । से किं तं छउमत्थ खीणक सायवीयरायचरितारिया ?, छउमत्थखीणकसायवीयरायचरितारिया दुविहा प०, तं०--सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायचरितारिया य बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायचीयरायचरितारिया य से किं तं सर्वबुद्धछ उमत्थखीणकसायचीयरायचरितारिया १, सयंबुद्धछउमत्थ खीणकसायवीयरायचरितारिया दुबिहा प०, ०पढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीण कसायवीयरायचरितारिया य अपढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायचरितारिया य, अह्वा चरिमसमयसगंबुद्ध छउमत्थखीण कसायवीवरायचरितारिया य अचरिमसमय सयंबुद्धछउमत्थखीण कसायचीयरायचरित्तारिया य । सेत्तं सयंबुद्धखीणकसायवीयरायचरिचारिया । से किं तं बुद्धबोहिय छउमत्थ खीण कसायवीयरायचरितारिया ?, बुद्धबोहियछउमत्थखीण कसायवीयरायचरितारिया दुविहा प०, तं० -- पढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीकसायचीयरायचरितारिया य अपढमसमयबुद्धबोहियछ उमत्थखीणक सायवीयरायचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य अचरिमसमयबुद्धयो हियछउमत्थखीण कसायवीयराय चरितारिया य सेतं बुद्धबोहियछउमत्थखीण कसायवीयरायचरितारिया, सेत्तं छउमत्थखीणकसायवीयरायचरितारिया । से किं वं केवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया ?, केवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया दुविहा प० तं सजोगिकेवलि खीणक
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
१ प्रज्ञाप
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयावृत्ती.
सूत्राक [३७]
३०
दीप
सायवीयरायचरिचारिया य अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य । से किं तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया, सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया दुबिहा प०, तं-पढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायधीयरायचरिचारिया य अपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, अहवा चरिमसमयसजोगिकेव- कर्मालिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, सेत्तं सजोगिकेवलि
नायेंजाखीणकसायपीयरायचरिचारिया । से किं तं अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया, अजोगिकेवलिखीणकसाय
त्याद्यायवीयरायचरिचारिया दुविहा प०,०-पढमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्नारिया य अपढमसमयअजोगि
मनुष्यसूत्र केवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, अहवा चरिमसमयअजोगिकेबलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य अचरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरिचारिया य, सेत्तं अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरितारिया, से केवलिखी. णकसायवीयरायचरित्तारिया, सेनं खीणकसायवीयरायचरित्नारिया सेत्तं वीयरायचरित्नारिया । अहवा चरित्तारियापंचविहा प०,०-सामाइअचरित्तारिया छेदोवडावणीयचरित्तारिया परिहारविसुद्धिचरिचारिया मुहुमसंपरायचरित्तारिया अहक्खायचरिचारिया य । से कितं सामाइयचरित्तारिया, सामाइयचरित्तारिया दुविहा प०,०-इत्तरियसामाइयचरिचारिया य आवकहियसामाइयचरिचारिया य, सेत्तं सामाइयचरिचारिया । से किं तं छेदोवद्वावणियचरिचारिया , छेदोवढावणियचरित्तारिया दुविहा प०,०-साइयारछेदोवडावणियचरिचारिया य निरइयारछेदोवहावणियचरिचारिया य, सेतं छेदोवद्यावणियचरित्तारिया । से किं तं परिहारविमुद्धियचरित्तारिया, परिहारविसुद्धियचरिचारिया 18
अनुक्रम [१९०]
॥६२॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३७]
दुविहा प०, तं०-निविस्समाणपरिहारपिसुद्धियचरिचारिया य निधिहकाइयपरिहारविसुद्धियचरित्तारिया य, से तं परिहारविसुद्धियचरित्तारिया । से किं तं मुहमसंपरायचरित्तारिया ?, मुहुमसंपरायचरित्तारिया दुविहा प०, तं0संकिलिस्समाणसुहमसंपरायचरित्तारिया य विसुज्झमाणसहमसंपरायचरित्तारिया य, सेतं सुहमसंपरायचरित्तारिया । से किं तं अहक्खायचरितारिया ?, अहक्खायचरिचारिया दुविहा प०, तं०-छउमस्थअहक्खायचरित्तारिया य केवलिअहक्खायचरिचारिया य, सेनं अहक्खायचरित्तारिया, सेत्तं चरित्तारिया, सेतं अणिढिपत्तारिया, सेतं कम्मभूमगा, सेवं गन्भवतिया, सेत्र मणुस्सा । (सू० ३७)
'से किं तं' इत्यादि सुगर्म, यावद् 'अहवा चरित्तारिया पंचविहा पन्नत्ता तंजहा-सामाइअचरित्तारिया' इत्यादि, | नवरं पढमसमय अपढमसमय इति, ये तेषामेवोपशान्तकषायत्वादीनां विशेषाणां प्रथमे समये वर्तन्ते ते प्रथमस-18 मयाः, ततो द्वितीयादिषु समयेषु वर्तमाना अप्रथमसमया, तथा 'चरिमसमय अचरिमसमय' इति ये तेषामेवोपशान्तकषायत्वादीनां विशेषाणामन्त्यसमये वर्तन्ते ते चरमसमयाः, ये ततोऽर्वागू द्विचरमत्रिचरमादिषु समयेषुवर्तन्ते ते अचरमाः।सामायिकादिचारित्राणां स्वरूपमिदम्-समो रागद्वेषरहितत्वाद् आयो गमनं समायः एष चान्यासाम[पि साधुक्रियाणामुपलक्षणं, सर्वासामपि साधक्रियाणांरागद्वेषरहितत्वात् , समायेन निर्वृत्तं समाये भवं वा सामायिकं, यद्वा समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो-लाभः समायः समाय एवं सामायिक विनयादेराकृतिगणतया "विन
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना
प्रत
य. वृत्ती.
सूत्राक
। त्याद्यार्य
[३७]]
दीप अनुक्रम [१९०]
|यादिभ्यः" (पा०५-४-३४) इत्यनेन स्वार्थिक इकण, तथ सर्वसावद्यविरतिरूपं, यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतःप्रज्ञापसामायिक तथाऽपि छेदादि विशेषविशेष्यमाणमर्थतःशब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते,प्रथम पुनरविशेषणात् सामान्यशब्द
नापदे कएचावतिष्ठते सामायिकमिति,तच द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च,तत्त्वरं भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेवनारो
नार्यजापितमहात्रतस्य शैक्षकस्य विज्ञेयं,यावत्कथिकं प्रप्रज्याप्रत्तिपत्तिकालादारभ्याप्राणोपरमात्,तच्च भरतैरावतभाबिमध्यवाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तरगतानां विदेहतीर्थकरतीर्थान्तरगतानां च साधूनामवसेयं,तेषामुपस्थापनाया अभावात् , उक्तं
मनुष्यसूत्रं च-"सबमिणं सामाइय छेयाइविसेसियं पुण विभिन्नं। अबिसेसं सामाइय चियमिह सामन्नसन्माए ॥१॥ सावज्जजो
ST३७ गविरइत्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहंति य पढमं पढमंतिमजिणाणं ॥२॥ तित्थेसु अणारोवियवयस्स सहस्स थोवकालीयं । सेसाणमावकहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥३॥" ननु च इत्वरमपि सामायिकं करोमि भदन्त ! सामायिकं यावज्जीवमित्येवं यावदायुरागृहीतं, तत उपस्थापनाकाले तत्परित्यजतः कथं न प्रतिज्ञाभङ्गः ?, उच्यते, ननु प्रागेवोक्तं-सर्वमेवेदं चारित्रमविशेषतः सामायिक, सर्वत्रापि सावद्ययोगविरतिसद्भावात् , केवलं छेदादिविशुद्धिविशेपैविशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, ततो यथा यावत्कथिक सामायिकं छेदोपस्थापनं च परमविशुद्विविशेषरूपसूक्ष्मसंपरायादिचारित्रावाप्तौ न भङ्गमास्कन्दति तथेत्वरमपि सामायिकं विशुद्धिविशेषरूपच्छेदोपस्थापनावाप्ती, यदि हि प्रत्रज्या परित्यज्यते तर्हि तद् भङ्गमापद्यते, न तस्यैव विशुद्धिविशेषावाप्ती, उक्कं च-"उन्निक्स
॥६
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]
मओ भंगो जो पुण तं चिय करेइ सुद्धयरं । सन्नामेत्तविसिष्टं सुहुमंपिव तस्स को भंगो ? ॥१॥” तथा छेदः पूर्वपर्या-18 यस्य उपस्थापना च महाव्रतेषु यस्मिन् चारित्रे तच्छेदोपस्थापनं, तच द्विधा-सातिचारं निरतिचारं च, तत्र निरति-18 चारं यदित्वरसामायिकवतः शैक्षकस्यारोप्यते तीर्थान्तरसंक्रान्ती वा, यथा पार्श्वनाथतीर्थाद् बर्द्धमानतीर्थ संक्रामतः पञ्चयामप्रतिपत्ती, सातिचारं यन्मूलगुणघातिनः पुनर्बतोचारणं, उक्तं च-सेहस्स निरइयारं तित्थन्तरसंकमे वतं होजा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे ॥१॥" 'उभयं चेति' सातिचारं निरतिचारं च 'स्थितकल्पे' इति प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थकाले । तथा परिहरणं परिहारः-तपोविशेषः तेन विशुद्धिर्यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिकं, तच्च द्विधा-निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विशमानका विवक्षितचारित्रासेवकाः, निर्विष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायाः, तदन्यतिरेकाचारित्रमप्येवमुच्यते । इह नयको गणः-चत्वारो निर्षिशमानकाच-I स्वारश्चानुचारिणः एकः कल्पस्थितो वाचनाचायें, यद्यपि च सर्वेऽपि श्रुतातिशयसंपन्नाः तथाऽपि कल्पत्वात् तेषामेकः कश्चित् कल्पस्थितोऽवस्थाप्यते । निर्विशमानकानां चायं परिहारः-परिहारियाण उ तवो जहन्न मज्झो तहेव | उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणिओ धीरेहि पत्तेयं ॥१॥ तत्थ जहन्नो गिम्हे चउत्थ छटुं तु होइ मज्झिमओIN
१ परिहारिकाणां तु तपः जघन्यं मध्यम तथैवोत्कृष्टं । शीतोष्णवर्षाकाले भणितं धीरैः प्रत्येकम् ॥ १ ॥ तत्र जघन्यं श्रीष्मे चतुर्थ षष्ठं तु भवति मध्यम।
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनायाः मलब०वृत्ती.
सूत्राक
॥६४॥
[३७]]
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दीप अनुक्रम [१९०]
अट्ठममिह उक्कोसो एत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥२॥ सिसिरे उ जहन्नाई छहाई दसमचरिमगो होइ । वासासु अट्ठमाई |
१प्रज्ञापवारसपज्जन्तगो नेओ ॥३॥ पारणगे आयाम पंचसु अगहो दोसुऽभिग्गहो भिक्खे । कप्पट्ठिया पइदिणं करेन्ति ||
| नापदे कएमेव आयाम ॥४॥ एवं छम्मासतवं चरिउ परिहारगा अणुचरन्ति । अणुचरगे परिहारियपयट्टिए जाव छम्मा- कर्मा|सा ॥५॥ कप्पट्टिएवि एवं छम्मासतवं करेइ सेसा उ । अणुपरिहारिगभावं वयंति कप्पट्ठियत्तं च ॥६॥ एवेसो नार्यजाअट्ठारसमासपमाणो उ चण्णिो कप्पो । संखेवओ विसेसो बिसेससुत्ताउ नायबो ॥७॥ कप्पसमत्तीऍ तयं जिणक- त्याद्यायेप्पं या उदिति गच्छं वा । पडिबजमाणगा पुण जिणस्सगासे पबजति ॥ ८॥ तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व नो उप | अन्नस्म । एएसि जं चरणं परिहारविसद्धियं तं तु ॥९॥ अथ एते परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे काले वा भव-181
अष्टमं तु उत्कृष्टमितः शिशिरे प्रवक्ष्यामि ॥२॥ शिशिरे तु जघन्यादि षष्ठादि दशमचरमर्क भवति । पर्षासु अष्टमावि द्वादशपर्वतक क्षेयं ।। ३॥ पारणके आचाम्लं भिक्षायां च पञ्चानां महः द्वयोरभिग्रहः । कल्पस्थिता अपि प्रतिदिनं कुर्वन्ति एवमेवाचाम्लं ।। ४ ।। एवं षण्मासान् तपश्चरित्वा परिहारिका अनुचरन्ति । अनुचरकाः परिहारिकपदस्थिता यावत्षण्मासान् ॥ ५॥ कल्पस्थि
॥६४॥ तोऽध्येवं षण्मासांस्तपः करोति शेषाश्च । अनुपरिहारिकभावं ब्रजन्ति कल्पस्थितत्वं च ॥६॥ एवं एषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु वर्णितः कल्पः । सतपतो विशेषो बिशेषसूत्रात् ज्ञातव्यः ॥७॥ कल्पसमाप्तौ (परिहारं) जिनकल्पं वोपयन्ति गच्छं वा। प्रतिपद्यमानकाः पुन[र्जिनसकाशात्प्रपद्यन्ते ॥ ८॥ तीर्थकरसमीपासेवकस्य पार्श्वे न पुनरन्यस्य । एतेषां यधरणं परिहारविशुद्धिकं तत्तु ॥ ९॥
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]
|न्ति ?, उच्यते, इह क्षेत्रादिनिरूपणार्थ विंशतिद्वाराणि, तद्यथा-१ क्षेत्रद्वारं २ कालद्वारं ३ चारित्रद्वारं ४ तीर्थद्वार ५ पर्यायद्वारं ६ आगमद्वारं ७ वेदद्वारं ८ कल्पद्वारं ९ लिङ्गद्वारं १० लेश्याद्वारं ११ ध्यानद्वारं १२ गणद्वारं १३ अभिग्रहद्वारं १४ प्रव्रज्याद्वारं १५ मुण्डापनद्वारं १६ प्रायश्चित्तविधिद्वारं १७ कारणद्वारं १८ निष्प्रतिकर्मताद्वारं १९ भिशाद्वारं २० बन्धद्वारम् । तत्र क्षेत्रे द्विधा मार्गणा-जन्मतः सद्भावतश्च, यत्र क्षेत्रे जातस्तत्र जन्मतः मार्गणा, यत्र च कल्पे स्थितो वर्तते तत्र सभावतः, उक्तं च-"खेत्ते दुहेह मम्गण जम्मणओ चेव संतिभावे य । जम्मणओ जहि जातो संतीभावो य जहि कप्पो ॥१॥" तत्र जन्मतः सभावतश्च पञ्चसु भरतेषु पञ्चखेरावतेषु, न तु महाविदेहेषु, न चैतेषां संहरणमस्ति, येन जिनकल्पिक इव संहरणतः सर्वासु कर्मभूमिषु अकर्मभूमिपुवा प्राप्येरन् , उक्त च-"खत्ते भरहेरखएसु होन्ति संहरणबजिया नियमा"१कालद्वारे-अवसर्पिण्यां तृतीये चतुर्थे वारके जन्म,18 सद्भावः पञ्चमेऽपि, उत्सर्पिण्यां द्वितीये तृतीये चतुर्थे वा जन्म, सद्भावः पुनः तृतीये चतुर्थे वा, उक्तं च--"ओसप्पिणीए दोसु जम्मणओ तीसु संतीभावेण । उस्सप्पिणि विवरीओ जम्मणओ संतिभावेण ॥१॥" नोत्सर्पि-18
ण्यवसर्पिणीरूपे तु चतुर्थारकप्रतिभागकाले न संभवन्ति, महाविदेहक्षेत्रे तेषामसंभवात् २॥ चारित्रद्वारे-संयमस्था-18 RT १ क्षेत्रे द्विधेह मार्गणा जन्मतञ्चैव सद्भावे च । जन्मतो यत्र जातः सद्भावतश्च यत्र कल्पः ॥ १ ॥ २ क्षेत्रे भरतैरावतेषु भवन्ति
सहरणवर्जिता नियमात् । ३ अवसर्पिण्या द्वयोर्जन्मतः तिसृषु सद्भावतः । उत्सर्पिण्यां विपरीतो जन्मतः सद्भावेन ॥१॥
दीप अनुक्रम [१९०]
REnatinand
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[३७]
दीप
अनुक्रम [१९० ]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
- दारं [ - ], ------
मूलं [... ३७]
पदं [१], --------------- उद्देशक: [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना- ६ नद्वारेण मार्गणा, तत्र सामायिकस्य छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जघन्यानि संयमस्थानानि तानि परस्परं तुल्यानि, समानपरिणामत्वात् ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिक्रम्योर्द्ध यानि संयमस्थानानि तानि परिहारविशुद्धिकयोग्यानि तान्यपि च केवलिप्रज्ञया परिभाव्यमानानि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि तानि प्रथमद्वितीयचारित्राविरोधीनि तेष्वपि संभवात् तत ऊर्ध्व यानि संख्यातीतानि संयमस्थानानि ४ तानि सूक्ष्मसंपराययथाख्यात चारित्रयोग्यानि, उक्तं च- "तुला जहन्नठाणे संजमठाणाणि पढमबिइयाणं । तत्तो असंखलोए गंतुं परिहारियद्वाणा ॥ १ ॥ तेऽवि असंखा लोगा अविरुद्धा चैव पढमविइयाणं । उवरिंपि तउ असंखा संजमठाणा उ दोण्हपि ॥ २ ॥ तत्र परिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्तिः खकीयेष्वेव संयमस्थानेषु वर्तमानस्य भवति न शेषेषु, यदा त्वतीतनयमधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेषेष्वपि संयमस्थानेषु भवति, परिहारविशुद्विकल्पसमात्यनन्तरमन्येष्वपि चारित्रेषु संभवात् तेष्वपि च वर्तमानस्यातीतनयमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नत्वाविरोधात्, उक्तं च - "संहाणे पडिवत्ती अन्नेसुवि होज्ज पुत्रपडिवन्नो । तेसुवि वट्टन्तो सो तीतनयं पप्प बुधति उ ॥ १ ॥ ३॥ "
याः मल
य० वृत्ती.
॥ ६५ ॥
४
१ तुल्यानि जघन्यस्थाने संयमस्थानानि प्रथमद्वितीययोः । ततोऽसंख्यलोकान् गत्वा परिहारिकस्थानानि ॥ १ ॥ तान्यपि असंख्या लोका अविरुद्धा एव प्रथमद्वितीययोः । उपर्यपि ततोऽसंख्येयानि संयमस्थानानि द्वयोस्तु || २ || २ स्वस्थाने प्रतिपत्तिरन्येष्वपि भवेत् पूर्वप्रतिपन्नः । तेष्वपि वर्त्तमानः सोऽतीतनयं प्राप्योच्यते तु ॥ १ ॥
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१ प्रज्ञाप
नापदे क मकर्मानार्यजा
त्याचार्य
मनुष्यसूत्र ३७
॥ ६५ ॥
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[३७]
दीप
अनुक्रम [१९० ]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) पदं [१], ------------- उद्देशकः [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
- दारं [ - ], ------
मूलं [... ३७]
तीर्थद्वारे परिहारविशुद्धिको नियमतस्तीर्थे प्रवर्तमाने एव सति भवति, न तच्छेदे नानुत्पत्यां वा तदभावे जातिस्मरणादिना, उक्तं च- “तित्थंचि नियमतोचिय होइ स तिरथंमि न उण तदभावे । चिगएऽणुप्पन्ने वा जाइसरणाइपहितो || १ || ४ | ” पर्यायद्वारे पर्यायो द्विधा - गृहस्थ पर्यायो यतिपर्यायश्च, एकैकोऽपि द्विधा जघन्यत उत्कृष्टतश्च तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्यत एकोनत्रिंशद् वर्षाणि, यतिपर्यायो विंशतिः, द्वावपि च उत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटिप्रमाणी, उक्तं च- “ऐयस्स एस नेओ गिहिपजाओ जहन्निगुणतीसा । जइपजाओ बीसा दोस्रुवि उक्कोस देसूणा ॥ १॥ ५॥ " आगमद्वारे - अपूर्वमागमं स नाधीते, यस्मात् तं कल्पमधिकृस प्रगृहीतोचितयोगाराधनत एव स कृतकृ त्यतां भजते, पूर्वाधीतं तु विस्रोतसिकाक्षयनिमित्तं नित्यमेवैकाग्रमनाः सम्यक् प्रायेणानुस्मरति, आह च- "अप्पुवं नाहिज्जइ आगममेसो पहुच तं कप्पं । जमुचियपगहिअजोगाराहणओ चैव कयकिच्चो ॥ १ ॥ पुवाहीयं तु तयं पायमणुसरह निचमेवेस । एगग्गमणो सम्मं विस्सोयसिगाइखयऊ || २ || ६ | " वेदद्वारे प्रवृत्तिकाले वेदतः पुरुष
१ तीर्थमिति नियमत एव भवति स तीर्थे न पुनस्तदभावे । विगतेऽनुत्पन्ने वा जातिस्मरणादिभिः ॥ १ ॥ २ एतस्यैष ज्ञातव्यो गृहि पर्यायो जघन्यत एकोनत्रिंशत् । यतिपर्यायो विंशतिः द्वयोरप्युत्कर्षतो देशोना (पूर्वकोटी ) ॥ १ ॥ ३ अपूर्व नाधीते आगममेष प्रतीत्य वं कल्पम् । यदुचितप्रगृहीत योगाराधनतश्चैव कृतकृत्यः ॥ १ ॥ पूर्वाधीतं तु तत् प्रायोऽनुस्मरति नित्यमेवैषः । एकाग्रमनाः सम्यकू विओतसिकादिक्षयहेतोः ॥ २ ॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती. ॥६६॥
सूत्राक [३७]]
दीप
वेदो वा भवेत् नपुंसकवेदो वा, न स्त्रीवेदः, स्त्रियाः परिहारविशुद्धिकल्पप्रतिपत्त्यसंभवात् , अतीतनयमधिकृत्य पुनः१ प्रज्ञापपूर्वप्रतिपन्नचिन्त्यमानः सवेदो वा भवेत् अवेदो वा, तत्र सवेदः श्रेणिप्रतिपत्त्यभावे उपशमश्रेणिप्रतिपत्ती वा, क्षप-11 नापदे ककश्रेणिप्रतिपत्ती त्ववेद इति, उक्तं च-"वेदो पवित्तिकाले इत्थीवजो उ होइ एगयरो । पुषपडिवनगो पुण होज।
किर्मासवेदो अवेदो वा ॥१॥" कल्पद्वारे-स्थितकल्पे एवायं नास्थितकल्पे, "ठियकप्पंमि य नियमा" इति वचनात्,
नार्यजातत्राचेलक्यादिषु दशखपि स्थानेषु ये स्थिताः साधवः तत्कल्पः स्थितकल्प उच्यते, ये पुनश्चतुर्यु शय्यातरपिण्डादि
त्याचार्य
मनुष्यसूत्र वस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाचेलक्यादिषु षट्वस्थिताः तत्कल्पोऽस्थितकल्पः, उक्तं च-"ठिययाठियओय कप्पो आचेलकाइएसु ठाणेसु । ससु ठिया पठमो चउ ठिय छसु अढिया पीओ॥१॥" आचेलक्यादीनि च दश स्था-II नान्यमूनि-"आचेलकुदेसियसेजायररायपिंडकिइकम्मे । वयजेट्टपडिकमणे मासं पजोसवणकप्पो ॥१॥ चत्वारश्चा-11 वस्थिताः कल्पा इमे-"सेजायरपिडम्मी चाउजामे य पुरिसजेट्टे य। किइकम्मस्स य करणे चत्तारि अवट्टिया कप्पा ॥१॥८" लिङ्गद्वारे-नियमतो द्विविधेऽपि लिङ्गे भवति, तद्यथा-द्रव्यलिङ्गे भावलिङ्गे च, एकेनापि विना ॥६६॥
१ वेदः प्रवृत्तिकाले श्रीवर्जस्तु भवत्येकतरः । पूर्वप्रतिपन्नकः पुनर्भवेत् सवेदोऽवेदो वा ॥१॥२ खितासिता कल्प आचेलक्यादिकेषु स्थानेषु । सर्वेषु स्थिताः प्रथमः चतुर्यु स्थिताः षट्स्वस्थिता द्वितीयः ॥ १॥ ३ आचेलक्यमाधाकर्मिकं शय्यातरः राजपिण्डः कृति-1 कर्म । प्रतानि ज्येष्ठः प्रतिक्रमणं मासः पर्युषणाकल्पः ॥१॥
अनुक्रम [१९०]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
0900999apacasa
[३७]]
विवक्षितकल्पोचितसामाचार्ययोगात् ९। लेश्याद्वारे-तेजःप्रभृतिकासूत्तरासु तिसृषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहारविशुद्धिकं कल्पं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वाखपि कथञ्चिद् भवति, तत्रापीतराखविशुद्धलेश्यासु नात्यन्तसंक्लिटासु वर्तते, तथाभूतासु वर्तमानोऽपि)न प्रभूतकालमवतिष्ठते, किंतु स्तोकं, यतः खवीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्तते, अथ प्रथमत एव कस्मात् प्रवर्तते ?, उच्यते, कर्मवशात्, उक्तं च-"लेसासु विसुद्धासुं पडिवजह तीसु न उण सेसासु । पुवपडिवन्नओ पुण होजा सबासुवि कहंचि ॥१॥णऽचंतसंकिलिट्ठासु थोपं कालं स हंदि इयरासु । चित्ता कम्माण गई तहा विवरीय (वि विरिय) फलं देइ ॥२॥" १० । ध्यानद्वारे-धर्मध्यानेन प्रवर्धमानेन परिहारविशुद्धिक कल्पं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनरातरौद्रयोरपि भवति, केवलं प्रायेण निरनुबन्धः, आह च-1 "शाणमिवि धम्मेणं पडिवजह सो पबहमाणेणं । इयरेसुवि झाणेसुं पुवपवन्नो न पडिसिद्धो ॥१॥एवं च झाण-18 जोगे उद्दामे तिषकम्मपरिणामा। रोहऽढेसुवि भावो इमस्स पायं निरणुबन्धो ॥२॥" ११॥ गणनाद्वारे-जघन्यतः त्रयो गणाः प्रतिपद्यन्ते, उत्कर्षतस्तु शतसंख्याः, पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यत उत्कृष्टतो वा शतशः, पुरुषगणनया जघन्यतः प्रतिपद्यमानाः सप्तविंशतिः उत्कर्षतः सहस्रं, पूर्वप्रतिपन्नकाः पुनर्जघन्यतः शतशः उत्कर्षतः सहस्रशः, आह च-"गणओ तिन्नेव गणा जहन्न पडियत्ति सहस उक्कोसा । उक्कोस जहन्नेणं सयसोचिय पुषपडिवन्ना ॥१॥ सत्तावीस जहन्ना सहस्समुकोसओ य पडिवत्ती । सयसो सहस्ससो वा पडिवन जहन्नउकोसा ॥२॥" अन्यथ
दीप अनुक्रम [१९०]
-29.930030
प्र.१२dond
murary.org
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-१५Jउपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना-
प्रत
यवृत्ती.
सूत्राक
॥६७॥
[३७]]
दीप अनुक्रम [१९०]
यदा पूर्वप्रतिपन्नः कल्पमध्यादेको निर्गच्छति अन्यः प्रविशति तदोनप्रक्षेपे प्रतिपत्तौ कदाचिदेकोऽपि भवति पृथक्त्वं प्रज्ञापवा, पूर्वप्रतिपन्नोऽप्येवं भजनया कदाचिदेकः प्राप्यते पृथक्त्वं वा, उक्तं च-"पंडिवजमाण भयणाएँ होज एकोऽविनापदे म. ऊणपक्खेवे । पुवपडिवनयाचि य भइआ एक्को पुडुत्तं वा ॥१॥" १२ । अभिग्रहद्वारे--अभिग्रहाश्चतुर्विधाः, तद्यथा
नुष्यमज्ञाद्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहाः भावाभिग्रहाश्च, एते चान्यत्र चर्चिता इति न भूयश्चय॑न्ते, तत्र परि
पना. हारविशुद्धिकस्यैतेऽभिग्रहा न भवन्ति, यस्मादेतस्य कल्प एव यथोदितरूपोऽभिग्रहो वर्तते, उक्तं च-"दवाईअअभिग्गह विचित्तरूवा न होन्ति पुण केइ । एअस्स जीअकप्पो कप्पोचियऽमिग्गहो जेणं ॥१॥ एयमि गोयराई। नियया नियमेण निरववादा य । तप्पालणं चिय परं एअस्स विसुद्धिठाणं तु ॥२॥" १३ । प्रत्रज्याद्वारे-नासावन्यं प्रत्राजयति, कल्पस्थितिरेषेतिकृत्वा, आह च-"पवावेइन एसो अन्नं कप्पटिइत्ति काउणं" इति, उपदेशं पुनर्यथाशक्ति प्रयच्छति १४ । मुण्डापनद्वारेऽपि नासावन्यं मुण्डयति, अथ प्रव्रज्यानन्तरं नियमतो मुण्डनमिति प्रव्रज्याग्रहणेनैव तद् गृहीतमिति किमर्थं पृथगद्वारं ?, तदयुक्तं, प्रत्रज्याद्वारे नियमतो मुण्डनस्थासंभवात् , अयोग्यस्य कश्चिदत्तायामपि प्रव्रज्यायां पुनरयोग्यतापरिज्ञाने मुण्डनायोगात्, अतः पृथगिदं द्वारमिति १५। प्रायश्चित्तविधि-8॥७॥ द्वारे-मनसाऽपि सूक्ष्ममप्यतिचारमापन्नस्य नियमतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमस्थ, यत एष कल्प एकाग्रताप्रधानः, ततस्तद्भङ्गे गुरुतरो दोष इति १६ । कारणद्वारे-तथा कारणं नामालम्बनं तत्पुनः सुपरिशुद्धं ज्ञानादिकं तचास्य न
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोष: वर्तते- 'सू० ३७ स्थाने 'सू० ३८' इति मुद्रितं
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]
विद्यते येन तदाश्रित्यापवादसेविता स्यात् , एप हि सर्वत्र निरपेक्षः क्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तं प्रारब्धमेव खं कल्प यथोक्तविधिना समापयन् महात्मा वर्तते, उक्तं च- कारणमालंबणमो तं पुण नाणाइ सुपरिसुद्धं । एअस्स तं न विजइ उचियं तवसाहणो पायं ॥ १ ॥ सवत्थ निरवयक्खो आढत्तं चिय दई समाणतो । बट्टा एस महप्पा किलिट्टकम्मक्खयनिमित्तं ॥२॥" १७ । निष्प्रतिकर्मताद्वारे-एष महात्मा निष्प्रतिकर्मशरीरः अक्षिमलादिकमपि कदाचिन्नापनयति, न च प्राणान्तिकेऽपि समापतिते व्यसने द्वितीयं पदं सेवते, उक्तं च-"निप्पडिकम्मसरीरो अच्छिमलाई वि नावणेइ सया । पाणन्तिएऽविय महावसणंमि न वट्टए बीए ॥१॥ अप्पबहुत्तालोयणविसयातीओ उN होइ एसत्ति । अहवा सुहभावाओ बहुगं एयं चिय इमस्स ॥२॥"१८ । भिक्षाद्वारे-भिक्षा विहारक्रमच तृतीयस्या पीरुभ्यां भवति, शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सर्गः, निद्राऽपि चास्याल्पा द्रष्टव्या, यदि पुनः कथमपि जवाबलमस्सी परिक्षीणं भवति तथाऽप्येषोऽविहरन्नपि महाभागो न द्वितीयपदमापद्यते, किन्तु तत्रैव यथाकल्पमात्मीयं योगं विदधातीति, उक्तं च-"तइयाए पोरसीए भिक्खाकालो बिहारकालो उ । सेसासु उस्सग्गो पायं अप्पा य निद्दत्ति ॥१॥ जंघावलंमि खीणे अविहरमाणोऽपि न परमावजे । तत्थेव अहाकप्पं कुणइ उ जोग महाभागो ॥२॥" १९ । (पन्धे|ऽष्ट सस वा २०) एते च परिहारविशुद्धिका द्विविधाः, तद्यथा-इत्वरा यावत्कथिकाश्च, तत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं | तमेव कल्पं गच्छं वा समुपयास्यन्ति ते इत्वराः, ये पुनः कल्पसमात्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्प प्रतिपत्स्यन्ते ते
दीप अनुक्रम [१९०]
भ30203009929202
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आगम
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], ---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनायाः मल
सूत्राक
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॥६८॥
दीप अनुक्रम [१९०]
यावत्कथिकाः, उक्तं च "इत्तरिय थेरकप्पे जिणकप्पे आवकहियत्ति" अत्र स्थविरकल्पग्रहणमुपलक्षणं, खकल्पे।
|१मज्ञापचेति द्रष्टन्यं, तत्त्वराणां कल्पप्रभावाद् देवमनुष्यतैर्यग्योनिकृता उपसर्गाः सद्योघातिन आतका अतीवाविषयाश्च
नापदे मवेदना न प्रादुष्पन्ति, यावत्कथिकानां संभवेयुरपि, ते हि जिनकल्पं प्रतिपत्स्यमाना जिनकल्पभावमनुविदधति,
मनुष्याय जिनकल्पिकानां चोपसर्गादयः संभवन्तीति, उक्तं च-"इत्तरियाणुवसग्गा आतंका वेयणा य न हयन्ति । आवक
मज्ञापना. हियाण भइआ०" इति । तथा सूक्ष्मो लोभांशावशेषः संपरायः कषायोदयो यत्र तत् सूक्ष्मसंपरायं, तच द्विधा
३८ विशुध्यमानक संक्लिश्यमानकं च, तत्र विशुध्यमानक क्षपकश्रेणिमुपशमणि चा समारोहतः, संक्लिश्यमानकं तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य । 'अथाख्यात'मिति अथशन्दो यथार्थे आर अभिविधौ याथातथ्येनाभिविधिना वा यत्ख्यातं-कथितं अकपार्य चारित्रमिति तदयाख्यातं, उक्तं च-"अहसद्दो(उ) जहत्थे आलोऽभिविहीऍ कहिय-1॥ मक्खायं । चरणमकसायमुइयं तमहक्खायं जहक्वायं ॥१॥" 'यथाख्यात'मिति द्वितीयं नाम, तस्यायमन्वर्थ:यथा सर्वस्मिन् लोके ख्यातं-प्रसिद्ध अकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यदू तद् यथाख्यातं, तच द्विधा-छामस्थिकं कैवलिकं च, तत्र छानस्थिकमुपशान्तमोहगुणस्थानके क्षीणमोहगुणस्थानके वा कैवलिकं सयोगिकेवलिभवमयोगिकेवलिभवं च । 'सर्च' इत्यादि उपसंहारकदम्बसूत्रं सुगम ॥ तदेवमुक्ता मनुष्याः, सम्प्रति देवप्रतिपाद-8॥८॥ नार्थमाह
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोष: वर्तते- 'सू० ३७ स्थाने 'सू० ३८' इति मुद्रितं
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आगम
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सूत्रांक [३८]
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अनुक्रम [१९१]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
दारं [-],
मूलं [३८]
पदं [१], -----------उद्देशक: [ - ], ----------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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से किं तं देवा १, देवा चउबिदा प० ० – भवणवासी वाणमंतरा जोइसिआ वेमाणिआ से किं तं भवणवासी १, भवणवासी दसविदा प०, ० असुरकुमारा नागकुमारा सुवनकुमारा विज्जुकुमारा अग्गिकुमारा दीवकुमारा उदहिकुमारा दिसाकुमारा वाउकुमारा धणियकुमारा, ते समासओ दुबिहा प०, तं० पजत्तगा य अपअत्तगा य, सेतं भवणवासी । से किं तं वाणमंतरा?, वाणमंतरा अडविहा प०, ०- किन्नरा किंरिसा महोरगा गंधवा जक्खा रक्खसा भूया पिसाचा, ते समासओ दुविधा प०, तं०-यजत्तगा य अपजत्तया य, सेत्तं वाणमन्तरा । से किं तं जोइसिया १, जोइसिया पंचबिहा प०, तं०-चंदा खुरा गहा नक्खत्ता तारा, ते समासओ दुविधा प०, ० - पजचगा य अपजत्तगाय, सेतं जोइसिया ॥ से किं तं वैमाणिया, वेमाणिआ दुविहा प०, तं० - कप्पोवगा य कप्पाईया य, से किं तं कप्पोवगा ?, कप्पोवगा बारसविहा प०, ० - सोहम्मा ईसाणा सणकुमारा माहिंदा बंगलोया लंतया महासुका सहस्सारा आणया पाणया आरणा अया, ते समासओ दुबिहा प०, सं०-पजचगा य अपअत्तगा य, से तं कप्पोवगा। से किं तं कप्पाईया १, कप्पाईया दुविहा प०, सं० गेविजगा य अणुत्तरोववाइया य, से किं तं गेविजगा १, गेविअगा नवविद्या प० सं०- हिडिमहिहिमविजगा हिडिममज्झिमगेविजगा हिडिमउवरिमगेविजगा मज्झिमोहिमगेविजगा मज्झिममज्झिमगेविअगा मझि मउवरिमगेविअगा उबरिमहेहिमगेविजगा उवरिममज्झिमगेविजगा उवरिमउवरिममेविजगा, ते समासओ दुविधा प०, ० --पजतगा य अपअचगा य, सेतं गेविजगा । से किं तं अनुचरोववाहया १, अणुत्तरोबवाइया पंचविहा प०, ० विजया वेजयन्ता जयन्ता अपराजिता सबइसिद्धा, ते समासओ दुबिहा प० नं० - जगा व अपखचया य, सेचं
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अत्र पञ्चइन्द्रिय-जीवस्य प्रज्ञापना मध्ये देवयोनिक जीवस्य प्रज्ञापना आरभ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
सूत्राक
[३८]
दीप
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अणुत्तरोववाइआ, सेनं कप्पाईया, सेत्तं वेमाणिआ, सेत्तं देवा, सेत्तं पंचिंदिया, सेत्तं संसारसमावनजीवपन्नवणा, से तं । १प्रज्ञापजीवपन्नवणा, सेत्तं पनवणा ॥ (सू० ३८) पनवणाए भगवईए पढमषयं सम्म ।
नापदे दे__ 'से कि तं' इत्यादि, अथ के ते देवाः ?, सूरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो व्यन्तरा ज्यो- वप्रज्ञापतिष्का वैमानिकाः, तत्र भवनेपु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिनः, एतद् बाहुल्यतो नागकुमाराद्यपेक्षया द्रष्टव्यं, ते
| नासू.३८ हि प्रायो भवनेषु वसन्ति कदाचिदावासेपु, असुरकुमारास्तु प्राचुर्येणावासेसु कदाचिद् भवनेषु, अथ भवनानामा-8 वासानां च का प्रतिविशेषः१, उच्यते, भवनानि बहिर्वृत्तान्यन्तः समचतुरस्राणि अधः पुष्करकर्णिकासंस्थानानि, आषासाः कायमानस्थानीया महामण्डपा विविधमणिरलप्रदीपप्रभासितसकलदिकचक्रयाला इति । अन्तरं नामावकाशः, तोहानयरूपं द्रष्टव्यं, विविधं भवननगरावासरूपमन्तरं येषां ते व्यन्तराः । [ तत्र भवनानि रत्नप्रभायाः । प्रथमे रखकाण्डे उपर्यधश्च प्रत्येक योजनशतमपहाय शेषे अष्टयोजनशतप्रमाणे मध्यभागे भवन्ति, नगराण्यपि तिर्यगलोके, तत्र तिर्यग्लोके यथा जम्बूद्वीपद्वाराधिपतेर्विजयदेवस्थान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसहस्रप्रमाणा नगरी, आवासाः त्रिवपि लोकेषु, तत्रो लोके पण्डकवनादाविति ] अथवा विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः ॥१९॥ तथाहि-मनुष्यानपि चक्रवर्तिघासुदेवप्रभृतीन् भृत्यवदुपचरन्ति केचिद् व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः, यदि-18 |वा विविधमन्तरं-शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः, प्राकृतत्वाच सूत्रे 'वाणमन्तरा'
अनुक्रम [१९१]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८]
इति पाठः, यदिवा 'वानमन्तराः' इति पदसंस्कारः, तत्रेयं व्युत्पत्तिा-वनानामन्तराणि बनान्तराणि तेषु भवाः शिवानमन्तराः, पृषोदरादित्वाद् उभयपदान्तरालवर्तिमकारागमः, तथा द्योतयन्ति-प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतींषि
विमानानि, औणादिकी शब्दव्युत्पत्तिः, तेषु भवा ज्योतिष्काः "अध्यात्मादिभ्यः" इति इकण, तत "इवर्णोवर्णदोसिसुसः" इति इकण आदेरिकारस्य लोपः, अनभिधानाच वृद्ध्यभावः, यदिवा द्योतयन्ति-शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभामण्डलकल्पः सूर्यादिमण्डलैः प्रकाशयन्तीति ज्योतिषो-देवाः सूर्योदयः, तथाहि-सूर्यस्य सूर्याकारं मुकुटाग्रमागे चिई चन्द्रस्य चन्द्राकार नक्षत्रस्य नक्षत्राकारं प्रहस्य ग्रहाकारं तारकस्य तारकाकारं तैः प्रकाशयन्तीति, आह च। तत्त्वार्थभाष्यकृत्-"द्योतयन्तीति ज्योतींषि-विमानानि तेषु भवा ज्योतिष्कार, यदिवा ज्योतिपो-देवाः ज्योतिष एव ज्योतिष्काः, मुकुटैः शिरोमुकुटोपगृहिभिः प्रभामण्डलैरुज्वलैः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाणां मण्ड| लैर्यथाखं चिह्नर्विराजमाना द्युतिमन्तो ज्योतिष्का भवन्ती"ति । तथा विविध मान्यन्ते-उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिर्जीवरिति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः ॥ सम्प्रति एतेषामेव क्रमेण भेदानभिधित्सुराह-से किं तं भवणवासी इत्यादि, असुराश्च ते कुमाराच असुरकुमाराः, एवं नागकुमारा इत्याद्यपि भावनीयम्, अथ कस्मादेते कुमारा इति व्यपदिश्यन्ते ', उच्यते, कुमारवचेष्टनात्, तथाहि-कुमारा इवते सुकुमारा मृदुमधुरललितगतयः शृक्षारा-16 भिप्रायकृतविशिष्टविशिष्टतरोत्तररूपक्रियाः कुमारवचोद्धतरूपयेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवचोल्व
दीप अनुक्रम [१९१]
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[३८]
दीप अनुक्रम [१९१]
प्रज्ञापनाणरागाः क्रीडनपराब ततः कुमारा इव कुमारा इति ॥ 'किंनरा' इत्यादि किन्नरा दशविधाः, तद्यथा-किन्नरः।
१प्रज्ञापया: मल- किंपुरुषाः किंपुरुषोत्तमाः किंनरोत्तमाः हृदयङ्गमी रूपशालिनः अनिन्दिताः मनोरा रतिप्रियां रतिश्रेष्ठाः । किंपु-IN
नापदे - य० वृत्ती. षा दशविधाः, तद्यथा-पुरुषाः सत्पुरुषां महापुरुषाः पुरुषवृषभाः पुरुषोत्तमो अतिपुरुषां महादेवा मरुतः मेरु
वप्रज्ञाप॥७॥
प्रभोः यशस्वन्तः । महोरगा दशविधाः, तद्यथा-भुजगा भोगशालिनः महाकायर्या अतिकार्याः स्कन्धशालिनी ना सू.३८ मनोरा महावेगा महे(हा)या मेरुकान्ता भावन्तः । गन्धर्षा द्वादशविधाः, हाहाः हः तुम्बरवः नारदोः ऋषि-18 वादिका भूतिवादिकाः कादम्बा महाकादम्बा रैवताः विश्वावसवः गीतरतयः गीतयशसः । यक्षास्त्रयोदशविधाः, तद्यथा-पूर्णभद्रा माणिभद्रा वेतभद्रो हरितभद्रोः सुमनोभद्रो व्यतिपातिकभीः सुभद्राः सर्वतोभद्रा मनुष्यपक्षी वनाधिपतयः पनाहारी रूपयक्षी यक्षोत्तमाः। राक्षसाः सप्सविधाः, तद्यथा-भीमो महामीमा विना विनायको जलराक्षसो राक्षसराक्षा जसराक्षसाः। भूता नवविधाः, तद्यथा-मुरूपाः प्रतिरूपो अतिरूपी भूतोत्तोः स्कन्दो महास्का महावेगाः प्रतिच्छा आकाशगा। पिशाचाः षोडशविधाः, तद्यथा-कूष्माण्डाः पटकाः सुजा(जो)पा
आहिको कालो महाकाला चोक्षा अचोाः तालपिशाचा मुखरपिशाची अधस्तारका देही विदेही महादेही ॥ ७० ॥ लातणीको बनपिशाचों इति । 'कप्पोवगा कप्पाईय'चि कल्प:-आचारस चेह इन्द्रसामानिकत्रायविंशादिन्यव-1101
हाररूपः तमुपगाः-प्राप्ताः कल्पोपगाः सौधर्मेशानादिदेवलोकनिवासिनः, यथोक्तरूपं कल्पमतीता:-अतिका
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [१], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
__ पदं -) प्रजापना- अपांगावर (मुनवृत्तिः (va_
प्रत
न्ताः कल्पातीताः-अधस्तनापस्तनौवेयकादिनिवासिनः ते हि सर्वेऽप्यहमिन्द्राः ततो भवन्ति कल्पातीताः। कल्पोपगान् दर्शयति-'सोहम्मा ईसाणा' इत्यादि, सौधर्मदेवलोकनिवासिनः सौधर्माः ईशानदेवलोकनिवासिन ईशानाः एवं सवेत्रापि भावनीयं, भवति च तात्स्थ्यात् तबपदेशः, यथा 'पञ्चालदेशनिवासिनः पश्चाला हात ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां प्रथमं प्रज्ञापनाख्यं पदं समर्थितमिति ॥ (ग्रन्था१८८७)
सूत्रांक
[३८]
0000
दीप अनुक्रम [१९१]
Hrajesturary.com
अत्र पद (०१) "प्रज्ञापना" परिसमाप्तम्
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
सूत्राक
[३९]
॥७१॥
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दीप
तदेवं व्याख्यातं प्रथमपदं, सम्प्रति द्वितीयं पदमारभ्यते, तस्य चायममिसंबन्धः-प्रथमपदे पृथ्वीकायादयः प्रह-18| पिताः, इह तु तेषामेव स्थानानि प्ररूप्यन्ते, तत्र चेदमादिसूत्रम्
कहिणं भंते। बादरपुढवीकाइयाणं पत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा! सहाणेणं अहसु पुढवीसु, तं०-यणप्पमाए ब्यवेजः सकरप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पमाए तमप्पभाए तमतमप्पभाए ईसीप्पम्भाराए, अहोलोए पायालेसु भव
स्थानानि णेसु मवणपत्थडेसु निरएसु निरयावलियासु निरयपत्थडेसु, उहलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए टंके कूडेसु सेलेसु सिहरीसु पन्भारेसु विजएमु वक्खारेसु वासेसु वासहरपवएसु वेलासु वेड्यासु दारेसु तोरणेसु दीवेसु समुद्देसु, एत्थ णं वायरपुढवीकाइयाणं पञ्जत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेअभागे समुग्धायेणं लोयस्स असंखेखभागे सहाणेणं लोगस्स असंखेअभागे । कहि ण मंते ! बादरपुढवीकाइयाणं अपनत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! जत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नता तत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं सबलोए समुग्धाएणं सचलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेञ्जइमागे । कहि णं भंते ! सुहुमपुढषीकाइयाणं पज्जतगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा प०१, गोयमा ! सुहुमपुढचीकाइया जे पज्जत्तगा जे अपजत्तगा ते सत्वे एगविहा अविसेसा अणाणचा सबलोयपरियावनगा प० समणाउसो! । कहि णं भन्ते ! बादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा! सहाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलयेसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु उहलोए कप्पेसु विमा
अनुक्रम [१९२]
अथ पद (०२) "स्थानं" आरभ्यते अत्र पृथ्वि-अप-तेजस्कायिक जीवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(३९)
णेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगडेसु तलायेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललएसु पल्ललएसु वप्पणेसु दीवेसु समुद्देसु सच्चेसु चेव जलासएसु जलवाणेसु एत्थ णं बादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्धायेणं लोयस्स असंखेजहभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे । कहिणं भंते ! चादरआउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! जत्थेव बादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा प० तत्वेव बादराउकाइयाणं अपज्जतगाणं ठाणा ५० उववाएणं सबलोए समुग्धायेणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे । कहिणं भंते ! सुहुमआउकाइयाण पज्जतगाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! सुहुमाउकाइया जे पज्जत्तमा जे अपजचगा ते सो एगविहा अविसेसा अणाणता सबलोयपरियावनगा प० समणाउसो ! कहिणं भंते ! वायरतेउकाइयाणं पज्जतगाणं ठाणा प०, गोयमा ! सहाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अहाइज्जेसु दीवसमुद्देसु निवाघायेणं पन्नरससु कम्मभूमीसु वाघायं पडच पंचसु महाविदेहेसु एत्थ ण चादरतेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा प० उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे समुपाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । कहि णं मन्ते ! वायरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा प०, गोयमा ! जत्थेव वायरतेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा तत्येव बायरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स दोसु उहकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य समुग्याएणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जहभागे । कहिणं मंते! सुहुमतेउकाइयाणं
दीप
अनुक्रम [१९२]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलया वृत्ती.
सूत्राक
॥७२॥
[३९]
टीप
पज्जत्तगाण य अपजत्तगाण य ठाणा प० १, गोयमा ! सुडुमतेउकाइआ जे पजत्तगा जे अपजत्तगा ते सत्वे एगविहा अविसेसा । अणाणचा सबलोयपरियावनगा प० समणाउसो' । (सू०३९)
पदे पृ. 'कहिंति कस्मिन्, अंशब्दो वाक्यालङ्कारे, भदन्तेति परमगुळमन्त्रणे, बादरपृथ्वीकायिकानां पर्याप्सानां स्था-18व्यप्तेज: नानि-खस्थानादीनि 'प्रज्ञप्तानि ?' प्ररूपितानि, एवं गौतमखामिना प्रश्ने कृते भगवानाह वर्धमानखामी-'गो- स्थानानि यमा । सट्टाणेणं' इत्यादि, ननु गौतमोऽपि भगवानुपचितकुशलमूलो गणधरः तीर्थकरभाषितमातृकापदश्रवणमापावाप्तप्रकृष्टश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमश्चतुर्दशपूर्ववित् सर्वाक्षरसन्निपातीति विवक्षितार्थप्रतिज्ञानसमन्वित एव ततः किमर्थं पृच्छति ?, न हि चतुर्दशपूर्वविदः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसमन्वितस्य किञ्चित्प्रज्ञापनीयमविदितमस्ति, यत उक्तम्-"सखाईए वि भवे साहइ ज वा परो उ पुच्छेजा । न य णं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्यो ॥१॥" सत्यमेतत् , केवलं जानन्नेव गौतमखामी भगवानन्यत्र विनेयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्संप्रत्ययनिमित्तं विवक्षितमर्थ पृच्छति, यदिवा प्रायः सर्वत्र गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं सूत्रमतो भगवानार्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति, अथवा संभवति तस्यापि गणभृतो गौतमखामिनोऽनाभोगः, छद्मस्थत्वात् , उक्तं च-"न हि नामानाभोगश्छमस्थस्सेही कस्यचिद् नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥१॥" ततो जातसंशयः सन् पृच्छतीति न कश्चिद् | १ संख्यातीतानपि भवान् कथयति यं वा परः पृच्छेत् । नैवैनं अनतिशायी विजानायेष लग्नस्थः ॥ १ ॥
अनुक्रम [१९२]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[३९]
दीप
अनुक्रम [१९२]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
दारं [-],
मूलं [ ३९ ]
पदं [२], |--------------- उद्देशक: [ - ], -- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्र. १३
दोषः, 'गोयमा' इति लोकप्रथितमहाविशिष्टगोत्राभिधायकोऽयमामन्त्रणध्वनिः, हे गौतमगोत्रेति भावार्थः । 'सट्टागणं' इति स्वस्थानं यत्रासते बादरपृथ्वीकायिकाः पर्याप्ताः आसीनाश्च वर्णादिविभागेनादेष्टुं शक्यन्ते तत्स्वस्थानमिति भावः, स्वस्थानग्रहणमुपपातसमुद्घातस्थाननिवृत्त्यर्थं तेन स्वस्थानेन स्वस्थानमङ्गीकृत्येति भावः । अष्टासु पृथ्वीषु सर्वत्र चादरपृथ्वी कायिकानां पर्याप्तानां स्थानानीति योगः, ता एव अष्टौं पृथ्वीर्नामग्राहमाह - 'तंजहा ' इत्यादि, रत्नप्रभायां यावदष्टम्यामीवत् प्राग्भारायाम्, तथाऽधोलोके पातालेषु पातालकलशेषु -- वलयामुखप्रभृतिषु भवनेषु भवनपतिनिकायावासरूपेषु, भवनप्रस्तटेषु भवनभूमिकारूपेषु, इह भवनग्रहणेन भवनानामेव केवलानां ग्रहणं, भवनप्रस्तदग्रहणेन तु भवनानामपान्तरालस्यापि । तथा नरकेषु प्रकीर्णकरूपेषु नरकावासेषु, नरकावलिकासु-आवलिकाव्यवस्थितेषु नरकावासेषु, नरकप्रस्तटेषु — नरकभूमिरूपेषु, अत्रापि नरकनरकावलिकाग्रहणेन केवला एव नरकावासाः परिगृह्यन्ते, नरकप्रस्तटग्रहणेन तु नरकापान्तरालमपि । ऊर्द्धलोके कल्पेषु - सौधर्मिकादिकल्पेषु, अनेन द्वादशदेवलोकपरिग्रहः, विमानेषु चैवेयकसंबन्धिषु प्रकीर्णकरूपेषु, विमानावलिकासु - आवलिकाप्रविष्टेषु वयकादिविमानेषु विमानप्रस्तटेषु विमानभूमिकारूपेषु, अत्रापि प्रस्तटग्रहणं विमानापान्तरालमा विनामपि यथासंभवभाविनां वादरपर्याप्तपृथ्वीकायिकानां स्थानपरिग्रहार्थ, तथा तिर्यग्लोके टङ्केषु - छिन्नटङ्केषु कूटेषु सिद्धायतनकूटप्रभृतिषु शैलेषु-शिखरहीन पर्वतेषु शिखरिपु-शिखरयुक्तेषु पर्वतेषु प्राग्भारेषु-ईपत्कुनेषु विजयेषु कच्छादिषु
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनाया: मल40 वृत्तौ.
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[३९]
दीप
वक्षस्कारेषु-विबुववादिषु पर्वतेषु वर्षेषु-भरतादिषु पर्षधरेषु-हिमवदादिपर्वतेषु वेलासु-समुद्रादिपानीयरमणभूमिथु वेदिकामु-जम्बूहीषजगत्यादिसंबन्धिनीषु द्वारेषु-विजयादिषु तोरणेपु-द्वारादिसंबन्धित, किं पहुना। पदे पृसामस्त्येन सर्वेषु द्वीपेषु सर्वेषु समुद्रेषु, 'एत्थ ' इत्यादि, अत्रैतेषु स्थानेषु चादरपृथ्वीकायिकानां पर्याप्सानां स्था-18 नानि प्रज्ञप्तानि मया अन्यैश्च तीर्यद्भिः , 'उवधाएणं' इत्यादि, उपपतनमुपपातः, बादरपृथ्वीकायिकानां पर्या-18
स्थानानि सानां यदनन्तरमुक्तं स्थानं तत्प्रात्याभिमुख्यमिति भावः, तेनोपपातेन, उपपातमङ्गीकृत्येति भावः, लोकस्य-चतुर्द-18|| शरज्ज्वात्मकस्यासंख्येये भागे, अप्रैके व्याचक्षते-ऋजुसूत्रनवो विचित्रः ततो यदा परिस्थूरऋजुसूत्रनयदर्शनेन 8 पादरपृथ्वीकायिकाः पर्यासाश्चिन्त्यन्ते तदा ये खस्थानप्राप्ता आहारादिपर्याप्तिपरिसमात्या विशिष्टविपाकतो बादरपर्याप्सपृथ्वीकायिकायुर्वेदयन्ते ते एव द्रष्टव्याः, नापान्तरालगतावपि, तदानीं विपाकायुर्वेदनासंभवात्, खस्थानं च तेषां रत्नप्रभादिकं समुदितमपि लोकस्यासंख्येवभागे वर्तते, तत उपपातेनापि लोकस्यासंख्येयभागता वेदितव्या, अन्ये त्वभिदधति-पर्याप्सा हि नाम बादरपृथ्वीकायिकाः सर्वस्तोकाः, ततस्तेऽपान्तरालगतावपि परिगृह्यमाणा लोकस्थासंख्येयभागे एषेति न कश्चिद्दोषः, सथा च समुद्घातेनापि लोकस्यासंख्येयभागे एवं वक्ष्यन्ते, अन्यथा समुद्घातावस्थायामपि स्वस्थानातिरेकेण क्षेत्रान्तरवर्तित्वसंभवादसंख्येयभामवर्तिता नोपपद्यते इति, तत्त्वं पुनः केवलिनोN विदन्ति विशिष्टश्रुतविदो था । तथा 'समुग्घाएणं लोगस्स असंखेजमागे' इति समुद्घातेन-समुद्घातमधिकृत्य
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आगम
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(३९)
O90093929ae00000
लोकस्यासंख्येयभागे, इवमत्र भावना-पदा चादरपर्याप्ताः पृथ्वीकायिकाः सोपक्रमायुषो निरुपक्रमायुषो वा त्रिभा-1 गाद्यवशेषायुषः पारभषिकमायुर्षदा मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहन्यन्ते तदा ते विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डा अपि लोकस्यासंख्येयतमे एव भागे वर्तन्ते, स्तोकत्वाद् , बादरपृथ्वीकायिकपर्याप्तायुश्चाद्याप्यक्षीणमिति पर्याप्तवादरपृथ्वीकायिका अपि लभ्यन्ते । इह पूर्व पृथच्यादिषु खस्थानमात्रमुक्तम् , इदानी खस्थानेनापि कियति लोकस्य भागे वतन्ते इति निरूपयति-सट्टाणेणं लोगस्स असंखिज्बे मागे' इति, खस्थानं रत्नप्रभादि, तच समुदितमपि लोकस्यासंख्येयभागवर्ति, तथाहि-लप्रभा अशीतियोजनसहस्राधिकलक्षप्रमाणपिण्डमावा, एवं शेषा अपि पृथ्व्यः खखधन|भावेन वक्तव्याः पातालकलशा अपि योजनलक्षावगाहा नरकावासाः त्रिसहस्रयोजनोच्छ्याः विमानान्यपि द्वात्रिंशद्योजनशतवाहल्यानि ततः सर्वेषामपि परिमितभावात् समुदितानामप्यसंख्येयभागवर्तितेवेति । बादरापर्याप्तपृथ्वीकायिकसूत्रे 'उववाएणं सबलोए समुग्धाएणं सबलोए' इति, इहापर्याप्ता बादरपृथ्वीकायिका अपान्तरालगतावपि स्वस्थानेऽपि चापर्यासवादरपृथ्वीकायिकायुर्विशिष्टविपाकतो वेदयन्ते तथा देवनैरयिकवर्जेभ्यः शेषसर्वकायेभ्यश्थोत्पद्यन्ते, उद्वृत्ता अपि च देवनैरपिकवर्जेषु शेपेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु गच्छन्ति, ततोऽपान्तरालगतावपि वर्तमाना अमी गृह्यन्ते, अतिप्रभूताश्च खभावतोऽपी(तोऽमी इ)त्युपपातेन समुद्घातेन (च) सर्वलोके वर्तन्ते । अन्ये त्वभिदधति-खभावत एवामी बहर इति उपपातेन समुद्घातेन च सर्वलोकव्यापिनः, तत्रोपपातः केपांचिदू ऋजुगत्या
दीप
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प्रत
सूत्रांक
[३९]
दीप
अनुक्रम
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
दारं [-],
मूलं [ ३९ ]
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापचायाः मल
य० वृत्ती.
॥ ७४ ॥
Jan Eucat
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केषांचिद् वक्रगत्या । तत्र ऋजुगतिः सुप्रतीता, चक्रस्थापना चैवम्, जत्र यदेव प्रथमं वक्रमेके संहरन्ति तदैवापरे तद्वक्रदेशमापूरयन्ति, एवं द्वितीयवक्रदेशसंहरणेऽपि वनोत्पत्तावपि प्रवाहतो निरन्तरमापूरणं भावनीयम् । 'सट्टाणं लोगस्स असंखेज्जइभागे' इति यथा पर्याप्तानां भावितं तथाऽपर्याप्तानामपि भावनीयम्, तन्निश्रया तेषासुत्पादभावात् । सूक्ष्मपृथिवीकायिकपर्याप्तापर्यातसूत्रे 'जे पज्जत्ता अपज्जत्ता ते सबे एगविहा अविसेसा अणाणता | सबलोयपरियावन्नगा' इति सूक्ष्मपृथिवीकायिका ये पर्याप्ता ये चापर्याप्ताः ते सर्वेप्येकविधाः - एकप्रकाराः, प्राकृतं स्वस्थानादिविचारमधिकृत्य भेदाभावात्, अविशेषा-विशेषरहिताः, यथा पर्याप्तास्तथेतरेऽपीति भावः 'अनानात्वा' नानात्ववर्जिताः, देशभेदेनालक्षितनानात्वा इत्यर्थः, किमुक्तं भवति ? – एष्याधारभूतेष्वा काशप्रदेशेषु एके तेष्वेव इतरेऽपीति, सर्वलोकपर्यापन्नाः सर्वलोकव्यापिनः, उपपातसमुद्घातस्वस्थानैः प्रज्ञताः मया अन्यैश्व ऋषभादिभिस्तीर्थकुद्भिः अनेन आगमस्य कथंचिद् नित्यत्वमावेदितम्, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! आमन्त्रणमिदं भगवत्ययुक्तं गौतमस्य । एवमष्कायिकसूत्राण्यपि बादरसूक्ष्मविषयाणि । नवरं पर्याप्तवादराप्कायिकसूत्रे 'सत्तसु पणोदहिवल एसुत्ति' सप्त घनोदधिवलयानि स्वस्वपृथिवीपर्यन्तवेष्टकानि वलयाकाराणि । 'अहोलोप पायालेसुति' पातालकलशेषु वलयामुखप्रभृतिषु तेष्वपि द्वितीये त्रिभागे देशतः, तृतीये त्रिभागे सर्वात्मना जलभावात् । भवनेषु कल्पेषु विमानेषु च जलं वाप्यादिषु, विमानादीनि चात्र कल्पगतानि वेदितव्यानि, त्रैवेयकादिषु वापीनामसंभवतो जला
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२ स्थान
पदे पृ
व्यतेजः स्थानानि सू. ३९
॥ ७४ ॥
rary or
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(३९)
संभवात् । अवटाः कृपाः । तडागानि प्रतीतानि । नद्यो गङ्गासिन्धुप्रभृतयः। हृदाः पमहदादयः। बाप्पश्चतुरस्राकाराः । ता एव वृत्ताकाराः पुष्करिण्यः, यदिवा पुष्कराणि पनानि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यः । दीर्घिका ऋजुलघुनद्यः । ता एव वक्रा गुंजालिका । बहूनि केवलकेवलानि पुष्पावकीर्णानि सरांसीत्युच्यन्ते । तथा बहूनि सरांसि एकपलया व्यवस्थितानि सरपकिस्ता बद्धयः सरपक्तयः । तथा येषु सरःसु पश्या व्यवस्थित कूपोदक प्रणालिकया संचरति सा सरासर-पक्तिः, ता बहवः सरःसरपक्यः । बिलानीव बिलानि खभावनिष्पन्ना जगत्यादिषु कूपिकास्तेषां पतयो विलपतयः । उज्झरा गिरिष्वम्भसा प्रस्रवाः । ते एव सदावस्थायिनो निझराः। छिछराणि-अखाताः स्तोकजलाश्रयभूता भूप्रदेशा गिरिप्रदेशा वा । पल्बलानि अखातानि सरांसि । वप्राः केदाराः। किं बहुना १, सर्वेष्वेव जलाशयेषु, एतदेव व्याचष्टे-जलस्थानेषु । शेषभावना प्राग्वत् । अधुना बादरपर्याप्ततेजाकायिकस्थानानि पृच्छति-'कहिणं भंते ! बादरतेउकाइयाणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'गोयमा।' इत्यादि, गीतम | 'स्वस्थानेन' खस्थानमङ्गीकृत्य अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे-मनुष्यक्षेत्रमध्ये इत्यर्थः, अर्द्ध तृतीयं येषां ते अद्धतृतीयाः तत्रान्तर्मनुष्यक्षेत्रस्थाई तृतीयं समुद्राणां न विद्यते इतीदं विशेषणं द्वीपानां द्रष्टव्यं, द्वीपाश्च समुद्रौ च द्वीपसमुद्रास्तेषु 'नियाघातेन' ब्यापातस्याभावो निर्व्याघातं तेन निर्व्याघातेन "वा तृतीयायाः" इति पाक्षिकोऽमादेशाभावः, व्याघाताभावेनेत्यर्थः, 'पञ्चदशसु कर्मभूमिषु' पञ्चभरतपश्चरावतपञ्चमहाविदेहरूपासु 'व्याघावं प्रतीत्य' व्याघाते
दीप
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
२ स्थानपदे -
प्रत
मज्ञापनायाः मलयवृत्ती. ॥५॥
सूत्राक
स्थानानि सू. ३९
[३९]
दीप
सतीति भावः पञ्चसु महाविदेहेषु, इयमत्र भावना-व्याघातो नाम अतिलिग्धोऽतिरूक्षो वा कालः, तस्मिन् सत्य- |ग्निव्यवच्छेदात्, ततो यदा पञ्चसु भरतेषु पश्चखरावतेषु सुषमसुषमासुपमासुषमदुष्पमा वा वर्तते तदाऽतिनि- ग्धः कालः दुष्पमदुष्षमायां चातिरूक्ष इत्यस्ति व्यवच्छेदः तस्मिन् सति पञ्चसु महाविदेहेषु, शेषकालं पश्चदशखपि कर्मभूमिपु, 'एत्थ णं' इत्यादि, अत्र-एतेषु स्थानेषु बादरतेजःकायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि, 'उयवाएणं' इत्यादि. 'उपपातेन' यथोक्तस्थानप्राप्त्याऽऽभिमुख्येन, अपान्तरालगतावपीति भावः, चिन्यमाना लोकस्यासंख्येये भागे, स्तोकत्वात् , समुद्घातेनापि चिन्त्यमाना लोकस्यासंख्येये भागे, मारणान्तिकसमुद्घातवशतो विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डानामपि स्तोकतया लोकासंख्येयभागमात्रव्यापित्वात् , स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे, मनुष्यक्षेत्रस्य पञ्चचत्वारिंशयोजनलक्षप्रमाणायामविष्कम्भतया लोकासंख्येयभागमात्रत्वात् । अपर्याप्तवादरतेजःकायिकस्थानानि पृच्छति–'कहि णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं गतार्थ, भगवानाह-'गोयमा।' इत्यादि, गौतम ! यत्रैव वादरतेजःकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि तत्रैव बादरतेजःकायिकानामपर्याप्तानामपि स्थानानि प्रज्ञसानि, पर्याप्तनिश्रयैवापर्याप्तानामवस्थानात् , 'उववाएणं लोगस्स दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य' इति, इहार्धतृतीयद्वीपसमुद्रनिःमृते अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रप्रमाणबाहल्ये पूर्वापरदक्षिणोत्तरखयम्भूरमणपर्यन्ते ये कपाटे केवलिसमुद्घातकपाटवत् ऊर्द्धमपि लोकान्तं स्पृष्टे ते अधोऽपि च लोकान्तं स्पृष्टे ते ऊर्द्धकपाटे तयोः ऊर्द्धकपाटयोः, तथा 'तिरियलोयतहे|
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(३९)
दीप
य' इति, तटुं-स्थालं तिर्यग्लोके तट्टमिव तिर्यग्लोकत तसिंश्च खयम्भूरमणसमुद्रवेदिकापर्यन्ते अष्टादशयोजनशतबाहल्ये, समस्ततिर्यग्लोके चेत्यर्थः, उपपातेन बादरतेजःकायिकानामपर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि, केचित् 'तिरियलोयतट्टे य' इत्येवं व्याचक्षते-तयोः-कपाटयोः स्थितः तत्स्थः तिर्यग्लोकश्चासौ तत्स्थः, तयोरुद्धकपाटयोरन्तर्वतितिर्यग्लोक इत्यर्थः तस्मिंश्च, किमुक्तं भवति ?-द्वयोरूर्द्धकपाटयोर्यथोक्तखरूपयोस्तिर्यग्रलोकेऽपि च तयोरेव कपाटयोरन्तर्गते नान्यत्र, शेषतिर्यग्लोकव्यवच्छेदपरमेतद् वाक्यं, न विधानपरं, विधानस्य कपाटग्रहणेनैव सिद्धत्वात् , तत्त्वं पुनः केवलिना विशिष्टश्रुतविदा वा गम्यं, इयमत्र भावना-इह त्रिविधा बादरपर्याप्सतेजःकायिकाः, तद्यथाएकभषिका बद्धायुषोऽभिमुखनामगोत्राथ, तत्र ये एकस्माद् विवक्षिताद् भवादनन्तरं बादरापर्याप्ततेजःकायिक-IN त्वेनोत्पत्स्यन्ते ते एकमविकाः, ये तु पूर्वभवत्रिभागादिसमयबद्धवादरापर्याप्सतेजःकायिकायुषस्ते बद्धायुषः, ये पुन-1 बोदरापर्यासतेजःकायिकायुर्नामगोत्राणि पूर्वभवमोचनानन्तरं साक्षाद् वेदयन्ते तेऽभिमुखनामगोत्राः, तत्रैकमविका बद्धायुषश्च द्रव्यतो बादरापर्याप्ततेजःकायिका न भावतः, तदाऽऽयुर्नामगोत्रवेदनाभावात् , ततो न तैरिहाधिकारः, किन्तु अभिमुखनामगोत्रः, तेषामेवोपपातस्य स्वस्थानप्राप्त्याभिमुख्यलक्षणस्य लभ्यमानत्वात् , तत्र यद्यपि ऋजुसूत्रनयदर्शनेन बादरापर्यासतेजःकायिकायुर्नामगोत्रवेदनाद् यथोक्तकपाटद्वपतिर्यग्लोकवायव्यवस्थिता अपि बादरापर्यासतेजःकायिकव्यपदेशं लभन्ते तथाप्यत्र व्यवहारनयदर्शनाभ्युपगमादू ये खस्थानसमश्रेणिकपाटद्वयव्यव-II
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REsamana
Renmiarary.au
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती.
सूत्राक
[३९]
दीप
स्थिताः ये च स्वस्थानानुगते तिर्यग्लोके प्रविष्टास्ते एव बादरापर्याप्सतेजःकायिका व्यपदिश्यन्ते न शेषाः कपाटापान्तरालव्यवस्थिताः, विषमस्थानवर्तित्वात् , तेन येऽद्यापि कपाटद्वयं न प्रविशन्ति नापि तिर्यग्लोकं ते किल पूर्व- पदे - भवावस्था एवेति न गण्यन्ते, उक्तं च-"पणेयाललक्खपिडुला दुन्नि कवाडा य छहिसिं पुट्ठा । लोगन्ते तेसितो जे ब्यतेजः तेऊ ते उ धिप्पन्ति ॥१॥" तत उक्तं-'उववाएणं दोसु उहकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य' इति, स्थापना
स्थानानि तदेवमिदं सूत्र व्यवहारनयप्रदर्शनेन व्याख्यातं, तथासंप्रदायात, युक्तं चैतत् "विचित्रा सूत्राणां गतिः"_-_Is इति वचनादिति । 'समुग्घाएणं सबलोए' इति, इह द्वयोः कपाटयोर्यथोक्तखरूपयोर्यान्यपान्तरालानि तेषु । ये सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयो बादरापर्याप्ततेजःकायिकेषुत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहताः ते किल विष्कम्भवाहल्याभ्यां शरीरप्रमाणमात्रानायामत उत्कर्षतो लोकान्तं यावदात्मप्रदेशान् विक्षिपन्ति, तथा चावगाहनासंस्थानपदे वक्ष्यते-"पुढवीकाइअस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोदयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा प०१, गोयमा ! सरीरपमाणमेचविखंभबाहल्लेणं आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागे उक्कोसेणं लोगंतो" इति, ततस्ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकादय उत्पत्तिदेशं यावद् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डा अपान्तरालगतौ वर्त-11॥७६ माना बादरापर्याप्ततेजाकायिकायुर्वेदनाद् लन्धबादरापर्याप्ततेजःकायिकव्यपदेशाः समुद्घातगता एवापान्तराल
१ पचचत्वारिंशलक्षपृथू द्वौ कपाटौ च षटुसु दिक्षु स्पृष्टौ । लोकान्तान तयोरन्तर्वे तेज:कायिकासे तु गृह्यन्ते ॥१॥
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(१५)
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
दारं [-],
मूलं [ ३९ ]
पदं [२], |--------------- उद्देशक: [ - ], -- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Educator
गतौ वर्तमाना इति, समुद्घातगताच सकललोकमापूरयन्ति, उक्तं च- 'समुद्घातेन सर्वलोके' इति, अन्ये त्वभिदधति - अतिवहवः खलु बादरापर्यासतेजः कायिकाः, एकैकपर्याप्त निश्रया असंख्येयानामपर्याप्तानामुत्पादात्, ते च सूक्ष्मेष्वपि समुत्पद्यन्ते, सूक्ष्माश्च सर्वत्र विद्यन्ते इति, बादरापर्यासतेजः कायिकाः स्वस्वभवपर्यन्ते कृतमारणान्तिकसमुद्घाताः सन्तः सकलमपि लोकमापूरयन्ति इति न कश्चिद्दोषः, अपि तु निरुपचरिततेजः कायिकसमुद्घातप्ररूपणागुणः, स्थापना - । खस्थानेन लोकस्यासंख्येये भागे इति, पर्याप्तनिश्रयाऽपर्याप्तानामुत्पादात्, पर्याप्तानां च स्थानं मनुष्यक्षेत्रं, तब लोकासंख्येयतमभागमात्रमिति । सूक्ष्मपर्याप्तापर्यासतेजःका थिकसूत्रं सूक्ष्मपर्याप्तापर्यासपृथिवीकाविकसूत्रवद् भावनीयमिति ।
कहि णं भंते ! बादरवाउकाइयाणं ठाणा ५० १, गोयमा ! सहाणेणं सत्तसु वणवाएसु सत्तसु घणवायवलएसु ससु तवा सत्सु तवायवलयेसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणवत्थडेसु भवणछिदेसु भवणनिक्खुडेसु निरएस निरयावलिया निरयपत्थडे निरयछिद्देसु निरयनिक्खुडेसु उढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु विमाणछिदेसु विमाणनिक्खुडेसु तिरियलोए पाईणपणदाहिणउदीण सहेसु चैव लोगागासछिदेसु लोगनिक्खुडेस य, एत्थ णं बादरवाउकाइआणं पजत्तगाणं ठाणा प०, उबवाएणं लोयस्स असंखेजेस भागेसु, सम्मुग्धारणं लोयस्स असंखेजेस भागेसु, सहाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु । कहि णं भंते ! अपजचचादरवाउकाइयाणं ठाणा प० १, गोयमा ! जत्थेव
अत्र वायु-वनस्पतिकायिक जीवानाम् स्थानानि कथ्यते
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
२ स्थान
प्रज्ञापनायाः मलयावृत्ती.
