Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमन्मोशनयश:स्मारक ग्रन्थमाला-प्रन्थाङ्क-२६ मलधारगष्ठमण्डनआचार्यप्रवरश्रीमबहेमचन्द्र सूरिषरगुम्फितं, श्रीखरतरगच्छषिभूषणभीमस्साधुसोमगणिवर
विहितया लघुवृत्या समलवृत पुष्पमाला-प्रकरणम् ।
सम्पावकः। शोधकधश्रीखरतरगच्छमण्डनमहानशासनप्रभावककियोद्वारकधीमम्मोहनलालजीमुनीश्वरप्रशिष्यरत्न
स्व० अनुयोगाचार्य श्रीमस्केशरमुनिजीगणिधरविनेयो
बुद्धिसागरो गणिः।
सहायकसूचिनिर्विधमहानुभाववितीर्णार्थिकसाहाय्येन मुंबई-पायधुनि महावीरजिनालयस्थजिनदवसूरि
शानभाण्डागारप्रधानकार्यवाहको झवेरी केसरीचन्द्रात्मजो सवेरपन्द्र।। कोरसे २४८७ निष्क्रयः सार्य रुप्यन्वयम् रु० २)।
विका
mamalread yan
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं अच्छा प्रचार हुमा, उन पर अनेकों संस्कृत एवं लोक भाषाओं में टीकाएं की गई। प्रस्तुत पुष्पमाला ग्रन्थ उन्हीं में से एक है।
जिसकी रचना प्रश्नवाइन कुलके हर्षपुरीय गच्छके मधारीव हेमचन्द्रसरिने प्राकृत ५.५ गाथाओंमें की है। और सं. ११७५ में उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थ पर संस्कृतमें १३८६८ श्लोक परिमित विशद् टीका बनाई। वह ग्रन्थ मूल रूपमें जैन श्रेयस्कर मंडल, महेसाशासे सन १९११ में प्रकाशित हुआ था। इसके २५ वर्षे बाद उक्त अन्य स्वोपक्ष वृत्ति के साथ श्रुषभदेव केशरीमल संस्था, रतलामसे प्रकाशित हुआ था। उसके सम्पादक सुप्रसिद्ध जैनागमों के सम्पादक सागरानन्दसूरि थे। उन्होंने | इसके उपोद्घातमें प्रन्थ के महत्व और विषयोंका सुन्दर परिचय दिया ही है अतः उसके सम्बन्ध में यहां नहीं लिखा जा रहा है।
पुष्पमालाके रचयिता हेमचन्द्रमूरिने इस ग्रन्थका नाम उपदेशमाला व पुष्पमाला दोनों दिये हैं, यद्यपि प्रधानरूपसे उपदेशमाला नामही उनको अभीष्ट रहा है पर इसी नामका अन्य प्राचीन ग्रन्थ प्रसिद्ध होनेसे उससे भिन्नता सूचक पुष्पमाला नामही अधिक प्रसिद्ध हुआ। अन्य कर्ता आचार्य अपने समयके बहुत बड़े विद्वान थे। ननके रचित अन्य अनेक मौलिक व टीकामन्य प्राप्त है। वनका विशेष परिचय पं. दलसुख मालवणीवाने 'गणधरवाद' नामक प्रन्धमें दिया है अतः यहां दोहराना श्रावश्यक नहीं समझा । केवल प्रस्तुत लघु टीकाके कोका परिचयही आगे दिया जा रहा है।
प्रस्तुत पुष्पमाला लधुवृत्ति, मूल अन्य कारकी स्वोपक्ष बृहत् टीका परही आधारित है। वह दीका बहुत विस्तृत होनेसे पढ़ने में बहुत समय लगता, इससे अन्धके प्रचार व पठन पाठनमें असुविधाका अनुभव करके यह लघुनि खरतर गच्छके साधुसोमगणिने ५३०० श्लोक परिमित बनाई। इसकी रचना सं. १५१२ में अहमदाबाद के खीमराजकी शालामें हुई। इस
Chalevelonadammelan..AaudanamaAIR..
A
n swmaratnagam.sammohandematram.
m
ms
h inematraamaniaANDANKAshuuskanti... -
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
AL
LimmaNAINMriwastamarhathurmilaternimiMinunhedeowwwittarashathsharm---
mkumaulilanamamiwadailymniporntranakihansnindianadaantediterawnavatikatihasthesaantianslaladalata
टीका प्रासंगिक कथाएंभी दी गई है इससे संक्षेप होने परभी ग्रन्थकी उपयोगिता एवं प्रचारमें वृद्धि ही हुई है।
इस लघुवृत्तिके कर्ता खरतर गच्छीय साधु समाजमें सुप्रसिद्ध जैसलमेर आदि भण्डारोंके संस्थापक, सैकड़ों प्रतिमाओं के प्रतिष्ठापक, युगप्रवर जिनभद्रसूरिजीके प्रशिध्य और महोपाध्याय सिद्धान्त सचिजीके शिष्य थे। स. १४८४ में उपाध्याय जय. सागरके जिन भद्रजीको प्रेषित ' विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक ( महत्त्वपूर्ण ' नगरकोट्ट' तीर्थयात्राके वर्णन वाले ) प्रध में जिनभद्र सरिजी के साथ पं. सिद्धान्तरूचि गणिका नामभी उल्लिखित है। अत: उस समय उनकी उम्र २४ वर्षके लगभग माने तो सिद्धान्तचिजीका जन्म सं. १४६० के आसपास सम्भबित्त है। ये बहुत उच्च कोटिके विद्वान और प्रतिष्ठावान थे, मांडवगदके ग्यासदीन बादशाहकी समामें इन्होंने किसी वादीको परास्त कर विजयपद प्राप्त किया था और इसका उल्लेख साधुसोम और मुलिसोमने इस प्रकार किया है :
श्रीखरतरगच्छेश-श्रीमजिनमतसरिशिष्याणाम् । श्रीजीरापल्लीपावप्रभु-लब्धवरप्रसादानाम् ॥१॥ श्रीग्यासदीनसाहे-महासभालन्धवादिविजयानाम् । श्रीसिद्धान्तकचिमहोपाध्यायानां विनेयेन॥२॥
(साधु सोम)
I
x
ग्यासटीनसरत्राण-गोष्ट्याप्त जैनपत्रकाः। शिष्याः श्रीजिनमद्राणां, सिद्वान्तरुचिवाचकाः ॥ ६७६ ।। (मनिसोम) प्रस्तुत टीकामें भी राजसभामें वादी वृन्दो पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है पर उसमें किसकी राजसभामें राजाका नाम नहीं दिया है । जैसलमेर भंडारमें संग्रहपी सावरिकी प्रति मांडवगदमें प्रस्तुत लघुवृत्तिके रचयिता माधुसोम लिखित
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
१० पत्रोंकी है। पुण्यविजयजीकी जे. भ. की नई सूचि अनुसार इसका लेखन समय १५०१ ठीक हो तो सिद्धान्तकविजीको महोपाध्याय पद इससेभी पूर्व मिल चुका था। खरतर गच्छमें यह पद उन उपाध्यायको मिलता है जो अपने समयके उपाध्यायों में सबसे बड़ा हो। अत: सिद्धान्तकचिजीकी श्रायु उस समयभी काफी बड़ी होनी चाहिए और इसके बादभी सं० १५३२ से ४० सक वे शायद जीवित रहे हों तो वे काफी दीर्घायु होंगे। खरतर गच्छ पट्टावली में बिनभद्रसूरिजी १८ शिष्यों में इनका नाम सबसे पहेले व प्रधान रूमें दिया है।
साधुसोम गणि उन्हीं महोपाध्यायजीके शिष्य थे। इनके अतिरिक्त अभयसोम, विजयसोम, मुनिसोम नामक आपके अन्य शिष्योंकाभी उल्लेख मिलता है। इनमेंसे अभयसोम के शिष्य हर्षराज उपाध्यायने संघपट्टककी लघुसि बनाई, जो जिनदत्तत्रि शानभण्डार सूरतके प्रन्यांक ६१ के रूप में प्रकाशित हो चुकी है। विजयसोमकी सहायतासे महो सिद्धान्त रुचिजीने मांडवगढ़के श्रीमाल ठक्कुर गोत्रीय संघाति मंडन द्वारा भगवतीमत्र आदि लिखवाये थे। इसका उल्लेख विज्ञप्ति त्रिवेणीके पृष्ठ ७१ में मांडवगढ़के मान भण्डार के लिए सं १५३२ के आश्विनमें लिखित भगवतीसूत्रकी पुहिएका प्रकाशित है। अन्य शिष्य मुनिसोम रचित रणसिंह चरित्रकी एक मात्र प्रति उनके स्वयक सं. १५४० के अक्षय तृतीया को लिखित हमारे संग्रहमें है। यह चरित्र ६८० लोकों में सितपत्राथल दुर्गके तोडा कारित शालामें रह कर वाचनाचार्य हेमध्वजकी अभ्यर्थनासे रचा गया है। मैंने अपनी प्रति भेजकर उपा. सुखसागरजी द्वारा जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार सूरत से सं० २००४ में प्रकाशित करवा विचा। इनके रचित संसारदावा पादमूर्ति रूप पार्श्व स्तोत्र १ श्लोकोंका प्राप्त है।