प्रत सूत्रांक [४०]
पदे वायुवनस्पति स्थान
दीप अनुक्रम [१९३]
eatercedes
बादरवाउकाइयार्ण पजतगाणं ठाणा तत्थेव पादरखाउकाइयाणं अपजतगाणं ठाणा 4०, उववाएणं सालोए समुग्याएण सबलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु । कहि गं भंते! सुहुमवाउकाइयाण पज्जत्तगाणं अपजतगाणं ठाणा प०१, गोयमा सुहमवाउकाइया जे पजत्तगा जे य अपञ्जत्तगा ते सके एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सबलोयपरियावनगा प० समणाउसो! । कहिणं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पञ्जतगाणं ठाणा प०१, गोयमा! सहाणेणं सत्तसु षणोदहिसु सत्सु घणोदहिवलयेसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपस्थडेसु, उहलोए कप्पेतु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए अगडेसु तडागेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियास विलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिट्ठलेसु पल्ललेसु वप्षिणेसु दीवेसु समुद्देसु सवेसु चेव जलासएसु जलठाणेसु, एत्थ णं चादरवणस्सइकाइयाणं पजत्तमाणं ठाणा प०, उववाएवं सबलोए समुग्धाएणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेञ्जहभागे । कहिण भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं अपात्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! जत्थेष बादरखणस्सइकाइयाणं पजचगाणं ठाणा सत्थेव मादरवणस्सइकाइयागं अपजसगाणं ठाणा प०, उपवाणं सवलोए समुग्धाएणं सबलोए सहाणेणं लोयस्स असंखेजइमागे । कहिणं भंते ! सुहुमवणस्सइकाइयाण पजसगाणं अपञ्जत्तगाण य ठाणा प०१, गोयमा ! सुहुमवणस्सइकाइया जे य पजतगा जे य अपजतगा ते सो एगविहा अपिसेसा अणाणता सबलोयपरियावनगा ५० समणाउसो! ।। (मू०४०)
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४०]
एवं बादरवायुकायिकवनस्पतिकायिकसूत्राण्यपि प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि भावनीयानि, नवर बादरपर्याप्तवायुकायिकसूत्रे भवनच्छिद्राणि-भवनानामवकाशान्तराणि भवननिष्कुटा-गवाक्षादिकल्पाः केचन भवनप्रदेशाः नरकच्छिद्राणि नरकनिष्कुटा-गवाक्षादिकल्पा नरकावासप्रदेशाः, एवं विमानच्छिद्राणि विमाननिष्कुटाश्च प्रतिपत्तव्याः, 'उववाएणं लोगस्स असंखेजेसु भागेसु' इत्यादि, वायवो हि पर्याप्ता अतिवहवः, यतो यत्र सुषिरं तत्र वायुः, सुषिरबहुलश्च लोक इति त्रिवप्युपपातादिषु लोकस्यासंख्येयेषु भागेष्वित्युक्तं । अपर्याप्तबादरवायुकायिकसूत्रे 'उबवाएणं समुग्धारण य सबलोए' इति, इह देवनारकवर्जेभ्यः शेषकायेभ्यः सर्वेभ्यो बादरापर्याप्तवायुकायेषु समुत्पधन्ते, बादरापर्याप्ताश्चापान्तरालगतावपि लभ्यन्ते, बहूनि च खस्थानानि बादरपर्याप्तापर्याप्तवायुकायिकानां, ततो व्यवहारनयमतेनाप्युपपातमधिकृत्य सकललोकव्यापिता घटते इति न काचित् क्षतिः, समुद्घातेन च सकल| लोकव्यापिता सुप्रतीतैव, सर्वेषु सूक्ष्मेषु सर्वत्र च लोके तेषां समुत्पादसंभवात् । बादरपर्याप्तवनस्पतिकायिकसूत्रे 'उववाएणं सबलोए' इह पर्यासवादरवनस्पतिकायिकानां खस्थानं घनोदध्यादि, तत्र वादरनिगोदानां शैवालादीनां संभवात् , सूक्ष्मनिगोदानां भवस्थितिरन्तर्मुहूर्तं ततस्ते बादरनिगोदेषु पर्याप्तेषु समुत्पद्यमाना पादरनिगोदपर्याप्तायुरनुभवन्तः सुविशुद्धऋजुसूत्रनयदर्शनाभ्युपगमेन लब्धवादरपर्यासवनस्पतिकायिकव्यपदेशा उपपातेन सकलकालं सर्वलोकं व्यामुवन्ति, तत उक्तम्-'उपपातेन सर्वलोके' इति । 'समुग्घाएणं सबलोए' इति, यदा बादरनिगोदाः
Ledese
दीप अनुक्रम [१९३]
SUREairan
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनाया मल-
प्रत सूत्रांक [४०]
स्थानपदे विकलेन्द्रियस्थान
॥७८॥
दीप अनुक्रम [१९३]
सूक्ष्मनिगोदेषु आयुर्वदा पर्यन्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता आत्मप्रदेशानुत्पत्तिदेशं यावद् विक्षिपन्ति तदा वादरनिगोदपर्याप्तायुरधाप्यक्षीणमिति बादरपर्यासनिगोदा एव समुद्घातगताश्च सकललोकव्यापिनश्चेति समुद्घा- तेन सर्वलोके, खस्थानेन लोकस्यासंख्येयतमे भागे, घनोदध्यादीनां सर्वेषामपि समुदितानां लोकस्यासंख्येयभागमात्रवर्तित्वात् , शेषं सुगमं ॥ ( अन्धाग्रं २०००) कहि णं भंते 1 बेइंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा! उढलोए तदेकदेसभागे अहोलोए तदेकदेसभागे तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु बावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु ससु चेव जलासयेसु जलठाणेसु एत्य गं बेइंदियाण पजतापजत्तगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोगस्स असंखेजहभागे, समुग्धाएणं लोगस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे । कहिणं भंते ! तेइंदियाणं पजतापजतगाणं ठाणा प०१, गोयमा! उहुलोए तदेकदेसभाए अहोलोए तदेकदेसभाए तिरियलोए अगडेसु तलाएम नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु विलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिद्धलेसु पल्ललेसु बप्पिणेसु दीवेसु ॥ समुदेसु सबेसु चेव जलासएसु जलठाणेसु एत्थ णं तेइंदियाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा प० उववाए लोयस्स असंखेअहभागे समुग्धारण लोयस्स असंखेजइमागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजाभागे । कहिणं भंते! चरिदियाणं पज्जत्ता
। ।। ७८॥
अत्र द्वि-त्रि-चतुः इन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४१]
पज्जत्तगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! उहलोए तदेकदेसभागे अहोलोए तदेकदेसभागे तिरियलोए अगडेसु तलाएमु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियाम गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेमु चप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सबेमु चेव जलासएमु जलठाणेसु एत्थ णं चरिंदियाणं पजत्तापक्षत्ताणं ठाणा प० उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे । कहि णं भंते ! पंचिंदियाण पज्जत्तापज्जतगाणं ठाणा प०१, गोयमा ! उडलोयस्स तदेकदेसमाए अहोलोयस्स तदेकदेसभाए तिरियलोए अगडेसु तलाएस नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेमु समुद्देसु सबेसु चेव जलासपसु जलठाणेसु एत्थ णं पंचिंदियाण पज्जचापजत्ताणं ठाणा प०, उववाएण लोयस्स असंखेजहभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजहभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे ॥ (मू०४१)
एवं द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसामान्यपञ्चेन्द्रियसूत्रावपि भावनीयानि, नवरं द्वीन्द्रियादयो वहयो जलसंभूताः शङ्खप्रभृतय इति सर्वेष्वपि सूत्रेषु स्थानान्यवटादीन्युक्तानि, तथा ऊर्द्ध लोके तदेकदेशभागे-मन्दरादिवाप्यादिषु, अधोलोके तदेकदेशे(शभागे)-अधोलौकिकयामकूपतडागादिपु, शेषमुपयुज्य खयं परिभाषनीयम् ॥ अधुना पर्यासापर्याप्सनैरयिकस्थानप्ररूपणार्थमाह
दीप अनुक्रम [१९४]
म.१४
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-], -------------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
सूत्रांक
॥७९॥
[४२]
दीप अनुक्रम [१९५]
"कहि णं भंते ! नेरइयाणं पज्जतापजचाणं ठाणा प०१, कहि णं भंते ! नेरइया परिवसन्ति ?, गोयमा ! सहाणेणं
२ स्थानसत्तमु पुढवीसु, तं०-रयणप्पभाए सकरप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए तमप्पभाए तमतमपभाए, एत्य - पदे विकण नेरइयाणं चउरासीह निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं नरगा अंतो वट्टा वाहि चउरंसा अहे खुरप्प- लेन्द्रियसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमांसचिक्खिल्ललिताणुलेवण- सामान्यतला असुइवीसा परमदुब्भिगंधा काउयअगणिवन्नामा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा अमुभा नरगेसु वेयणाओ पञ्चेन्द्रियएत्थ ण नेरइयाणं पजचापजनगाणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्याएणं लोयस्स असंखेजइ- नारकस्थाभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे, एत्य णं यहवे नेरझ्या परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा ने (सू. उत्चासणगा परमकण्हा बनेणं प० समणाउसो !, ते णं तत्व निचं भीता निचं तत्था निचं तसिया निचं उबिग्गा निचं
४१-१२ परममसुहसंबद्धं णरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति (मू०४२) 'कहिणं भंते ! नेरइयाण' इत्यादि, कस्मिन् प्रदेशे भदन्त ! नैरयिकानां पर्याप्तापर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञतानि ? एतदेव व्यक्तं पृच्छति यथा अन्येऽप्यवबुध्यन्ते–'कहि णं' इति कस्मिन् प्रदेशे 'ण' इति वाक्यालंकृती नैरयिकाः। परिवसन्ति ?, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गौतम ! खस्थानेन सप्तसु पृथिवीपु, ता एवं नामग्राहमाह-'त०रयणप्पभाए' इत्यादि, गतायें, 'एत्थ ' इत्यादि, अत्र-एतासु सप्तसु पृथिवीपु नेरयिकाणां सर्वेसंख्यया चतु
अत्र नैरयिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[४२]
दीप
अनुक्रम [१९५]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः) पदं [२], |--------------- उद्देशक: [ - ], -- दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
मूलं [ ४२ ]
Jan Educator
|रशीतिर्नरकावासशतसहस्राणि भवन्ति, तथाहि - रत्नप्रभायां त्रिंशन्नरकावासशतसहस्राणि भवन्ति, शर्कराप्रभायां | पञ्चविंशतिः शतसहस्राणि, वालुकाप्रभायां पञ्चदश लक्षाः, पङ्कप्रभायां दश लक्षाः, धूमप्रभायां त्रीणि लक्षाः, तम:प्रभायामेकं शतसहस्रं पञ्चोनं, तमस्तमः प्रभायां पञ्चेति, सर्वसंख्यया चतुरशीतिर्लक्षा नरकावासानामित्याख्यातं मया शेषैस्तीर्थकृद्भिः (श्च), 'ते णं नरकावासा' इत्यादि, ते नरकावासाश्चतुरशीतिर्लक्षप्रमाणाः सर्वेऽपि प्रत्येक मन्तः-मध्यभागे ( वृत्ता) वृत्ताकारा बहिर्भागे चतुरस्राः - चतुरस्राकाराः, इदं च पीठोपरिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्य प्रोच्यते, | सकलपीठाद्यपेक्षया त्वाघलिकाप्रविष्टा वृत्तत्र्यख चतुरस्रसंस्थानाः, पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थानाः प्रतिपत्तव्याः, 'अहे खुरण्पसंठाणसंठिया' इति अधो-भूमीतले क्षुरप्रस्येव - प्रहरणविशेषस्य यत्संस्थानम् - आकारविशेषस्तीक्ष्णतालक्षणस्तेन संस्थिताः, तथाहि तेषु नरकावासेषु भूमितले मसृणत्वाभावतः शर्करिले पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करामात्र संस्पर्शेऽपि क्षुरप्रेणेव पादाः कृत्यन्ते, 'निबंधयारतमसा' इति तमसा नित्यान्धकाराः- उद्योता भावतो यत्तमः तदिह तम उच्यते तेन तमसा नित्यं सर्वकालमन्धकाराः, त ( अ ) त्रापवरकादिष्वपि तमोऽन्धकारोऽस्ति केवलं वहिः सूर्यप्रकाशे मन्दतमो भवति, नरकेषु तु तीर्थकरजन्मदीक्षादिकालव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमप्युद्योत लेशस्याप्यभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छन्नकालार्धरात्र इवातीय बहलतरो वर्तते तत उक्तं-तमसा नित्यान्धकाराः, तमश्च तत्र सदाअवस्थितं, उद्योतकारिणामसंभवात्, तथा चाह- 'बवगयगह चंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा' व्यपगतः परिभ्रष्टो
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती.
सुत्राक
॥८
॥
[४२]
ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्ररूपाणा उपलक्षणमेतत् तारारूपाणां च ज्योतिष्काणा पन्था-मार्गा येभ्यस्ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपथाः, तथा 'मेयवसापूयरुधिरमांसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला' इति स्वभावसंपन्नैर्मदोवसापू- पदेनर तिरुधिरमांसैयश्चिक्खिलः-कर्दमः तेन लिस-उपदिग्धमनुलेपनेन–सलिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं-भू- यिकस्थामिका येषां ते मेदोवसापूतिरुधिरमांसचिक्खिललिप्सानुलेपनतलाः, अत एवाशुचयः-अपवित्रा बीभत्साः दर्शनेऽ-13 नं सू.४२ लाप्यतिजुगुप्सोत्पत्तेः, कचिद् 'पीसा' इति पाठः, तत्र विस्ता-आमगन्धिकाः परमदुरभिगन्धा मृतगवादिकडेवरेभ्योऽप्यतीवानिष्टदुरभिगन्धाः । 'काउयअगणिवन्नाभा' इति, लोहे धम्यमाने यादृक् कपोतो बहुकृष्णरूपोऽनेवर्णः, किमुक्तं भवति?-याशी बहुकृष्णवर्णभूता अग्निज्वाला विनिर्गच्छतीति तादृश्याभा-आकारो येषां ते कपोताग्निवर्णाभाः, धम्यमानलोहाग्निज्वालाकल्पा इति भावः, नारकोत्पत्तिस्थानव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्राप्युष्णरूपत्वात् , एतच षष्ठससमपृथ्वीवर्जमवसेयं, तथा च वक्ष्यति-'नवरं छहसत्तमीसु णं काउअगणिवन्नाभा न भवन्ति तथा कर्कश:-अतिदुःसहोऽसिपत्रस्येव स्पर्शो येषु ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव 'दुरहियासा' इति, दुःखेनाध्यास्यन्ते-सह्यन्ते दुरध्यासा अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा गन्धरसस्पर्शशब्दैरशुभा-अतीवासातरूपा नरकेषु वेदना, 'एत्थ णं' इत्या-18| |दि, यावत् तत्थ णं यह निरया परिवसन्ति' 'काला' इत्यादि, काला:-कृष्णाः , तत्र कोऽपि निष्प्रभतया मन्द-18 प्णोऽपि भवति ततस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-कालावभासा:-कालः-कृष्णोऽवभासः-प्रभाविनिर्गमो।
दीप अनुक्रम [१९५]
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४२]
येभ्यस्ते कालावभासाः, कृष्णप्रभापटलोपचिता इति भावः, अत एव गम्भीरलोमहर्षाः-गम्भीर:-अतीवोत्कटो |लोमहर्षो-लोमोद्धर्षो भयवशाद् येभ्यस्ते गम्भीरलोमहर्षाः, किमुक्तं भवति एवं नाम कृष्णाः कृष्णावभासा यद् दर्शनमात्रेऽपि शेषनारकजन्तूनां भयसंपादनेन मात्रातिर्ग लोमहर्षमुत्पादयन्तीति, अत एव 'भीमाः' भयानकाः,
भीमत्वादेव उनासनकाः-उत्रास्यन्ते शेषनारकजन्तव एभिरित्युत्रासनाः उत्रासना एवोत्रासनकाः, किंबहुना ?ला'वर्णेन' वर्णमधिकृत्य परमकृष्णाः, यत ऊर्च न किमपि कृष्णमस्ति भयानकं वा, पत्कर्षप्राप्त कृष्णवर्णाः प्रज्ञता
मया शेषश्च तीर्थकरैः हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! 'ते णं निचं भीया' इत्यादि, ते नैरयिकाः 'णं' इति वाक्यालङ्कारे 'नित्यं सर्वकालं क्षेत्रखभावजनितमहानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः 'नित्य' सर्वकाल त्रस्ताः परमाधार्मिकपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयादग्रेऽपि त्रास(स)मुपपन्नाः 'निर्स' सर्वकालं परमाधार्मिकैः परस्परं वा त्रासिताः-त्रासं ग्राहिताः तथा 'नित्यं सर्वकालं यथायोग परमदुःसहशीतोष्णवेदनानुभवतः परमाधार्मिकपरस्परोदीरितदुःखानुभवतश्वोदिमाः-तद्गतवासपराङ्मुखचित्ताः एवं 'नित्यं सर्वकालं परममशुभं-एकान्तेनाशुभं संबद्धम्-अनुवर्द्धन तु जातुचिदपि मनागप्यपान्तराले व्यवच्छिन्नसंतानं 'नरकभयं' नरकदुःखं 'प्रत्यनुभवन्तः' प्रत्येक वेदयमाना 'बिहरन्ति' अवतिष्ठन्ते। | कहि णं भंते ! रयणप्पभापुढवीनेरइयाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा प०१, कहि णं भंते ! रयणप्पमापुढवीनेरहआ परिव
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[83]
दीप
अनुक्रम
[१९६]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
पदं [२], -------------उद्देशक: [ - ],
दारं [-],
मूलं [ ४३ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥ ८१ ॥
सन्ति ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एवं जोयणसहस्समोगाहित्ता हेडा चेगं जोयणसहस्सं वज्जिता मज्झे अइहुतरे जोयणसयस हस्से एत्थ णं रयणप्पभापुढवीनेरइयाणं तीसं निरयावासससहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निबंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसप्पहा मेदवसापूयपडलरुहिरमांस चिविखल्ललिताणुलेवणतला असुहवीसा परमदुभिगंधा काउअगविनाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा परगा असुभा णरगेसु वेयणाओं, एत्थ णं रवणप्पभापुढचीनेरइयाणं पज्जताजा ठाणा प०, उववारणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे रयणप्पभापुढवीनेरइया परिवसन्ति, काला कालोमासा गंभीर लोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिडा बन्नेणं प० समणाउसो !, ते णं निबं भीता नियं तत्था निचं तसिया निचं उद्विग्गा निचं परमममुहसंबद्धं णरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहि णं भंते ! सकरप्पभापुढवीनेरइयाणं परत्तापञ्जत्ताणं ठाणा प० १, कहि णं भेते ! सकरप्पभापुढवीनेरइया परिवसन्ति ?, गोयमा । सकरप्पभापुढवीए बत्तीमुत्तरजोयणसयस हस्तवाहलाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेडा चेगं जोयणसहस्सं वज्जिता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं सकरप्पभापुढवीरयाणं पणवीसं निरयावाससयसहस्सा हवन्तीति मक्खायं, ते णं णरगा अंतो वट्टा चाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठासंठिया निबंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खतजोइसिय पहा मेदवसाप्यपडलरुहिरमांस चिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुदवीसा परमदुब्भिगंधा काउअगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा परगा असुभा णरगेसु वेयणाओ, एत्थ
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२ स्थान
पदे रलमभाद्यनार
कस्थानं
सू. ४३
॥ ८१ ॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
दारं [-],
मूलं [ ४३ ]
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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णं सकरप्पापुढवीनेरइयाणं पजचापज्जत्ताणं ठाणा प०, उनवारणं समुग्धाएणं सहाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ बहवे सकरपभापुढवीनेरइआ परिवसन्ति, काला कालोमासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परम किन्हा चन्त्रेणं प० समणाउसो ! ते णं निश्थं भीता निचं तत्था निचं तसिया निचं उद्विग्गा निचं परममसुहसंबद्धं नरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहि णं भंते । वालुयप्पभापुढवीने रइयाणं पजत्तापज्जत्ताणं ठाणा प० १, कहि णं भंते । वालुयष्पभापुढवीनेरइया परिवसंति ?, गोयमा ! वालुयप्पभापुढवीए अहावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उबरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे छबीमुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं वालुयप्पभापुढवीनेरइयाणं पनरसनरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मुक्खायं, ते णं णरगा अंतो बट्टा चाहि उरंसा अहे खुरप्पठाणठिया निबंधयारतमा गयगह चंदसूरनक्खतजोइसप्पहा मेदवसापूयपडलरुहिर मंसचिक्खिललिताणुलेवणातला असु इवीसा परमदुब्भिगंधा काउअगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओं एत्थ पं वालुयप्पभापुढवीनेरइयाणं पअत्तापत्ताणं ठाणा प०, उववारणं लोयस्स असंखेअदभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेञ्जइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे वालुयप्पभापुढवीनेरझ्या परिवसंति, काला कालोमासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिन्हा वनेणं प० समणाउसो !, ते णं निखं भीता निचं तत्था निचं तसिआ निचं उद्विग्गा नियं परममसुद्धं संबद्धं णरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहि णं भंते ! पंकप्पभापुढयीनेरहयाणं पक्षतापजत्ताणं ठाणा प० १, कहि णं भंते ! पंकप्पभापुढवीनेरइया परिवसंति ?, गोयमा ! पंकप्पभापुढवीए वीसुतरजोय
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
मज्ञापनायाः मलय.वृत्ती .
२स्थानपदे रत्नप्रभादिनारकस्थानं
[४३]
दीप अनुक्रम [१९६]
णसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता मज्झे अहारसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं पंकप्पभापुढवीनेरइयाणं दस निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खाप, ते ण णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा बवगयगहचंदमूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुन्मिगंधा काउअगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ एत्थ णं पंकप्पभापुढवीनेरइयाणं पात्तापञ्जत्ताणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजड़भागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं यहवे पंकप्पभापुढवीनेरइआ परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा बनेणं प० समणाउसो, ते णे निचं भीया णिच्च तत्था णिचं तसिया णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहिणं भन्ने ! धूमप्पभापुढवीनेरइयाण पजचापजत्ताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते। धूमप्पभापुढषीनेरइआ परिवसन्ति, गोयमा धूमप्पमापुढवीए अहारसुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेहा चेगं जोयणसहस्सं वजिचा मज्झे सोलमुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं धूमप्पभापुढवीनेरइयाणं तिनि निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असुइवीसा परमम्मिगंधा काउअगणिवत्रामा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगसु वेयणाओ एत्थ णं धूमप्पमापुढवीनेरइयाणं पञ्जत्तापजताणं ठाणा प०, उववाएणं
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॥८२॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४३]
लोयस्स असंखेजहभागे समुग्याएणं लोयस्स असंखेजइभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे, तत्थ पं बहवे धूमप्पभापुढवीनेरइया परिवसन्ति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणमा परमकिण्हा बनेणं प०समणाउसो', ते ण णरगा निच्च भीता निचं तत्था निच्च तसिया निचं उविग्गा निच्चं परममसुहसंबद्धं नरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहिणं भंते ! तमापुढवीनेरइयाणं पजत्तापअत्ताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! तमापुढवीनेरइया परिवसंति ?, गोयमा! तमाए पुढवीए सोलसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहिता हिहा चेग जोयणसहस्सं वजित्ता मझे चउदसुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं तमप्पभापुढवीनेरइयाणं एगे पंचूणे परगावाससयसहस्से हवन्तीति मक्खायं, ते गं गरगा अंतो वट्टा चाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्षत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिविखल्ललित्ताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुन्भिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं तमापुढवीनेरहयाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजहभागे समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे तमप्पभापुढवीनेरइया परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वन्नेणं प० समणाउसो, ते णं निञ्च भीता निश्चं तत्था निचं तसिया निचं उबिग्गा निचं परममसुहसंबद्धं नरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति । कहि णं भंते ! तमतमापुढवीनेरहयाणं पञ्जचापञ्जचाणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! तमतमापुढपीनेरइया परिवसति', गोयमा! तमतमाए पुढवीए अहोत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं अद्धतेवन्नं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता हेहावि अखतेवनं जोयणसहस्साई वञ्जिता मो
दीप अनुक्रम [१९६]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती.
२ स्थानपदरलप्रभादिनारकस्थानं
सुत्राक
[४३]
दीप
तीसु जोयणसहस्सेसु एत्य गं तमतमापुढवीनेरइयाणं पजत्तापजत्ताणं पंचदिसि पंच अणुचरा महइमहालया महानिरया प०,०–काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइटाणे, ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिआ निश्चंधयारतमसा ववगयगहचंदमूरनक्खत्तजोइसियपहा मेदवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुभिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं तमतमापुढवीनेरइयाणं ठाणा प०, उपवाएणं लोयस्स असंखेजइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजहभागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे तत्थ णं बहवे तमतमापुढवीनेरहमा परिवसति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वन्नेणं प० समणाउसो, ते णं निचं भीता निच्च तत्था निर्थ तसिया निचं उविग्गा निचं परमममुहसंबद्धं गरगभयं पचणुभवमाणा विहरन्ति ॥ आसीय बत्तीस अट्ठावीसं च ९ति वीसं च । अहारससोलसर्ग अहुत्तरमेव हिडिमिया ॥१॥ अहत्तरं च तीसं छपीसं चेव सयसहस्सं तु । अहारस सोलसर्ग चउद्दसमहियं तु छडीए ॥ २॥ अद्धतिबन्नसहस्सा उबरिमहे वनिऊण तो भणियं । मज्झे तिसहस्सेसु होन्ति उ नरगा तमतमाए ॥३॥ तीसा य पन्नवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई । तिनि य पंचूणेगं पंचेव अणुत्तरा नरगा ॥४॥ (मू०४३) तदेवं सामान्यतो नैरयिकसूत्र व्याख्यातं, एवं रलप्रभादिविषयाण्यपि सूत्राणि यथायोगं परिभावनीयानि, प्राय उक्तव्याख्यानुसारेण सुगमत्वात् , केवलं षष्ठपृथिव्यां सप्तमपृथिव्यां च नरकावासाः कपोताग्निवर्णाभा न वक्तव्याः,
अनुक्रम [१९६-२००]
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||८३ ।।
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
नारकोत्पत्तिस्थानव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रापि तेषां शीतपरिणामत्वात् , तथा चाह-"नवरं छटुसत्तमीसु णं काउअ-I अगणिवन्नाभा न भवन्ति"। सम्प्रति यथोक्तपृथिवीवाहल्यपरिमाणप्रतिपादिकां संग्रहणीगाथामाह-आसीयं बत्ती-1 सं' इत्यादि, आशीतं-अशीतिसहस्राधिकं शतसहस्रं रत्नप्रभाया बाहल्यं द्वात्रिंशं-द्वात्रिंशत्सहस्राधिकं शर्कराप्रभायाः। 'अष्टाविंशं' अष्टाविंशतिसहस्राधिकं वालुकाप्रभायाः विंशतिसहस्राधिकं पङ्कप्रभायाः अष्टादशसहस्राधिक धूमप्रभा-IN याः षोडशसहस्राधिकं तमनभायाः अष्टोत्तरम्-अष्टसहस्राधिकं लक्षं 'हेटिमिया' सर्वाधस्तन्यास्तमस्तमःप्रभाया इति । संप्रति उपर्यधश्चैकैक योजनसहस्र मुक्त्वा यावत्प्रमाणं नरकावासयोग्यं पृथिवीवाहल्यं तापत्संग्रहीतुकाम आहअट्टत्तरं च' इत्यादिगाथाद्वयं, रत्नप्रभाया हि अशीतिसहस्राधिकं लक्षं पाहल्यपरिमाणं तस्योपरितनमेकं योजनसहस्रमेकं चाधो योजनसहनं वर्जयित्वा शेषं नरकावासाधारभूतं, अतो रत्नप्रभाया नरकावासयोग्य वाहल्यपरिमाणमष्टसप्ततिसहस्राधिकं लक्षं भवति, एवं सर्वत्राप्युपयुज्य भावनीयं । साम्प्रतं नरकावाससंख्याप्रतिपादनाय संग्रहणीगाथामाह-'तीसा य' इत्यादि, गतार्था ।
कहि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०१, गोयमा ! उहुलोए तदेकदेसभाए अहोलोए
तदेकदेसभाए तिरियलोए अगडेसु तलायेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु II सरसरपंतियासु विलेसु विलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेमु वप्पिणेसु दीवेसु सम्रदेसु सबेसु चेव जलासएसु
दीप
अनुक्रम [१९६
-२००]
SAREaiatuRKota
अत्र तिर्यञ्च-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना
प्रत
याः मलयवृत्ती.
सुत्राक [४४]
॥८॥
सू.४४मनुष्याणां
दीप
जलठाणेसु एत्थ णं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पजत्तापञ्जत्ताणं ठाणा प०, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्धा- २ स्थानएणं सबलीयस्स असंखेअइभागे सहाणेणं सबलोयस्स असंखेजइभागे ॥ (सू०४४)
पदे पञ्चेतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रं प्राग्वत् , नवरमूर्ध्वलोके तदेकदेशे-तिर्यपञ्चेन्द्रिया मत्स्यादयो मन्दराद्रिवाप्यादिषु, अधो-1 न्द्रियाणां लोके तदेकदेशे-अधोलौकिकयामादिष्वित्यर्थः । कहिणं भंते ! मणुस्साणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा प०१, गोयमा ! अंतो मणुस्सखेने पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु
सू.४५भअड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पनाए अंतरदीवेसु एत्थ णं मणुस्साणं पजत्ताप
वनपतीना अचाणं ठाणा प०, उववाएण लोयस्स असंखेजहभागे, समुग्घाएणं सबलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे ॥ (सू०४५)
सू. ४६ मनुष्यसूत्रमपि सुगम, नवरं 'समुग्धाएणं सबलोए' इति केवलिसमुपातमधिकृत्य ॥ सम्प्रति भवनपतिस्थानप्रतिपादनार्थमाहकहिणं भंते ! भवणवासीणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति', गो
11८४॥ यमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उपरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जिता मज्झे अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकभियासंठाणसंठिया उकिनंतर
अनुक्रम [२०१]
अत्र मनुष्य एवं देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् स्थानानि कथ्यते अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये भवनवासीदेवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक [४६ ]
गाथा
दीप
अनुक्रम
[२०३
-२०४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
------------
पदं [२], ------------- उद्देशक: [ - ], दारं [-], • मूलं [ ४६...] + गाथा (१२९) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्र.१५
-----------
विलगंभीरखातफलिहा पागारडालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्धिम्नुसंढिपरियारिया अउज्झा सदाजया सदागुता अडयालकोहगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिया लाउलोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणददरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुबारदेस भागा आसत्तोसच विउलबबग्वारियमल्लदामकलावा पंचवन्न सरससुरभिमुकपुष्कपुंजोवयारकलिया ( ग्रंथाग्रं १००० ) कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवम
गंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविभिन्ना विडियसपणातिया सहरयणामया अच्छा सहा लहा घट्टा मट्ठा णीरया निम्मला निष्का निकंकडच्छाया सप्पदा ससिरिया समिरिया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरुवा, एत्थ णं भवणवासिदेवाणं पजताप ताणं ठाणा पं०, उचवाएणं लोयस्स असंखेअभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेजड़भागे, तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति, तं० असुरा नाग सुवन्ना विज्जू अग्गी य दीव उदही य। दिसिपवणथणियनामा दसहा एए भवणवासी ।। १२९ ।। चूडामणिमउडरयेण भूसणणा गफ डंगरु लेबइ रेपुन्न कलर्स के उप्फेसा सीहमगरंगयंकअस्सेवर वर्द्धमाणनिज्जुन चित्तविधगता सुरूवा महट्टिया महज्जुआ महम्बला महायसा महाणुभावा महासोक्खा हारविराइअवच्छा कडगतुडियर्थभिभुआ अंगदकुंडलम गंडतलक अपीढधारी विचित्तहत्था भरणा विचित्तमालामउलिमउडा कलाणगपवरवत्थपरिहिया कलानगपवरमलावणधरा भासुरबोंदिपलंबवणमालधरा दिवेणं वत्रेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इडीए दिखाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अचीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], -------------उद्देशक: [-],----------- दारं [-],------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६]
गाथा
प्रज्ञापना- उजोवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं २ स्थानयाः मल- तायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणिआणं साणं साणं I
पदे भवनयवृत्ती. अणिआहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसि च बहूणं भवणवासीण देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवणे
वासिस्थासामि भहित्वं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महताहतनहगीयवाइयतंतितलतालतुडियषणमुइंगप. |
नं सू.४६ ॥८५॥
टुप्पबाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई झुंजमाणा विहरति । ___ 'कहिणं भंते ! भवणवासीणं देवाणं' इत्यादि, 'असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए' इति अशीत्युत्तरं-अशीतिसहस्राधिकयोजनशतसहस्रं वाहल्यं यस्खाः सा तथा तस्याः 'सत्त भवणकोडीओ बापत्तरि भवणाबाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खाय' इति असुरकुमाराणां हि चतुःषष्टिशतसहस्राणि भवनानां, ततः सर्वसंख्यया यथोक्तं भवनसंख्यानं भवति, 'ते णं भवणा' इत्यादि, तानि 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्, भवनानि बहिर्वृत्ता-1 नि-वृत्ताकाराणि अन्तः समचतुरस्राणि अधस्तनभागे पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि कर्णिका नाम उन्नतसम-| चित्रविन्दुकिनी 'उकिन्नंतरविउलगंभीरखातफलिहा' इति उत्कीर्णमियोत्कीर्णमतीव व्यक्तमित्यर्थः, उत्कीर्णमन्तरं ॥८५
यासां खातपरिखाणां ता उत्कीर्णान्तराः, किमुक्तं भवति ?-खातानां च परिखाणां च स्पष्टवैविक्त्योन्मीलनार्थहमपान्तराले महती पाली समस्तीति, खातानि च परिखाच खातपरिखाः उत्कीर्णान्तरा विपुला-विस्तीर्णा |
दीप अनुक्रम [२०३-२०४]
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------- उद्देशक: [-], ----------- दारं -], ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक [४६]]
गाथा
गम्भीरा-अलब्धमध्यभागा खातपरिखा येषा भवनाना परितस्तानि उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखानि, खातपरिखानां चायं प्रतिविशेषः-परिखा उपरि विशाला अधः संकुचिता, खातं तु उभयत्रापि सममिति, 'पा-1 गारहालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा' इति, प्रतिभवनं प्राकारेषु-सालेषु अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाराणि-अट्टालककपाटतोरणप्रतिद्वाररूपा देशभागा-देशविशेषा येषु तानि प्राकाराहालककपाटतोरणप्रतिद्वारदेशभागानि, तत्राहालकाः-प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः कपाटानि-प्रतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोल्यः सर्वत्र सूचिताः, अन्यथा कपाटानामसंभवात् , तोरणानि प्रतोलीद्वारेषु प्रतिद्वाराणि-स्थलद्वारापान्तरालवर्तीनि लघुद्वाराणि, तथा 'जंतस-18 यग्घिमुसलमुसंढिपरिवारिया' इति यत्राणि-नानाप्रकाराणि शतध्यो-महायष्टयो महाशिला या याः पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि प्रन्ति मुशलानि-प्रतीतानि मुसण्ढ्यः-प्रहरणविशेषाः तैः परिवारितानि-समन्ततो वेष्टितानि, अत एवायोध्यानि-परेर्योद्धमशक्यानि, अयोध्यत्वादेव च 'सदाजयानि' सदा-सर्वकालं जयो येषु तानि सदाज-1 यानि, सर्वकालं जयवन्तीत्यर्थः, तथा सदा-सर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुषैश्च योद्धृभिः सर्वतः-समन्ततो निरन्तरं, परिवारिततया परेपामसहमानानां मनागपि प्रवेशासंभवात् , 'अडयालकोटगरइया' इति अष्टचत्वारिंशभेदभिन्नवि-1 च्छित्तिकलिताः कोष्ठका-अपवरका रचिताः-खयमेव रचनां प्राप्ता येपु तानि अष्टचत्वारिंशत्कोष्ठकरचितानि, सुखादिदर्शनात् पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा अष्टचत्वारिंशभेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला येषु
दीप अनुक्रम [२०३-२०४]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[४६ ]
+
गाथा
दीप अनुक्रम [२०३
-२०४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं [ ४६ ... ] + गाथा (१२९)
पदं [२], ------------- उद्देशक: [ - ], दारं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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प्रज्ञापनायाः मल
॥ ८६ ॥
४ तानि अष्टचत्वारिंशत्कृतवनमालानि, अन्ये त्वभिदधति — अडवालशब्दो देशीवचनत्वात् प्रशंसावाची, ततोऽयमर्थः- प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति, तथा क्षेमाणि-परकृतोपद्रवरहितानि, शिवानि - सदा मङ्गय० वृत्ती. लोपेतानि, तथा किङ्कराः - किङ्करभूता येऽमरास्तैर्दण्डैः कृत्वोपरक्षितानि सर्वतः समन्ततो रक्षितानि किङ्करामरद४ ण्डोपरक्षितानि, 'लाउलोइयमहिया' इति लाइयं नाम-यद भूमेर्गोमयादिनोपलेपनं उल्लोइयं कुड्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः संसृष्टीकरणं, लाउलोइयाभ्यां महितानि -- पूजितानि लाउछोइयमहितानि तथा गोशीर्षेण-गोशीनामकचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन च दर्दरेण-बहलेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला - हस्तका येषु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दन दर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलानि, तथा उपचिता- निवेशिताः चन्दनकलशा - माङ्गल्युकलशा येषु तानि उपचितचन्दनकलशानि, 'चन्दन घडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा' इति चन्दनघटैः- चन्दनकलशैः सुकृतानि - सुकृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थः यानि तोरणानि तानि चन्दनपटसुकृततोरणानि प्रतिहारदेशभागे येषु तानि चन्दनपटसुकृत तोरणप्रतिद्वारदेशभागानि तथा 'आसत्तोसत्तविलबट्टवग्वारियमछदामकलावा' इति आ-अवाद अधोभूमी सक्त आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्ध्वं सक्त उत्सक्तः उलोचतले उपरि संबद्ध इत्यर्थः विपुला - विस्तीर्णः वृत्तो- वर्तुलः 'वग्धारिय' इति प्रलम्बितो माल्यदामकलापः - पुष्पमालासमूहो येषु तान्यासकोत्सक्तविपुलवृत्तप्रलम्बितमाल्यदामकलापानि, तथा पञ्चवर्णेन सुरभिणा मुक्तेन- क्षितेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण-पूजया कठितानि
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२ स्थान
| पदे भवनवासिस्थानंसू. ४६
॥ ८६ ॥
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------- उद्देशक: [-1, ----------- दारं -1, ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्रांक [४६]]
गाथा
Sae6039300928292908292020902300
| पञ्चवर्णसुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितानि, 'कालागुरुपयरकुन्दुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगन्धुझ्याभिरामे'इति काला-1 गुरुः प्रसिद्धः प्रवरः-प्रधानः कुन्दुरुकः-चीडा तुरुष्कं-सिल्हकं कालागुरुश्च प्रवरकुन्दुरुक्कतुरुष्के च कालागुरुप्रवरकुन्दुरुकतुरुष्काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध उद्भूत-इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामाणिमणीयानि कालागुरुप्रवरकुन्दुरुकतुरुष्कधूपमघमघायमानगन्धोद्भूताभिरामाणि, तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धा ते च। ते वरगन्धाश्च-पासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः स एण्वस्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिकानि, “अतोऽनेकखरात्" इति इकप्रत्ययः, अत एव गन्धवर्तिभूतानि-सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पानीति भावः, तथा अप्सरो-13 गणानां संघः-समुदायः तेन सम्यक्रमणीयतया विकीर्णानि-व्याप्तानि अप्सरोगणसचविकीर्णानि, तथा दिच्यानां त्रुटितानाम्-आतोद्यानां वेणुवीणामृदगादीनां ये शब्दास्तैः संप्रणदितानि-सम्यक-श्रोतृमनोहारितया प्रकर्षण सर्वकालं नदितानि-शब्दवन्ति, 'सर्वरत्नमयानि' सर्वात्मना-सामस्त्येन न त्वेकदेशेन रनमयानि समस्तरत्नमयानि वा, अच्छानि-आकाशस्फटिकवदतिखच्छानि, श्लक्ष्णानि-लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नानि श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, 'लण्हानि' मसूणानि घुण्टितपटवत् , 'घट्ठा' इति घृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमावत्, 'मट्ठा' इति, मृष्टानि, सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेच, अत एव नीरजांसि खाभाविकरजोरहितत्वाद् निर्मलानि आगन्तुकमला-1 भावात् निष्पकानि-कलङ्कविकलानि कर्दमरहितानि वा 'निकंकडच्छाया' इति निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा
दीप अनुक्रम [२०३-२०४]
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२],------------- उद्देशक: [-1,----------- दारं -1, ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
याः मल- य० वृत्ती-
[४६]]
गाथा
निरुपघातेति भावार्थः छाया-दीप्तिर्येषां तानि निष्कङ्कटच्छायानि, सप्रमाणि-खरूपतः प्रभावन्ति, समरीचीनि-IN वहिर्विनिर्गतकिरणजालानि, सोद्योतानि-बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशनकराणि, 'प्रसादीयानि' प्रसादाय-मन-II
पदे भवनप्रसत्तये हितानि प्रसादीयानि-मनःप्रसत्तिकारीणीति भावः, तथा दर्शनीयानि-दर्शनयोग्यानि यानि पश्यतः
बासिस्था
नं सू.४६ चक्षुषी न श्रमं गच्छत इति तात्पर्यार्थः 'अभिरूपा' इति अभि-सर्वेषां द्रष्टणां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं येषां तानि अभिरूपाणि अत्यन्तकमनीयानीत्यर्थः, अत एव 'पडिरूवा' इति प्रतिविशिष्टं रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवं रूपं येषां तानि प्रतिरूपाणि । 'एते भवणवासी' इत्यादि, एते अनन्तरोक्ता असुरकुमारादयो भवनवासिनो यथाक्रमं चूडामणिमुकुटरत्नभूषणनियुक्तनागस्फटादिचित्रचिह्नधराश्च, तथाहि-असुरकुमारभवनवासिनश्च चूडामणिमुकुटरत्नाः, चूडामणि म मुकुटे रत्नं चिह्नभूतं येषां ते तथा, नागकुमारा भूपणनियुक्तनागरुफटारूपचिह्नधराः, सुवर्णकुमारा भूषणनियुक्तगरुडरूपचिह्नधराः, विद्युत्कुमारा भूषणनियुक्तवज्ररूपचिह्नधराः, वनं नाम शक्रयायुधं, अग्निकुमारा मुकुटनियुक्तपूर्णकलशरूपचिह्नधराः, द्वीपकुमारा भूषणनियुक्तसिंहरूप-1 (चिह्न) धराः, उदधिकुमारा भूषणनियुक्तहयवररूपचिह्नधराः दिक्कुमारा भूषणनियुक्तगजरूपचिह्नधराः, वायुकु-19 मारा भूषणनियुक्तमकररूपचिह्नधराः, स्तनितकुमारा भूषणनियुक्तवरवर्द्धमानरूपचिह्नधराः, बर्द्धमानक-शरायसंपुटं। अक्षरगमनिका त्वेवम्-भूषणेपु नागस्फटागरुडवज्राणि येषां ते भूषणनागस्फटागरुडवत्राः, पूर्णकलशेनाङ्कित उप्फे
दीप अनुक्रम [२०३-२०४]
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आगम
(१५)
सूत्रांक [४६ ]
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अनुक्रम [२०३
-२०४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
पदं [२], ------------- उद्देशक: [ - ], दारं [-], • मूलं [ ४६...] + गाथा (१२९) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५]उपांगसूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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सो-मुकुटो येषां ते पूर्णकलशाङ्कितोफेसाः, तथा सिंहहयवरगजा अड्डा अर्थाद् भूषणेषु येषां ते सिंहहयवरगजाङ्काः, तथा मकरवर्द्धमान के नियुक्ते -भूषणेषु नियोजिते चित्रे - आश्चर्यभूते चिहे गते स्थिते येषां ते मकरवर्द्धमानकनियुक्तचित्रचिह्नगतास्ततः पूर्वपदैर्द्वन्द्वसमासः । पुनः सर्वे कथंभूताः ? इत्याह- 'सुरूपाः' शोभनं रूपं येषां ते तथा, अत्यन्त कमनीयरूपा इत्यर्थः, तथा 'महिडिया' इति महती ऋद्धिः - भवनपरिवारादिका येषां ते महर्द्धिकाः, तथा महती द्युतिः- शरीरगता आभरणगता च येषामिति महाद्युतयः, तथा महद् बलं - शारीरः प्राणो येषां ते महाबलाः, तथा महद्यशः ख्यातिर्येषां ते महायशसः, तथा महाननुभागः - सामर्थ्य शापानुग्रहविषयं येषां ते महानुभागाः, तथा 'महसक्या' इति महान् ईश- ईश्वर इत्याख्या-- प्रसिद्धिर्येषां ते महेशाख्याः, अथवा ईशनमीशो भावे घञ्प्रत्ययः ऐश्वर्यमित्यर्थः 'ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात् तमीशम् - ऐश्वर्यमात्मानं ख्यान्ति- अन्तर्भूतव्यर्थतया ख्यापयन्तिप्रथयन्ति इति ईशाख्याः महान्तश्च ते ईशाख्याश्च महेशाख्याः, क्वचिद् 'महासोक्खा' इति पाठः तत्र महत् सौख्यं प्रभूतसवेद्योदयवशाद् येषां ते महासौख्याः, अन्ये पठन्ति - 'महाराक्खा' इति, तत्रायं शब्दसंस्कारो - महावाक्षाः, इयं चात्र पूर्वसूरिप्रदर्शिता व्युत्पत्तिः - आशुगमनादश्वो-मनः अक्षाणि - इन्द्रियाणि स्वस्वविषयव्यापकत्वात् अश्वश्च अक्षाणि चेत्यश्वाक्षाणि महान्त्यश्वाक्षाणि येषां ते महावाक्षाः, 'हारविराइयवच्छा' इति हारैर्विराजितं वक्षो येषां ते हारविराजितवक्षसः, 'कडगतुडियर्थभियभुया' इति कटकानि - कलाचिकाऽऽभरणानि त्रुटितानि - बाहुरक्षकास्तैः
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२],------------- उद्देशक: [-1,----------- दारं -1, ------------ मूलं [४६...] + गाथा(१२९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
या: मलयवृत्ती.
[४६]
गाथा
स्तम्भिती इव स्तम्भिती भुजी येषां ते कटकत्रुटितस्तम्भितभुजाः, तथा अन्नदानि-बाहुशीर्षाऽऽभरणविशेषरूपाणि स्थानकुण्डले-कर्णाभरणविशेषरूपे तथा सृष्टी-मृष्टीकृती गण्डौ-कपोलौ यस्तानि मृष्टगण्डानि, कर्णपीठानि-कर्णाभरण-18 पदे भवनविशेषरूपाणि धारयन्तीत्येवंशीला अगदकुण्डलमृष्टगण्डकर्णपीठधारिणः, तथा विचित्राणि-नानारूपाणि हस्ताभर- वासिस्थाणानि येषां ते विचित्रहस्ताभरणाः, तथा 'विचित्तमालामउलिमउडा' विचित्रा माला-कुसुमस्रग् मौलौ-मस्तकेनं सू.५६ मुकुटं च येषां ते विचित्रमालामौलिमुकुटाः, तथा कल्याणक-कल्याणकारि प्रवरं वखं परिहितं यैस्ते कल्याणकावरवस्त्रपरिहिताः, सुखादिदर्शनादू निष्ठान्तस्यात्र पाक्षिकः परनिपातः, तथा कल्याणकं-कल्याणकारि यत् प्रवरं माल्यं-पुष्पदाम यच्चानुलेपनं तद् धरन्तीति कल्याणकावरमाल्यानुलेपनधराः, तथा भाखरा-देदीप्यमाना बो|न्दिः-शरीरं येषां ते भाखरबोन्दया, तथा प्रलम्ब इति-प्रलम्बा या बनमाला ता घरन्तीति प्रलम्बवनमालाधराः, 'दिघेणं संघयणेणं'ति शक्तिविशेषमपेक्ष्य संहननेनेव संहननेन न तु साक्षात् संहननेन, देवानां संहननासंभवात, संहननं हि अस्थिरचनात्मकं, न च देवानां अस्थीनि सन्ति, तथा चोक्तं जीवाभिगमे-“देवा असंघयणी, जम्हा तेसि नेवट्ठी नेव सिरा" इत्यादि, 'दिवाए इबीए' दिव्यया-प्रधानया ऋया-परिवारादिकया दिव्यया धुत्सा-इष्टाथसंप्रयोगलक्षणया 'धु अभिगमने' इति वचनात् , दिव्यया प्रभया-भवनावासगतया, दिव्यया छायया-समुदाय-15 शोभया, दिव्येनार्चिषा-शरीरस्थरतादितेजोवालया, दिव्येन तेजसा शरीरप्रभवेन, दिव्यया लेश्यया-देहवर्णसुन्दर
दीप अनुक्रम [२०३-२०४]
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आगम
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सूत्रांक [४६ ]
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अनुक्रम
[२०३
-२०४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
पदं [२], ------------- उद्देशक: [ - ], दारं [-], मूलं [ ४६ ... ] + गाथा (१२९) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५]उपांगसूत्र [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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तया दश दिश उद्योतयन्तः - प्रकाशयन्तः 'पभासेमाणा' शोभमानास्ते भवनवासिनो देवा 'णं' इति वाक्यालङ्कारे, तत्र स्वस्थाने 'साणं साणं' इति खेषां खेषामात्मीयात्मीयानामित्यर्थः ' आहेवचं पोरवचं' इत्यादि अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकेणेव क्रियते तत आइ- पुरस्य पतिः पुरपतिः तस्य कर्म पौरपत्यं सर्वेषामात्मीयानामप्रेसरत्वमिति भावः तच्चाप्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि खनायक नियुक्ततथाविधगृह चिन्तकसामान्यपुरुषस्येव भवति ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह-स्वामित्वं खमस्यास्तीति खामी तद्भावः खामित्वं नायकत्वमित्यर्थः, तदपि च नायकत्वं कस्यचित् पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणाधिपतेर्हरिणस्य तत माहभर्तृत्वं - पोषकत्वं, अत एव महत्तरकत्वं, तदपि महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि भवति यथा कस्यचिद् वणिजः खदासवर्ग प्रति तत आह—' आणाईसरसेणावचं' आज्ञया ईश्वर आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्वासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वस्वसैन्यं प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमिति भाषः, कारयन्तोऽन्यैर्नियुक्तकैः पुरुषः पालयन्तः स्वयमेव महता खेणेति योगः, 'अहयत्ति' आख्यानकप्रतिवद्धानि यदिवा अहतानि - अव्याहतानि नित्यानुबन्धीनीति भावः ये नाट्यगीते - नाव्यं नृत्यं गीतं गानं यानि च वादितानि -- तन्त्रीतलतालत्रुटितानि तत्र तत्री - वीणा तलौ— इस्ततली ताल:- कंसिका त्रुटितानि - वादित्राणि तथा यथ घनमृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्र घनमृदङ्गो नाम घनसमानध्वनिर्यो मृदङ्गः, तत एतेषां
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-, ------------- दारं -1, -------------- मूलं [...४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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२ स्थानपदे भवन| वासिस्था0
नसू.४६
सूत्रांक [४६]
दीप अनुक्रम [२०५]
प्रज्ञापना-द्वन्द्वः, तेषां रवेण दिव्यान्-दिवि भवान् प्रधानानिति भावः, भोगार्हाः भोगाः-शब्दादयो भोगभोगास्तान् भुज- याः मल
|माना 'विहरन्ति' आसते ॥ यवृत्ती.
कहि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जताणं ठाणा प०१, कहिणं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोय- ॥८९॥
मा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सयाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्ो अहहुत्तरे जोयणसवसहस्से एत्य पं असुरकुमाराणं देवाणं चउसहि भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं । ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकनियासंठाणसंठिया उकिनंतरविउलगंभीरखायफलिहा पागारट्टालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा अंतसयग्घिमुसलमुसंढिपरियारिया अउज्झा सदाजया सदागुत्ता अडयालकोहगरड्या अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरतचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचितचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्वारियमछदामकलावा पंचवमसरसुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकडझंतधूवमघमतगंधुदुयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवटिभूया अच्छरगणसंघसंविगिना दिवतुडियसद्दसंपणादिया सत्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घडा महा णीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया समिरीया सउओया पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइमागे, समु.
॥८९
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२],---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
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ग्यायेणं लोयस्स असंखेजइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेजइमागे, तत्थ णं बहवे असुरकुमारा देवा परिवसंति, काला लोहियक्खबिंबोडा धवलपुष्पदंता असियकेसा वामे एगकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलित्तपत्ता इसीसिलिंधपुष्फपगासाई असंकिलिहाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिया वयं च पढम समइकंता विइयं च वयं असंपत्ता भद्दे जोवणे वट्टमाणा तलभंगयतुडियपवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडितभुया दसमुद्दामंडियन्गहत्था चूडामणिविचित्तचिंधगया सुरूवा महिहिया महजुइया महायसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडलमट्ठगंडयलकबपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगमल्लाणुलेवणधरा मामुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं वन्नेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अचीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोत्रमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिबईणं साणं साणं आयरवखदेवसाहस्सीर्ण अबसि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवषं सामि भट्टित्तं महत्तरगर्त आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महताहतनहगीतबाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगमोगाई भुंजमाणा विहरंति ॥ चमरचलिणो इत्य दुवे असुरकुमारिंदा असुरकुमाररायाणो परिवसंति, काला महानीलसरिसा णीलगुलिअगवलअयसिकुसुमपगासा वियसियसयवत्वणिम्मलईसिसिवरचतंवणयणा गरुकाययउज्जुतुंगनासा उब
teenetsesette
[४६]
दीप अनुक्रम [२०५]
REarathimitatinatana
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-], ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [...४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
२ स्थानपदे भवनवासिस्थानंसू.४७
सूत्रांक
[४६]
दीप अनुक्रम [२०५]
चियसियप्पवालविंबफलसंनिहाहरोहा पंडरससिसगलविमलनिम्मलदहिषणसंखगोक्खीरकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी हुयवहनिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा अंजणघणकसिणगरुयगरमणिजणिद्धकेसा वामेयकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलितगत्ता ईसिसिलिंधपुप्फपगासाई असंकिलिहाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिया वयं च पढमं समइक्ता बिइयं तु असंपत्ता भद्दे जोवणे वट्टमाणा तलभंगयतुडियपवरभूसणणिम्मलमणिरयणमंडियभुया दसमुद्दामंडियग्गहत्था चूडामणिचित्तचिंधगया सुरूवा महड्डिया महजुईआ महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियर्थभियभुया अंगदकुंडलमहगंडतलकन्नपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं वन्नेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इडीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ सार्ण साणं भवणाबाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं वायचीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिबईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नर्सि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महयाहयनदृगीयवाइयतंतीतलतालतुडियषणमुइंगपढप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई झुंजमाणा विहरति ।
IN||९०॥
Alainturary.orm
अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रमांकने मुद्रण-दोष: वर्तते-सू. ४६ स्थाने सू०४७ इति मुद्रितं
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२],---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६]
असुरकुमारसूत्रे काला:-कृष्णवर्णाः 'लोहियक्खाबिम्बोहा' लोहिताक्षरनयर विम्बीफलषच्च ओष्ठौ येषा ते लोहि-1 ताक्षबिम्बोष्ठाः, आरक्कोष्ठा इति भावः, धवलपुष्पषत्सामात् कुन्दकलिका इव दन्ता येषां ते धवलपुष्पदन्ताः, असिताः-कृष्णाः केशा येषां ते असितकेशाः, दन्ताः केशाश्चामीषां वैक्रिया द्रष्टव्याः, न खाभाविकाः, क्रियशरीरस्वात् 'चामेय (एग) कुंडलधरा' एककर्णावसक्तकुण्डलधारिणः, तथा ऑट्टैण-सरसेन चन्दनेनानुलिसं गात्रं यस्ते आर्द्रचन्दनानुलिप्तगात्राः, तथा ईषद्-मनाक शिलिन्ध्रपुष्पप्रकाशानि-शिलिन्ध्रपुष्पसरशवर्णानि ईपद्रक्तानीत्यर्थः असंक्लिष्टानि-अत्यन्तसुखजनकतया मनागपि संक्लेशानुत्पादकानि सूक्ष्माणि-मृदुलघुस्पर्शानि अच्छानि चेति भावः वस्त्राणि प्रवराणि अत्र सूत्रे विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् 'परिहिताः' परिहितवन्तः, तथा वयःप्रथम-कुमारत्वलक्षणमतिक्रान्तास्तत्पर्यन्तवर्तिन इति भावः द्वितीयं च-मध्यमलक्षणं वयोऽसंप्राप्ताः, एतदेव व्यक्तीकरोति-भद्रे-अतिप्रशस्वे, यौवने वर्तमानाः 'तलभंगयतुडियवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडियभुजा' इति तलभङ्गका-वाहाभरणविशेषाः तुटितानि-वाहुरक्षिकाः अन्यानि च यानि वराणि भूषणानि बाह्वाभरणानि तेषु ये निर्मला मणयः-चन्द्रकान्ताद्या यानि रत्नानि च-इन्द्रनीलादीनि तैर्मण्डितौ भुजौ-हस्तानी येषां ते तथा, तथा दशभिर्मुद्राभिर्मण्डिती अग्रहती। येषां ते दशमुद्रामण्डिताग्रहस्ताः, 'चूडामणिविचित्तचिंधगया' इति चूडामणिनामकं चित्रम्-अद्भुतं चिहं गतंस्थितं येषां ते चूडामणिचित्रचिह्नगताः ॥ चमरवलिसामान्यसूत्रे काला:-कृष्णवर्णाः, एतदेयोपमानतः प्रतिपाद
Raeseseseselesese
दीप अनुक्रम [२०५]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२],---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६]
दीप अनुक्रम [२०५]
प्रज्ञापना-1 यति-'महानीलसरिसा' महानीलं यत् किमपि वस्तुजातं लोके प्रसिद्धं तेन सदृशाः, एतदेव ब्याचष्टे-नीलगुटि- २ स्थानयाः मल-1
का-नील्या गुटिका गवलं-माहिषं शृङ्गं अतसीकुसुमं प्रतीतं तेषामिव प्रकाशः-प्रभा येषां ते नीलगुटिकागवला- पदे असुयवृत्ती. तसीकुसुमप्रकाशाः, तथा विकसितशतपत्रमिव निर्मले ईषद्-देशविभागेन मनाक् सिते रक्ते ताने च नयने येषां ते
रादिस्थानं ॥९१॥ विकसितशतपत्रनिर्मलेषतसितरक्तताम्रनयनाः, गरुडस्येवायता-दीर्घा ऋज्वी-अकुटिला तुङ्गा-उन्नता नासा-ना
सू.४६ सिका येषां ते गरुडायतर्जुतुङ्गनासाः, तथा उवचियं-तेजितं यत् शिलाप्रवालं-विद्रुमरत्नं यच्च विम्वफलं-विम्ब्याः सत्कं फलं तत्सन्निभोऽधरोष्ठो येषां ते तथा, तथा पाण्डुरं न तु सन्ध्याकालभाव्यारक्तं शशिशकले-चन्द्रखण्डं। तदपि च कथंभूतमित्याह-विमलं-रजसा रहितं कलङ्कविकलं वा तथा निर्मलो यो दधिधनः शङ्खो गोक्षीरं यानि । कुन्दानि-कुन्दकुसुमानि दकरजा-पानीयकणाः मृणालिका च तद्वद् धवला दन्त श्रेणियेषां ते तथा, विमलशब्दस्य विशेष्यात् परनिपातः प्राकृतत्वात् , तथा हुतवहन-वैश्वानरेण निर्मातं सद् यजायते धोतं-निर्मलं तप्तम्-उत्तप्त।
तपनीयमारक्त सुवर्ण तद्वद् रक्तानि हस्तपादतलानि तालुजिह्वे च येषां ते हुतवहनिर्मातधौततप्सतपनीयरक्ततलताMलुजिह्वाः, तथा अञ्जनं-सौवीराजनं घनः-प्रावृहकालभावी मेघस्तद्वत्कृष्णा रुचकरलवद रमणीया स्निग्धाश्च केशा ॥९१॥
येषां ते अञ्जनधनकृष्णरुचकरमणीयस्निग्धकेशाः॥ | कहिं पं भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारार्ण देवाणं पञ्जत्तापजत्ताणं ठाणा प०, कहि भंते ! दाहिणिल्ला असुरकु
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SAREnaturnhintamana
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२],---------------उद्देशक: -,------------- दारं -1, -------------- मूलं [...४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६]
Sasaseesasaros2008090020
मारा देवा परिवसंति', गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्टा चेगं जोयणसहस्सं बज्जित्ता मज्झे अहहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं चउत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते गं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा सो चेव वण्णओ जाव पडिरूवा, एत्थ गं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पजचापजत्ताणं ठाणा पन्नता, तीसुवि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा देवीओ परिवसति, काला लोहियक्खा तहेव जाव भुंजमाणा विहरंति, एएसिणं तहेब तायतीसगलोगपाला भवन्ति, एवं सव्वत्थ भाणियई। भवणवासी णं चमरे इत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसति काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ चउतीसाए भवणावाससयसहस्साणं चउसट्टीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं अणियाहिबईणं चउण्ह य चउसहीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं नाव विहरति । कहि णं भंते । उत्चरिलाणं असुरकुमाराणं देवाणं पञ्जचापजत्ताणं ठाणा पन्नचा?, कहिणं भंते ! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति, गोयमा ! जंबूद्दीचे दीवे मंदरस्स पच्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहिता हिडा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे अहहुत्तरे जोषणसयसहस्से एत्थ गं उचरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वहा अंवो चउ
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-, ------------- दारं -1, -------------- मूलं [...४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
मज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
२ स्थान
पदे असुशिरादिस्थान
सू.४६
सूत्रांक [४६]
390sas
॥९२॥
दीप अनुक्रम [२०५]
रंसा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाब विहरति, बली एस्थ वइरोमणिदे बहरोयणराया परिवसति काले महानीलसरिसे जाव पभासेमाणे । से णं तत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं सहीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्डं अणियाहियईणं चउण्ह य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूणं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आदेवचं पोरवेचं कुछमाणे विहरइ ।। कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं पजचापज्जताणं ठाणा पन्नचा, कहिणं भंते ! नागकुमारा देवा परिवसंति , गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं जोगाहित्ता हिहा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जिचा मज्झे अहहुचरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं नागकुमाराणं देवाणं पजत्तापलत्ताणं चुलसीह भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरसा जाव पडिरूवा, वत्थ ण णागकुमाराणं पजचापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तीमुवि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे नागकुमारा देवा परिवसंति महिहिया महसुईआ सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरति । धरणभूवाणंदा एत्थ गं दुबे नागकुमारिंदा णागकुमाररायाणो परिवसति महडिया सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरति । कहि णं मंते ! दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं पञ्जचापञ्जताणं ठाणा पनत्ता', कहिणं मंते ! दाहिणिल्ला नागकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा! जंबूहीवे दीवे मदरस्स पवयस्स दाहिणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उपरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिहा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मञ्झे अट्टहुचरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं चउया
Catee
॥१२॥
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[ ४६ ]
दीप
अनुक्रम [२०५ ]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-],
- दारं [ - ], ------
मूलं [...४६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
संभवणावाससय सहस्सा भवन्तीतिमवखायं, ते णं भवणा बाहि वट्टा जाव पडिरूवा, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागमाराणं पतापत्ताणं ठाणा पद्मत्ता, तीसुवि लोयस्स असंखेजइभागे, एत्थ दाहिणिल्ला नागकुमारा देवा परिव संति महिहिया जाव विहरंति, धरणे इत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसइ महडिए जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ चालीसाए भवणावाससयसहस्ताणं छण्हं सामाणियसाहस्सीणं वायचीसाए तायतीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं उन्हें अग्गमहिसणं सपरिवाराणं तिन्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सखण्डं अणियाहिवईणं चउद्दीसाए आयरक्खदेव साहस्सीणं अनसिं च बहूणं दाहिणिहाणं नागकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं कुछमाणे विहरइ । कहि णं भंते उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं देवानं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पत्ता ?, कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला नागकुमारा देवा परिवर्तति १, गोमा ! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पवयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एवं जोयणसहस्सं ओगाहिता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे अनुहुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं उत्तरलाणं नागकुमाराणं देवाणं चत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमवखायं, ते णं भवणा बाहिं वट्टा सेसं जहा दाहि पिल्ला जाव विहरंति, भूयाणंदे एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसह, महिडीए जाव पभासेमाणे, से कं तत्थ चालीसाए भवणावाससयसहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरद ।। कहि णं भंते! सुवनकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापठाणापन्नता ?, कहि णं भंते ! सुवन्नकुमारा देवा परिवर्तति १, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव एत्थ णं सुवनकुमाराणं देवाणं वावचरिं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमवखायं । ते णं भवणा चाहिं वट्टा जाव पडिरूवा, तत्थ
For Parts Only
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[४६ ]
दीप
अनुक्रम
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [२],
उद्देशक: [ - ], ----------दारं [-1, ----------- मूलं [... ४६] + गाथा : (१३०-१४०)
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥ ९३ ॥
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
सुवनकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, जाव तिसुवि लोगस्स असंखेज भागे, तत्थ णं बहवे सुवन्नकुमारा देवा परिवसंति महिडिया सेसं जहा ओहियाणं जाव चिह्नरंति, वेणुदेवे वेणुदाली य इत्थ दुवे सुवण्णकुमारिंदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवति, महड्डिया जाब विहरति । कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पनचा ?, कहि णं ते! दाहिणिल्ला सुबण्णकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! इमीसे जाब मज्झे अद्वहुतरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं दाहिणिहाणं सुवण्णकुमाराणं अट्ठत्तीसं भवणावासस्यसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं । ते णं भवणा चाहिँ वहा जाव पडिरुवा, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पञ्जत्तापत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तिसुवि लोगस्स असंखेज्जइभागे, एत्थ णं बहवे सुवणकुमारा देवा परिवसंति, वेणुदेवे य इत्थ सुवनिंदे सुवन्नकुमारराया परिवसर, सेसं जहा नागकुमाराणं ।। कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं सुवनकुमाराणं देवाणं पञ्जत्तापत्ताणं ठाणा पत्ता १, कहि णं मंते ! उत्तरिल्ला सुवनकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए जाव एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवनकुमाराणं चउतीसं भवणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं भवणा जाव एत्थ णं बहवे उत्तरिल्ला सुवनकुमारा देवा परिवसंति महिड्डिया जाव विहरंति, वेणुदाली इत्थ सुवन्नकुमारिंदे सुवन्नकुमारराया परिवसद महिडीए सेसं जहा नागकुमाराणं ॥ एवं जहा सुवनकुमाराणं वत्तया भणिया तहा सेसाणवि चउदसन्हं इंदाणं भाणियचा, नवरं भवणणागतं इंदणाणतं वचणाणत्तं परिहाणणाणतं च इमाहिं माहाहिं अणुगंतवं चउसद्धिं असुराणं चुलसीतं चैव होंति नागाणं। बावतारं सुवने वाउकुमाराण छन्नउई ॥ १३० ॥ दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदथणियमग्गीणं । छण्हंपि जुअलयाणं बाबत्तरिमो सय सहस्सा ॥ १३१ ॥
For Parts Only
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१ २ स्थान
पदे असुरादिस्थानं सू. ४६
॥ ९३ ॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-],---------- दारं ।-,----------- मूलं [...४६] + गाथा:(१३०-१४०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६]
दीप
चउतीसा चउयाला अट्टत्तीसं च सयसहस्साई । पन्ना चत्तालीसा दाहिणओ हुँति भवणाई ॥१३२॥ तीसा चत्तालीसा चउतीसं चेव सयसहस्साई । छायाला छत्तीसा उत्तरओ हुँति भवणाई ॥१३३।। चउसट्ठी सट्ठी खलु छच सहस्साई असुरवाणं । सामाणिआ उ एए चउग्गुणा आयरक्खा उ ॥१३४॥ चमरे धरणे तह वेणुदेवे हरिकंत अग्गिसीहे य । पुन्ने जलकते या अमिय विलम्बे य घोसे य॥१३५।। चलि भूयाणंदे वेणुदालि हरिस्सहे अग्गिमाणब विसिट्टे | जलपह तहमियवाहणे पभंजणे य महाघोसे ॥१३६॥ उत्तरिल्ला णं जाब विहरति । काला असुरकुमारा नागा उदही य पंडरा दोवि । वरकणगनिहसगोरा हुंति मुवना दिसा थणिया ॥१३७।। उत्तत्तकणगवन्ना विज्जू अग्गी य होति दीवा य । सामा पियंगुवन्ना बाउकुमारा मुणेयवा ॥१३८।। असुरेसु हुँति रत्ता सिलिंधपुष्फप्पभा य नागुदही । आसासगवसणधरा होंति सुवना दिसा थणिया ॥१३९॥ नीलाणुरागवसणा विज्जू अग्गी य हुंति दीवा य । संझाणुरागवसणा पाउकुमारा मुणेयवा ॥१४०॥(म.४६)
'तीसुवि लोगस्स असंखेजइभागे' इति खस्थानोपपातसमुद्घातरूपेषु त्रिष्वपि स्थानेषु लोकस्यासंख्येयतमे भागे का वक्तव्यानि । 'चउसद्धिं असुराण' इत्यादिगाथाद्वयं सामान्यतोऽसुरकुमारादीनां भवनसंख्याप्रतिपादक सुगर्म । 'चउ
तीसा चउयाला' इत्यादिका गाथा दाक्षिणात्यानामसुरकुमारादीनां भवनसंख्याऽभिधायिका, तस्या व्याख्या-दक्षिणतोऽसुरकुमाराणां भवनानि चतुस्विंशच्छतसहस्राणि, नागकुमाराणां चतुश्चत्वारिंशत् , सुवर्णकुमाराणामष्टात्रि-11 शत्, वायुकुमाराणां पञ्चाशत् , द्वीपदिगुदधिविद्युत्स्तनिताग्निकुमाराणां षण्णां प्रत्येकं चत्वारिच्छतसहस्राणि भव
9829088890Sasat92908291
अनुक्रम [२०५-२१६]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-],---------- दारं ।-,----------- मूलं [...४६] + गाथा:(१३०-१४०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती.
सूत्राक
[४६]
॥१४॥
दीप
|नाना ॥ 'तीसा चत्तालीसा' इत्यादि, उत्तरतः-उत्तरस्यां दिशि असुरकुमाराणां भवनानि त्रिंशच्छतसहस्राणि, नाग-II
२स्थानकुमाराणां चत्वारिंशत् , सुवर्णकुमाराणां चतुर्विंशत् , वायुकुमाराणां षट्चत्वारिंशत्, द्वीपदिगुदधिविद्युत्स्तनितामि
| पदे असुकुमाराणां प्रत्येक पत्रिंशत् भवनशतसहस्राणि । सम्प्रति सामानिकात्मरक्षकदेवसंख्यासंग्रहार्थमाह-'चउसही रादिस्थानं सट्ठी खलु' इत्यादि, दाक्षिणात्यस्यासुरकुमारेन्द्रस्य सामानिका देवाः चतुःषष्टिसहस्राणि, उत्तराहस्य पष्टिसहस्राणि, सू. ४६ असुरवर्जानाम्-असुरकुमारेन्द्रवर्जानां शेषाणां सर्वेषामपि दाक्षिणात्यानामौत्तराहाणां च पद पद सहस्राणि प्रत्येकं | सामाणिआ उ एए' इति एतेऽनन्तरोक्तसंख्याका देवाः सामानिका ज्ञातव्याः, आत्मरक्षकाः पुनः सर्वत्रापि सामानिकचतुर्गुणाः प्रतिपत्तव्याः॥ इदानीं दाक्षिणात्यानामौत्तराहाणां चासुरकुमारादीनां यथाक्रममिन्द्रादीन निर्दिशति-'चमरे धरणे' इत्यादि, दाक्षिणात्यानामसुरकुमाराणामधिपतिश्चमरः, नागकुमाराणां धरणः, सुवर्णकु-18 |माराणां वेणुदेवः, विद्युत्कुमाराणां हरिकान्तः, अग्निकुमाराणामनिसिंहः, द्वीपकुमाराणां पूर्णः, उदधिक्कुमाराणां जलकान्तः, दिकुमाराणाममितः, वायुकुमाराणां वेलम्बः, स्तनितकुमाराणां घोषः। 'बलिभूयाणंदे' इत्यादि, उत्त-1. रदिग्वर्तिनामसुरकुमाराणामिन्द्रो वलिः, नागकुमाराणां भूतानन्दः, सुवर्णकुमाराणां वेणुदालिः, विद्युत्कुमाराणां हरिस्सहः, अग्निकुमाराणामग्निमाणवः, द्वीपकुमाराणां विशिष्टः, उदधिकुमाराणां जलप्रभा, दिक्कुमाराणाममित
॥१४॥ |वाहनः, वायुकुमाराणां प्रभञ्जनः, स्तनितकुमाराणां महाघोषः ॥ सम्प्रति वर्णसंग्रहार्थमाह-'काला असुरकुमारा'
अनुक्रम [२०५-२१६]
Tuestirary.com
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-],---------- दारं ।-,----------- मूलं [...४६] + गाथा:(१३०-१४०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६]
दीप
कटटटटटटटटटटटर
इत्यादि गाथाद्वयं, असुरकुमाराः सर्वेऽपि काला:-कृष्णवर्णाः, नागकुमारा उदधिकुमाराश्चैते उभयेऽपि पाण्डराः-श्वेतवर्णाः, परं-जासं यत्कनकं तस्य निघर्षः-कषपट्टके रेखा तद्वद् गौरा भवन्ति सुवर्णकुमारा दिकुमाराः स्तनितकुमाराच, तथा विद्युत्कुमारा अग्निकुमारा द्वीपकुमारा भवन्त्युत्तप्तकनकवर्णाः, ईषद्रक्तवर्णा इति भावः, वायुकुमाराः श्यामाः, श्यामत्वमेव स्पष्टयति-प्रियनुवर्णाः ॥ सम्प्रति वस्त्रगतवर्णप्रतिपादनार्थमाह-'असुरेसु हुंति रत्ता' इत्यादि गाथाद्वयं, असुरेषु-असुरकुमारेषु भवन्ति वस्त्राणि रक्तानि, नागकुमारेपूदधिकुमारेषु च शिलिन्धपुष्पप्रभाणि नीलवर्णानीत्यर्थः, सुवर्णकुमारा दिकुमाराः सनितकुमाराचावास्यगवसनधराः-अश्वस्थास्य-मुख अश्वास्यं तत्र गतो यः फेनः सोऽवास्यगतः तद्वद् धवलं यद् वस्त्रं तद् धरन्तीयवास्थगवसनधराः, बाहुल्येन श्वेतवस्त्रपरिधानशीला इत्यर्थः, विद्युत्कुमारा द्वीपकुमारा अभिकुमाराश्च नीलानुरागवसनाः, वायुकुमाराः सन्ध्यानुरागवसनाः ॥
कहिणं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं पजत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पत्रचा, कहिणं भंते ! वाणमंतरा देवा परिवसति', गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सपाहल्लस्स उवरिं एग जोयणसयं ओगाहिता हिहावि एगे जोयणसयं वजिचा मज्झे अहसु जोयणसएम एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेज्जनगरावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं भोमेज्जा णगरा वाहिं वहा अंतो चउरसा अहे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिया
अनुक्रम [२०५-२१६]
careeswersticecretacea
SAREmiratorNMana
अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये देवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापना याः मल
यवृत्ती.
सूत्रांक [४७]]
R२ स्थान
पदे व्य|न्तरस्थानं | सू.४७
दीप अनुक्रम [२१७]
उकिनंतरविउलगंभीरखायफलिहा पागारहालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्धिमुसलमुसंढिपरिवारिया अउज्ज्ञा सदाजया सदागुत्ता अडयालकोटगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवडवग्धारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरहि मुकपुष्फ'जोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकध्रवमधमतर्गधुझ्याभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिबा दिवतुडियसहसंपणाइया पडागमालाउलाभिरामा सबरयणामया अच्छा सहा लण्हा पहा महानीरया निम्मला निष्पंका निकंकडच्छाया सप्पहा सस्सिरिया समिरीया सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा एस्थ णं दाणमंतराणं देवाणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा पत्रचा, तिमुवि लोयस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा परिवसंति, तंजहा-पिसाया भूया जक्खा रक्खसा किंनरा किंपुरिसा भुयमवइणो महाकाया गन्धवगणा य निउणगंधवगीयरइणो अणवन्नियपणवनियइसिवाइयभूयवाइयकंदियमहाकंदिया य कुहंडपयंगदेवा चंचलचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया गहिरहसियगीयणचणरह वणमालामेलमउडकुंडलसच्छंदविउवियाभरणचारुभूसणधरा सबोउयसुरभिकुसुमसुरइयपलंबसोहंतकंतविहसंतचित्तवणमालरइयवच्छा कामकामा कामरूवदेहधारी णाणाविहयण्णरागवरवललंतचित्तचिल्ल(लल)गनियंसणा विविहदेसिनेवस्थगहियवेसा पमुइयकंदप्पकलहकलिकोलाहलप्पिया हासबोलबहुला असिमुग्गरसत्तिकुंतहत्था अणेगमणिरयणविविहनिम्जुत्तविचित्तचिंधगया महिड्डिया महज्जुझ्या महायसा महाबला महाणुभागा महासुक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडियर्थभियभुया संगयकुंडलमट्टगंडयलकनपीढधारी
330002026792000
॥९५॥
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
eeeee
प्रत
सूत्रांक [४७]
दीप अनुक्रम [२१७]
विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्यपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवणं वन्नेणं दिवणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिश्वर्ण संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेस्साए दस दिसाओ उओवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं असंखेजभोमेञ्जनगरावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणीयाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसि च बहूर्ण वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेबच्चं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेगावचं कारेमाणा पालेमाणा महयाहयनहगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुईगपडुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति । (सू०४७) वानमन्तरसूत्रे 'तिसुधि लोगस्स असंखेजइभागे' इति, स्वस्थानोपपातसमुद्घातरूपेषु त्रिष्वपि स्थानेषु लोकस्यासं-18 ख्येय(तमे)भागे वक्तव्यानि, तथा 'भुयगवइणो महाकाया महोरगा' किंविशिष्टास्ते ? इत्याह-भुजगपतयः गन्धर्वग
णाः-गन्धर्वसमुदायाः, किंविशिष्टास्ते ? इत्याह-निपुणगन्धर्वगीतरतयः' निपुणाः-परमकौशलोपेता ये गन्धर्याः-गन्धविजातीयाः देवास्तेषां यद गीतं तत्र रतिर्येषां ते तथा. एते व्यन्तराणामष्टौ मूलभेदाः, इमे चान्येऽवान्तरभेदा अष्टौ'अणपन्निय' इत्यादि, कथंभूता एते पोडशापि ? इत्यत आह-चंचलचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया' चञ्चलाःअनवस्थितचित्तास्तथा चलचपलम्-अतिशयेन चपलं यत्क्रीडनं यश्च चिचे द्रवः-परिहासः ती प्रियो येषां ते
90007020
REaratiniuSH
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७]
दीप अनुक्रम [२१७]
प्रज्ञापना- चलचपलचित्तक्रीडनद्रवप्रियाः ततश्च चञ्चलशब्देन विशेषणसमासः, तथा 'गहिरहसियगीयणगणरई' गम्भीरेषु या: मल- हसितगीतनर्तनेषु रतिर्येषां ते तथा, 'वणमालामेलमउडकुंडलसच्छंदविउवियाभरणचारुभूसणधरा' इति वनमाला- पदे व्य
मयानि यानि आमेलमुकुटकुण्डलानि 'आमेल' इति आपीडशब्दस प्राकृतलक्षणयशात् आपीड:-शंखरकः, तथाINन्तरस्थान
खच्छन्दं विकुर्वितानि यानि आभरणानि तैयत चारु भूषणं-मण्डनं तद् धरन्तीति वनमालापीडमुकुटकुण्डलख-Nसू. ४७ ॥९६॥
उछन्दविकुर्विताभरणचारुभूपणधराः, तथा सर्वतुकेः-सर्वतुभाविभिः सुरभिकुसुमैः सुरचिता-सुष्ठु निवर्तिता तथा| प्रिलम्बते इति प्रलम्बा शोभते इति शोभमाना कान्ता-कमनीया विकसन्ती-अमुकुलिता अम्लानपुष्पमयी चित्रा
नानाप्रकारा वनमाला रचिता वक्षसि येते सर्वतुकसुरभिकुसुमसुरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविकसचित्रवनमालारचितवक्षसः, तथा काम-खेच्छया गमो येषां ते कामगमाः-खेच्छाचारिणः, कचित् 'कामकामा' इति पाठः, तत्र कामेन-खेच्छया कामो-मैथुनसेवा येषां ते कामकामा अनियतकामा इत्यर्थः, तथा काम-खेच्छया रूपं येषां ते कामरूपास्ते च ते देहाथ कामरूपदेहास्तान् धरन्तीत्येवंशीला: कामरूपदेहधारिणः, खेच्छाविकुर्वितनानारूपदेहधारिण का इत्यर्थः, तथा नानाविधैर्वर्णे रागो-रक्तता येषां तानि नानाविधवर्णरागाणि वराणि-प्रधानानि चित्राणि-नानावि
धानि अद्भुतानि वा चिल्ललगानि देशीवचनत्वात् देदीप्यमानानि वस्त्राणि निवसनं-परिधानं येषां ते नानाविध-IN वर्णरागवरवस्त्र चित्रचिल्ललगनिवसनाः, तथा विविधैर्देशीनेपथ्यहीतो वेषो येस्ते विविधदेशीनेपथ्यगृहीतवेषाः, तथा 'पमुइयकंदप्पकलहकेलिकोलाहलप्पिया' इति कन्दर्पः-कामोद्दीपनं वचनं चेष्टा च कलहो-राटी केलि:-क्रीडा
॥९६
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४७]
दीप
कोलाहलो-बोलः कन्दर्पकलहकेलिकोलाहलाः प्रिया येषां ते कन्दर्पकलहकेलिकोलाहलप्रियाः, ततः प्रमुदितश-IN ब्देन सह विशेषणसमासः, 'हासबोलबहुला' इति हासबोली बहुलौ-अतिप्रभूतो येषां ते हासबोलबहुलाः, तथा| | असिमुद्गरशक्तिकुन्ता हस्ते येषां ते असिमुद्गरशक्तिकुन्तहस्ताः, 'अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तचित्तचिंधगया' इति मणयश्च-चन्द्रकान्ताया रत्नानि-कतनादीनि अनेकर्मणिरलैर्विविधं-नानाप्रकारं नियुक्तानि विचित्राणिनानाप्रकाराणि चिह्नानि गतानि-स्थितानि येषां ते तथा, शेष सुगमम् ।
कहिण भंते ! पिसायाणं देवाणं पञ्जत्तापजनाणं ठाणा पवना, कहिणं भंते ! पिसाया देवा परिवति', गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसयसहस्सबाहल्लस्स उपरि एमं जोवणसर्य ओगाहित्ता हेट्ठा चेग जोयणसयं वजित्ता मञ्झे अहसु जोयणसएमु एत्थ णं पिसायाण देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेजनगरावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं, ते णं भोमेजनगरा बाहिं बट्टा जहा ओहिओ भवणवनओ तहा भाणियहो जाव पडिरूवा, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पजत्तापजताणं ठाणा पनना, तिसुवि लोगस्स असंखेजहभागे । तत्थ बहवे पिसाया देवा परिवसति, महिहिया जहा ओदिया जाव विहरन्ति | कालमहाकाला इत्य दुवे पिसायिंदा पिसायरायाणो परिचसंति, महिहिया महजुइया जाव विहरति । कहिणं भंते । दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं ठाणा पमत्ता', कहि भंते ! दाहिणिला पिसाया देवा परिवसंति , गोयमा ! जंचूदीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए
अनुक्रम [२१७]
tencial
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आगम
(१५)
[४८-४९ ]
ཙྪིཊྚེཡྻོཝཱ ཙྪཱ +
-२२४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
पदं [२], ------------ उद्देशकः [-], ---------- दारं [-],
• मूलं [४८, ४९] + गाथा : (१४०-१४५) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥ ९७ ॥
रवणामयस्स कंडस्स जोयणसयसहस्सबाहलस्स उवरिं एवं जोयणसहस्सं ओगाहिता हेडा चेगं जोयणसयं वजिता म असु जोयणसएस एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेज्जनगरावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते गं भवणा जहा ओहिओ भवणवमओ तहा भाणियो जांव पडिरूवा, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पयअता ठाणा पत्रता १, तिसुवि लोगस्स असंखेअइभागे, तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति, महिडिया जहा ओहिया जाव विहरति । काले एत्थ पिसाविंदे पिसायराया परिवसह, महिडीए जाव पभासेमाणे से गं तत्थ तिरियमसंखेजणं भोमेअनयरावाससयसहस्साणं वउन्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्ड य अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिन्हं परिमाणं सतहं अणियाणं सत्तण्डं अणियादिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च चणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण य आहेवचं जाव विहरह। उत्तरिल्लाणं पुच्छा, गोयमा ! जहेव दाहिणिल्लाणं क्तक्षया तब उत्तरिल्लापि, वरं मन्दरस्त पवयस्स उत्तरेणं महाकाले एत्थ पिसार्थिदे पिसायराया परिवसर, जाव विहरद । एवं जहा पिसायाणं तहा भूषापि, जाव गंधवाणं, नवरं इंदेसु णाणतं भाणियां इमेण विहिणा-भूयाणं सुरूवपढिरुवा, जवखार्ण भद्दमाणिभद्दा, रक्खाणं भीममहाभीमा, किनराणं किन्नरकिंपुरिसा, किंपुरिसाणं सप्पुरिसमहापुरिसा, महोरगार्ण अकायमहाकाया, गंधवाणं गीयरहगीयजसा, जाव विहरह। काले य महाकाले सुरूव पडिरूव पुनमदे य । तह चैव माणि भद्दे भीमे य तहा महाभीमे ॥ १४१|| किन्नर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । अइकायमहाकाए गीयरई चैव गीजसे || १४२ || (०४८) । कहि णं भंते । अणवन्नियाणं देवाणं ठाणा पद्मत्ता, कहि णं भंते! अणवभिया देवा परिवसति,
Eucation Internation
For Parts Only
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२ स्थानपदे व्यन्तरस्थानं सू.