Ke
ho
n
o
mma
m
minewwwwmoran emerunmumdvantIAAAAAAAmananesamanenaliralasa.dawnlidualiseminavratranslatecapamavaVINGAAwtaravasanasonali
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
Hete
णाले
CHEMIC
OCIEN
रहय किस प्रकार सहज और अमिटरूपमें स्पर्श कर सकेगा, इसका उन्होंने बहुत ही ध्यान रखा हे विधि-निषेधके वाक्य उतने सफल नहीं होते जितने कि उनके साथ विधेयक कार्यो के सफल और निषेधात्मक कुकृत्योंके दुष्परिणामको बतानेवाले दृष्टान्त । कथाओं का प्रभाव बहुत शीघ्र व स्थायी पड़ता है अतः लोक मानसके पारखी जैन धर्म प्रचारकोंने बिना किसी भेदभावके पौराणिक और लौकिक कथा दृष्टान्तोको अपनाया, उन कथानकों को किसी धर्मके माहात्म्यके नदाहरणमें गूंथकर अपने उपदीको प्रभावशाली बनाया, इस विषय में वे बहुत दार रहे है। खरतर गच्छीय उपाध्याय सूरचन्दने तो कुरानकी कथाको भी अपने 'पदे कविंशति' अन्यमें उधृत की है। लोककथाएं तो सैंकड़ों उन्होंने अपने दांचे में ढ़ाली है। इनमें से कई लोककथाएं तो बहुत ही लोकप्रिय हुई। उनके सम्बन्ध में संकड़ों स्वतंत्र रास थोपाई आदि रचे गए ।
जैन औपदेशिक साहित्यकी परम्परा बहुत पुरानी है। इसका स्वतंत्र सबसे प्राचीन ग्रंथ उपदेशमाला' एक विशेष शैली में प्राकृत पश्चाबद्ध रचा गया। इसके रचयिता धर्मदासगणि, श्रति-परंपराके अनुसार तो भगवान महावीरके शिष्य माने जाते हैं पर | ऐतिहासिक विचारणा द्वारा विद्वानोंने इनका समय ४-५ वी सदी तक माना है। इस ग्रन्थ का श्वेताम्बर जैन समाज में बहुत
अधिक प्रचार हुआ | इसकी सैंकड़ों हस्तलिखित प्रतियां समय समय पर लिखी जाती रही और सिद्धर्षि जैसे प्रतिभाशाली अनेकों टीकाकारोंने संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में इस प्रन्थकी टीकाएं बनाद । जिनमें कद टीकाएं तो १०-१२ हजार श्लोककी विशद है। उनमें अनेकों दृशान्त कथाएं गुम्पित की गइ। उस प्रथके व्यापक प्रचार और लोकप्रियताके कारण शीलोपदेशमाला और पुष्पमाला आदि औषदेशिक ग्रन्यों की रचना समय समय पर विभिन्न जैन विद्वानों द्वारा हुइ और उन प्रयोगाभी बहुत
%
MER
CRECRC
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
7
-
INGRESCORECASS
परिमाण ग्रन्थ औरभी लिखाए थे। दूसरी प्रसिभी मंत्री वाछाकीही लिखी हुई है। उसके लिखाने वाले भंसाली श्रीधरनेभी इससे पूर्व लाख श्लोक परिमित प्रतियां लिखवाई थी।।
साधुसोमजीकी विद्वत् परम्परा आगेभी चलती रही। उनके शिष्य का कमललाभके शिष्य चरणधर्मके शिष्य मुनिप्रक धर्ममेकने सं. १६०४१ बीकानेर में सुखदुःख विपाक सन्धि'की रचनाकी, जिसकी प्रशस्ति इस प्रकार है
" हिव खरतर गच्छपति, श्रीजिनभद्रसरीन्द्र । जेहनः पय सेवा, भगत सरनर वृन्द ॥ २१ ॥ पाठक पर श्रीसिद्धान्त-कृचिहि ससु सीस । चउदह विद्यान, जगमांहि तेह अधीस॥ तमु सीस थयउ नाचक, साधुसोम पदार। श्रुतसागरनउ हेलइं, लियउ तिणि पार ॥ ससु सीस कमललाभ, वाधक नुनि आ{जा) | तमु सीस चरणधर्म, महीयल माहइ वखाण उ ।। २२ ॥ जिदि तणइ प्रसादई, पाम्यष्ठ मई श्रुतमार । तेहना पय भदि भवि, होज्यो मुझ सुखकार ॥ २३ ॥
दिव संप्रति श्रीजिन-माणिक्य सूरि सुजाण | जिणि राजद करतइ, दीप्य संघ जिम भाण || २४ ॥ दाल-चरणधर्म तणय मुनिप्रभ, सीस अभिनत्र सुरतरो चिर अयट महीयलि धुवनी परि, य दिन ए मुनिवरो ।।
मुनि धर्ममेरु भणंति जे नर, संघि हियह धरइ । ते लहई ममकित सुणर भविश्रण, भत्रसमुद्र सुखइ तरह ॥ २५॥" यह धर्ममेक बहुत अच्छे विद्वान थे। जिनकी रचित रघुवंश वृत्तिकी एक प्रदि जैसलमेर भण्डारमें है। टीकाका परिमाण ८ हजार श्लोकों ( मूल सहित १० हजार) का है। प्रशस्ति इस प्रकार है