४८ वानभन्तरस्था
नं सू. ४९
॥ ९७ ॥
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: -,---------- दारं -1, -----------मूलं [४८,४९] + गाथा:(१४०-१४५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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[४८-४९]
गाथा:
गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसयसहस्सपाहल्लस्स उवरि जाव जोयणसएसु एत्थ णं अणवधियार्ण देषाणं तिरियमसंखेसा णगरावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते गं जाब पडिरूवा, एस्थ णं अणवत्रियाण देवाणं ठाणा, उववाएणं लोयस्स असंखेनइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेशामागे सहाणेणं लोयस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं बहवे अणवनिया देवा परिचसति महिड्डिया जहा पिसाया जाब विहरंति, समिहियसामाणा इत्थ दुवे अणवमिंदा अणवत्रियकुमाररायाणो परिवसति महिहीया, एवं जहा कालमहाकालाणं दोण्हंपिदाहिणिल्डाणं उत्तरिष्ठाण य मणिया तहा सभिहियसामाणाणपि भाणियथा । संगहणीगाहा-अणवाभियपणवनियइसिवाइयभूयवाझ्या चेव । कंदियमहाकदियकोहंडा पयगए चेव ॥१४३॥ इमे इंदा-'संनिहिया सामाणा धायविधाए इसी य इसिवाले । ईसरमहेसरा (पिय) हवा सुवच्छे
विसाले य ॥१४४॥ हासे हासरई विय सेए य तहा भवे महासेए । पयए अपयगवई य नेयवा आणुपुषीए ॥१४५।।(सू०४९) 18 नपरं 'काले य महाफाले' इत्यादि, दक्षिणोत्तराणां पिशाचानां यथाक्रममिन्द्रौ कालमहाकाली, भूतानां सुरूप
प्रतिरूपी, यक्षाणां पूर्णभद्रमाणिभद्री, राक्षसानां भीममहाभीमौ, किन्नराणां किरकिंपुरुषी, किंपुरुषाणां सत्पुरुष-1 8 महापुरुषी, महोरगाणामतिकायमहाकायौ, गन्धर्वाणां गीतरतिगीतयशसी ॥
कहिणं भंते ! जोइसियाणं पजत्तापजसाणं ठाणा पन्नत्ता, कहि गं भंते ! जोइसिया देवा परिवसति 1, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्तणउइजोयणसए उहं उप्पहत्ता दसुत्तरजोयणसयवाहल्ले
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दीप अनुक्रम
[२१८
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-२२४]
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अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये ज्योतिष्कदेवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
२ स्थानपदे ज्योतिष्कस्थानंसू.५०
॥९८॥
[१०]
दीप अनुक्रम [२२५]
तिरियमसंखेजे जोइसविसए एत्थ जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेजा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा अद्धकविगसंठाणसंठिया सवफालिहमया अन्नग्गयमूसियपहसिया इव विविहमणिकणगरयणभत्तिचित्ता वाउन्यविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमहिलंघमाणसिहरा जालंतररयणपंजलुम्मिलियन मणिकणगधूभियागा वियसियसयवत्तपुंडरीया तिलयरयणडचंदचित्ता नाणामणिमयदामालंकिया अंतो बहिं च सहा तवणिजाहलवालुयापत्थडा मुहफासा सस्सिरिया सुरूवा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा एत्थ ण जोइसियाण देवाण पजत्तापजचाणं ठाणा पन्नचा तिसुवि लोगस्स असंखेजइभागे । तस्थ णं बहवे जोइसिया देवा परिचसंति, तंजहावहस्सई चंदा भूरा सुका सणिच्छरा राहू धूमकेऊ बुधा अंगारगा तचतवणिजकणगवन्ना जे य गहा जोहसम्मि चार चरति केऊ य गइरहया अहावीसहबिहा नक्खत्तदेवतगणा णाणासंठाणसंठियाओ पंचवनाओ वारयाओं ठियलेसाचारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयनामंकपागडियचिंधमउडा महिहिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसिं च बहूर्ण जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव विहरति । चंदिमसूरिया इत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसंति, महिड्डिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं जोइसिय विमाणावाससयसहस्साणं चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं चउण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं
॥९८
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०]
तिहं परिसाणं सचण्ई अणीयाणं सचण्डं अणीयाहिबईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव अनेसिं च बहूर्ण जोइसियाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव विहरति ॥ (सू०५०)
ज्योतिष्कसूत्रे 'अद्धकविहगसंठाणसंठियाई' अर्द्ध कपित्थस्य अर्द्धकपित्थं तस्य संस्थानं तेन संस्थितानि, अत्रा-1 |क्षेपपरिहारौ चन्द्रपज्ञप्सिटीकायां सूर्यप्रज्ञप्सिटीकायां चाभिहिताविति ततोऽवधायौँ, 'सवफालिहमया' इति सात्मना स्फटिकमयानि, तथा अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृष्टा-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या |प्रभा-दीप्सितया सितानि-धवलानि अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितानि, तथा विविधानां मणिकनकरताना या भक्तयोंविच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्राणि-आश्चर्यभूतानि विविधमणिकनकभक्तिचित्राणि, 'वाउयविजयवेजयंतीपडागाछचाइछत्तकलिया' वातोद्भूता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तसंसूचिका बैजयन्त्यभिधाना या पताका अथवा विजय इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिकोच्यते तत्प्रधाना वैजयन्य:-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्यः पताकाः छत्रातिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितानि छत्राणि तैः कलितानि वातोद्तविजयवैजयन्तीपताकाग्छत्रातिच्छत्रकलितानि तुझानि-उच्चानि, तथा गगनतलम्-अम्बरतलं अनुलिखद्-अतिलक्ष्यत् शिखरं येषां तानि गगनतलानुलिखच्छिखराणि, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तानि तथा, पञ्जरादुन्मीलितमिव-बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितवद्, तथाहि-किल किमपि वस्तु पजरात
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दीप अनुक्रम [२२५]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[५० ]
दीप
अनुक्रम [२२५]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः) पदं [२], |--------------- उद्देशक: [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
मूलं [५० ]
याः मल
य० वृत्ती.
॥ ९९ ॥
प्रज्ञापना- २ वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् वहिष्कृत मत्यन्ताविनष्ट च्छायत्वात् शोभते तथा तान्यपि विमानानीति भावः, तथा मणिकनकानां संबन्धिनी स्टूपिका- शिखरं येषां तानि मणिकनकस्तूपिकानि, ततः पूर्वपदाभ्यां सह विशेषणसमासः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाम-मिष्यादिषु पुण्ड्राणि रतमयाश्रार्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैचित्राणि विकसितशतपत्र पुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राणि, तथा मानामणिमयीभिर्दामभिरलङ्कृतानि नानामणिमयदामालङ्कृतानि, तथा अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णानि -मसृणानि तथा तपनीयंसुवर्णविशेषस्तन्मय्या रुचिरायाः बालुकायाः -- सिकतायाः प्रस्तटः - प्रस्तरो येषु तानि तपनीयरुचिरवालुकाप्रस्तटानि, तथा सुखस्पर्शानि शुभस्पर्शानि वा, शेषं प्राग्वत् यावत् 'बहस्सई चंदा' इत्यादि, बृहस्पतिचन्द्रसूर्यशुक्रशनैश्वररादधूमकेतुबुधाङ्गारकाः, कथंभूता ? इत्याह-तसतपनीय कनकवर्णा- ईषद्रक्तवर्णाः, तथा ये च महा-उक्तव्यतिरिक्ता ज्योतिश्चक्रे चारं चरन्ति केतवो ये च गतिरतिकाः ये चाष्टाविंशतिविधा नक्षत्रदेवगणासे सर्वेऽपि नानासंस्थानसंस्थिताः, चशब्दात् तपनीय कनकवर्णाः, तारकाः पञ्चवर्णाः, एते च सर्वेऽपि स्थितलेश्या - अवस्थिततेजोलेश्याकाः तथा ये चारिणः- चाररतास्तेऽविश्राममण्डलगतिकाः, तथा सर्वेऽपि प्रत्येकं नामाङ्केन- खखनामाङ्केन प्रकटितं चिह्नं मुकुटे येषां ते प्रत्येक [व] नामाङ्कप्रकटितचिह्नमुकुटाः, किमुक्तं भवति ! - चन्द्रस्य मुकुटे चन्द्रमण्डललाञ्छनं खनामाप्रकटितं सूर्यस्य सूर्यमण्डलं ग्रहस्य प्रहमण्डलं नक्षत्रस्य नक्षत्राकारं तारकस्य तारकाकारमिति ॥
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दारं [-],
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For Parts Only
२ स्थान
पदे ज्योतिष्कस्थानं सू. ५०
॥ ९९ ॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशक: -1, ------------- दारं [-], -------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११]
दीप
कहिणं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, कहिणं मंते ! बेमाणिया देवा परिवसति', गोयमा ! हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उहुं चैदिमसूरियगहनक्खचतारारूवाणं बहर जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उहं दूरं उप्पादत्ता एत्थ णं सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदबंभलोयलंतगमहासुफसहस्सारआणयपाणयआरणयगेवेज्जणुत्तरेसु एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं चउरासीइ विमाणावाससयसहस्सा सचाणउई च सहस्सा तेवीसंच विमाणा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सवरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरिया सउलोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं पजत्तापजचाणं ठाणा पचत्ता, तिसुवि लोयस्स असंखेजहभागे, तत्थ ण बहवे चेमाणिया देवा परिवसंति , तं०-सोहम्मीसाणसणंकमारमाहिदमलोगलतगमहासुफसहस्सारआणयपाणयआरणयगेवेअणुत्तरोववाइया देवा, ते गं मिगमहिसवराहसीहछगलदहुरहयगयवइयगखग्गउसभविडिमपागडियचिंधमउडा पसिढिलवरमउडकिरीडधारिणो चरकुंडलञ्जोइयाणणा मउडदित्तसिरिया रत्तामा पउमपम्हगोरा सेया सुहवनगंधफासा उत्तमवेउविणो पवरवत्थगंधमल्लाणुलेवणधरा महिहिया महज्जुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कढयतुडियर्थभियभुया अंगदकुंडलमगंडतलकनपीढधारी विचित्तहस्थाभरणा विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवस्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं यमेणं दिवेणं गंघण दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दियेणं संठाणेणं दिवाए इडीए दिवाए जुईए दिखाए पभाए दिखाए छायाए
अनुक्रम [२२६]
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अथ देवयोनिक-पञ्चेन्द्रिय जीवानाम् मध्ये वैमानिकदेवानाम् स्थानानि कथ्यते
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[५१]
दीप
अनुक्रम
[२२६]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
पदं [२], -------------उद्देशक: [-],
दारं [-],
मूलं [ ५९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥१००॥
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fare अere दिवेणं तेएणं दिखाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससमसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसगाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिमाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवश्चं पोरेबच्चं जाव दिवाई भोगभोगाई गुंजभाणा विहरंति । (सू०५१)
वैमानिकसूत्रे चतुरशीतिर्विमानलक्षाणि सप्तनवतिर्विमानसहस्राणि त्रयोविंशतिर्विमानानीति, 'बत्तीसट्टावीसा बारसट्टचउरो सयसहस्सा' इत्यादिसंख्यामीलनेन परिभावनीयानि, 'ते णं मिगमहिस' इत्यादि, सौधर्मदेवा मृगरूपप्रकटितचिह्नमुकुटाः ईशानदेवा महिषरूपप्रकटितचिह्नमुकुटाः सनत्कुमारदेवा वराहरूपप्रकटितचिह्नमुकुटाः माहेन्द्रदेवा सिंहरूपप्रकटितमुकुटचिह्नाः ब्रह्मलोकदेवाः छगलरूपप्रकटितमुकुटचिह्नाः लान्तकदेवा दर्दुररूपप्रकटितमुकुटचिह्नाः शुक्रकल्पदेवा हयमुकुटचिह्नाः सहस्रारकल्पदेवा गजपति मुकुटचिह्नाः आनतकल्पदेवा भुजगमुकुटचिह्नाः प्राणतकल्पदेवाः खङ्गमुकुट चिहाः खङ्गः- चतुष्पदविशेष आटव्यः आरणकल्पदेवा वृषभमुकुटचिह्नाः अच्युतकल्पदेवा विडिममुकुटचिह्नाः, 'वरकुंडलुज्जोइआणणा' इति वराभ्यां कुण्डलाभ्यामुद्द्योतितं भाखरीकृतमाननं येषां ते तथा, शेषं सुगमं ॥
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२ स्थान
पदे वैमानिकस्थानं सू. ५१
॥१००॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [२], --------------- उद्देशकः -1, ------------- दारं [-1, -------------- मूलं [५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२]
कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवाणं पञ्जचापजताण ठाणा पन्नता, कहि भंते ! सोहम्मगदेवा परिवसंति, गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पढवीए बहसमरमणिजाओ भूमिभागाओ जाव उह दूर उप्पइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पबचे पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिन्ने अद्धचंदसंठाणसंठिए चिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेजाओ जोयणकोडीओ असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखेजाओं जोयगकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं सबरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे, तत्थ णं सोहम्मगदेवाणं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया जाव पडिरूवा, तेसिणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभागे पंच वडिसया पत्रता, तंजहा-असोगवडिंसए सत्तवण्णवडिसए चंपगवडिंसए चूयवडिंसए मझे इत्थ सोहम्मवार्डिसए, ते णं वडिसया सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एत्थ णं सोहम्मगदेवाणं पञ्जत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तिसुवि लोगस्स असंखिअइभागे, तत्थ णं यह सोहम्मगदेवा परिवसति महिडिया जाब पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं एवं जहेव ओहियाण तहेव एएसिपि भाणिय जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूणं सोहम्मगकप्पवासीणं बेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाब विहरति । सके इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, वञ्जपाणी पुरंदरे सयकतू सहस्सखे मघवं पागसासणे दाहिणड्डुलोगाहिबई बत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिबई एरावणवाहणे सुरिंदे अयरंबरवत्यधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचितचंचलकुंडलविलिहिमाणगंडे महिहिए जाव पभासेमाणे से पं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासीए सामाणियसाहस्सीर्ण
दीप अनुक्रम [२२७]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[५२]
दीप
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[२२७]
दारं [-],
मूलं [५२ ]
पदं [२], --------------- उद्देशक: [-],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥१०१॥
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्तिः)
तात्तीसार तायत्तीसगाणं चउन्हं लोगपालाणं अण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिन्हं परिसार्ण सत्तन्हें अणीयार्थ सत अणीयाहिवईणं चउन्हें चउरासीणं आयरखखदेवसाहस्सीणं अमेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं कुठेमाणे जाव विहरद्द || ( सू० ५२ )
सौधर्मकल्पसूत्रे 'अचिमालिभासरासिवन्नाभे' इति (अर्चिषां मालावत् भासां राशियत् वर्णकान्तिर्यस्य ) 'वजपाणी' इति वज्रं पाणावस्य इति वज्रपाणिः, ('पुरंदरे त्ति) असुरादिपुरदारणात् पुरन्दरः । 'सयकतू' इति शतं क्रतूनां - प्रतिमानामभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्यासौ शतक्रतुः 'सहस्सक्खे' इति सहस्रमणां यस्यासौ सहस्राक्षः, इन्द्रस्य हि किल मत्रिणां पश्च शतानि सन्ति, तदीयानां चाणामिन्द्रयोजनव्यापृततया इन्द्रसंबन्धित्वेन विवक्षणात् सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य 'मधर्व' इति मघा महामेघास्ते यस्य पशे सन्ति स मघवान् तथा ( 'पागसासणे'त्ति ) पाको नाम बलवान् रिपुः स शिष्यते-निराक्रियते येन स पाकशासनः, 'भरयंबरवत्थधरे' अरजांसि - रजोरहितानि खच्छतया अम्बरबदम्बराणि वस्त्राणि धारयति अरजोऽम्बरवस्त्रधरः, 'जालह| यमालमउडे' इति माला च मुकुटश्च मालामुकुटं आलगितम्-आषिद्धं मालामुकुटं येन स आलगितमालामुकुटः 'नवहेम चारुचित्तचंचल कुंडल विलिहिज्ज माणगंडे' इति नवमिव --- अत्युकटचारुवर्णतया प्रत्यग्रमिव हेम यत्र ते नवहेमनी नवहेमभ्यां चारुचित्राभ्यां चञ्चलाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानो गण्डौ यस्य स तथा ॥
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२ स्थान
पदे सौधर्मस्थानं सू. ५२
॥१०१॥
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३]
।
गाथा:
कहिण भंते ! ईसाणाणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता ?, कहि ण मते ! ईसाणगदेवा परिवसति !, गोषमा ! जंघूद्दीवे दीवे मंदरस्स पश्चयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिमागाओ उहं चंदिमसूरियगहुनक्खत्ततारारूवाणं पहुई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई जाव उहुं उप्पाचा एत्य ईसाणे णाम कप्पे पमते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे एवं जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे, तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया जाव पडिरूवा, तेसिणं बहुमझदेसभागे पंच बडिसया पञ्चचा, तंजहा-अंकवर्डिसए फलिहबडिसए रयणवडिसए जातरूववडिंसए मज्झे इत्थ ईसाणवडिसए, ते गं बडिसया साधरयणामया जाव पडिरूवा, एत्थ णं ईसाणगदेवाणं पज्जत्तापञ्जताणं ठाणा पाचा, तिमुवि लोगस्स असंखेजइभागे, सेस जहा सोहम्मगदेवाणं जाव विहरंति, ईसाणे इत्थ देविदे देवराया परिवसइ, सूलपाणी वसहवाहणे उत्तरहुलोगाहिवई अहावीसविमाणावाससयसहस्साहिबई अरयंवरवस्थधरे सेसं जहा सकस्स जाव पभासेमाणे, से ण तत्थ अहावीसाए विमाणावाससयसहस्साणं असीईए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीर्ण सपरिवरााणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सचण्हं अणियाहिवईणं चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसि च बहूर्ण ईसाणकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव विहरह । कहि णं मंते । सर्णकुमारदेवार्ण पजचापजताणं ठाणा पनत्ता, कहिणं भंते । सर्णकुमारा देवा परिवसति ?, गोयमा सोहम्मस्स कप्पस्स उम्पि सपक्खि सपडिदिसि बहुई जोयणाई बहूई जोयणसयाई गहुई जोयणसहस्साई बहई जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ
दीप अनुक्रम [२२८-२३४]
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P
SHRELIEOfuntifiliaTALE
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशकः [-, ---------- दारं [-], ---------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
२ स्थानपदे सनकुमारादिस्थान
[५३]
easesee
॥१०॥
गाथा:
जोयणकोडाकोडीओ उहुं दूरं उप्पइत्ता एत्थ ण सर्णकुमारे णामं कप्पे प० पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे, तत्थ णं सर्णकुमाराणं देवाणं वारस विमाणावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया जाव पडिरूवा, तेसिणं विमाणाणं बहुमझदेसभागे पंच वडिंसगा पत्रचा, तंजहा–असोगवडिंसए सत्तवनवडिंसए चंपगडिसए चूयवडिसए मज्झे एत्थ सणकुमारवडिंसए, ते णं बडिसया सबरयणामया अच्छा जाव पटिस्वा, एत्थ णं सर्णकुमारदेवाणं पञ्जसापज्जचाणं ठाणा पनत्ता, तिसुवि लोगस्स असंखेअइभागे, तत्थ णं बहवे सणकुमारदेवा परिवसंति, महिहिया जाव पभासेमाणा विहरंति, नवरं अग्गमहिसीओ णत्थि, सर्णकुमारे इत्थ देविदे देवराया परिवसइ, अरयंबरवत्थधरे, सेसं जहा सकस्स, से णं तत्थ वारसण्हं विमाणावाससयसहस्साणं वावचरीए सामाणियसाहस्सीणं सेसं जहा सकस्स अग्गमहिसीवजं, नवरं चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव विहरइ ।। कहिणं मंते । माहिंददेवाणं पजत्तापजनाणं ठाणा पबत्ता, कहि णं भंते ! माहिंदगदेवा परिवति', गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव बहुयाओ जोयणकोडाकोडीओ उडे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं माहिदे नामं कप्पे प० पाईणपडीणायए, जाव एवं जहेव सर्णकुमारे, नवरं अह विमाणावाससयसहस्सा, वडिंसया जहा ईसाणे, नवरं मज्झे इत्थ माहिंदवडिंसए, एवं जहा सर्णकुमाराणं देवाणं जाव विहरंति, माहिंदे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सर्णकुमारे जाव विहरइ, नवरं अट्टहँ विमाणावाससयसहस्साणं सत्चरिए सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव विहरई ॥ कहि णं मेंते ! भलोगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं
दीप अनुक्रम [२२८-२३४]
॥१०॥
SARERatun intnhatarna
awralariasurary.orm
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३]
गाथा:
ठाणा पबत्ता, कहि णं भंते ! बंभलोगदेवा परिवसंति, गोयमा ! सणकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं उपि सपक्खि सपडिदिसि पहुई जोयणाई जाव उप्पइचा एत्थ णं बंभलोए नाम कप्पे पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पडिपुनर्चदसंठाणसंठिए अचिमालीभासरासिप्पभे, अबसेसं जहा सणकुमाराणं, नवरं चत्वारि विमाणावाससयसहस्सा वडिंसया जहा सोहम्मवडिंसया नवरं मज्झे इत्थ भलोयवडिंसए, एत्थ णं बंभलोगदेवाणं ठाणा पचत्ता, सेसं तहेव जाव विहरति, बंमे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ अरयंचरवत्थधरे एवं जहा सणकुमारे जाब विहरइ, नवरं चउण्हं विमाणावाससक्सहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्डं सट्ठीए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूर्ण जाव विहरइ ।। कहि णं भंते। लतगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नता, कहिणं भंते! लतगदेवा परिवसंति ?, गोयमा! बंभलोगस्स कप्पस्स उप्पि सपक्पि सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डे दूरं उप्पहत्ता एत्थ णं लंतए नाम कप्पे पत्रचे पाईणपडीणायए जहा बंभलोए, नवरं पण्णासं विमाणावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खायं, बर्डिसगा जहा हेसाणवडिंसगा नवरं मज्झे इत्थ लंतगवडिसए देवा तहेब जाब विहरंति, लतए एत्थ देविदे देवराया परिवसइ, जहा सर्णकुमारे, नवरं पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं पण्णासाए सामाणियसाहस्सीणं चउणह य पण्णासाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसिं च बहूर्ण जाव विहरइ । कहिणं भंते ! महासुकाणं देवाण पजत्तापञ्जचाणं ठाणा पनत्ता, कहि णं भंते! महामुका देवा परिवसंति, गोयमा! लंतगस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि जाब उप्पइत्ता एत्थ णं महासुके नाम कप्पे पत्रने पाईणपडीणायए उदाणदाहिणविच्छिण्णे, जहा बंभलोए, नवरं चत्तालीसविमाणावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खार्य, वडिंसगा जहा सो
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दीप अनुक्रम [२२८-२३४]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[43]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२२८
-२३४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [२],
------------ उद्देशकः [-], दारं [-], -------- - मूलं [ ५३ ] + गाथा : ( १४६ - १४९) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥१०३॥
Education In
हम्मवर्डिसगा, नवरं मशे इत्थ महासुकवर्डिसए जाव विहरति, महासुके इत्थ देविंदे देवराया जहा सणकुमारे, नवरं: चचालीसार विमाणावाससहस्साणं चत्तालीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य चत्तालीसाणं आयरक्खदेवसाहस्तीर्ण जाव विहरइ ॥ कहि गं भंते! सहस्सारदेवाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पनत्ता ?, कहि णं मंते ! सहस्सारदेवा परिवसंति ?, गोयमा ! महासुकस्स कप्पस्स उपि सपक्खि सपडिदिसिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं सहस्सारे नामं कप्पे पत्ते पाईणपडीणायए, जहा बंभलोए, नवरं छविमाणावाससहस्सा भवन्तीतिमक्खायं देवा तहेव, जाव वर्डिसगा जहा ईसाणस्स वर्डिसगा नवरं मझे इत्थ सहस्सारवर्डिसए जाव विहरंति, सहस्सारे इत्थ देविंदे देवराया परिवसह जहा सणकुमारे, नवरं लहं विमाणावाससहस्साणं तीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ड यतीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव आहेवचं कारेमाणे विरह || कहि णं भंते! आणयपाणयाणं देवाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पत्रत्ता १, कहि णं मंते ! आणयपाणया देवा परिवति १, गोयमा ! सहस्सारस्स कप्पस्स उपि सपर्किख सपडिदिसिं जाव उप्पहत्ता एत्थ णं आणयपाणयनामा दुबे कप्पा पत्ता पाईणपडीणायया उदीर्णदाहिणविच्छिष्णा अर्द्धचंदसंठाणसंठिया अचिमालीभासरासिष्पभा, सेसं जहा सणंकुमारे जान पडिरूवा, तत्थ णं आणयपाणयदेवाणं चत्तारि विमाणावाससया भवन्तीतिमक्खायं जान पडिरूवा, वडिंगा जहा सोहम्मे कप्पे, नवरं मज्झे इत्थ पाणयवडिंसए, ते णं वर्डिसमा सङ्घरयणामया अच्छा जान पडिरूवा, एत्थ णं आणपाणयदेवाणं पत्ता पत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तिसुचि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे आणयपाणयदेवा परिवसंति महिड्डिया जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयाणं जाव विहरंति, पाणए इत्थ देविंदे देवराया.
For Parts Only
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२ स्थानपदे ईशानादिस्था
नं सू. ५
॥१०३॥
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३]
गाथा:
परिवसइ जहा सणंकुमारे, नवरं चउण्हं विमाणावाससयाणं वीसाए सामाणियसाहस्सीणं असीईए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अग्नेसिं च बहूर्ण जाव विहरह।। कहिणं भंते ! आरणजुयाणं देवाणं पज्जत्तापजचाणं ठाणा पनत्ता, कहि णं भंते ! आरणजुया देवा परिवति', गोयमा ! आणयपाणयाणं कप्पाणं उपि सपक्खि सपडिदिसि एत्थ णं आरणचुया नाम दुवे कप्पा पन्नचा, पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया अचिमालीभासरासिवण्णाभा असंखिजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखिजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवणं सबरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा महा नीरया निम्मला निप्पका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरिया सउओया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं आरणचुयाण देवाणं तिनि विमाणावाससया भवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा सबरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पमा सस्सिरिया सउज्जोया पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा, तेसिणं विमाणाणं कप्पाणं बहमज्झदेसमाए पंच बर्टिसया पन्नत्ता, तंजहा-अंकवार्डिसए फलिहवर्डिसए रयणवडिंसए जायरूवबार्डिसए मज्झे एत्थ अचुयवडिसए, ते ण वडिसया सवरयणामया जाव पडिरूवा, एत्थ णं आरणचुयाणं देवाणं पज्जतापजत्ताणं ठाणा पन्नता, तिसुवि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं यह आरणजुया, देवा परिवसति, अचुए इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, जहा पाणए जाव विहरइ, नवरं तिहं विमाणावाससयाणं दसण्ह सामाणियसाहस्सीणं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं आहेबच्चं कुबमाणे जाव विहरइ । बत्तीसअट्ठवीसा वारसअचउरो (य)सयसहस्सा । पन्ना चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥१४६॥ आणयपाणयकप्पे चचारि सयारणचुए तिनि । सत्त
दीप अनुक्रम [२२८-२३४]
सरकारलाner
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[43]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२२८
-२३४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [२],
------------- FÈRT: [-], ---------- ¿T2 [-], ------------ - मूलं [ ५३ ] + गाथा : ( १४६ - १४९) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥१०४॥
विमाणसयाई चउसुविएएस कप्पेसु || १४७ || सामाणियसंगहणीगाहा-चउरासीई असीई बावचरी सत्तरी व सट्ठी य । पन्ना चालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा || १४८ ॥ एए चैव आयरक्खा चउग्गुणा । कहि णं भंते! हिद्विमगे विज्जगाणं पज्जत्तापअत्ताणं ठाणा पत्रता ?, कहि णं भंते ! हिडिमगेविजगा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! आरणचयाणं कप्पाणं उपिं जाव उहं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं हिहिमगेविज्जगाणं देवाणं तओ गेविज्जगविमाणपत्थडा पनत्ता पाईणपडीणायया उदीणदा हिणविच्छिन्ना पडिपुत्रचंद संठाणसंठिया अचिमालीभासरासिवण्णाभा सेसं जहा बंभलोगे जाव पडिरूवा, तत्थ णं हेट्ठिमगेविज्जगाणं देवाणं एकारसुत्तरे विमाणावाससए भवन्तीतिमवखायं, ते णं विमाणा सहरयणामया जाव पडिरूवा, एस्थ हिमगेविज्जगाणं देवाणं पज्जचापज्जचाणं ठाणा पन्नचा, तिसुवि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे हेडिमगेविज्जगा देवा परिवति, सबै समिडिया सबै समज्जुइया सबै समजसा सबै समवला सबै समाणुभावा महासुक्खा अनिंदा अपेसा अपुरोहिया अहमिंदा नाम ते देवगणा पत्ता समणाउसो ! | कहि णं भंते! मज्झिमगाणं गेविज्जगाणं देवाणं पज्जत्तापज्जचाणं ठाणा पन्नत्ता १, कहि णं भंते ! मज्झिमगेविजगा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! हेट्ठिमगेविजगाणं उपि सपर्विख सपडिदिसिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं मज्झिमगेविजगदेवाणं तओ गेविजगाणं पत्थडा पन्नत्ता, पाईणपडीया जहा द्विमविज्जगाणं, नवरं सत्तुत्तरे विमाणावाससए हवन्तीतिमक्खायं, ते णं विमाणा जाब पढिरुवा, एत्थ णं मज्झिमगेविज्जगाणं जाब तिसुषि लोगस्स असंखिज्जइभागे, तत्थ णं बहवे मज्झिमगेचिज्जगा देवा परिवसंति जान अहमिंदा नाम ते देवगणा पनत्ता समणाउसो ! ।। कहि गं भंते ! उवरिमगेविजगाणं देवाणं पञतापज्जत्ताणं ठाणा पत्र
For Parts Only
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১৩১৬১৩১/29/20/2
२ स्थानपदे ईशानादिस्थानंसू. ५३
॥ १०४॥
yor
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशकः [-, ---------- दारं [-], ---------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
CC
प्रत सूत्रांक [५३]
गाथा:
ता?, कहि णं भंते ! उबरिमगेविज्जए देवा परिवसति?, गोयमा ! मज्झिमगेविजगाणं उप्पि जाव उप्पइचा एत्थ ण उवरिमगेविनगाणं तओ गेविजगविमाणपत्थडा पन्नता पाईणपडीणायया सेसं जहा हेद्विमगेविअगाणं, नवरं एगे विमागावाससए भवन्तीतिमक्खायं, सेसं तहेव भाणियई जाव अहमिंदा नामं ते देवगणा पन्नत्ता समणाउसो!| एकारसुत्रं हेडिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए। सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुचरविमाणा ॥१४९॥ कहिणं भंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पजत्तापञ्जताणं ठाणा पत्रचा?, कहि ण भंते ! अणुत्तरोवाइया देवा परिवसंति',गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उड्डे चंदिममूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं चहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहुई जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उहंदूर उप्पहत्ता सोहम्मीसाणसणंकुमार जाव आरणअधुयकप्पा तिनिअट्ठारसुत्तरे गेषिजगषिमाणावाससए वीइवहत्ता तेण पर दूरंगया नीरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसि पंच अणुचरा महइमहालया महाविमाणा पन्नता, तंजहा--विजए वेजयंते जयंते अपराजिए सबट्टसिद्धे, ते ण विमाणा सबरयणामया अच्छा सोहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पं का निकंकडच्छाया सप्पमा सस्सिरिया सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्तापजसाणं ठाणा पन्नता, तिसुपि लोगस्स असंखेजहभागे, तत्थ णं यहवे अणुचरोववाइया देवा परिवसंति, सो समिड्डिया सो समवला सो समाणुभावा महासुक्खा अणिंदा अप्पेस्सा अपुरोहिया अहमिदा नाम ते देवगणा पन्नत्ता समणाउसो! ॥ (५०५३)
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[ ५३ ]
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दीप
अनुक्रम
[२२८
-२३४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [२],
------------- FÈRT: [-], ---------- ¿T2 [-], ------------ - मूलं [ ५३ ] + गाथा: ( १४६ - १४९) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
सनत्कुमारकल्पे 'सपक्खि सपडिदिसं'ति समानाः पक्षाः - पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः पार्श्वा यस्मिन् दूरमुत्पतने तत्सपक्षं 'समानस्य धर्मादिषु चे' ति समानस्य सभावः 'सपडिदिसिं 'ति समानाः प्रतिदिशो - विदिशो यत्र तत् य० वृत्ती. ॐ सप्रतिदिक् ॥ सामानिकसंग्रहणीगाथा 'चउरासीद्द' इत्यादि, सौधर्मेन्द्रस्य चतुरशीतिः सामानिकसहस्राणि ईशाने
याः मल
॥१०५॥
Jan Eucator
न्द्रस्याशीतिः सनत्कुमारेन्द्रस्य द्वासप्ततिः माहेन्द्र देवराजस्य सप्ततिः त्रह्मलोकेन्द्रस्य षष्टिः लान्तकेन्द्रस्य पञ्चाशत् ११ महाशुक्रेन्द्रस्य चत्वारिंशत् सहस्रारेन्द्रस्य त्रिंशत् आनतप्राणतेन्द्रस्य विंशतिः आरणाच्युतेन्द्रस्य दश सामानिकसह४ साणि, अवतंसकाश्चातिदेशेनोक्ता इति दुखबोधाः ततो विनेयजनानुग्रहार्थं वैवितयेन मूलत आरभ्योपदर्श्यन्ते - सौधर्मे पूर्वस्यामशोकावतंसकः दक्षिणतः सप्तपर्णावतंसकः पश्चिमायां चम्पकावतंसकः उत्तरतभूतावतंसकः मध्ये सौधर्मावतंसकः एवं पूर्वादिक्रमेण ईशाने अङ्कावतंसकः स्फटिकावतंसको स्लावतंसको जातरूपावतंसकः मध्ये ईशानावतंसकः, सनत्कुमारे अशोकसप्तपर्णचंपक चूतसनत्कुमारावतंसकाः, माहेन्द्रे अङ्कस्फटिकरलजातरूपमाहेन्द्रावतंसकाः, ब्रह्मलोके अशोकसप्तपर्णचम्पक चूतत्रह्मलोकावतंसकाः, लान्तके अङ्कस्फटिकरलजातरूपलान्तकावतंसकाः, महाशुक्रे अशोकसप्तपर्णचम्पकचूत महाशुक्रावतंसकाः, सहस्रारे अङ्कस्फटिकरत्नजातरूपसहस्रारावतंसकाः, प्राणते अशोकसप्तपर्णचम्पकचूतप्राणतावतंसकाः, अच्युते अङ्कस्फटिकरत्नजातरूपअच्युतावतंसका इति ॥ ग्रैवेयकसूत्रे 'समिहिया' समा ऋद्धिर्येषां ते समर्द्धिकाः, एवं 'समज्जुइया' इत्याद्यपि भावनीयं, 'अनिंदा' इति न विद्यते इन्द्रः-
For Pernal Use Only
~ 222~
२ स्थान
पदे ईशा'नादिस्थानं सू. ५३
॥१०५॥
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [५३] + गाथा:(१४६-१४९) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [५३]
गाथा:
अधिपतिर्येषां ते अनिन्द्राः 'अपेस्सा' इति न विद्यते प्रेष्यः-प्रेष्यत्वं येषा ते अप्रेष्याः 'अपुरोहि या इति न विद्यते पुरोहितः-शान्तिकर्मकारी येषां अशान्तेरभावात् ते अपुरोहिताः, किंरूपाः पुनस्ते ? इत्याह-अहमिन्द्रार नाम ते देवगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ॥
कहि णं मंते ! सिद्धाणं ठाणा प० कहिणं मंते ! सिद्धा परिवसंति, गोयमा ! सबढसिद्धस्स महाविमाणस्स उवरिल्लाओ धूभियग्गाओ दुवालस जोयणे उहुं अबाहाए पत्थ णं ईसीपन्भारा गाम पुढवी पत्रचा, पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई तीसं च सहस्साई दोनि य अउणापने जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं पनत्ता, ईसिपब्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अहजोयणिए खेते अट्ठ जोयणाई चाहल्लेणं पन्नते, तओ अणंतरं च णं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणी परिहायमाणी सबेसु चरमंतेसु मच्छियपत्ताओ तणुययरी अंगुलस्स असंखेजइभार्ग बाहल्लेणं पत्रचा, ईसीपन्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधिज्जा पत्रचा, तंजहा-ईसि इ वा ईसीपन्भारा इ वा तण इ वा तणुतण इ वा सिद्धिति वा सिद्धालए वा मुत्तित्ति वा मुत्तालए इवा लोयग्गेत्ति वा लोयग्गधूभियत्ति वा लोयग्गपडिवुज्झणा इ वा सबपाणभूयजीवसत्तमुहावहा इवा, इसीपब्भाराणं पुढवी सेया संखदलविमलसोस्थियमुणालदगरयतुसारगोक्खीरहारवण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सबज्जुणसुवनमई अच्छा. सण्हा लण्हा पहा महा नीरया निम्मला नियंका निकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरिया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा
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दीप अनुक्रम [२२८-२३४]
REaraturinatana
अथ सिद्ध-जीवानाम् स्थानानि कथ्यते
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प्रत
सूत्रांक
[ ५४ ]
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गाथा:
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [२],
------------- FÈRT: [-], ---------- ¿T2 [-], ------------ - मूलं [ ५४ ] + गाथा : (१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥१०६ ॥
Eucation Th
अभिवा पडिवा, ईसीप भाराए णं पुढवीए सीआए जोयणम्मि लोगंतो तस्स णं जोयणस्स जे से उबरले गाउ तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिछे छन्भागे एत्थ णं सिद्धा भगवंतो साइया अपज्जवसिया अणेगजाइजरामरणजोणिसंसारकलंकली भावपुण भवगन्भवासवसहीपर्वचसमइकंता सासयमणागवद्धं कालं चिट्ठति, तत्थवि य ते अवेया अवेयणा निम्ममा असंगा य संसारविष्यमुक्का पएसनिवत्तसंठाणा । कहिं पहिया सिद्धा, कहिं सिद्धा पट्टिया । कहिं बोंदिं चत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ १ ॥ १५० ॥ अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइद्विया । इहं बौदि चहत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झइ ॥ १५१ ॥ दीहं वा हस्सं वा जं चरिमभवे हविज्ज संठाणं । तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥ १५२ ॥ जं संठाणं तु इदं भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि । आसी य पदेसघणं तं संठाणं तर्हि तस्स ॥ १५३ ॥ तिन्नि सया तित्तीसा धणुत्तिभागो य होइ नायवो । एसा खलु सिद्धाणं उकोसोगाइणा भणिया ॥ १५४ ॥ चत्तारि य रयणीओ रयणी विभागूणिया य बोद्धवा । एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया ॥ १५५॥ एगा य होइ रयणी अद्वेव य अंगुलाई साहि (ब) या । एसा खलु सिद्धाणं जहनओगाहणा भणिया ।। १५६।। ओगाहणाइ सिद्धा भवतिभागेण होंति परिहीणा । संठाणमणित्थंथं (ग्रन्था० १५००) जरामरविप्पमुकाणं ॥ १५७ ॥ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का | अन्नोऽन्नसमोगाढा पुट्ठा सबैवि लोगंते ॥ १५८ ॥ फुस अनंते सिद्धे सवपसेहिं नियमसो सिद्धा । तेऽवि य असंखिज्जगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा || १५९|| असरीरा जीवघणा उवत्ता दंसणे य नाणे य । सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ १६० ॥ केवलनाणुवउत्ता जाणता सवभावगुणभावे । पासंता सबओ खलु केवल दिडीहिताहिं ॥ १६९ ॥ नवि अस्थि माणुसाणं तं सुक्खं नवि य सङ्घदेवाणं । जं सिद्धाणं
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२ स्थान
पदे सिद्धस्थानादि
सू. ५४
॥१०६ ॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक [१४]
गाथा:
सुक्खं अबाबाह उवगयाणं ॥१६२॥ सुरगणमुहं समत्तं सबद्धवापिंडियं अणतगुणं । नवि पावद मुत्तिसुहं गताहिं चग्गवग्गृहि ॥१६३॥ सिद्धस्स सुहोरासी सबद्धवापिंडिओ जइ हवेजा । सोऽयंतवग्गभइओ सबागासे न माइजा ॥१६४ ॥ जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। न चएइ परिकहेउं उबमाएँ तर्हि असंतीए ॥१६५॥ इस सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं नत्थि तस्स ओवम्मं । किंचि विसेसेणिचो सारिक्खमिणं सुणह बोच्छं ।। १६६ ॥ जह सबकामगुणियं पुरिसो भोत्तण भोयणं कोई । तण्हाछुहाविमुक्को अच्छि ज जहा अमियतित्तो ।। १६७॥ इय सबकालतित्ता अतुलं निवाणमुवगया सिद्धा। सासयमवाबाहं चिट्ठति सुही मुहं पत्ता ।।१६८॥ सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य पारगयत्ति । य परंपरगपति उम्मुक्तकम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥ १५९ ॥ निच्छिन्नसबदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अबाबाह सोक्खं अणुहौती सासर्य सिद्धा॥
(मू०५४) इति बितीयं ठाणपयं सम्मत्तं ॥२॥ II सिद्धसूत्रे 'एगा जोयणकोडी' इत्यादि परिरयपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुण.' इत्यादिकरणवशात् खयमानेतव्यं,
सुगमत्वात् , क्षेत्रसमासटीका वा परिभावनीया, तत्र पञ्चचत्वारिंशलक्षप्रमाणविष्कम्भमनुष्यक्षेत्रपरिरयस्य एतावत्प्रमाणस्य सविस्तरंभावितत्वात् , तस्याश्च ईपत्प्राग्भारायाः पृथिव्याः बहुमध्यदेशभागे अष्टयोजनिकम्-आयामविष्कम्भाभ्यामष्टयोजनप्रमाणं क्षेत्रं च, अष्टौ योजनानि बाहल्येन चोचत्वेन-उच्चस्त्वेनेति भावः, प्रज्ञप्ता, तदनन्तरं सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च मात्रया स्तोकया स्तोकया प्रदेशपरिहान्या परिहीयमाना सर्वेषु चरमान्तेषु मक्षिकापत्रतोऽप्यतितन्वी अङ्गुला
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [५४] + गाथा:(१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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२ स्थान
सत्राक
प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती.
[१४]
॥१०७॥
गाथा:
संख्येयभागं बाहल्येन प्रज्ञप्ता, स्थापना--1ईसि इ वा' इति, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् १ ईषत्याग्माराइति वा 'तणु इत्ति वा' तन्वी वा शेपपृथिव्यपेक्षयातितनुत्वात् ३ 'तणुतणूइत्ति वा' इति तनुभ्योऽपि जगत्प्रसिद्धेभ्यस्तन्वी पदे सिद्धमक्षिकापत्रतोऽपि पर्यन्तदेशेऽतितनुत्वात् तनुतन्वी ४'सिद्धिरिति वा' सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नत्वात् ५'सिद्धालय इति स्थानादिवा' सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नतयोपचारतः सिद्धानामालयः सिद्धालयः६ एवं मुक्तिरिति वा मुक्तालय इति वेत्यपि परिभावनीयं तथा लोकाने वर्तमानत्वात् लोकाग्रमिति ९ लोकाग्रस्य स्तूपिकेच लोकाग्रस्तूपिका १० तथा लोकाग्रेण प्रत्यूबते इति लोकाग्रप्रतिवाहिनी ११'सबपाणभूयजीवसत्तसुहावहां' इति प्राणा-द्वित्रिचतुरिन्द्रिया इति भूताः-तरवः। जीवाः-पञ्चेन्द्रियाः शेषाः प्राणिनः सत्त्वाः, उक्तं च-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सरया उदीरिताः॥१॥" सर्वेषां प्राणभूतजीवसत्त्वानां सुखावहा उपद्रवकारित्वाभावात् सर्वप्राण-INI भूतजीवसत्त्वसु खावहा १२सा च ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी श्वेता. श्वेतत्वमेवोपमया प्रकटयति-संखदलविमल' इत्यादि। शङ्खदलस्य-शङ्खदलचूर्णस्य विमलो-निर्मला खस्तिकः शङ्खदलविमलखस्तिकः स च मृणालं च दकरजश्च तुषारं च हिमं च गोक्षीरं च हारश्च तेषामिव वर्णो यस्याः सा तथा, उत्तानकं-उत्तानीकृतं यत् छत्रं तस्य यत्संस्थानं तेन सं- १०७॥ स्थिता उत्तानकच्छत्रसंस्थानसंस्थितत्वं च प्रागुपदर्शितस्थापनातोभावनीयं । 'सबज्जुणमुवन्नमयी' सर्वात्मना श्वेतसु-18 वर्णमयी 'ईसीपभाराए णं' इत्यादि ईपत्प्राग्भारायाः पृथिव्या ऊवं 'सीयाए' इति निःश्रेणिगत्या योजने लोका
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[१४]
गाथा:
तो भवति, तस्य च योजनस्य यदुपरितनं गच्यूतं चतुर्थे तस्य च गन्यूतस्य यः सर्वोपरितनो षड्भागो अत्र 'ण'N इति वाक्यालङ्कारे सिद्धा भगवन्तः सादिकाः कर्मक्षयानन्तरं सिद्धत्वभावात्, एतेन अनादिशुद्धपुरुषप्रवादप्रतिक्षेप आवेदितो द्रष्टव्यः, अपर्यवसिता रागाद्यभावेन प्रतिपातासंभवात्, रागादयो हि सिद्धत्वाच्यावयितुं प्रभविष्णवः, न च ते भगवतां सन्ति, तेषां निर्मूलकापंकषितत्वात्, न च निर्मूलकाकपिता अपि भूयः प्रादुर्भवन्ति, बीजाभावादिति, तथा अनेकैर्जातिजरामरणैः-जन्मजरामृत्युभिर्यश्च तासु तासु योनिषु संसारः-संसरणं तेन च यः कलं-18 कलीभावः-कदर्यमानता यश्च दिव्यसुखमनुप्राप्तानामपि पुनर्भवे-संसारे गर्भवसतिप्रपञ्च ती समतिक्रान्ता अत। एव शाश्वतमनागतं कालं तिष्ठन्ति, 'तत्ववि य ते अवेया' इत्यादि, तत्रापि च-सिद्धक्षेत्रे गताः सन्तस्ते-भगवन्तः 'अवेदाः' पुरुषवेदादिवेदरहिताः 'अवेदना' सातासातवेदनाभावात् 'निर्ममा' ममत्वरहिताः 'असंगा' बाया
भ्यन्तरसकरहिताः, कस्मादेवम् ? अत आह-'संसारविप्रमुक्ताः' हेतौ प्रथमा, यतः संसाराद विप्रमुक्तास्तस्मादवेदा I अवेदना निर्ममा असनाच, पुनः कथंभूताः १ इत्याह 'पएसनिवत्तसंठाणा' प्रदेशः-आत्मप्रदेशैन तु बायपुद्गलैः
शरीरपञ्चकस्यापि सर्वात्मना त्यक्तत्वात् निवृत्त-निष्पन्न संस्थानं येषां ते प्रदेशनिवृत्तसंस्थानाः, अत्र शिष्यः पृच्छन्नाह'कहिं पडिहया सिद्धा' इत्यादि कहि' इत्यत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् , यथा 'तिसु तेसु अलंफिया पुढवी' इत्यादि, ततोऽयमर्थः-केन प्रतिहताः-केन स्खलिताः सिद्धा:-मुक्ताः, तथा क-कस्मिन् स्थाने सिद्धाः प्रतिष्ठिताः
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सत्रांक
[१४]
गाथा:
प्रज्ञापना
Nअवस्थिताः, तथा क-कस्मिन् क्षेत्रे बोन्दिस्तनुः शरीरमित्यनान्तरम् तां त्यक्त्वा क गत्वा सिद्ध्यन्ति !-निष्ठि-२ स्थानयाः मल- तार्था भवन्ति ?, 'सिज्झई' इत्यत्रानुखारलोपो द्रष्टव्यः, अथवा एकवचनोपन्यासोऽपि सूत्रशैल्या न विरोधभार, पदे सिद्धयवृत्ती. तथा चान्यत्राऽप्येवं प्रयोगः-"वस्थगन्धमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्तिस्थानादि
वुच ॥१॥" इति, एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सूरिराह-'अलोए पडिहया सिद्धा' इत्यादि, अत्रापि सप्तमी तृती-N सू. ५४ ॥१०८॥
यार्थे, अलोकेन-केवलाकाशास्तिकायरूपेण प्रतिहताः-स्खलिताः सिद्धाः, इह तत्र धर्मास्तिकायाद्यभावात् तदानस्तवृत्तिरेव प्रतिस्खलनम्, न तु संबन्धे सति विघातः, अप्रतिघत्वात् , सप्रतिघानां हि संबन्धे सति विघात, नान्येपामिति, तथा लोकस्य-पश्चास्तिकायात्मकस्याग्रे-मूर्धनि प्रतिष्ठिता:-अपुनरागत्या व्यवस्थिताः, तथा इह मनुप्यलोके बोन्दी-तनुं त्यक्त्वा तत्र-लोकाग्रे समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेन गत्वा सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति । सम्प्रति तत्रगतानां यत्संस्थानं तदभिधित्सुराह-दीहं या हस्सं वा' इत्यादि, दीघ वा-पञ्चधनुःशतप्रमाणं इखं वा-हस्तद्वयप्रमाणं वाशब्दाद् मध्यम वा विचित्रं यचरमभवे-पश्चिमभवे भवेत् संस्थानं ततः-तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना-बदनोदरादिरन्धपूरणेन तृतीयभागेन हीना सिद्धानामवगाहना, अवगाहन्तेऽस्यामित्यवगाहना-खा-
1 १०॥ वस्थैव भणिता तीर्थकरगणधररिति, अत्रगतसंस्थानप्रमाणापेक्षया त्रिभागहीनं तत्र संस्थानमिति भावः ॥ एतदेव स्पष्टतरमुपदर्शयति-जं संठाणं तु इह' इत्यादि, यत्संस्थान-यावत्प्रमाणं संस्थानं इह-मनुष्यभवे आसीत् तदेवी
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गाथा:
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [२], -------------- 3ÈRIT: [-], ---------- GT2 (-), ------------ - मूलं [ ५४ ] + गाथा: (१५०- १७०) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्र.१९
भवन्ति प्राणिनः कर्मवशवर्तिनोऽस्मिन्निति भवं शरीरं त्यजतः परित्यजतः, काययोगं परिजिहानस्येति भावः, चरमसमये सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानवलेन वदनोदरादिरन्त्रपूरणात् त्रिभागेन हीनं प्रदेशधनमासीत्, 'तं संठाणं तहिं तस्स' इति तदेव च प्रदेशचनं मूलप्रमाणापेक्षया त्रिभागहीनप्रमाणं संस्थानं तत्र - लोकाग्रे तस्य - सिद्धस्य, नान्यदिति ॥ साम्प्रतमुत्कृष्टावगाहनादि भेदभिन्नामवगाहनामभिधित्सुराह - 'तिन्नि सया तेत्तीसा' इत्यादि, त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुविभागश्च भवति बोद्धव्या, एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टावगाहना भणिता तीर्थकरगणधरैः, सा च पञ्चधनुःशततनुकानामवसेया, ननु मरुदेवी नाभिकुलकरपली, नाभेश्च पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चधनुःशतानि शरीरप्रमाणं यदेव च तस्य शरीरमानं तदेव मरुदेवाया अपि, 'संघयणं संठाणं उच्चत्तं चैव कुलगरेहिं समं' इति वचनात् मरुदेवी भगवती च सिद्धा, ततस्तस्या देहमानस्य त्रिभागे पातिते सिद्धावस्थायाः सार्धानि त्रीणि धनुःशतान्येवावगाहना प्राप्नोति, कथमुक्तप्रमाणा उत्कृष्टावगाहना घटते १ इति, नैष दोषः, मरुदेवाया नाभेः किञ्चिदूनप्रमाणत्वात्, स्त्रियो सुत्तमसंस्थाना उत्तमसंस्थानेभ्यः पुरुषेभ्यः खखकाला|पेक्षया किञ्चिदूनप्रमाणा भवन्ति, ततो मरुदेवाऽपि पञ्चधनुः शतप्रमाणेति न कश्चिद्दोषः, अपिच - हस्तिस्कन्धाधिरूढा संकुचिताङ्गी सिद्धा ततः शरीरसंकोचभावाद् नाधिकावगाहनासंभव इत्यविरोधः, आह च भाष्यकृत्|" कह मरुदेवामाणं ? नाभीतो जेण किञ्चिदूणा सा । तो किर पंचसयचिय अहवा संकोचत्रो सिद्धा ॥ १ ॥”
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पदं [२],
------------- FÈRT: [-], ---------- ¿T2 [-], ------------ - मूलं [ ५४ ] + गाथा : (१५०- १७०) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
॥१०९ ॥
प्रज्ञापना- 'चत्तारि रयणीओ' इत्यादि, चतस्रो रत्नयो रतिश्च त्रिभागोना च सा बोद्धव्या एषा खलु सिद्धानामवगाहना : - भणिता मध्यमा । आह - जघन्यपदे सप्तहस्तोच्छ्रितानामागमे सिद्धिरुक्ता, तत एषा जघन्या प्राप्नोति, कथं य० वृत्ती. १ मध्यमा १, तदयुक्तं, वस्तुतच्चापरिज्ञानात्, जघन्यपदे हि सप्तहस्तानां सिद्धिरुक्ता तीर्थकरापेक्षया, सामान्यकेवलिनां तु हीनप्रमाणानामपि भवति, इदमपि चावगाहनामानं चिन्त्यते सामान्यसिद्धापेक्षया, ततो न कश्चिद्दोषः । 'एगा य होइ' इत्यादि, एका रत्त्रिः परिपूर्णा अष्टौ चाङ्गुलान्यधिकानि एषा भवति सिद्धानामवगाहना जघन्या, सा च कूर्मापुत्रादीनां द्विहस्तानामवसेया, यदिवा सप्तहस्तोच्छ्रितानामपि यत्र पीलनादिना संवर्तितशरीराणां, आह च भाष्यकृत् - "जेडा उ पंचधणुसयतणुस्स मज्झा व सत्तहत्यस्स । देहत्तिभागहीणा जहन्निया जा बिहत्थस्स ॥ १ ॥ सत्तूसियएस सिद्धी जहन्नओ कहमिदं विहत्थे ? । सा किर तित्थयरेसुं सेसाणं सिज्झमाणाणं ॥ २ ॥ ते पुण होज विहत्था कुम्मापुत्तादयो जहन्त्रेणं । अन्ने संवट्टियसत्तहत्थसिद्धस्स हीणत्ति ॥ ३ ॥” साम्प्रतमुक्तानुवादेनैव संस्थानलक्षणं सिद्धानामभिधित्सुराह -- ' ओगाहणाओ' इत्यादि, सुगमं, नवरं 'अनित्थंथं' इति इदंप्रकार मापन्नमित्थं इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थं अनित्थंस्थं - वदनादिशुषिरप्रतिपूरणेन पूर्वाकारान्यथाभावतोऽनियता कारमिति भावः, योऽपि च सिद्धादिगुणेषु 'सिद्धे न दीहे न हस्से' इत्यादिना दीर्घत्वादीनां प्रतिषेधः कृतः सोऽपि पूर्वाकारापेक्षया संस्थानस्यानित्थंस्थत्वात् प्रतिपत्तव्यो न पुनः सर्वथा संस्थानस्याभावतः, आह च भाष्यकृत् -
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पदे सिद्धाधिकारः सू. ५४
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गाथा:
HIमुंसिरपरिपूरणाओ पुषागारनहाववत्थाओ । संठाणमणित्थंत्थं जं भणियमणिययागारं ॥१॥ एत्तोचिय पडिसेहो।।
सिद्धाइगुणेसु दीहयाईणं । जमणित्थंथं पुवागाराविक्खाए नाभावो ॥२॥" नन्वेते सिद्धाः परस्परं देशभेदेन 81 व्यवस्थिता उत नेति !, नेति तद् ब्रूमः, कस्मादिति चेत्, 'जत्थ य' इत्यादि, यत्रैव देशे चशब्दस्य एवकारार्थत्वात् एकः सिद्धो-निर्वतस्तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ताः, अत्र भवक्षयग्रहणेन खेच्छया भवाषतरणशक्तिमत्सिद्धग्यवच्छेदमाह, अन्योऽन्यसमवगाढाः, तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वात् , धर्मास्तिकायादिवत्, तथा स्पृष्टा-लग्नाः सर्वेऽपि लोकान्ते । 'फुसई' इत्यादि, स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसंवन्धिभिनियमशः सिद्धः, तथा तेऽपि सिद्धाः सर्वप्रदेशस्पृष्टेभ्योऽसंख्येयगुणा वर्तन्ते ये देशप्रदेशैः स्पृष्टाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इहैकस्य सिद्धस्य । यदवगाहनक्षेत्र तत्रैकस्मिन्नपि परिपूर्णेऽवगाढा अन्येऽप्यनन्ताः सिद्धाः प्राप्यन्ते, अपरे तु ये तस्य क्षेत्रसैकैकं प्रदेशमाक्रम्यावगादास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिप्रदेशवृया येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, तथा तस्य मूलक्षेत्रस्यैकैकं प्रदेशं परित्यज्य येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिप्रदेशहान्या येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं सति प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां ये समयगाढास्ते परिपूर्णैकक्षेत्रावगाढेभ्योऽसंख्येयगुणा
१ शुषिरपरिपूरणात् पूर्वाकारान्यथाव्यवस्थातः । संस्थानमनित्यवं यद्भणितमनियताकारात् ॥ १॥ इत एव प्रतिषेधः सिद्धादिगुणेषु दीर्घत्वादीनाम् । यदनिधंस्थं पूर्वाकारापेक्षया नाभावः ॥ २॥
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[ ५४ ]
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [२], ------------- FÈRT: [-], ---------- ¿T2 [-], ------------ - मूलं [ ५४ ] + गाथा : (१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥११०॥
भवन्ति, अवगाढप्रदेशानामसंख्यातत्वात्, आह च - "एगवेत्तेऽणंता पएसपरिबुद्धिहाणिओ तत्तो । हुंति असंखेज्जगुणाऽसंखपएसो जमवगाढो ॥ १ ॥ " सम्प्रति सिद्धानेव लक्षणतः प्रतिपादयति- 'असरीरा' इत्यादि, अविद्यमानशरीरा अशरीरा औदारिकादिपञ्चविधशरीररहिता इत्यर्थः, जीवाश्च ते घनाव पदनोदरादिशुषिरपूरणात् जीवधना उपयुक्ता दर्शने— केवलदर्शने ज्ञाने च केवलज्ञाने यद्यपि सिद्धत्वप्रादुर्भावसमये केवलज्ञानमिति ज्ञानं प्रधानं तथाऽपि सामान्य सिद्धलक्षणमेतदिति ज्ञापनार्थमादौ सामान्यावलम्बनं दर्शनमुक्तं तथा च सामान्यविषयं दर्शनं विशेषविषयं ज्ञानमिति, ततः साकारानाकारं सामान्यविशेषोपयोगरूपमित्यर्थः, सूत्रे मकारोऽलाक्षणिको, लक्षणं तदन्यव्यावृत्तिख रूपमेतत्-अनन्तरोक्तं, तुशब्दो यक्ष्यमाणनिरुपमसुखविशेषणार्थ, सिद्धानां - निष्ठितार्थानामिति । सम्प्रति केवलज्ञान के वलदर्शन योरशेपविपयतामुपदर्शयति – 'केवलनाणुवउत्ता' इत्यादि, केवलज्ञानेनोपयुक्ता न त्वन्तःकरणेन तदभावादिति केवलज्ञानोपयुक्ता जानन्ति — अवगच्छन्ति सर्वभावगुणभावान् — सर्वपदार्थ - गुणपर्यायान् प्रथमो भावशब्दः पदार्थवचनः द्वितीयः पर्यायवचनः, गुणपर्याययोस्त्वयं विशेषः – सहवर्तिनो गुणाः क्रमवर्तिनः पर्याया इति, तथा पश्यन्ति सर्वतः खलु खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सर्वत एव, केवलदृष्टिभि रनन्ताभिः, अनन्तैः केवलदर्शनैरित्यर्थः, केवलदर्शनानां चानन्तता सिद्धानामनन्तत्वात्, इहादी ज्ञानग्रहणं प्रथम१ एकक्षेत्रेऽनन्ताः प्रदेशपरिवृद्धिहानितस्तस्मात् । भवन्त्यसंख्येयगुणाः असंख्यप्रदेशो यदवगाढः ॥ १ ॥
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२ स्थान
पदे सिद्धाधिकार: सू. ५४
॥११०॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक [१४]
गाथा:
तया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थ ॥ सम्प्रति निरुपमसुखभाजस्ते इति दर्शयति-'नवि अत्थि' इत्यादि, नैवास्ति मनुष्याणां चक्रवादीनामपि तत्सौख्यं, नैवास्ति सर्वदेवानामनुत्तरपर्यन्तानामपि यत् सिद्धानां सौख्यमव्यावाधामुपगतानां न विविधाऽऽवाधा अन्यावाधा तां उप-सामीप्येन गतानां प्राप्तानां ॥ यथा नास्ति तथा भङ्गयोपदर्शयति-'सुरगणसुह' इत्यादि, 'सुरगणसुखं' देवसंघातसुखं 'समस्तं' संपूर्णमतीतानागतवर्तमानकालोद्भयमित्यर्थः, पुनः 'सर्वाद्धापिण्डितं' सर्वकालसमयगुणितं तथाऽनन्तगुणमिति, तदेवंप्रमाणं किलासत्कल्पनया एकैका-18 | काशप्रदेशे स्थाप्यते इत्येवं सकलाकाशप्रदेशपूरणेन यद्यप्यनन्तं भवति तदनन्तमप्यनन्तैगर्गितं तथाऽप्येयं प्रकर्षगतमपि मुक्तिसुख-सिद्धिसुखं न प्राप्नोति ॥ एतदेव स्पष्टतरं भजयन्तरेण प्रतिपादयति-'सिद्धस्स सुहो रासी इत्यादि, सुखानां राशिः सुखराशि:-सुखसंघातः सिद्धस्य सुखराशिः सिद्धसुखराशिः 'सर्वाद्धापिण्डितः' सर्वयासायपर्यवसितया अद्धया, यत्सुखं सिद्धः प्रतिसमयमनुभवति तदेकर पिण्डीकृतमिति भावः, सोऽनन्तवर्गभक्तःअनन्तैर्वर्गमूलरपवर्तितः, अनन्तैर्वर्गमूलैः तावदपवर्तितो यावत् सर्वाद्धालक्षणेन गुणकारेण गुणने यदधिकं जातं तस्य सर्वस्याप्यपवर्तनः सिद्धत्वाद्यसमयभाविसुखमात्रता प्राप्त इति भावः, सर्वाकाशे न माति-एतावन्मात्रोऽपि सर्वाकाशे न माति सर्वस्तु दुरापास्तप्रसर एवेति ज्ञापनार्थ पिण्डयित्वा पुनरपवर्तनं सुखराशेः, इयमत्र भावना-इह किल विशिष्टाहादरूपं सुखं परिगृह्यते, ततश्च यत आरभ्य शिष्टानां सुखशब्दप्रवृत्तिस्तमाहादमवधिकृत्य एकैकगुण
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
२ स्थानपद द्धाधिका
सत्राक
[५४]
गाथा:
प्रज्ञापना-18द्धितारतम्येन तावदसावाहादो विशिष्यते यावदनन्तगुणवृद्ध्या निरतिशयनिष्ठामुपगतः, सोऽयमत्यन्तोपमातीतैका- याः मल-न्तौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपस्तिमिततमकल्पः चरमाहादः सदा सिद्धानां, तस्माचारतः प्रथमाचोमपान्तरालवर्तिनो ये य०वृत्ती. गुणास्तारतम्येनाहादविशेषरूपास्ते सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽप्यतिभूयांसः, ततः किलोक्तं-'सधागासे न माइज्जा' इति, ॥११॥
अन्यथा यत् सर्वाकाशे न माति तत् कथमेकस्मिन् सिद्धे मायादू! इति पूर्वसूरिसंप्रदायः ॥ साम्प्रतमस्य निरुपमतां प्रतिपादयति-'जह नाम' इत्यादि, यथा नाम कश्चिद् म्लेच्छो नगरगुणान्-गृहनिवासादीन् बहुविधान्-अनेकप्रकारान् विजानन् अरण्यगतः सन् अन्यम्लेच्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुं, कस्मान्न शक्नोति? इत्यत आह-उपमायां तत्रासत्यां "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति न्यायाद् हेतौ सप्तमी, तत उपमांया अभावादिति द्रष्टव्यं, एप गाथाऽक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादबसेयः, तच्चेद-एगो महारत्रवासी मिच्छो रख्ने चिट्ठति, इत्तो य एगो राया आसेण अवहरितो तं अडविं पवेसिओ तेण दिट्ठो, सक्कारिऊण जणवयं नीतो, रन्नावि सो नगरं नीओ, पच्छा उबमारित्ति गाढमुपचरितो, जहा राया तहा चिट्ठइ, धवलपराइभोगेण विभासा, कालेण र
१एको महारण्यवासी म्लेच्छोऽरण्ये तिष्ठति, इतच एको राजा अश्वेनापाहतसामटवी प्रवेशितः तेन दृष्टः, सत्कार्य जनपदं नीतः, राज्ञाऽपि स नगरं नीतः, पश्चादुपकारीति गाढमुपचरितो, यथा राजा तया विष्ठति, धवलगृहादिभोगेन विभाषा, कालेन अरण्यं
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१११॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं -1, ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
[१४]
गाथा:
सरिउमारद्धो, रन्ना विसजिओ, तत्तो रनिगा पुच्छंति-'केरिस नयरंति', सो वियाणतोऽवि तत्थोवमाभावा न सका नयरगुणे परिकहेउं । एस दिटुंतो, अयमर्थोपनया-'इय सिद्धाणं' इत्यादि, इत्येवं सिद्धानां सौख्यमनुपम वर्तते, किमिति ?, तत आह-यतो नास्ति तस्यौपम्यं, तथाऽपि बालजनप्रतिपचये किञ्चिद् विशेषेण 'इतो' इति आर्षत्वाद् अस्येत्यर्थः, सारश्यमिदं वक्ष्यमाणं शृणुत-'जह सब्ब' इत्यादि, यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, भुज्यते इति भोजनं 'सर्वकामगुणितं' सकलसौन्दर्यसंस्कृतं कोऽपि पुरुषो भुक्त्वा क्षुत्तदविप्रमुक्तः सन् यथा अमृततृप्तस्तथा तिष्ठति, 'इय' इत्यादि, एवं निर्वाणं-मोक्षमुपगताः सिद्धाः सर्वकालं-साद्यपर्यवसितं कालं तृप्ताः-सर्वथीसुक्यविनिवृत्तिभावतः परमसंतोषमधिगता अतुलम्-अनन्यसदृशमुपमाऽतीतत्वात् शाश्वतं प्रतिपाताभावात् अव्याबाधं लेशतोऽपि व्याबाधाया असंभवात् सुखं प्राप्ता अत एव सुखिनः तिष्ठन्तीति । एतदेव सविशेषतरं भावयतिसिद्धत्ति य' इत्यादि, सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्म ध्मातं-भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः "पृषोदरादयः" इति रूपनिष्पत्तिः, निर्दग्धानेकभवकर्मेन्धना इत्यर्थः, ते च सामान्यतः कर्मादिसिद्धा अपि भवन्ति, यत उक्तम्-'कम्मे सिप्पे य] विजाए, मंते जोगे य आगमे । अत्थजत्ताअभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ॥१॥" ततः कर्मादिसिद्धव्यपोहायश | १ स्मर्तुमारब्धः, राजा विसृष्टः, तत आरण्यकाः पृच्छन्ति-कीदृशं नगरमिति , स विजानन्नपि वनोपमाभावाद् न शक्नोति नगर-18 गुणान् परिकथयितुं एष दृष्टान्तः ।। २ कर्मणि शिल्पे च विद्यायां मन्ने योगे चागमे । अर्थे यात्रायामभिप्राये तपसि कर्मक्षये इति ॥१॥
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आगम
(१५)
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सूत्रांक
[ ५४ ]
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गाथा:
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अनुक्रम
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [२],
------------- FÈRT: [-], ---------- ¿T2 [-], ------------ - मूलं [ ५४ ] + गाथा : (१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
या मल य० वृत्ती.
॥११२॥
Educatio
आह- 'बुद्धा' इति, अज्ञाननिद्राप्रसुते जगत्यपरोपदेशेन जीवादिरूपं तत्त्वं बुद्धवन्तो बुद्धाः सर्वज्ञसर्वदर्शिखभावबोधरूपा इति भावः, एतेऽपि च संसारनिर्वाणोभयपरित्यागेन स्थितवन्तः कैश्विदिध्यन्ते - "संसारे न च निर्वाणे, स्थितो भुवनभूतये । अचिन्त्यः सर्वलोकानां, चिन्तारत्नाधिको महान् ॥ १ ॥” इति वचनात्, ततस्तन्निरासार्थमाह- 'पारगता' इति, पारंपर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनत्रातस्य वा गताः पारगताः, तथाभव्यत्वाक्षिप्तसकलप्रयोजनसमात्या निरवशेषकर्तव्यशक्तिविप्रमुक्ता इति भावः, इत्थंभूता अपि कैश्चिद् यदृच्छावादिभिरक्रमसिद्ध२) त्वेनापि गीयन्ते तथोक्तम्- "नैकादिसंख्याक्रमतो, वित्तप्राप्तिर्नियोगतः । दरिद्रराज्यासिसमा तद्वन्मुक्तिः कचिन्न किम् ? ॥ १॥" ततस्तन्मतव्यपोहाय 'परम्परागता' इति परम्परया - ज्ञानदर्शनचारित्ररूपया मिथ्यादृष्टिसासादन --- सम्यग्रमिध्यादृष्ट्य अविरत सम्य ग्रष्टिदेशविरतिप्रमत्ताप्रमत्त निवृत्त्यनिवृत्तिवादर संपरायसूक्ष्मसंपरायेोपशान्तमोहक्षीण| मोहसयोगि केवल्ययोगिकेवलिगुणस्थानभेदभिन्नया गताः परम्परागताः, एते च कैश्चित् तत्त्वतोऽनुन्मुक्तकर्मकवचा अभ्युपगम्यन्ते 'तीर्थनिकार दर्शना दिहागच्छन्ति' इति वचनतः पुनः संसारावतरणाभ्युपगमात्, अतस्तन्मतापाकरणार्थमाह-- 'उन्मुक्त कर्मकवचाः' उत्- प्राबल्येनापुनर्भवरूपतया मुक्तं परित्यक्तं कर्म कवचमिव कर्मकवचं यैस्ते उन्मुक्त कर्मकवचाः, अत एवाजराः शरीराभावतो जरसोऽभावात् अमरा अशरीरत्वादेव प्राणत्यागासंभवात्,
For Parts Only
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२ स्थानपदे सिजाधिकारः सु. ५४
॥ ११२ ॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [२], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ----------- मूलं [१४] + गाथा:(१५०-१७०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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[१४]
उक्तं च-"वयसो हाणीह जरा, पाणचाओ यमरणमादिडं। सइ देईमि तदुभयं तदभावे तं न कस्सेव ॥१॥"S असङ्गा बायाभ्यन्तरसरहितत्वात् 'निच्छिन्न' इत्यादि, निस्तीर्ण-लचितं सर्वदुःखं वैस्ते निस्तीर्णसर्वदुःखाः, कुतः ? इत्याह-जातिजरामरणबंधणविमुक्का' जातिः-जन्म जरा-पयोहानिलक्षणा मरणं-प्राणत्यागरूपं बन्धनानि-तन्निबन्धनरूपाणि कर्माणि तैर्विशेषतो-निशेषापगमनेन मुक्का जातिजरामरणबन्धनविमुक्ताः, हेतावियं प्रथमा, यतो जातिजरामरणबन्धनविप्रमुक्तास्ततो निस्तीर्णसर्वदुःखाः, कारणाभावात् , ततोऽन्याचा सौख्यं शाश्वतं सिद्धा अनुभवन्ति ॥
इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां द्वितीय स्थानपदं समाप्तम् ॥
गाथा:
दीप अनुक्रम
१ वयसो हानिरिह जरा प्राणत्यागच मरणमादिष्टम् । सति देहे तभयं तदभावे तन्न कस्यैव ॥१॥
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अत्र पद (०२) "स्थानं" परिसमाप्तम्
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], ------------ उद्देशक: [-1, ---------- दारं [-], ---------- मूलं [१४...] + गाथा:(१-२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५..]
प्रज्ञापनायाः मलय.वृत्ती .