OCIAL
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति fereer at शिष्य धर्ममेरु विरचितायां रघुकाव्य टीकायां वंशप्रतिषेव राक्षी राज्यनिवेशो नामैकोनविंशतिष्ठमसर्गः ॥ १९ ॥ इति श्रीरघुवंशटीकाखमाप्तेति । श्रेयो भूयात |
भन्डारकर ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट पूना, आमेर दिगम्बर भण्डार+, ओरियन्टल कालेज लाहोर, और हमारे संग्रह में भी इसकी प्रतियां हैं।
धर्ममेने शिशुपालवधी टीकाभी बनाई है। जिसकी एक मात्र प्रति श्रीविनयसागरजी के संग्रह में ( पत्र १४ से १९५ ) देखनेको मिली थी इनकी रचित 'एकविंशतिस्थानप्रकरणावचूरि' जैनररत पुस्तकालय, जोधपुर में देखनेको मिली थी। इसके आगे इनकी परम्परा और कबतक चली ? प्रमाणाभाव से नहीं कहा जा सकता ।
पुष्पमाला ग्रन्थ पर स्त्रोपस बृहद्वृत्ति और साधुसोमकी इस लघुवृतिके अतिरिक सं. १४६२ में अंचलगच्छीय जयशेखर रचित अरि ( प्रथामन्थ १९००) का उल्लेख जैन ग्रन्थावली और उसीके आवारसे जैनरत्न कोशमें भी हुआ है। अन्य एक अज्ञात टीकाकी कई प्रतियका उल्लेखभी जैनरस्न कोशमें है। उनमें क्या मिलता है ? यह प्रतियोंको देखने परही कहा जा सकता है ।
पुष्पमालाकी राजस्थानी भाषा टीका, जो बाळावबोधके नामसे प्रसिद्ध है । सरवर गच्छके वाचनाचार्य रत्नमूर्तिके शिष्य मेसुन्दर रचित मिळती है, जो ६००० लोक परिमित है, इसकी सं. १५२३ में लिखित प्रति प्राप्त होनेका उल्लेख जैनreaकोश में किया गया है । अतः उसकी रचनाभी इसी समय के आसपास हुई है । हमारे संग्रहमें इस बालादबोधकी पांच
+ सूचि चरणधर्मको कर्ता लिखा है, पर उनके प्रशिष्य धर्ममेरु रचित दोनाही संभव है।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
MESSAGARLSEX
अपूर्ण प्रतियां है, इससे इसके प्रचारका अनुमान लगाया जा सकता है। इस बालावबोधके रचयिता मेरुसुन्दर बहुत बड़े भाषा टीकाकार थे। इनके अनेक जैन जनेतर छन्द, अलंकार, काव्य, सिद्धान्त व धर्मग्रन्यों के बालावबोध मिले हैं जिनमें कथाएंभी प्रचुर परिमाणमें दी गई है। उनसे पटिशतक बालावबोध छपभी चुका है।
पुष्पमाला प्रकरणमें हिंसा, अहिंसा, विविध प्रकारके दान, शील, तप, भाव, सम्यक्त्व, व्रत, समिति, गुप्ति, स्वाध्याय, विहार, कत्य, अकृत्य, मोक्ष देतु, उत्सर्ग-अपवाद, इन्द्रियजय, कषाय निग्रह, गुरु शिष्य स्वरूप, आलोचना या दोष निवारण वैराग्य, विनय, वैयावृत्य, आराधना, विराधना आदि विषयोंका तुषान कथाओं के साथ ही सुन्नर विमन मिलता है। अतः यह ग्रन्थ हर व्यक्ति के लिए पठनीय और लाभप्रद है पर खेद है अभीतक ऐसे उपयोगी व महत्वपूर्ण प्रन्थका राष्ट्रभाषा-हिन्दी | मावि में अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ । इससे जन साधारण इसके महत्त्वसे अपरिचित रहा और जो लाभ उसे मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका।
इसी प्रकारके अन्य प्रन्धरत्नोंसे जैन साहित्य भण्डार भरा पड़ा है। पर वे अधिकांश अन्य प्रकाशित हैं और जो थोडसे प्रकाशित हुए हैं वे भी प्राकृत संस्कृत या पुरानी लोक भाषाओं में हुए हैं जिससे विद्वानों तकही उनकी जानकारी सीमित है। केवल साधु-साधिके व्याख्यानमेंही कुछ प्रन्योंका उपयोग यदा कदा होता है।
वर्तमान युगमें नैतिक और धार्मिक प्रन्धोंके स्वाध्यायकी रुचि निरन्तर घटती जा रही है। वर्तमान शिक्षामें तो उनका स्थान रहा ही नहीं और मुनि यति गणभी आगे जसे स्राध्यायशील नहीं रहे । यद्यपि पहले की अपेक्षा अब प्रन्म बहुत सुलभ
SECRETS
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