॥११॥
गाथा:
अथ तृतीयमल्पबहुत्वपदम् ।
३ अल्पबहुत्वपदे
दिगादिव्याख्यातं द्वितीयं पदं, अधुना तृतीयपदमारभ्यते, तस्स चायमभिसम्बन्धः-इह प्रथमे पदे पृथिवीकायिका- भेदाः२७ दयः प्रज्ञसाः द्वितीये ते एव स्वस्थानादिना चिन्तिताः अस्मिंस्तु तेषां दिग्विभागादिनाऽल्पवदुत्वादि निरूप्यते, तत्रेदमादौ द्वारसङ्ग्रहगाथाद्वयम्दिसि गई इंदिय काएं जोएँ वेएँ कसाय लेसा य । सम्मत्तै नाणदसण संजयेउवओगआहरि ॥१७१।। भासँगपरिर्तपज्जत्तै
मुहुमसन्नी भवंथिए चरिमे । 'जीवे य खिंचवन्धे पुग़लमहदंडए चेव ॥ १७२ ॥ | प्रथम दिग्द्वारं १, तदनन्तरं गतिद्वारं, २, तत इन्द्रियद्वारं ३, ततः कायद्वारं ४, ततो योगद्वारं ५, तदनन्तरं । वेदद्वारं ६, ततः कषायद्वारं, ७, ततो लेश्याद्वारं ८, ततः सम्यक्त्वद्वारं ९, तदनन्तरं ज्ञानद्वारं १०, ततो दर्शनद्वारं ११, ततः संयतद्वारं १२, तत उपयोगद्वारं १३, तत आहारद्वारं १४, ततो भाषकद्वारं १५, ततः 'परित्त' ११२॥ इति परित्ताः-प्रत्येकशरीरिणः शुक्लपाक्षिकाश्च तद्वारं १६, तदनन्तरं पर्याप्तद्वारं १७, ततः सूक्ष्मद्वारं १८, तदनअन्तरं सब्जिद्वारं १९, ततो 'भव'त्ति भवसिद्धिकद्वारं २०, ततोऽस्तीति अस्तिकायद्वारं २१, ततश्वरमद्वारं २२, तद-1
दीप अनुक्रम [२५७-२५८]
अथ पद (०३) "बहुबक्तव्यता । (अल्पबहत्वं)" आरभ्यते अत्र अल्पबहुत्व-पदे सप्तविंशति: द्वाराणि नामानि प्ररुप्यते
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], ------------ उद्देशक: -1, ---------- दारं [१], ----------- मूलं [५५] + गाथा:(१-२) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
[५५]
गाथा:
नन्तरं जीवद्वारं, २३, ततः क्षेत्रद्वारं २४, ततो बन्धद्वारं २५, ततः पुद्गलद्वारं २६, ततो महादण्डकः २७, इति सर्वसशयया सप्तविंशतिः द्वाराणि । तत्र प्रथमं द्वारमभिधित्सुराहदिसाणुवाएणं सबथोवा जीवा पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । (सू०५५)
इह दिशः प्रथमे आचाराख्ये अझे अनेकप्रकारा व्यावर्णिताः, तत्रेह क्षेत्रदिशः प्रतिपत्तव्याः, तासां नियत-N त्वात्, इतरासां च प्रायोऽनवस्थितत्वात् अनुपयोगित्वाच, क्षेत्रदिशां च प्रभवस्तिर्यग्लोकमध्यगतादष्टप्रदेशकाद्रु-श चकात् , यत उक्तम्-"अट्टपएसो रुयगो तिरियलोयस्स मज्झयारम्मि । एस पभयो दिसाणं एसेव भये अणुदि-18 साणं ॥१॥" इति, दिशामनुपातो दिगनुपातो-दिगनुसरणं तेन दिशोऽधिकृत्येति तात्पर्यार्थः, सर्वस्तोका जीवाः पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इदं खल्पबहुत्वं बादरानधिकृत्य द्रष्टव्यं, न सूक्ष्मान् , सूक्ष्मा-18॥ णां सर्वलोकापन्नानां प्रायः सर्वत्रापि समत्वात् , बादरेष्वपि मध्ये सर्वबहवो वनस्पतिकायिकाः, अनन्तसङ्ख्याकतया तेषां प्राप्यमाणत्वात् , ततो यत्र ते बहवस्तत्र बहुत्वं जीवानां, यत्र त्वल्पे तत्राल्पत्वं, वनस्पतयश्च तत्र बहवो यत्र प्रभूता आपः, 'जस्थ जलं तत्थ वर्ण' इति वचनात् तत्रावश्यं पनकसेवालादीनां भावात् , ते च पनकसेवालादयो बादरनामकर्मोदये वर्तमाना अपि अत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात् अतिप्रभूतपिण्डीभावाच सर्वत्र सन्तोऽपि १ अष्टप्रदेशो रुचकस्तिर्यग्लोकस्य मध्ये । एष प्रभवो दिशामेष एव भवेद्विदिशाम् ॥ १ ॥
दीप अनुक्रम [२५९]
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तृतीय-पदे (०१) "दिशा" द्वारम् आरब्ध:
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [१], -------------- मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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Recen
गाथा:
प्रज्ञापना-रान चक्षुषा प्राधाः, तथा चोकमनुयोगद्वारेषु-"'ते णे पालग्गा सुहुमपणगजीवस्स सरीरोगाहणाहितो असंखेजगुणा" अल्पयाः मल- इति, ततो यत्रापि नैते दृश्यन्ते तत्रापि ते सन्तीति प्रतिपत्तव्याः, आह च मूलटीकाकार:-"इह सर्वबहवो बन- बहुत्वपदे य० वृत्ती. स्पतय इतिकृत्वा यत्र ते सन्ति तत्र बहुत्वं जीवानां, तेषां च बहुत्वं “जत्थ आउकाओ तत्थ नियमा बणस्सइका-IN
दिग्द्वार इया इति पणगसेवालहढाई वायरावि होति सुहुमा आणागेज्झा न चक्खुणा" इति, उदकं च प्रभूतं समुद्रादिष,
सामान्येन ॥११॥
सू. ५५ द्वीपात् द्विगुणविष्कम्भत्यात्, तेष्वपि च समुद्रेषु प्रत्येकं प्राचीप्रतीच्योर्दिशोर्यथाक्रमं चन्द्रसूर्यद्वीपाः, याचति च प्रदेशे चन्द्रसूर्यद्वीपा अवगाढास्तावत्युदकाभावः, उदकाभावाच वनस्पतिकायिकाभावः, केवलं प्रतीच्यां दिशि लय-18 णसमुद्राधिपसुस्थितनामदेवावासभूतो गौतमद्वीपो लवणसमुद्रेऽभ्यधिको वर्त्तते, तत्र चोदकाभावानस्पतिकायिकानामभावात् सर्वस्तोका जीवाः पश्चिमायां दिशि, तेभ्यो विशेषाधिकाः पूर्वस्यां दिशि, तत्र हि गौतमद्वीपो न विद्यते, ततस्तायता विशेषणातिरिच्यते इति, तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यतस्तत्र चन्द्रसूर्यद्वीपा न| विद्यन्ते, तदभावात्तत्रोदकं प्रभूतं, तत्प्राभूत्याच वनस्पतिकायिका अपि प्रभूता इति विशेषाधिकाः, तेम्बोऽप्युदी-131 च्यां दिशि विशेषाधिकाः, किं कारणमिति चेत् १, उच्यते, उदीच्यां हि दिशि सङ्खयेवयोजनेषु द्वीपेषु मध्ये कस्सिं-॥११॥
१ ते वालापाः सूक्ष्मपनकजीवसा शरीरावगाहनाभ्योऽसजायेयगुणाः । २ यत्राकायस्ता नियमावनस्पतिकायिका इति पनकशैवालहठादयो बादरा अपि भवन्ति सूक्ष्मा आमाप्रायाः । न चक्षुषा ।
दीप अनुक्रम [२५९]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [१], -------------- मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५६]
चित् द्वीपे आयामविष्कम्भाभ्यां सङ्खयेययाजनकोटीप्रमाणं मानसं नाम सरः समस्ति, ततो दक्षिणदिगपेक्षया अस्यां प्रभूतमुदकम् , उदकबाहुल्याच प्रभूता वनस्पतयः, प्रभूता द्वीन्द्रियाः शङ्खादयः प्रभूतास्तटलमशङ्खादिकलेवराश्रितास्वीन्द्रियाः पिपीलिकादयः प्रभूताः पद्मादिषु चतुरिन्द्रियाः भ्रमरादयः प्रभूताः पञ्चेन्द्रिया मत्स्यादय इति विशेषा-13 [धिकाः ॥ तदेष सामान्यतो दिगनुपातेन जीवानामल्पबहुत्वमुक्तम् ॥ इदानीं विशेषेण तदाह
दिसाणुवाएणं सब्बत्थोवा पुढविकाइया दाहिणेणं उत्तरेणं विसेसाहिया पुरच्छिमेणं विसेसाहिया पच्छिमेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोवा आउक्काइया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सबथोवा तेउकाइया दाहिणुत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेजगुणा, पच्छिमेणं विसेसाहिया ।। दिसाणुवाएणं सवत्थोवा बाउकाइया पुरच्छिमेणं, पच्छिमेणं विसेसाहिया, उच्चरेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया ।। दिसाणुवाएणं सच्चत्थोवा वणस्सइकाइया पच्छिमेणं पुरच्छिमेणं विसेसाहिया दाहिणेणं विसेसाहिया उचरेणं विसेसाहिया ।। दिसाणुवाएणं सवत्थीवा बेईदिया पच्छिमेणं पुरच्छिमेणं विसेसाहिया दक्षिणेणं विसेसाहिया उत्तरेण विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा तेइंदिया पचस्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएर्ण सञ्बत्थोवा चउरिंदिया पञ्चत्थिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुचाएणं सबथोवा नेरइया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती.
३ अल्प| बहुत्वपदे पृथ्च्याद्यलाबहुत्वं
S
सूत्रांक
॥११५॥
[५६]
दीप अनुक्रम
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सबत्थोवा रयणप्पभापुढवीनेरइया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेण असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोवा सकरप्पभापढपीनेरया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोवा पालुयप्पभापुढवीनेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउचरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा पंकप्पभापुढषीनेरहया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा धूमप्पभापुढवीनेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा तमप्पहापुढवीनेरइया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा अहे सत्तमापुढवीनेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दाहिहितो अहेसत्तमापुढवीनेरइएहिंतो छहाए तमाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहिंतो तमाए पुढवीनेरदपहिंतो पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहिंतो धूभष्पभापुढवीनेरइएहितो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असेंखेज्जगुणा, दाहिणिल्लेहितो पंकप्पभापुढवीनेरइएहितो तइयाए बालुयप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चस्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहितो वालुयप्पभापुढवीनेरइएहिंतो दुइयाए सकरप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेजगुणा, दाहिणिल्लेहिंतो सकरप्पभापुढचीनेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा पंचिंदिया तिरिक्खजोणिया पच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं
[२६०]
॥११५॥
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आगम
आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[५६]
विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सवत्थोवा मणुस्सा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेज्जगुणा पञ्चत्थिमेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा भवणवासी देवा पुरच्छिमेणं पञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा वाणमंतरा देवा पुरच्छिमेणं, पञ्चत्थिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा जोइसिया देवा पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा सोहम्मे कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सत्वत्थोबा देवा ईसाणे कप्पे पुरच्छिमपचत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोबा देवा सर्णकुमारे कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा देवा माहिदे कप्पे पुरच्छिमपन्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा बंभलोए कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा लंतए कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सवत्थोवा देवा महासुके कप्पे पुरच्छिमपचत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । दिसाणुवाएणं सबथोवा देवा सहस्सारे कप्पे पुरच्छिमपञ्चत्थिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा । तेण परं बहुसमोववनगा समणाउसो! ॥ दिसाणुवाएणं सवत्थोवा सिद्धा दाहिणेणं उत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेजगुणा, पञ्चत्थिमेणं विसेसाहिया । दारं ।। (मू०५६) दिगनुपातेन-दिगनुसारेण दिशोऽधिकृत्येतिभावः, पृथिवीकायिकाश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोका दक्षिणस्यां दिशि,
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आगम आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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अज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
॥११६॥
(५६)
कथमिति चेद ?, उच्यते, इह यत्र घनं तत्र बहवः पृथिवीकायिकाः यत्र सुषिरं तत्र स्तोकाः, दक्षिणस्यां विशि | अल्पबहूनि भवनपतीनां भवनानि वहयो नरकावासास्ततः सुपिरप्राभूत्यसंभवात् सर्वतोका दक्षिणस्यां दिशि पृथिवी- बहुत्वपदे कायिकाः, तेभ्य उत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यत उत्तरस्यां दिशि दक्षिणदिगपेक्षया स्तोकानि भवनानि स्तोका पृथ्व्याद्यनरकावासाः, ततो घनप्राभूत्यसंभवात् बहवः पृथिवीकायिका इति विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि पूर्वस्यां दिशि विशे- ल्पबहुत्वं पाधिकाः, रविशशिहीपानां तत्र भावात् , तेभ्योऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, किं कारणमिति चेत् ?, उच्यते, यावन्तो रविशशिद्वीपाः पूर्वस्यां दिशि तावन्तः पश्चिमायामपि, न तु एतावता साम्यं, पर लवणसमुद्रे | गौतमनामा द्वीपः पश्चिमायामधिकोऽस्ति, तेन विशेषाधिकाः, अत्र पर आह-ननु यथा पश्चिमायां दिशि गौतमद्वीपोऽभ्यधिकः समस्ति, तथा तस्यां पश्चिमायां दिशि अधोलौकिकयामा अपि योजनसहस्रावगाहाः सन्ति, ततः खातपूरितन्यायेन तत्र तुल्या एव पृथिवीकायिकाः प्राप्नुवन्ति न विशेषाधिकाः, नैतदेवं, यतोऽधोलौकिकग्रामावगाहो योजनसहस्रं, गौतमद्वीपस्य पुनः पदसप्तत्यधिक योजनसहस्रमुस्त्वं, विष्कम्भस्तस्य द्वादश योजनसहस्राणि, यच मेरोरारभ्याधोलौकिकग्रामेभ्योऽर्वाक हीनत्वं हीनतरत्वं तत् पूर्वस्यामपि दिशि प्रभूतगादिसंभ-18 ॥११॥ वात् समानं, ततो यद्यधोलौकिकग्रामच्छिद्रेषु बुझा गौतमद्वीपः प्रक्षिप्यते तथापि स समधिक एवं प्राप्यते न तुल्य इति तेन समधिकेन विशेषाधिकाः पश्चिमायां दिशि पृथिवीकायिकाः॥ उक्तं दिगनुपातेन पृथिवीकायि
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आगम आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५६]
कानामल्पबहुत्वं, इदानीमकायिकानामल्पबदुत्वमाह-सर्वस्तोका अकायिकाः पश्चिमायां दिशि, गौतमद्वीपस्थाने तेषामभावात् , तेभ्योऽपि विशेषाधिकाः पूर्वस्यां दिशि, गौतमद्वीपाभावात् , तेभ्योऽपि विशेषाधिका दक्षिणस्यां दिशि, चन्द्रसूर्यद्वीपाभावात् , तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, मानससरःसद्भावात् ॥ तथा दक्षिण-13 स्थामुत्तरस्यां च दिशि सर्वस्तोकास्तेजाकायिकाः, यतो मनुष्यक्षेत्रे एव वादरास्तेजःकायिका नान्यत्र, तत्रापि यत्र बहवो मनुष्यास्त त्रैते बहया, बाहुल्येन पाकारम्भसम्भवात् , यत्र स्वल्पे तत्र स्तोकाः, तत्र दक्षिणयां दिशि पञ्चसु [भरतेषु उत्तरस्यां दिशि पञ्चखैरावतेषु क्षेत्रस्याल्पत्वात् स्तोका मनुष्याः, तेषां स्तोकस्वेन तेजाकायिका अपि स्तोकाः, अल्पपाकारम्भसम्भवात्, ततः सर्वस्तोका दक्षिणोत्तरयोर्दिशोस्तेजःकायिकाः, खस्थाने तु प्रायः समानाः, तेभ्यः पूर्वस्वां दिशि सङ्ग्येयगुणाः, क्षेत्रस्य सङ्खयेयगुणत्वात् , ततोऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु मनुष्यवाहुल्यात् ॥ इह यत्र सुपिरं तत्र वायुः यत्र घनं तत्र वाय्वभावः, तत्र पूर्वस्यां दिशि प्रभूतं घनमिसल्पा वायवः, पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामसम्भवात् , उत्तरवां दिशि विशेषाधिकाः, भव-1 ननरकावासबाहुल्येन सुषिरवाहुल्यात् , ततोऽपि दक्षिणखां दिशि विशेषाधिकाः, उत्तरदिगपेक्षया दक्षिणस्यां दिशि भवनानां नरकायासानां चातिप्रभूतत्वात् ॥ तथा यत्र प्रभूता आपस्तत्र प्रभूताः पनकादयोऽनन्तकायिका बनस्प-16 तयः प्रभूताः शङ्खादयो द्वीन्द्रियाः प्रभूताः पिण्डीभूतसेवालाचाश्रिताः कुन्थ्वादयस्त्रीन्द्रियाः प्रभूताः पद्माद्याश्रिता
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [१], -------------- मूलं [१६]
प्रज्ञापना
याः मल- यवृत्ती.
॥११७॥
प्रत सूत्रांक [१६]
भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रिया इति हेतोर्यनस्पत्यादिसूत्राणि चतुरिन्द्रियसूत्रपर्यन्तानि अप्कायिकसूत्रवद् भावनीयानि । अल्पनरयिकसूत्रे सर्वस्तोकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिगविभागभाविनो नैरयिकाः, पुष्पायकीर्णनरकावासानां तत्राल्पत्वात् , बहूनां
बहुत्वपदे प्रायः सङ्खयेययोजनविस्तृतत्वाच, तेभ्यो दक्षिणदिग्विभागभाविनोऽसहयगुणाः, पुष्पावकीर्णनरकावासानां
पृथ्व्याद्यतत्र बाहुल्यात, तेषां च प्रायोऽसङ्ख्येययोजनविस्तृतत्वात् , कृष्णपाक्षिकाणां तस्यां दिशि प्राचुर्येणोत्पादाच, तथा-18
ल्पबहुवं |हि-द्विविधा जन्तवः, शुक्लपाक्षिकाः कृष्णपाक्षिकाच, तेषां लक्षणमिदं-येषां किश्चिदूनपुद्गलपरावर्धिमात्रसं-18 सारस्ते शुक्लपाक्षिकाः, अधिकतरसंसारभाजिनस्तु कृष्णपाक्षिकाः, उक्तं च-जेसिमबडो पुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो । ते सुकपक्खिया खलु अहिए पुण कण्हपक्खी उ ॥१॥" अत एव च स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः, अल्पसंसारिणां स्तोकत्वात् , बहवः कृष्णपाक्षिकाः, प्रभूतसंसारिणामतिप्रचुरत्वात्, कृष्णपाक्षिकाच प्राचुर्यण दक्षि-13 णयां दिशि समुत्पद्यन्ते, न शेषासु दिक्ष, तथाखाभाव्यात् , तच तथाखाभाव्यं पूर्वाचायरेवं युक्तिभिरुपबृंबते. तद्यथा-कृष्णपाक्षिका दीर्घतरसंसारभाजिन उच्यन्ते, दीर्घतरसंसारमाजिनश्च बहुपापोदयाद् भवन्ति, बहुपापोदयाश्च क्रूरकर्माणः, क्रूरकर्माणश्च प्रायस्तथास्वाभाब्यात् तद्भवसिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, न
॥११७॥
दीप अनुक्रम [२६०]
१ येषामपाधः पुद्गलपरावर्त्तः शेषकश्च संसारः । ते शुक्लपाक्षिकाः खलु अधिके पुनः कृष्णपक्षास्तु ॥ १ ॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५६]
शेषासु दिक्षु, यत उक्तं-"पाय मिह कूरकम्मा भवसिद्धियावि दाहिणिलेसुं । नेरइयतिरियमणुयासुराइठाणेसु गच्छन्ति Mu१॥" ततो दक्षिणस्यां दिशि बहूनां कृष्णपाक्षिकाणामुत्पादसम्भवात् पूर्वोक्तकारणयाच सम्भवन्ति पूर्वोत्तरप-10
श्चिमदिग्विभागभाविभ्यो दाक्षिणात्या असङ्खयेयगुणाः। यथा च सामान्यतो नैरयिकाणां दिग्विभागेनाल्पबहुत्व
मुक्तं, एवं प्रतिपृथिव्यपि वक्तव्यं, युक्तेः सर्वत्रापि समानत्वात् । तदेवं प्रतिपृथिव्यपि दिग्विभागेनाल्पबहुत्वमभिIN हितं, इदानीं सप्तापि पृथिवीरधिकृत्य दिग्विभागेनाल्पबहुत्वमाह-सप्तमपृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविभ्यो |
नरयिकेभ्यो ये सप्तमपृथिव्यामेव दाक्षिणात्यास्तेऽसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः षष्ठपृथिव्यां तमःप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपपश्चिमदिग्भाविनोऽसङ्खधेयगुणाः, कथमिति चेद् ?, उच्यते, इह सर्वोत्कृष्टपापकारिणः सजिपञ्चेन्द्रियतिग्मनुष्याः
सप्तमनरकपृथिव्यामुत्पद्यन्ते, किञ्चिहीनहीनतरपापकर्मकारिणश्च षष्ठयादिषु पृथियी, सर्वोत्कृष्टपापकर्मकारिणश्व सर्वस्तोकाः बहवश्च यथोत्तरं किश्चिद्धीनहीनतरादिपापकर्मकारिणः ततो युक्तमसङ्ख्येयगुणत्वं सप्तमपृथिवीदाक्षिणात्यनारकापेक्षया षष्ठपृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमनारकाणां, एवमुत्तरोत्तरपृथिवीरप्यधिकृत्य भावयितव्यम्, तेभ्योऽपि तस्यामेव पष्ठपृथिव्यां दक्षिणस्यां दिशि नारका असङ्खयेयगुणाः, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता, तेभ्योऽपि पञ्चमपृथिव्यां धूमप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनोऽसङ्घयेयगुणाः, तेभ्योऽपि तस्यामेव पञ्चमपृथिव्यां दाक्षिणात्या असङ्खये१ प्राय इह क्रूरकर्माणो भवसिद्धिका अपि दाक्षिणात्येषु । नैरविकतिर्यग्मनुष्यासुरादिस्थानेषु गच्छन्ति ॥ १॥
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पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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यगुणाः, एवं सर्वाखपि क्रमेण वाच्यम् ।। तिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रत्वप्कायसूत्रबद्भावनीयम् ॥सर्वस्तोका मनुष्या दक्षिण- ३ अल्पयाम- स्यामुत्तरस्यांच, पञ्चानां भरतक्षेत्राणां पञ्चानामरावतक्षेत्राणामल्पत्वात् , तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य बहुत्वपदे यवृत्ती. ससयेयगुणत्वात् , तेभ्योऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, खभावत एवाधोलौकिकग्रामेषु मनुष्यबाहुल्यभावात् ॥ 'दिसाणुवाएणं सवत्थोवा भवणवासी' इत्यादि, सर्वतोका भवनवासिनो देवाः पूर्वस्यां पश्चिमायांच दिशि, तत्र भवना-M
याद्यल्प ॥११॥
नामल्पत्वात् , तेभ्य उत्तरदिग्भाविनोऽसङ्खयेयगुणाः, खस्थानतया तत्र भवनानां बाहुल्यात् , तेभ्योऽपि दक्षिणदिग्भा|विनोऽसलयेयगुणाः, तत्र भवनानामतीच बाहुल्यात् , तथाहि-निकाय निकाय चत्वारि चत्वारि भवनशतसहस्राण्यतिरिच्यन्ते, कृष्णपाक्षिकाश्च बहवस्तत्रोत्पद्यन्ते, ततो भवन्त्यसङ्ख्ययगुणाः । व्यन्तरसूत्रे भावना-यत्र सुषिरं तत्र व्यन्तराः प्रचलन्ति, यत्र घनं तत्र न, ततः पूर्वस्यां दिशि घनत्वात् स्तोका व्यन्तराः, तेभ्योऽपरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु सुषिरसंभवातू, तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः खस्थानतया नगरावासबाहुल्यात, तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, अतिप्रभूतनगरावासबाहुल्यात् । तथा सर्वस्तोका ज्योतिष्काः पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि, चन्द्रादित्यद्वीपेपूचानकल्पेषु कतिपयानामेव तेषां भावात् , तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, R ॥११॥ विमानबाहुल्यात् कृष्णपाक्षिकाणां दक्षिणदिग्भावित्वाच, तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यतो मानसे सरसि बहवो ज्योतिष्काः क्रीडास्थानमिति क्रीडनव्यामृता नित्यमासते, मानससरसि च ये मत्स्वादयो जलचरास्ते आस
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५६]
विमानदर्शनतः समुत्पन्नजातिस्मरणाः किश्चिद् व्रतं प्रतिपद्यानशनादि च कृत्वा कृतनिदानास्तत्रोत्पद्यन्ते ततो भवन्ति उत्तराहा दाक्षिणात्येभ्यो विशेषाधिकाः ॥ तथा सौधर्म कल्पे सर्वस्त्रोकाः पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि वैमानिका देवाः, यतो यान्यावलिकाप्रविष्टानि विमानानि तानि चतसृप्यपि दिव तुल्यानि, यानि पुनः पुष्पावकीणोनि । तानि प्रभूतानि असायययोजनविस्तृतानि, तानि च दक्षिणस्यामुत्तरस्यां दिशि नान्यत्र, ततः सर्वस्तोकाः पूर्वेस्खा पश्चिमायां च दिशि, तेभ्य उत्तरस्यां दिनि असङ्ख्यगुणाः, पुष्पावकीर्णकविमानानां बाहुल्यात् असङ्खयेययोजनविस्तृतत्वाच, तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, कृष्णपाक्षिकाणां प्राचुर्येण तत्र गमनात् । एवमीशानसनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पसूत्राण्यपि भावनीयानि । ब्रह्मलोककल्पे सर्वस्तोकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनो देवाः, यतो वहवः कृष्णपाक्षिकातिर्यग्योनयो दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते शुक्लपाक्षिकाश्च स्तोका इति पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भा-19 विनः सर्वस्तोकाः, तेभ्यो दक्षिणस्यां दिशि असङ्ख्येयगुणाः, कृष्णपाक्षिकाणां बहूनां तत्रोत्पादात् । एवं लान्तक-191 शुक्रसहस्रारसूत्राण्यपि भावनीयानि । आनतादिषु पुनर्मनुष्या एवोत्पद्यन्ते, तेन प्रतिकल्पं प्रतिवेयकं प्रत्यनुत्तरविमानं चतसृषु दिक्षु प्रायो बहुसमा पेदितव्याः , तथा चाह-'तेण परं बहुसमोषवनगा समणाउसो!' इति ॥ सर्वस्तोकाः सिद्धा दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च दिशि, कथमिति चेत् , उच्यते, इह मनुष्या एव सियन्ति, नान्ये, मनुष्या अपि सिमन्तो येष्वाकाशप्रदेशेष्विह चरमसमयेऽवगादास्तेष्वेवाकाशप्रदेशेषूर्ध्वमपि गच्छन्ति तेष्वेव चोप
दीप अनुक्रम [२६०]
Aluretary
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [१], -------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५६)
दीप अनुक्रम
प्रज्ञापना- यतिष्ठन्ते न मनागपि वक्रं गच्छन्ति, सियन्ति च तत्र दक्षिणस्यां दिशि पञ्चसु भरतेषु उत्तरस्यां दिशि पश्चर-18
| ३ अल्पयाः मल- रावतेषु मनुष्या अल्पाः, क्षेत्रस्याल्पत्वात् सुषमसुषमादौ च सिमभावादिति तत्क्षेत्रसिद्धाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यः॥
बहुत्वपदे यवृत्ती. पूर्वस्यां दिशि सङ्ख्येयगुणाः, पूर्व विदेहाना भरतरावतक्षेत्रेभ्यः सङ्खयेयगुणतया तद्गतमनुष्याणामपि सङ्ख्येयगुण-18
नारका
दीनां प॥११॥ त्वात् तेषां च सर्वकालं सिद्धिभावात् , तेभ्यः पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकार, अधोलौकिकग्रामेषु मनुष्यबाहु-1
श्वानामल्यात् । गतं दिगद्वारं ॥ इदानी गतिद्वारम् , तत्रेदमादिसूत्रम्
ष्टानांचाएएसिणं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं देवाणं सिद्धाण य पंचगति समासेणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा रूप.सू.५७ पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा सबथोवा मणुस्सा नेरइया असंखेजगुणादेवा असंखेजगुणा सिद्धा अर्णतगुणा तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा ।। एएसिणं भंते ! नेरड्याणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणीणीणं मणुस्साणं मणुस्सीणं
देवाणं देवीणं सिद्धाण य अहगति समासेणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! ISI सबथोवाओ मणुस्सीओ, मणुस्सा असंखेजगुणा, नेरइया असंखेजगुणा, तिरिक्खजोणिणीओ असंखेजगुणाओ, देवा असंखेजगुणा, देवीओ संखेजगुणाओ, सिद्धा अर्णतगुणा, तिरिक्खजोणिया अर्णतगुणा ॥ दारं २॥ (सू० ५७ )
॥११९॥ सर्वस्तोका मनुष्याः, षण्णवतिच्छेदनकच्छेद्यराशिप्रमाणत्वात् , स च षण्णवतिच्छेदनकदायी राशिरग्रे दर्शयिष्यते, तेभ्यो नैरयिका असञ्जयेयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान्
[२६०]
REarati
तृतीय-पदे (०२) “गति" द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२], -------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७]
सहस्रालयटलरररररर
प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यो देवा असङ्ख्येयगुणाः, व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां च प्रत्येकं प्रतरासङ्ख्ययभागवर्तिश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, अभव्येभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेभ्यस्तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगणत्वात् । तदेवं नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवसिद्धरूपाणां पञ्चानामल्पबहुत्वमुक्तम् , इदानीं नरयिकति-IN का यग्योनिकतैर्यग्योनिकीमनुष्यमानुषीदेवदेवीसिद्धलक्षणानामष्टानामल्पबहुत्वमभिधित्सुरिदमाह-सर्वस्तोका मानुष्यो। -मनुष्यस्त्रियः, सङ्खयेयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , ताभ्यो मनुष्या असङ्खयेयगुणाः, इह मनुष्या इति संमूर्छनजा अपि। गृह्यन्ते, वेदस्थाविवक्षणात्, ते च संमूर्छनजा बान्तादिषु नगरनिर्द्धमनान्तेषु जायमाना असङ्खचेयाः प्राप्यन्ते, तेभ्यो नैरयिका असङ्खयेयगुणाः, मनुष्या हि उत्कृष्टपदेऽपि श्रेण्यसङ्खयेयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा लभ्यन्ते नैरयि-H कास्त्वगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसत्कतृतीयवर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रमाणश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः ततो भवत्यसङ्खधेयगुणाः, तेभ्यस्तियंग्योनिकाः खियोऽसङ्घषयगुणाः, प्रतरासक्येयभागवय॑सङ्खयेयश्रेणिनभःप्रदेशराशिप्र-IN माणत्वात् , ताभ्योऽपि देवा असङ्ख्यगुणाः, असङ्खयेयगुणप्रतरासङ्ख्येयभागवर्त्यसवयश्रेणिगतप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्योऽपि देव्यः सङ्खयेयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , ताभ्योऽपि सिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता ॥ गतं गतिद्वारम् ॥ इदानी इन्द्रियद्वारमधिकृत्याह
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दीप अनुक्रम [२६१]
Jumsturary.com
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [३], -------------- मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
३ अल्पबहुत्वपदे एकेन्द्रियाद्यल्प
प्रत सूत्रांक [५८]
॥१२॥
दीप अनुक्रम [૨૬]
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एएसि णं भंते ! सईदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचिंदियाणं आणि दियाणं कपरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला चा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोवा पंचिदिया चउरिदिया बिसेसाहिया तेईदिया विसेसाहिया बेइंदिया विसेसाहिया अणिदिया अणंतगुणा एगिदिया अर्णतगुणा सइंदिया विसेसाहिया ॥ एएसिणं भंते ! सईदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाण चउरिदियाणं पंचिंदियाणं अपज्जत्तगाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया चा, गोयमा ! सबथोवा पंचिंदिया अपजत्तगा चउरिदिया अपजत्तगा बिसेसाहिया तेइंदिया अपजत्तमा विसेसाहिया बेईदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया एगिदिया अपजत्तगा अणंतगुणा सइंदिया अपजतगा विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! सईदियाणं एगिदियाणं वेईदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाण पंचिंदियाणं पजत्ताणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबत्थोवा चउरिंदिया पज्जत्तगा पंचिंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया बेइंदिया पज्जत्तया विसेसाहिया तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया एगिदिया पज्जत्तगा अनंतगुणा सइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! सइंदियाणं पज्जनापज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सवत्थोवा सइंदिया अपज्जत्तगा सइंदिया पज्जचगा संखेज्जगुणा ।। एएसिणं भंते ! एगिदियाणं पज्जत्तापज्जचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा । सव्वत्थोवा एगिदिया अपज्जत्तगा एगिदिया पज्जत्तगा संखेजगुणा || एएसिणं भंते ! इंदियाणं पज्जत्तापजचाणं क्यरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा! सबथोवा बेइंदिया पज्जचगा बेइंदिया अपज्ज
॥१२०॥
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तृतीय-पदे (०३) इन्द्रिय द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [३], -------------- मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५८]
तगा असंखेजगुणा । एएसिणं भंते ! तेइंदियाणं पञ्जचापञ्जचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा ! सबथोवा तेइंदिया पजत्तगा तेइंदिया अपजत्तगा असंखेजगुणा ।। एएसिणं भैते ! चउरिदियाणं पजत्तापजत्ताण कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिता वा ?, गोयमा ! सबथोवा चरिंदिया पज्जत्तगा चउरिदिया अपज्जतगा असंखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! पंचिंदियाणं पजत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा ! सबथोवा पंचेंदिया पजत्चगा पंचेंदिया अपजत्तगा असंखेजगुणा ।। एएसि णं भंते सइंदियाण एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचिंदियाणं पजत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला चा विसेसाहिआ वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा चरिंदिया पञ्जत्तगा पंचिंदिया पजत्तगा विसेसाहिआ बेइंदिया पजत्तगा विसेसाहिआ तेइंदिया पजत्तगा विसेसाहिआ पंचिदिया अपजत्तगा असंखेजगुणा चउरिदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिआ तेइंदिया अपजत्तगा विसेसाहिआ बेइंदिया अपजत्तमा विसेसाहिआ एगिदिया अपजत्तगा अर्णतगुणा सइंदिआ अपजत्तमा विसेसाहिआ एगिदिया पज्जत्तगा संखेजगुणा सइंदिआ पज्जत्तगा विसेसाहिआ सइंदिया विसेसाहिआ। दारं ३ ॥ (सूत्रं ५८)
सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः सत्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमितप्रतरासयेयभागवय॑सङ्ग्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूच्यास्तेषां प्रभूतसोययोजनकोटीको
दीप अनुक्रम [૨૬]
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [३], -------------- मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५८]
प्रज्ञापना- टीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषा विष्कम्भसूच्या प्रभूततरसोययोजनकोटीकोटीप्रमाण-18
३ अल्पया: मल- त्वात्, तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्या प्रभूततमसोययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, य. वृत्ती.
बहुत्वपदे तेभ्योऽपि अनिन्द्रिया अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽपि एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां इन्द्रिया॥१२॥
सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्योऽपि सेन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । तदेवमुक्तमेकमी-18 ल्पब घिकानामल्पबहुत्वम् , इदानीं तेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रिया अपर्याप्ताः, एक- सू. ५८ स्मिन् प्रतरे यावन्त्यङ्गलासपेयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात तेषां तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अपर्याप्सा विशेपाधिकाः, प्रभूताङ्गुलासयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्यस्त्रीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततरप्रतरालासहयेयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततमप्रतराङ्गुलासङ्ग्वेयभागखण्ड-% प्रमाणत्वात् , तेभ्य एकेन्द्रिया अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपर्याप्तानामनन्ततया सदा प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि सेन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, वीन्द्रियाद्यपर्यासानामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम् , अधुना एतेषामेव पर्याप्तानामल्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोकाश्चतुरिन्द्रियाः पर्याप्साः, यतोऽल्पायुषश्चतुरिन्द्रिया
lel॥१२॥ स्ततः प्रभूतकालमवस्थानाभावात् पृच्छासमये स्तोका अवाप्यन्ते, ते च स्तोका अपि प्रतरे यावन्त्यङ्गुलसनेयमा-N गमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणा वेदितव्याः, तेभ्यः पञ्चेन्द्रियाः पर्याप्सा विशेषाधिकाः, प्रभूतप्रतराङ्गुलसनेयमा-IN
दीप अनुक्रम [૨૬]
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [३], -------------- मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५८]
गखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियाः पर्याप्सा विशेषाधिकाः, प्रभूततरप्रतरामुलसङ्ख्येयभागखण्डमानत्वात, तेभ्योऽपि त्रीन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, स्वभावत एव तेषां प्रभूततमप्रतरामुलसङ्ख्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्य एकेन्द्रियाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां पर्यासानामनन्तमानत्वात. तेभ्यः सेन्द्रियाः पर्याप्ता| विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् । (गतं) तृतीयमल्पबहुत्वं, सम्प्रत्येतेषामेव सेन्द्रियादीनां प्रत्येकं पर्याप्सापर्यासगतान्यल्पबहुत्वान्याह-सर्वस्तोकाः सेन्द्रिया अपर्याप्तकाः, इह सेन्द्रियेषु मध्ये एकेन्द्रिया एव बहवः तत्रापि च सूक्ष्माः तेषां सर्वलोकापन्नत्वात् सूक्ष्माश्चापर्याप्ताः सर्वस्तोकाः पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणा इति सेन्द्रिया अपर्याप्साः सर्वस्तोकाः, पर्याप्ताः सङ्ख्यगुणाः, एवमेकेन्द्रिया अपि अपर्याप्ताः सर्वेस्तोकाः, पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणा भावनीयाः । तथा सर्वस्तोका द्वीन्द्रियाः पर्याप्तकाः, यावन्ति प्रतरेऽङ्गुलस्य सङ्ख्येयभागमा-N त्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्योऽपर्याप्ताः असङ्ख्येयगुणाः, प्रतरगतालासयभागखण्डप्रमाण-IN त्वात् , एवं त्रिचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियाल्पबहुत्वान्यपि वक्तव्यानि । गतं पडल्पबहुत्वात्मकं चतुर्थमल्पबहुत्वम् । सम्प्रत्येतेषां सेन्द्रियादीनां समुदितानां पर्याप्सापर्याप्तानामल्पबहुत्वमाह-'एएसि णं भंते' इत्यादि । इदं प्रागु-N तद्वितीयतृतीयाल्पबहुत्वभावनानुसारेण खयं भावनीयं, तत्त्वतो भावितत्वात् । गतमिन्द्रियद्वारम् , इदानीं कायद्वारमधिकृत्याह
दीप अनुक्रम [૨૬]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
प्रत सूत्रांक [५९]
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३ अल्पबहुत्वपदे कायाल्प० सू.५९
॥१२२॥
एएसि मंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं बाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अकाइयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया चा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा । सात्योवा तसकाइया तेउकाइया असंखेजगुणा पुढविकाइया विसेसाहिया आउकाइया विसेसाहिया वाउकाइया विसेसाहिया अकाइया अणंतगुणा वणस्सइकाइया अणंतगुणा सकाइया विसेसाहिया ॥ एएसिणं मंते! सकाइयाणं पुढचिकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं बाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अपजतगाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोषमा ! सवत्थोवा तसकाइया अपजचगा तेउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा पुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया वाउकाइया अपज्जत्तगा बिसेसाहिया वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा सकाइया अपअत्तगा बिसेसाहिया ॥ एएसिणं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाण आउकाइयाण तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं पज्जत्तगाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्थोवा तसकाइया पज्जचगा तेउकाइया पञ्जत्तगा असंखेजगुणा पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया आउकाइया पजत्तगा विसेसाहिया वाउकाइया पज्जतगा विसेसाहिया वणस्सइकाइया पज्जतमा अणंतगुणा सकाइया पजतगा विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! सकाइयाण पज्जचापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया पा, गोयमा ! सबथोवा सकाइया अपज्जत्तगा सकाइया पञ्जत्तगा संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं पजत्तापजत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोचा पुढ विका
दीप अनुक्रम [२६३]
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38923207
M॥१२शा
तृतीय-पदे (०४) "काय
द्वारम् आरब्ध:
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
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प्रत सूत्रांक
[५९]
इया अपज्जत्तगा पुढवीकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा ।। एएसि णं भंते ! आउकाइयाणं पज्जत्तापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा! सबथोवा आउकाइया अपज्जत्तगा आउकाइया पजचगा संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! तेउकाइयाण पज्जतापज्जत्तार्ण कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सबथोवा तेउकाइया अपजत्तगा तेउकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा | एएसि ण भंते! बाउकाइयाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया चा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा वाउकाइया अपज्जत्तगा वाउकाइया पजतगा संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! वणस्सइकाइयाणं पजचापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा, गोयमा । सबथोवा वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा पणस्सइकाइया पन्जतगा संखेज्जगुणा ।। एएसिणं भंते ! तसकाइयाणं पज्जत्तापज्जचाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, सवत्थोवा तसकाइया पज्जतगा अपज्जत्तगा असंखेजगुणा । एएसि णं भंते! सकाइयाणं पुढविकाइआणं आउकाइआणं तेउकाइआणं वाउकाइआणं वणस्सइकाइआणं तसकाइयाण य पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, मोयमा! सत्वत्थोवा तसकाइआ पज्जचगा तसकाइआ अपज्जतगा संखेजगुणा तेउकाइआ अपज्जत्तगा असंखेजगुणा पुढविकाइआ अपज्जता विसेसाहिया आउकाइ अपज्जत्तगा विसेसाहिआ बाउकाहा अपजत्तगा विसेसाहिआ तेउकाइआ पज्जत्तगा संखेजगुणा पुढ चिकाइमा पज्जत्ता विसेसाहिआ आउकाइआ पजत्ता विसेसाहिया वाउकाइआ पज्जता विसेसाहिआ वणस्सइकाइआ अपज्जत्ता अर्णतगुणा सका
दीप अनुक्रम [२६३]
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necesesent
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना
याः मल-1
प्रत सूत्रांक
य० वृत्तौ. ॥१२॥
[५९]
दीप अनुक्रम [२६३]
इआ अपज्जत्तगा विसेसाहिया वणस्सइकाइआ पज्जत्तगा संखेजगुणा सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिआ सकाइया ३ अल्पविसेसाहिया ॥ (सू०५९)
बहुत्वपदे सर्वस्तोकाखसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव प्रसकायिकत्वात् , तेषा च शेषकायापेक्षया अल्पत्वात् , तेभ्यस्ते-18
कायाल्प जकायिका असङ्ख्येयगुणाः, असयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतास-8
ब०सू.५९ श्वेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽप्कायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासपेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासयेयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात्, तेभ्योऽकायिका अनन्तगुणाः,18 | सिद्धानामनन्तत्वात, तेभ्यो बनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सकायिका विशेषाधिकाः, पृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । उक्तमौधिकानामल्पबहुत्वम्, इदानीमतेषामे-12 वापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! सकाइयाणं' इत्यादि सुगमं ॥ सम्प्रत्येतेषामेव पर्याप्सानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-'एएसि णं भंते ! सकाइयाणं' इत्यादि सुगम, साम्प्रतमेतेषामेव सकायिकादीनां प्रत्येक पयोप्सापयोप्सगतमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते । सकाइयाणं पजत्तापज्जत्ताणं' इत्यादि सुगमम् ॥ सम्प्रत्येतेषामेव ॥१२॥ सकायिकादीनां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानामल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! सकाइयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः पर्याप्तकाः, तेभ्यस्त्रसकायिका एवापर्याप्तका असषेयगुणाः, द्वीन्द्रियादीनामपर्याप्तानां पर्याप्तद्वीन्द्रिया
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
अलापता -उपांना गत शुतिः ।
(१५)
प्रत सूत्रांक
[५९]
दिभ्योऽसङ्ख्यगुणत्वात् , ततः तेजःकायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, असोयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , ततः पृथिव्यम्बुवायवोऽपर्याप्तकाः क्रमेण विशेषाधिकाः, ततः तेजःकायिकाः पर्याप्साः सङ्ख्यगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्या
सेभ्यः पर्याप्तानां सोयगुणत्वात् , ततः पृथिव्यच्वायवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः, ततो वनस्पतयोऽपर्यासा 8| अनन्तगुणाः, पर्याप्ताः सोयगुणाः ॥ तदेवं कायद्वारे सामान्येन पञ्च सूत्राणि प्रतिपादितानि, सम्प्रत्यस्मिन्नेव द्वारे सूक्ष्मवादरादिभेदेन पञ्चदश सूत्राण्याह
एएसिणं भंते ! सुहुमाण सुहमपुढविकाइयाणं सुहमआउकाइआणं सुहुमतेउकाइआणं सुहमवाउकाइआणं सुहमवणस्सहकाइयाणं सुहुमनिओयाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा ?, गोयमा ! सबत्थोवा सुहुमतेउकाइया मुहुमपुढविकाइआ विसेसाहिया सुटुमाउकाइआ विसेसाहिया मुहुमवाउकाइआ विसेसाहिआ सुहुभनिगोदा असंखेज्जगुणा सुहुमवणस्सइकाइया अगंतगुणा सुहुमा विसेसाहिया ।। एएसि यं भंते ! सुहुमअपजत्तगाणं सुहुमपुढविअपज्जतगाणं सुहुमाउअपज्जचयाणं मुहुमतेउअपज्जत्तयाणं सुहुमवाउअपज्जचयाणं सुहुमवण अपज्जत्तयाणं सुहुमनिगोदाअपजत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सबत्थोवा सुहुमतेउअपजत्तया मुहुमपुढवि० अप० विसे० सुहुमाउ० अप० विसे० मुहुमवाउ०अप० विसे० सुहुमनिगोदा अप० असंखे० सुहुमवण अपज्जत्तया अर्णतगुणा मुहुमा अपज्जत्तया विसेसा० । एएसि ण भंते ! सुहुमपज्जत्त० मुहुमपुढविका० पज्जच० सुहुमाउका पज्जत्त.
दीप अनुक्रम [२६३]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
३ अल्प| बहुत्वपदे सूक्ष्मबादराल्पव० सू.६०
सूत्रांक
॥१२४||
दीप अनुक्रम [२६४]
सुहुमतेउका० पज्जत्न सुहुमबाउका पज्जनगाणं सुहुमवणस्सइका.पज्जत्त० सुहुमानेगोदपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सबथोवा मुहुमतेउका० पज्जत्तगा सुहुमपुढविका० पज्जत्तगा विसेसा० सुहुमआउका० पज्जतगा विसेसा सुहुमवाउका० पजत विसेसा० मुहुमनिगोया पज्जत्तगा असंखेजगुणा सुहुमवण० पज्जत अपंत. मुहुमपज्जत्त विसेसा । एएसिणं भंते ! सुहुभाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सबथोवा सुहुमअपज्जत्नगा सुहुमपज्जत्तगा संखे०। एएसि णं भंते ! सुहुमपुढवि० पजचापजत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सबथोवा मुहुमपुढ विकाइया अपज्जत्तया सुहुमपुट विकाइया पज्जत्तया संखेज्जगुणा। एएसिणं भंते ! सुहुमाउ० पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा। सबस्थोवा मुहुमआउका० अपज्जत्न सुहुमाआउका पजत्तमा संखेजगुणा । एएसिणं भवे! सुहुमतेउ० पजचापजत्ताणं कबरे कयरेहितो अप्यावा ४१, गोयमा। सबथोवा सुहुमतेउका० अपज्जत्त० सुहुमतेउका० पज्जता संखे । एएसि गं भंते ! सुहुमवाउका पजतापज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४१, गोयमा सबथोवा सुहुमवाउका० अपजत्त० पाउका पज्जत्त० संखेज० । एएसि णं भंते ! सुहुमवण पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा! सबथोवा सुहुमवण. अपज सुहुमवणस्सइपज्जत्त० संखे । एएसिणं भंते ! सुहुमनिगोयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमनिगोया अपज्जत० सुहुमनिगोया पज्जत्त० संखेज्जगुणा । एएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुहुमपुढ० सुहुमआउ० सुहुमतेउ० मुहुमवाउ० सुहुमवण सुडुमनिगोदाण य पञ्जत्तापजत्ताणं कबरे कयरेहितो अप्पा वा ४१, गोयमा !
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॥१२४॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६]
सक्वत्थोबा सुहुमतेउकाइया अपञ्जचया सुहुमपुढवीअपज. विसेसा० सुहुमआउ० अपञ्ज. विसेसा० सुहुमवाउ० अपञ्ज. विसेसा० सुहुमतेउ० अपज. संखेजगुणा सुहुमपुढवीपज्जत्त विसेसा० सुहुमआउ० पजत्त० विसेसा० सुहुमवाउ० पज्जत्त विसेसा० सुहुमनिगोदा अपज असंखे० सुहुमनिगोदा पजत्त० संखे० सुहुमवण अपज० अणतगुणा सुहुमअपञ्ज. विसेसा० सुहुमवण पजत्त० संखेज सुहुमपञ्जच विसेसा० सुहुमा विसेसाहिया । (सूत्रम् ६०) सर्वस्तोकाः सूक्ष्माः तेजःकायिकाः, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका विशेपाधिकाः, प्रभूतासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्माप्कायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासङ्ख्येयलो-13 काकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासस्यलोकाकाशप्रदेशराशिमानत्वात. तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा असोयगुणाः, [ग्रन्थाग्रं० ३००० ] सूक्ष्मग्रहणं बादरव्यवच्छेदार्थ, द्विविधा हि निगोदाः-1) सूक्ष्मा बादराव, तत्र बादराः सूरणकन्दादिषु, सूक्ष्माः सर्वलोकापन्नाः, ते च प्रतिगोलकमसयेया इति सूक्ष्मवायुकायिकेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यः सामानिकाः सूक्ष्मजीवा विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमौधिकानामिदमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानामाह-'एएसिणं भंते ! सुहुमअपजत्तगाणं' इत्यादि, सर्व प्रारबद्भावनी-18 यम् । सम्प्रत्येतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते! सुहुमपज्जत्तगाणं' इत्यादि, इदमपि प्रामुक्तक
दीप
desesesesesesents
अनुक्रम [२६४]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[६०]
दीप
अनुक्रम
[२६४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:) पदं [३], |--------------- उद्देशक: [-], ------- दारं [४], ----------- मूलं [६० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
याः मल
॥१२५॥
मेणैव भावनीयं । अधुना अमीषामेव सूक्ष्मादीनां प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तगतान्यल्पबहुत्वान्याह - 'एएसि णं भंते! सुदुमाणं पज्जत्तापजत्ताणं' इत्यादि, इह बादरेषु पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्ता असश्येयगुणाः, एकैकपर्याप्तनिश्रयाऽसश्येयानाय० वृत्ती. ४ मपर्याप्तानामुत्पादात्, तथा चोक्तं प्राक् प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पदे – “पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति, जत्थ है एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति सूक्ष्मेषु पुनर्नायं क्रमः, पर्याप्ताश्चापर्यासापेक्षया चिरकालावस्थायिन इति ४ सदैव ते वद्दयो लभ्यन्ते, तत उक्तं सर्वस्तोकाः सूक्ष्मा अपर्याप्ताः, तेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्तकाः सत्येयगुणाः, एवं पृथि वीकायिकादिष्वपि प्रत्येकं भावनीयम् । गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम्, इदानीं सर्वेषा समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तगतं पञ्चममल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णं भंते ! सुदुमाणं सुदुमपुढविकाइयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोकाः सूक्ष्मतेजःकायिका अपर्याप्ताः, कारणं प्रागेवोक्तं, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्माय्कायिका अपर्याप्सा विशेपाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, अत्रापि कारणं प्रागेवोक्तं, तेभ्यः सूक्ष्मतेजः कायिकाः पर्याप्ताः सोयगुणाः, अपर्याप्तेभ्यो हि पर्याप्ताः समेयगुणा इत्यनन्तरं भावितं, तत्र सर्वस्तोकाः सूक्ष्मतेजः कायिका अपर्याप्ता उक्ताः इतरे च सूक्ष्मापर्याप्तपृथिवीकायिकादयो विशेषाधिकाः, विशेषाधिकत्वं च मनागधिकत्वं न द्विगुणत्वं न त्रिगुणत्वं वा ततः सूक्ष्मतेजः कायिकेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः सूक्ष्मतेजः कायिकाः सत्येयगुणाः सन्तः सूक्ष्म वायुकायिकापर्याप्तेभ्योऽपि सत्येयगुणा भवन्ति, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः विशेषाधिकाः तेभ्यः
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सूक्ष्का
ल्पव०
सु. ६०
॥१२५॥
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६]
सूक्ष्माप्कायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः तेभ्योऽपि सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः अपर्याप्ता असपेयगुणाः, तेषामतिप्राचुर्यात्, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्यासेभ्यः पर्याप्तानामोघतः सङ्ख्येयगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपयोप्सका अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां | तेषां भावात् , तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्यासका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात. तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्तकाः सवेयगुणाः, सूक्ष्मेषु बपर्याप्तभ्यः पर्याप्सकाः सवेयगुणाः, यच्चापान्तराले विशेषाधिकत्वं तदल्पमिति न सोयगुणत्वव्याघातः, तेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्सका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिव्यादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात, तेभ्यः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्यासानामपि तत्र प्रक्षेपात् । तदेवमुक्तानि |सूक्ष्माश्रितानि पञ्च सूत्राणि, सम्प्रति बादराश्रितानि पञ्चोक्तक्रमेणाभिधित्सुराह
एएसिणं भंते । बादराणं चादरपुढविकाइयाणं वादरआउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाणं पचेयसरीरबादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाणं कयरे कयरेहितो अपा वा ४१, गोयमा ! सवत्थोबा बादरतसकाइया बादरतेउकाइया असंखेजगुणा पत्त्यसरीरबादरवणस्सइकाइया असंखेजगुणा बादरनिगोदा असंखेजगुणा बादरा पुढवी असंखे० बादरा आउकाइया असं० पादरा वाउकाइया असंखे० बादरा वणस्स० अणंतगुणा बादरा विसेसाहिया । एएसिणं भंते ! चादरपुढविकाइयअपजत्तगाणं बादरआउअपज्जत्तगाणं बादरतेउअपज
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अनुक्रम [२६४]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
३ अल्पबहुत्वपदे बादराल्पबसू.६१
सूत्रांक [१]
॥१२६॥
-
चगाणं बादरवाउअपजत्तगाणं चादरवणस्सइअपज्जतगाणं पचेयसरीरबादरवणस्सइअपज्जचगाणं बादरनिगोदअपज्जचगाणं बादरतसकाइयअपज्जत्तगाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबस्थोवा वादरतसकाइया अपजचगा बादरतेउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा पत्यसरीरवादरवणस्सइकाइया अपजत्तमा असंखेजगुणा बादरनिगोदा अपअत्तगा असंखेजगुणा वायरपुढ़वीकाइया अपजत्तगा असंखेनगुणा बादरआउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा बादरवाउकाइया अपज्जतगा असंखेजगुणा बादरवणस्सइकाइया अपजत्तगा अणंतगुणा बादरअपजत्तगा विसेसाहिया । एएसिणं भंते ! बायरपज्जत्तयाणं बादरपुढवीकाइयाणं पजत्तयाणं यायरआउकाइयाणं पन्जतयाणं वायरतेउकाइयाणं पञ्जत्चयाणं वायरवाउकाइयाणं पजत्तयाण पत्तेयसरीवायरवणस्सइकाइयाणं पञ्जत्तयाणं वायरनिगोदपजत्तयाण बायरतसकाइयपज्जतगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा वायरतेउकाइया पज्जत्तया बायरतसकाइया पज्जत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरवायरवणस्सइकाइया पजत्तया असंखेजगुणा वायरनिगोदा पज्जत्तया असंखेजगुणा बादरपुढवीकाइया पज्जत्तया असंखेजगुणा बायरआउकाइया पज्जचया असंखेजगुणा वायरवाउकाइया पज्जत्तया असंखेजगुणा वायरवणस्सइकाइया पज्जतया अर्णतगुणा बायरपज्जचया विसेसाहिया । एएसिणं भंते ! वायराणं पजत्तापज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा', गोयमा! सवत्थोवा बायरपज्जचया बायरअपज्जचया असंखेजगुणा । एएसिणं भंते ! वायरपुढवीकाइयाणं पात्तापञ्जचाणं कयरे कयरोहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा',गोयमा! सबथोवा वायरपुढवीकाइया पजत्तया बायर
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दीप अनुक्रम [२६५]
॥१२६॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[६१]
पुढविकाइया अपजसया असंखेजगुणा। एएसिणं भंते वायरआउकाइयाणं पजत्तापअत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा वायरआउकाइया पजत्तया बायरआउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा। एएसिणं भंते ! वायरतेउकाइयाणं पज्जचापज्जताण कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया चातुल्ला वा विसेसाहिया वारी, गो० सबस्थोवा बायरतेउकाइया पञ्जत्तया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा।एएसिणं भंते! वायरवाउकाइयाणं पजत्तापज्जचाणं कयरे कयरेहितो अप्पावा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहियावा, गोयमा! सवत्थोवा बादरवाउकाइया पजत्तया बायरवाउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा । एएसिणं भंते ! वायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा, गोयमा ! सबत्थोवा चायरवणस्सइकाइया पञ्जत्तया बायरवणस्सइकाइया अपअत्तया असंखेजगुणा । एएसिणं भंते ! पत्तेयसरीरवायरवणस्सइकाइयाणं पजचापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा, गोयमा सबथोवा पचेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पजत्तया पचेयसरीरमायरवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा। एएसिणं भंते ! वायरनिगोयाण पजचापजताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पाबाबहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा', गोयमा! सबथोवा पायरनिगोया पज्जत्ता वायरनिगोया अपज्जत्ता असंखेजगुणा। एएसिणं भंते ! वायरतसकाइयाणं पजत्तापज्जचाणं कबरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा,गोयमा सवत्थोवा वायरतसकाइया पज्जत्ता बायरतसकाइया अपज्जता असंखेनगुणा । एएसि णं भंते ! बायराणं वायरपुढवीकाइयाणं वायरआउकाइयाणं पायरतेउकाइयाणं बायरवाउकाइयाणं वायरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरवायरवणस्सइकाइयाणं वायरनिगोयाणं वायरतसकाइयाणं पज्जचापजताणं
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सूत्रांक
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:)
पदं [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
|--------------- उद्देशक: [ - ], ----- ------- दारं [४], ----------- मूलं [ ६९ ]
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ.
॥१२७॥
कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सहत्थोवा बायर उकाड्या पत्तिया वायरतसकाइया पज्जतया असंखेजगुणा वायरतसकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पज्जतया असंखेजगुणा पाथरनगोया पज्जत्तथा असंखेजगुणा बादरपुढवीकाइया पत्तया असंखेअगुणा बायरआउकाइया पजतया असंखेजगुणा वायरवा उकाइया पजत्तया असंखेजगुणा वायरलेउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवसइकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा बायरनिगोया अपज्जत्तया असंखेअगुणा वायरपुढवीकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा बायरआउकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा वायरबाउकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा बायरवणस्सइकाइया पज्जतया अनंतगुणा वायरवणस्सइकाइया अपज्जतया असंखेज्जगुणा बायरअपज्ज तया विसेसा० बायरा विसेसा० । (०६१)
'एएसि णं भंते! वायराणं बायरपुढवीकाइयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरत्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव वादरत्रसत्वात् तेषां च शेषकायेभ्योऽल्पत्वात्, तेभ्यो वादरतेजः कायिका असङ्ख्येयगुणाः, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्योऽपि प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिका असङ्घयेयगुणाः, स्थानस्यासत्येयगुणत्वात् वादरतेजः कायिका हि मनुष्यक्षेत्रे एव भवन्ति, तथा चोक्तं द्वितीये स्थानाख्ये पदे- "कहि णं भंते ! वादरतेउकाइयाणं पचत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता १, गोयमा ! सहाणेणं अंतो मणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु निवाघाएणं पन्नरससु कम्मभूमीसु वाघापणं पंचसु महाविदेहेसु, एत्थ णं वायरतेडकाइयाणं पज्जसगाणं ठाणा पन्नत्ता" तथा "जत्थेव वायर
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३ अल्प
बहुत्वपदे
बादराणा मल्पब ०
सू. ६१
॥१२७॥
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प्रत सूत्रांक
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], |--------------- उद्देशक: [ - ], ----- ------- दारं [४], ------------- मूलं [ ६९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
तेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव वायरतेडकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता" इति, बादरवनस्पतिकायिकास्तु त्रिष्वपि लोकेषु भवनादिषु, तथा चोक्तं तस्मिन्नेव द्वितीये स्थानाख्ये पदे - "कहि णं भंते ! वायरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता १, गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणोदहिसु सत्तसु घणोदहिवलयेसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु उहलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगडेसु तलापसु नदीसु दहेसु वाविसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलेसु विलपतियासु उज्झरेषु निज्झरेषु चिलले पललेसु वष्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सधेसु चैव जलासएस जलठाणेसु, एत्थ णं वायरवणस्सइकाइयाणं पज्जतगाणं ठाणा पन्नत्ता" तथा "जत्थेव वायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बायरव णस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता" इति, ततः क्षेत्रस्यासत्येयगुणत्वादुपपद्यन्ते वादरतेजः कायिकेभ्योऽसोयगुणाः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः, तेभ्यो बादरनिगोदा असोयगुणाः, तेषामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात् जलेषु सर्वत्रापि च भावात्, पनकसेवालादयो हि जलेऽवश्यंभाविनः ते च वादरानन्तकायिका इति, तेभ्योऽपि बादरपृथिवीकायिका असश्येयगुणाः, अष्टासु पृथिवीषु सर्वेषु विमानभवनपर्वतादिषु भावात्, तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणा वादराप्कायिकाः, समुद्रेषु जलप्राभूत्यात्, तेभ्यो बादरवायुकायिका असश्येयगुणाः, सुषिरे सर्वत्र वायुसंभवात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात्, तेभ्यः सामा
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाःमलय०वृत्ती.
सूत्रांक [१]
॥१२८॥
ग्यतो बादरा जीवा विशेषाधिकाः, बादरत्रसकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमेकमौधिकानां बादराणामल्प-II | ३ अल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाह-एएसि णं भंते ! बायरापज्जत्तगाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादर
बहुत्वपदे सकायिका अपर्याप्तकाः, युक्तिरत्र प्रागुक्कैव, तेभ्यो बादरतेजःकायिका अपर्याप्सा असङ्ख्येयगुणाः, असवेयलोका
बादराणा
मल्पना काशप्रदेशप्रमाणत्वात् , इत्येवं प्रागुक्तक्रमेणेदमप्यल्पबहुत्वं भावनीयं । गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम्, इदानीमतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते ! वायरपज्जत्तगाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजाकायिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गस्य कतिपयसमयन्यूनरावलिकासमयैर्गुणितस्य यावान्समयराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वात्तेषा, उक्त च-"आवलियरग्गो ऊणापलिए गुणिओ हु बायरा ते उ" इति तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असत्येयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यालसम्लेयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेपा, तेभ्यः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकाः पर्यासाः असोयगुणाः,प्रतरे यायन्त्यालासमवेयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, उक्कं च-"पत्तेयपजवणकाइयाओ पयरं हरंति लोगस्स । अङ्गुलअसंखभागेण भाइय"मिति तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्यासका असपेयगुणाः, तेषा-K मत्सन्तसूक्ष्मावगाहनवाजलाशयेषु च सर्वत्र भावात्, तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः असोयगुणाः, अतिप्र
॥१२८॥ भूतसक्यप्रतरामुलासयेयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि वादराप्कायिकाः पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, अतिप्रभूततरसमयप्रतरामुलासङ्ख्येयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्सा असङ्ख्येयगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यासये
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः) - दारं [४], -------------- मूलं [ ६९ ]
पदं [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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Ja Educator
| येषु सङ्ख्याततमभागवर्त्तिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषां तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात्, तेभ्यः सामान्यतो बादरपर्याप्तका विशेषाधिकाः, वांदरतेजः कायिकादीनामपि पर्यासानां तत्र प्रक्षेपात् । गतं तृतीयमल्पबहुत्वम् इदानीमेतेषामेव पर्याप्तापर्याप्तगतान्यल्पबहुत्वान्याह - 'एएसि णं भंते! बायराणं पजशापज्जत्ताणं' इत्यादि, इह बादरेकैकपर्याप्तनिश्रया असलेया बादरा अपर्याप्ता उत्पद्यन्ते, 'पज्जतगनिस्साए अपजत्तगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा' इति वचनात् ततः सर्वत्र पर्याप्तेभ्योऽपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणा वक्तव्याः, त्रसकायिकसूत्रं प्रागुक्तयुक्तया भावनीयं । गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम्, सम्प्रत्येतेषामेव समुदितानां पर्याप्ता पर्याप्तानां पञ्चममल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णं मंते ! वायराणं वायरपुढवीकाइयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोकाः बादरतेजः कायिकाः पर्याप्तकाः तेभ्यो वादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः तेभ्यो वादरत्रसकायिका अपर्याप्ता असश्वेयगुणाः तेभ्यो बादरप्रत्येक वनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्तका असोयगुणाः तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्तका असश्लेयगुणाः तेभ्यो वादराप्का|यिकाः पर्याप्तका असङ्ख्यगुणाः तेभ्यो बादरवायुका विकाः पर्याप्ता असत्येयगुणाः, एतेषु पदेषु युक्तिः प्रागुक्ताऽनुसरणीया, तेभ्यो वादरतेजः कायिका अपर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः, यतो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ताः असत्येयेषु प्रतरेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, वादरतेजःकायिका श्यापर्याता असङ्ख्येयलो का काशप्रदेशप्रमाणाः, ततो भवन्त्य स -
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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- दारं [४], -------------- मूलं [ ६९ ]
॥१२९॥
प्रज्ञापना- श्येयगुणाः, ततः प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः ततो वादरनिगोदा अपर्याप्तका असङ्ख्येययाः मल-गुणाः ततो वादरपृथिवीकायिका अपर्याप्तका असयेयगुणाः ततो वादराकायिका अपर्याप्तका असश्येयगुणाः य० वृत्ती. बादरवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः वक्तव्याः, यद्यपि चैते प्रत्येक मसत्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्तथाप्यसङ्ख्यातस्यासात भेदभिन्नत्वात् इत्थं यथोत्तरमसवेयगुणत्वं न विरुध्यते, तेभ्यो बादरवायुकायिकापर्यासेभ्यो हे वादवनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात्, तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्यासका विशेषाधिकाः, वादरतेजः कायिकादीनां पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्तका असश्येयगुणाः, एकैकपर्याप्तवादरयनस्पतिकायिक निगोदनिश्रयाऽसङ्ख्येयानामपर्याप्तबादरवनस्प|तिकायिकनिगोदानामुत्पादात्, तेभ्यः सामान्यतो वादरा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरतेजः कायिकादीनामप्यपर्यासानां तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः पर्याप्तापर्याप्त विशेषणरहिताः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, बादरपर्यासतेजः कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतानि बादराश्रितान्यपि पञ्च सूत्राणि, सम्प्रति सूक्ष्मवादरसमुदायगतां पश्चसूत्रीमभिधित्सुः प्रथमत औधिकं सूक्ष्मवादरसूत्रमाह
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एसिणं भंते! माणं सुदुमपुढवीकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुमते काइयाणं सुदुमवाउकाइयाणं सुडुमचणस्सहकाइयाणं सुमनिगोयाणं बायराणं वायरपुढवीकाइयाणं वायरआउकाइयाणं वायरते उकाइयाणं बायरवा उकाइयाणं बाय
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३ अल्पबहुत्वपदे बादराणा मल्प०
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
रवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरयायरवणस्सइकाइयाणं वायरनिगोयाणं तसकाइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सबथोवा बायरतसकाइया वायरतेउकाइया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरवायरवणस्सइकाइया असंखेजगुणा बायरनिगोया असंखेजगुणा बायरपुढवीकाझ्या असंखेजगुणा बायरआउकाइया असंखेअगुणा बायरवाउकाइया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया असंखजगुणा सुहुमपुढषीकाइया विसेसाहिया सुहमआउकाइया विसेसाहिया सुहुमवाउकाइया विसेसाहिया मुहुमनिगोया असंखेजगुणा बायरवणस्सइकाइया अणंतगुणा बायरा विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया अणतगुणा सुहुमा विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! मुहुमअपजत्तयाणं मुहुमपुढवीकाइयाणं अपअत्तयाणं सुहुमआउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं मुहुमतेउकाइयाणं अपजत्तयाणं सुहुमवाउकाइयाणं अपज्जतवाणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तयाणं मुहुमनिगोयाण अपजत्तयाणं वायरअपजत्तयाणं वायरपुढवीकाइयाणं अपजत्तयाणं वायरआउकाइयाणं अपजत्तयाणं वायरतेउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं वायरवाउकाइयाणं अपजत्तयाणं वायरवणस्सइकाइयाणं अपजत्तयाण पत्तेयसरीवायरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तयाणं बायरनिगोयाणं अपनत्तयाण बायरतसकाइयाणं अपअत्तयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा', गोयमा । सबथोवा बायरतसकाइया अपजत्तया पायरतेउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा वायरनिगोया अपज्जत्तया असंखेजगुणा पायरपुढवीकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा बादराउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा पायरवाउकाइया अपअचया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा मुहुमपुढवीकाइया अपज्ज
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती.
३ अल्प| बहुत्वपदे सूक्ष्मवादराणामस्पसू.६२
सूत्रांक
॥१३०॥
[६]
तया विसेसाहिया सुहुमआउकाइया अपअत्तया विसेसाहिया सुहुमवाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिया सुहुमनिगोया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा पायरवणस्सइकाइया अपञ्जत्तया अणंतगुणा बायरा अपजत्तया विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया अपत्तजया असंखेजगुणा सुहुमा अपञ्जत्तया बिसेसाहिया ।। एएसि गं भंते ! सुहुमपजत्तयाणं सुहुमपुढविकाइया पजत्तयाणं सुहुमआउकाइया पजत्तयाणं सुहुमतेउकाइया पजत्तयाणं मुहुमवाउकाइया पजत्तयाणं सुहुमवणस्सइकाइया पजत्तयाणं सुहुमनिगोया पजत्तयाणं वायरपजत्तयाणं बायरपुढवीकाइया पजत्तयाण बायरआउकाइया पजत्तयाणं वायरसेउकाइया पञ्जतयाणं वायरबाउकाइया पजत्तयाणं वायरवणस्सइकाइया पजत्तयाण पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पञ्जत्तयाणं वायरनिगोया पजत्तयाणं वापरतसकाइयपअत्तयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विससाहिया वा, गोयमा। सबत्योवा बायरतेउकाइया पजत्नया वायरतसकाइया पजचया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरवायरवणस्सइकाइया पजत्तया असंखेजगुणा वायरनिगोया पजत्तया असंखेजगुणा बायरपुढविकाइया पजत्तया असंखेजगुणा पायरआउकाइया पजचया असंखेजगुणा पायरवाउकाझ्या पजत्तया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया पजत्तया असंखेनगुणा मुहुमढवीकाइया पजचया विसेसाहिया सुहमआउकाइया पजत्तया विसेसाहिया मुहुमवाउकाइया पञ्जत्तया विसेसाहिया सुहुमनिगोया पजत्तया असंखेज्जगुणा वायरवणस्सइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा बायरपज्जत्तया विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया पजत्तया असंखेजगुणा सुहुमपञ्जत्तया विसेसाहिया ।। एएसिणं भंते ! मुहुमाणं बायराण य पजत्तापजचाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा बायरा पज्जत्तया वायरअपज्जतया असंखेजगुणा
दीप अनुक्रम २६६]
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
रसिक
मुहुमअपजत्तया असंखेंजगुणा सुहुमपज्जत्तया संखेजगुणा ।। एएसि णं भंते ! मुहुमपुढचिकाइयाणं वायरषुढविकाइयाण य पज्जचापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सबथोवा पायरपुढविकाइया पज्जतया बायरपुढविकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा मुहुमपुढवीकाइया अप्प० असं० सुहुमपुढषिकाइया पञ्जतया संखेजगुणा॥ एएसिगं भंते ! सुहुमआउकाइयाणं वायरआउकाइयाण य पज्जत्तापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा वायरआउकाइया पज्जत्तया बायरआउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा मुहुमाउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा मुहुमआउकाइया पज्जचया संखेजगुणा ॥ एएसि गं भंते ! मुहुमतेउकाइयाणं पायरतेउकाइयाण य पजचाजपज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सबथोवा वायरतेउकाइया पज्जत्तया वायरतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया पजत्तया संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते सुहुमवाउकाइयाणं बायरवाउकाइयाण य पअचापजताणं कयरे कयरेहितो अप्पा या बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबत्थोवा वायरवाउकाइया पअत्तया बायरखाउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमबाउकाइया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमवाउकाइया पजत्तया संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! मुहुमवणस्सइकाइयाणं वायरवणस्सइकाइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोवा वायरवणस्सइकाइया पजत्तया बायरवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेनगुणा सुहुमवणस्सइकाइया पजत्नया संखेजगुणा ।। एएसिणं भंते ! मुहमनिगोयाणं वायरनिगो
दीप अनुक्रम २६६]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
प्रत
| ३ अल्पबहुत्वपदे सूक्ष्मवादराणामल्पसू.६२
॥१३॥
सूत्रांक [६२]
याण य पञ्जत्तापञ्जत्ताणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया चा?, गोयमा ! सवत्थोवा बायरनिगोयया पजत्तया बायरनिगोयया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमनिगोयया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमनिगोयया पञ्जत्तया संखेजगुणा ॥ एएसि ण भंते ! सुहुमाणं सुहुमपुढवीकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुमतेउकाइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं मुहुमनिगोयाणं बायराणं वायरपुढविकाइयाणं बायरआउकाइयाणं वायरतेउकाइयाणं बायरवाउकाइयाणं बायरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरयायरवणस्सइकाइयाणं बायरनिगोयाणं बायरतसकाइयाण य पजत्तापजचाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतेउकाइया पजत्तया बायरतसकाइया पजत्तया असंखेज्जगुणा बायरतसकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा पत्नेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पजचया असंखेजगुणा बायरनिगोया पजचया असंखेजगुणा बायरपुढवीकाइया पजत्तया असंखेजगुणा वायरआउकाइया पजत्नया असंखेजगुणा बायरवाउकाइया पञ्जत्तया असंखेजगुणा वायरतेउकाइया अपजचया असंखेजगुणा पत्तैयसरीरवायरवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा वायरनिगोया अपज्जत्तया असंखेजगुणा वायरपुढषीकाइया अपनत्तया असंखेजगुणा बायरआउकाइया अपजत्तया असंखेजगुणा बायरचाउकाइया अपजत्तया असंखेनगुणा सुहुमतेउकाइया अपञ्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमपुढवीकाइया अपञ्जत्तया विसेसाहिया सुहुमआउकाइया अपज्जचया विसेसाहिया सुहुमवाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिया सुहुमतेउकाइया पञ्जचया असंखेजगुणा सुहुमपुढवीकाइया पञ्जत्नया विसेसाहिया सुहुमआउकाइया पञ्जत्तया विसेसाहिया सुहुमवाउकाइया पजत्तया विसेसाहिया सुहुमनिगोया अपजत्तया असंखेजगुणा सुहुमनिगोया पन्जत्तया संखेजगुणा
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दीप अनुक्रम २६६]
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॥१३॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
बायरवणस्सइकाइया पजत्तया अर्णतगुणा बायरपञ्जत्तया विसेसाहिया बायरवणस्सइकाइया अपअत्तया असंखेअगुणा पायरअपजत्तया विसेसाहिया बायरा विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा सुहुमअपजत्तया विसेसाहिया सुहुमवणस्सइकाइया पजत्तया संखेजगुणा सुहुमपञ्जचया विसेसाहिया मुहुमा विसेसाहिया । दारं । (सू० ६२) 'एएसिणं भंते । इत्यादि, इह प्रथमं बादरगतमल्पबहुत्वं बादरपञ्चसूत्र्यां यत्प्रथमं सूत्रं तद्वद्भावनीयं यावद्वादरवायुकायपदं, तदनन्तरं यत्सूक्ष्मगतमल्पबहुत्वं तत्सूक्ष्मपञ्चसूत्र्यां यत्प्रथमं सूत्रं तद्वत्तावद् यावत्सूक्ष्मनिगोदचिन्ता, तदनन्तरं पादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यो बादरा विशेषा-1 |धिकाः, बादरतेजाकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका असमवेयगुणाः, वादरनिगोदेभ्यः । सूक्ष्मनिगोदानामसङ्ग्येयगुणत्वात् , तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजःकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमेकमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेवापर्याप्सानां द्वितीयमाह-एएसिणं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्साः ततो बादरतेजःकायिकबादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकबादरनिगोदवादरपृथिवीकायिकबादराप्कायिकवादरवायुकायिका अपर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरमसोयगुणाः, अत्र भावना बादरपञ्चसूत्र्यां यद्वितीयम-18 पर्याप्तकसूत्रं तद्वत्कर्तव्या, ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽपर्यासेभ्योऽसोयगुणाः सूक्ष्मतेजःकायिका अपर्याप्ताः, अतिप्रभूतासमवेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकसूक्ष्मनिगोदा
दीप अनुक्रम २६६]
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनाथाः मल4. वृत्ती .
प्रत सूत्रांक [६२]
॥१३२॥
दीप अनुक्रम २६६]
अपर्याप्ता यथोत्तरमसोयगुणाः, अत्र भावना सूक्ष्मपञ्चसूया यद् द्वितीय सूत्रं तद्वत, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्त- अल्पभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवा अपर्याप्ताः अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकेकनिगोदमनन्तानां जीवानां सद्भावात् । तेभ्यः सामान्यतो बादरापर्यासका विशेषाधिकाः, वादरत्रसकायिकापर्याप्तादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मव-IN सूक्ष्मवादनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असङ्ग्येयगुणाः, बादरनिगोदापर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानामसषेयगुणत्वात् , तेभ्यः राणामल्पसामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजःकायिकापर्याप्तादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम् , अधुना एतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते ! मुहुमपजत्तयाणं' इत्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजःकायिकाः पर्याप्ताः तेभ्यो बादरत्रसकायिकवादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकवादरनिगोदवादरपृथिवीकायिक-11 बादराप्कायिकबादरवायुकायिकाः पर्याप्सा यथोत्तरमसोयगुणाः, अत्र भावना बादरपञ्चसूत्र्यां यत्तृतीयं पर्याप्तसूत्रं तद्वत् कर्त्तव्या, बादरपर्याप्तवायुकायिकेभ्यः सूक्ष्मतेजःकायिकाः पर्यासा असक्वेयगुणाः, बादरवायुकायिका हि असोयप्रतरप्रदेशराशिप्रमाणाः सूक्ष्मतेजःकायिकास्तु पर्याप्ता असो यलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणास्ततोऽसतोयगुणाः, ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरं विशेषाधिकाः ततः। | ॥१३२॥ सूक्ष्मवायुकायिकेभ्यः पर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तका असोयगुणाः, तेषामतिप्रभूततया प्रतिगोलकं भावात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्तका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां भावात्, तेभ्यः
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
सामान्यतो वादराः पर्यासका विशेषाधिकाः, बादरतेजःकायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, बादरनिगोदपर्यासेभ्यः सूक्ष्मनिगोदपर्याप्सानामसङ्ख्येयगुणत्वात्, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजाकायिकादीनामपि पर्याप्सानां तत्र प्रक्षेपात् । गतं तृतीयमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेव सूक्ष्मबादरादीनां प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्सानां पृथग् पृथगल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते! सुहुमाणं वायराणं पजत्तापजत्ताणं' इत्यादि, सर्वत्रेयं भावना-सर्वस्तोका बादराः पर्याप्साः, परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् , तेभ्यो बादरा अपर्याप्ताः असोयगुणाः, एकैकवादरपर्याप्तनिश्रया असख्येयानां बादरापर्याप्सानामुत्पादात्, तेभ्यः सूक्ष्मा अपर्याप्साः असोयगुणाः, सर्वलोकापन्नतया तेषां क्षेत्रस्यासलेयगुणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्तकाः। सोयगुणाः, चिरकालावस्थायितया तेषां सदैव सङ्ख्येयगुणतयाऽवाप्यमानत्वात् । गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेव सूक्ष्मसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनां बादरवादरपृथिवीकायिकादीना च प्रत्येकं पर्याप्तापर्यासानां च समुदायेन पञ्चममल्पवदुत्वमाह-सर्वस्तोका बादरतेजाकायिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गे कतिपयसमयन्यूनरावलिकासमय-18 गुणिते यावान्समयराशिस्तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, प्रतरे यावत्यकुलसङ्ख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्यो बादरत्रसकायिका अपर्याप्सा असङ्ख्येयगुणाः, प्रतरे। यावत्सगुलासङ्ख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्यःप्रसेकबादरवनस्पतिकायिकबादरनिगोदवा
दीप अनुक्रम २६६]
प्र.२३
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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३अल्प.
बहुत्वपदे
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
प्रत सूत्रांक [६२]
॥१३॥
दीप अनुक्रम २६६]
दरपृथिवीकायिकबादराप्कायिकवादरवायुकायिकाः पर्याप्ता यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, यद्यप्येते प्रत्येकं प्रतंरे यावत्यनु-19 लासक्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणास्तथाप्यनुलासयेयभागस्थासङ्ख्येयभेदभिन्नत्वात् इत्थं यथोत्तरमसलो-I सूक्ष्मेतरा. यगुणत्वमभिधीयमानं न विरुध्यते, तेभ्यो बादरतेजःकायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेश- प.सू.६२ प्रमाणत्वात्, ततः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकबादरनिगोदबादरपृथिवीकायिकबादराकायिकबादरवायुकायिका अपर्याप्सा यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मतेजाकायिका अपर्याप्सा असश्वेयगुणाः ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माष्कायिकसूक्ष्मवायुकायिका अपर्यासा यथोत्तरं विशेषाधिकाः ततः सूक्ष्म-I पर्याप्तास्तेजःकायिकाः सङ्ग्यातगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां ओघत एव सपेयगुणत्वात्, ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्यासाः यथोत्तरं विशेषाधिकाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्यासका असयेयगुणाः, तेषामतिप्राभूत्येन सर्वलोकेषु भावात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकाः सोयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्यासेभ्यः पर्यासानामोघत एव सदा सङ्ग्येयगुणत्वात् , एते च बादरापर्याप्ततेजःकायिकादयः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदपर्यवसानाः।
M॥१३॥ |पोडश पदाथों यद्यप्यन्यत्राविशेषेणासवेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया संगीयन्ते तथाप्यसयत्वस्यासंख्येयभेद-18 |भिन्नत्वाद् इत्थमसङ्ख्येयगुणत्वं विशेषाधिकत्वं सोयगुणत्वं च प्रतिपाद्यमानं न विरोधभागिति, तेभ्यः पोससू-18 मनिगोदेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , 18
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [४], -------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्याप्सा विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्ततेजःकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात, तेभ्यो बादर-1 वनस्पतिकायिका अपर्याप्तका असत्यगुणाः, एकैकपर्याप्तवादरनिगोदनिश्रया असङ्ग्येयानां बादरनिगोदापर्याप्तानामुत्पादात् , तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, वादरतेजाकायिकादीनामप्यपर्याप्साना तत्र प्रक्षे
पात्, तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिका, पर्याप्सानामपि तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपपर्याप्ता असझयेयगुणाः, वादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामपर्याप्सानामप्यसलयेयगुणत्वात् , ततः सामान्यतः सूक्ष्मा
पर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामप्यपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ताः सत्येयगुणाः, सूक्ष्मवनस्पतिकायिकापर्याप्तेभ्यो हि सूक्ष्मवनस्पतिकायिकपर्यासाः सक्येयगुणाः, सूक्ष्मेबोघतोऽपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां सहयेयगुणत्वात् ततः सूक्ष्मापासेभ्योऽपि सोयगुणाः, विशेषाधिकत्वस्य सोयगुणत्ववाधनायोगात् , तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, पर्याससूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, ततः सामान्यतः सूक्ष्माः पयोप्तापयोसविशेषणरहिता विशेषाधिकाः, अपर्याप्सानामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतं सूक्ष्मवादरसमुदायगतं पञ्चममल्पबहुत्वं, तद्गती समर्थितानि पञ्चदशापि सूत्राणीति ॥ गतं कायद्वारम् , इदानीं योगद्वारमाहएएसि णं भन्ते ! जीवाणं सयोगीणं मणजोगीणं वहजोगीणं कायजोगीणं अयोगीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया
दीप अनुक्रम २६६]
तृतीय-पदे (०५) 'योग' द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३],---------------उद्देशक: -1,-------------- दारं [५,६], -------------- मूलं [६३,६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
मज्ञापनायाः मलयावृत्ती.