महो० सिद्धान्तवि शिष्यों में प्रस्तुत लघुवृत्तिके रचयिता वाचक साधुसोमकी ही रचनाएं सबसे अधिक मिलती है। संग्रहणी अवचूरी इनकी सबसे पहली रचना है, इसकी प्रशस्ति जैसलमेर भण्डारकी नवीन सूचिके पृष्ठ २६९ में इस प्रकार छपी है
अन्त - श्रीखर ( तर ) गच्छे श्रीजिनभद्रसूरि शिष्य श्रीसिद्धान्तरुचि महोपाध्याय शिष्येण साधुसोमगणिना परोपकृतये अबचूरिरियं लिखिता चिरं नन्यात् संवत् १५०१ वर्षे श्रीमालवदेशे श्रीमंदवदुर्गे श्रीसिद्धान्तरुचि महोपाध्याय पादाम्बुजचंचरीकेण साना यथावबोधं लिखितेयं सतां हर्षाय भूयात् ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्री ॥
इनकी अन्य रचनाओं में जिनवल्लभसूरि कृत चरित्रपंचक वृति सं० १५१९, नन्दीश्वरस्तव वृत्ति तथा जिनेश्वरसूरिकृत चंद्रप्रभ वृत्ति अपूर्ण प्रति बीकानेरके खरतर आचार्य शाखा भण्डार में प्राप्त हैं, वे भी आपकी ही रचनाएं लगती हैं। पंचायती भंडार, बड़ा उपासरा जैसलमेर में आपके रचित स्तोत्रों के संग्रहकी ६ पत्रोंकी प्रति देखी थी। नागद्रह पार्श्वस्तोत्र, संसारदावास्तुति er ( केशरियानाथ भण्डार जोधपुर ) का उल्लेख भी हमारे खरतर गच्छ साहित्य सूचि में है ।
tariat her सूत्रकी दो प्रतियां भावनगर और जैसउमेरके सपागच्छीय भण्डारमें सं० १५१७ और १५२४ की पाटण में लिखित प्राप्त हैं। उनकी २८ और २ (३) ६ लोकों की प्रशस्तियां वा साधुसोमगणिनेही रची थी। जिनमें से प्रथम प्रशस्ति जैन सत्य प्रकाश वर्ष ८ अंक १० पृष्ठ २९२ में प्रकाशित है और दूसरी ऐतिहासिक महवपूर्ण प्रशस्ति ३(२) ६ लोकोंकी हमने जैन सत्य प्रकाश वर्ष २० अंक ७ पृष्ठ १४६ में प्रकाशित कर दी है। इनमेंसे भावनगर संघ भण्डारी स्वर्णोश्वरी प्रति महो० freeही बाछा सेर शाह मलूकी भार्या माणकदेने लिखाई थी । उससे पूर्व मी मलूने एक लाख लोक
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीयनिवेदनम् ।
Minimomsocinemama
PRASHTS
HAIRITUNESenancerp
भो भो विचारचतुरा विचक्षणचणाः पाठकप्रवरा ! समादीयतां भावत्के करपरुहे समर्प्यमाणमेतदन्वर्थनामकमुपदेशमालेत्यपराभिधानं पुरुषमालाप्रकरणरत्नं । प्रणेतारश्चास्य मूलमन्यस्य स्योपशमवभावनाचनेकमन्थरत्ननिर्मापका: श्रीमलधारगच्छनमोऽ. अणनमोमणयः श्रीमद्धेमचन्द्रसूरिपादाः। विकृतमप्येतत्स्वयमेव सूरिवरैः । तत्र सवृत्तिकं संशोध्य प्रकाशित सततमागमादिसाहित्यप्रकाशनबद्धकः श्रीसागरानन्दसूरिभिः । सा च वृत्तिरतीय विस्तृता गहना चापि, अतो मन्दमेषसां नात्युपकारिणीति विभाव्येय लघुवृत्तिस्तामेव बृहद्वृत्तिमुपजीव्य संक्षिप्ता सरला संक्षिप्तरसंस्कृतकथानकान्विता च सन्दब्धा श्रीमल्लाधुसोमगणिभिः। अस्यैका प्रतिनोंतिप्राचीना शुद्धप्रायाच रक्पथेऽवतीर्णा आचार्यप्रवरश्रीमजिनरत्नसुरिवराणामन्तिके शरनवाकेन्द(१९९५)मिते वैक्रमे तीर्थाधिराजश्रीशर्बुजयस्य पवित्रछायावर्तिपादलितपुरीयचातुर्मास्यां । तामवलोक्य स्वल्पमेधाविनामपि सहजयोधोत्पादिकेयमिति मत्वाऽस्या | मुद्रणाभिलाषः समजनि मम हृदये। अतस्तदेव कर्तुमारब्धा मुद्रणाहीं प्रतिः, समापिता च कति चिन्मासाभ्यन्तरे । ततः सुरेन्द्रनगरस्थ श्रीसकसत्कचित्कोषीया प्रतिः प्राचीना शुद्धप्रायापि च सम्प्राप्ता श्लोकबद्धशजयमाहात्म्यायनेकपन्यप्रकाशने सतलोद्यमिना श्रीमतां मुनिप्रवरश्रीमन्मङ्गल विजयानां सानिध्यतः । तस्याः प्रान्ते निम्नलिखिता पुस्तिकाऽस्ति
संवत् १६३८ वर्षे जेटवदिसप्तमीतिधौरविवारे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनचन्द्रसूरिविजयराज्ये श्रीविक्रमनगरे साध्वी प्रवर्शिनी सुवर्णलक्ष्मीशिभ्यणी प्रवर्तिनी रत्नसिद्धि, सस्मिध्यणी प्रवर्तिनी लावण्यसिद्धिगणिनीप्रतिरिय मुंहती भगवादे विहरापिर्त स्वपुण्याय
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
SN S
i
mirn...........
..
न्याहानिनिमित्तं । चिरै नन्दतु ।। पत्र १११ । ___ एवं प्रतिद्वयाधारेण संशोधिवेयं मुद्रणाही प्रतिः । ततो मुनिनवाकेन्दु(१९९७)मिते चक्रमे प्रारब्ध मुदणकार्यमस्याः, पर भवितव्यतानियोगेन मुद्रणाधिपतेरव्यवस्थावशादियद्विलम्दोऽजनि प्रकाशनेऽस्याः ।
प्रस्तुत लघुवृत्तिनिर्मापकाः श्रीमत्याधुसोमगणवः कर्म भूमण्डलं मण्डयामासः स्वपादविन्यासेन ? कस्मिन् गमछे कस्य च विनेयवरा अभूवन् ? के के चान्ये प्रथाः महन्धाः १ इत्यादिवृत्तरत्वस्या एवं बीकानेरवास्तव्य साहित्यरत्न श्रीमान् अगरचन्द्रनी नाहटा लिखितप्रस्तावनातोऽवसेयः।
अस्याः प्रकाशने द्रव्यसहायकानां नामसूचिः पृथग्निर्दिष्टाऽस्ति, ये थे महानुभावा अस्मिन् शुभकार्ये वदारवृत्त्या स्वद्रव्यप्रदानेन सहायकाः सञ्जातास्ते सर्वेऽपि शतशो धन्यवादाही अनुकरणाश्विान्येषामपि धनिकानां ।
विहितेऽप्यायासता प्रफसंशोधने छद्मस्थस्वभावसुलभत्वान्मतिमान्यास्प्रिटींगदोषावा सजातास्त्रटयो या दृक्पथमायावा मे, तासां शुसिपत्रकमुपन्यस्त, सदतिरिका अपि याः काबनरखलना रपथमवतरेयुस्ता सम्मानीयाः प्रकृतिकृपालुभिः सजनैरियभ्यर्थयते । सं. २०१७ श्रा. क. पञ्चम्यां
स्वर्गीयानुगोगाचार्य श्रीमत्वेशरमुनिजी कल्याणभुवन-धर्मशाला
गणिवरचरणेन्दीवर हिरेफो पादलितपुरे
बुद्धिसागरो गणिः।
ALSAS
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थूलविषयानुक्रमः ।
SARASSAGESEX
विषयनाम टीकाककृतं मगलाचरणम् । प्रयकारकृतं मालाचरणम् । मनुष्यभवदुर्लभवे इष्टान्तदशकलोकाः ।
दानाधिकारी प्रथमस्तत्रामयदानद्वारम्बहिसाधर्मोपदेशः । जीवरक्षायां वज्रनामष्टान्तः । जीववधविपाके भृगापुत्रकथानकम् ।
२ शानदानद्वारम्ज्ञानस्य भेदप्रभेदाः । शानदातुः स्वरूपम् । सुझारूपकरवे उदाहरणम् ।। सूत्रज्ञानग्रहणविधिस्तत्रास्खलितादिगुणे विद्याधरकथानकम् ।
पृष्ट विषयमाम [ज्ञानग्रहणयोग्यतानिदर्शक पुरन्दरनृपपुत्रकथानकम् । सूत्रमहगो गुणाः । ज्ञानस्वहिकामुश्मिफगुणे सागरचन्द्रकथा ।
३ उपरम्भदानद्वारम् । सुपात्रदाने नृपसूरसेनसुदयोस्टाम्तः । | पयशान्तादेमिस्त्र महत्कावे । वानादायकानां दारिद्यादिफला । दानादायकानामशोभनीयले धनसारश्रेष्ठिकथा ।
२ शीलाधिकारः। शीलमाहात्म्यवर्णनम् ।
शीलरक्षणे रति-ऋद्धि-बुद्धि-गुणसुन्दरिकथामकानि । २२ , शीलवत्वे सीताख्यानम् ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Hinmenerwayswammevsuesmmmssan
MAMANESARISHABHANImammSMANORAMAYSNIMHATREATMarineerwearmyammmmwetanyamaumergyAwimmyponymmetNTAI
m
parma
PORTIGYE
S
हो गए हैं अतः उनका स्वाध्याय बढ़ना चाहिए था। ऐसे प्रेरणा दायक प्रन्योंके प्रचाराभावसेही आज भारतमें अनैतिकताका
बोलबाला है, जो हमारे सज्वल भविष्यके लिए बहतही चिन्तनीय विषय है। अध्यात्मप्रधान भारतका इस प्रकार नैतिक तापनग वर्दथः भितीय और पानही असरने वाला है। यदि हमें विश्वमें अपनी पूर्व प्रतिष्ठा बनाये रखनी है बढा
हमारे जीवन में घुसे ए व बढ़ते हुए दोषोंको दूर करना होगा और वह मानवीय सद्गुणों के विकास द्वाराही होना सम्भव है। आशा है राष्ट्रके फर्णधार, विचारक एवं-हिसैषी व्यक्ति इस गम्भीर समस्याकी ओर शीघ्रही ध्यान दे कर और हमारे मुनि गण ऐसे सदगुण प्रस्थापक प्रथरत्नोंके स्वाध्याय और प्रचारमें अधिकाधिक मनोयोग दे कर राष्ट्रके गौरवको समुज्वल करेंगे।
*%A4%
ACRECARE
है. अगरचंद नाहटा।
AKESERIES
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयनाम
इच्छामिवाविदशविध सामावारी सामायिका विश्वास्त्रिकस्वरूपम दीक्षान भर्दा | चारित्रप्रतिपत्तिविधिः
तत्र विनीतस्य स्वरूपम् । चारित्रप्रदाने शुभतिथ्यादिविचारः । उपस्थापनाविधिः । उपस्थापनादाने कालक्रमः पजीवनिकाययतनासु धर्मरूध्यमगारवृत्तम् । सत्यासत्यवादिनोर्गुणदोषनिरूपणम् । सत्यवादिकालिकाचार्यकथानकम् ।
.