प्रत सूत्रांक [६३-६४]
बहुत्वपदे
योरल्पसू.
॥१३४॥
दीप
वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सबथोवा जीवा मणयोगी वययोगी असंखेजगुणा अयोगी अणंतगुणा काययोगी अणतगुणा सयोगी विसेसाहिया । दारं ।। (सू.६३) एएसिणं भन्ते ! जीवाणं सवेयगाणं इत्थीवेयगाणं पुरिसवेषगाणं
४३ अरूपनपुंसकवेयगाणं अवेयगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोचा जीवा पुरिसवेयगा इत्थीवेयगा संखेज्जगुणा अवेयगा अणंतगुणा नपुंसकवेयगा अणंतगुणा सवेयगा विसेसाहिया । दार ।। (सू.६४) ।
योगवेदसस्तोका मनोयोगिनः, सब्जिनः पर्याप्ता एव हि मनोयोगिनः ते च स्तोका इति, तेभ्यो पाग्योगिनोऽसश्येय-18
६३-६४ गुणाः, द्वीन्द्रियादीनां वाग्योगिनां सज्ञिभ्योऽसङ्ग्यातगुणत्वात् , तेभ्योऽयोगिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यः काययोगिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनामनन्तत्वात् , यद्यपि निगोदजीवानामनन्तानामेकं शरीरं तथापि तेनै-18 केन शरीरेण सर्वेऽप्याहारादिग्रहणं कुर्वन्तीति सर्वेषामपि काययोगित्वान्नानन्तगुणत्वव्याघातः, तेभ्यः सामान्यतः सयोगिनो विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि वाग्योगादीनां तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं योगद्वारम् , इदानीं वेदद्वारमाह-18 सर्वस्तोकाः पुरुषवेदाः, सजिनामेव तिर्यग्मनुष्याणां देवानां च पुरुषवेदभावात, तेभ्यः स्त्रीवेदाः सोयगुणाः, यत उक्तं जीवाभिगमे-"तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो तिरिक्खजोणियइत्थीओ तिगुणीओ तिरूवाहियाओ य, तहान मणुस्सपुरिसेहितो मणुस्सइत्थीओ सत्तावीसगुणाओ सत्तावीसरूवुत्तराओ य, तथा देवपुरिसेहिंतो देवित्थीओ
महणयोगापेक्षया तेनैकेनेति, वैजसकार्मणयोगरूपकाययोगापेक्षया तेनैकेनेति ।
अनुक्रम
[२६७
-२६८]
|॥१३४॥
तृतीय-पदे (०६) “वेद' द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३],---------------उद्देशक: -1,-------------- दारं [७,८], -------------- मूलं [६५,६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[६३-६४]
दीप अनुक्रम [२६७-२६८]
वित्तीसगुणाओ बत्तीसरूखुत्तराओ" इति, वृद्धाचार्यैरप्युक्तं-'तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयथा ।। सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव ॥१॥ बत्तीसगुणा पत्तीसरूवअहिया य तहय देवाणं । देवीओ पन्नत्ता जिणेहिं जियरागदोसेहिं ॥२॥" अवेदका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात, तेभ्यो नपंसकवेदा अन-18 न्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्, सामान्यतः सवेदकाः विशेषाधिकाः, स्त्रीवेदकपुरुषवेदकानामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं वेदद्वारम् , इदानी कपायद्वारमाहएएसि णं भंते ! सकसाईणं कोहकसाईणं माणकसाईणं मायाकसाईणं लोहकसाईणं अकसाईण व कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्योवा जीवा अकसाई माणकसाई अणतगणा कोडकसाई विसेसाहिया मायाकसाई विसेसाहिया लोहकसाई विसेसाहिया सकसाई विसेसाहिया। दारं (म.६५) एएसिण भते जीवाणं सलेसाणं किण्हलेसाणं नीललेस्साण काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुकलेस्साणं अलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सचत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सा संखेजगुणा तेउलेस्सा संखे
१शिरचा नियनिरूपाधिकात्रिगुणा ज्ञातव्याः । मनुजानां सप्तविंशतिगुणाः सप्तविंशत्यधिका एव पुनः ॥ १॥ देवानां द्वात्रिंशवणा द्वात्रिंपाधिकाच देव्यः प्रज्ञता जितरागद्वेषैर्जिनैः ॥ २॥
तृतीय-पदे (०७) "कषाय एवं (०८) "लेश्या" द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[६५-६६]
दीप
अनुक्रम [२६९
-२७०]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [3],
------ उद्देशक: [ - ],
. दारं [ ७,८], -----
मूलं [६५,६६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
या मल
य० वृत्ती.
॥१३५॥
ज्जगुणा अलेस्सा अनंतगुणा काउलेस्सा अणंतगुणा नीललेस्सा बिसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया सलेस्सा विसेसाहिया । दारं ।। (सू. ६६ )
सर्वोका अकषायिणः, सिद्धानां कतिपयानां च मनुष्याणामकषायित्वात्, तेभ्यो मानकपायिणो - मानकषा यपरिणामवन्तोऽनन्तगुणाः, षट्स्वपि जीवनिकायेषु मानकषायपरिणामस्यावाप्यमानत्वात्, तेभ्यः क्रोधकषायिणो | विशेषाधिकाः तेभ्योऽपि मायाकपायिणो विशेषाधिकाः तेभ्योऽपि लोभकपायिणो विशेषाधिकाः, मानकषायपरि| णामकालापेक्षया क्रोधादिकषायपरिणामकालस्य यथोत्तरं विशेषाधिकतया क्रोधादिकषायाणामपि यथोत्तरं विशेपाधिकत्वभावात्, लोभकषायिभ्यः सामान्यतः सकषायिणो विशेषाधिकाः, मानादिकपायिणामपि तत्र प्रक्षेपात्, सकषायिण इत्यत्रैवं व्युत्पत्तिः कषायशब्देन कषायोदयः परिगृह्यते, तथा च लोके व्यवहारः - सकषायोऽयं कपायोदयवानित्यर्थः, सह कषायेण -- कषायोदयेन ये वर्त्तन्ते ते सकपायोदयाः - विपाकावस्थां प्राप्ताः खोदयमुपदर्शयन्तः कषाय कर्मपरमाणवस्तेषु सत्सु जीवस्यावश्यं कषायोदयसम्भवात्, सकषाया विद्यन्ते येषां ते सकषायिणः कषायोदयसहिता इति तात्पर्यार्थः ॥ गतं कषायद्वारम् इदानीं लेश्याद्वारम् - सर्वस्तोकाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिष्वेवानुत्तरपर्यवसानेषु वैमानिकेषु देवेषु कतिपयेषु च गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु कर्मभूमिकेषु सङ्ख्येयवर्षायुष्केषु मनुष्येषु तिर्यक्त्रीपुंसेषु च कतिपयेषु सत्येयवर्षायुष्केषु तस्याः संभवात्, तेभ्यः पद्मलेश्याकाः सज्ञयेयगुणाः, सा हि पद्म
For Parts Only
~282~
३ अल्प
बहुत्वपदे कपायले
श्ययोर
ल्प. सू. ६५-६६
॥१३५॥
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________________
आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३],---------------उद्देशक: -1,-------------- दारं [७,८], -------------- मूलं [६५,६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६५-६६]
दीप अनुक्रम [२६९-२७०]
लेश्या सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोककल्पवासिषु देवेषु तथा प्रभूतेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु कर्मभूमिजेषु सङ्खयेयवर्षायुष्केषु मनुष्यत्रीपुंसेषु तथा गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्योनिकस्त्रीपुंसेषु सफेयेयवर्षायुष्केष्ववाप्यते, सनत्कुमारादिदेवादयश्च समु|दिता लान्तकादिदेवादिभ्यः सञ्जयगुणा इति भवन्ति शुक्ललेश्याकेभ्यः पनलेश्याकाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यस्तेजोले-18 श्याकाः सोयगुणाः, सर्वेषां सौधर्मशानज्योतिष्कदेवानां कतिपयानां च भवनपतिव्यन्तरगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यप|श्चेन्द्रियमनुष्याणां बादरपर्याप्तकेन्द्रियाणां च तेजोलेश्याभावात्, नन्वसोयगुणाः कस्मान्न भवन्ति ?, कथं भवन्तीति चेत् , उच्यते, इह ज्योतिष्काः भवनवासिभ्योऽप्यसोयगुणाः किं पुनः सनत्कुमारादिदेवेभ्यः, ते च ज्योतिष्कास्तेजोलेश्याकाः तथा सौधर्मेशानकल्पदेवाश्थ, ततः प्राप्नुवन्त्यसलयेयगुणाः, तदयुक्त, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, लेश्यापदे हि गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्योनिकानां संमूछिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां च कृष्णलेश्याद्यल्पबहुत्वे सूत्र वक्ष्यति-'सवत्थोवा गम्भवतियतिरिक्खजोणिया सुकलेसा तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ, पम्हलेसा गभवतियतिरिक्खजोणिया संखेजगुणा तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ, तेउलेसागभवतियतिरिक्खजोणिया संखेजगुणा तेउलेसाओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेजगुणाओ" इति, महादण्डके च तिर्यग्योनिकखीभ्यो व्यन्तरा ज्योतिष्काश्च सोयगुणा वक्ष्यन्ते, ततो यद्यपि भवनवासिभ्योऽप्यसोयगुणा ज्योतिष्काः तथापि पालेश्याकेभ्यस्तेजोलेश्याकाः सङ्ख्येयगुणा एव, इदमत्र तात्पर्य-यदि केवलान् देवानेव पनलेश्यानधिकृत्य देवा एव |
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~283~
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३],---------------उद्देशक: -1,-------------- दारं [७,८], -------------- मूलं [६५,६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६५-६६]
दीप
मज्ञापना
तेजोलेश्याकाश्चिन्त्यन्ते ततो भवम्त्यसोयगुणाः यावता तिर्यक्सम्मिश्रतया पालेश्याकेभ्यस्तिर्यकसम्मिश्रा एव३ भल्पया: मल-N
तेजोलेश्याकाश्चिन्त्यम्से तिर्यश्चश्च पचलेश्या अपि अतिवहवस्वतः सोयगुणा एव लभ्यन्ते नासल्येयगुणा इति, बहुत्वपदे यवृत्ती. तेभ्योऽलेश्याका अनन्तगुणाः, सिद्धानाभनन्तत्वात् , तेभ्यः कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपि दृष्टिज्ञा
नानाना॥१३॥
कापोतलेश्यायाः संभवात्, बनस्पतिकायिकानां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषा|धिकाः, प्रभूततराणां नीललेश्यासंभवात् , तेभ्योऽपि कृष्णलेश्याका विशेषाधिकाः, प्रभूततमानां कृष्णलेश्याक
मल्प. सू. त्वात् , तेभ्यः सामान्यतः सलेश्या विशेषाधिकाः, नीललेश्याकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं लेश्याद्वारम् , इदानीं
६७-६८ सम्यक्त्वद्वारमाहएएसिणं भंते ! जीवाणं सम्मदिहीणं मिच्छादिहीणं सम्मामिच्छादिट्ठीणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्लावा विसेसाहिया वा, गोयमा सबथोवा जीवा सम्मामिच्छदिट्ठी सम्मदिट्ठी अणंतगुणा मिच्छादिट्ठी अर्णतगुणा । दार (सू.६७) एएसिणं मते ! जीवाणं आमिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं ओहिणाणीणं मणपज्जवणाणीणं केवलणाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोषा जीवा मणपज्जवणाणी ओहिनाणी असंखेजगुणा आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया केवलनाणी अणंतगुणा । एएसिगं भंते ! जीवाणं महअनाणीणं सुयअमाणीणं विभंगणाणीण य कपरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा!
Deceaerseserverseerseaseera
अनुक्रम [२६९-२७०]
॥१३॥
तृतीय-पदे (०९) "द्रष्टि । सम्यक्त्व" द्वारम् आरब्ध:
~284~
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________________
आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [९,१०], -------------- मूलं [६७,६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७-६८]
2092cembeos20928
दीप
सात्योषा जीवा निमंगनाणा महअनाणी सुयानाणी दोवि तुला अणंतगुणा। एएसिणं भंते ! जीवाणं आमिणियोहियणाणीणं सुयनाणीणं ओहिनाणीणं मणपज्जवनाणीणं केवलनाणीणं महबमाणीणं सुपअभाणीणं विभंगणाणीण प फयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा जीवा मणपज्जवनाणी ओहिनाणी असंखेजगुणा आभिणिचोहियनाणी सुयनाणी दोवि तुला विसेसाहिया विभंगनाणी असंखेज्जगुणा केवलनाणी अनंतगुणा महअनाणी सुयअन्नाणी य दोवि तुल्ला अणंतगुणा । दारं ।। (मू०६८)
सर्यस्तोकाः सम्यग्मिथ्यारटयः, सम्यग्मिथ्यारष्टिपरिणामकालस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणतयाऽतिस्तोकत्वेन तेषां पृच्छासमये स्तोकानामेव लभ्यमानत्वात्, तेभ्यः सम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात्, तेभ्योऽपि मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, बनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्याष्टित्वादिति ॥ गतं सम्यक्त्वद्वारम् , अधुना ज्ञानद्वारमाह-सर्वस्तोका मनःपर्यवज्ञानिनः, संयतानामेवामपौषध्यादिऋद्धिप्रासानां मनापर्यवज्ञानसंभवात् , तेभ्योऽसोयगुणा अवधिज्ञानिनः, नैरयिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानामध्यवधिज्ञानसंभवात्, तेभ्य आभिनियोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनच विशेषाधिकाः, सन्जितिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेवावधिज्ञानविकलानामपि केषाशिदाभिनियोधिकश्रुतज्ञानभावात् , स्वस्थाने तु दयेऽपि परस्परं तुल्याः, "जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं जत्थ | सुयनाणं तत्थ महनाणं" इति वचनात्, तेभ्यः केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् ॥ उक्तं ज्ञानिना
अनुक्रम [२७१-२७२]
तृतीय-पदे (१०) "ज्ञान", (११) "अज्ञान" द्वारम् आरब्ध:
~285
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________________
आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३],--------------- उद्देशक: -,-------------- दारं [९,१०], -------------- मूलं [६७,६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [६७-६८]]
दीप
प्रज्ञापना- |मल्पबहुत्वम् , इदानीं तत्प्रतिपक्षभूतानामज्ञानिनामल्पबहुत्वमाह-सर्वस्तोका विभङ्गज्ञानिनः, कतिपयानामेव नैर- अपया मल-10 यिकदेवतिर्यपश्चेन्द्रियमनुष्याणां विभङ्गभावात् , तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनामपि |
बहुत्वपदे यवृत्ती. मत्यज्ञानश्रुताज्ञानभावात् तेषां चानन्तत्वात् स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः "जत्थ मइअन्नाणं तत्थ सुयअन्नाणं जत्थ
दर्शनसंयसुयअन्नाणं तत्थ मइअन्नाणं" इति वचनात् ॥ सम्प्रत्युभयेषां ज्ञान्यज्ञानिनां समुदायेनाल्पबहुत्वमाह-सर्षस्तोका
ताहारका॥१३७॥
ल्प.सू.६९ मनापर्ययज्ञानिनः तेभ्योऽसोयगुणा अवधिज्ञानिनः तेभ्य आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिकार,
IMI७०-७१ खस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, अत्र भावना प्रागेवोक्ता, तेभ्योऽसङ्खयेयगुणा विभङ्गज्ञानिनः, यस्मात्सुरगती निरयगतौ च सम्यग्राष्टिभ्यो मिथ्यादृष्टयोऽसषयगुणाः पठ्यन्ते, देवनैरयिकाश्च सम्यग्दृष्टयोऽवधिज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयो विभङ्गज्ञानिन इत्यसवेयगुणाः, तेभ्यः केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनवानन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् , तेषां च मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानित्वात्, खस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः ॥ गतं ज्ञानद्वारम् , इदानी दर्शनद्वारमाह
एएसिणं भंते ! जीवाणं चक्खुदंसणीणं अचखुदसणीणं ओहिदंसणीणं केवलदसणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा M ॥१३७॥ बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा । सबथोवा जीवा ओहिदसणी चक्खुदंसणी असंखेजगुणा केवलदसणी अर्णतगुणा अचक्खुदंसणी अर्णतगुणा । दारं। (सू०६९) एएसिणं भंते जीवाणं संयताणं असंयताणं संजयासंजयाण नोसं
अनुक्रम [२७१-२७२]
escrseatsecstatoes
तृतीय-पदे (१२) "दर्शन", (१३) "संयत", (१४) "उपयोग", (१५) “आहारक" द्वारम् आरब्ध:
~286~
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________________
आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [१२-१५], -------------- मूलं [६९-७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६९-७२]
दीप अनुक्रम [२७३-२७६]]
अयनोअसंजयनोसंजयासंजयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा संजया संजया संयता असंखेजगुणा नोसंयतानोअसंजयानोसंयतासंयता अणंतगुणा असंजया अणंतगुणा । दारं । (१०७०)। एएसिणं मंते! जीवाणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउचाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसा हिया वा?, गोयमा सवत्थोवा जीवा अणागारोवउचा सागारोवउत्ता संखेजगुणा । दारं । (सू०७१) । एएसिणं भंते ! जीवाणं आहारगाणं अणाहारगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा जीवा अणाहारगा आहारगा असंखेजगुणा दारं ॥ (सू०७२)।
सर्वस्तोका अवधिदर्शनिनः, देवनैरयिकाणां कतिपयानां च सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामवधिदर्शनभावात्, तेभ्यश्चक्षुर्दर्श निनोऽसल्येयगुणाः, सर्वेषां देवनैरयिकगर्भजमनुष्याणां सजितिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां असज्ञितिर्यक्पश्चेन्द्रि-1॥ याणां चतुरिन्द्रियाणां च चक्षुर्दर्शनभावात् , तेभ्यः केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽचक्षु
शनिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् ॥ गतं दर्शनद्वारम् , अधुना संयतद्वारमाह| सर्वस्तोकाः संयताः, उत्कृष्टपदेऽपि तेषां कोटीसहस्रपृथक्त्वप्रमाणतया लभ्यमानत्वात् , “कोडिसहस्सपुहुत्तं मणुय-1 लोए संजयाण" इति वचनात् , तेभ्यः संयतासंयताः-देशविरता असोयगुणाः, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामसखातानां देशविरतिसद्भावात् , तेभ्यो नोसंयतनोऽसंयतनोसंयतासंयता अनन्तगुणाः, प्रतिषेधत्रयवृत्ता हि सिद्धास्ते चानन्ता
~287
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________________
आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[६९-७२]
दीप
अनुक्रम
[२७३
-२७६]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [३],
------------ उद्देशकः [-], ---------- दारं [१२-१५], ----------
मूलं [६९-७२ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥१३८॥
Eucation inte
इति, तेभ्योऽसंयता अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् ॥ गतं संयतद्वारम् सम्प्रत्युपयोगद्वारमाहइहानाकारोपयोगकालः सर्वस्तोकः साकारोपयोगकालस्तु समेयगुणः ततो जीवा अप्यनाकारोपयोगोपयुक्ताः सर्वस्तोकाः, पृच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात्, तेभ्यः साकारोपयोगोपयुक्ताः सत्येयगुणाः, साकारोपयोगकालस्य दीर्घतया तेषां पृच्छासमये बहूनां प्राप्यमाणत्वात् ॥ गतमुपयोगद्वारम् इदानीमाहारद्वारमाह - सर्व स्तोका जीवा अनाहारकाः, विग्रहगत्यापन्नादीनामेवानाहारकत्वात् उक्तं च-- “विग्गहगहमावन्ना केवलिणो समुहया अयोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ १ ॥” तेभ्यः आहारका असश्येयगुणाः, नमु वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् तेषां चाहारकतयापि लभ्यमानत्वात् कथमनन्तगुणा न भवन्ति १, तदयुक्तं, वस्तुतश्वापरिज्ञानात्, इह सूक्ष्मनिगोदाः सर्वसत्याप्यसङ्ख्येयाः, तत्राप्यन्तर्मुहूर्त्त समयराशितुल्याः सूक्ष्मनिगोदाः सर्वकालं विग्रहे वर्त्तमाना लभ्यन्ते, ततोऽनाहारका अप्यतिवहवः सकलजीवराश्य सत्येयभागतुल्या इति तेभ्यः आहारका असश्वयगुणा एव नानन्तगुणाः ॥ गतमाहारद्वारम् इदानीं भाषकद्वारमाहएएसि णं भंते ! जीवाणं भासगाणं अभासगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया बा :, गोमा ! सवत्थोवा जीवा मासगा अभासमा अनंतगुणा । दारं । (सु० ७३) । एएसि णं भंते! जीवाणं परीतार्ण अपरीचाण य १ विप्रगति मापनाः केवलिनः समुद्धताञ्चायोगिनःश्च । सिद्धाश्चानाद्दाराः शेषा माहारका जीवाः ॥ १ ॥
For Penal Use On
तृतीय- पदे (१६) “भाषक", (१७) “परित्त", (१८) "पर्याप्त", (१९) "सूक्ष्मं", (२०) "संज्ञी", (२१) "भवसिद्धिक" द्वारम् आरब्धः
~288~
३ अल्प
बहुत्यपदे
भाषकप
रीताल्प.
सू. ७३ ७४
॥ १३८ ॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना"-: पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [१६-२१], -------------- मूलं [७३-७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७३-७८]
दीप अनुक्रम
रीसनोअपरीताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा जीवा परीत्ता नोपरीत्तानोअपरीचा अणंतगुणा, अपरीचा अणंतगणा । दारं (मू०७४) । एएसिणं भंते। जीवाणं पजत्ताणं अपअत्ताणं नोपजत्तानोअपजत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा सबथोवा जीवा नोपजत्तानोअपजत्तगा अपज्जत्तगा अर्णतगुणा पञ्जतगा संखिजगणा। दारं। (मू०७५)। एएसि णे भत। जीवाणं सुहमाणं चायराणं नोमुहुमनोवायराण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा! सबथोवा जीवा नोसुहमानोबायरा बायरा अर्णतगुणा महमा असंखेजगणा दारं।(मू०७६) । एएसि र्ण भते। जीवाणं समीणं असबीण नोसन्नीनोअसनीणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला या विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवथोवा जीवा सन्नी नोसन्नीनोअसनी अर्णतगुणा असनी अर्णतगुणा । दारं । (सू०७७)। एएसि गं भते ! जीवाणं भवसिद्धियाणं अभवसिद्धियाणं नोभवसिद्धियानोअभवसिद्धियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोषमा! सबथोवा जीवा अभवसिद्धिया णोभवसिद्धियाणोअभवसिद्रिया अर्णतगुणा भवसिद्धिया अणंतगुणा । दारं । (मु०७८)। सर्वस्तोका भाषका-भाषालब्धिसम्पन्नाः, द्वीन्द्रियादीनामेव भाषकत्वात्, अभाषका-भाषालब्धिहीना अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामनन्तत्वात् ॥ गतं भाषकद्वारं, सम्प्रति परीत्तद्वारमाह-इह परीत्ता द्विविधाः
[२७७
-२८२]
प्र.२४Jailand
~289~
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [१६-२१], -------------- मूलं [७३-७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापना- याः मल-1 यवृत्ती.
सूत्रांक
[७३-७८]
॥१३९॥
दीप अनुक्रम
भवपरीताः कायपरीत्ताथ, तत्र भवपरीत्ता येषां किश्चिदूनोऽपापुद्गलपरावर्त्तमात्रसंसारः, कायपरीत्ता:-प्रत्येकश- ३ अल्परीरिणः, सत्रोभयेऽपि परीताः सर्वस्तोकाः, शुक्लपाक्षिकाणां प्रत्येकशरीरिणां चाशेषजीवापेक्षयाऽतिस्तोकत्वात् , ततो बहुवपद नोपरीत्तानोअपरीत्ता अनन्तगुणाः, उभयप्रतिषेघवृत्ता हि सिद्धाः ते चानन्ता इति, तेभ्योऽपरीत्ता अनन्तगुणाः, कृष्णपाक्षिकाणां साधारणवनस्पतीनां वा सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ॥ गतं परीत्तद्वारं, सम्प्रति पर्याप्तद्वारमाह
नन्तगुणारत्तपर्याप्त
| सूक्ष्मसंसर्वस्तोका नोपर्याप्तकनोअपर्याप्तकाः, उभयप्रतिषेधवर्तिनो हि सिद्धाः ते चापर्यासकादिभ्यः सर्वस्तोका इति,
ज्ञिभन्यातेभ्योऽपर्याप्तका अनन्तगुणाः, साधारणवनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणानां सर्वकालमपर्याप्तत्वेन लभ्य-18
नामल्पसू. मानत्वात, तेभ्यः पर्याप्ताः सक्यगुणाः, इह सर्वबहवो जीवाः सूक्ष्माः, सूक्ष्माश्च सर्वकालमपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः७३-७८ सोयगणा इति समवेयगुणा उक्ताः ॥ गतं पयोप्सद्वारं, सम्प्रति सूक्ष्मद्वारमाह-सर्वस्तोका जीवा नोसूक्ष्मनोबादराः सिद्धा इत्यर्थः, तेषां सूक्ष्मजीवराशेर्बादरजीवराशेश्वानन्तभागकल्पत्वात् , तेभ्यो बादरा अनन्तगुणाः, बाद-18 रनिगोदजीवानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मा असोयगुणाः, बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसयेय गुणत्वात् ॥ गतं सूक्ष्मद्वारम् , इदानी सज्ञिद्वारम्-सर्वस्तोकाः सम्झिनः, समनस्कानामेव सञ्जित्वात् , तेभ्यो नोसन्जिनो]नोअसज्ञिनः अनन्तगुणाः, उभयप्रतिषेधवृत्ता हि सिद्धाः ते च सजिभ्योऽनन्तगुणा एवेति, ॥१३९॥ तेभ्योऽसज्ञिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ॥ गतं सन्निद्वारम् , इदानीं भवसिद्धिकद्वा
[२७७
-२८२]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, ------------- दारं [१६-२१], -------------- मूलं [७३-७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७३-७८]
सरररररटन्टeepeates
दीप अनुक्रम
रमाह-सर्यस्तोका जभवसिद्धिका:-अभव्याः, जघन्ययुक्तानन्तकपरिमाणत्वात्, उक्तं चानुयोगद्वारेषु-"उको-18 सए परित्ताणतए रूवे पक्खित्ते जहन्नयं जुत्ताणतयं होइ, अभवसिद्धियावि तत्तिया चेवे"ति, तेभ्यो नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, यत उभयप्रतिषेधवृत्तयः सिद्धाः ते चाजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तकपरिमाणा इत्यनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि भवसिद्धिका अनन्तगुणाः यतो भव्यनिगोदस्सैकस्यानन्तभागकल्पाः सिद्धाः भव्यजीवराशिनिगोदाथासपेया लोके इति ॥ गतं भवसिद्धिकद्वारं, साम्प्रतमस्ति कायद्वारमाह
एएसि णं भंते ! धम्मत्थिकायअधम्मत्थिकायागासत्यिकायजीवत्थिकायपोग्गलस्थिकायअद्धासमयाणं दवट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए एए णं तिथिवि तल्ला दवद्वयाए सवत्थोवा, जीवस्थिकाए दबट्टयाए अर्णतगुणे, पोग्गलस्थिकाए दबट्टयाए अर्णतगुणे, अद्धासमए दबयाए अणंतगुणे । एएसिणं भंते ! धम्मत्थिकायअधम्मस्थिकायआगासत्थिकायजीवस्थिकायपोग्गलस्थिकायअद्धासमयाणं पएसट्टयाए कबरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वार, गोयमा! धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए एए णं दोवि तुल्ला पएसहयाए सबत्थोवा, जीवस्थिकाए पएसट्टयाए अणंतगुणे, पोग्गलस्थिकाए पएसट्टयाए अणंतगुणे, अद्भासमए पएसट्टयाए अणंतगुणे, आगासस्थिकाए पएसद्वयाए अर्णतगुणे। एएयस्स णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स दबदुपएसयाए कयरे कयरेहिती अप्पा बा बहुया वा तुल्लावा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सबथोवे एगे
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-२८२]
SAREairama
| तृतीय-पदे (२२) "अस्तिकाय" द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[९]
दीप
अनुक्रम [ २८३]
पदं [३], -------------उद्देशक: [-], दारं [२२],
• मूलं [७९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥१४०॥
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
धम्मत्किाए दबाए से चैव परसट्टयाए असंखेजगुणे । एयस्स णं भंते! अघम्मत्थिकायस्स दवद्वपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवे एगे अधम्मत्थिकाए दबट्टयाए से चैव पएसट्टयाए असंखेजगुणे । एयस्स णं भंते ! आगासत्थिकायस्स वट्टपसट्टयाए कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला बाविसेसाहियावा?, गोयमा ! सवत्थोवे एगे आगासत्थिकाए दबट्टयाए से चैव पएसट्टयाए अनंतगुणे । एयस्त गं भंते! जीवत्थिकायस्स बप सट्टयाए कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सबत्थोवे जीवथिका वट्टयाए से चैव पएसइयाए असंखेजगुणे, एयस्त णं भंते ? पोग्गलत्थिकायस्स दबट्टपएसट्टयाए कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा । सवत्थोवे पोग्गलत्थिकाए दबट्टयाए से चैव पएसहया असंखेज गुणे । श्रद्धासमये न पुच्छिखइ पएसाभावा । एएसि णं भंते! धम्मत्थि काय अधम्मत्थिकाय आगासत्धिकायजीवत्थि कायपोग्गलस्थिकायअद्धासमयाणं दवपएसडयाएय कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए एए तिनिवि तुला दवद्वयाए सहत्थोवा, धम्मत्थिकाए अघम्मत्थिकाए य एएसि णं दोनिवि तुला पएसइयाए असंखेजगुणा, जीवत्थिकाए दवढयाए अनंतगुणे से चैव पएसट्टयाए असंखेजगुणे, पोग्गलत्थिकाए दवइयाए अनंतगुणे से चैव परसट्टयाए असंखेजगुणे, अद्धासमए दबडपएसढयाए अनंतगुणे, आगासत्थिकाए परसट्टयाए अनंतगुणे । दारं । ( सू० ७९ )
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३ अल्प
बहुत्व पदे अस्तिकायद्वारं
सूत्र. ७९
॥१४०॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२२], -------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
ཉྙོ ཟླ་
प्रत
दीप
धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय एते त्रयोऽपि द्रव्यार्थतया-द्रव्यमेवार्थो द्रव्यार्थः तस्य भावो द्रन्यार्थता तया द्रव्यरूपतया इत्यर्थः तुल्याः--समानाः, प्रत्येकमेकसण्याकत्यात. अत एव सर्वस्तोकाः, तेभ्यो जी-IN वास्तिकायो द्रव्यार्थतया अनन्तगुणः, जीवानां प्रत्येकं द्रव्यत्वात् तेषां च जीवास्तिकाये अनन्तत्वात् , तस्मादपि । पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, कथमिति चेत् , उच्यते, इह परमाणुद्विप्रदेशकादीनि पृथक पृथक् द्रव्याणि, तानि च सामान्यतखिधा, तद्यथा-प्रयोगपरिणतानि मिश्रपरिणतानि विश्रसापरिणतानि च, तत्र प्रयोगपरिणतान्यपि तावज्जीवेभ्योऽनन्तगुणानि, एकैकस्य जीवस्यानन्तैः प्रत्येक ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयादिकर्मपुद्गलस्कन्धैरावेष्टित(परिवेष्टित) त्वात् , किं पुनः शेषाणि ?, ततः प्रयोगपरिणतेभ्यो मिश्रपरिणतान्यनन्तगुणानि, तेभ्यो विश्र|सापरिणतान्यनन्तगुणानि, तथा चोक्तं प्रज्ञप्ती-"सबथोवा पुग्गला पयोगपरिणया मीसपरिणया अनंतगुणा वीससापरिणया अनंतगुणा" इति, ततो भवति जीवास्तिकायात् पुदलास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, तस्मादप्यद्धासमयो द्रब्धार्थतयाऽनन्तगुणः, कथमिति चेत् , उच्यते, इहैकस्यैव परमाणोरनागते काले तत्र द्विप्रदेशिकत्रिप्रदेशकयावत्दशप्रदेशिकसङ्ख्यातादेशिकासयातप्रदेशिकानन्तप्रदेशिकस्कन्धान्तःपरिणामितया अनन्ता भाविनः |संयोगा पृथक्पृथक्कालाः केवलवेदसोपलब्धाः, यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां प्रत्येकं द्विप्रदेशादिस्कन्धानां || |चानन्ताः संयोगाः पुरस्कृताः पृथक्पृथककाला उपलब्धाः, सर्वेषामपि मनुष्य[लोक क्षेत्रान्तर्वर्तितया परिणाम-1
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अनुक्रम [२८३]
SAREarathinhalatana
Hinmurary.om
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
[ २८३]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], --------------उद्देशक: [ - ],
दारं [२२],
• मूलं [७९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
॥ १४१ ॥
संभवात् तथा क्षेत्रतोऽप्ययं परमाणुरमुष्मिन्नाकाशप्रदेशे अमुष्मिन् कालेऽवगाहिष्यते इत्येवमनन्ता एकस्य परमाणोर्भाविनः संयोगाः, यथैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां तथा द्विप्रदेशकादीनामपि स्कन्धानामनन्तप्रदेशस्कन्धपर्यन्तानां प्रत्येकं तत्तदेकप्रदेशाद्यवगाहभेदतो भिन्नभिन्नकाला अनन्ता भाविनः संयोगाः, तथा कालतो - * प्ययं परमाणुरमुष्मिन्ना काशप्रदेशे एकसमयस्थितिको द्विसमयस्थितिक इत्येवमेकस्यापि परमाणोरेकस्मिनाकाशप्रदेशेऽसोया भाविनः संयोगाः एवं सर्वेष्वपि आकाशप्रदेशेषु प्रत्येकम सङ्ख्या भाविनः संयोगाः ततो भूयो भूयस्तेच्या(काशप्रदेशेषु परावृत्ती कालस्यानन्तत्वादनन्ताः कालतो भाविनः संयोगाः, यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च प्रत्येकं द्विप्रदेशिकादीनां स्कन्धानां तथा भावतोऽप्ययं परमाणुरमुष्मिन् काले एकगुणकालको भवतीत्येवमेकस्यापि परमाणोर्भिन्नभिन्नकाला अनन्ताः संयोगाः, यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेपांच द्विप्रदेशिकादीनां स्कन्धानां पृथक् पृथक् अनन्ता भावतः पुरस्कृतसंयोगाः, तदेवमे कस्यापि परमाणोर्द्रव्यक्षेत्र कालभावविशेष सम्बन्धवशादनन्ता भाविनः समया उपलब्धाः यथैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां प्रत्येकं द्विप्रदेशिका (दीनां स्कन्धानां न चैतत् परिणामिकालवस्तुव्यतिरेके परिणामिपुद्गलास्तिकायादिव्यतिरेके चोपपद्यते, ततः सर्वमिदं तात्त्विकमवसेयं उक्तं च "संयोगपुरस्कारश्च नाम भाविनि हि युज्यते काले । न हि संयोगपुरस्कारो हातां केषांचिदुपपन्नः ॥ १॥” इति, यथा च सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च द्विप्रदेशिकादीनां स्कन्धानां
प्रज्ञापना
या मल
य० वृत्तौ
Jaca
For Park sta Use Only
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३ अल्प
बहुपदे अस्तिका
यद्वारं
सूत्रं. ७९
॥ १४१ ॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२२], -------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
seleseseलटाइeese
दीप
प्रत्येकं द्रब्यक्षेत्रकालभावविशेषसम्बन्धवशादनन्ता भाविनोऽद्धासमयाः तथा अतीता अपीति सिद्धः पुद्गलास्तिका- यादनन्तगुणोऽद्धासमयो द्रव्यार्थतयेति । उक्तं द्रव्यार्थतया परस्परमल्पबहुत्वम् , इदानीमेतेषामेव प्रदेशार्थतया ! तदाह-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय एतौ द्वावपि परस्परं प्रदेशार्थतया तुल्यो, उभयोरपि लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशत्वात् , शेषास्तिकायाद्धासमयापेक्षया च सर्वस्तोको, ततो जीवास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, जीवा-1 स्तिकाये जीवानामनन्तत्वात् एकैकस्य च जीवस्य लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशत्वात् , तस्मादपि पुद्रलास्तिकायः । प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह कर्मस्कन्धप्रदेशा अपि तावत् सर्वजीवप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः,N एकैकस्य जीवप्रदेशस्थानन्तानन्तैः कर्मपरमाणुभिरावेष्टितपरिवेष्टितत्वात् , किं पुनः सकलपुद्गलास्तिकायप्रदेशाः, ततो भवति जीवास्तिकायात् पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, तस्मादप्यद्धासमयः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, एकै-15 कस्य पुद्गलास्तिकायप्रदेशस्य प्रागुक्तकमेण तत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषसम्बन्धभावतोऽनन्तानामतीताद्धासमयानामनन्तानामनागतसमयानां भावात् , तस्मादाकाशास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, अलोकस्य सर्वतोऽप्यनन्तताभावात् ॥ गतं प्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वम् , इदानी प्रत्येक द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमाह-सस्तोको धम्मास्तिकायो द्रव्यार्थतया, एकत्वात्, प्रदेशार्थतयाऽसबेयगुणः, लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशात्मकत्वात् , एवमधर्मास्तिकायसूत्रमपि भावनीयम् , आकाशास्तिकायो द्रव्यार्थतया सर्वस्तोकः, एकत्वात् , प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, अपरिमि-II
अनुक्रम [२८३]
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२२], -------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना
यवृत्ती.
॥१४२॥
दीप अनुक्रम [२८३]
तत्वात् , जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतया सर्वस्तोकः, प्रदेशार्थतयाऽसयेयगुणः, प्रतिजीवं लोकाकाशप्रदेशपरिमाण
३ अल्पप्रदेशभावात् , तथा सर्वस्तोकः पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतया, द्रव्याणां सर्वत्रापि स्तोकत्वात्, स एव पुद्गलास्तिका-I
| बहुत्वपदे यस्तत्तद्व्यापेक्षया प्रदेशार्थतया चिन्त्यमानोऽसख्येयगुणः, ननु बहवः खलु जगत्यनन्तप्रदेशका अपि स्कन्धा विद्यन्ते | अस्तिकाततोऽनन्तगुणाः कस्मान्न संभवन्ति ?, तदयुक्तं, वस्तुतत्यापरिज्ञानात् , इह हि खल्पा अनन्तप्रदेशकाः स्कन्धाः पर- यद्वारं माण्वादयस्त्वतिबहवः, तथा च वक्ष्यति सूत्रम्-"सबत्योबा अणंतपएसिया खंधा दबट्ठयाए, परमाणुपोग्गला दवट्टयाए अणंतगुणा, संखेजपएसिया बंधा दबट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजपएसिया खंधा दबट्टयाए असंखेजगुणा" इति, ततो यदा सर्व एव पुदलास्तिकायः प्रदेशार्थतया चिन्त्यते तदाऽनन्तप्रदेशकानां स्कन्धानामतिस्तोकत्वात् परमाणूनां चातिबहुत्वात् तेषां च पृथक पृथक् द्रव्यत्वात् असोयप्रदेशकानां च स्कन्धानां परमाण्वपेक्षयाऽसोयगुणत्वादसधेयगुण एवोपपद्यते नानन्तगुण इत्यर्थः, 'अद्धासमए न पुच्छिज्जा' इति, अद्धासमयो द्रव्या-1 प्रदेशार्थतया न पृच्छयते, कुतः इत्याह-प्रदेशाभावात् , आह-कोऽयमद्धासमयानां द्रव्यार्थतानियमो ?, यावता प्रदेशार्थताऽपि तेषां विद्यते एव, तथाहि-यथाऽनन्तानां परमाणनां समुदायः स्कन्धो भण्यते स च द्रव्यं तद-18||१४२॥ षयवाश्च प्रदेशाः तथेहापि सकलः कालो द्रव्यं तदवयवाश्च समयाः प्रदेशा इति, तदयुक्तं, रष्टान्तदाष्टोन्तिकवेष-I म्यात्, परमाणूनां समुदायः तदा स्कन्धो भवति यदा ते परस्परसापेक्षतया परिणमन्ते, परस्परनिरपंक्षाणां केव-13
ARERurator
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [ २८३]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], --------------उद्देशक: [ - ],
दारं [२२],
• मूलं [७९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Eticati
उपरमाणूनामिव स्कन्धत्वायोगात्, अद्धासमयास्तु परस्परनिरपेक्षा एव वर्त्तमानसमयभावे पूर्वापरसमययोरभावात्, ततो न स्कन्धत्वपरिणामः, तद्भावाच्च नाद्धासमयाः प्रदेशाः, किं पृथग् द्रव्याण्येवेति ॥ सम्प्रत्यमीषां धर्मास्तिकायादीनां सर्वेषां युगपत् द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमाह - धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय एते त्रयोऽपि द्रव्यार्थतया तुल्याः सर्वस्तोकाश्थ, प्रत्येकमेकाकत्वात्, तेभ्यो धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय एतौ द्वावपि प्रदेशार्थतयाऽसश्लेयगुणौ, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यौ, ताभ्यां जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, अनन्तानां जीवद्रव्याणां भावात् स एव जीवास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽसोयगुणः, प्रतिजीवमसोयानां प्रदेशानां भावात् तस्मादपि प्रदेशार्थतया जीवास्तिकायात् पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः, प्रतिजीवप्रदेशं | ज्ञानावरणीयादिकर्म्मपुद्गलस्कन्धानामप्यनन्तानां भावात् स एव पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थ तयाऽसयेयगुणः, अत्र | भावना प्रागिव, तस्मादपि प्रदेशार्थतया पुद्गलास्तिकायात् अद्धासमयो द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणः, अत्रापि भावना प्रागिव, तस्मादध्याकाशास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, सर्वाखपि दिक्षु तस्यान्ताभावात्, अद्धासम यस्य च मनुष्य क्षेत्रमात्रभावात् ॥ गतमस्तिकायद्वारम्, इदानीं चरमद्वारमाह
एएसि णं भंते! जीवाणं चरिमाणं अचरिमाण य कयरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सहत्थोवा जीवा अचरिमा चरिमा अनंतगुणा । दारं । (सू० ८० )
तृतीय-पदे (२३) "चरम" द्वारम् आरब्धः
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२३], -------------- मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [८०]
Eene
बहुत्वपदे चरमजीवद्वारे सू. ८०-८१
दीप अनुक्रम [२८४]
प्रज्ञापना-181 इह येषा चरमो भवः संभवी योग्यतयाऽपि ते चरमा उच्यन्ते, ते चार्थात् भव्याः, इतरे अचरमा-अभव्याः या: मल- सिद्धाश्च, उभयेषामपि चरमभवाभावात् , तत्र स्तोका अचरमाः, अभव्यानां सिद्धाना च समुदितानामप्यजघन्योय. वृत्ती.
स्कृष्टयुक्तानन्तकपरिमाणत्वात् , तेभ्योऽनन्तगुणाश्चरमाः, अजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तकपरिमाणत्वात् ॥ गतं चरमद्वारम् , ॥१४॥ अधुना जीवद्वारमाह
एएसिणं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं अद्धासमयाणं सबदवाणं सबपएसाणं सबपञ्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा पोग्गला अणंतगुणा अद्धासमपा अर्णतगुणा सबदबा विसेसाहिया साचपएसा अर्थतगुणा सबपञ्जवा अणंतगुणा । दारं । (मू०८१)
सर्वस्तोका जीयाः, तेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणाः, तेभ्योऽद्धासमया अनन्तगुणाः, अत्र भावना प्रागेव कृता, तेभ्योऽद्धासमयेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, कथमिति चेत्, उच्यते, इह येऽनन्तरमद्धासमयाः पुद्गलेभ्योऽनन्तगुणा उक्तास्ते प्रत्येक द्रव्याणि ततो द्रव्यचिन्तायां तेऽपि परिगृह्यन्ते तेषु च मध्ये सर्वजीवद्रव्याणि सर्वपुद्गलद्रव्याणि धमाधम्मोकाशास्तिकायद्रव्याणि च प्रक्षिप्यन्ते तानि च समुदितान्यप्यद्धासमयानामनन्तभागकल्पानीति तेषु प्रक्षिप्तेष्वपि मनागधिकत्वं जातं इत्यद्धासमयेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, तेभ्यः सर्वप्रदेशा अनन्तगुणाः,
9999999
॥१४॥
तृतीय-पदे (२४) जीव द्वारम् आरब्ध:
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२४], -------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८१]
दीप अनुक्रम [२८५]
आकाशानन्तत्वात् , तेभ्यः सर्वपर्यवा अनन्तगुणाः, एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां भावात् ॥ गतं जीवद्वारम् , अधुना क्षेत्रद्वारमाह
खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखेजगुणा तेलुके असंखेजगुणा उडलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया (मू०८२)
क्षेत्रस्यानुपातः-अनुसारः क्षेत्रानुपातः तेन चिन्त्यमाना जीवाः सर्वस्तोका ऊ लोकतिर्यग्लोके, इह ऊर्द्धलोकस्य यदधस्तनमाकाशप्रदेशप्रतरं यच तिर्यग्लोकस्य सर्वोपरितनमाकाशप्रदेशप्रतरमेष ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकः, तथाप्रवचनप्रसिद्धेः, इयमत्र भावना-इह सामस्त्येन चतुर्दशरज्वात्मको लोकः, स च त्रिधा भिद्यते, तद्यथा-उर्दू
लोकः तिर्यग्लोकोऽधोलोकश्च, रुचकाचैतेषां विभागः, तथाहि-रुचकस्याधस्तान्नव योजनशतानि रुचकस्योपरिKष्टान्नवयोजनशतानि तिर्यग्लोकः, तस्य च तिर्यग्लोकस्याधस्तादधोलोकः उपरिष्टादू लोकः, देशोनसप्तरज्जुप्रमाण
ऊर्बलोकः समधिकसप्तरज्जुप्रमाणोऽधोलोकः मध्येऽष्टादशयोजनशतोच्छूयस्तिर्यग्लोकः, तत्र रुचकसमाद्भूतलभा1 गानवयोजनशतानि गत्वा यज्योतिश्चक्रस्योपरितनं तिर्यग्लोकसम्बन्धि एकप्रादेशिकमाकाशप्रतरं तत्तिर्यग्लोकप्रतरं ।
तस्य चोपरि यदेकप्रादेशिकमाकाशप्रतरं तदूर्द्धलोकप्रतरं ते द्वे अप्यूर्द्धलोकतिर्यग्लोक इति व्यवहियते, तथाअनादिप्रवचनपरिभाषाप्रसिद्धेः, तत्र वर्तमानाः जीवाः सर्वस्तोकाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह ये ऊर्द्धलोकातिर्यग्लो
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तृतीय-पदे (२५) "क्षेत्र द्वारम् आरब्ध:
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], --------------मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्राक
[८२]]
दीप
प्रज्ञापना- के तिर्यग्लोकादुर्द्धलोके (च) समुत्पधमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ये च तत्रस्था एव केचन तत्प्रतरद्वयाध्यायाः मल- सिनो वर्तन्ते ते किल विवक्षिते प्रतरद्वये वर्तन्ते, नान्ये, ये पुनरूद्धलोकादधोलोके समुत्पद्यमानास्तत्प्रतरद्वयं स्पृ-18 बहुत्वपदे य० वृत्ती. शन्ति ते न गण्यन्ते, तेषां सूत्रान्तरविषयत्वात् , ततः स्तोका एवाधिकृतप्रतरद्वयवर्त्तिनो जीवाः, ननूईलोकगता- क्षेत्रानुसा
वल्पब नामपि सर्वजीवानामसपेयो भागोऽनवरतं म्रियमाणोऽवाप्यते, ते च तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं ॥१४४॥
स्पृशन्तीति कथमधिकृतप्रतरद्वयसंस्पर्शिनः तोका?, तदयुक्त, वस्ततत्त्वापरिज्ञानात्, तथाहि-यद्यपि नामोईKलोकगतानां सर्वजीवानामसङ्ख्येयो भागोऽनवरतं नियमाणोऽवाप्यते तथापि न ते सर्व एव तिर्यग्लोके समुत्पद्यन्ते,
प्रभूततराणामधोलोके ऊलोके च समुत्पादात्, ततोऽधिकृतप्रतरद्वयवर्तिनः सर्वस्तोका एव, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके विशेषाधिकाः, इह यदधोलोकस्योपरितनमेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरं यत्र तिर्यग्लोकस्य सर्वाधस्तनमेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरमेतद्वयमप्यधोलोकतिर्यग्लोक इत्युच्यते, तथाप्रवचनप्रसिद्धः, तत्र ये विग्रहगत्या तत्रस्थतया वा वर्तन्ते ते विशेषाधिकाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह येऽधोलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके । ईलिकागत्या समुत्पद्यमाना अधिकृतप्रतरद्वयं स्पृशन्ति ये च तत्रस्था एव केचन तत्प्रतरद्वयमध्यासीना वत्तेन्ते ते ॥१४॥ विवक्षितप्रतरद्वयवर्तिनो, ये पुनरधोलोकादू लोके समुत्पद्यमानास्तत्ततरद्वयं स्पृशन्ति ते न परिगृह्यन्ते, तेषां सूत्रा-IN न्तरविषयत्वात्, केवलमूर्द्धलोकादधोलोके विशेषाधिका इत्यधोलोकात्तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना ऊर्द्धलोकापेक्षया
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], --~-~~-~~~-~~-~- उद्देशक: [-], दारं [२५],
मूलं [८२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
२. २५
विशेषाधिका अवाप्यन्ते ततो विशेषाधिकाः, तेभ्यस्तिर्यग्लोकवर्त्तिनोऽसोयगुणाः, उक्तक्षेत्राद्विकात्तिर्यग्लोक क्षेत्रस्वासत्रेयगुणत्वात्, तेभ्यस्त्रैलोक्ये -- त्रिलोकसंस्पर्शिनोऽसयेयगुणाः, इद्द ये केवले ऊर्द्धलोकेऽधोलोके तिर्यग्लो के या वर्त्तन्ते ये च विग्रहगत्या ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकौ स्पृशन्ति ते न गण्यन्ते, किं तु ये विग्रहगत्यापन्नास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति ते परिप्रायाः, सूत्रस्य विशेषविषयत्वात्, ते च तिर्यग्लोकवर्त्तिभ्योऽसोयगुणा एव, कथमिति चेत्, उच्यते, इह बहवः प्रतिसमयमूर्द्ध लोकेऽघोलोके च सूक्ष्मनिगोदा उद्वर्त्तन्ते, ये तु तिर्यग्लोकवर्त्तिनः सूक्ष्मनिगोदा उद्वर्त्तन्ते अर्थादघोलोके ऊर्द्धलोके वा केचित्तस्मिन्नेव वा तिर्यग्लो के समुत्पद्यन्ते ततो न ते लोकत्रय संस्पर्शिन इति नाधिकृत सूत्रविषयाः, तत्रोईलोकाधो लोकगतानां सूक्ष्मनिगोदानामुद्वर्त्तमानानां मध्ये केचित् स्वस्थाने एवोर्द्धलोकेऽधोलोके वा समुत्पद्यन्ते केचित्तिर्यग्लोके, तेभ्योऽसयेयगुणा अधोलोकगता ऊर्द्धलोके ऊर्द्धलोकगता अधोलोके ४ समुत्पद्यन्ते, ते च तथोत्पद्यमानास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ती त्यसश्येयगुणाः, कथं पुनरेतदवसीयते यदुत एवंप्रमाणा 8 बहवो जीवाः सदा विग्रहगत्यापन्नाः लभ्यन्ते इति चेत् १, उच्यते, युक्तिवशात्, तथाहि - प्रागुक्तमिदमत्रैव सूत्रं पर्याप्तद्वारे "सवत्थोवा जीवा नोपज्जत्तानो अपज्जत्ता अपज्जत्ता अनंतगुणा पजत्ता संखेज्जगुणा" इति, त एवं नामापर्याप्ता बहवः येनैतेभ्यः पर्याप्ताः सहोयगुणा एव नासश्लेयगुणा नाप्यनन्तगुणाः, ते चापर्यासा बहवोऽन्तरगती वर्त्तमाना लभ्यन्ते इति, तेभ्य ऊर्द्धलोके – ऊर्दूलोकावस्थिता असल्यगुणाः, उपपातक्षेत्रस्यातिषडुत्वात्, असो
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्राक
यवृत्ती.
[८२]
दीप
प्रज्ञापना-याना च भागानामुद्वर्तनायाश्च संभपात , तेभ्योऽधोलोके-अधोलोकवर्त्तिनो विशेषाधिकाः, ऊर्द्धलोकक्षेत्रादधो-18 लोकक्षेत्रस्य विशेषाधिकत्वात् । तदेवं सामान्यतो जीवानां क्षेत्रानुपातेनाल्पबहुत्वमुक्तम् , इदानीं चतुर्गतिदण्डक-|
बहुत्वपदे । क्रमेण तदभिधित्सुः प्रथमतो नैरयिकाणामाह
गत्यपेक्ष
याऽल्प० ॥१४५॥ खेत्ताणुवाएणं सबत्थोवा नेरइया तेलोके अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा, अहोलोए असंखेजगुणा ॥ खेत्ताणुचाएणं
सूत्रं. ८३ सवत्थोवा तिरिक्खजोणिया उहलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए बिसेसाहिया तिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके असंखेज्जगुणा उहलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवाओ तिरिक्खजोणिणीओ उडलोए उहुलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ ।।खेत्ताणुवाएणं सत्वत्थोवा मणुस्सा तेलोके उद्दलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा अहोलीयतिरियलोए संखेज्जगुणा उड्डलोए संखेजगुणा अहोलोए संखेज्जगुणा तिरियलोए संखेज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा मणुस्सीओ तेलोके उड्डलोयतिरियलोए संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणाओ उड्डलोए संखेजगुणाओ अहो- ॥१४५॥ लोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ ॥ खेत्ताणुवाएणं सत्वत्थोवा देवा उड्ढलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणा अहोलोए संखेजगुणा तिरियलोए संखेजगुणा । खेत्ताणुवा
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८३]
दीप
एणं सत्वत्थोवाओ देवीओ उड्डलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेजगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेज्जगुणाओ (मू०८३) 'क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण नैरयिकाश्चिन्त्यमानाः सर्वतोकाबैलोक्ये-लोकत्रयसंस्पर्शिनः, कथं लोकत्रयसंस्पर्शिनो नैरयिकाः कथं वा ते सर्वस्तोकाः इति चेत् ?, उच्यते, इह ये मेरुशिखरे अञ्जनदधिमुखपर्वतशिखरा-18 दिषु वा वापीषु वर्तमाना मत्स्यादयो नरकेत्पित्सव ईलिकागत्या प्रदेशान् विक्षिपन्ति ते किल त्रैलोक्यमपि स्पृशन्ति नारकव्यपदेशं च लभन्ते तत्कालमेव नरकेपुत्पत्तेनारकायुष्कप्रतिसंवेदनात्, ते चेत्थंभूताः कतिपये इति सर्वस्तोकाः, अन्ये तु व्याचक्षते-नारका एव यथोक्तवापीषु तिर्यपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानाः समुद्घातवशतो विक्षिसनिजात्मप्रदेशदण्डाः परिगृह्यन्ते, ते हि किल तदा नारका एव निर्विवाद, तदायुष्कप्रतिसंवेदनात् , त्रैलोक्यसंस्पििनश्च, यथोक्तवापीर्यावदात्मप्रदेशदण्डस्य विक्षिप्तत्वादिति, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-अधोलोकतिर्यग्लोकसञ्जप्रागुक्तपतरद्वयस्य संस्पर्शिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, यतो बहवोऽसङ्ख्येयेषु द्वीपसमुद्रेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नरकेषुत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततो भवन्ति पूर्वोक्तेभ्योऽसोयगुणाः, क्षेत्रस्यासमातगुणत्वात्, मन्दरादिक्षेत्रादसोयद्वीपसमुद्रात्मक क्षेत्रमसोयगुणमित्यतो भवन्त्यसङ्ख्येयगुणाः, अन्ये त्वभिदधति-नारका एवासङ्ग्येयेपु द्वीपसमुद्रेषु तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घातेन विक्षिप्तनिजात्मप्रदेशदण्डा द्रष्टव्याः, ते हि नार
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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ना- या। मलय०वृत्ती.
सूत्रांक [८३]
॥१४६॥
दीप
एeeeeeeeeeeeee
कायुःप्रतिसंवेदनान्नारका उद्वर्तमाना अपि असोयाः प्राप्यन्ते इति प्रागुक्तेभ्योऽसत्येयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकेऽस
३अल्पयेयगुणाः, तस्य तेषां स्वस्थानत्वात् । उक्तं नारकगतिमधिकृत्य क्षेत्रानुपातेनाल्पबहुत्वम् , इदानीं तिग्मतिमधि- बहत्वपदे कृत्याह-इदं सर्वमपि सामान्यतो जीवसूत्रमिव भावनीयं, तदपि तिरश्च एव सूक्ष्मनिगोदानधिकृत्य भावितम् , गत्यपेक्षअधुना तिर्यग्योनिकस्त्रीविषयमल्पबहुत्वमाह-क्षेत्रानुपातेन तिर्यग्योनिकत्रियश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः ऊईलोके, याऽल्प.
सूत्रं. ८३ इह मन्दराद्रिवापीप्रभृतिष्वपि हि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियो भवन्ति, ताश्च क्षेत्रस्याल्पत्वात् सर्वस्तोकाः, ताभ्य ऊलोकतिर्यग्लोके-ऊईलोकतिर्यग्लोकसब्जे प्रतरद्वये वर्तमानाः असोयगुणाः, कथमिति चेत् १, उच्यते, यावत्सहस्रारदेवलोकतावद्देवा अपि गर्भव्युत्क्रान्तिकतियपञ्चेन्द्रिययोनिपूत्पद्यन्ते किं पुनः शेषकायाः, ते हि यथासंभवमुपरिवर्तिनोऽपि तत्रोत्पद्यन्ते, ततो ये सहस्रारान्ता देवा अन्येऽपि च शेषकाया ऊर्द्धलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यक्पश्चेन्द्रियस्त्रीत्वेन तदायुः प्रतिसंवेदयमाना उत्पद्यन्ते यास्तिर्यग्लोकवर्सिन्यस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्त्रिय ऊईलोके देवत्वेन शेषकायत्वेन चोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुघातेनोत्पत्तिदेशे निजनिजात्मप्रदेशदण्डान् विक्षिपन्ति ता यथोकं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति तिर्यग्योमिकस्त्रियश्च तास्ततोऽसोयगुणाः, क्षेत्रस्यासोयगुणत्वात्, ताभ्यसैलोक्ये १४६॥ सोयगुणाः, यस्मादधोलोकात् भवनपतिव्यन्तरनारकाः शेषकाया अपि चोईलोकेऽपि तिर्यपञ्चेन्द्रियस्त्रीत्वेनोत्पधन्ते ऊ लोकाद् देवादयोऽप्यधोलोके च ते समवहता निजनिजात्मप्रदेशदण्डैखीनपि लोकान् स्पृशन्ति प्रभूताश्च ।
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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ते तथा तिर्यग्योनिकल्यायुःप्रतिसंवेदनात् तिर्यग्योनिकस्त्रियश्च ततः सोयगुणाः, ताभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके
अधोलोकतिर्यग्लोकसम्जे प्रतरद्वये वर्तमानाः सङ्ख्येयगुणाः, वहको हि नारकादयः समुद्घातमन्तरेणापि तिर्य-11 Kग्लोके तिर्यक्पश्चेन्द्रियस्त्रीत्वेनोत्पद्यन्ते तिर्यग्लोकवर्तिनश्च जीवास्तिर्यग्योनिकत्रीत्वेनाधोलौकिकग्रामेष्वपि च ते
च तथोत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति तिर्यग्योनिकरुयायुःप्रतिसंवेदनाच तिर्यग्योनिकखियोऽपि, तथाऽघो-पहा लौकिकमामा योजनसहस्रावगाहाः पर्यन्तेऽर्याक क्वचित्प्रदेशे नवयोजनशतावपाहा अपि तत्र काश्चित्तिर्यग्योनिकस्त्रियोऽवस्थानेनापि यथोक्तप्रतरद्वयाध्यासिन्यो वर्त्तन्ते ततो भवन्ति पूर्वोक्ताभ्यः सोयगुणाः, ताभ्योऽधोलोके । सोयगुणाः, यतोऽधोलौकिकमामाः सर्वेऽपि च समुद्रा योजनसहस्रावगाहाः ततो नवयोजनशतानामधस्तात् या वर्त्तन्ते मत्सीप्रभृतिकास्तिर्यग्योनिकस्त्रियस्ताः स्वस्थानत्वात् प्रभूता इति सङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य सङ्ग्वेयगुणत्वात् , ताभ्यस्तिर्यग्लोके सङ्ख्येयगुणाः । उक्तं तिर्यग्गतिमप्यधिकृत्याल्पबदुत्वम् , इदानीं मनुष्यगतिविषयमाह-क्षेत्रानुपातेन मनुष्याश्चिन्यमानाबैलोक्ये-त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सर्वस्तोकाः, यतो ये ऊर्द्धलोकादधोलौकिकग्रामेषु समु|त्पित्सयो मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता भवन्ति ते केचित् समुद्यातवशाद बहिर्निर्गतैः खात्मप्रदेशैखीनपि। लोकान् स्पृशन्ति येऽपि चान्ये वैक्रियसमुद्घातमाहारकसमुद्घातं या गताः [प्राप्ताः] तथाविधप्रयत्नविशेषात् दूरतरमूर्दाघोविक्षिप्तात्मप्रदेशाः ये च केवलिसमुद्घातगतास्तेऽपि त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति स्तोकाथेति सर्वस्तोकाः,N
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक [८३]
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प्रज्ञापना- तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-ऊदलोकतिर्यग्लोकसम्झकप्रतरद्वयसंस्पर्शिनोऽसयेयगुणाः, यत इह वैमानिकदेवाः शेष-11३ अल्पयाः मल-कायाश्च यथासंभवमू लोकात्तिर्यग्लोके मनुष्यत्वेन समुत्पद्यमाना यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिनो भवन्ति विद्याधराणा- बहुत्वपदे यवृत्ती. मपि च मन्दरादिषु गमनं तेषां च शुक्ररुधिरादिपुद्गलेषु संमूछिममनुष्याणामुत्पाद इति ते विद्याधरा रुधिरादि
गत्यपेक्षपुद्गलसम्मिश्रा यदा गच्छन्ति तदा संमूछिममनुष्या अपि यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शवन्त उपजायन्ते ते चातिवहव।
যাব, ॥१४७॥
सूत्रं. ८३ इत्यसोयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-अधोलोकतिर्यग्लोकसम्जे प्रतरद्वये सत्येयगुणाः, यतोऽधोलौकिकयामेषु खभावत एव बहवो मनुष्याः, ततो ये तिर्यग्लोकात् मनुष्येभ्यः शेषकायेभ्यो वाऽधोलौकिकग्रामेषु गर्भव्युक्रान्तिकमनुष्यत्वेन संमूछिममनुष्यत्वेन वा समुत्पित्सवो ये चाधोलोकादधोलौकिकग्रामरूपात् शेषाद्वा मनुष्येभ्यः शेषकायेभ्यो वा तिर्यग्लोके गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यत्वेन वा संमूछिममनुष्यत्वेन वा समुत्पत्तुकामास्ते यथोकं किला प्रतरद्वयं स्पृशन्ति बहुतराच ते तथा खस्थानतोऽपि केचिदधोलौकिकयामेषु यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिन इति ते प्रागुक्तेभ्यः सोयगुणाः, तेभ्यः ऊर्बलोके सोयगुणाः, सौमनसादिक्रीडा) चैत्यवन्दननिमित्तं वा प्रभूततराणां विद्याधरचारणमुनीनां (गमनागमन) भावात् तेषां च यथायोगं रुधिरादिपुद्गलयोगतः संमूछिममनुष्यसंभवात्,18
॥१४७॥ तेभ्योऽधोलोके सङ्ख्येयगुणाः, खस्थानत्वेन बहुत्वभावात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोके सोयगुणाः, क्षेत्रस्य सोयगुणत्वात् स्वस्थानत्वाच । सम्प्रति क्षेत्रानुपातेन मानुषीविषयमल्पबहुत्वमाह-क्षेत्रानुपातेन मानुष्यश्चिन्त्यमानाः सर्वेसोकाः
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Recene
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [८३]
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त्रैलोक्यस्पर्शिन्यः, ऊर्द्धलोकादधोलोके समुत्पित्सूना मारणान्तिकसमुद्घातवशविनिर्गतदूरतरात्मप्रदेशानामथवा वैक्रियसमुद्घातगतानां केवलिसमुद्घातगतानां वा त्रैलोक्यसंस्पर्शनात् तासां चातिस्तोकत्वमिति सर्वस्तोकाः,8 ताभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-ऊलोकतिर्यग्लोकसम्झे प्रतरद्वये सोयगुणाः वैमानिकदेवानां शेषकायाणां चोर्द्धलोकात् तिर्यग्लोके मनुष्यस्त्रीत्वेनोत्पद्यमानानां तथा तिर्यग्लोकगतमनुष्यस्त्रीणामूर्द्धलोके समुत्पित्सूनां मारणान्तिकसमुद्घातवशात् दूरतरमूर्द्धविक्षिप्तात्मप्रदेशानामद्यापि कालमकुर्वन्तीनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शनभावात् तासां चोभयासामपि बहुतरत्वात् , ताभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-प्रागुक्तखरूपे प्रतरद्वयरूपे सोयगुणाः, तिर्यग्लोकाद् मनुष्यस्त्रीभ्यः शेषेभ्यो वाऽधोलौकिकग्रामेषु यदिवाऽधोलौकिकग्रामरूपात् शेषाद्वा तिर्यग्लोके मनुष्यत्रीत्वेनोस्पि-11 सूनां कासाश्चिदधोलौकिकग्रामेष्यवस्थानतोऽपि यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शसंभवात् तासां च प्रागुक्ताभ्योऽतिबहुत्वात् , ताभ्योऽपि ऊलोके सोयगुणाः, क्रीडाथ चैत्यवन्दननिमित्तं वा सौमनसादिषु प्रभूततराणां विद्याधरीणां (गमन)संभवात् , ताभ्योऽप्यधोलोके सपेयगुणाः, खस्थानत्वेन तत्रापि बहुतराणां भावात् , ताभ्यस्तिर्यग्लोके सद्ध्येय-13 गुणाः, क्षेत्रस्य समवेयगुणत्वात् स्वस्थानत्वाच । गतं मनुष्यगतिमधिकृत्याल्पबहुत्वम् , इदानी देवगतिमधिकृत्याहक्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना देवाः सर्वस्तोकाः ऊर्द्धलोके, वैमानिकानामेव तत्र भावात् तेषां चाल्पत्वात् , येऽपि भवनपतिप्रभृतयो जिनेन्द्रजन्ममहोत्सवादी मन्दरादिषु गच्छन्ति तेऽपि खल्पा एवेति सर्वस्तोकाः, तेभ्य ऊर्द्धलोकति-18
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
मज्ञापनाया: मलय.वृत्ती .
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॥१४८॥
दीप
यंग्लोके-ऊ लोकतिर्यग्लोकसम्जे प्रतरद्वयेऽसङ्ख्येयगुणाः, तद्धि ज्योतिष्काणा प्रत्यासन्नमिति खस्थानं, तथा भव-1|३ अल्पनपतिव्यन्तरज्योतिष्का मन्दरादौ सौधर्मादिकल्पगताः खस्थाने गमागमेन तथा ये सौधादिषु देवत्वेनोत्पित्सवो बहुत्वपदे देवायुः प्रतिसंवेदयमानाः खोत्पत्चिदेशमभिगच्छन्ति ते यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततः सामस्त्येन यथोक्तप्रतरद्वय-1 गत्यपेक्षसंस्पर्शिनः परिभाग्यमाना अतिवहब इति पूर्वोक्तभ्योऽसोयगुणाः, तेभ्यस्त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सोयगुणाः, यतो।।
याऽल्प. भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाः तथाविधप्रयत्नविशेषवशतो वैक्रियसमुद्घातेन समवहताः सन्तः त्रीनपि। लोकान् स्पृशन्ति ते चेत्थं समवहताः प्रागुक्तपतरद्वयस्पर्शिभ्यः सोयगुणाः केवलवेदसोपलभ्यन्ते इति समयय-17 गुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके-अधोलोकतिर्यग्लोकसजे प्रतरद्वये वर्तमानाः सोयगुणाः, तद्धि प्रतरद्विक भवनपतिव्यन्तरदेवानां प्रत्यासन्नतया खस्थान तथा बहवो भवनपतयः खभवनस्थाः तिर्यग्लोकगमागमेम तथोद्वत्तमानाः तथा वैक्रियसमुद्घातेन समवहतास्तथा तिर्यग्लोकवर्त्तिनतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्या वा भवनपतित्वेनोत्पद्य-I माना भवनपत्यायुरनुभवन्तो यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिनोऽतिबहव इति सङ्ग्येयगुणाः, तेभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, भवनपतीनां स्वस्थानमितिकृत्वा, तेभ्यस्तिर्यग्लोके समयगुणाः, ज्योतिष्कव्यन्तराणां खस्थानत्वात् । अधुना देवी- ॥१४८।। रधिकृत्याल्पबहुत्वमाह-'खेत्ताणुवाएणं' इत्यादि, सर्व देवसूत्रमिवाविशेषेण भावनीयं । तदेवमुकं देवविषयमीपिक-11 मल्पबहुत्वम् , इदानीं भवनपत्यादिविशेषविषयं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतो भवनपतिविषयमाह
अनुक्रम [२८७]
रटceae
एन्ट
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[८४]
दीप
खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा भवणवासी देवा उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तिरियलोए असंखेजगुणा अहोलोए असंखेजगुणा । खेत्ताणुवाएणं सत्वत्थोवाओ भवणवासिणीओ देवीओ उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तिरियलोए असंखेजगुणाओ अहोलोए असंखेजगुणाओ॥ खेचाणुवाएणं सबत्थोवा वाणमंतरा देवा उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके संखेजगणा अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा अहोलोए संखेजगुणा तिरियलोए संखेजगुणा । खेचाणुवाएणं सवत्थोवाओ चाणमंतरीओ देवीओ उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ ॥खेचाणुबाएणं सबथोवा जोइसिया देवा उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणा तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा अहोलोए संखेजगुणा तिरियलोए असंखेजगुणा । खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवाओ जोइसिणीओ देवीओ उड्डलोए उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ अहोलोए संखेअगुणाओ तिरियलोए असंखेजगुणाओ॥ खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा वेमाणिया देवा [अन्याय०२०००] उड्डलोयतिरियलोए तेलोके संखेजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखेजगुणा उडलोए असंखिजगुणा । खिचाणुवाएणं सत्वत्थोवाओ वेमाणिणीओ देवीओ उड्डलोयतिरियलोए तेलोके संखेजगुणाओ अहोलोयतिरियलोए संखेजगुणाओ अहोलोए संखेजगुणाओ तिरियलोए संखेजगुणाओ उडलोए असंखेजगुणाओ (मु०८४)
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अनुक्रम [२८८]
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आगम
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༄ལླཱཟླ
अनुक्रम
[ २८८]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], --~-~~-~~~-~~-~- उद्देशक: [-],
दारं [२५],
• मूलं [८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ. ॥ १४९ ॥
• क्षेत्रानुपातेन भवनवासिनो देवाश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोका ऊर्द्धलोके, तथाहि केषाञ्चित्साधम्र्म्मादिष्वपि कल्पेषु पूर्वसंगतिकनिश्रया गमनं भवति, केषाञ्चिन्मन्दरे तीर्थकरजन्ममहिमानिमित्तमञ्जनदधिमुखेष्वष्टाहिकानिमित्तमपरेषां मन्दरादिषु क्रीडानिमित्तं गमनमेते च सर्वेऽपि खल्पा इति सर्वस्तोका ऊर्द्धलोके, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोक४ सज्ञे प्रतरद्वये असोयगुणाः, कथमिति चेत् १, उच्यते, इह तिर्यग्लोकस्था वैक्रियसमुद्घातेन समवहता ऊर्द्धलोकं तिर्यग्लोकं च स्पृशन्ति तथा ये तिर्यग्लोकस्था एव मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता ऊर्द्धलोके सौधर्म्मादिषु देवलोकेषु नादरपर्याप्त पृथिवीकायिकतया बादरपर्याप्ताकायिकतया बादरपर्याप्तप्रत्येक वनस्पतिकायिकतया च शुभेषु मणिविधानादिषु स्थानेषूत्पनुकामा अद्यापि स्वभवायुः प्रतिसंवेदयमानाः, न पारभविकं पृथिवीकायिकाद्यायुः, द्विविधा हि मारणान्तिकसमुद्घातसमवहताः केचित्पारभविकमायुः प्रतिसंवेदयन्ते केचिन्नेति तथा चोक्तं प्रज्ञप्ती - "जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्धापणं समोहए समोहणित्ता जे भविए मंदरस्स पञ्चयस्स पुरच्छि मेणं वायरपुविका इयत्ताए उबवजित्तए से णं भंते! किं तत्थगए उबवज्जेज्जा उयाहु पडिनियत्तित्ता उववज्जह ?, गोयमा ! अत्येगइए तत्थगए चेव उववज्जइ अत्थेगइए ततो पडिनियत्तित्ता दोचंपि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणति, समोहणित्ता तओ पच्छा उववज्जह" इति स्वभवायुः प्रतिसंवेदनाच ते भवनवासिन एव लभ्यन्ते, ते इत्थंभूता उत्पत्तिदेशे विक्षिसात्मप्रदेशदण्डाः तथोर्द्धलोके गमनागमनतस्तत्प्रतरद्वयप्रत्यासन्नक्रीडास्थानतश्च यथोक्तं
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३ अल्प
बहुत्वपदे विशेषेण देवानाम
ल्प. सू. ८४
॥ १४९ ॥
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(१५)
प्रत
सूत्रांक
[८४]
दीप अनुक्रम [ २८८]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], --~-~~-~~~-~~-~- उद्देशक: [-],
दारं [२५],
• मूलं [८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततः प्रागुक्तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यस्त्रैलोक्ये - त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सङ्ख्येयगुणाः, यतो ये ऊर्द्धलोके तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया भवनपतित्वेनोत्पत्तुकामा ये च स्वस्थाने वैक्रियसमुद्घातेन मारणान्तिकप्रथमसमुद्घातेन वा तथाविधतीव्रप्रयत्नविशेषेण समयहतास्ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिन इति सत्येयगुणाः, परस्थानसमवहतेभ्यः स्वस्थानसमयहतानां सङ्ख्वेयगुणत्वात्, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके - अधोलोकतिर्यग्लोकसञ्ज्ञे प्रतरद्वयेऽसङ्ख्येयगुणाः, स्वस्थानप्रत्यासन्नतया तिर्यग्लोके गमनागमनभावतः स्वस्थानस्थितक्रोधादि समुद्घातगमनतश्च बहूनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शभावात्, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसोयगुणाः, समवसरणादौ यन्दननिमित्तं द्वीपेषु च रमणीयेषु क्रीडानिमित्तमागमनसंभवात् आगतानां च चिरकालमप्यवस्थानात्, तेभ्योऽघोलोकेऽसत्येयगुणाः, भवनवासिनामघोलोकस्य स्वस्थानत्वात् । एवं भवनवासिदेवीगतमप्यल्पबहुत्वं भावनीयं । सम्प्रति व्यन्तरगतमल्पबहुत्वमाह- क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना व्यन्तराः सर्वस्तोका ऊर्द्धलोके, कतिपयानामेव पण्डकवनादौ तेषां भावात्, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसश्येयगुणाः केषांचित् स्वस्थानान्तर्वर्त्तितया अपरेषां स्वस्थानप्रत्यासन्नतया अन्येषां बहूनां मन्दरादिषु गमनागमनभावतो यथोक्तप्रतरद्वय संस्पर्शात् तेषां समुदायेन चिन्त्यमानानामतिबहुत्वभावात्, तेभ्यस्त्रैलोक्ये सङ्ख्येयगुणाः, यतो लोकत्रयवर्त्तिनोऽपि व्यन्तरास्तथाविधप्रयत्नविशेषवशतो वैक्रियसमुद्घातेन समवहताः सन्तस्त्रीनपि लोकानात्मप्रदेशैः स्पृशन्ति, ते च प्रागुक्तेभ्योऽतिबहव इति सत्येयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतर
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती.