सत्यवादिर वसुनृपाख्यानम् । परिहारे नागदत्तकथानकम् । नवगुप्तिविशुद्धब्रह्मपालनोपदेशः । सुदर्शनान्सः ।
थूलधानम् ।
१६
विषयनाम
९६ परिग्रहस्वासारतानिदर्शनम् ।
९७
परिवहस्य त्यागे कीर्त्तिचन्द्रनृपवृत्तम् । १०१ रात्रिभोजन परिहारोपदेशः ।
रात्रिभोजनम्पटर रविगुप्तविमाख्यानम् ।
१०५
१०५ एतराषट्ररक्षणे कष्टार्जितरस्नरक्षकददिद्विकथानकम् । १०६ प्रवचनमा तृपालनोपदेशस्तत्स्वरूपं च ।
*.०६
तर्यासमितिनिश्चलत्वे वरदत्तमुनिवृत्तम् । भाषासमिती सङ्गतमुनिकथा । दूषणासमितिवर्णनम् ।
१०८
194
११२ धारकरम् ।
१३२
११५
११६
११७
अमाकाहारत्यागे धनशर्ममुनिवृत्तम् । नेपणीयाहारस्यागे धर्मरुचिमुनिकथा तृतीयसमितिपालनोपदेशः । तत्र सोमिलमुनिवृत्तान्तम्
पारिठापनासमिती धर्मविधानम् ।
११९
२१ मनोगुप्तिस्वरूपम् ।
पृठ
१२३
१२४
१२५
ર
१२९
१३०
१३४
१३६
१३७ १३७
१३८
313 ४०
१.४०
३४२
१४.
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५३
१७२
१४६
१३४
विषयनाम नत्र जिनदासकथानकम् । वचनगुप्ती गुणप्ससाधुकथा । कायगुप्तिस्वरूप कायगुप्तसाधुकथानकम् । विधिपूर्वक सूत्रमधीत्य देशांतरे विहरेसाधुः । तत्र पार्श्वस्थादिसुखशीलजनसङ्गवर्जनोपदेशः । पार्श्वस्थादीनां स्वरूपवर्णनम् । मोनिग्रहानिग्रहे प्रसनबन्दराजर्षिकया । मनोनिमहाभाये वेबमानस्य विद्यम्बकत्वमेव । व्यवहारनिश्चयबोयोरपि माननीयता ।
तत्रापि भ्यवहारस्य बलवत्वम् । जातीर्थकरोद्देशेनापि संयमशिथिलीकरणे दोषः ।
श्यकाशपणावपि संयमपाटनस्य बहुगुणत्वम् । देशविरताना इग्यस्सवस्थापि करणीयता। शादिभ्योऽप्यनन्तगुणत्वं साधुसुखस्य । सम्यकसामायिकस्यापि राज्यसम्पयापकत्वम् ।
१७४
विषयमाम
६करण इन्द्रिय जयद्वारम् । १४५
इन्द्रियभेदप्रमेदौ सालो स्वरूपं च ।
इन्द्रियस्वामित्वद्वारम् । १४७ इन्द्रियाणामाकृतयः ।
सासी बाइल्यादिमानम् । | सासां विषयवारम् ।
इन्द्रियवशगानां दुःखफलस्त्रम् । १५. ओबेन्द्रियविपाके सुभद्राकानक्रम् । 1५७ चक्षुरिन्द्रियविपाके लोलामाख्यानकम् । The नाणेश्यिविपाके राजसुतकथा । १५८ जिदेन्द्रियविपाके रसलोलनृपकथा । १५९ स्पर्शनेत्रियविषाके सुकमालिका[राज्ञिजितशनिपकाया ।
४ कषायनिग्रहदारम । १६९ ! कषायशदार्थः १७. सेषां भेदाः ।
Acaca
१७९
१७९
१८.
१८२
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAAA a AG4
०३१३ ३१५
विपक्काम
विषवनाम तेषां स्वरूप ।
५ गुरुकलवासद्वारम् सम्वसमादीनां तेषां कालमानम् । चतुर्वपि सेषु न्यूनाधिक्यम् ।
नुरुलक्षणे गुन्गुणपब्रिशिका । क्रोधविपाके अचङ्कारितमष्टिकाकथा ।
MI, विधषिसम्पदादिकापि गुरुगुणनिशिका । कोषदुष्टस्खे आपकसाष्टान्तः ।
सारणावारणाप्रदातुर्गुरोः शरणागतस्त्र मस्तकच्छेदकोषमा । माने मदाष्टकस्य स्याश्यत्वम् ।
तत्रैव जननीपुत्रयोरुदाहरपो। जातिमदे ब्रह्मदेवद्विजकथा ।
विषयप्राधान्य सुशिष्यलक्षणे ।
विनवाधिक्ये राज्ञस्सूरेश्च संवादः ।। मायाविपाके वणिक्सुतावसुमतीकथा । शेषकषायेभ्यो लोभस्याधिक्य तथिग्रहोपायन ।
कुशिष्यस्वरूपम् । लोभाषिक्थे कपिलकेवलीकथा ।
गुरुकुलासे वसतां गुणोपदर्शनम् । १९५
गुरुकुलधामणे पन्यसाधुक्या । तत्रैव शुद्धकापासभूतिकया। सामान्येन कपायाणी दुरन्सत्यम् ।
गुरुकुलबासस्थागे दोषास्तत्र कूलवालकसाघुकथा । रागद्वेषमय करायाणाम् ।
६आलोचनाद्वारम धि-स्नेह-विषयानुरागद्वेषे च वक्ष्मीधरादिभ्रातृचतुष्कयतम् । २०५ | सनद्वारषट्कम् ।
* इत: प्रारम्ब ४५ बागदपरावरित घूमसंशोधनस्यासावधानता।
-
- .