सूत्राक [८४]
॥१५०॥
दीप
eversesepecieselseaseseळएटा
द्वयरूपे असोयगुणाः, तद्धि बहूनां व्यन्तराणां खस्थानं ततस्तत्संस्पर्शिनो वहब इत्यसङ्ख्येयगुणाः, अधोलोके सलये- अल्पयगुणाः, अधोलौकिकग्रामेषु तेषां स्वस्थानभावात् बहूनामधोलोके क्रीडार्थ गमनभायात्, तेभ्यस्तिर्यग्लोके सङ्ग्येय- बहुत्वपदे गुणाः, तिर्यग्लोकस्य तेषां स्वस्थानत्वात्। एवं व्यन्तरदेवीविषयमप्यल्पबहुत्वं वक्तव्यं । सम्प्रति ज्योतिष्कविषयमल्पब
विशेषेण हुत्वमाह-क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना ज्योतिष्काः सर्यस्तोका ऊर्द्धलोके, केषाश्चिदेव मन्दरे तीर्थकरजन्ममहोत्सव
| देवानाम
ल्प.सू.८४ निमित्तमजनदधिमुखेष्यष्टाहिकानिमित्तं च परेषां केपाश्चिन्मन्दरादिषु क्रीडानिमित्तं गमनसंभवात् , तेभ्य ऊईलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपे असोयगुणाः, तद्धि प्रतरद्वयं केचित् स्वस्थानस्थिता अपि स्पृशन्ति, प्रत्यासन्नत्वात् , अपरे पैक्रियसमुद्घातसमवहताः, अन्ये ऊर्द्धलोकगमनागमनभावतः, ततोऽधिकृतप्रतरदयस्पर्शिनः पूर्वोक्तभ्योऽ|सोयगुणाः, तेभ्यसैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सहयगुणाः, ये हि ज्योतिष्कास्तथाविधतीव्रप्रयल क्रियसमुद्घा| तेन समवहतास्त्रीनपि लोकान् खप्रदेशः स्पृशन्ति ते स्वभावतोऽप्यतिबहव इति पूर्वोक्तभ्यः सवेयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वये वर्तमाना असोयगुणाः, यतो बहवोऽधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादिनिमित्तमधोलोके क्रीडानिमित्तं गमनागमनभावतो बहवचाधोलोकात् ज्योतिष्कप समुत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ॥१५०॥ ततो घटन्ते पूर्वोक्तभ्योऽसोयगुणाः, तेभ्यः सोयगुणा अधोलोके, बहूनामधोलोके क्रीडानिमित्तमधोलीकिक-13 ग्रामेषु समवसरणादिषु चिरकालावस्थानात, तेभ्योऽसोयगुणास्तिर्यग्लोके, तिर्यग्लोकस्य तेषां स्वस्थानत्वात् । एवं
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[८४]
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अनुक्रम [ २८८]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [३], --~-~~-~~~-~~-~- उद्देशक: [-],
दारं [२५],
• मूलं [८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jan Educat
ज्योतिष्कदेवीसूत्रमपि भावनीयं । सम्प्रति वैमानिकदेव विषयमल्पबहुत्वमाह – 'क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमाना वैमानिका देवाः सर्वस्तोकाः ऊर्द्ध लोकतिर्यग्लो के ऊर्द्ध लोकतिर्यग्लो कसज्ञे प्रतरद्वये, यतो येऽधोलोके तिर्यग्लोके वा वर्तमाना जीवा वैमानिकेपूत्वयन्ते ये च तिर्यग्लोके वैमानिका गमनागमनं कुर्वन्ति ये च विवक्षितत्रतरद्वयाध्यासितं क्रीडास्थानं संश्रिता ये च तिर्यग्लोकस्थिता एव वैक्रियसमुद्घातं मारणान्तिकसमुद्घातं वा कुर्वाणास्तथाविधप्रयत्न विशेषादूर्द्धमात्मप्रदेशान् निसृजन्ति ते विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ते चाल्पे इति सर्वस्तोकाः, | तेभ्यस्त्रैलोक्ये सत्येयगुणाः, कथमिति चेत् १, उच्यते, इद्द येऽघोलौकिकप्रामेषु समवसरणादिनिमित्त मधोलोके वा क्रीडानिमित्तं गताः सन्तो वैक्रियसमुद्घातं मारणान्तिकसमुद्घातं वा कुणास्तथाविधप्रयत्नविशेषाद् दूरतरमूर्द्ध विक्षितात्मप्रदेशदण्डा ये च वैमानिकमवादीलिकागत्या व्यवमाना अधोलौकिकग्रामेषु समुत्पद्यन्ते ते किल त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति बहवश्च पूर्वोक्तेभ्य इति सत्यगुणाः, तेभ्योऽप्यधो लोकतिर्यग्लो के अधोलोकतिर्यग्लोकसज्ञे प्रतरद्वये सङ्ख्येयगुणाः, अधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादौ गमनागमनभावतो विवक्षितप्रतरद्वयाध्यासितसमवसरणादौ चावस्थानतो बहूनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्श भावात्, तेभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, अघोलौकिकप्रामेषु बहूनां समवसरणादाववस्थानभावात्, तेभ्यस्तिर्यग्लोके सश्येयगुणाः, बहुषु समवसरणेषु बहुषु च क्रीडास्था
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
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[८४]
॥१५१॥
दीप अनुक्रम [२८८]
नेषु बहनामवस्थानभावात् , तेभ्य ऊवलोकेऽसल्येयगुणाः, ऊईलोकस्य खस्थानत्वात् , तत्र च सदैव बहुतरमावात् । एवं वैमानिकदेवीविषयं सूत्रमपि भावनीयं ॥ सम्प्रत्येकेन्द्रियादिगतमल्पवहुत्वमाह
बहुत्वपदे खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा एनिदिया जीवा उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखि
क्षेत्रानुपाजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवाएणं सबथोवा एगिदिया
तेन देवाजीवा अपञ्जत्तमा उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिनगुणा तेलोके असंखेज
ल्प. एकेगुणा उङ्गलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्ताणुवाएणं सबथोवा एगिदिया जीवा पजत्तगा उडलोयति
इन्द्रिया.सू. रियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा
८४-८५ अहोलोए बिसेसाहिया (मु०८५)
क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना एकेन्द्रिया जीवाः सर्वस्तोका ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-अईलोकतिर्यग्लोकसम्झे प्रतर-8 द्वये, यतो ये तत्रस्था एव केचन ये चोर्द्धलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकादूईलोके समुत्पित्सवः कृतमारणान्तिकसमु
शा॥१५॥ घातास्ते किल विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति खल्पाश्च ते इति सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके विशेषाधिकाः, यतो ये अधोलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके ईलिकागत्या समुत्पद्यमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति तत्रस्थाश्च ऊर्द्धलोकाचाधोलोके विशेषाधिकास्ततो बहबोऽधोलोकात्तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना अवाप्यन्ते इति
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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दीप
विशेषाधिकाः, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसञ्जयगुणाः, उक्तप्रतरद्विकक्षेत्रातिर्यग्लोकक्षेत्रस्यासयेयगुणत्वात्, तेभ्यसैलो-18 क्येऽसयेयगुणाः, बहवो बूर्द्धलोकादधोलोके अधोलोकालोके च समुत्पद्यन्ते, तेषां च मध्ये बहवो मारणा-18 न्तिकसमुद्घातवशाद्विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति ततो भयत्यसोयगुणाः, तेभ्य ऊर्द्धलोकेऽसमये-181
यगणाः उपपातक्षेत्रस्यातिबहत्यात, तेभ्योऽधोलोके विशेषाधिकाः, ऊलोकक्षेत्रादधोलोकक्षेत्रस्य विशेषाधिक-1 त्विात् । एवमपर्याप्तविषयं पर्याप्सविषयं च सूत्रं भावयितव्यम् ॥ अधुना द्वीन्द्रियविषयमल्पबहुत्वमाह
खेत्ताणुवाएणं सवत्थोवा विइंदिया उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलुके असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिजगुणा। खित्ताणुवाएणं सबथोवा इंदिया अपनत्तया उड्डलोए उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलोके असंखेज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखेनगुणा अहोलोए संखिजगुणा विरियलोए संखिजगुणा । खित्ताणुवाएणं सबथोवा येइंदिया पन्जचा उड्डलोए उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिज्जगुणा ॥ खिचाणुवाएणं सबथोवा तेइंदिया उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा तेलोके असंखिनगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिज्जगुणा | खिताणुवाएणं सवत्थोवा तेइंदिया अपज्जत्तया उड्डलोए उड्डलोगतिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिनगुणा अहोलोए संखि
अनुक्रम [२८९]
हटलरकर
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
क्षेत्रानु.
सूत्राक
[८६]
॥१५२॥
न्द्रिया०
सू.८६
दीप
जगुणा तिरियलोए संखिजगुणा । खित्ताणुवाए सवयोवा तेइंदिया पजत्तया उड्डलोए उडलोयतिरियलोए असं- ३ अल्पखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए संखिज्जगुणा । बहुत्वपदे खिताणुवाएर्ण सबथोवा चउरिंदिया जीवा उडलोए उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोर संखिजगुणा। खिचाणुवाएणं सबथोवा चाउरिदिया विकलेजीवा अपजत्तया उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिजगुणा । खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा चउरिदिया जीवा पञ्जत्तया उडलोए उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए संखिजगुणा (सू०८६)
क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमाना द्वीन्द्रियाः सर्वस्तोका ऊलोके, ऊर्द्धलोकस्यैकदेशे तेषां संभवात् , तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसङ्ख्यगुणाः, यतो ये ऊर्द्धलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकादूई लोके वीन्द्रिय-1 त्वेन समुत्पत्तुकामास्तदायुरनुभवन्त ईलिकागत्या समुत्पद्यते ये च द्वीन्द्रिया एव तिर्यग्लोकादूर्बलोके ऊईलोकाहा । तिर्यग्लोके द्वीन्द्रियत्वेनान्यत्वेन वा समुत्पत्कामाः कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाताः अत एव द्वीन्द्रियायुः प्रतिसंवेदयमानाः समुद्घातयशाच दूरतरविक्षिप्सनिजात्मप्रदेशदण्डा ये च प्रतरद्वयाध्यासितक्षेत्रसमासीनास्ते यथोक्त
अनुक्रम [२९०]
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
30080909393
सूत्रांक [८६]
दीप
प्रतरद्वयसंस्पर्शिनः बहवश्चेति पूर्वोक्तेभ्योऽसवेयगुणाः, तेभ्यस्त्रैलोक्येऽसोयगुणाः, यतो द्वीन्द्रियाणां प्राचुर्वेणोत्पत्तिस्थानान्यधोलोके तस्माचातिप्रभूतानि तिर्यग्लोके, तत्र ये वीन्द्रिया अधोलोकालोके द्वीन्द्रियत्वेनान्यत्वेन वा समुत्पनुकामाः कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाताः समुद्घातवशाञ्चोत्पत्तिदेशं यावत् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्ते द्वीन्द्रियायुः प्रतिसंवेदयमानाः ये चो लोकादधोलोके द्वीन्द्रियाः शेषकाया वा यावद् द्वीन्द्रियत्वेन समुत्पद्यमाना द्वीन्द्रियायुरनुभवन्ति ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः ते च बहव इति पूर्वोक्तभ्योऽसत्ये यगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोकप्रतरद्वयरूपेऽसोयगुणाः, यतो येऽधोलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके द्वीन्द्रियत्वेन समुत्पत्तुकामास्तदायुरनुभवन्त ईलिकागत्या समुत्पद्यन्ते ये च द्वीन्द्रियास्तिर्यग्लोकादधोलोके द्वीन्द्रियत्वेन शेषकायत्वेन बोत्पित्सवः कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाता द्वीन्द्रियायुरनुभवन्तः समुद्घातवशेनोत्त्पत्तिदेशं यावद् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्ते यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति प्रभूताश्चेति पूर्वोक्तभ्योऽसोयगुणाः, तेभ्योऽधोलोके सोयगुणाः, तत्रोत्पसिस्थानानामतिप्रचुराणां भावात् , तेभ्योऽपि तिर्यग्लोके सोयगुणाः, अतिप्रचुरतराणां योनिस्थानानां तत्र भावात्, यदमौधिकं द्वीन्द्रियसूत्रं तथा पर्याप्तापर्याप्तद्वीन्द्रियसूत्रौधिकत्रीन्द्रियपर्याप्सापासौधिकचतुरिन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तसूत्राणि भावनीयानि ॥ साम्प्रतमौधिकपञ्चेन्द्रियविषयमल्पबहुत्वमाहखिताणुचाएणं सवत्थोवा पंचिंदिया तेलुके उड्डलोयतिरियलोए संखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उडलोए
अनुक्रम [२९०]
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For P
OW
~317~
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्राक
[८७]
दीप
प्रज्ञापना- संखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा | खित्ताणुवाएणं सत्वत्थोवा पंचिंदिया अपनत्तया तेलोके | ३ अल्पयाः मल-४ उडलोयतिरियलोए संखेनगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उडलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिञ्जगुणा तिरिय
बहुत्वपदे य० वृत्ती.
लोए असंखिजगुणा । खित्ताणुवाएणं सबथोवा पंचिंदिया पजत्ता उडलोए उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके क्षेत्रानुक ॥१५॥
संखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा (मू०८७) | पञ्चेन्द्रिक्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः सर्वस्तोकाखैलोक्ये-त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः, यतो येऽधोलोकार्द्वलोके |
याल्प. ऊलोकाद्वाऽधोलोके शेषकायाः पश्चेन्द्रियायुरनुभवन्त ईलिकागल्या समुत्पद्यन्ते ये च पञ्चेन्द्रिया ऊर्द्धलोकादधो
सूत्र.८७ लोके अधोलोकादूर्द्धलोके शेषकायत्वेन पञ्चेन्द्रियत्वेन वोत्पित्सवः कृतमारणान्तिकसमुद्घाताः समुपातपशाचो-11 त्पत्तिदेशं यावत् विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डाः पञ्चेन्द्रियायुरद्याप्यनुभवन्ति ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः ते चाल्पे इति सर्वस्तोकाः, तेभ्य ऊईलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपे असोयगुणाः, प्रभूततराणामुपपातेन समुद्घातेन वा यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शसंभवात् , तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके सङ्ख्येयगुणाः, अतिप्रभूततराणामुपपातसमुद्घाताभ्यामधोलोकतिर्यग्लोकसञ्जप्रतरद्वयसंस्पर्शभावात्, तेभ्य ऊर्द्धलोके समवेयगुणाः, वैमानिकानामवस्थानभावात् , तेभ्योऽधोलोके ॥१५३॥ सङ्ख्येयगुणाः, वैमानिकदेवेभ्यः सोयगुणानां नैरयिकाणां तत्र भावात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, संमूछिमजलचरखचरादीनां व्यन्तरज्योतिष्काणां संमूछिममनुष्याणां तत्र भावात् । एवं पञ्चेन्द्रियापर्याप्तसूत्रमपि भाव
seseceneseneeeeeese
अनुक्रम [२९१]
~318~
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[८७]
दीप
अनुक्रम [२९१]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
ч [3], --------------- JÈAH: [-], -------------- GIỶ [24],
मूलं [८७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jan Eurato
नीयं । पञ्चेन्द्रियपर्याससूत्रमिदम् — 'खेत्ताणुवारणं' इत्यादि, क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः पर्याप्ताः सर्वस्तोका ऊर्द्धलोके, प्रायो वैमानिकानामेव तत्र भावात्, तेभ्य ऊर्दूलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसत्येयगुणाः, विवक्षितप्रतरद्वयप्रत्यासन्नज्योतिष्काणां तदध्यासितक्षेत्राश्रितव्यन्तरतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां वैमानिकव्यन्तरज्योतिष्कविद्याधरचारणमुनितिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामूर्द्धलोके तिर्यग्लोके च गमनागमने कुर्वतामधिकृतप्रतरद्वयसंस्पर्शात्, तेभ्यस्त्रैलोक्येत्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सोयगुणाः, कथमिति चेत्, उच्यते, यतो ये भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः विद्याधरा वाऽधोलोकस्थाः कृतवैक्रिय समुद्घा तास्तथाविधप्रयत्नविशेषादूर्द्धलोके विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्ते श्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति इति सोयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपे सोयगुणाः, बहवो हि व्यन्तराः स्वस्थानप्रत्यासन्नतया भवनपतयस्तिर्यग्लोके ऊर्द्धलोके वा व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा अधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादी अधोलोके क्रीडादिनिमित्तं च गमनागमनकरणतः तथा समुद्रेषु केचित्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः स्वस्थानप्रत्यासन्नतया अपरे तदध्यासितक्षेत्राश्रिततया यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ततः सत्येयगुणाः, तेभ्योऽघोलोके सोयगुणाः, नैरयिकाणां भवनपतीनां च तत्रावस्थानात्, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्काणामवस्थानात् । तदेवमुक्तं पञ्चेन्द्रियाणामल्पबहुत्वम्, इदानीमेकेन्द्रियभेदानां पृथिवीकायिकादीनां पञ्चानामौधिकपर्याप्तापर्यासभेदेन प्रत्येकं त्रीणि त्रीण्यल्पबहुत्वान्याह
For Parts Only
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
पत
प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
सूत्राक
[८७]]
॥१५॥
दीप
खिताणुवाएणं सवत्थोवा पुढविकाइया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिज्ज
३ अल्पगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा पुढविकाइया | बहुत्वपदे अपजत्तया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए बिसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा |क्षेत्रानुपा. उड्डलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया। खित्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढविकाइया पजत्तया उड्डलोयतिरियलोए पृथ्व्यादीअहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए नामल्प. विसेसाहिया ॥ खित्ताशुवाएणं सबथोवा आउकाइया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए सूत्र.८८ असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उडलोए असंखिज्जगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खिचाणुवाएणं सबत्योवा आउकाइया अपजत्तया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खित्नाणुवाएणं सबत्थोवा आउकाइया पज्जत्तया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया || खिचाणुवाएणं सबथोवा तेउकाइया उडलोयतिरियलोए अहोलोयति रियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसादिया । खिचाणुवाएक सब- RImum त्योवा तेउकाइया अपजत्नया उडलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उड्डलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खिचाणुवाएणं सबत्थोवा तेउकाइया पज्जत्तया उडलो
अनुक्रम [२९१]
wirelucturary.com
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [८८]
दीप अनुक्रम [२९२]
यतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखेजगुणा अहोलोए विसेसाहिया ॥ खिचाणुवाएणं सबत्थोवा वाउकाइया अपञ्ज तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया। खिताणुवाएणं सबथोवा बाउकाइया पञ्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उड्डलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया ॥ खित्ताणुवाएणं सवत्थोवा वणस्सहकाइया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । खिताणुवाएणं सबथोरा वणस्सइकाइया अपज्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलुके असंखिजगुणा उङ्गलोए असंखिजगुणा अहोलोए बिसेसाहिया । खिचाणुवाएणं सब्बत्थोवा वणस्सइकाइया पजत्तया उड्डलोयतिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा तेलोके असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया (सू०८८)
इमानि पञ्चदशापि सूत्राणि प्रागुक्तकेन्द्रियसूत्रवद्भावनीयानि । साम्प्रतमौधिकत्रसकायापर्याप्तपर्यासत्रसकायसूत्राण्याहखित्ताणुवाएणं सबथोवा तसकाइया तेलोके उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उड
For P
OW
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२५], -------------- मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
es
३ अल्प
प्रज्ञापना
या। मलयवृत्ती.
बहुत्वपदे
सूत्राक
[८९]
॥१५५॥
क्षेत्रानुपा. वसकायिकावन्धMकाधल्प.
सू. ८९
दीप
लोए संखिजगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा | खित्ताणुवाएणं सबत्थोवा तसकाइया अपजत्तया तेलोके उद्दलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा अहोलोय तिरियलोए संखिज्जगुणा उहुलोए संखिजगुणा अहोलोए संखिज्जगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा । खिचाणुवाएम सबथोवा तसकाइया पजत्चया तेलोके उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणा उड्डलोए संखिज्जगुणा अहोलोए संखिजगुणा तिरियलोए असंखिजगुणा ।। (मू०८९) इमानि पञ्चेन्द्रियसूत्रबद् भावनीयानि । गतं क्षेत्रद्वारम् , इदानी बन्धद्वारं वक्तव्यं-बन्धोपलक्षितं द्वारं, तदाहएएसिणं भंते ! जीवाणं आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं पञ्जनाणं अपञ्जत्ताणं सुत्ताण जागराणं समोहयाणं असमोहयाणं सायावेयगाणं असायावेयगाणं इंदिओवउत्ताणं नोइंदिओवउत्ताणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सबथोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स बंधगा १ अपञ्जतया संखेजगुणा २ सुत्ता संखेनगुणा ३ समोहया संखेजगुणा ४ सायावेयगा संखेजगुणा ५ इंदिओवउत्ता संखेजगुणा ६ अणागारोक्उत्ता संखेजगुणा ७ सागारोवउत्ता संखेजगुणा ८ नोइंदिओवउत्ता विसेसाहिया ९ असायावेयगा विसेसाहिया १० असमोहया विसेसाहिया ११ जागरा विसेसाहिया १२ पञ्जत्तया विसेसाहिया १३ आउयस्स कम्मस्स अबधया विसेसाहिया १४ (मू०९०)
अनुक्रम [२९३]
॥१५॥
तृतीय-पदे (२६) "बन्ध" द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[30]
दीप
अनुक्रम [२९४]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
पदं [३], --------------उद्देशक: [-],
दारं [२६],
मूलं [१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
इहायुःकर्मबन्धकाबन्धकानां पर्याप्तापर्याप्तानां सुसजायतां समवहतासमवहतानां सातवेदका सातवेदकानां इन्द्रियोपयुक्त नोइन्द्रियोपयुक्तानां साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्तानां समुदायेनाल्पबहुत्वं वक्तव्यं तत्र प्रत्येकं तावद् ब्रूमः येन समुदायेन सुखेन तदवगम्यते, तत्र सर्वस्तोकाः आयुषो बन्धका अवन्धकाः सङ्ख्येयगुणाः, यतोऽनुभूयमानभवायुषि त्रिभागावशेषे पारभविकमायुर्जीवा बनन्ति त्रिभागविभागाद्यवशेषे वा ततो द्वौ त्रिभागावनन्धकाल एकस्त्रिभागो बन्धकाल इति बन्धकेभ्योऽबन्धकाः सङ्ख्येयगुणाः । तथा सर्वस्तोका अपर्याप्तकाः पर्याप्तकाः सङ्ख्येयगुणाः, एतच सूक्ष्मजीवानधिकृत्य वेदितव्यं सूक्ष्मेषु हि वालो व्याघातो न भवति ततस्तद्भावाद् बहूनां निष्पत्तिः स्तोकानामेव चानिष्पत्तिः । तथा सर्वस्तोकाः सुप्ताः, जागराः सङ्ख्येयगुणाः, एतदपि सूक्ष्मानेकेन्द्रियानधिकृत्य वेदितव्यं यस्मादपर्याप्ताः सुप्ता एव लभ्यन्ते, पर्याप्ता जागरा अपि, [उक्तं च मूलटीकाया- "जम्हा अपजत्ता सुत्ता लम्भंति, केइ अपजत्तगा जेसिं संखिजा समया अतीता ते य थोवा इयरेऽवि थोवगा चेव सेसा, जागरा पज्जत्ता ते संखिज्जगुणा" इति ] जागराः पर्याप्तास्तेन सङ्ख्येयगुणा इति । तथा समवहताः सर्वस्तोकाः, यत | इह समवहता मारणान्तिकसमुद्घातेन परिगृह्यन्ते, मारणान्तिकश्च समुद्घातो मरणकाले न शेषकालं, तत्रापि न | सर्वेषामिति सर्वस्तोकाः, तेभ्योऽसमवहता असङ्ख्येयगुणाः, जीवनकाल स्यातिबहुत्वात् । तथा सर्वस्तोकाः सातवेदकाः, यत इह बहवः साधारणशरीरा अल्पे च प्रत्येकशरीरिणः, साधारणशरीराश्च बहवोऽसातवेदकाः खल्पाः सातवेदिनः
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२६], -------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्राक
९ि०॥
दीप
प्रज्ञापना- प्रत्येकशरीरिणस्तु भूयांसः सातवेदकाः स्तोका असातवेदिनः, ततः स्तोकाः सातवेदकाः तेभ्योऽसातवेदकाः ३ अल्पया: मलसङ्ख्येयगुणाः । तथा सर्वस्तोका इन्द्रियोपयुक्ताः तेभ्यो नोइन्द्रियोपयुक्ताः सङ्ख्येयगुणाः, इन्द्रियोपयोगो हि प्रत्यु
बहुत्वपदे य. वृत्तौ. त्पन्नकालविषयः ततस्तदुपयोगकालस्य स्तोकत्वात् पृच्छासमये स्तोका अवाप्यन्ते, यदा तु तमेवार्थमिन्द्रियेण दृष्ट्वा
आयुर्वे
न्धकाचविचारयत्योघसज्ञयाऽपि तदा नोइन्द्रियोपयुक्तः स व्यपदिश्यते ततो नोइन्द्रियोपयोगस्यातीतानागतकालविष॥१५६॥ यतया बहुकालत्वात् सङ्ख्येयगुणा नोइन्द्रियोपयुक्ताः । तथा सर्वस्तोका अनाकारोपयुक्ताः, अनाकारोपयोगकालस्य
ल्प.सू.९० सस्तोकत्वात् , साकारोपयुक्ताः सङ्ख्ययगुणाः, अनाकारोपयोगकालात् साकारोपयोगकालस्य सङ्ख्ययगुणत्वात् ॥
इदानी समुदायगतं सूत्रोक्तमल्पबहुत्वं भाव्यते-सर्वस्तोका जीवा आयुःकर्मणो बन्धकाः, आयुर्वन्धकालस प्रति|नियतत्वात् , तेभ्योऽपर्याप्ताः सङ्ख्येयगुणाः, यस्मादपर्याप्ता अनुभूयमानभवत्रिभागाद्यवशेषायुषः पारभविकमायुर्षअन्ति ततो द्वी त्रिभागावबन्धकाल एको बन्धकाल इति बन्धकालादवन्धकालः सोयगुणः तेन सवयगुणा | एवापर्याप्ता आयुर्वन्धकेभ्यः, तेभ्योऽपर्याप्सेभ्य सुप्ताः समवेयगुणाः, यस्मादपर्यासेषु पर्यासेषु च सुप्ता लभ्यन्ते, पर्यासाचापर्योसेभ्यः सोयगुणा इत्यपर्याप्सेभ्यः सुप्ताः सवयेयगुणाः, तेभ्यः समवहताः सोयगुणाः, बहूनां पर्या-19 सेष्वपर्याप्तेषु मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः सातवेदकाः सञ्जयगुणाः, आयुबन्धकापर्याससुसेष्वपि सातवेदकानां लभ्यमानत्वात् , तेभ्य इन्द्रियोपयुक्ताः सधेयगुणाः, असातवेदकानामपि
अनुक्रम [२९४]
॥१५६॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२६], -------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[९०
दीप
इन्द्रियोपयोगस्य लभ्यमानत्वात् , तेभ्योऽनाकारोपयोगोपयुक्ताः सोयगुणाः, इन्द्रियोपयोगेषु नोइन्द्रियोपयोगेषु चानाकारोपयोगस्य लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः साकारोपयुक्ताः सञ्जयेयगुणाः, इन्द्रियोपयोगेषु नोइन्द्रियोपयोगेषु च | साकारोपयोगकालस्य बहुत्वात् , तेभ्यो नोइन्द्रियोपयोगोपयुक्ता विशेषाधिकाः, नोइन्द्रियानाकारोपयुक्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् , अत्र विनेयजनानुग्रहार्थमसभावस्थापनया निदर्शनमुच्यते-इह सामान्यतः किल साकारोपयुक्ता द्विनवत्यधिकं शतं १९२, ते च किल द्विधा-इन्द्रियसाकारोपयुक्ता नोइन्द्रियसाकारोपयुक्ताच, तत्रेन्द्रियसाकारो-16 पयुक्ताः किलातीव स्तोका इति विंशतिसङ्ख्याः कल्प्यन्ते, शेषं द्विसप्तत्युत्तरशतं १७२ नोइन्द्रियसाकारोपयुक्ताः,8 नोइन्द्रियानाकारोपयुक्ताच द्विपञ्चाशत्कल्पाः, ततः सामान्यतः साकारोपयुक्तभ्यः इन्द्रियसाकारोपयुक्त विंशतिक-18 ल्पेष्वपनीतेषु द्विपञ्चाशत्कल्पेषु अनाकारोपयुक्तेषु तेषु मध्ये प्रक्षिप्तेषु द्वे शते चतुर्विशत्यधिके भवतः, ततः साकारो-18 पयुक्तेभ्यो नोइन्द्रियोपयुक्ता विशेषाधिकाः, तेभ्योऽसातवेदका विशेषाधिकाः, इन्द्रियोपयुक्तानामप्यसातवेदकत्वात् , तेभ्योऽसमयहता विशेषाधिकाः, सातवेदकानामध्यसमवहतत्वभावात, तेभ्यो जागरा विशेषाधिकाः, समवहतानामपि केषांचिजागरत्वात्, तेभ्यः पर्याप्ताः विशेषाधिकाः, सुप्तानामपि केपाश्चित्पर्याप्तत्वात् , सुप्ता हि पर्याप्सा अपि भवन्ति जागरास्तु पर्याप्सा एवेति नियमः, तेभ्योऽपि पर्याप्तेभ्यः आयुःकर्मबन्धकाः विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामप्यायुःकर्मबन्धकत्वभावात् , इदमेवाल्पबहुत्वं विनेयजनानुग्रहाय स्थापनाराशिभिरुपदश्यते-इह द्वे
अनुक्रम [२९४]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२६], -------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
सूत्राक
यवृत्ती.
९ि०॥
दीप
प्रज्ञापना-I8
पडी उपर्यधोभावेन न्यस्येते, तत्रोपरितन्या पडावायुःकर्मबन्धका अपर्याप्ताः सुप्ताः समवहताः सातवेदका इन्द्रि-18| अल्पयाः मल- योपयुक्ताः अनाकारोपयुक्ताः क्रमेण स्थाप्यन्ते, तस्या अधस्तन्यां पकी तेषामेव पदानामधस्तात् यथासङ्ग्यमायुर- बहुत्वपदे बन्धकाः पर्याप्ता जागरा असमबहता असातवेदका नोइन्द्रियोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः । स्थापना चेयं
आयुर्वेआयुर्वन्धकाः १ अपर्याप्ताः २ सुप्ताः ४ समवहताः ॥१५७॥
न्धकाद्य८ सातवेदकाः १६ इन्द्रियोपयुक्ताः ३२ अनाकारोपयुक्ताः ६० आयुरबन्धकाः २५५ पर्याप्ताः २५४ जागराः २५२ असमवहताः २४८ असातवेदकाः २४० नोइन्द्रियोपयुक्ताः २२४ साकारोपयुक्ताः १९२
ल्पसू९० अनोपरितम्यां पडी सर्वाण्यपि पदानि सञ्जयेयगुणानि, आयुःपदं सर्वेषामाद्यमिति तत्परिमाणसङ्ग्यायामेकः स्थाप्यते, |ततः शेषपदानि किल जघन्येन सङ्ख्येयेन सङ्ग्येयगुणानीति द्विगुणद्विगुणाङ्कः तेषु स्थाप्यते, तद्यथा-द्वौ चत्वारः अष्टौ | षोडश द्वात्रिंशत् चतुष्पष्टिः, सर्वोऽपि जीवराशिरनन्तानन्तखरूपोऽप्यसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपरिमाणः | परिकल्प्यते, ततोऽस्माद् राशेरायुर्वन्धकादिगताः सङ्ख्याः शोधयित्वा यद्यत् शेषमवतिष्ठति तत्तदायुरवन्धकादीनां परिमाणं स्थापयितव्यं, तद्यथा-आयुरबन्धकादिपदे द्वे शते पञ्चपञ्चाशदधिके, शेषेषु यथोक्तक्रमं द्वे शते चतुःपञ्चा- ॥१५७॥ शदधिके द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके द्वे शते चत्वारिंशदधिके द्वे शते चतुर्विंशत्यधिक द्विनवत्यधिकं शतं, एवं च सत्युपरितनपक्तिगतान्यनाकारोपयुक्तपर्यन्तानि पदानि सोयगुणानि द्विगुणद्विगुणा
अनुक्रम [२९४]
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wwratunasurary.org
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२६], -------------- मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[९०
रकटaeesesed
दीप
धिकत्वात् , ततः परं साकारोपयुक्तपदमपि सोयगुणं त्रिगुणत्वात् , शेषाणि तु नोइन्द्रियोपयुक्तादीनि प्रतिलोमं विशेषाधिकानि, द्विगुणत्वस्यापि कचिदभावात् ॥ तदेवं गतं बन्धद्वारम् , इदानीं पुद्गलद्वारमाहखित्ताणुवाएणं सबथोवा पुग्गला तेलोके उद्दलोयतिरियलोए अर्णतगुणा अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया तिरियलोए असंखिजगुणा उडलोए असंखिजगुणा अहोलोए विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सबथोवा पुग्गला उडदिसाए अहोलोए विसेसाहिया उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपञ्चस्थिमेण य दोवि तुल्ला असंखिजगुणा दाहिणपुरच्छिमेण उत्तरपञ्चत्थिमेण य दोवि विसेसाहिया पुरच्छिमेणं असंखिजगुणा पञ्चस्थिमेणं विसेसाहिया दाहिणेणं विसेसाहिया उत्तरेणं विसेसाहिया ।। खित्ताणुवाएणं सबथोवाई दवाई तेलोके उडलोयतिरियलोए अणंतगुणाई अहोलोयतिरियलोए विसेसाहियाई उहलोए असंखिजगुणाई अहोलोए अर्णतगुणाई तिरियलोए संखिजगुणाई ॥ दिसाणुवाएणं सबथोवाई दबाई अहोदिसाए उहृदिसाए अर्णतगुणाई उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपञ्चत्थिमेण य दोवि तुल्लाई असंखिजगुणाई दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपचत्थिमेण य दोषि तुलाई विसेसाहियाई पुरच्छिमेणं असंखिजगुणाई पञ्चस्थिमेणं विसेसाहियाई दाहिणेणं विसेसाहियाई उत्तरेणं विसेसाहियाई (मू०९१)
इदमल्पबहुत्वं पुद्गलानां द्रव्यार्थत्वमङ्गीकृत्य व्याख्येयं, तथासम्प्रदायात्, तत्र क्षेत्रानुपातेन' क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमानाः पुगलाबैलोक्ये-त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सर्वतोकाः, सर्वस्तोकानि त्रैलोक्यव्यापीनि पुगलद्रव्याणीति
sekeseseaemocretreeroeseaeratioerce
अनुक्रम [२९४]
तृतीय-पदे (२७) "पुद्गल, दिशा-आदि" द्वारम् आरब्ध:
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥१५८॥
Sao
दीप अनुक्रम [२९५]
भावः, यस्मात् महास्कन्धा एवं त्रैलोक्यन्यापिनः ते चाल्पा इति, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकेऽनन्तगुणाः, यतस्ति- ३ अल्पयंग्लोकस्य यत्सर्वोपरितनमेकप्रादेशिकं प्रतरं यचो लोकस्य सर्वाधस्तनमेकप्रादेशिकं प्रतरमेते द्वे अपि प्रतरे ऊर्द्ध- वहुत्वपदे लोकतियेग्लोक उच्यते ते चानन्ताः सज्ञयेयप्रादेशिकाः अनन्ता असहयेयप्रादेशिकाः अनन्ता अनन्तप्रादेशिकाः क्षेत्रदिस्कन्धाः स्पृशन्तीति द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणाः, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रागुक्तप्रकारेण प्रतरद्वयरूपे विशेषाधिकाः,
ग्भ्या पुद्र
लद्रव्या|क्षेत्रस्याऽऽयामविष्कम्भाभ्यां मनाग विशेषाधिकत्वात् , तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रस्थासङ्ख्येयगुणत्वात्, ते
ल्प.सू.९१ भ्यऊर्द्धलोकेऽसङ्ख्येयगुणाः, यतस्तिर्यग्लोकक्षेत्रादूर्द्धलोकक्षेत्रमसङ्ख्येयगुणमिति, तेभ्योऽधोलोके विशेषाधिकाः, ऊर्द्धलोकादधोलोकस्य विशेषाधिकत्वात् , देशोनसप्तरजप्रमाणो बर्द्ध लोकः समधिकसप्तरजप्रमाणस्वधोलोकः ॥ सम्पति दिगनुपातेनाल्पबहुत्वमाह-'दिगनुपातेन दिगनुसारेण चिन्त्यमानाः पुद्गलाः सर्वस्तोकाः ऊर्द्धदिशि, इह रत्नप्रभा-1 समभूतलमेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकस्तस्माद्विनिर्गता चतुःप्रदेशा ऊदिर यावलोकान्तस्ततस्तत्र सर्वस्तोकाः पुद्गलाः, तेभ्योऽधोदिशि विशेषाधिकाः, अधोदिगपि रुचकादेव प्रभवति चतुष्प्रदेशा यावल्लोकान्तस्ततस्तस्या विशेषाधिकत्वात् तत्र पुद्गला विशेषाधिकाः, तेभ्य उत्तरपूर्वस्या दक्षिणपश्चिमायां च प्रत्येकमसलयेयगुणाः, खस्थाने तु पर-1॥१५॥ स्परं तुल्याः, यतस्ते द्वे अपि दिशौ रुचकाद्विनिर्गते मुक्तावलिसंस्थिते तिर्यग्लोकान्तमधोलोकान्तमू लोकान्तं पर्यवसिते, तेन क्षेत्रस्थासङ्ख्येयगुणत्वात्तत्र पुद्गला असङ्ख्येयगुणाः, क्षेत्रं तु स्वस्थाने सममिति मुद्गला अपि स्वस्थाने
४
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुनाक
[९१]
दीप
तुल्याः, तेभ्योऽपि दक्षिणपूर्वस्यामुत्तरपश्चिमाया च प्रत्येकं विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः, कथं विशे-19 पाधिका इति चत् ?, उच्यते, इह सौमनसगन्धमादनेषु सप्त सप्त कटानि विद्युत्प्रभमाल्यवतोनेव नव, तेषु च कूटेपु धूमिका अवश्यायादिसूक्ष्मपुद्गलाः प्रभूताः संभवन्ति ततो विशेषाधिकाः, खस्थाने तु क्षेत्रस्य पर्वतादेव समा-1| नत्वात् तुल्याः, तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि असावेयगुणाः, क्षेत्रस्यासमवेयगणत्वात, तेभ्यः पश्चिमायां विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु शुपिरभावतो बहूनां पुद्गलानामवस्थानभावात. दक्षिणेन विशेषाधिकाः, बहुभुवन पिरभावात्, तेभ्य उत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यत उत्तरस्यामायामविष्कम्भाभ्यां समवेययोजनकोटीकोटीप्रमाणं मानर्स सरस्तत्र ये जलचराः पनकसेवालादयश्च सत्त्वास्ते अतिवहव इति तेषां ये तैजसकार्मणपुद्गलास्तेऽधिकाः प्राप्यन्ते इति पूर्वोक्तभ्यो विशेषाधिकाः ॥ तदेवं पुद्गलविषयमल्पवहुत्वमुक्तम् , इदानी सामान्यतो द्रव्यविषयं क्षेत्रानुपातेनाहक्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानानि द्रव्याणि सर्वस्तोकानि त्रैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शानि, यतो धर्मास्तिकायाधम्मास्तिकायाकाशास्तिकायद्रव्याणि पुद्गलास्तिकायस्य महास्कन्धा जीवास्तिकायस्य मारणान्तिकसमुद्घातेनातीय समयहता जीवाः त्रैलोक्यव्यापिनः ते चाल्पे इति सर्वस्तोकानि, तेभ्य ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोके-प्रागुक्तखरूपप्रतरद्वयात्म| केऽनन्तगुणानि, अनन्तैः पुद्गलद्रव्यैरनन्तैर्जीवद्रव्यस्तस्य संस्पर्शात् , तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके विशेषाधिकानि, ऊर्द्धलोकतिर्यग्लोकादधोलोकतिर्यग्लोकस्य मनाग् विशेषाधिकत्वात् , तेभ्य ऊर्द्धलोकेऽसयेयगुणानि, क्षेत्रस्थासङ्ग्यगुण
अनुक्रम [२९५]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापना-
याः मलय० वृत्ती.
सत्राक
[९१]
ल्प.सू.९१
दीप अनुक्रम [२९५]
Sectseen
त्वात् , तेभ्योऽधोलोकेऽनन्तगुणानि, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इहाधोलौकिकग्रामेषु कालोऽस्ति, तस्य च कालस्य ३ अल्पतत्तत्परमाणुसङ्ख्येयासवे यानन्तप्रादेशिकद्रव्यक्षेत्रकालभावपर्यायसम्बन्धवशात् प्रतिपरमाण्वादिद्रव्यमनन्तता ततो बहुत्वपदे भवन्त्यधोलोकेऽनन्तगुणानि, तेभ्यस्तिर्यग्लोके सझ्धेयगुणानि, अधोलौकिकग्रामप्रमाणानां खण्डानां मनुष्यलोके क्षेत्रदिकालद्रव्याधारभूते सङ्खयेयानामवाप्यमानत्वात् ॥ सम्प्रति दिगनुपातेन सामान्यतो द्रव्याणामल्पबहुत्वमाह-'दिग-18 नुपातेन' दिगनुसारेण चिन्त्यमानानि सामान्यतो द्रव्याणि सर्वस्तोकान्यधोदिशि-प्राग्व्यावर्णितखरूपायां, तेभ्य ऊई-181 लद्रव्यादिश्यनन्तगुणानि, किं कारणमिति चेत् ?, उच्यते, इहोर्द्धलोके मेरोः पञ्चयोजनशतिकं स्फटिकमयं काण्डं, तत्र चन्द्रादित्यप्रभाऽनुप्रवेशात् द्रव्याणां क्षणादिकालप्रतिभागोऽस्ति, कालस्य च प्रागुक्तनीत्या प्रतिपरमाण्वादिद्रव्यमा-18 नन्त्यात् तेभ्योऽनन्तगुणानि, तेभ्य उत्तरपूर्वस्वामीशान्यां दक्षिणपश्चिमायां नैऋतकोणे इत्यर्थः असङ्ख्येयगुणानि, क्षेत्रस्थासङ्ख्येय गुणत्वात् , खस्थाने तु द्वयान्यपि परस्परं तुल्यानि, समानक्षेत्रत्वात् , तेभ्यो दक्षिणपूर्वस्याम्-आमेय्यामुत्तरपश्चिमायां-वायव्यकोणे इति भावः विशेषाधिकानि, विद्युत्प्रभमाल्यवत्कूटाश्रितानां धूमिकाऽवश्यायादिश्लक्ष्णपुद्गलद्रव्याणां बहूनां संभवात् , तेभ्यः पूर्वस्यां दिश्यसङ्ख्येयगुणानि, क्षेत्रस्थासङ्ख्ययगुणत्वात् , तेभ्यः पश्चि-18॥१५९॥ मायां विशेषाधिकानि, अधोलौकिकयामेषु शुषिरभावतो बहूनां पुद्गलद्रव्याणामवस्थानसंभवात, ततो दक्षिणस्यां । वादिशि विशेषाधिकानि, बहुभुवनशुषिरभावात् , तत उत्तरस्यां विशेषाधिकानि, तत्र मानससरसि जीवद्रव्याणां सदा-1
S
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सुनाक
[९१]
दीप
श्रितानां तैजसकार्मणपुद्गलस्कन्धद्रव्याणां च भूयसां भावात् ॥ सम्प्रति परमाणुपुद्गलानां सोयप्रदेशानामसङ्ग्येयप्रदेशानामनन्तप्रदेशानां परस्परमल्पबहुत्वमाह
एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाण संखेजपएसियाणं असंखेअपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाण दवट्टयाए पएसवयाए दबट्टपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया या तुल्ला वा विसेसाहिया वा', गोयमा! सबथोवा अणंतपएसिया खंधा दबयाए परमाणुपोग्गला दबट्टयाए अर्णतगुणा संखेजपएसिया खंधा दवट्टयाए संखेजगुणा असंखपएसिया खंधा दवट्ठयाए असंखेजगुणा पएसड्याए सवत्थोवा अणंतपएसिया खंधा पएसट्टयाए परमाणुपोग्गला अपएसड्याए अणंतगुणा संखेज्जपएसिया खंधा पएसट्टयाए संखेज्जगुणा असंखपएसिया खंधा पएसट्टयाए असंखेजगुणा दवद्वपएसट्टयाए सबथोवा अणंतपएसिया खंधा दबयाएते चेव पएसट्टयाए अपंतगुणा परमाणुपोग्गला दबढपएसट्टयाए अणंतगुणा संखेजपएसिया खंधा दबट्ठयाए संखेजगुणा ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा असंखपएसिया खंधा दबट्टयाए असंखेजगुणा ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा ॥ एएसिणं भंते! एगपएसोगाढाणं संखेजपएसोगाढाणं असंखेजपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दबयाए पएसट्ठयाए दबटुपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, गोयमा ! सवत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए संखेजपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए संखेज्जगुणा असंखेजपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए असंखेज्जगुणा पएसट्टयाए सवत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला
अनुक्रम [२९५]
SAREairaumANand
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[२]
दीप
अनुक्रम [२९६ ]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [१२]
पदं [३], --------------उद्देशक: [ - ], दारं [२७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ.
॥ १६०॥
पट्टयाए संखिञ्जपएसोगाढा पोग्गला पएसइयाए संखिजगुणा असंखिज्जपएसो गाढा पुग्गला पएसहयाए असंखेज्ज - गुणा दवस या सवत्थोवा एगपएसोगाढा पुग्गला दबट्ठपएस याए संखिजपएसोगाढा पुग्गला दबट्टयाए संखिअगुणा ते चैव पएस याए संखिजगुणा असंखिजपएसोगाढा पुग्गला दबट्टयाए असंखिजगुणा ते चेन परसट्टयाए असं खिजगुणा । एएसि णं भन्ते ! एगसमयठियाणं असंखिञ्जसमयठियाणं पुग्गलाणं दवडयाए परसट्टयाए दट्ठपएसइयाए कमरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सबत्थोवा एगसमयठिझ्या पुग्गला दवया संखिजसमयठिया पुग्गला दबट्टयाए संखिञ्जगुणा असंखिजसमयरिया पुग्गला दबट्टयाए असंखिजगुणा पएससवत्थोवा एगसमयठिया पुग्गला परसट्टयाए संखिअसमयठिया पुग्गला पएसइयाए संखेञ्जगुणा असंखिजसमafter पुग्गला पसाए असंखेज्जगुणा दवदृपएसट्टयाए सबत्थोवा एगसमयठिया पुग्गला दबडपएसइयाए संखिसमयठिया गला दबाए संखिजगुणा ते चैव पएसट्टयाए संखिजगुणा असंखिञ्जसमयठिड्या पुग्गला दुबइयाए असंखिजगुणा ते चैव पट्टयाए असंखिजगुणा । एएसि णं भंते एगगुणकालगाणं संखिजगुणकालगाणं असंखिजगुकालगाणं अनंतगुणकालगाण य पुग्गलाणं दबट्टयाए पएसमाए दबपएसइयाए य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! जहा पुग्गला तहा भाणिया, एवं संखिञ्जगुणकालगाणवि, एवं सेसावि वण्णा गंधा रसा फासा भाणियचा, फासाणं कक्खडमउयगुरुथलहुयाणं जहा एगपएसोगाढाणं भणियं तहा भाणियां | अवसेसा फासा जहा बना तहा भाणिया | दारं (सू० ९२ )
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For Parts Only
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३ अल्प
बहुत्वपदे द्रव्यक्षेत्रकालमा
वाल्प. सू. ९२
॥ १६०॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
पत
सूत्राक
[९२]
दीप
'एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेजपएसियाणं' इत्यादि पाठसिद्ध, नवरमत्राल्पबहुत्वभावनायां सर्वत्र तथाखाभाव्यं कारणं वाच्यं । सम्प्रत्येतेषामेव क्षेत्रप्राधान्येनाल्पबहुत्वमाह-इह क्षेत्राधिकारतः क्षेत्रस्य प्राधान्यात परमाणुकाद्यनन्ताणुकस्कन्धा अपि विवक्षितकप्रदेशावगाढा आधाराधेययोरभेदोपचारादेकद्रव्यत्वेन व्यवहियन्ते, ते इत्थंभूता एकप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः-पुद्गलद्रव्याणि सर्वस्तोकानि, लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानीत्यर्थः, न हि स कश्चिदे|वंभूत आकाशप्रदेशोऽस्ति य एकप्रदेशावगाहनपरिणामपरिणतानां परमाण्वादीनामवकाशदानपरिणामेन परिणतो ना वर्तते इति, तेभ्यः सञ्जयेयप्रदेशावगाढाः पुद्गला द्रव्यार्थतया समवेयगुणाः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इहापि क्षेत्रस्य प्राधान्यात् यणुकाद्यनन्ताणुकस्कन्धा द्विप्रदेशावगाढा एकद्रव्यत्वेन विवक्ष्यन्ते, तानि च तथाभूतानि पुद्गलद्रव्याणि पूर्वोक्तेभ्यः सवधेयगुणानि, तथाहि-सर्वलोकप्रदेशातत्त्वतोऽसत्येया अपि असत्कल्पनया दश परिकल्प्यन्ते, तेच प्रत्येकचिन्तायां दर्शवेति दश एकप्रदेशावगाढानि पुद्गलद्रव्याणि लब्धानि, तेष्वेव च दशसु प्रदेशेषु अन्यग्रहणान्यमोक्षणद्वारेण बहवो द्विकसंयोगा लभ्यन्ते इति भवन्त्येकप्रदेशावगाढेभ्यो द्विप्रदेशावगाढानि पुद्गलद्रव्याणि सङ्ख्येय-18 गुणानि एवं तेभ्योऽपि त्रिप्रदेशावगाढानि एवमुत्तरोत्तरं यावदुत्कृष्टसङ्ख्येयप्रदेशावगाढानि, ततः स्थितमेतत्-एकप्रदेशावगाढेभ्यः सङ्खयेयप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः द्रव्यार्थतया सङ्ख्येयगुणा इति, एवं तेभ्योऽसहयेयप्रदेशावगाढा पुद्गला द्रव्यार्थतया असङ्ख्येयगुणाः, असङ्ख्यातस्थासङ्ख्यातभेदभिन्नत्वात् , द्रव्यार्थतासूत्रं प्रदेशार्थतासूत्रं द्रव्यपर्याया
अनुक्रम [२९६]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
[९२]]
दीप अनुक्रम [२९६]
प्रज्ञापना- र्थतासूत्रं च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयं, कालभावसूत्राण्यपि सुगमत्वात् खयं भावयितव्यानि, नवरं 'जहा
पर जहाअल्पपोग्गला तहा भाणियबा' इति यथा प्राक सामान्यतः पुद्गला उक्तास्तथा एकगुणकालकादयोऽपि वक्तव्याः, ते बहुत्वपदे य० वृत्ती. चैवम्-यतः 'सबथोवा अणंतपएसिआ खंधा एगगुणकालगा, परमाणुपुग्गला दबट्टयाए एगगुणकालगा अर्णत- द्रव्यक्षेत्र॥१६॥
गुणा, संखिजपएसिया खंधा एगगुणकालगा संखिजगुणा, असंखिजपएसिआ खंधा एगगुणकालगा असंखिज-8 कालभा18|गुणा । पएसट्टयाए सवत्थोवा अणंतपएसिआ खंधा एगगुणकालगा, परमाणुपुग्गला एगगुणकालगा अणतगुणावाल्पसू. | इत्यादि' एवं सोयगुणकालकानामसोयगुणकालकानामनन्तगुणकालकानामपि चाय, एवं शेषवर्णगन्धरसा अपि वक्तव्याः, कर्कशमृदुगुरुलघवः स्पर्शी यथा एकप्रदेशाद्यवगाढा भणितासथा वक्तव्याः, ते चैवम्-'सबथोवा एगपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा दबट्टयाए, संखिजपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा पोग्गला दबट्टयाए |संखिजगुणा, असंखिजपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा दबट्टयाए असंखिजगुणा' इत्यादि, एवं सङ्ग्येयगुणकर्कशस्पर्शा असक्वेयगुणकर्कशस्पर्शा अनन्तगुणकर्कशस्पर्शा वाच्याः, एवं मृदुगुरुलघवः, अवशेषाश्चत्वारः शीतादयः स्पशों यथा वर्णादय उक्तास्तथा वक्तव्याः, तत्र पाठोऽप्युक्तानुसारेण खयं भावनीयः । गतं पुद्गलद्वारम् , इदानीं | महादण्डक विवक्षुर्गुरुमापृच्छति
अहं भंते ! सबजीवप्पबहुं महादण्डयं वनइस्सामि-सव्वत्थोवा गम्भवतिया मणुस्सा १ मणुस्सीओ संखिजगुणाओ २
Seat.ceseseksee
॥१६॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
दीप
बायरतेउकाइआ पजत्तया असंखिजगुणा ३ अणुत्तरोववाइया देवा असंखिजगुणा ४ उपरिमगेविजगा देवा संखिजगुणा ५ मज्झिमगेबिजगा देवा संखिजगुणा ६ हिहिमगेविजगा देवा संखिजगुणा ७ अशुए कप्पे देवा संखिजगुणा ८ आरणे कप्पे देवा संखिजगुणा ९ पाणए कप्पे देवा संखिजगुणा १० आणए कप्पे देवा संखिजगुणा ११ अहे सत्तमाए पुढवीए नेरइया असंखिजगुणा १२ छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइया असंखिजगुणा १३ सहस्सारे कप्पे देवा असंखिजगुणा १४ महासुके कप्पे देवा असंखिजगुणा १५ पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइआ असंखिजगुणा १६ लंतए कप्पए देवा असंखिजगुणा १७ चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरदा असखिजगुणा १८ भलोए कप्पे देवा असंखिजगुणा १९ तचाए वालुयप्पभाए पुढवीए नेरइआ असंखिजगुणा २० माहिदे कप्पे देवा असंखिजगुणा २१ सणकुमारे कप्पे देवा असंखिजगुणा २२ दोच्चाए सकरप्पभाए पुढवीए नेरझ्या असंखिजगुणा २३ समुच्छिमा मणुस्सा असंखिजगुणा २४ ईसाणे कप्पे देवा असंखिजगुणा २५ ईसाणे कप्पे देवीओ संखिजगुणाओ २६ सोहम्मे कप्पे देवा संखिजगुणा २७ सोहम्मे कप्पे देवीओ संखेजगुणाओ २८ भवणवासी देवा असंखेजगुणा २९ भवणवासिणीओ देवीओ संसेजगुणाओ ३० इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइआ असंखिजगुणा ३१ खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा असंखिजगुणा ३२ खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिजगुणाओ३३ थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ पुरिसा संखिजगुणा ३४ थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिजगुणाओ ३५जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ पुरिसा संखिजगुणा ३६ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिअगुणाओ ३७ वाणमंतरा देवा संखिजगुणा ३८ वाणमंतरीओ देवीओ संखिजगुणाओ ३९
अनुक्रम [२९७]
eeeeeटररर
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती
३ अल्पबहुत्वपदे महादण्डकासू.९३
सूत्राक
[९३]
॥१६॥
दीप
Recenese
जोइसिया देवा संखिजगुणा ४० जोइसिणीओ देवीओ संखिजगुणाओ ४१ खयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ नपुंसगा संखिजगुणा ४२ थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ नपुंसगा संखिजगुणा ४३ जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआ नपुंसगा संखिजगुणा ४४ चउरिंदिया पजत्तया संखिजगुणा ४५ पंचिंदिया पजत्तया विसेसाहिया ४६ बेइंदिया पञ्जत्तया विसेसाहिया ४७ तेइंदिया पञ्जत्तया विसेसाहिया ४८ पंचिंदिया अपजत्तया असंखेजगुणा ४९ चउरिंदिया अपञ्जचया विसेसाहिया ५० तेइंदिया अपजत्तया विसेसाहिया ५१ बेइंदिया अपञ्जत्तया विसेसाहिया ५२ पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया पजत्तया असंखिजगुणा ५३ वायरनिगोया पन्जत्तया असंखिजगुणा ५४ वायरपुढवीकाइया पजत्तगा असंखिजगुणा ५५ बायरआउकाइया पञ्जत्तया असंखिजगुणा ५६ वायरवाउकाइया पजचगा असंखिजगुणा ५७ वायरतेउकाइया अपजत्तगा असंखिजगुणा ५८ पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखिजगुणा ५९ वायरनिगोया अपजत्तया असंखिजगुणा ६० वायरपुढवीकाइया अपजचया असंखिजगुणा ६१ वायरआउकाइया अपजत्तया असंखिजगुणा ६२ वायरवाउकाइया अपजत्तया असंखिजगुणा ६३ सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया असंखिजगुणा ६४ सुहुमपुढवीकाइया अपञ्जत्तया विसेसाहिया ६५ सुहुमाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिआ ६६ सुहुमवाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिआ ६७ सुहुमतेउकाइया पजत्तया संखिजगुणा ६८ मुहुमपुढवीकाइया पज्जत्तया विसेसाहिआ ६९ मुहुमआउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिआ ७० सुहुमवाउकाइया पजत्तया बिसेसाहिआ ७१ सुहुमनिगोया अपज्जत्तया असंखिजगुणा ७२ सुहुमनिगोया पज्जत्तया संखिज्जगुणा ७३ अभवसिद्धिआ अणंतगुणा ७४ परिवडियसम्मद्दिहि अणतगुणा ७५ सिद्धा अणंतगुणा ७६
अनुक्रम [२९७]
॥१६२
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
दीप
पायरवणस्सइकाइया पज्जतगा अणंतगुणा ७७ वायरपजचा विसेसाहिआ ७८ बायरवणस्सइकाइया अपज्जतगा असखिजगुणा ७९ वायरअपज्जतगा विसेसाहिआ ८० बायरा विसेसाहिआ ८१ सुहुमवणस्सइकाइया अपजत्तया असखिजगुणा ८२ सुहुमअपजत्तया विसेसाहिया ८३ सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तया संखिजगुणा ८४ सुहुमपज्जत्तया विसेसाहिआ ८५ मुहुमा बिसेसाहिया ८६ भवसिद्धिया विसेसाहिया ८७ निगोयजीवा विसेसाहिया ८८ वणस्सइजीवा विसेसाहिआ ८९ एगिदिया विसेसाहिया ९०तिरिक्खजोगिया बिसेसाहिया ९१ मिळादिही विसेसाहिआ ९२ अविरया विसेसाहिया ९३ सकसाई विसेसाहिआ ९४ छउमत्था विसेसाहिआ ९५ सजोगी विसेसाहिआ ९६ संसारत्था विससाहिआ ९७ सबजीवा विसेसाहिआ ९८ ॥ (सू० ९३ ) ॥ पनवणाए भगवईए बहुवत्तत्यपर्य समत्तं । तइयं पयं समत्तं ।
अथ भदन्त ! सर्वजीवाल्पबहुत्वं-सर्वजीवाल्पबदुत्ववक्तव्यतात्मकं महादण्डकं वर्त(ण)यिष्यामि-रचयिष्यामीति तात्पर्योः , अनेन एतद् ज्ञापयति-तीर्थकरानुज्ञामात्रसापेक्ष एव भगवान् गणधरः सूत्ररचनां प्रति प्रवर्तते न पुनः श्रुताभ्यासपुरःसरमिति, यद्वा एतद् ज्ञापयति-कुशलेऽपि कर्मणि विनेयेन गुरुमनापृच्छय च न प्रवर्तितव्यं, किंतु तदनुज्ञापुरःसरं, अन्यथा विनेयत्वायोगात्, विनेयस्य हि लक्षणमिदम्-'गुरोनिवेदितात्मा यो, गुरुभावानुवर्तकः । मुक्त्यर्थं चेष्टते निप, स विनेयः प्रकीर्तितः॥१॥"गुरुरपि यः प्रच्छनीयः स एवंरूपः-"धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते ॥१॥" इति, महादण्डके वर्तयिष्यामि
aestreeseseeeeeeeeeeeectice
अनुक्रम [२९७]
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्तो.
३ बहुवकव्यतापदे महा
सूत्राक
[९३]
॥१६॥
reaecseekerse
दीप
इत्युक्तं ततः प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-'सवत्थोवा गम्भवकंतिया मणुस्सा' इत्यादि, सर्वस्तोका गर्भव्युत्क्रान्तिक- मनुष्याः, सङ्ग्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् १, तेभ्यो मानुष्यो-मनुजत्रियः सोयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात्, उक्तं च-"सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिआ चेव" २, ताभ्यो बादरतेजःकायिका पर्याप्सा असंख्येयगुणाः, कति- पयवर्गन्यूनाबलिकाधनसमयप्रमाणत्वात् ३, तेभ्योऽनुत्तरोपपातिनो देषा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ४, तेभ्य उपरितनौवेयकत्रिकदेवाः संख्येयगुणाः, वृहत्तरपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , एतदपि कथमवसेयं इति चेत्, उच्यते, विमानषाहुल्यात्, तथाहि-अनुत्तरदेषाना पञ्च विमानानि विमानशतं तूपरितनबेयकत्रिके प्रतिविमानं चासोया देवाः यथा यथा चाधोऽधोवर्तीनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लम्यन्ते ततोऽवसीयते-अनुत्तरोपपातिकदेवेभ्यो बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमासक्वेयभागवा. काशप्रदेशराशिप्रमाणा उपरितनधेयकत्रिकदेवाः (संख्येयगुणाः)५, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या यावदानतकल्पः, तेभ्योऽप्युपरितनदेयकत्रिकदेवेभ्यो मध्यमवेयकत्रिकदेवाः सङ्ग्येयगुणाः ६ तेभ्योऽप्यधस्तनोवेयकत्रिकदेवाः सोयगुणाः ७ तेभ्योऽप्यच्युतकल्पदेवाः समवेयगुणाः ८ तेभ्योऽप्यारणकल्पदेवा सोयगुणाः ९, यद्यप्यारणाच्युतकल्पी समणिको समविमानसङ्ख्याको च तथाऽपि कृष्णपाक्षिकास्तथाखाभाब्यात् प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पयन्ते नोत्तरस्यां यहयश्च कृष्णपाक्षिकाः स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः ततोऽच्युतकल्पदेवापेक्षया आरणकल्पदेवाः
अनुक्रम [२९७]
॥१६॥
स्ट
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
209929
सूत्रांक [९३]
दीप
ecemenewerseeएersera
सोयगुणाः, तेभ्योऽपि प्राणतकल्पदेवाः सङ्ख्येयगुणाः १० तेभ्योऽप्यानतकल्पदेवाः सत्येयगुणाः, भावना आरणकल्पवत्कर्तव्या ११, तेभ्योऽधःसप्तमनरकपृथिव्यां नैरयिका असत्यगुणाः, श्रेण्यसयभागगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १२, तेभ्यः षष्ठपृथिव्यां नैरयिका असक्येयगुणाः, एतच प्रागेव दिगनुपातेन नैरयिकाल्पबदुत्वचिन्तायां भावितं १३ तेभ्योऽपि सहस्रारकल्पदेवा असायेयगुणाः, षष्ठपृथिवीनरयिकपरिमाणहेतुश्रेण्यसोयमागापेक्षया सहस्रारकल्पदेवपरिमाणहेतोः श्रेण्यसश्वेयभागस्य असञ्जयगुणत्वात् १४ तेभ्यो महाशुक्रे कल्पे देवा असोयगुणाः, विमानवाहुल्यात् षट् सहस्राणि विमानानां सहस्रारे कल्पे चत्वारिंशत्सहस्राणि महाचक्रे, अन्यच्चाधोऽधोविमानवासिनो देवा बहुबहुतराः स्तोकाः स्तोकतराश्वोपरितनोपरितनविमानवासिनः तत् सहस्रारदेवेभ्यो महाशुक्रकल्पदेवा असन्यगुणाः १५ तेभ्योऽपि पञ्चमधूमप्रभाभिधाननरकपृथिव्यां नैरयिका असत्येयगुणाः, बृहत्तमश्रेण्यसअमेयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १६ तेभ्योऽपि लान्तककल्पे देवा असङ्ख्येयगुणाः, अतिबृहत्तमश्रेण्यसवेयभागगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १७ तेभ्योऽपि चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असोयगुणाः, युक्तिः प्रागिव भावनीया १८ तेभ्योऽपि ब्रह्मलोककल्पे देवा असल्येयगुणाः, युक्तिः प्रागुक्तब १९ तेभ्योऽपि तृतीयस्थां वालुकाप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असोयगुणाः २० तेभ्योऽपि माहेन्द्रे कल्पे देवा असोयगुणाः २१ तेभ्योऽपि सनत्कुमारकल्पे देवा असोयगुणाः युक्तिः सर्वत्रापि प्रागुक्तैव २२ तेभ्यो द्वितीयस्यां शर्कराप्रभायां पृथिव्यां नैर
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[९३]
दीप
मज्ञापना- यिका असङ्ख्येयगुणाः २३, एते च सप्तमपृथिवीनारकादयो द्वितीयपृथिवीनारकपर्यन्ताः प्रत्येकं स्वस्थाने चिन्त्यया: मल-IN मानाः सर्वेऽपिघनीकृतलोकश्रेण्यसलयेयभागवर्तिनमःप्रदेशरा शिप्रमाणा द्रष्टव्याः, केवलं श्रेण्यसोयभागोऽसयेय-TAI
कव्यताय०वृत्ती. भेदभिन्नः तत इत्थमसवयेयगुणतया अल्पबदुत्वमभिधीयमानं न विरुध्यते, तेभ्योऽपि द्वितीयनरकपृथिवीनारकेभ्यः पदे महा
संमूछिममनुष्या असङ्ख्येयगुणाः २४ ते हि अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि द्वितीयवर्गमूले तृतीयवर्गमूलेन दण्डका ॥१६॥
गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणाः, तेभ्योऽपि ईशाने कल्पे देवा असङ्ख्येयगुणाः यतो घनीकृतस्य लोकसैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभप्रदेशाः तावत्प्रमाण ईशानकल्पगतो देवदेवीसमुदायः, सद्गतकिंचिदूनद्वात्रिंशद्भागकल्पा ईशानदेवाः, ततो देवाः संमूछिममनुष्येभ्योऽसङ्ख्यगुणाः २५, तेभ्य ईशानकल्पे देव्यः सङ्ख्येय-1 गुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् “वत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिआउ होन्ति देवीओ” इति वचनात् २६, ताभ्यः सौधर्मे कल्पे देवाः सङ्ख्येयगुणाः, तत्र विमानबाहुल्यात् , तथाहि-तत्र द्वात्रिंशच्छतसहस्राणि विमानानां अष्टाविंशतिशत
१ ते हि अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि तृतीये वर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान्प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणानि खंडानि यावन्त्येकस्यामेव प्रादेशिक्या श्रेणी भवंति तावत्प्रमाणस्तेभ्य ईशाने कल्पे देवा असंख्येयगुणाः यतोऽङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि | al॥१६४॥ द्वितीये वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान्प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्सैकप्रादेशिकीषु यावंतो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाण ईशानकल्पगतो देवदेवीसमुदायः प्र०
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक [९३]
दीप
सहस्राणि ईशाने कल्पे, अपिच-दक्षिणदिग्वर्ती सौधर्मकल्पः ईशानकल्पस्तूत्तरदिग्वर्ती दक्षिणस्यां च दिशि बहवः TAI कृष्णपाक्षिकाः समुत्पद्यन्ते तत ईशानदेवीभ्यः सौधर्मदेवाः सङ्ख्ययगुणाः, नन्वियं यक्तिर्माहेन्द्रसनत्कुमारकल्पयोर-1
प्युक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकल्पे देवा असङ्खयगुणा उक्ताः, इह तु सौधर्मे कल्पे सोयगुणाः तदेतत् कथम् ?, उच्यते, बचनप्रामाण्यात्, न चात्र पाठभ्रमः, यतोऽन्यत्राप्युक्तम्-"ईसाणे सवत्थवि बत्तीसगुणाओ होंति देवीओ । संखिजा सोहम्मे तओ असंखा भवणवासी॥१॥" इति २७, तेभ्योऽपि तस्मिन्नेव सौधर्म कल्पे देव्यः समवेयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , "सबत्थवि बत्तीसगुणाओ टुंति देवीओ" इति पचनात् २८॥ ताभ्योऽप्यसयेयगुणा भवनवासिनः, कथम् ? इति चेत्, उच्यते, इह अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संवन्धिनि प्रथमवर्ग-18 |मूले तृतीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभ-प्रदेशास्तावत्प्रमाणो भवनपतिदेवदेवीसमुदायः, तद्गतकिञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पाश्च भवनपतयो देवाः ततो घटन्ते सौधर्मदेवीभ्यस्तेऽसळयगणाः २९ तेभ्यो भवनवासिन्यो देव्यः सङ्ग्यगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात्। ३० ताभ्योऽप्यस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असङ्ख्येयगुणाः अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि प्रथमवर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् ३१ तेभ्योऽपि खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पुरुषा असङ्ख्येयगुणाः प्रतरासङ्ख्येयभागवहँसत्येयश्रेणिनभःप्रदेशराशिप्र
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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दीप
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:)
दारं [२७],
पदं [३], --------------उद्देशक: [ - ],
मूलं [ ९३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१५],उपांगसूत्र-[४] “प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापना
॥१६५॥
माणत्वात् ३२ तेभ्योऽपि खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः खियः सश्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात्, “तिगुणा तिरूवजहिया याः मल- है तिरिआणं इत्थिओ मुणेयवा" इति वचनात् ३३ ताभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पुरुषाः सत्येयगुणाः, य० वृत्ती. वृहत्तरप्रतरासङ्ख्येय भागवर्त्यसङ्ख्ये य श्रेणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ३४ तेभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियः सत्येयगुणाः त्रिगुणत्वात् ३५ ताभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पुरुषाः सत्येयगुणाः बृहत्तमप्रतरासवेय भागवर्त्य सङ्ख्य श्रेणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ३६ तेभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियः सत्येयगुणाः त्रिगुणत्वात् ३७ ताभ्योऽपि व्यन्तरा देवा पुंवेदोदयिनः सवेयगुणाः, यतः सत्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणानि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावन्तः सामान्येन व्यन्तराः, केवलमिह पुरुषा विवक्षिता इति ते सकलसमुदायापेक्षया किञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा वेदितव्याः, ततो घटन्ते जलचरयुवतिभ्यः सत्येयगुणाः ३८ तेभ्यः व्यन्तर्यः समेयगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ३९ ताभ्यो ज्योतिष्का देवाः सश्येयगुणाः, ते हि सामान्यतः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाकुठप्रमाणानि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति ताव - प्रमाणाः, परमिह पुरुषा विवक्षिता इति ते सकलसमुदायापेक्षया किञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पाः प्रतिपत्तव्याः, तत उपपद्यन्ते व्यन्तरीभ्यः सोयगुणाः ४० तेभ्यो ज्योतिष्कदेव्यः सत्येयगुणाः द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ४१ ताभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नपुंसकाः सज्ञेयगुणाः, कचित् 'असोयगुणाः' इति पाठः, स न समीचीनः, यत
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३ बहुव
कव्यतापदे महादण्डकः
सू. ९३
॥१६५॥
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पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक [९३]
दीप
इत ऊझै ये पर्यासचतुरिन्द्रिया वक्ष्यन्ते तेऽपि ज्योतिष्कदेवापेक्षया सङ्ख्येयगुणा एवोपपद्यन्ते, तथाहि-पट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलप्रमाणानि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा ज्योतिष्काः, । उक्तं च-"छपन्नदोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइयं पयरं । जोइसिएहिं हीरइ" इति, अङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्राणि च सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणाश्चतुरिन्द्रियाः, उक्तं च-"पज्जत्तापज्जत्तबितिचउरअ-IN सन्निणो अवहरंति । अङ्गुलसंखासंखप्पएसभइयं पुढो पयरं ॥ १॥" अङ्गुलसङ्ख्येयभागापेक्षया च षट्पञ्चाशदधिकमकुलशतद्वयं सङ्ख्येय गुणं, ततो ज्योतिष्कदेवापेक्षया परिभाव्यमानाः पर्याप्तचतुरिन्द्रिया अपि सोयगुणा एव घटन्ते किं पुनः पर्याप्तचतुरिन्द्रियापेक्षया सक्थेयभागमात्राः खचरपञ्चेन्द्रियनपुंसका इति ? ४२ तेभ्योऽपि स्थलचरपञ्चन्द्रियनपुंसकाः सोयगुणाः ४३ तेभ्योऽपि जलचरपञ्चेन्द्रियनपुंसकाः सक्येयगुणाः ४४ तेभ्योऽपि पर्याप्तचतुरिन्द्रियाः सोयगुणाः ४५ तेभ्योऽपि पर्यायाः संझ्यसंज्ञिभेदभिन्नाः पञ्चेन्द्रिया विशेषाधिकाः ४६ तेभ्योऽपि पर्याप्ता द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः ४७ तेभ्योऽपि पर्याप्तास्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, यद्यपि च पर्यासचतुरिन्द्रियादीनां पर्याप्तत्रीन्द्रियपर्य-1|| न्तानां प्रत्येकमङ्गुलसनेयभागमात्राणि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणत्वमविशेपेणान्यत्र वर्ण्यते तथाऽप्यङ्गुलसङ्ख्येयभागस्य सङ्ख्येयभेदभिन्नत्वाद् इत्थं विशेषाधिकत्वमुच्यमानं न विरुद्धं, उक्तं चेत्थमल्पबहुत्वमन्यत्रापि-तत्तो नपुंसग खहयरा संखेज्जा थलयरजलयरनपुंसगा चउरिदिय तो पणबितिपज्जत
अनुक्रम [२९७]
celeseserserserotic
ATMastaram.org
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनायाः मल- यवृत्ती.
सूत्राक
[९३]
॥१६६॥
दीप अनुक्रम [२९७]
Reseseaeeseselesed
किंचि अहिआ" इति ४८ तेभ्योऽपि पर्यासत्रीन्द्रियेभ्योऽपर्याप्ताः पञ्चेन्द्रिया असत्येयगुणाः अङ्गुलासययभागमा-1 त्राणि खण्डानि सूचिरूपाणि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणत्वात् ४९ तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अपर्याप्ता विशे-क्तिव्यतापाधिकाः ५० तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ५१ तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः पदे महायद्यपि चापर्याप्ताः चतुरिन्द्रियादयो अपर्याप्तद्वीन्द्रियपर्यन्ताः प्रत्येकमकुलस्यासयेयभागमात्राणि खण्डानि सूचीरूपा-19 दण्डका |णि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्राविशेषणोक्तास्तथाप्यङ्गलासंख्येयभागस्य विचित्रत्वादित्थं विशेपाधिकत्वमुच्यमानं न विरोधमास्कन्दति ५२, तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियापर्याप्तेभ्यः प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्साः। असंख्येयगुणाः, यद्यपि चापर्याप्तद्वीन्द्रियादिवत् पर्याप्तवादरवनस्पतिकायिका अपि अङ्गुलासंख्येयभागमात्राणि सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्रोक्तास्तथापि अङ्गुलासपेयभागस्थासयभेदभि-1|| नत्वाद् बादरपर्यास प्रत्येकवनस्पतिपरिमाणचिन्तायामङ्गुलासङ्ख्येयभागोऽसङ्ख्येयगुणहीनः परिगृयते ततो न कश्चिद |६|| विरोधः ५३ तेभ्योऽपि वादरनिगोदा अनन्तकायिकशरीररूपाः पर्याप्ता असोयगुणाः ५४ तेभ्योऽपि बादरपृथि-18 बीकायिकाः पर्याप्सा असोयगुणाः ५५ तेभ्योऽपि पर्याप्ता बादराकायिका असङ्ख्येयगुणाः, यद्यपि च पर्याप्तवा-1
॥१६॥ दरप्रत्येकवनस्पतिकायिकपृथिवीकायिकाप्कायिकाः प्रत्येकमङ्गलासङ्ग्येयभागमात्राणि सूचीरूपाणि खण्डानि यावत्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्राविशेषेणोक्ताः तथाप्यकुलासमवेयभागस्थासङ्ख्ययभेदभिन्नत्वाद् इत्थम-18
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
sersesesearceraelae.
समवेयगुणत्वाभिधाने न कश्चिद्दोषः ५६ तेभ्यो बादरपयाप्ताकायिकेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः घनीकृतलोकासङ्ख्येयभागवय॑सङ्ख्येयप्रतरगतनमःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ५७ तेभ्यो बादरतेजःकायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ५८ तेभ्यः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः ५९ तेभ्योऽपि बादरनिगोदा अपर्याप्तका असहयगुणाः ६० तेभ्यो चादरपृथिवीकायिका अपर्या
सका असङ्खयेयगुणाः ६१ तेभ्यो बादराप्कायिका अपर्याप्तका असङ्ख्यगुणाः ६२ तेभ्यो बादरवायुकायिका अपपायोसा असङ्ख्ययगुणाः ६३ तेभ्यः सूक्ष्मतेजःकायिका अपर्याप्तका असमवेयगुणाः ६४ तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका
अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ६५ तेभ्यः सूक्ष्माप्कायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ६६ तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका अपयोप्सा विशेषाधिकाः ६७ तेभ्यः सूक्ष्मतेजःकायिकाः पर्याप्तकाः सङ्ख्येयगुणाः ६८ अपर्याप्तकसूक्ष्मेभ्यः पर्यासकसूक्ष्माणां खभावत एव प्राचुर्येण भावात् , तथा चाह अस्या एच प्रज्ञापनायाः संग्रहणीकार:-"जीवाणमपजत्ता बहुतरगा बायराण विन्नेया । सुहुमाण य पजत्ता ओहेण य केवली विति ॥१॥" तेभ्योऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्तका विशेषाधिकाः ६९ तेभ्योऽपि सूक्ष्माप्कायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः ७० तेभ्योऽपि सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः ७१ तेभ्योऽपि सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः ७२ तेभ्योऽपि पर्याप्ताः सूक्ष्मनिगोदाः सङ्गयेयगुणाः ७३ यद्यपि चापर्यासतेजःकायिकादयः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदपर्यन्ता अविशेषेणान्यत्रास
Seeeeeeees
दीप
अनुक्रम [२९७]
ट
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
सूत्राक
[९३]
॥१६७॥
दीप
व्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा उक्तास्तथाऽपि लोकासयेयत्वस्थासङ्ख्येयभेदभिन्नत्वाद इत्थमल्पवदुत्वमभिधीयमा-18| बहननमुपपन्नं द्रष्टव्यं, तेभ्योऽभवसिद्धिका अनन्तगुणाः जघन्ययुक्तानन्तकप्रमाणत्वात् ७४ तेभ्यः प्रतिपतितसम्यग-शक्तव्यतादृष्टयोऽनन्तगुणाः ७५ तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः ७६ तेभ्योऽपि बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः पदे महा७७ तेभ्योऽपि सामान्यतो वादरपर्याप्सा विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ७८ दण्डकः तेभ्यो बादरापर्याप्तवनस्पतिकायिका असङ्ख्येयगुणाः, एकैकबादरनिगोदपर्यासनिश्रया असङ्ख्येयगुणानां बादरापर्या- सू. ९३ सनिगोदानां संभवात् ७९ तेभ्यः सामान्यतो बादरापर्यासा विशेषाधिकाः, बादरापर्याप्सपृथिवीकायिकादीनामपि। तत्र प्रक्षेपात् ८० तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः पर्याप्सापर्यासानां तत्र प्रक्षेपात् ८१ तेभ्यः सूक्ष्मवनस्प|तिकायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः ८२ तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्यासका विशेषाधिकाः सूक्ष्मापर्वाप्सपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ८३ तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्साः सङ्ख्येयगुणाः, पर्याप्तसूक्ष्माणामपर्याप्सेभ्यः। सूक्ष्मेभ्यः स्वभावतः सदैव सचोयगुणतया प्राप्यमाणत्वात् , तथा केवलवेदसोपलब्धेः ८४ तेभ्योऽपि सामान्यतः सूक्ष्मपर्याप्सा विशेषाधिकाः, पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ८५ तेभ्यः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणरहिताः। सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिव्यतेजोपायुवनस्पतिकायिकानामपि तत्र प्रक्षेपात् ८६ तेभ्योऽपि भवसिद्धिका' भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिका-भव्या विशेषाधिकाः, जघन्ययुक्तानन्तकमात्राभव्यपरिहारेण सर्वजी
392202902
अनुक्रम [२९७]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [३], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [२७], -------------- मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
दीप
वानां भव्यत्वात् ८७ तेभ्यः सामान्यतो निगोदजीवा विशेषाधिकाः, इह भन्या अभव्याश्चातिप्राचुर्येण सूक्ष्मवाद-IN रनिगोदजीवराशावेव प्राप्यन्ते नान्यत्र अन्येषां सर्वेषामपि मिलितानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , अभव्याश्च युक्तानन्तकसंख्यामात्रपरिमाणास्ततो भन्यापेक्षया ते किञ्चिन्मात्राः भव्याश्च प्रागमव्यपरिहारेण चिन्तिताः इदानीं तु बादरसूक्ष्मनिगोदचिन्तायां तेऽपि प्रक्षिप्यन्ते इति विशेषाधिकाः ८८ तेभ्यः सामान्यतो वनस्पतिजीवा विशेषाधिकाः, प्रत्येकशरीराणामपि वनस्पतिजीवानां तत्र प्रक्षेपात् ८९ तेभ्यः सामान्यत एकेन्द्रिया विशेपाधिकाः, बादरसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९० तेभ्यः सामान्यतस्तिर्यग्योनिका विशेषाधिकाः, पर्याप्तापर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियाणामपि तत्र प्रक्षेपात् ९१ तेभ्यश्चतुर्गतिभापिनो मिथ्यादृष्टयो विशेषा8|धिकाः, इह कतिपयाविरतसम्यग्दृष्ट्यादिसंज्ञिव्यतिरेकेण शेषाः सर्वेऽपि तिर्यञ्चो मिथ्यादृष्टयः, चातुर्गतिकमिथ्या
रटिचिन्तायां चासंख्येया नारकादयस्तत्र प्रक्षिप्यन्ते ततस्तिर्यगजीवराश्यपेक्षया चतुर्गतिकमिथ्यादृष्टयचिन्त्यमाना विशेषाधिकाः ९२ तेभ्योऽप्यविरता विशेषाधिकाः, अविरतसम्यग्दृष्टीनां तत्र प्रक्षेपात् ९३ तेभ्यः सकपायिणो विशेषाधिकाः, देशविरतादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९४ तेभ्यः छद्मस्था विशेषाधिकाः, उपशान्तमोहादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९५ तेभ्यः सयोगिनो विशेषाधिकाः, सयोगिकेवलिनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९६ तेभ्यः संसारस्था विशेषा-18 धिकाः, अयोगिकेवलिनामपि तत्र प्रक्षेपात् ९७ तेभ्यः सर्वजीवा विशेषाधिकाः, सिद्धानामपि तत्र प्रक्षेपात् ९८ ॥
इति श्रीमलयगिरिसूरिचर्यविरचितायां प्रशापनावृत्तौ तृतीयं पदं समाप्तम् ।
अनुक्रम [२९७]
अत्र पद (०३) "अल्पबहत्व" परिसमाप्तम्
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], ------------दारं --------------- मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गे चतुर्थ स्थितिपदं ।
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
-mationalitiv
e
ene
सूत्राक
४ स्थितिपदे पर्या. अ. नारकाणां स्थितिः
[९४]
॥१६॥
दीप अनुक्रम [२९८]
नेरइयाणं भैते । केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहनेणं दसवाससहस्साई, उकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई । अपअत्तनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा! जहन्त्रेण अंतोमुहुर्त उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । पज्जतगनेरइयाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमहत्तणाई, उकोसेणं तेत्तीसं सागरोचमाई अंतोमुहुत्तूणाई । रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उकोसेण सागरोवमं, अपजत्तरयणप्पभापुढ विनेरयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहूर्त उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तरयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहतूणाई उकोसेणं सागरोवमं अंतोमुहत्तृणं ।। सकरप्पभापुढविनेरइयाणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा, मोयमा ! जहन्त्रेणं एगं सागरोवमं उकोसेणं तिनि सागरोवमाई, अपजत्यसकरप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा ! जहणं अंतोमुहुत्वं उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्स, पज्जत्तयसकरप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवम अंतोमुत्तूण उक्कोसेणं तिनि सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । वालुयप्पभापुढविनेरहयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पबत्ता ?, गोयमा! जहन्नेणं तिन्नि सागरोक्माई उकोसेणं सत्त सागरोवमाई, अपजत्तयवालयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते । केवइयं कालं ठिई पत्ता, मोयमा ! जहनेणं अंतोमुहु उक्कोसेणवि
॥१६॥
अथ पद (०४) "स्थिति" आरभ्यते
नारकाणां स्थिति:/(आयुः)
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[९४]
टाटाeeeeeeeeeee
दीप अनुक्रम [२९८]
अंबोतं, पजन्यवालुयप्पभापुढविनेरायाण मंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा ! जहणं तिनि सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं सत्त सागरोबमाई अंतोमुहुतूणाई ॥ पंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाई उकोसेणं दस सागरोवमाई, अपज्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरहयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहरेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतीमुहुर्त, पञ्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पमता, गोयमा जहनेणं सत्त सागरोचमाई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं दस सागरोवमाई अंतोमहत्तूणाई ।। धूमप्पभापुढविनेरहयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनत्ता?, गोयमा! जहनेणं दस सागरोवमाई उकोसेणं सत्तरससागरोवमाई, अपज्जत्तयधूमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रता , गोयमा! जहन्नेणवि अंतोमुहुर्त उक्कोसेणवि अंतोमुत्तं, पज्जत्तगमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पाता, गोयमा । जहनेणं दस सागरोचमाई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेण सत्तरससागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ तमप्पभापुढविनेरहयाण मंते ! केवइयं कालं ठिई पभत्ता, गोयमा ! जहनेणं सत्तरससागरोवमाई उकोसेणं बावीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयतमप्पभापुढविनेरइयाणं भते । केवइयं कालं ठिई पत्ता, गोषमा । जहनेणवि अंतोमुहुर्च उकोसेणवि भंतोमुहतं, पजत्तगतमप्पभापुढविनेरइयाण भंते ! फेवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा ! जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुतूणाई ।। अहेसत्तमापुढविनेरइयाण भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रता, गोयमा । जहनेणं भावीसं सागरोवमाई उकोसेणं तित्तीस सागरोवमाई अपजत्तगहेसत्तमपढविनेरझ्याणं भंते ! केवयं कालं ठिई पत्रचा, गोषमा! जहने
Lotsecticesette
SARERatunintamatkarma
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], ------------दारं --------------- मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्तौ.
सूत्राक
[९४]
॥१६॥
रसप्रभा
दीप
वि अंतोमहत्तं उक्कोसेणचि अंतीमहतं, पजत्तगअहेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनचा ,गोयमा! स्थितिजहनेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीस सागरोक्माई अंतोमुहत्तूणाई (मू०९४)
पदे सामाइदानीं चतुर्थमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे दिगनुपातादिनाऽल्पबहुत्वसङ्ख्या निर्धारिता, न्यपयोअमिंस्तु तयाऽल्पबहुत्वसङ्ख्यया निर्धारितानां सत्त्वानां जन्मतः प्रभृत्यामरणात् यन्नारकादिपर्यायरूपेणाव्यवच्छित्रमयस्थानं तचिन्त्यते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्वेदमादिसूत्रम्-'नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' इति,
दीनां नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञसा, तत्र स्थीयते-अवस्थीयते अनया आयुःकर्मानुभूत्येति स्थितिः,
| स्थितिः स्थितिरायु:कानुभूति वनमिति पर्यायाः, यद्यप्यत्र जीवेन मिथ्यात्वादिभिरुपात्तानां कर्मपुद्गलानां ज्ञानावरणी-18
FRI सू. ९४ यादिरूपतया परिणतानां यदवस्थानं सा स्थितिरिति प्रसिद्धं तथापि नारकादिव्यपदेशहेतुरायुःकर्मानुभूतिः,
तथाहि-यद्यपि नरकगतिपञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मोदयाश्रयो नारकत्वपर्यायस्तथापि नारकायुःप्रथमसमयसंवेदन& काल एव तन्निवन्धनं नारकक्षेत्रमप्राप्तोऽपि नारकस्य (त्व) व्यपदेशं लभते, तथा च मौनीन्द्रं प्रवचनम्-"नेरइए णं भंते । नेरइएसु उववजह अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ ?, गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववजह नो अनेरइए नेर-II
॥१६॥ १ नैरयिको भदन्त । नैरयिकेषु उत्पद्यतेऽनैरयिको नैरथिकेषु उत्पद्यते ?, गौतम ! नैरयिको नैरयिकेषु उत्पद्यते नो अनैरयिको नैरयिकेषु उत्पद्यते।
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
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సంపందించింది
दीप अनुक्रम [२९८]
इएसु उववजह" इत्यादि, ततः सैवायुःकर्मानुभूतिरिह यथोक्तव्युत्पत्त्या स्थितिरभिधीयते, अत्र निर्वचनमाह'गोयमे त्यादि, एतच पर्याप्तापर्याप्तविभागाभावेन सामान्यतः उक्तं यदा तु पर्याप्तापर्याप्तविभागेन चिंता, तदेदं
सूत्रम्-'अपज्जत्तनेरइयाणं भंते !' इत्यादि, इह अपर्याप्ता द्विविधाः-लब्ध्या करणैश्च, तत्र नैरयिकदेवा असङ्खयेयवआयुषस्तिर्यग्मनुष्याः करणैरेवापर्याप्ताः, न लघ्या, लब्ध्यपर्याप्तकानां तेषु मध्ये उत्पादासंभवात् , तत एते उपपा|तकाल एव करणैः कियन्तं कालमपर्याप्सा द्रष्टव्याः, शेषास्तु तिर्यग्मनुष्या लब्ध्याऽपर्याप्साः उपपातकाले च, उक्तंच-"नारंगदेवा तिरिमणुयगम्भजा जे असंखवासाऊ । एए अप्पजत्ता उववाए चेव बोद्धधा ॥१॥सेसा य तिरिमणुया लद्धिं पप्पोववायकाले य । दुहओविय भयइयचा पज्जत्तियरे य जिणवयणं ॥ २॥" अपर्याप्तकाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त, अत उक्तम्-'गोयमा! जहन्नेणपि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं' अपर्याप्ताद्धाऽपगमे च शेषकाल पर्याप्ताद्धा, तत उक्तं पर्याप्तसूत्रे-गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीससागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई" एतच्च पृथिव्यविभागेन चिन्तितं, सम्प्रति पृथिवीविभागेन चिन्तयति-'रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते !' इत्यादि सुगम, शेषमपि सुगममापदपरिसमासेः॥
१ नारकदेवाः तिर्यग्मनुष्या गर्भजा येऽसंख्यवर्षायुषः । एतेऽपर्याप्ता उपपाते चैव बोद्धव्याः ॥१॥ शेषाश्च तिर्यग्मनुष्या लब्धि ल प्राप्योपपातकाले च । द्विधातोऽपि च भक्तव्याः पर्याप्ता इतरे च जिनवचनात् ॥२॥
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
मज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
[९५१०१]
स्थितिपदे सामान्यविशेपतो देवानां स्थितिः सू. ९५
॥१७॥
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दीप
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देवाणं मंते ! केवयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, अपक्षसयदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पनना, गोयमा ! जहन्त्रेणवि अंतोमुहत्तं उकोसेणवि अंतोमुहुच, पजनयदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पबत्ता, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता?, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं पणपन्न पलि
ओवमाई, अपजत्तयदेवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पबत्ता, गोयमा ! जहणवि अंतोमुहुत्तं उकोसेणवि अंतीमुहुर्त, पज्जत्तयदेवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्रचा?, गोयमा ! जहनेणं दस बाससहस्साई अंतोमुहुजूणाई उकोसेणं पणपत्र पलिओचमाई अंतोमुहुतूणाई ।। भवणवासीणं देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पचना, गोयमा ! जहणं दस वाससहस्साई उकोसेणं साइरेग सागरोवमं, अपञ्जत्तयभवणवासीणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्रचा, गोयमा! जहनेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयभवणवासीणं देवाणं मंते ! केवायं कालं ठिई पनना , गोयमा! जहणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं साइरेग सागरोवमं अंतोमहत्तर्ण ॥ भवणवासिणीणं भंते ! देवीर्ण केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा । जहनेणं दसवाससहस्साई उकोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई, अपञ्जत्तयभवणवासिणीणं देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा! जहनेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतीमुहुर्त, पज्जत्तियाणं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहतूणाई उकोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई अंतोमुहतूणाई । असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नचा, गोपमा!
अनुक्रम [२९९-३०५]
देवानाम् स्थिति:/(आयुः)
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५
१०१]
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जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं साइरेग सागरोवर्म, अपनत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवायं कालं ठिई पत्रता, गोयमा ! जहणवि अंतोमुहु उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पमत्ता ?, गोयमा जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं अंतोमुत्तूर्ण ॥ असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पत्रचा?, गोयमा । जहणं दस वाससहस्साई उकोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई, अपञ्जत्तियाणं असुरकुमारीण भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा! जहनेणवि अंतोमुहुत्तं उकोसेणवि अंतोमहत्तं, पज्जरियाणं असुरकुमारीणं देवीर्ण भंते ! केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई अंतो हुत्तूणाई ॥ नागकुमाराणं देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता , गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई, अपजत्तयाण भंते ! नागकुमाराण केवइयं कालं ठिई पनत्ता, गोयमा। जहनेणवि अंतोमुह उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्च, पञ्जत्तयाणं भंते! नागकुमाराणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा ! जहानेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुजूणाई उकोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई अंतोमुत्तूणाई ॥ नागकुमारीण भैते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नचा, गोयमा ! जहणं दस वाससहस्साई उकोसेणं देसूर्ण पलिओनर्म, अपञ्जनियाणं भंते ! नागकुमारीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पत्रचा?, गोयमा ! जहनेणवि अंतोमुह उकोसेणवि अंतोमुहुर्च, पजत्तियाणं भंते ! नागकुमारीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहत्तणाई उकोसेणं देसूर्ण पलिओवम अंतोमहत्तणं । सुवष्णकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं
दीप अनुक्रम
[२९९
-३०५]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती.
स्थितिपदे सामान्यविशेषतो देवानां स्थितिः
[९५
१०१]
॥१७॥
कालं ठिई पनत्ता, गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई, अपनत्तयाणं पुच्छा, गोयमा! जहणवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई अंतोमुहुत्तूणाई। सुबण्णकुमारीणं देवीणं पुच्छा, गोषमा ! जहबेणं दस बाससहस्साई उक्कोसेणं देसूर्ण पलिओवमं, अपजत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि अंतीमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमूहुत्तूणाई उक्कोसेणं देसूर्ण पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं । एवं एएणं अभिलावेणं ओहियअपज्जत्तयपजत्तयसुत्तत्तयं देवाण य देवीण य नेयई जाव थणियकुमाराणं जहा नागकुमाराणं (मू०९५) पुढविकाइयाणं भंते! केवायं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं बाबीसं वाससहस्साई, अपनत्तयपुटविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयपुढविकाइयाण पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं बाषीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, मुहुमपुढविकाइयाण पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, अपजत्तयसुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहवेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुने, पञ्जत्तय सुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, बायरपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहमेणं अंतोमुहुर्च उकोसेणं बावीसं बाससहस्साई, अपञ्जत्तयवायरपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्च, पजत्तयबायरपुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं बावीस वाससहस्साई अंतोमुहसूणाई । आउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता , गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं सत्त वाससहस्साई, अपजत्तयआउका
पृथ्व्यादीनां स्थिति
दीप अनुक्रम [२९९-३०५]
॥१७॥
पृथ्विकायिकादिनाम् स्थिति:/(आयु:)
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५
aesesesese
१०१]
इयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि अंतोमुहुत्तं उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयआउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई अंतीमुहुत्तूणाई, सुहुमआउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्ताणं पञ्जताण य जहा सुहमपुढविकाइयाणं तहा भाणिया, बायरआउकाइयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं सत्त वाससहस्साई अपजत्तयवायरआउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्स, पजत्तयाण य पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमुत्तं उकोसेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई । तेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं तिन्नि राईदियाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाण य पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमहत्तं उकोसेणं तिनि राईदियाई अंतोमुहुत्तूणाई, सुहुमतेउकाइयाणं ओहियाण अपजत्ताणं पञ्जत्ताण य पुच्छा गोयमा ! जहन्नेगवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, बायरतेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिनि राइंदियाई, अपज्जत्तयवायरतेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं, पजचाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमहर्न उकोसेणं तिनि राइंदियाई अंतोमुत्तूणाई । वाउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिनि वाससहस्साई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेगवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्स, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तित्रि वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, सुहुमबाउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उफोसेणचि अंतोमुहुतं, पजत्नयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेगवि अंतोमुहुर्त, वायरयाउकाइयाणं पुच्छा गोय
दीप अनुक्रम
[२९९
-३०५]
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
अज्ञापना
प्रत सूत्रांक [९५१०१]
या: मलयवृत्ती.
॥१७॥
स्थिति| पदे द्वीन्द्रियादीनां स्थितिः .
Sacaendaeesa0
मा! जहमेणं अंतोसहुत् उकोसेणं तिन्नि वाससहस्साई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणषि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहलेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिनि वाससहस्साई अंतोमहसूणाई । वणफइकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई, अपजचयाणं पुच्छा गोययमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहु उकोसेणं दस बाससहस्साई अंतोमहत्तूणाई, सुहुमवणफइकाइयाणं ओहियाणं अपजताण पञ्जत्ताण य पुच्छा गोयमा! जहन्त्रेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर, बायरवणप्फइकाइयाण पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं दस वाससहस्साई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उफोसेणवि अंतोमुहुन, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई ।। (सू०९६) । बेइंदियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता, गोयमा! जहनेणं अंतोमुहु उकोसेणं बारस संवच्छराई, अपज्जत्तयाणं पुरछा गोयमा । जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमहर्च, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्ने] अंतोमुहुत् उफोसेणं बारस संवच्छराई अंतोमुत्तूणाई । तेइंदियाण मंते ! केवइयं कालं ठिई पबत्ता, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं एगुणवत्रं राईदियाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहोणं अंतोमुहुर्च उकोसेणं एगुणवत्रं राईदियाई अंतोमुहत्तणाई चउरिदियाणं भंते ! केवइयं काल ठिई पचत्ता, गोयमा ! जहनेणं अंतोमहरी उक्कोसेणं छम्मासा, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसणषि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाण पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं छम्मासा अंतीमुहत्तूणा ॥ (सू०९७)पंचिदियतिरि
दीप अनुक्रम
[२९९
-३०५]
॥१७॥
SAREarattin international
द्वि-इन्द्रियादिनाम् स्थिति:/(आयुः)
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५
१०१]
क्खजोणियाणं भते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता, गोयमा ! जहमेणं अंतोमहनं उकोसेणं तिनि पलिओवमाई, अपज्जतयाण पुच्छा गोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुरी, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमहत्तं उकोसेणं विनिपलिओबमाई अंतोमुहलूणाई, समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा । जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुबकोडी, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहतं, पज्जत्तयाणं पुरछा गोयमा ! जहणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तूणा । गम्भवकंतियपंचिदियतिरिक्खजोणियाण पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं तित्रि पलिओवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमहत्त, पजत्तयाणं पुरछा गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नचा ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहवं उकोसेणं पुखकोडी, अपज्जयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पनत्तयाण पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं पुषकोडी अंतोमुहत्तूणा, संमुच्छिमजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुरी, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा । जहण अंतोमुह उकोसेणं पुषकोडी अंतोमुटुतूणा, गम्भवतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणे पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुनकोडी, अपज्जयाण पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमहतं, पजचयाणं पुच्छा गोयमा! जहणं अंतोमुहुतं उकोसेणं पुछकोडी अंतोमुदत्तूणा । चउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतीमुहु उकोसेणं तिनि पलिओवमाई,
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥१७॥
१०१]
अपजत्तयचउपयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुरछा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमहलूणाई, संमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणे पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं चउरासीवाससहस्साई, अपजत्तयाण पुच्छा गोयमा ! जहवेणविउकोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं चउरासीवाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, गम्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहश्रेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! जहणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं पुवकोडी, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पञ्जत्तयाण पुच्छा गोयमा । जहमेणं अंतोमहत्तं उकोसेणं पुत्वकोडी अंतोमुत्तूणा, समुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्सजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुने उक्कोसेणं तेवनं वाससहस्साई, अपज्जत्तयाण पुच्छा गोयमा! जहन्त्रेणवि उकोसेणचि अंतोमुहु, पजत्तयाण पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं तेवनं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, गम्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं अंतोमहु उकोसेणं पुवकोडी, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहवेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुत्तूणा । भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतो
४ स्थितिपदे जलस्थलखराणां सामान्यविशेष
तः पञ्चे|न्द्रियाणां स्थितिः सू. ९८
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दीप
अनुक्रम
[२९९
-३०५]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः) . दारं [-], -------- • मूलं [ ९५-१०१]
पदं [४],
---------- उद्देशक: [-],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jan Educati
मुउकोसेणं पुचकोडी, अपचयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणवि उक्कोसेणचि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं पुढकोडी अंतोमुहुत्तूणा, संमुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणवि उकोसेपवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं बायालीसं बाससहस्साई अंतोनूणाई, गम्भवकंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुनकोडी, अपजतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं पुत्रकोडी अंतोना । खयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं, अपजत्तयाणं पुच्छा जहस्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पजचयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुचं उकोसेणं पलिओ मस्स असंखेजड़भागं अंतीमहत्तूर्ण, संमुच्छिमखयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणं अंतोमुहतं उकोसेणं बावतरी वाससहस्साई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुडुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं बाबत्तरी वाससहस्साई अंतोमुहुत्तणाई, गम्भवकंतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणं अंतोमुडुतं उकोसेणं पलिओनमस्स असंखेज्जइमागं, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणविउकोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुद्दत्तं उत्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं अंतोमुहुत्तूर्णं (सू०९८) । मणुस्साणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा ! जत्रेणं अंतो
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५
प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती.
स्थितिपदे मनुप्यन्यन्त| रज्योति
कस्थितिःसू.९८ IN-९९-१००
॥१७४॥
१०१]
दीप अनुक्रम
मुहुर्त उकोसेणं तिनि पलिओवमाई, अपज्जत्तमणुस्साणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणवि उकोसेणपि अंतोमहुतं, पजत्तमपुस्साणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुर्च उक्कोसेणं तिमि पलिओवमाई अंतोमुहत्तणाई, संमच्छिममणुस्साणं पुरछा गोयमा! जहनेणवि अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहु, गम्भवकवियमणुस्साणं पुच्छा गोषमा । जहणं अंतोमुहत्वं उकोसेणं तिमि पलिओक्माई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहण अंतोमुहुरी उकोसेणं तिनि पलिओयमाई अंतोमुत्तूणाई।। (सू०९९)। वाणमंतराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पनचा ?, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं पलिओचम, अपजत्नयवाणमंतराणं देवाणं पुच्छा गोयमा! जहश्रेणघि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमहुत्तूणाई, उकोसेणं पलिओवमं अंतोमुत्तूर्ण । वाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं अद्धपलिओवर्म, अपजत्तियार्ण देवीणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहु, पज्जत्तियाणं वाणमंतरीणं पुच्छा गोयमा ! जहझेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहलणाई उकोसेणं अपलिओवमं अंतोमहत्तण । (१०१००)।जोइसियाणं देवाणं पुच्छा गोयमा! जहणं पलिओवमट्ठभागो उकोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं, अपज्जतजोइसियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुच, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमट्ठभागो अंतोमुद्दत्तूणो उकोसेणं पलिओवर्म वाससयसहस्समन्भहियं अंतोमुहुत्तूर्ण । जोइसिणीणं देषीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमट्ठभागो उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासवाससहस्समम्भहियं, अपजतजोइसियदेवीणं पूच्छा गोयमा! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पज्ज
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se
॥१७४॥
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ज्योतिष्क-देवानाम् स्थिति:/(आयु:)
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
Saeoen
प्रत सूत्रांक [९५
१०१]
चयजोइसियदेवीणं पुच्छा गोयमा ! जहम्मेणं पलिओवमट्ठभागो अंतोमुहुत्तूणो उक्कोसेणं अपलिओवमं पण्णासवाससहस्समब्भहियं अंतोमुहुत्तू गं । चंदविमाणेणं मंते ! देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्सममहियं, अपज्जत्तयाणं चंददेवाणं पुच्छा मोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुन, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुजूणं उकोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं अंतोमुहुत्तूर्ण, चंदविमाणे णं देवीणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं चउभागपलिओवमं उकोसेणं अद्धपलिओवमं पन्नासवाससहस्समभहियं, अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पन्नासवाससहस्समब्भहियं अंतोमुहुनूणं । सूरविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पनचा १, गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवर्म उकोसेणं पलिओयम वाससहस्समभहियं, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुनं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहत्तूणं उकोसेणं पलिओवमं वाससहस्समभहियं अंतोमुहुत्तूणं, भूरविमाणे णं भंते ! देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं चउभागपलिओवमं उकोसेणं अद्धपलिओचमं पंचहिं वाससएहिमब्भहियं, अपज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्ग, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तर्ण उकोसेणं अद्धपलिओवर्म पंचहिं वाससएहिमब्भहियं अंतोमुहुजूर्ण । महविमाणे गं भंते ! देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्भेणं चउभागपलिओवर्म उकोसेणं पलिओवर्म, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुन्, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जह
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५१०१]
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
४स्थितिपदे ज्योतिष्कस्थितिः सू. १०१
॥१७५॥
श्रेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उकोसेणं पलिओवमं अंतोमुहुनृणं, गहविमाणे देवीणं पुरछा गोयमा ! जहमेणं चउभागपलिओवम उकोसेणं अदपलिओवर्म, अपजत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्ग, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुर्ण उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं अंतोमुहुतूणं । नक्खत्तविमाणे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उकोसेणं अद्धपलिओवमं अंतोमुत्तूणं, नक्खत्तविमाणे देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणं चउभागपलिओवम उक्कोसणं साइरेग चउभागपलिओक्म, अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जचियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहत्तणं उकोसेणं साइरेग चउभागपलिओवमं अंतोमुहत्तूणं । ताराविमाणे देवाणं पुरछा गोयमा! जहणं अट्ठमागपलिओवर्म उकोसेणं चउभागपलिओवम, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर्त, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा जहन्नेणं पलिओवमट्टमार्ग अंतोमुहत्तूणं उकोसेण चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण, ताराविमाणे देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं पलिओवमट्ठभाग उकोसेणं साइरेग अद्वभागपलिओवर्म ताराविमाणे अपज्जत्तियाण देवीणं पुच्छा मोयमा ! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्च, पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं पलिओवमट्ठभागं अंतोमुहुजूर्ण उक्कोसेणं साइरेगं पलिओवमट्ठभागं अंतोमुत्तूर्ण (सू०१०१) नवरं 'चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं' इत्यादि, चन्द्रविमाने चन्द्र उत्पद्यते शेषाच तत्परिवारभूताः, तत्र तत्परि
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[२९९
||१७५॥
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [९५-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५
Seces
१०१]
वारभूतानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपमप्रमाणं उत्कर्षतः केपाश्चिदिन्द्रसामानिकादीनां वर्षलक्षाभ्यधिकं पल्योपम, चन्द्रदेवस्य तु यथोक्तमुत्कृष्टमेव, एवं सूर्यादिविमानेष्वपि भावनीयमिति ॥
वेमाणियाणं देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?, गोषमा ! जहन्नेणं पलिओवम उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोबमा! जहणं पलिओचम अंतोमुहत्तृणं उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । वेमाणियाणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता गोयमा ! जहनेणं पलिओवम उक्कोसेणं पणपन्न पलिओवमाई, अपजत्तियाण पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं पलिओवम अंतोमुहुत्तूर्ण उक्कोसेणं पणपत्रं पलिओवमाई अंतोमुहुणाई ।। सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवम उकोसेणं दो सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुने, पजत्तयाणं देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्ने पलिओवम अंतोमहत्तणं उकोसेणं दो सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, सोहम्मे कप्पे देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवम उकोसेण पन्नास पलिओवमाई, अपञ्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोषमा! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्त, (ग्रन्थाग्र२५००) पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उक्कोसेणे पन्नास पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाण देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेण पलिओवमं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई, अपज्जत्तियपरिग्गहियदेवीणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणवि
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REsamanna
| वैमानिक-देवानाम् स्थिति:/(आयुः)
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: -,-------------- दारं --------------- मूलं [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलव०वृत्ती.
प्रत सूत्रांक [१०२]
Seksee
४ स्थितिपदे वैमानिकस्थितिः सू. १०२
॥१७६॥
उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, परिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेण पलिओवर्म अंतोमुहुत्तूणं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई, अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहश्रेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवम उकोसेणं साइरेगाई दो सागरोक्माई, अपञ्जत्तदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमहत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहत्तणं उकोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूगाई, ईसाणे कप्पे देवीर्ण पुच्छा मोयमा ! जहन्नेणं साइरेग पलिओवमं उक्कोसेणं पणपन्न पलिओवमाई, ईसाणे कप्पे देवीणं अपञ्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उक्कोसेणवि अंतोमहत्तं, ईसाणे कप्पे पजत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उफोसेणं पणपन्न पलिओवमाई अंतीमुहुजूणाई, ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं साइरेग पलिओवम उक्कोसेणं नव पलिओवमाई, अपज्जचियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुर्त, ईसाणे कप्पे पज्जचियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं साइरेग पलिओवमं अंतोमुहुत्तूर्ण उक्कोसेणं नव पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियदेवीणं पुच्छा गोयमा! जहनेणं साइरेगं पलिओवर्म उकोसेर्ण पणपन्नाई पलिओवमाई, अपज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमहत्तं, पज्जत्तियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं उकोसेणं पणपन्नं पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। सणंकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा
दीप अनुक्रम
[३०६]
| ॥१७॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०२]
गोयमा ! जहन्नेणं दो सागरोवमाई उकोसेणं सत्त सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं दो सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई ।। माहिदे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई उक्कोसेणं साइरेगाई सत्त सागरोवमाई, अपज्जतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि कोसेणवि अंतोमुहुनं, पञ्जत्तयाण पुरछा गोयमा! जहनेणं दो सागरोषमाइं साइरेगाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं सत्त सागरोबमाई साइरेगाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। बंभलोए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाई उक्कोसेणं दस सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाण पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं सच सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं दस सागरोवमाई अंतोमुहुजूणाई ।। लंतए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं दस सागरोवमाई उकोसेणं चउद्दस सागरोक्माई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणपि उकोसेणवि अंतोमुहत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहवेणं दस सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं चउद्दस सागरोवमाई अंतोमुहुतूणाई ।। महासुके कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउद्दस सागरोबमाई उक्कोसेणं सत्तर सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुर, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा: जहन्नेणं चउद्दस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं सत्तर सागरोवमाई अंतोमुहुनूणाई ॥ सहस्सारे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं सत्तर सागरोचमाई उकोसेणं अहारस सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणवि उकोसेगवि अतोमुहुर्ग, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं सत्तर सागरोवमाई अंतोमहुतूणाई उकोसेणं अट्ठारस सागरोधमाई
दीप
अनुक्रम [३०६]
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
दीप
अनुक्रम [ ३०६ ]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:) पदं [४], ------------उद्देशक: [ - ], ----------- • दारं [-], ------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
- मूलं [१०२ ]
प्रज्ञापना
याः मलय० वृत्ती.
॥ १७७॥
अंतोनूणाई || आणए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अट्ठारस सागरोवनाई उकोसेणं एगूणवीसं सागरोबमाई, अपजत्ताणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणवि उकोसेगवि अंतोमुहुतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अट्ठारस सागरोबमाहं अंतोनुडुत्तूणाई उकोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई || पाणए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं एगूणवीसं सागरोवमाहं उकोसेणं वीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहभेगवि उकोसेणवि अंतोमुडुतं, पत्ताणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणं एगूणवीसं सागरोवमाई अंतोनूणाई उकोसेणं वीसं सागरोवमाई अंतोमुहुतूणाई | आरणे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहस्रेणं बीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पजचयाणं पुच्छा गोयमा ! जहलेणं वीसं सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूगाई उकासेणं एगवीसं सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई || अनुए कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणं एगवीसं सागरीमाई उकोसेणं बाबीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं इक्वीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं बाबीसं सागरोवमाई अंतोमुडुत्तूणाई || हेडिमहेट्ठिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं बावीसं सागरोबमाई उक्कोसेणं तेवीसं सागरोबमाई, अपक्षचयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुडुनृणाई उकोसेणं तेवीसं सागरोबमाई अंतोमुत्तूणाई || हेट्टिममज्झिमगेवेज्जगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं तेवीसं सागरोवमाई उकोसेणं चउवीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुचं, पज्जत्तयाणं
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४ स्थिति
पदे वैमानिकस्थितिः सू. १०२
॥ १७७॥
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [४], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं --------------- मूलं [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०२]
पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं तेवीसं सागरोबमाइं अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं चउवीस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ॥ हेहिमउवरिमगेविजगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं चउचीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई, अपञ्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणे पुच्छा गोयमा ! जहनेणं चउवीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई उकोसेणं पणषीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई ।। मज्झिमहेडिमगेविअगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं पणवीसं सागरोवमाई उकोसेणं छबीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुतं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं पणवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तुणाई उक्कोसेणं छबीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई। मज्झिममज्झिमगेविज्जगदेवाणे पुच्छा गोयमा ! जहनेणं छहीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा! जहनेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तयाणं पुच्छा गोपमा ! जहणं छबीसं सागरोवमाई अंतीमुहुत्तूणाई उकोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई ॥ मज्झिमउवरिमगेविजगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहबेणं सत्तावीस सागरोवमाई उकोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहणवि उकोसेणवि अंतोमुहुन, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं सत्तावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई ॥ उवरिमहेडिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई उकोसेणं एगणतीसं सागरोवमाई, अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जतयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं अट्ठावीस सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं एगणतीस सागरोक्माई अंतोमुहुत्तूणाई ।। उपरिममझिमगेवेजगदेवाणं पुच्छा
दीप
अनुक्रम [३०६]
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आगम
(१५)
प्रत सूत्रांक
[१०२ ]
दीप
अनुक्रम
[ ३०६ ]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र- ४ (मूलं + वृत्ति:)
• दारं [-], -------
- मूलं [१०२ ]
पदं [४], ------------उद्देशक: [ - ], ----------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनाया: मल
य० वृत्ती.
॥१७८॥
गोयमा ! जहनेणं एगुणतीसं सागरोवमाई उकोसेणं तीसं सागरोवमाई, अपजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्त्रेणवि उकोसेचि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं एगूणतीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई उकोसेणं तसं सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई || उवरिमउवरिमगेवेजगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं तीसं सागरोवमाई उकोसेणं एकतीसं सागरोवमाई, अपअचयाणं पुच्छा गोयमा ! जहत्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहतं, पजत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं तीसं सागरोवमाई अंतोमृहुत्तूणाई उकोसेणं एकतीसं सागरोवमाई अंतोमुहु तूणाई ।। विजयवैजयंतजयंत अपराजितेसु णं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्त्रेणं एकतीस सागरोवमाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाई, अपजत्तया पुच्छा गोयमा ! जहस्रेणवि उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं एकतीसं सागरोवमाई अंतोमुडुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।। सवसिद्धगदेवाणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोमा ! अजहन्नमणुको तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पत्ता, सहसिद्धगदेवाणं अपज्जत्तयाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेविउकोसे अंतोतं, सबसिद्धगदेवाणं पजत्तयाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! अजहन्नमणुकोसं तेत्तीस सागरोवमाहं अंतोहुचूणाई ठिई पष्णता ॥ ( सू० १०२ ) पनवणाए भगवईए चउत्थं ठिपदं समत्तं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां चतुर्थं स्थित्यारूयं पदं समाप्तम् ॥
अत्र पद (०४) "स्थिति" परिसमाप्तम्
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४ स्थिति
पदे वैमानिकस्थितिः स्.
१०२
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गे पञ्चमं पर्यायपदं ।
प्रत सूत्रांक [१०३]]
सररररteeseeeeee
दीप अनुक्रम [३०७]
तदेवं व्याख्यातं चतुर्थ पदं, इदानी पञ्चममारभ्यते-तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे नारकादिपर्यायरूपेण सत्त्वानामवस्थितिरुक्ता, इह त्वौदयिकक्षायोपशमिकक्षायिकभावाश्रयपर्यायावधारणं प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्
कइविहा ण भंते ! पजवा पनत्ता, गोयमा दुविहा पजवा पन्नचा, तंजहा-जीवपजवाय अजीवपअवा य । जीवपञ्जवाणं भंते! किं संखेजा असंखेजा अर्णता?, गोयमा! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता, से केणडेणं भंते! एवं वुच्चइ-जीवपजवा नो संखेजा नो असंखेज्जा अणंता ?, गोयमा ! असंखिज्जा नेरइया असंखिज्जा असुरकुमारा असंखिज्जा नागकुमारा असंखिज्जा सुवण्णकुमारा असंखिज्जा विज्जुकुमारा असंखिज्जा अगणिकुमारा असंखिज्जा दीवकुमारा असंखिज्जा उदहिकुमारा असंखिज्जा दिसीकुमारा असंखिज्जा बाउकुमारा असंखिज्जा थणियकुमारा असंखिज्जा पुढविकाइया असंखिज्जा आउकाइया असंखिज्जा तेउकाइया असंखिज्जा वाउकाइया अणंता वणप्फइकाइया असंखेजा बेईदिया असंखेजा तेइंदिया असंखेजा चउरिदिया असंखेजा पंचिदियतिरिक्खजोणिया असंखेजा मणुस्सा असंखेजा वाणमंतरा असंखेआ जोइसिया असंखेआ वेमाणिया अर्णता सिद्धा, से एएणडेणं गोयमा एवं बुचइ-तेणंनो संखिजानो असंखिज्जा अणंता ॥(सूत्र१०३)
अथ पद (०५) "विशेष" आरभ्यते
पर्यायपदे जीव-पर्याय:
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशकः [-, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
पर्यायाः
सूत्रांक [१०३]]
प्रज्ञापना
'कइपिहाणं भंते ! पजवा पन्नत्ता? इति, अथ केनाभिप्रायेण गौतमखामिना भगवाने पृष्टः', उच्यते, ५पर्याययाः मल- 18 उक्तमादौ प्रथमे पदे प्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-जीवप्रज्ञापना अजीवप्रज्ञापना चेति, तत्र जीवाथाजीवाथ पदे जीवय० वृत्ती. द्रव्याणि, द्रव्यलक्षणं चेदम्-'गुणपर्यायवद्रव्य'मिति (तत्त्वा० अ०५ सू०३१) ततो जीवाजीवपर्यायभेदावगमार्थ-18
मेवं पृष्टवान् , तथा च भगवानपि निर्वचनमेवमेवाह-'गोयमा! दुविहा पज्जवा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपज्जवा 48 सू.१०३ ॥१७९॥
अजीवपज्जवा य' इति, तत्र पर्याया गुणा विशेषा धर्मा इत्यनन्तरं, ननु सम्बन्ध प्रतिपादयतेदमुक्तम्-इह त्यौदयिकादिभावाश्रयपर्यायपरिमाणावधारणं प्रतिपाद्यत इति, औदयिकादयश्च भावा जीवाश्रयाः, ततो जीवप-8 ोया एव गम्यन्ते अथ चास्मिन्निर्वचनसूत्रे यानामपि पर्याया उक्तास्ततो न सुन्दरः सम्बन्धः, तदयुक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात्, औदयिको हि भावः पुद्गलवृत्तिरपि भवति, ततो जीवाजीवभेदेनौदयिकमावस्य द्वैविध्यान सम्बन्धकथननिर्वचनसूत्रयोर्विरोधः । सम्प्रति सम्बन्ध(पर्याय)परिमाणावगमाय पृच्छति-'जीवपज्जया णं भंते ! किं
संखेज्जा' इत्यादि, इह यस्माद्वनस्पतिसिद्धवर्जाः सर्वेऽपि नैरयिकादयः प्रत्येकमसोयाः मनुष्येष्वसङ्खयेयत्वं संमूINIछिममनुष्यापेक्षया वनस्पतयः सिद्धाथ प्रत्येकमनन्ताः ततः पर्यायिणामनन्तत्वाद् भवन्त्यनन्ता जीवपयायाः॥ ॥१७९॥
तदेवं गौतमेन सामान्यतो जीवपर्यायाः पृष्टाः भगवानपि सामान्येन निर्वचनमुक्तवान् , इदानीं विशेषविषयं प्रश्नं गौतम आह
दीप अनुक्रम [३०७]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशकः -1, -------------- दारं , -------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
नेरइयाणं भंते ! केवइया पजवा पनत्ता, गोयमा! अणंता पजवा पन्नता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ–नेरइयाणं अणंता पजवा पन्नत्ता, गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तल्ले सिय अन्भहिए जइहीणे असंखिजहभागहीणे वा संखिज्जइमागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा असंखिजगुणहीणे वा अह अन्महिए असंखिजहभागममहिए वा संखिजइभागमभहिए वा संखिजगुणमब्भहिए वाअसंखिजगुणमन्महिए वा, ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ हीणे असंखिजइभागहीणे वा संखिज्जइभागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा असंखिजगुणहीणे वा अह अब्भहिए असंखिजभागमभहिए वा संखिजभागमभहिए वा संखिजगुणमभहिए वा असंखिजगुणमभहिए वा, कालवण्णपञ्जवेहि सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए, जब होणे अणंतभागहीणे वा असंखेजभागहीणे संखेजभागहीणे वा संखेजगुणहीण वा असंखेजगुणहीणं वा अर्णतगुणहीण वा अह अन्महिए अर्णतभागमभहिए वा असं. खेजभागमभहिए वा संखेजभागमम्भहिए वा संखेजगुणमभहिए वा असंखेजगुणमभहिए वा अणंतगुणमभहिए वा, नीलवनपनवेहिं लोहियवनपजवेहि पीयवनपज्जवेहिं हालिद्दवनपञ्जवेहिं सुकिल्लवनपज्जवेहिं छहाणवडिए, सुम्भिगंधपजवेहि दुब्भिगंधपज्जवेहि य छट्ठाणबडिए, तित्तरसपज्जवेहि कडुयरसपञ्जबेहिं कसायरसपज्जवेहिं अंबिलरसपज्जवेहिं महुररसपञ्जवेहि छट्टाणवडिए, कक्खडफासपजवेहिं मउयफासपज्जवेहि गरुयफासपञ्जवेहि लहुयफासपज्जवेहिं सीयफासपज्जवेहिं उसिणफासपजवेहिं निफासपजवेहि लुक्खफासपञ्जवेहिं छवाणवडिए, आभिणियोहियनाणपजवेहिं सुयनाणपञ्जवेहिं ओहिनाणपअवेहि महअन्नाणपज्जवेहिं सुयअन्नाणपञ्जवेहिं विभंगनाणपञ्जवेहिं चक्खुदसणपजवेहिं अचक्खुदंसणपञ्जवेहि ओहिंदसणपज
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नैरयिकस्य पर्याय:
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(१५)
प्रत
सूत्रांक
[१०४]
दीप
अनुक्रम [३०८]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [५], ------------उद्देशक: [ - ], ----------- • दारं [-], -------
- मूलं [१०४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१५] उपांगसूत्र- [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ.
॥१८०॥
वेहिं छढाणवडिए, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ नेरइयाणं नो संखेजा नो असंखेजा अनंता पजवा पन्नत्ता । (सूत्रं १०४ ) 'नेरइयाणं भंते! केवइया पजवा पन्नत्ता' इति, अथ केनाभिप्रायेणैव गौतमः पृष्टवान् १, उच्यते, पूर्व किल सामान्य प्रश्ने पर्यायिणामनन्तत्वात् पर्यायाणामानन्त्यमुक्तं यत्र पुनः पर्यायिणामानन्त्यं नास्ति तत्र कथमिति पृच्छति- 'नेरइयाणं' इत्यादि, तत्रापि निर्वचनमिदम् 'अनन्ता' इति, अत्रैव जातसंशयः प्रश्नयति-से केणद्वेगं भंते !' इत्यादि, अथ केनार्थेन-केन कारणेन केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाणां पर्याया एवम् अनन्ता इति १, भगवानाह 'गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स दबट्टयाए तुछे, इत्यादि, अथ पर्यायाणामानन्त्यं कथं घटते इति पृष्टे तदेव पर्यायाणामानन्त्यं यथा युक्त्युपपन्नं भवति तथा निर्वचनीयं नान्यत् ततः केनाभिप्रायेण भगवतैवं निर्वाचनमवाचिनैरयिको नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्य इति १, उच्यते, एकमपि द्रव्यमनन्तपर्यायमित्यस्य न्यायस्य प्रद र्शनार्थ, तत्र यस्मादिदमपि नारकजीवद्रव्यमेकसङ्ख्याऽवरुद्धमिति नैरयिको नैरधिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, द्रव्यमेवार्थो द्रव्यार्थः तद्भावो द्रव्यार्थता तथा द्रव्यार्यतया तुल्यः, एवं तावत् द्रव्यार्थतया तुल्यत्वमभिहितं इदानीं प्रदेशार्थतामधिकृत्य तुल्यत्वमाह-'पपसट्टयाए तुले' इदमपि नारकजीवद्रव्यं लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशमिति प्रदे शार्थतयाऽपि नैरथिको नैरयिकस्य तुल्यः, प्रदेश एवार्थ प्रदेशार्थः तद्भावः प्रदेशार्थता तथा प्रदेशार्थतया, कस्मादभिहितमिति चेत्, उच्यते, द्रव्यद्वैविध्यप्रदर्शनार्थ, तथाहि - द्विविधं द्रव्यं प्रदेशवत् जप्रदेशवच, तत्र परमाणुरत्र
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५ पर्यायपदे नारकपर्यायाः सू. १०४
॥१८०॥
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
देशः, द्विप्रदेशत्रिप्रदेशादिकं तु प्रदेशवत् , एतच्च द्रव्यद्वैविध्यं पुद्गलास्तिकाय एव भवति, शेषाणि तु धर्मास्तिकायादीनि द्रव्याणि नियमात् सप्रदेशानि, ओगाहणट्टयाए सिय हीणे' इत्यादि, नैरयिकोऽसवातप्रदेशोऽपरस्ख नैरयिकस्य तुल्यप्रदेशस्य अवगाहनमवगाहः-शरीरोच्छ्यः अवगाहनमेवार्थोऽवगाहनार्थस्तद्भावोऽवगाहनार्थता तया अवगाहनार्थतया 'सिय हीणे' इत्यादि, स्याच्छन्दः प्रशंसाऽस्तित्वविवादविचारणाऽनेकान्तसंशयप्रश्नादिष्वर्थेषु, अत्रानेकान्तद्योतकस्य ग्रहणं, स्थाद्धीनः अनेकान्तेन हीन इत्यर्थः, स्यातुल्यः-अनेकान्तेन तुल्य इत्यर्थः, स्वादभ्यधिक:-अनेकान्तेनाभ्यधिक इति भावः, कथमिति चेत्, उच्यते, यस्माद्वक्ष्यति रत्नप्रभापृथिवीनरयिकाणां भवधारणीयस्य वैक्रियशरीरस्य जघन्येनावगाहनाया अङ्गुलस्थासङ्ख्येयो भागः उत्कर्षतः सप्त धषि त्रयो हस्ताः षट्र चाङ्गुलानि, उत्तरोत्तरासु च पृथिवीपु द्विगुणं द्विगुणं यावत् सप्तमनरकपृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतोऽवगाहनाऽङ्गुलस्यासयेयो भागः उत्कर्षतः पञ्चधनु-शतानीति, तत्र 'जइहीणे' इत्यादि, यदि हीनस्ततोऽसयभागहीनोवा स्यात् सबेयभागहीनो वा सोयगुणहीनो पा स्यात् अस-181 मेयगुणहीनो वा, अथाभ्यधिकस्ततोऽसयभागाभ्यधिको वा स्यात्सपेयभागाभ्यधिको वा सख्येयगुणाभ्यधिको वाऽ-18 सङ्ख्येयगुणाभ्यधिको वा, कथमिति चेत् ?,उच्यते, एकः किल नारक उच्चस्त्वेन पञ्च धनु शतानि अपरस्तान्येवानुलासये, यभागहीनानि, अङ्गुलासङ्ग्येयभागश्च पञ्चानां धनुःशतानामसक्वेये भागे वर्तते, तेन सोनुलासयेयभागहीनपञ्चधनु:शतप्रमाणः अपरस्थ परिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणस्यापेक्षयाऽसङ्ग्येयभागहीनः, इतरस्त्वितरापेक्षयाऽसवेयभागाभ्यधिका
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
५ पर्याय
प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती.
प्रत सूत्रांक [१०४]
॥१८॥
तथा एकः पञ्चधनुःशतान्युचस्त्वेन अपरस्तान्येव द्वाभ्यां त्रिभिर्वा धनुर्मिन्यूनानि ते च द्वे त्रीणि वाधषि पञ्चाना धनःशतानां सोयभागे वर्तन्ते ततः सोऽपरस्य परिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणस्यापेक्षया सवेयभागहीनः, इतरस्त परिपर्णप-1 पदे नारश्वधनुःशतप्रमाणस्तदपेक्षया सयभागाभ्यधिकः, तथा एकः पञ्चविंशं धनु शतमुच्चस्त्वेनापरः परिपूर्णानि पञ्चधनाश-18 काणां पतानि, पञ्चविंशं च धनुःशतं चतुर्भिगुणितं पश्च धनुःशतानि भवन्ति ततः पञ्चविंशत्यधिकधनु शतप्रमाणोचैस्त्वेऽप्यपरस्य
र्यायाः द्रपरिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणस्यापेक्षया सालेयगुणहीनो भवति तदपेक्षया वितरः परिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणः सश्येय
व्यप्रदेश
स्थितिभायगुणाभ्यधिकः, तथा एकोऽपर्याप्तावस्थायामङ्गुलस्थासङ्ख्येयभागावगाहे वर्तते अन्यस्तु पञ्चधनुःशतान्युचस्त्वेन, अनुलासययभागचासवेयेन गुणितः सन् पञ्चधनु शतप्रमाणो भवति, ततोऽपर्याप्तावस्थायामङ्गुलासयभागप्रमा
१०४ णेऽवगाहे वर्तमानः परिपूर्णपश्चधनुःशतप्रमाणापेक्षया असोयगुणहीनः, पञ्चधनुःशतप्रमाणस्तु तदपेक्षयाऽसोय81 गुणाभ्यधिकः । 'ठिईए सिय हीणे' इत्यादि, यथाऽवगाहनया हानी वृद्धौ च चतुःस्थानपतित उक्तस्तथा स्थित्यापि वक्तव्य इति भावः, एतदेवाह-'जह हीणे' इत्यादि, तकस्य किल नारकस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः अपरस्य तु तान्येव समयादिन्यूनानि, तत्र यः समयादिन्यूनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणस्थितिकः स परिपूर्णत्रयस्त्रि-1
॥१८॥ शत्सागरोपमस्थितिकनारकापेक्षयाऽसङ्ख्येयभागहीनः परिपूर्णत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकस्तु तदपेक्षयाऽसधेयभा-1 गाभ्यधिकः, समयादेः सागरोपमापेक्षयाऽसयेयभागमात्रत्वात् , तथाहि-असङ्ख्येयैः समयरेकाऽऽवलिका सल्ला
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आगम (१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" - पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४]
प्रत सूत्रांक [१०४]
ताभिरावलिकाभिरेक उच्वासनिःश्वासकालः सप्तभिरुच्छासनिःश्वासैरेकः स्तोकः सप्तभिः स्तोकैरेको लयः सप्तसप्तत्या लवानामेको मुहूर्तः त्रिंशता मुहूर्तेरहोरात्रः पञ्चदशभिरहोरात्रैः पक्ष द्वाभ्यां पक्षाभ्या मासः द्वादशभिर्मासैः संवत्सरः असोयैः संवत्सरैः पल्योपमसागरोपमाणि, समयाऽऽवलिकोच्छ्वासमुहूर्त दिवसाहोरात्रपक्षमाससंवत्सरयुगैः हीनः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षयाऽसोयभागहीनो भवति तदपेक्षया वितरोऽसङ्ख्येयभागाभ्यधिकः, तथा एकस्य
यविंशत्सागरोपमाणि स्थितिः परस्य तान्येव पल्योपमैन्यूनानि, दशभिश्च पल्योपमकोटीकोटीभिरेक सागरोपमं 18|निष्पद्यते, ततः पल्योपमैन्यूनस्थितिकः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षया सोयभागहीनः परिपूर्णस्थितिकस्तु तदपे
क्षया सोयभागाभ्यधिका, तथैकस्य सागरोपममेकं स्थितिः अपरस्य परिपूर्णानि प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तत्रैकसागरोपमस्थितिकः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षया सोयगुणहीनः, एकस्य सागरोपमस्य त्रयस्त्रिंशता गुणने परिपूस्थितिकत्वमासेः, परिपूर्णस्थितिकस्तु तदपेक्षया सोयगुणाभ्यधिकः, तथैकस्य दश वर्षसहस्राणि स्थितिः अपरस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, दश वर्षसहस्राण्यसवेयरूपेण गुणकारेण गुणितानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भवन्ति, ततो दशवर्षसहस्रस्थितिकः त्रयविंशत्सागरोपमस्थितिकनारकापेक्षयाऽसक्वेयगुणहीनः तदपेक्षया तु प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकोऽसत्येयगुणाभ्यधिक इति, तदेवमेकस्य नारकस्यापरनारकापेक्षया द्रव्यतो द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया च तुल्यत्वमुक्त क्षेत्रतोऽयगाहनं प्रति हीनाधिकत्वेन चतुःस्थानपतितत्वं कालतोऽपि स्थितितो हीनाधिकत्वेन
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
IS चतुःस्थानपतितत्वं, इदानीं भावाश्रयं हीनाधिकत्वं प्रतिपाद्यते-यतः सकलमेव जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं वा परस्परतो प्रज्ञापनाया:मलद्रव्यक्षेत्रकालभावविभज्यते यथा घटः, तथाहि-द्रव्यत एको मार्तिकः अपरः काञ्चनो राजतादि क्षेत्रत एक
पदे नारयवृत्ती. इहत्यः अपरः पाटलिपुत्रकः कालत एकोऽद्यतनः अन्यस्त्वैषमः परत्तनो वा भावत एकः श्यामः अपरस्तु रक्तादिः।
काणां पएवमन्यदपि । तत्र प्रथमतः पुद्गलविपाकिनामकर्मोदयनिमित्तं जीवौदयिकभावाश्रयेण हीनाधिकत्वमाह-कालव
योया: द्र॥१८२॥
अपजवेहिं सिय हीणे सिय तुले सिय अब्भहिए' अस्याक्षरघटना पूर्ववत् , तत्र यथा हीनत्वमभ्यधिकत्वं च तथा प्रति-ISH व्यप्रदेश पादयति-'जह हीणे' इत्यादि, इह भावापेक्षया हीनत्वाभ्यधिकत्वचिन्तायां हानी वृद्धौ च प्रत्येक षट्स्थानपतित-स्थितिभात्वमवाप्यते, पदस्थानके च यद्यदपेक्षयाऽनन्तभागहीनं तस्य सर्वजीवानन्तकेन भागे हते यल्लभ्यते तेनानन्ततमेन वैः सू. भागेन हीनं, यच यदपेक्षयाऽसयभागहीनं तस्यापेक्षणीयस्यासपेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हते।
१०४ यलभ्यते तावता भागेन न्यून, यच यदधिकृत्य सोयभागहीनं तस्यापेक्षणीयस्योत्कृष्टसधेयकेन भागे हते यलभ्यते तावता हीनं, गुणनसङ्ख्यायां तु यद्यतः सङ्ख्येयगुणं तदवधिभूतमुत्कृष्टेन सङ्ख्येयकेन गुणितं सद्यावद् भवति तावत्प्र-1
माणमवसातव्यं, यच यतोऽसोयगुणं तदवधिभूतमसङ्ग्येवलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन गुणकारेण गुण्यते गुणिता 18 सद्यावद्भवति तावदवसेयं, यच्च यस्मादनन्तगुणं तदवधिभूतं सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यते गुणितं सघा- ॥१८२।। 8वद्भवति तावत्प्रमाणं द्रष्टव्यं, तथा चैतदेव कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहिण्यां षट्रस्थानकप्ररूपणाऽवसरे भागहारगुणकारखरूप
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
मुपवर्णितं 'सपजियाणतमसंखलोगसंखेजगस्स जेस्स । भागो तिसु गुणणातिसु' इति, सम्प्रत्यधिकृतसूत्रोक्तपद-18 स्थानपतितत्वं भाव्यते-तत्र कृष्णवर्णपयायपरिमाणं तत्त्वतोऽनन्तसात्मकमप्यसद्भावस्थापनया किल दश सहस्राणि १००००, तस्य सर्पजीवानन्तकेन शतपरिमाणपरिकल्पितेन भागो हियते लब्धं शतं १००, तत्रैकस्य किला नारकस्य कृष्णावर्णपर्यायपरिमाणं दश सहस्राणि, अपरस्य तान्येव शतेन हीनानि ९९००, शतं च सर्वजीवानन्तमागहारलब्धत्वादनन्ततमो भागः, ततो यस्य शतेन हीनानि दश सहस्राणि सोऽपरस्य परिपूर्णदशसहस्रप्रमाणकृष्णप-18 जपर्यायस्य नारकस्यापेक्षयाऽनन्तभागहीनः तदपेक्षया तु सोऽपरः कृष्णवर्णपर्यायोऽनन्तभागाभ्यधिकः, तथा कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणस्य दशसहस्रसङ्ख्याकस्यासयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणपरिकल्पितेन पञ्चाशत्परिमाणेन भागहारेण भागो हियते लब्धे द्वे शते एषोऽसङ्ख्येयतमो भागः, तत्रैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्याया दशसहस्राणि शत-|| येन हीनानि ९८०० अपरस्य परिपूर्णानि दश सहस्राणि १००००, तत्र यः शतद्वयहीनदशसहस्रप्रमाण कृष्णवर्णपर्यायः स परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया असङ्ख्येयभागहीनः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायस्तु तदपेक्षयाऽसयभा-181 गाभ्यधिकः, तथा तस्यैव कृष्णवर्णपर्यायराशेर्दशसहस्रसलाकस्योत्कृष्ट सत्येयकपरिमाणकल्पितेन दशकपरिमाणेन 8 भागहारेण भागो हियते तलुब्धं सहस्रं एष किल सङ्ग्याततमो भागः, तत्रैकस्य नारकस्य किल कृष्णवर्णपर्यायपरि-18 माणं नव सहस्राणि ९००० अपरस्य दश सहस्राणि १००००, नव सहस्राणि तु दशसहस्रेभ्यः सहस्रेण हीनानि
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SAREauratonintenational
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
दीप
मज्ञापना
सहस्रं च सङ्ख्येयतमो भाग इति नवसहस्रप्रमाणकृष्णवर्णपर्यायः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया सङ्ग्येयभाग-1 पर्याययाः मल-हीनः तदपेक्षया वितरः सोयभागाधिकः, तथैकस्य नारकस्य किल कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं सहस्रं अपरस्य दशपदे नारयवृत्ती.
सहस्राणि, तत्र सहस्रं दशकेनोत्कृष्टसझ्यातककल्पेन गुणितं दशसहस्रसङ्ख्याकं भवति इति सहस्रसाकृष्णवर्णप- काणां प. ॥१८॥
कार्यायो नारको दशसहस्रसङ्ग्याककृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया सङ्ख्येयगुणहीनः तदपेक्षया परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायः सङ्ख्ये- योयाः द्रहयगुणाभ्यधिकः, तथैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायानं वे शते परस्य परिपूर्णानि दश सहस्राणि, द्वे च शताव्यप्रदशअसोयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रकल्पितेन पञ्चाशत्परिमाणेन गुणकारेण गुणिते दश सहस्राणि जायन्ते, ततो
स्थितिभाद्विशतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारकः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षयाऽसोयगुणहीनः तदपेक्षया वितरोऽस
वैः सू.
१०४ येयगुणाभ्यधिकः, तथैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं शतमपरस्य दश सहस्राणि शते च सर्वजीवानन्त-| परिमाणपरिकल्पितेन (शत) गुणकारेण गुणिते जायन्ते दश सहस्राणि, ततः शतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारका परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया अनन्तगुणहीनः इतरस्तु तदपेक्षयाऽनन्तगुणाभ्यधिकः, यथा कृष्णवर्णपर्यायानधिकृत्य 8 हानी वृद्धी च पट्रस्थानपतितत्वमुक्तमेवं शेषवर्णगन्धरसस्पर्शेरपि प्रत्येक पदस्थानपतितत्वं भावनीय, । तदेवं पुद्गल-18I विपाकिनामकर्मोदयजनितजीवीदयिकभावाश्रयेण पदस्थानपतितत्वमुपदर्शितं, इदानीं जीवविपाकिज्ञानावरणीया-1 दिकर्मक्षयोपशमभावाश्रयेण तदुपदर्शयति-'आभिणिबोहियणाणपजवेहि' इत्यादि, पूर्ववत् प्रत्येकमाभिनिबोधि
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशकः -1, -------------- दारं -,-------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
कादिषु षट्स्थानपतितत्वं भावनीयं, इह द्रव्यतस्तुल्यत्वं वदता संमूछिमसर्वप्रभेदनिर्भेदबीजं मयूराण्डकरसवदनभिव्यक्तदेशकालक्रम प्रत्ययबद्धविशेषभेदपरिणतेयोग्यं द्रव्यमित्यावेदितं, अवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वमभिवदता क्षेत्र-18 तः सङ्कोचविकोचधर्मा आत्मा न तु द्रव्यप्रदेशसमाया इति दर्शितं, उक्तं चैतदन्यत्रापि-"विकसनसङ्कोचनयोन 8 स्तो द्रव्यप्रदेशसङ्ख्यायाः। वृद्धिहासौ स्तः क्षेत्रतस्तु तावात्मनस्तस्मात् ॥ १॥" स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वं वदताऽऽ-18 युःकर्मस्थितिनिर्वर्तकानामध्यवसायस्थानानामुत्कर्षापकर्षवृत्तिरुपदर्शिता, अन्यथा स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वायो-II गात् , आयुःकर्म चोपलक्षणं तेन सर्वकर्मस्थितिनिवर्तकेष्वप्यध्यवसायेपूत्कर्षापकर्षवृत्तिरवसातव्या, कृष्णादिपर्यायः षट्| स्थानपतितत्वमुपदर्शयता एकस्यापि नारकस्य पर्याया अनन्ताः किं पुनः सर्वेषां नारकाणामिति दर्शितं, अथ नार-1 |काणां पर्यायानन्त्यं पृष्टेन भगवता तदेव पर्यायानन्त्यं वक्तव्यं न त्वन्यत् ततः किमर्थं द्रव्यक्षेत्रकालभावाभिधान-1 |मिति १, तदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह न सर्वेषां सर्वे खपर्यायाः समसयाः किं तु पदस्थानपतिताः, एत-16 चानन्तरमेव दर्शितं, तच षट्स्थानपतितत्वं परिणामित्वमन्तरेण न भवति, तञ्च परिणामित्वं यथोक्तलक्षणस्य द्रव्य-11 स्पेति द्रव्यतस्तुल्यत्वमभिहितं, तथा न कृष्णादिपर्यायैरेव पर्यायवान् जीवः किं तु तत्तत्क्षेत्रसकोचविकोचधर्मत-11 याऽपि तथा तत्तदध्यवसायस्थानयुक्ततयाऽपीति ख्यापनार्थ क्षेत्रकालाभ्यां चतुःस्थानपतितत्वमुक्तमिति कृतं प्रस-ISM न । तदेवमवसितं नैरयिकाणां पर्यायानन्त्य, इदानीमसुरकुमारेषु पर्यायाग्रं पिपृच्छिपुराह
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आगम
भ
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [१०५-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
करव
५ पर्याय
प्रज्ञापनाया: मलव. वृत्ती.
सूत्रांक
पदे असुरादीनां पर्यायान
[१०५-११०]
॥१८॥
नत्वं सू.
१०५-११०
दीप
'असुरकुमाराणं भंते ! केवहया पञ्जवा पनचा?, गोयमा ! अणंता पन्जवा पन्नत्ता, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ-असुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पन्नता, गोयमा! असुरकुमारे असुरकुमारस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणबडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए कालवनपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए एवं नीलवनपञ्जदेहिं लोहियवनपज्जवेहिं हालिहवनपञ्जवेहिं सुकिल्लवन्नपज्जवेहिं सुम्भिगंधपज्जवेहिं दुन्भिगंधपञ्जवेहिं तित्तरसपज्जवेहिं कडुयरसपज्जवेहिं कसायरसपज्जवेहि अंबिलरसपज्जवेहिं महुररसपज्जवेहि कक्खडफासपज्जवेहिं मउयफासपज्जवेहिं गरुयफासपञ्जवेहिं लहुयफासपज्जवेहिं सीयफासपजवेहिं उसिणफासपजवेहिं निफासपञ्जवेहि लुक्खफासपज्जवेहिं आभिणियोहियणाणपनवेहिं मुयनाणपनवेहिं ओहिनाणपज्जवेहिं मइअन्नाणपज्जवेहि सुयअन्नाणपञ्जवेहि विभंगनाणपजवेहि चक्खुदंसणपजवेहिं अचक्खुदंसणपञ्जवेहि ओहिदंसणपजवेहिं छहाणवडिए, से एएणडेणं गोयमा! एवं वुबह-असुरकुमाराणं अणंता पञ्जवा पन्नत्ता एवं जहा नेरइया, जहा असुरकुमारा तहा नागकुमारावि जाव थणियकुमारा (मु०१०५) ॥ पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया पजया पन्नता, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नता, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ पुढविकाइयाणं अर्णता पजवा पन्नता, गोयमा! पुढविकाइए पुढविकाइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए, जइ हीणे असंखि-. ज्जइभागहीणे या संखिअइभागहीणे या संखिजइगुणहीणे वा असंखिजइगुणहीणे वा, अह अम्भहिए असखिजइभागअन्महिए वा संखिआइभागअन्भहिए वा संखिज्जगुणअब्भहिए वा असंखिजगुणअन्महिए वा, ठिईए तिहाणवडिए सिय हीणे सिय तुले सिय अम्भहिए, जइ हीणे असंखिजभागहीणे वा संखिजभागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा अह
अनुक्रम [३०९-३१४]]
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असुरकुमार-आदीनाम् पर्याय:
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०५-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०५
अब्भहिए असंखिजहभागअन्भहिए वा संखिज्जइभागअब्भहिए वा संखिजगुणअब्भहिए वा वहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं मरमाणपञ्जवहिं सुयअनाणपजवेहिं अचक्खुदसणपअवेहिं छट्ठाणवडिए।आउकाइयाणं भंते ! केवइया पजवा पवना, गोयमा ! अणंता पञ्जवा पन्नता, से केणटेणं मंते ! एवं बुबह आउकाइयाणं अपंता पञ्जवा पनत्ता, गोयमा ! आउकाहए आउकाइयस्स दयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउढाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए बनगंधरसफासमहअन्नाणमुअअचाणअचक्खुदंसणपजवेहिं छहाणवडिए । तेउकाइयाणं पुच्छा गोयमा! अर्णता पजवा पचचा, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-तेउकाइयाणं अर्णता पजवा पन्नता, गोयमा ! तेउकाइए तेउकाइयस्स दबट्टयाए तुळे पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तिहाणवडिए, बनगंधरसफासमइअनापासुयअन्नाणअचखुदंसणपजबेहि य छटाणवडिए ॥ वाउकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! बाउकाइयाणं अणंता पञ्जवा पन्नता, से केणटेणं भंते ! एवं बुबइ-बाउकाइयाणं अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, गोयमा! वाउकाइए बाउकाइयस्स दवयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्छे
ओगाहणद्वयाए चउहाणबडिए ठिईए तिहाणवडिए वनगंधरसफासमइअन्नाणसुयअन्नाणअचक्खुदसणपजवेहिं छहाणवडिए ।। वणस्सइकाइयाणं पुच्छा गीयमा! अर्णता पजवा पनचा, से केणढणं भंते ! एवं बुबह-वणस्सइकाइयाणं अणंता पञ्जवा पन्नचा ?, गोयमा! वणस्सइकाइए वणस्सइकाइयस्स दबयाए तल्ले पएसट्टयाए तुले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए वनगंधरसफासमइअनाणसुयअन्नाणअचक्खुदसणपज्जवेहि य छटाणवडिए, से एएणडेणं गोयमा ! एवं बुच्चय--वणस्सइकाइयाणं अणंता पन्जवा पन्नत्ता ।। (सू०१६) वेइंदियाणं पुच्छा गोयमा! अर्णता पवा
दीप
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [१०५-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती.
sesear
सूत्रांक
[१०५
॥१८५॥
नत्यं सू.
दीप
पन्नत्ता, से केणडेणं मंते ! एवं वुच्चइ-बेइंदियाणं अणंता पञ्जवा पन्नत्ता, गोयमा ! बेईदिए बेइंदियस्स दवट्टयाए तुल्ले ५पर्यायपएसट्टयाए तल्ले ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए, जइ हीणे असंखिज्जहभागहीणे या पदे असुसंखिज्जइभागहीणे वा संखिजइगुणहीणे वा असंखिजइगुणहीणे वा, अह अम्महिए असंखिजभागअन्महिए वा संखि
रादीनां जइभागअन्भहिए वा संखिजगुणमन्भहिए वा असंखिजइगुणमन्भहिए वा, ठिईए तिहाणवडिए, पत्रगंधरसफास
पर्यायानभिणियोहियनाणसुयनाणमइअनाणसुयअन्नाणअचखुदंसणपजवेहि य छहाणवडिए, एवं तेइंदियावि, एवं चउरिदियावि
१०५-११० नवरं दो दसणा चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं (मू०१०७) पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पञ्जवा जहा नेरइयाणं वहा भाणियहा (सू०१०८) मणुस्साणं भंते । केवइया पज्जवा पन्नत्ता, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पचत्ता, से केणढेणं मंते ! एवं वुचइ-मणुस्साणं अणंता पञ्जवा पाता, गोयमा! मासे मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए चउवाणवडिए बनगंधरसफासआभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणमणपज्जवनाणकेवलनाणपजवेहिं तुल्ले तिर्हि देसणेहिं छहाणवडिए केवलदसणपज्जवेहि तुल्ले (मू०१०९) वाणमंतरा ओगाहणद्वयाए ठिईए चउडाणवडिया वण्णाईहिं छहाणपडिया जोइसिया बेमाणियावि एवं चेव नवरं ठिईए तिहाणयडिया (सू०११०)
R१८५॥ 'असुरकुमाराणं भंते ! केवइया पजवा पत्नत्ता ?' इत्यादि, उक्त एवार्थः प्रायः सर्वेष्वप्यसुरकुमारादिषु, ततः शासकलमपि चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रं प्राग्वद् भावनीयं, यस्तु विशेषः स उपदश्यते, तत्र यत्पृथिवीकायिकादीनामवगा
ecenese ese
अनुक्रम [३०९-३१४]]
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भ
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०५-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०५
दीप
पहनाया अकुलासवेयभागप्रमाणाया अपि चतुःस्थानपतितत्वं तदङ्गलासवेयभागप्रमाणस्थासयभेदभिन्नत्वादव-18
सेयं, स्थित्या हीनत्वमभ्यधिकत्वं च त्रिस्थानपतितं न चतुःस्थानपतितं, असक्येयगुणवृद्धिहान्योरसंभवात् , कथं तयोहरसंभव इति चेत्, उच्यते, इह पृथिव्यादीनां सर्वजघन्यमायुः क्षुल्लकभवग्रहणं, क्षुलकभवग्रहणस्य च परिमाणमा
बलिकानां द्वे शते षट्पश्चाशदधिके, मुहूर्त च द्विघटिकाप्रमाणे सर्वेसयया क्षुलकभयग्रहणानां पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि पटत्रिंशदधिकानि ६५५३६, उक्तं च-"दोन्नि सयाई नियमा छप्पन्नाई पमाणओ टुति । आवलियपमा
पण खुड्डागभवग्गणमेयं ॥१॥ पन्नहिसहस्साई पंचेव सयाई तह य छत्तीसा । खुड्डागभवग्गणं भवति एते मुहुगाणं ॥२॥" पृथिव्यादीनां च स्थितिरुत्कर्षतोऽपि सङ्ख्येयवर्षप्रमाणा ततो नासङ्ख्यगुणवृद्धिहान्योः संभवः, शेषNद्धिहानित्रिकभावना त्वेवं-एकस्य किल पृथिवीकायस स्थितिः परिपूर्णानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि अपरख तान्येव
समयन्यूनानि ततः समयन्यूनद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकापेक्षयाऽसङ्ख्येयभागहीनः तदपेक्षया वितरोऽसयेयभागाधिकः, तथैकस्य परिपूर्णानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिरपरस्य तान्येवान्तमुह दिनोनानि, अन्तर्मुहादिक(च) द्वाविंशतिवर्षसहस्राणां सत्येयतमो भागः, ततोऽन्तर्मुहूर्त्तादिन्यूनद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकापेक्षया सद्ध्येयभागहीनः तदपेक्षया परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकः सङ्ख्येयभागाभ्यधिकः, तथैकस्य द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिरपरस्थान्तमुहूर्त मासो वर्ष वर्षसहस्रं वा,
अनुक्रम [३०९-३१४]]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१०५-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०५
दीप
प्रज्ञापना- अन्तर्मुहादिक(च)नियतपरिमाणया सपया गुणितं द्वाविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणं भवति तेनान्तर्मुहर्तादिप्रमाणस्थितिकः ५पर्याययाः मल- परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकापेक्षया सोयगुणहीनः तदपेक्षया तु परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्थितिकः साये
पदे असुय०वृत्ती यगुणाभ्यधिकः, एवमष्कायिकादीनामपि चतुरिन्द्रियपर्याप्तानां खखोत्कृष्टस्थित्यनुसारेण स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं
रादीनां
पयायान॥१८॥ भावनीयं । तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च चतुःस्थानपतितत्वं, तेषां धुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः, पल्यो
न्त्यं सू. पमं चासङ्ग्येयवर्षसहस्रप्रमाणमतोऽसङ्ख्यगुणवृद्धिहान्योरपि संभवादुपपद्यते चतुःस्थानपतितत्वं, एवं व्यन्तराणा-|
१०५-११० मपि, तेषां जघन्यतो दशवर्षसहस्रस्थितिकत्वादुत्कर्षतः पल्योपमस्थितिः (तेः), ज्योतिष्कवैमानिकानां पुन स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं, यतो ज्योतिष्काणां जघन्यमायुः पल्योपमाष्टभागः उत्कृष्टं वर्षलक्षाधिकं पल्योपम, वैमा|निकानां जघन्यं पल्योपमं उत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, दशकोटीकोटीसस्पेयपल्योपमप्रमाणं च सागरोपममत-IST तेषामप्यसोयगुणवृद्धिहान्यसंभवात् स्थितितस्विस्थानपतिता, शेषसूत्रभावना तु सुगमत्वात् खयं भावनीया ॥ तदेवं सामान्यतो नैरयिकादीनां प्रत्येक पर्यायानन्त्यं प्रतिपादितं, इदानीं जघन्याद्यवगाहनाधधिकृत्य सेषामेव प्रत्येक पर्यायानं प्रतिपिपादयिपुराह
R॥१८६॥ KI जहन्नोगाहणगाणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पञ्जवा पन्नता, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नता, से केणटेणं भंते ! एवं
वुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नोगाहणए नेरइए जहन्नोगाहणस्स नेरइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए तुल्ले
अनुक्रम [३०९-३१४]
नैरयिकाणां पर्याया:
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Serecasase
दीप अनुक्रम [३१५]]
ठिईए चउडाणवडिए वत्रगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहि तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं देसणेहिं छहाणवडिए, उकोसोगाहणगाणं भता नरहयाणं केवइया पजवा पनचा?. गोयमा! अर्णता पज्जवा पत्रचा, सेकेणद्वेणं भंते ! एवं बुचर उकासागाहणयाणं नरइयाणं अर्णता पजवा पनत्ता १. गोयमा! उकोसोगाहणए नेरहए उकोसोगाहणस्स नेरइयस्स दबट्टयाए तुल्छे पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए तले. ठिए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए, जद्द हीणे असंखिजभागहीणे वा संखिज्जभागहीणे वा अह अन्भहिए असंखिञ्जभागअन्महिए वा संखिजभागअब्भहिए वा, वनगंधरसफासपज्जवाह तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दसणेहिं छहाणवडिए, अजहन्नमणुकोसोगाहणाणं नेरइयाण केवइया पाया पन्नता, गोयमा 1, अणंता पज्जवा पत्रचा, से केणद्वेण भंते ! एवं बुबइ अजहन्नमणुकोसोगाहणाणं अणंता पजवा पनत्ता, गोयमा! अजहन्नमणुकोसोगाहणए नेरइए अजहन्नमणुकोसोगाहणस्स नेरइयस्स बयाए तुले पएसट्टयाए तुल्ले ओमाहणट्टयाए सिय हीण सिय तुल्ले सिय अन्भहिए जर हीणे असंखिजभागहीणे वा संखिजभागहीणे वा संखिजगुणहीणे वा असखिजगुणहीणे वा अह अब्भहिए असंखिजभागअन्भहिए वा संखिजभागअब्भहिए वा संखिजगुणअक्भहिए वा असखिजगुणअन्महिए वा, ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्महिए, जह हीणे असंखिजभागहीणे वा संखिजभागहीण वा संखिजगुणहीणे वा असंखिजगणहीणे वा अह अब्भहिए असंखिजभागअन्महिए वा संखिजभागअन्भहिए वा सखिजगुणअन्महिए वा असंखिजगुणअम्महिए वा, वनगंधरसफासपजवेहिं तिहिं नाणेहिं तिर्हि अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहि छहाणवडिए, से एएणद्वेणं गोयमा एवं बुबह अजहन्नमणकोसोगाहणाणं नेरइयाणं अणता पजवा पन्नसा । जहमठियाणं
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: -,--------------दारं --------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
प्रत सूत्रांक [१११]
५पर्यायपेद जघन्यावगाहनादीनां नैरयिकागांपर्यायाः सूत्रं १११
॥१८७॥
eeserseas
दीप अनुक्रम [३१५]]
भंते! नेरइयाणं केवइया पजवा पाचा, गोयमा ! अर्णता पज्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ जहन्नेठियाण नेरइयाणं अणंता पज्जवा पन्नत्ता, गोयमा! जहन्नठिइए नेरइए जहन्नठिइयस्स नेरइयस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए ठिईए तुल्ले वन्नगंधरसफासपञ्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अनाणेहिं तिहिं दसणेहिं छहाणवडिए एवं उकोसठिइएपि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि, नवरं सहाणे चउहाणवडिए । जहन्नगुणकालगाणं भंते ! नेरइयाण केवइया पज्जवा पन्नता, गोयमा! अर्णता पज्जवा पत्रचा, से केणटेणं भंते! एवं चुच्चइ-जहन्नगुणकालगाणं नेरइयाण अर्णता पज्जवा पन्नता, गोयमा ! जहन्नगुणकालए नेरइए जहन्नगुणकालगस्स नेरइयस्स दवट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउवाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए कालवन्नपञ्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपञ्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छटाणवडिए, से एएणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ जहन्नगुणकालगाणं नेरइयाणं अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, एवं उक्कोसगुणकालरवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं कालवन्नपञ्जवेहिं छहाणवडिए, एवं अवसेसा चत्तारि बना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा भाणियहा । जहन्नाभिणिवोहियनाणीणं भंते ! नेरइयाण केवइया पजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नाभिणियोहियनाणीण नेरइयाणं अणता पज्जवा पन्नता, से केणडेणं भंते ! एवं बुधइ जहनामिणिबोहियनाणीर्ण नेरइयाणं अणंता पज्जवा पन्नत्ता, गोयमा! जहन्नाभिणिबोहियनाणी नेरइए जहन्नाभिणिवोहियस्स नाणिस्स नेरइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसहयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिए चउढाणवडिए बनगंधरसफासपअवेहिं छहाणवडिए आभिणियोहियनाणपञ्जयहिं तुल्ले सुयनाण. ओहिनाणपज्जवेहिं छहाणवडिए तिहिं दसणेहि छहा
॥१८७॥
For P
OW
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं , -------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१११]
दीप अनुक्रम [३१५]]
णवडिए, एवं उकोसाभिणियोहियनाणीवि, अजहन्नमणुकोसामिणिबोहियणाणीवि एवं चेव, णवरं आभिणिबोहियनाणपज्जवेहिं सहाणे छहाणवडिए, एवं सुयनाणी ओहिनाणीवि, नवरं जस्स नाणा तस्स अन्नाणा नत्थि, जहा नाणा तहा अनाणावि भाणियवा, नवरं जस्स अन्नाणा तस्स नाणा न भवंति । जहन्नचक्खुर्दसणीणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पजवा पञ्चा, गोयमा! अणंता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणट्टेणं भंते ! एवं चुच्चइ जहन्नचक्खुदंसणीणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नचक्खुदंसणी] नेरइए जहन्नचक्खुदंसणिस्स नेरइयस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए वनगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं छट्ठाणबडिए चक्खुदंसणपजवेहिं तुल्ले अचवखुदंसणपञ्जवेहि ओहिदसणपज्जवेहिं छहाणवडिए, एवं उक्कोसचक्खुदंसणीवि, अजहन्नमणुकोसचक्खुदंसणीवि एवं चेव, नवरं सहाणे छटाणवडिए, एवं अचक्खुदंसणीवि ओहिदंसणीवि । (सूत्र १११)
'जहन्नोगाहणाणं भंते!' इत्यादि, सुगमं नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए' इति जघन्यावगाहनो हि दशवर्षसहस्राणिस्थितिकोऽपि भवति रत्नप्रभायां उत्कृष्टस्थितिकोऽपि सप्तमनरकपृथिव्यां, तत उपपद्यते स्थित्या चतुःस्थानपतितता, 'तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिति इह यदा गर्भव्युत्क्रान्तिकसज्ञिपञ्चेन्द्रियो नरकेपुत्पद्यते तदा स नारकायुःसंवेदनप्रथमसमय एव पूर्वगृहीतीदारिकशरीरपरिशादं करोति तस्मिन्नेव समये सम्यग्दृष्टस्त्रीणि ज्ञानानि मिथ्यादृष्टेखीण्यज्ञा-1 नानि समुत्पद्यन्ते, ततोऽविग्रहेण विग्रहेण वा गत्वा वैक्रियशरीरसंघातं करोति, यस्तु संमूर्चिछमासजिपञ्चेन्द्रियो ।
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना" -
पदं [५], --------------- उद्देशक: -1, -------------- दारं [-], -------------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
दीप अनुक्रम [३१५]]
प्रज्ञापना
नरकेषूत्पद्यते तस्य तदानीं विभङ्गज्ञानं नास्तीति जघन्यावगाहनस्यास्याज्ञानानि भजनया द्रष्टव्यानि वे त्रीणि वेति, पर्याययाः मल- उत्कृष्टावगाहनसूत्रे स्थित्या हानौ वृद्धौ च द्विस्थानपतितत्वं, तद्यथा-असत्येयभागहीनत्वं वा सक्वेयभागहीनत्वं वा, |पदे जघय०वृत्ती. तथा असपेयभागाधिकत्वं वा सङ्ख्येयभागाधिकत्वं वा न तु सधेयासोयगुणवृद्धिहानी, कस्मादिति चेत्, उच्यते, न्यावगा
उत्कृष्टावगाहना हि नरयिकाः पञ्चधनुः शतप्रमाणाः, तेच सप्तमनरकपृथिव्यां तत्र जघन्या स्थितिः द्वाविंशतिःहनादीनां ॥१८॥ सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, ततोऽसङ्ख्येयसोयभागहानिवृद्धी एव घटेते न त्वसपेयसोयगु
नैरयिकाणहानिवृद्धी, तेषां चोत्कृष्टावगाहनानां त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि वा नियमाद्वेदितव्यानि, न भजनया, भजनाहे
णांपर्यायाः तोः संमूग्छिमासज्ञिपश्चेन्द्रियोत्पादस्य तेषामसंभवात् , अजघन्योत्कृष्टावगाहनसूत्रे यदवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वंशज १११ तदेव-अजघन्योत्कृष्टावगाहनो हि सर्वजघन्याङ्गलासयभागात्परतो मनाक बृहत्तरानुलासयेयभागादारभ्य यावदगुलासयभागन्यूनानि पश्चधनुःशतानि ताबदवसेयः, ततः सामान्यनैरयिकसूत्रे इवात्राप्युपपद्यते अवगाहनात-10 श्चतुःस्थानपतितता, स्थित्या चतुःस्थानपतितता सुप्रतीता, दशवर्षसहस्रेभ्य आरभ्योत्कर्षतखयविंशत्सागरोपमाणा
मपि तस्यां लभ्यमानत्वात्, जघन्यस्थितिसूत्रे अवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वं तस्थामवगाहनायां जघन्यतोऽङ्गला ॥१८॥ लासययभागादारभ्योत्कर्षतः सप्तानां धनुषामवाप्यमानत्वात् , अत्रापि त्रीण्यज्ञानानि केषांचित्कादाचित्कसया द्रष्ट
व्यानि, संमूर्छिमासजिपञ्चेन्द्रियेभ्य उत्पन्नानामपर्याप्तावस्थायां विभङ्गस्याभावात् , उत्कृष्टस्थितिचिन्तायामवगा
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[१११]
दीप
अनुक्रम [ ३१५]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्ति:) पदं [५], -------------उद्देशक: [ - ], --------- • दारं [-], -------
- मूलं [१११]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
हनया चतुःस्थानपतितत्वमुत्कृष्टस्थितिकस्यावगाहनाया जघन्यतोऽङ्गुलासश्यभागादारभ्योत्कर्षतः पञ्चानां धनुःशतानामवाप्यमानत्वात्, 'अजहन्नुकोसठिहएवि एवं चेव' इत्यादि, अजघन्योत्कृष्टस्थितावपि तथा वक्कन्यं यथा जघन्यस्थितिसूत्रे उत्कृष्टस्थितिसूत्रे च, नवरमयं विशेषः- जघन्यस्थितिसूत्रे उत्कृष्टस्थितिसूत्रे च स्थित्या तुल्यत्वमभिहितं अत्र तु 'खस्थानेऽपि' स्थितावपि चतुःस्थानपतित इति वक्तव्यं, समयाधिकदशवर्षसहस्रेभ्य आरभ्वोत्कर्षतः समयोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणामवाप्यमानत्वात् जघन्यगुणकालकादिसूत्राणि सुप्रतीतानि, नवरं 'जस्स नाणा तस्स अन्नाणा नत्थि'त्ति यस्य ज्ञानानि तस्याज्ञानानि न संभवन्तीति यतः सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानानि मिथ्याररज्ञानानि सम्यग्रदृष्टित्वं च मिध्यादृष्टित्वोपमर्देन भवति मिथ्यादृष्टित्वमपि सम्यग्रहष्टित्वोपमर्देन भवति, ततो ज्ञानसद्भावेऽज्ञानाभावः एवमज्ञानसद्भावे ज्ञानाभावः, तत उक्तं- 'जहा नाणा तहा अन्नाणावि भाणियचा, नवरं जस्स अन्नाणा तस्स नाणा न संभवन्ति' इति शेषं पाठसिद्धं ।
Education Internation
जनोगाहगाणं मंते । असुरकुमाराणं केवइया पजवा पन्नत्ता?, गोयमा ! अनंता पवा पद्मत्ता, से केणद्वेगं भंते! एवं बुचइ होगा गाणं असुरकुमाराणं अणंता पजवा पत्रता !, गोयमा ! जहनोगाहणए असुरकुमारे जहन्रोगाहणस्स असुरकुमारस्स
या तुझे पसाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए चउट्ठाणवडिए बनाईहिं छाणवडिए आभिणिवोद्दियनाण० सुयना• ओहिन (पज्जहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहि य छट्टाणवडिए, एवं उकोसोगाहणएवि, एवं अजहन्नमणुको सो -
असुरकुमारादिनां पर्यायाः
For PanalPrata Use Only
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
५पर्याय
प्रत सूत्रांक [११२-११७]
प्रज्ञापना
या: मलयवृत्ती.
॥१८॥
गाहणएवि, नवरं उक्कोसोगाहणएवि असुरकुमारे ठिईए चउढाणवडिए, एवं जाव थणियकुमारा। (सूत्र ११२) जहमोगाहणार्ण भंते ! पुढविकाइयाणं केवइया पजवा पाता, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पनत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ जहबोगाहणाणं पुढविकाइयाणं अर्णता पजवा पन्नता,गोयमा जहमोगाहणए पुढविकाइए जहन्नीगाहणस्स पुढविकाइयस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुझे ओगाहणट्ठयाए तुझे ठिईए तिढाणवडिए बन्नगंधरसफासपअहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपजदेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसोगाहणएवि, अजहन्नमणुक्कोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं सहाणे चउट्ठाणवडिए, जहन्नठिइयाणं पुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नता, से केणटेणं भंते ! एवं बुबइ जहबठिइयाणं पुढविकाइयाणं अणंता पजवा पन्नचा!, गोयमा ! जहमठिइए पुढविकाइए जहन्न ठिइयस्स पुढविकाइयस्स दबयाए तुले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए ठिईए तुल्ले वनगंधरसफासपज्जवेहिं मतिअन्नाण सुयजन्माण अचक्खुदसणपज्जवेहि छहाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं सहाणे तिढाणवदिए, जहन्नगुणकालयाण मते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! अणता पज्जवा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ जहन्नगुणकालयाणं पुढविकाइयाणं अणंता पञ्जबा पन्नचा, गोयमा ! जहनगुणकालए पुढविकाइए जहन्नगुणकालगस्स पुढविकाइयस्स दबयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणयाए चउहाणवडिए ठिईए तिवाणवडिए कालवनपञ्जवेहि तल्ले अवसेसेहिं बनगंधरसफासपज्जवहि छहाणवडिए दोहि अनाणेहिं अचक्खुदंसणपजवेहि य छहाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकालगवि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए, एवं पंच बना दो गंधा पंच रसा अढ फासा भाणियवा । जहन्नमतिअन्नाणीर्ण भते। पुढ
दीप
पदे असुरकुमारादीनां सू. ११२ पृ. व्यादीनां सू.११३
द्वीन्द्रिया४दीनां सू.
११४
taesesesesents
अनुक्रम [३१६-३२१]
eroesesesea
॥१८९॥
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक [११२
-११७]
दीप
अनुक्रम
[३१६
-३२१]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [५],
------- उद्देशक: [ - ], - दारं [-], ------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
मूलं [११२-११७]
'विकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पज्जवा पन्नत्ता, से केंणद्वेर्ण भंते! एवं बुवइ जहन्नमतिअन्नाणीणं पुढविकाइयाणं अनंता पवा पन्नता ? गोयमा ! जहन्नमतिअन्नाणी पुढविकाइए जहन्नमतिअन्नाणिस्स पुढविकाइयस्स दवट्टयाए तुल्ले परसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउद्वाणवडिए ठिईए तिद्वाणवडिए वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छाणवडिए मइअन्नाणपज्ज
तुले सुन्नाणपहिं अचक्खुदंसणपञ्जवेहिं छट्टाणवडिए, एवं उक्कोसमइअन्नाणीचि, अजहन्नमणुकोस मइअन्नाणीवि एवं चेव, नवरं सहाणे छाणवडिए, एवं सुयअन्नाणीवि अचक्खुदंसणीवि एवं चैव जाव वणप्फइकाइया ( सूत्रं० ११३ ) जहोगाहणगाणं भंते ! बेईदियाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पज्जवा पन्नत्ता, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चद्द जहभोगाहणगाणं इंद्रियाणं अता पजवा पन्नत्ता !, गोयमा ! जहनोगाहणए बेईदिए जहनोगाहणस्स बैइंदियस्स दबट्टयाए तुल्ले पट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए तिद्वाणवडिए वन्नगंधरसफासपजवेहिं दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपञ्जवेहिय छाणवडिए, एवं उकोसोगाहणएवि, णवरं गाणा णत्थि, अजहन्नमणुक्कोसोमाहणए जहा जहस्रोगाहणए, वरं सट्टा ओगाहणार चउट्ठाणवडिए, जहन्नठिड्याणं भंते! बेईदियाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पज्जवा पनचा, सेकेण द्वे ते ! एवं बुच्च जन्मठियाणं बेईदिइयाणं अनंता पजवा पन्नता ? गोयमा ! जहन्नटिइए बेईदिए जहन्नटिइयस्स इंदि - यस्स दबाए तुले पट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठितीए तुल्ले वनगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिय छाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, नवरं दो णाणा अन्महिया, अजहन्नमणुको सठिइए जहा उकोसाठइए णवरं ठिईए तिट्ठाणवडिए । जहन्नगुणकालगाणं बेइंदियाणं पुच्छा गोयमा ! अणंता पखवा पत्रता से केणट्टेणं
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती. ॥१९॥
५पर्यायपदे पञ्चे|न्द्रियतिKI रश्चांसू.
११५
[११२
-११७]]
भंते । एवं चह-जहागुणकालगाणं वेइंदियाणं अर्णता पजवा पन्नचा ?, गोयमा! जहनगुणकालए बेईदिए जहमगुणकालगस्स बेइंदियस्स दवढयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए छहाणवडिए ठिईए तिद्वाणवडिए कालवअपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपनवेहिं दोहिं नाणेहिं दोहि अनाणेहिं अचक्खुदंसणपञ्जवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएपि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चेव, गवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं पंच बना दो गंधा पंच रसा अढ फासा भाणियथा, जहनाभिणिबोहियनाणीणं भंते ! बेइंदियाणं केवइया पजवा पत्नत्ता, गोयमा! अणंता पज्जया पनत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जहन्नाभिणियोहियनाणीणं बेइंदियाणं अर्णता पञ्जवा पाचा!, गोयमा! जहयाभिणियोहियणाणी बेईदिए जहन्नाभिणियोहियणाणिस्स बेईदियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुले ओगाहणट्टयाए चउद्वाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए बन्नगंधरसफासपनवेहि छट्ठाणबडिए आभिणियोहियणाणपज्जबेहि तुल्ले सुयणाणपजरेहि छद्वाणवडिए अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छढाणवडिए, एवं उकोसाभिणियोहियणाणीवि, अजहन्नमणुकोसामिणिबोहियणाणीवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्टाणवडिए, एवं सुयनाणीवि सुयअन्नाणीवि अचक्खुदंसणीवि, गवरं जत्थ णाणा तत्थ अत्राणा नत्थि जत्थ अनाणा तत्व णाणा नस्थि, जत्थ दंसणं तत्थ णाणावि अन्नाणाधि, एवं तेइंदियाणवि, चउरिदियाणवि एवं चेव णवरं चक्खुदंसणं अम्भहियं (मूत्र. ११४) जहबोगाहणगाणं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवड्या पजवा पबत्ता, गोयमा ! अणंता पजवा पनत्ता, से केणटेणं भंते । एवं बुबह जहमोगाहणगाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पज्जवा पन्नता, गोयमा ! जहन्नोगाहणए पंचिंदियतिरिक्खजोगिए जहनीगाहणयस्स पंचिंदियतिरि
दीप
अनुक्रम [३१६-३२१]
॥१९॥
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भ
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२-११७]
दीप
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क्खजोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए तुल्ले ठिईए तिढाणवडिए पनगंधरसफासपज्जवेहिं दोहि नाणेहिं दोहिं अनाणेहिं दोहिं दसणेहिं छहाणबडिए, उक्कोसोगाहणएवि एवं चेव, णवरं तिहि नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छद्वाणवडिए, जहा उकोसोगाहणए तहा अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि, णवरं ओगाहणयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउडाणयडिए, जहनठिइयाणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पज्जवा पचत्ता, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नाचा, से केणटेणं भंते ! एवं बुबह जहन्नठिहयाण पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पजवा पत्रचा, गोपमा! जहभाठिइए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नठिइयस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए तुल्ले वनगंधरसफासपञ्जवेहिं दोहिं अन्नाणेहिं दोहिं दंसणेहिं छहाणवडिए, उकोसठिइएवि एवं चेच णवरं दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा, अजहन्नमणुक्कोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउहाणवडिर तिमि णाणा तिघि अभाणा तिनि दंसणा । जहन्नगुणकालगाणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोयमा! अर्णता पजवा पन्नता, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नगुणकालए पंचिंदियतिरिक्खजोगिए जहन्नगुणकालगस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणवयाए चउहाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए कालबन्नपज्जदेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपजवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अनाणेहिं तिहिं दसणेहि छडाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सहाणे छहाणवडिए, एवं पंच बना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा, जहन्नाभिणिरोहियणाणीण भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पजवा पचत्ता, गोयमा! अर्णता पजवा पत्र
अनुक्रम [३१६-३२१]
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
५पर्याय
सूत्रांक
प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्तौ.18
पदे पञ्चेन्द्रियतिरश्वांसू. ११५
[११२-११७]]
॥१९॥
दीप
त्ता, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नाभिणिबोहियणाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नाभिणिवोहियणाणिस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुले ओगाहणद्वयाए चउढाणवडिए वनगंधरसफासपजवेहिं छहाणवडिए आभिणियोहियनाणपञ्जवहिं तुल्ले सुयनाणपजवेहिं छट्ठाणवडिए चक्खुदसणपजहिं छट्ठाणवडिए अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उकोसाभिणिबोहियनाणीचि, णवरं ठिईए तिहाणवडिए, तिनि नाणा तिन्नि दसणा सहाणे तुल्ले सेसेसु छहाणवडिए, अजहन्नमणुकोसामिणिबोहियनाणी जहा उक्कोसाभिणिबोहियनाणी गवरं ठिईए चउहाणबडिए, सट्टाणे छहाणवडिए, एवं सुयनाणीवि, जहबोहिनाणीणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणट्टेणं भंते ! एवं चुच्चइ, गोयमा !, जहबोहिनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहमोहिनाणिस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए तिहाणवाडिए बन्नगंधरसफासपज्जवेहिं आभिणिबोहियनाणसुयनाणपज्जवेहिं छहाणवडिए ओहिनाणपज्जवेहिं तुल्ले, अनाणा नत्थि, चक्खुदंसणपज्जवेहिं अचखुर्दसणपजवेहि य ओहिदंसगपञ्जवेहिं छहाणवडिए, एवं उफोसोहिनाणीवि अजहनोकोसोहिनाणीवि एवं चेव, गवरं सहाणे छट्ठाणबडिए, जहा आभिणिबोहियनाणी तहा मइअन्नाणी सुयअनाणी य, जहा ओहिनाणी तहा विभंगनाणीवि, चक्खुदसणी अचखुदंसणी य जहा आभिणियोहियनाणी, ओहिदंसणी जहा ओहिनाणी, जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नस्थि जत्थ अन्नाणा तत्थ नाणा नत्थि, जत्थ दसणा तत्थ णाणावि अन्नाणावि अस्थिति भाणिय (सूत्र० ११५) जहन्नीगाहणगाणं भंते ! मणुस्साणं केवड्या पजवा पनत्ता, गोयमा ! अर्णता पजवा पत्र
एर esecredeo
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अनुक्रम [३१६-३२१]
॥१९॥
मनुष्याणाम् पर्याया:
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भ
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1,-------------- दारं -],-------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२-११७]
दीप
ता, से केणेट्टणं भंते ! एवं वुच्चइ-जहन्नीगाहणगाणं मणुस्साणं अणंता पञ्जवा पन्नता ?, गोयमा ! जहन्नोगाहणए मणसे जहबोगाहणगस्स मणूसस्स दबट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए तिहाणवडिए वनगंघरसफासपञ्जबेहिं तिहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं तिहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिए, उक्कोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए, जा हीणे असंखिजइभागहीणे अह अम्महिए असंखेजइमागअन्महिए, दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा, अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि एवं चेव, णवरं ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउहाणवडिए आइल्लेहि चउहिं नाणेहिं छहाणवडिए, केवलनाणपजवेहिं तुल्ले, तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिए, केबलदंसणपअवेहि तुल्ले, जहबठियाणं भंते ! मणुस्साणं केवइया पजवा पन्नत्ता, गोयमा ! अर्णता पञ्जवा पन्नता, से केणडेणं भंते! एवं बुच्चइ १, गोयमा! जहनठिइए मणुस्से जहन्नठिझ्यस्स मणुस्सस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए ठिईए तुल्ले वन्नगंधरसफासपञ्जवेहिं दोहि अन्नाणेहिं दोहि सणेहिं छटाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, नवरं दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउढाणवडिए ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए आइलेहिं चउहि नाणेहिं छटाणवडिए केवलनाणपज्जवेहि तुल्ले तिहिं अनाणेहि तिहिं दंसणेहिं छहाणवडिए केवलदसणपञ्जवेहि तुल्छे । जहनगुणकालयाणं भंते ! मणुस्साणं केवइया पज्जवा पन्नता ?, गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुषद, गोयमा! जहनगुणकालए मणसे जहचगुणकालगस्स मणुस्सस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए चउट्ठाणबडिए कालवनपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहि वचगंधरसफासपञ्जवेहिं
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११२-११७]
प्रज्ञापनाया: मलय. वृत्ती.
५ पर्यायपदे मनुघ्याणां सू. ११६
॥१९॥
दीप
छट्ठाणचडिए चउहिं नाणेहिं छहाणवडिए केवलनाणपज्जवेहिं तुल्ले तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छहाणवडिए केवलदं- सणपजवेहिं तुल्ले, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणबडिए, एवं पंच बन्ना दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा माणियबा । जहनाभिणिबोहियनाणीणं मणुस्साणं केवड्या पजवा पबचा, गोयमा! अशंता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नाभिणियोहियणाणी मनसे जहन्नाभिणियोहियणाणिस्स मणुस्सस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवहिए ठिईए चउहाणवडिए वनगंधरसफासपञ्जवेहिं छट्ठाणवाडिए आभिणिबोहियनाणपजवेहिं तुल्ले सुयनाणपज्जवेहिं दोहिं दसणेहिं छहाणवडिए, एवं उक्कोसाभिणियोहियनाणीवि नवरं आभिणिचोहियनाणपञ्जवेहिं तुल्ले ठिईए तिहाणवडिए तिर्हि नाणेहिं तिहिं दंसणेहि छटाणवडिए, अजहन्नमणुकोसाभिणियोहियनाणी जहा उकोसाभिणिबोहियनाणी, नवरं ठिईए चउहाणवडिए सहाणे छटाणवहिए, एवं सुयनाणीवि, जहमोहिनाणीणं भंते ! मणुस्साणं केवइया पजवा पत्रचा?, गोषमा! अणंता पजवा पनत्ता, से केणटेणं भंते । एवं बुबह, गोयमा ! जहमोहिनाणी मणुस्से जहनोहिनाणिस्स मणूसस्स दाहयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए तिहाणबडिए ठिईए तिहाणवडिए चनगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं नाणेहिं छहाणवडिए ओहिनाणपसवेहि तुल्ले मणनाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए तिहिं दसणेहिं छहाणवडिए, एवं उत्कोसोहिनाणीवि, अजहन्नमणुकोसोहिनाणी एवं चेव, नवरं ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए, सटाणे छट्ठाणवडिए, जहा ओहिनाणी तहा मणपजवनाणीवि भाषिया, नवर ओगाहणद्वयाए तिद्वाणवडिए, जहा आभिणियोहियणाणी वहा मइअनापी सुयअनाणीवि भाणियो, जहर ओहि
अनुक्रम [३१६-३२१]
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
[११२-११७]
नाणी तहा विभंगनाणीवि भाणियवे चक्खुदसणी अचक्खुदंसणी य जहा आभिणियोहियणाणी ओहिदंसणी जहा ओहिनाणी । जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि जत्थ अन्नाणा तत्व नाणा नथि, जत्थ दसणा तत्थ णाणावि अन्नाणावि । केवलनाणीण भंते ! मणुस्साणं केवड्या पळवा पन्नता, गोयमा ! अणंता पज्जवा पात्ता, से केणढणं भंते ! एवं बुचाकेवलनाणीण मणुस्साणं अर्णता पजवा पन्नता, गोयमा! केवलनाणी मणूसे केवलनाणिस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तुले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए ठिईए तिवाणवडिए बन्नगंधरसफासपजवेहिं छहाणवडिए केवलनाणपञ्जवेहिं केवलदसणपञ्जवेहि य तुल्ले एवं केवलदसणीवि मणूसे भाणियवे ॥ (सूत्र ११६) वाणमंतरा जहा असुरकुमारा । एवं जोइसियवेमाणिया, नवरं सहाणे ठिईए तिहाणवडिए भाणियचे, सेत्तं जीवपजवा । (सूत्र ११७)
एवमसुरकुमारादिसूत्राण्यपि भावनीयानि प्रायः समानगमत्वात्, जपन्यावगाहनादिपृथिव्यादिसूत्रे स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं सखेयवर्षायुष्कत्वात्, एतच प्रागेव सामान्यपृथिवीकायिकसूत्रे भावितं, पर्यायचिन्तायामज्ञाने एव मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणे वक्तव्ये न तु ज्ञाने, तेषां सम्यक्त्वस्य तेषु मध्ये सम्यक्त्वसहितस्य चोत्पादासंभवात् 'उभयाभावो पुढवाइएसु' इति वचनात्, अत एवैतदेवोक्तमत्र 'दोहिं अन्नाणेहि' इति । जघन्यावगाहनहीन्द्रियसूत्रे 'दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहि इति, द्वीन्द्रियाणां हि केपाश्चिदपर्याप्तावस्थायां साखादनसम्यक्त्वमवाप्यते सम्य-18 ग्रदृष्टेच ज्ञाने इति द्वे ज्ञाने लभ्येते शेषाणामज्ञाने तत उक्तं द्वाभ्यां ज्ञानाभ्यां द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामिति, उत्कृष्टाव
9828688003000
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अनुक्रम [३१६-३२१]
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११२-११७]]
दीप
प्रज्ञापना-INIगाहनायां त्वपर्याप्तावस्थाया अभावात् साखादनसम्यक्त्वं नावाप्यते ततस्तत्र ज्ञाने न वक्तव्ये, तथा चाह-एवं ५ पर्याययाः मल- उक्कोसितोगाहणाए वि नवरं नाणा नत्धिति, तथाऽजघन्योत्कृष्टावगाहना किल प्रथमसमयादूई भवति इत्यपर्या- पदे नारयवृत्ती. सावस्थायामपि, तस्याः संभवात् सासादनसम्यक्त्ववतां ज्ञाने अन्येषां चाज्ञाने इति ज्ञाने चाज्ञाने च वक्तव्ये, तथा
कादिजीचाह-'अजहन्नमणुकोसोगाहणए जहा जहन्नीगाहणए' इति, तथा जघन्यस्थितिसूत्रे द्वे अज्ञाने एव वक्तव्ये न तु |
वपर्यायाः ॥१९॥
सू. ११७ |ज्ञाने, यतः सर्वजघन्यस्थितिको लब्ध्यपर्यासको भवति न च लब्ध्यपर्याप्तकेषु मध्ये साखादनसम्यग्दृष्टिरुत्पद्यते, किं कारणमिति चेत्, उच्यते, लब्ध्यपर्याप्तको हि सर्वसक्लिष्टः सासादनसम्यग्दृष्टिश्च मनाक् शुभपरिणामस्ततः स तेषु मध्ये नोत्पद्यते तेनाज्ञाने एव लभ्यते न ज्ञाने, उत्कृष्टस्थितिषु पुनर्मध्ये सासादनसम्यक्त्वसहितोऽप्युत्पद्यते इति तत्सूत्रे ज्ञाने अज्ञाने च वक्तव्ये, तथा चाह-एवं उक्कोसठिइएपि, नवरं दो नाणा अन्भहिया' इति, एवमेवाजघन्योत्कृष्टस्थितिसूत्रमपि वक्तव्यं, भावसूत्राणि पाठसिद्धानि, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि वक्तव्याः, नवरं चतुरि|न्द्रियाणां चक्षुर्दर्शनमधिकं अन्यथा चतुरिन्द्रियत्वायोगादिति तेषां चक्षुदर्शनविषयमपि सूत्रं वक्तव्यं, जघन्यावगा|हनतिर्यपश्चेन्द्रियसूत्रे 'ठिईए तिहाणवडिए' इति, इह तिर्यपञ्चेन्द्रियः सयेयवर्षायुष्क एव जघन्यावगाहनो ॥१९॥ भवति, नाऽसङ्ख्येयवर्षायुष्कः, किं कारणं इति चेत् , उच्यते, असङ्ख्येयवर्षायुषो हि महाशरीराः कङ्ककुक्षिपरिणामत्वात् पुष्टाहाराः प्रबलधातूपचयाः ततस्तेषां भूयान् शुक्रनिषेको भवति शुक्रनिकानुसारेण च तिर्यग्मनुष्याणामुत्पत्तिस
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२-११७]
दीप
मयेऽवगाहनेति न तेषां जघन्यावगाहना लभ्यते किं तु सत्येयवर्षायुषां, सयवर्षायुषश्च स्थित्या त्रिस्थानपतिताः, एतच भावितं प्राक, तत उक्तं स्थित्या त्रिस्थानपतिता इति, 'दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं' इति जघन्यावगाहनो हि तिर्यपञ्चेन्द्रियः सङ्ख्येयवर्षायुष्कोऽपर्याप्तो भवति सोऽपि चाल्पकायेषु मध्ये समुत्पद्यमानस्ततस्तस्यावधिविभङ्गज्ञानासंभवात् द्वे ज्ञाने द्वे अज्ञाने उक्ते, यस्तु विभङ्गज्ञानसहितो नरकादुत्य सोयवर्षायुकेषु तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पद्यमानो वक्ष्यते स महाकायेषूत्पद्यमानो द्रष्टव्यः नाल्पकायेषु, तथाखाभाब्यात्, अन्यथाऽधिकृतसूविरोधः, उत्कृष्टावगाहनतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिँ' इति त्रिभि नैखिभिरज्ञानैश्च षट्स्थानपतिताः, तत्र त्रीणि अज्ञानानि कथमिति चेत्, उच्यते, इह यस्य योजनसहस्रं शरीरावगाहना स उत्कृष्टावमाहनः स च सयवर्षायुष्क एव भवति पर्याप्तश्च, तेन तस्य त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि च संभवन्ति, स्थित्या
पि चासावुत्कृष्टायगाहनः त्रिस्थानपतितः, सस्पेयवर्षायुष्कत्वात् , अजघन्योत्कृष्टावगाहनसूत्रे स्थित्या चतु:स्थानप|तितः, यतोऽजघन्योत्कृष्टायगाहनोऽसयेयवर्षायुष्कोऽपि लभ्यते, तत्रोपपद्यते प्रागुक्तयुक्त्या चतुःस्थानपतितत्वं,
जघन्यस्थितिकतिर्यपश्चेन्द्रियसूत्रे द्वे अज्ञाने एव वक्तव्ये न तु ज्ञाने, यतोऽसौ जघन्यस्थितिको लम्ध्यपर्याप्तक एव |भयति न च तन्मध्ये सासादनसम्यग्दृष्टेरुत्पाद इति, उत्कृष्टस्थितिकतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'दो नाणा दो अन्नाणा' इति, उत्कृष्टस्थितिको हि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियस्त्रिपल्योपमस्थितिको भवति, तस्य च द्वे अज्ञाने तापन्नियमेन यदा पुनः
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], ---------------उद्देशक: -1, -------------- दारं -1, -------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११२-११७]]
प्रज्ञापना- याः मल- य०वृत्तौ
॥१९४॥
षण्मासावशेषायुर्वैमानिकेषु बद्धायुष्को भवति तदा तस्यद ज्ञाने लभ्येते अत उक्तं वे ज्ञाने द्वे अज्ञाने इति, अज- ५पर्याय
न्योत्कृष्टस्थितिकतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'ठिईए चउट्ठाणवडिए' इति अजघन्योत्कृष्ट स्थितिको हि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियःपदे नारसयवर्षायुष्कोऽपि लभ्यते असल्येयवर्षायुष्कोऽपि समयोनत्रिपल्योपमस्थितिकः ततश्चतुःस्थानपतितः, जघन्या
कादिजी|भिनिबोधिकतिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे 'ठिईए चउट्ठाणवडिए' इति, असङ्ख्येयवर्षायुषोऽपि हि तिर्यपञ्चेन्द्रियस्य खभूमि-19
सू.११७ कानुसारेण जघन्ये आभिनिवोधिकश्रुतज्ञाने लभ्येते ततः सयवर्षायुषोऽसयवर्षायुपश्च जघन्याभिनियोधिकश्रु-18 तज्ञानसंभवाद् भवन्ति स्थित्या चतुःस्थानपतिताः, उत्कृष्टाभिनियोधिकज्ञानसूत्रे स्थित्या च त्रिस्थानपतिता वक्तव्याः, यत इह यस्योत्कृष्ट आभिनिवोधिकश्रुतज्ञाने स नियमात सयेयवर्षायुष्कः सोयवर्षायुष्कश्च स्थित्यापि त्रिस्थानपतित एव यथोक्तं प्रारु, अवधिसूत्रे विभङ्गसूत्रेऽपि स्थित्या त्रिस्थानपतितः, किं कारणम् इति चेत्, उच्यते, असाधेयवर्षायुषोऽवधिविभङ्गासंभवात् , आह च मूलटीकाकारः 'ओहिविभङ्गेसु नियमा तिढाणवडिए, किं कारणं PAKI भन्नइ, ओहिविभङ्गा असंखेजवासाउयस्स नत्थिति जघन्यावगाहनमनुष्यसूत्रे 'ठिईए तिहाणवडिए' इति तिर्यकपञ्चेन्द्रियवत् , मनुष्योऽपि जघन्यावगाहनो नियमात् सङ्ग्येयवर्षायुष्कः, सङ्ग्येयवर्षायुष्कश्च स्थित्या त्रिस्थानपतित एवेति 'तिहिं नाणेहिं' इति, यदा कश्चित तीर्थकरोऽनत्तरोपपातिकदेवो वा अप्रतिपतितेनावधिज्ञानेन जघन्यायामवगाहनायामुत्पद्यते तदाऽवधिज्ञानमपि लभ्यते इतीह त्रिभिनिरित्युक्तं, विभज्ञानसहितस्तु नरकादुत्तो जघ
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं , -------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२-११७]
दीप
न्यायामवगाहनायां नोत्पद्यते तथाखाभाब्यात् अतो विभङ्गज्ञानं न लभ्यते इति द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामित्युक्तं, उत्कृटायगाहनमनुष्यसूत्रे 'ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अभहिए जइहीणे असंखेजभागहीणे जइ अब्भहिए। असंखेजभागअभहिए' इति, उत्कृष्टावगाहना हि मनुष्याखिगव्यूतोच्छ्याः त्रिगव्यूतानां च स्थितिर्जघन्यतः पल्योपमासयेयभागहीनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षतस्तान्येव परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि, उक्तं च जीवाभिगमे'उत्तरकुरुदेवकुराए मणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई पलिओवमस्सासंखिज्जइभागहीणाई उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई त्रिपल्योपमासयेयभागश्च त्रयाणां पल्योपमानामसाधे-18 यतमो भाग इति पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनपल्योपमत्रयस्थितिकः परिपूर्णपल्योपमत्रयस्थितिकापेक्षयाऽसोयभागहीनः, इतरस्तु तदपेक्षयाऽसयभागाधिकः, शेषा वृद्धिहानयो न लभ्यन्ते, 'दो नाणा दो अन्नाणा' इति उत्कृष्टावगाहना हि असोयवर्षायुषः, असयवर्षायुषां चावधिविभङ्गासंभवः, तथाखाभाव्यात्, अतो। एष ज्ञाने I चाज्ञाने इति, तथाऽजघन्योत्कृष्टावगाहनः सङ्ख्येयवर्षायुष्कोऽपि भवति असायेयवर्षायुष्कोऽपि भवति, असत्येयवपोयुष्कोऽपि गन्यूतद्विगन्यूतोच्छ्यः ततोऽवगाहनयाऽपि चतुःस्थानपतितत्वं स्थित्याऽपि तथा, आयैश्चतुर्भिर्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायरूपैनिः षट्स्थानपतिताः, तेषां चतुर्णामपि ज्ञानानां तत्तद्रव्यादिसापेक्षतया क्षयोपशमवैचित्र्य-18 तस्तारतम्यभावात् , केवलज्ञानपर्यवैस्तुल्यता, निःशेषखावरणक्षयतः प्रादुर्भूतस्य केवलज्ञानस्य भेदाभावात, शेष
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११२-११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११२-११७
५पर्यायपदे नारकादिजीवपर्यायाः सू.११७
दीप
ना- सुगम, जघन्यस्थितिकमनुष्यसूत्रे 'दोहिं अन्नाणेहिं' इति द्वाभ्यामज्ञानाभ्यां मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपाभ्यां षट्स्थानप- याः मल-तितता वक्तव्या, न तु ज्ञानाभ्यां, कस्मादिति चेत् ?, उच्यते, जघन्यस्थितिका मनुष्याः संमूच्छिमाः, संमूछिम- यवृत्ती. मनुष्याच नियमतो मिथ्यारष्टयः, ततस्तेषामज्ञाने एव न तु ज्ञाने, उत्कृष्टस्थितिकमनुष्यसूत्रे 'दो नाणा दो अजाणा'
इति, उत्कृष्टस्थितिका हि मनुष्यात्रिपल्योपमायुषः, तेषां च तावदज्ञाने नियमेन यदा पुनः षण्मासावशेषायपो ॥१९५॥
वैमानिकेषु बद्धायुपस्तदा सम्यक्त्वलाभात् द्वे ज्ञाने लभ्येते अवधिविभको चासल्येयवर्षायुषां न स्त इति त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानीति नोक्तं, अजघन्योत्कृष्टस्थितिकमनुष्यसूत्रमजघन्योत्कृष्टावगाहनमनुष्यसूत्रमिव भावनीयं, जघन्याभिनिबोधिकमनुष्यसूत्रे द्वे ज्ञाने वक्तव्ये द्वे दर्शने च, किं कारणं इति चेत् ?, उच्यते, जघन्याभिनिबोधिको
हि जीवो नियमादवधिमनःपर्यवज्ञानविकलः, प्रबलज्ञानावरणकर्मोदयसद्भावात् , अन्यथा जघन्याभिनिवोधिकज्ञापनत्वायोगात् , ततः शेषज्ञानदर्शनासंभवादाभिनिबोधिकज्ञानपर्यवैस्तुल्यः श्रुतज्ञानपर्यवैभ्या दर्शनाभ्यां च षट्
स्थानपतिततोक्का, उत्कृष्टाभिनिबोधिकसूत्रे 'ठिईए तिहाणवडिए' इति उत्कृष्टाभिनिवोधिको हि नियमात्सलये18 यवर्षायुः, असवेवर्षायुषः तथाभवस्वाभाव्यात् सर्वोत्कृष्टाभिनिबोधिकज्ञानासंभवात् , सत्येयवर्षायुषश्च प्रागुक्तयुक्तेः | स्थित्या त्रिस्थानपतिता इति, जघन्यावधिसूत्रे उत्कृष्टावधिसूत्रे चावगाहनया त्रिस्थानपतितो वक्तव्यः, यतः सर्वज-1 धन्योऽवधिर्यथोक्तखरूपो मनुष्याणां पारभविको न भवति, किं तु तद्भयभावी, सोऽपि च पर्याप्तावस्थायां, अपर्या
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॥१९५॥
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पदं [५],
-------- उद्देशकः [-],
मूलं [११२-११७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
Jan Educat
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
- दारं [-], -------
सावस्थायां तद्योग्य विशुद्ध्यभावात्, उत्कृष्टोऽप्यवधिर्भावतश्चारित्रिणः, ततो जघन्यावधिरुत्कृष्टावधिर्वाऽवगाहनया त्रिस्थानपतितः, अजघन्योत्कृष्टस्त्ववधिः पारभविकोऽपि संभवति ततोऽपर्याप्तावस्थायामपि तस्य संभवात् अजघन्योत्कृष्टावधिरवगाहनया चतुःस्थानपतितः स्थित्या तु जघन्यावधिरुत्कृष्टावधिरजघन्योत्कृष्टावधिर्वा त्रिस्थानपतितः, असोय वर्षायुषामवधेरसंभवात्, सोयवर्षायुषां च त्रिस्थानपतितत्वात् जघन्यमनः पर्यवज्ञानी उत्कृष्टमनः पर्यवज्ञानी अजघन्योत्कृष्टमनः पर्यवज्ञानी च स्थित्या त्रिस्थानपतितः, चारित्रिणामेव मनःपर्यायज्ञानसद्भावात्, चारित्रिणां च सङ्ख्येयवर्षायुष्कत्वात्, केवलज्ञानसूत्रे तु 'ओगाहणट्टयाए चउडाणवडिए' इति केवलिसमुद्घातं प्रतीत्य, तथाहिकेवलिसमुद्घातगतः केवली शेषकेवलिभ्योऽसङ्ख्येयगुणाधिकावगाहनः, तदपेक्षया शेषाः केवलिनोऽसङ्ख्येयगुणहीनावगाहनाः, स्वस्थाने तु शेषाः केवलिनस्त्रिस्थानपतिता इति स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं सङ्ख्पेयवर्षायुष्कत्वात् ॥ व्यन्तरा यथाऽसुरकुमाराः, ज्योतिष्कवैमानिका अपि तथैव, नवरं ते स्थित्या त्रिस्थानपतिता वक्तव्याः, एतच प्रागेव भावितं । उपसंहारमाह - [ प्रन्थानं ५००० ] 'सेत्तं जीवपज्जवा' एते जीवपर्यायाः । सम्प्रत्यजीव पर्यायान् पृच्छति
अथ अजीवस्य पर्यायाः
अजीव वाणं ते! कविहा पन्नत्ता १, गोयमा ! दुविहा पन्नता, तंजहारूविअजीव पजवा य अरूविअजीवपञ्जवा म, अरूविअजीवपजवाणं भंते ! कइविहा पन्नत्ता १, गोयमा ! दसविहा पन्नत्ता, तंजहा धम्मत्थिकाए घम्मत्थिकायस्स
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
मज्ञापनायाःमल
else
५पर्यायपदे अरूपिरूप्यजी
•वृत्ती.
[११८
वपयोयाः
॥१९६॥
परमाण्या
-१२१]
दीप अनुक्रम [३२२-३२५]]
देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा अहम्मस्थिकाए अहम्मत्थिकायस्स देसे अहम्मत्थिकायस्स पएसा आगासस्थिकाए आगासस्थिकायस्स देसे आगासस्थिकायस्स पएसा अद्धासमए (मू०११८) रूविअजीवपज्जया णं भंते ! काविहा पन्नता, गोयमा ! चउबिहा पन्नता, तंजहा खंधा खंघदेसा खंधपएसा परमाणुपुग्गला, तेणं भंते ! किं संखेजा असंखेजा अर्णता, गोयमा ! नो संखेजा नो असंखेजा अणंता, से केणडेणं भंते ! एवं वुचइ नो संखेजा नो असंखेजा अर्णता ?, गोयमा! अर्णता परमाणुपुग्गला अणंता दुपएसिया खंधा जाव अर्णता दसपएसिया खंधा अर्णता संखिजपएसिया खंधा अर्णता असंखिज्जपएसिया खंघा अणंता अणंतपएसिया खंधा, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं चुच्चइ ते शं नो संखिजा नो असंखिज्जा अणंता । (मू०११९) परमाणुपोग्गलाणं भंते ! केवइया पज्जबा पन्नता, गोयमा ! परमाणुपोग्गलाणं अर्णता पजवा पत्रचा, से केणडेणं भंते ! एवं बुबइ--परमाणुपुग्गलाणं अर्णता पजवा पत्ता, गोयमा ! परमाणुपुग्गले परमाणुपोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए तुल्ले ओगाहणयाए तुल्ले ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ होणे असंखिज्जहभागहीणे वा संखिजहभागहीणे वा संखिज्जइगुणहीणे वा असंखिज्जइगुणहीणे वा अह अन्महिए असंखिज्जइभागअन्महिए वा संखिज्जइभागअम्महिए वा संखिजगुणअब्भहिए वा असंखिजगुणअब्भहिए वा, कालवनपअवेहि सिय हीणे सिय तुले सिय अम्भहिए जड़ हीणे अणंतभागहीणे वा असंखिजइभागहीणे वा संखिजइभागहीगे वा संखिजगुणहीण वा असंखिजगुणहीणे वा अर्णतगुणहीणे वा अह अब्भहिए अर्णतभागअन्भहिए वा असंखिज्जइभागअन्भहिए वा संखिजभागअन्भहिए वा संखिजगुणअन्भहिए वा असंखिजगुणअन्महिए वा अर्णतगुणमभहिए वा एवं अब
सू. ११८
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [५],
------- उद्देशक: [ - ],
- दारं [-], -------
मूलं [११८-१२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
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सेसवन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छट्टाणवडिए, फासाणं सीयउसिणनिद्धलुक्खेहिं छाणवडिए से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चर - परमाणुपोग्गलाणं अनंता पखवा पन्नत्ता । दुपएसियाणं पुच्छा गोयमा ! अणंता पजवा पन्नत्ता १, से केणद्वेणं भंते! एवं वृचइ ?, गोयमा ! दुपएसिए दुपएसियस्स दबट्टयाए तुझे परसट्टयाए तुल्ले ओगाहणहयाए सिय हीणे सिय तुले सिय अन्भहिए जह हीणे परसहीणे अह अम्भहिए पएसमम्भहिए ठिईए चउट्ठाणवडिए बनाईहिं उवरिलेहिं चउफासेहि य छट्टाणवडिए, एवं तिपएसेवि, नवरं ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुले सिय अम्भहिए जइ हीणे परसहीणे वा दुपसही वा अह अब्भहिए पएसमम्भहिए वा दुपएसमन्भहिए वा, एवं जाब दसपएसिए, नवरं ओगाहणाए पएसपरिबुड्डी कावा जाव दसपएसिए, गवरं नवपएसहीणत्ति, संखेअपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पचता, से केणद्वेणं ते! एवं बुच्च-गोयमा । संखेज्जपएसिए संखेज्जपएसियस्स दबट्टयाए तुझे पएसइयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए, जर ही संखेज्जभागहीणे वा संखिजगुणहीणे या अह अब्भहिए एवं चैव ओगाहणट्टयाएवि दुाणवडिए ठिईए चट्टागवडिए वण्णा इउवरिल्लचउफासपज्जवेहि य छट्टाणवडिए, असंखिजपएसियाणं पुच्छा, गोगमा ! अनंता पवा पत्ता, से केणद्वेगं भंते ! एवं बुबइ-गोयमा ! असंखिज्जपएसिए खंधे असंखिज्जपएसियस्स खंधस्स दवहयाए तुले पएसइयाए चउट्टाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउडाणवडिए वण्णाइडवरच उफासेहि य छाणवडिए, अनंतपएसियाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता पजवा पद्मत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्ची, गोयमा ! अनंतएसिए खंधे अनंत एसियस्स खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्टाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउट्टाणवडिए ठिईए
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
[११८-१२१]
५पर्यायपदे अरूपिरूप्यजीविपर्यायाः
परमाण्बादीनां द्रव्यादिभिः सू.११८
॥१९७॥
चउहाणवडिए वनगंधरसफासपज्जवहिं छठाणवडिए ।। एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पजवा पत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चा , गोयमा! एगपएसोगाडे पोग्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दवद्वयाए तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवडिए ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए चउहाणवडिए वण्णाइउवरिल्लचउफासेहि छट्ठाणवडिए, एवं दुपएसोगाढेवि, संखिञ्जपएसोगाढाणं पुच्छा गोयमा ! अणंता पजवा पन्नता, से केणटेणं भंते ! एवं बुधइ , गोयमा! संखेअपएसोगाढे पोग्गले संखिजपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दबट्ठयाए तुले पएसट्ठयाए छहाणवडिए ओगाहणट्टयाए दुद्दाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वण्णाइउवरिष्टचउफासेहि य छट्ठाणबडिए, असंखेजपएसोगाढाणं पुच्छा, गोयमा अर्गता पज्जवा पन्नता, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! असंखेज्जपएसोगाढे पोग्गले असंखेज्जपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवर्टिए ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए वण्णाइअट्ठफासेहिं छहाणवडिए । एगसमयठिइयाणं पुच्छा, मोयमा ! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, मोयमा! एगसमयठिइए पोग्गले एगसमयठिइयस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिते ठितीए तुल्ले वण्णाइअहफासेहिं छहाणवडिए एवं जाव दससमयठिइए, संखेजसमयठिइयाणं एवं चेव, णवर ठिदए दुहाणवडिए, असंखेजसमयठियाणं एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए, एकगुणकालगाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पजवा पबत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ, गोयमा ! एकगुणकालए पोग्गले एकगुणकालगस्स पोग्गलस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए ठिइए चउढाणवडिए कालवनपजवेहिं तुल्ले अबसेसेहि वनगंध
दीप
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2cecadesES
१९७॥
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
esesesesere
[११८-१२१]
दीप
रसफासपजवेहि छहाणवडिए अट्टफासेहिं छट्ठाणवडिए, एवं जाव दसगुणकालए, संखेजगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे दुट्टाणवडिए, एवं असंखिजगुणकालएवि, नवरं सहाणे चउहाणवडिए, एवं अनंतगुणकालएवि नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं जहा कालवनस्स बताया भणिया तहा सेसाणवि वन्नगंधरसफासाणं बत्तवया माणियचा जाच अणंतगुणलुक्खे । जहओगाहणगाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता पजवा पन्नचा, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचह, गोयमा ! जहन्नोगाहणए दुपएसिए खंधे जहनोगाहणस्स दुपएसियस्स खंघस्स दवट्टयाए तुले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणहयाए तुल्ले ठिदए चउहाणपडिए कालबन्नपज्जवेहि छट्ठाणवडिए सेसवनगंधरसपज्जवेहि छट्ठाणवडिए सीयउसिणणिद्धलुक्खफासपनवेहि छवाणवडिए, से तेणडेणं गोयमा ! एवं चुच्चइ जहन्नोगाहणाणं दुपएसियाणं पोग्गलाणं अणंता पजवा पनत्ता, उकोसोगाहणएवि एवं चेव, अजहन्नमणुकोसोगाहणओ नत्थि, जहन्नीगाहणयाण भंते ! तिपएसियाणं पुच्छा, मोयमा ! अर्णता पज्जवा पचत्ता, से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! जहा दुपएसिए जहन्नीगाहणए उकोसोगाहणएवि एवं चेव, एवं अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि, जहनोगाहणयाणं भंते ! चउपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहा जहमोगाहणए दुपएसिए तहा जहमोगाहणए चउप्पएसिए एवं जहा उकोसोगाहणए दुपएसिए तहा उकोसोगाहणए चउप्पएसिएवि, एवं अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि चउप्पएसिए, णवरं ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सियमम्भहिए जह हीणे पएसहीणे अह अम्महिए पएसअम्भहिए एवं जाव दसपएसिएण्यवं, णवरं अजहन्नुकोसोगाहणए पएसपरिवुड्डी कायदा जाव दसपएसियस सच पएसा परिवडिअंति, जहमोगाहणगाणं भंते ! संखेज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता पञ्जबा पन्नता, से
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती.
[११८
५पर्यायपदे अरूपिरूप्यजीवपर्यायाः परमाण्वादीनां द्रब्यादिभिः
॥१९८॥
-१२१]
दीप
केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ १, गोयमा! जहन्नोगाणए संखेजपएसिए जहनोगाहणगस्त संखिज्जपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए दुहाणवडिए ओगाहणढयाए तुल्ले ठिईए चउट्ठाणवडिए वष्णाइचउफासपजवेहि य छट्ठाणवडिए एवं उकोसोगाहणएवि, अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि एवं चेव, गवरं सहाणे दुट्ठाणबडिए, जहनीगाहणगाणं भंते ! असंखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजबा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचद, गोयमा ! जहन्नोगाहणए असंखिज्जपएसिए खंधे जहबोगाहणगस्स असंखिज्जपएसियस्स खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउहाणवडिए ओगाहणट्ठयाए तुल्ले ठिईए चउहाणवडिए वण्णाइउवरिल्लफासेहि य छहाणवडिए, एवं उकोसोगाहणएवि, अजहन्नमणुकोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं सट्टाणे चउहाणवडिए । जहन्बोगाहणगाणं भंते ! अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पजवा पाचा, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुधइ ?, गोयमा ! जहन्नीगाहणए अर्णतपएसिए खंधे जहनोगाहणगस्स अणंतपएसियस्स संघस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए छटाणवडिए ओगाहणयाए तल्ले ठिईए चउहाणवडिए बण्णाइउवरिल्लचउफासेहिं छट्ठाणवडिए उकोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं ठिएवि तुल्ले, अजहन्नमणुकोसोगाहणगाणं भंते ! अर्णतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पबत्ता, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुबह, गोयमा! अजहन्नमणुकोसोगाहणए अर्णतपएसिए खंधे अजहन्नमणुकोसीगाहणगस्स अर्णतपएसियस्स खंधस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउहाणवडिए ठिईए चउटाणवडिए वाणाइअट्टफासेहिं छटाणवडिए, जहन्नठियाणं भंते ! परमाणुपुग्गलाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पजवा पनत्ता, से केण्डेणं भंते ! एवं बुधइ, मोयमा ! जबठिइए परमाणुपोग्गले जहनठियस्स परमाणुपोग्गलस्स दबट्टयाए
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११८-१२१]
दीप
तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए तुल्ले ठिईए तुल्ले वण्णाइ दुफासेहि य छवाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव नवरं ठिईए चउहाणवडिए, जहन्नठिइयाणं दुपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नता, से केणटुणं भंते! एवं बुच्चइ, गोयमा! जहन्नठिइए दुपएसिए जहन्नठिइयस्स दुपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए जइ हीणे पएसहीणे अह अम्भहिए पएसअन्महिए ठिईए तुल्ले वष्णाइ चउफासेहि य छटाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउद्दाणवडिए, एवं जाव दसपएसिए, नवरं पएसपरिखुड्डी कायदा, ओगाहणट्टयाए तिसुवि गमएसु जाव दसपएसिए एवं पएसा परिवडिजंति, जहन्नठिइयाणं भंते ! संखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ !, गोयमा जहन्नठिइए संखिजपएसिए बंधे जहन्नठिइयस्स संखिज्जपएसियस्स खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसहयाए दुहाणवडिए
ओगाहणट्टयाए दुवाणवडिए ठिईए तुल्ले वण्णाइ चउफासेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउहाणवडिए, जहन्नठिइयाणं असंखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नत्ता, से केणवणं भंते ! एवं बुचद, गोयमा! जहन्नठिहए असंखिजपएसिए जहभाठिइयस्स असंखिजपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउढाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउहाणवडिए ठिइए तुल्ले वण्णाइ उवरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहन्नमणुकोसठिइए एवं चेव नवरं ठिईए चउढाणवडिए, जहभाठियाणं अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पत्रचा, से केणडेणं भंते । एवं बुचड़, गोयमा ! जहन्नाठिइए अणंतपएसिए जहन्नठिड्यस्स
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापनायाः मलय.वृत्ती .
[११८-१२१]
॥१९९॥
अर्णतपएसियस्स दवट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्टाणघडिए ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए तुल्ले वण्णाइ अट्टकासेंहि य छहाणवडिए, एवं उकोसठिइएवि, अजहममणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईए चउहाणवडिए, जहमगुणकालयाण परमाणुपुग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चा , गोयमा ! जहन्नगुणकालए परमाणुपुग्गले जहन्नगुणकालगस्स परमाणुपुग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठिईए चउढाणपडिए कालवनपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसा वण्णा नत्थि, गंधरसदुफास पज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, एवमजहब्रमणुकोसगुणकालएवि, णवरं सहाणे छट्ठाणवडिए, जहन्नगुणकालयाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा, गोयमा अर्णता पञ्जबा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ, गोयमा! जहनगुणकालए दुपएसिए जनगुणकालयस्स दुपएसियस्स दवद्वयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए जइ हीणे पएसहीणे अह अमहिए पएसअन्महिए ठिईए चउट्ठाणचडिए कालवन्नपज्जवेहिं तुले अवसेसवण्णाइउवरिलचउफासेहि य छहाणवडिए, एवं उकोसगुणका लएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएविएवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं जाब दसपएसिए नवरं परसपरिवुड्डी ओगाहणाए तहेव, जहबगुणकालयाणं भंते ! संखिज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पजवा पन्नत्ता, से केणदृर्ण भंते ! एवं वुथइ, गोयमा ! जहनगुणकालए संखिजपएसिए जहन्नगुणकालगस्स संखिजपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए दुबाणवडिए ओगाहणट्टयाए दुहाणवडिए ठिईए चउढाणवडिएकालवनपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं बण्णाइ स्वरिल्लचउफासेहि य छहाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, एवं अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि, नवरं सहाणे छहाणवडिए, जहबगुणकालयाणं
५ पर्यायपदे परमाण्यादीनां
द्रव्यप्रदे४ शावगाह
स्थितिगुणःपर्यायाः सू.१२०
दीप
सरtreeseseectGeo
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॥१९९॥
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आगम
भ
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११८-१२१]
दीप
भंते ! असंखिजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता पजवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहन्नगुणकालए असंखिजपएसिए जहन्नगुणकालगस्स असंखिजपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउहाणवडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए कालवनपञ्जयहिं तुले अवसेसेहिं वण्णादि उवरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउढाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहन्नमणुकोसगुणकालएवि एवं चेव, नवरं सहाणे छहाणवडिए, जहागुणकालयाणं भंते ! अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता पजवा पन्नता, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुखह, गोयमा! जहन्नगुणकालए अणंतपएसिए जहन्नगुणकालयस्स अर्णतपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउढाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए कालवनपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनादि अट्ठफासेहि य छहाणवडिए, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहबमणुकोसगुणकालगवि एवं चेव, नवरं सट्टाणे छहाणवडिए, एवं मीललोहियहालिदमुकिल्लसब्मिगंधदुभिगंधतितकडुकसायअंबिलमहुररसपञ्जयेहि य बत्तवया भाणियबा, नवरं परमाणुपोग्गलस्स सुन्मिगंधस्स दुब्भिगंधो न भण्णा दुन्भिगंधस्स सुभिगंधो न भण्णइ, तित्तस्स अवसेसं न भण्णति एवं कडुयादीणवि, अवसैसं तं चेव, जहनगुणकक्खडाणं अणंतपएसियाणं खंधाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पञ्जवा पन्नचा, से केपटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! जहनगुणकक्खडे अणंतपएसिए जहन्नगुणकक्खडस्स अणंतपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसद्वयाए छहाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउडाणव- ' डिए ठिईए चउहाणवडिए वनगंधरसेहिं छट्ठाणबडिए कक्खडफासपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं सत्तफासपज्जवेहि छहाणडिए, एवं उकोसगुणकक्खडेवि, अजहन्नमणुकीसगुणकक्खडेवि एवं चेव नवरं सदाणे छट्ठाणवडिए, एवं मउपगुरुयलहु
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(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती.
[११८
N५पर्याय
पदे परमाग्वादीनां द्रव्यप्रदेशावगाहस्थितिगुशणैःपर्यायाः
सू. १२०
॥२०
॥
-१२१]
एवि भाणियचे, जहन्नगुणसीयाणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता पञ्जवा पन्नचा, से केणडेणं मंते ! एवं वुच, गोयमा! जहन्नगुणसीए परमाणुपोग्गले जहन्नगुणसीतस्स परमाणुपुग्गलस्स दवट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए तुल्ले ठिईए चउढाणवडिए वनगंधरसेहिं छटाणवडिए सीयफासपज्जवेहि य तुल्ले उसिणफासो न भण्णति निद्धलुक्खफासपजवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसगुणसीएवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेब, नवरं सट्टाणे छट्टाणवडिए, जहन्नगुणसीताणं दुपदेसियाणं पुच्छा, गोयमा! अगंता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ, गोयमा! जहबगुणसीते दुपएसिए जहन्नगुणसीतस्स दुपदेसियस्स दबट्टयाए तल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणड्डयाए सिय हीणे सिय तल्ले सिय अन्महिए जइ हीणे पएसहीणे (अह) अब्भहिए पएसअम्भहिए ठिईए चउहाणबडिए वनगंधरसपञ्जवहिं छहाणव. डिए सीयफासपज्जवहिं तुल्ले उसिणनिद्धलुक्खफासपज्जवेहिं छटाणवडिए, एवं उकोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सटाणे छट्ठाणवडिए, एवं जावदसपएसिए, गवरं ओगाहणहयाए पएसपरिखुड्डी कायचा जाव दुसपएसियरस नव पएसा बुडिजंति, जहनगुणसीयाणं संखेजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा! अर्णता पजवा पन्नता, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, गोयमा ! जहनगुणसीते संखिजपएसिए जहनगणसीतस्स संखिजपएसियस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए दुहाणवडिए ओगाहणट्टयाए दुबाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए वण्णादीहिं छट्ठाणवडिए सीयफासपज्जवाह तुल्ले उसिणनिद्धलुक्खेहिं छहाणवडिए, एवं उकोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सहाण छहाण. बडिए, जहन्नगुणसीयाणं असंखिज्जपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पजवा पन्नत्ता, से केणटेणं भंते ! एवं चुच्चद,
दीप
अनुक्रम [३२२-३२५]]
॥२०॥
~412~
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आगम
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1,-------------- दारं -],-------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
SARAN
सूत्रांक
[११८-१२१]
गोयमा ! जहनगुणसीते असंखिजपएसिए जहन्नगुणसीयस्स असंखिजपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पएसट्टयाए चउढाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउट्टाणवडिए बण्याइपञ्जबेहिं छहाणबडिए सीयफासपज्जवेहिं तुल्ले उसिणनि
लुक्खफासपजवाहि छट्टाणवडिए, एवं उक्कोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए, जहन्नगुणसीताणं अणंतपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता पञ्जवा पन्नत्ता, से केणद्वेणं भंते ! एवं चुचह, गोयमा! जहन्नगुणसीते अणंतपएसिए जहनगुणसीतस्स अणंतपएसियस्स दबयाए तुले पएसट्टयाए छट्टाणवडिए ओगाहणहयाए चउवाणवडिए ठिईए चउढाणवडिए वण्णाइपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए सीयफासपज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं सत्तफासपज्जवेहिं छटाणवडिए, एवं उकोसगुणसीतेवि, अजहन्नमणुकोसगुणसीतेवि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्टाणवडिए, एवं उसिणनिद्धलुक्खे जहा सीते परमाणुपोग्गलस्स तहेब पडिवक्खो सन्वेसि न भण्णइ ति भाणियब ।। (सूत्रं १२०)[साम्प्रतं सामान्यसूत्रमारभ्यते ] जहन्नपएसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा, गोयमा ! अर्णता, से केणडेणं भंते! एवं बुच्चइ , गोयमा! जहन्नपपासए खंध जहन्नपएसियरस खंधस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अम्भहिए जह हीणे पएसहीणे अह अम्भहिए पएसमन्भहिए ठिईए चउवाणवडिए बनगंधरसउवरिल्लचउफासपजवेहिं छट्ठाणवडिए, उकोसपएसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता०, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुबह, गोयमा! उकोसपएसिए खंधे उकोसपएसियस्स खंधस्स दबयाए तुले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहणयाए चउवाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वण्णाइअहफासपजवेहि य छट्ठाणवडिए, अजहन्नमणुकोसपएसियाण भंते ! खंधाणं केवइया पञ्जवा पन्नत्ता,
दीप
अनुक्रम [३२२-३२५]]
herest
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आगम
भ
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रज्ञापना
याः मलयवृत्ती.
[११८-१२१]
५पर्याय|पदे जघन्यप्रदेशादीनां पर्यायाः सूत्र १२१
॥२०१॥
दीप
गोयमा ! अर्णता०, से केण?ण ०१, गौयमा ! अजहन्नमणुकीसपएसिए खंधे अजहन्नमणुकीसपएसियस्स संघस्स दवट्ठयार तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवडिए औगाहणद्वयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वष्णाइ अट्ठफासपजवेहि व छहाणवडिए । जहनीगाहणगाणं मते 1 पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अणता०, से कैणटेणं०१, गोयमा ! जहयोगाहणए पोग्गले जहन्नोगाहणगस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणयाए तुल्ले ठिईए चउहाणवडिए वष्णाद उवरिल्लफासेहि य छहाणवडिए, उक्कोसोगाहणएवि एवं चेव, नवरं ठिईए तुल्ले, अजहन्नमणुकोसीगाहणगाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! अणंता०, से केणटेणं०, गोयमा! अजहन्नमणुकोसोगाहणए पोग्गले अजहन्नमणुकोसोगाहणगस्स पोग्गलस्स दबयाए तुल्ले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए वण्णाइ अहफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, जहन्नठिइयाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा! अणंता०, से केणढण०१, गोयमा! जहमठिइए पोग्गले जहन ठिइयस्स पोग्गलस्स दाद्वयाए तले पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए औगाहणट्टयाए उहाणवड़िए ठिईए तुल्ले वणाइ अट्ठफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उकोसठिइएचि, अजहन्नमणुकोसठिइएवि एवं चेव, नवरं ठिईएवि चउहाणवडिए, जहचगुणकालयाणं भंते ! पोग्गलाण केवइया पज्जवा पचत्ता, गोयमा अर्णता०,से केणवण०१, गोयमा जहन्नगुणकालए पोग्गले जहन्नगुणकालयस्स पोग्गलस्स दबट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए छहाणवडिए ओगाहणद्वयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउहाणवडिए कालवनपज्जवहिं तुल्ले अवसेसेहिं वनगंधरसफासपनवेहि य छट्ठाणवडिए, से तेणडेणं गोयमार एवं बुच्चइ-जहबगुणकालयाण पोग्गलाणं अर्णता पञ्जवा पन्नत्ता, एवं उकोसगुणकालएवि, अजहश्रमणुकीसगुणकालएवि एवं
अनुक्रम [३२२-३२५]]
॥२०॥
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आगम
(१५)
प्रत
सूत्रांक
[११८
-१२१]
दीप
अनुक्रम
[३२२
-३२५]
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र - ४ ( मूलं + वृत्तिः)
पदं [५],
------- उद्देशक: [ - ],
- दारं [-], -------
मूलं [११८-१२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१५],उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः
चिव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए, एवं जहा कालवन्नपजवाणं वत्तवया भणिया तहा सेसाणवि वन्नगंधरसफासाणं वत्तवया भाणि वा जाव अजस्रमणुकौसलुवखे सट्टाणे छट्टाणवाडए। सेतं रूचिअजीवपज्जवा, सेतं अजीवपज्जवा । (सूत्रं १२१ ) इति पचवणाए भगवईए विसेसपयं समत्तं ५ ।
'अजीव पज्जवा णं' इत्यादि, 'रूविअजीव पजवा य अरूविअजीवपजवा य' इति रूपमिति उपलक्षणमेतत् गन्धरसस्पशश्च विद्यन्ते येषां ते रूपिणः ते च ते अजीवाश्च रूप्यजीवाः तेषां पर्याया रूप्यजीव पर्यायाः (पुद्गलपर्याया) इत्यर्थः, तद्विपरीता अरूप्यजीव पर्यायाः, अमूर्त्ताजीव पर्याया इति भावः, 'धम्मत्थिकाए' इत्यादि, धम्र्मास्तिकाय इति परिपूर्णमवयवि द्रव्यं, धर्मास्तिकायस्य देशः- तस्यैवार्द्धादिरूपो विभागः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः - तस्यैव निर्विभागाः भागाः, एवं त्रिकमधर्मास्तिकाये आकाशास्तिकाये च भावनीयं एतावता चान्योऽन्यानुगमात्मकावयवावयविखरूपं धर्मास्तिकायादिकं वस्त्विति प्रतिपादितं दशमोऽद्धासमयः नन्वत्र पर्याया वक्तुमुपक्रान्तास्तत्कथं द्रव्यमात्रोपन्यासः कृतः १, उच्यते, पर्यायपर्यायिणोः कथंचिदभेदख्यापनार्थः एवमुत्तरोऽपि ग्रन्थः, आह च मूलटीकाकार:- "अत्र सर्वत्र पर्याय पर्यायणोः कथंचिदभेदख्यापनार्थमित्थं सूत्रोपन्यास " इति परमार्थतस्त्वेतद्रष्टव्यं धर्मास्तिकायत्वं धर्मास्तिकायदेशत्वं धर्मास्तिकायप्रदेशत्वं इत्यादि, 'ते णं भंते ! किं संखेज्जा' इत्यादि, ते स्कन्धादयः प्रत्येकं किं सोया असश्या अनन्ताः १, भगवानाह - अनन्ताः, एतदेव भावयति- 'से केणद्वेणं मंते !' इत्यादि पाठसिद्धं । सम्प्रति
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आगम
(१५)
[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-1, -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११८
-१२१]
दीप
प्रज्ञापना
दण्डकक्रमेण परमाणुपुद्गलादीनां पर्यायाश्चिन्तनीयाः, दण्डकक्रमश्चायं-प्रथमतः सामान्येन परमाण्वादयश्चिन्त- ५ पर्याय याः मल- नीयाः तदनन्तरं ते एव एकप्रदेशाधवगाढाः तत एकसमयादिस्थितिकाः तदनन्तरमेकगुणकालकादयः ततो जघ- पदं य० वृत्ती. न्यायवगाहनाप्रकारेण तदनन्तरं जघन्यस्थित्यादिभेदेन ततो जघन्यगुणकालकादिक्रमेण तदनन्तरं जघन्यप्रदेशा
दिना भेदेनेति, उक्तं च-"अणुमाइओहियाणं खेत्तादिपएससंगयाणं च । जहनाऽवगाहणाइण चेव जहन्नादिदेसाणं| ॥२०२॥
॥१॥" अस्याक्षरगमनिका-प्रथमतोऽण्यादीनां-परमाण्वादीनां चिन्ता कर्त्तव्या, तदनन्तरं क्षेत्रादिप्रदेशसङ्गताना,
अत्रादिशब्दात्कालभावपरिग्रहः, ततोऽयमर्थः-प्रथमतः क्षेत्रप्रदेशेरेकादिभिः सङ्गतानां चिन्ता कर्तव्या, तदनन्तरं IS कालप्रदेशैः-एकादिसमयस्ततो भावप्रदेशैः-एकगुणकालकादिभिरिति, तदनन्तरं जघन्यावगाहनादीनामिति, अत्रादि
शब्देन मध्यमोत्कृष्टावगाहनाजघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिजघन्यमध्यमोत्कृष्टगुणकालकादिवर्णपरिग्रहः, ततो जघन्यादिप्रदेशानां-जघन्यप्रदेशानामुत्कृष्टप्रदेशानामजघन्योत्कृष्टप्रदेशानामिति ॥ तत्र प्रथमतः क्रमेण परमाण्वादीनां चिन्ता कुर्वन्नाह-'परमाणुपोग्गलाणं भंते !' इत्यादि, स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वं, परमाणोः समयादारभ्योत्कतोऽसावेयकालमवस्थानभावात् , कालादिवर्णपर्यायैः षट्स्थानपतितत्वं एकस्यापि परमाणोः पर्यायानन्त्याविरोधात्, ननु परमाणुरप्रदेशो गीयते ततः कथं पर्यायानन्त्याविरोधः, पर्यायानन्ये नियमतः सप्रदेशत्वप्रसक्के, तदयुक्त, वस्तु-1 तत्त्वापरिज्ञानात्, परमाणुहि अप्रदेशो गीयते द्रव्यरूपतया सांशो न भवतीति, न तु कालभावाभ्यामिति, 'अपएसो।।
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११८-१२१]
दवट्ठयाए' इति वचनात् , ततः कालभाषाभ्या सप्रदेशत्वेऽपि न कश्चिद्दोषः, तथा परमावादीनामसवातप्रदेशस्कन्धपर्यन्तानां केषांचिदनन्तप्रादेशिकानामपि स्कन्धानां तथैकप्रदेशावगाढानां यावत् सङ्ख्यातप्रदेशावगाढानां शीतोष्णस्निग्धरूक्षरूपाश्चत्वार एव स्पर्शा इति तैरेव परमाण्यादीनां षट्स्थानपतितता वक्तव्या, न शेषः, द्विप्रदेशस्कन्धसूत्रे 'ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए' इत्यादि, यदा द्वावपि द्विप्रदेशिको स्कन्धौ द्विप्रदेशावगाढावेकप्रदेशावगाढौ वा भवतस्तदा तुल्यावगाहनौ, यदा त्वेको द्विप्रदेशावगाढोऽपरस्त्वेकप्रदेशावगाढस्तदा एकप्रदेशावगाढो द्विप्रदेशावगाढापेक्षया प्रदेशहीनो द्विप्रदेशावगाढस्तु तदपेक्षया(प्रदेशा)ऽभ्यधिकः शेषं प्राग्वत् , त्रिप्रदेशस्कन्धसूत्रे 'ओगाहणट्टयाए सिय हीणे' इत्यादि, यदा द्वावपि त्रिप्रदेशको स्कन्धौ त्रिप्रदेशावगाढी द्विप्रदेशावगाढी एकप्रदेशावगाढी वा तदा तुल्यौ यदा त्वेकस्त्रिप्रदेशावगाढो वा द्विप्रदेशावगाढो वा अपरस्तु द्विप्रदेशावगाढ एकप्रदेशावगाढो वा तदा द्विप्रदेशावगाढेकप्रदेशावगाढी यथाक्रम त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेशावगाढापेक्षया एकप्रदेशहीनी त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेशावगाढी तु तदपेक्षया एकप्रदेशाभ्यधिको, यदा त्वेकत्रिप्रदेशावगाढोऽपर एकप्रदेशावगाढस्तदा एकप्रदेशावगाढस्त्रिप्रदेशावगाढापेक्षया द्विप्रदेशहीन त्रिप्रदेशावगाढस्तु तदपेक्षया द्विप्रदेशाभ्यधिकः, एवमेकैकप्रदेशपरिवृघ्या चतुःप्रदेशादिषु स्कन्धेष्ववगाहनामधिकृत्य हानिर्वृद्धिर्वा तावद् वक्तव्या यावद्दशप्रदेशस्कन्धः, तस्मिंश्च दशप्रदेशके स्कन्धे एवं वक्तव्यं 'जइ हीणे पएसहीणे वा दुपएसहीणे वा जाव नवपएसहीणे वा अह अन्भहिए
दीप
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
[११८-१२१]
दीप
प्रज्ञापना- कपएसमभहिए वा दुपएसमभहिए वा जाव नवपएसमभहिए वा' इति भावना पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं कर्तव्या,81५पर्यायया: मल- सङ्ग्यातप्रादेशिकस्कन्धसूत्रे 'ओगाहणट्टयाए दुहाणवडिए' इति सपेयभागेन सझवेयगुणेन चेति, असङ्ग्यातप्रदेशक-1 पद य० वृत्ती. स्कन्धे 'ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए' इति असहयातभागेन सङ्ख्यातभागेन समयातगुणेनासङ्ख्यातगुणेनेति, अनन्त-18 ॥२०॥
प्रादेशिकस्कन्धेऽप्यवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितता, अनन्तप्रदेशावगाहनाया असंभवतोऽनन्तभागानन्तगुणाभ्यां | वृद्धिहान्यसंभवात् , 'एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं भंते ! इत्यादि, अत्र 'दबट्टयाए तुले पएसट्ठयाए छट्ठाणपडिए' इति, इदमपि विवक्षितकप्रदेशावगादं परमाण्वादिकं द्रव्यं इदमप्यपरैकप्रदेशावगाढं द्विप्रदेशादिकं द्रव्यमिति द्रव्या
तया तुल्यता, प्रदेशार्थतया पदस्थानपतितता. अनन्तप्रदेशकस्यापि स्कन्धस्यैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहनासंभवात् , शेष सुगम, एवं स्थितिभावाश्रयाण्यपि सूत्राण्युपयुज्य भावनीयानि, 'जहन्नोगाहणगाणं भंते ! दुपएसियाण' इत्यादि, जघन्यद्विप्रदेशकस्य स्कन्धस्यावगाहना एकप्रदेशात्मिका उत्कृष्टा द्विप्रदेशात्मिका अत्रापान्तरालं नास्तीति मध्यमा न लभ्यते तत उक्तं 'अजहन्नमणुकोसोगाहणओ नत्थि' इति, त्रिप्रदेशकस्य स्कन्धस्य जघन्यावगाहना एकप्रदेशरूपा मध्यमा द्विप्रदेशरूपा उत्कृष्टा त्रिप्रदेशरूपा, चतुःप्रदेशस्य जघन्या एकप्रदेशरूपा उत्कृष्टा चतुःप्रदेशात्मिका मध्यमा M॥२०॥ द्विविधा-द्विप्रदेशात्मिका त्रिप्रदेशात्मिका च, एवं च सति मध्यमावगाहनश्चतुःप्रदेशको मध्यमावगाहनचतुःप्रदे-15 शकापेक्षया यदि हीनस्तर्हि प्रदेशतो हीनो भवति अथाभ्यधिकस्ततः प्रदेशतोऽभ्यधिकः, एवं पञ्चप्रदेशादिषु
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[भाग-१८] “प्रज्ञापना” – उपांगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
पदं [५], --------------- उद्देशक: [-], -------------- दारं --------------- मूलं [११८-१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१५]उपांगसूत्र-[४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति:
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सूत्रांक
[११८-१२१]
स्कन्धेषु मध्यमावगाहनामधिकृत्य प्रदेशपरिवृद्ध्या वृद्धिानिश्च तावत् वक्तव्या यावद्दशप्रदेशके स्कन्धे सप्तप्रदेशपरिवृद्धिः, सा चैवं वक्तव्या-'अजहन्नमणुकोसोगाहणए दसपएसिए अजहन्नमणुक्कोसोगाहणस्स दसपएसियस्स खंधस्स ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुले सिय अम्भहिए जइ हीणे पएसहीणे दुपएसहीणे जाव सत्तपएसहीणे अह अमहिए पएसअब्भहिए दुपएसअन्महिए जाव सत्तपएसअन्भहिए' इति, शेष सूत्रं स्वयमुपयुज्य परिभावनीयं सुगमत्वात् , नवरमनन्तप्रदेशकोत्कृष्टावगाहनाचिन्तायां 'ठिईएवि तुले' इति उत्कृष्टावगाहनः किलानन्तप्रदेशकः। स्कन्धः स उच्यते यः समस्तलोकव्यापी स चाचित्तमहास्कन्धः केवलिसमुद्घातकर्मस्कन्धो वा, तयोश्चोभयोरपि |दण्डकपाटमन्थान्तरपूरणलक्षणचतुःसमयप्रमाणतेति तुल्यकालता, शेष सूत्रमापदपरिसमासेः प्रागुक्तभावनाऽनुसा
रेण खयमुपयुज्य परिभावनीयं सुगमत्वात् , नवरं जघन्यप्रदेशकाः स्कन्धाः द्विप्रदेशका उत्कृष्टप्रदेशकाः सर्वोत्कृष्टानन्त[प्रदेशाः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां विशेषाख्यं पदं समाप्त ।
FEMATREASTRATRA.OR E TRO-STATRAORAATMAHETRA
इति श्री प्रज्ञा सूत्र श्रीमन्मलयगिरिसूरिवर्य विशेषापरपर्यायं पर्यायाख्यं पदं समाप्त।
दीप
अनुक्रम [३२२-३२५]]
अत्र पद (०५) "विशेष" परिसमाप्तम्
भाग
प्रज्ञापना -उवंगसूत्र [४/१] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) ।
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भाग
कलपृष्ठ
३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८
५९२
५५२
सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४ ३८४
५२२
५३८
३८४
३१४ ४८०
४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१०
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कुलपृष्ठ ६१४ ३७६
४२६
३४४
३१२
27
३३०
४६६
४४२
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति.
आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६
| आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४६४
४२६
४७२
३७६
५९०
५२२
४८२
४६६
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य आनंद- क्षमा- ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
आगम [15/1]
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च प्रज्ञापना (उपांगसूत्र”-४/१) ( मूलं एवं मलयगिरि प्रणिता वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलितः “प्रज्ञापना" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्तः
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि” श्रेणि, भाग-18
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
S
HRSHAIRANAMAHAARY
- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
OHEOREOF
Mondications
KOHOSH
टन
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________________ म आजम आजम आणाम आगम आजमयाजामा मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब म आणम् आगम आगम आगम 15 “प्रज्ञापना" मूलं एवं वृत्ति: [1] आजम आगर अभिनव-संकलनकर्ता आणम / ___आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आणम आगमा आजम आगम 4426