३.
१९७
३१०
- A
२०१
२०६
૧૨૨
vuwaunuman
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
torrenomenormoneyerwepeewwwewMMMMMMImpoteowmummmmware
tamperammHOTRAMIRHIOMOntimeonamumabhias
A
mritain..
..
PERMINS
.
विषयमाम प्रीलनिश्चलत्वे देवसिकाचरितम् । श्रीलविराधनविपाके मणिरथनूपचरितम् ।
३ सपोऽधिकार। सपोमाहात्म्ये मन्दिवेणमुमितम् । " सपहारीचरितम् । पाप्रभाषक विष्णुकुमारमुनिचरितम् । सपःप्रभावे स्कम्पकमुनिचरितम् ।
४ भावनाधिकार
१ सम्यक्त्वशुद्विद्वारस्आधबारे सम्यक्त्वस्वरूपम् । द्वितीयद्वारे हामक्रमः । केवों सम्यक्रवं भवतीति तृतीयं बारम् । सूर्यद्वारे सर्वगुणाधार सम्यवस्य । सम्पपमिश्वलत्वेऽमरदत्तभाष्टिान्तः ।
पविक्रमाख्वावकम् ।
विषयबाम सम्यकत्वमाहारम्ये पुद्गलपरावर्तस्वरूम् । पञ्चमद्वारे सम्यक्त्वपञ्चस्वरूपम् सम्यक्त्वस्य लिचतुष्कम् ।
२ चरण शुद्धिद्वारम। ५स्य नित्यम् ।
देशाधिरती सेक्षेपेण द्वादशवतस्वरूपम् । तत्त्वरसामायिकस्वरूपम् । सस्य करणे शास्त्रीयो विधिः (टिप्पणि)। पौषधस्वरूपम् । सस्याटम्यादिपर्वकर्तव्यता । अपर्वस्वरि तत्कर्तव्यताप्रतिपादकैः कृत शास्त्रपाठपरावर्सनम् (विप्पणि)। १० विविधाहारोपोषितस्यैव देशल अवारपौवमो भवतीति (रिष्पणम्) सर्वचरणे चरणसमतिकास्वरूपम् । सदम्तर्गत द्वादशभावनास्वरूपम् ।
द्वादलभिक्षुप्रतिमास्यरूपम् । ५८ | पियविशुख्खादिका करणसससिका ।
..
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६३
२६६
२६६
विषयनाम उत्कृष्टजघन्यस्वाध्यायप्रमाणम् । मन्तसमये नमस्कारमन्त्रस्यैव स्मरणीयस्वम् । नमस्कारस्यैहिकफले शिवकुमारकथानकम् । देवसानिध्ये श्रीमतीनाविकास्था ।
,, बीबपुरफलप्रापकासोदाहरणम् । पारत्रिके फले चढविलचौरकथामकम् । " , हुण्डियक्षकथानकम् ।
११ अनायतनत्यागद्वारम् । स्वाध्यायेऽनायनत्यागोपदेशः । विभूषास्त्रीसंसर्गादीनामनायतनाथम् । अतिदुष्टरवं स्त्रीसंसर्गस्य । स्वीरजदुष्टत्वेऽहनकमुनिकथा । अतिदारुणवं संयत्तीसङ्गस्य ।
अतिभयरत्वं चैत्यद्रयादिनाशादेः । वाल्याम्यविनाशफले साशश्राद्धकथा ।
FRAMETERACY
विषयमाम | महामर्थफलत्वं संयतीसेवनस्व । २६५ परतीथिकादीनामयनायतमत्वम् । कुसङ्गत्यागे चित्रभानुसोभादृष्टान्तौ ।
१२ परपरिवादनितिद्वारम् । २६८
साधुखमकीर्तिच पापरिवादनिरतस्य स्वोस्कर्षपरस्य च। महाघोरकमबन्धफलस्वं परपरिवारस्य । परपरिवादे अपककुन्तलादेव्युवाहरणौ । परिवार
दोपहरणम् । २७०
१३ धर्मस्थिरताद्वारम् । सर्वविरतिप्रणाशक्तस्य जिनपूजोपदेशः ।
अष्टविधपूजाया वर्णनम् । २७४ | अष्टविवपूजाफले कीरयुगळायुदाहरणाटकम् ।
साधुश्राद्धधर्म स्वत्योपदेशः । २७६ विनाधर्मेण वान्छितार्थप्राप्तिः ।
२७०
WZMKMPOKMATKATIMES
२७३
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयवाम धर्मवस्वे धनमित्रकथानकम् ।
१४ परिज्ञाद्वारम् । वत्रान्तिमाराधनोपदेशः। दुर्लभवं समाधिमरणस्य । सपराक्रमादिभेदयतुषक मरणस्य । सत्र जीतमपभाष्योकत्रयोविंशतिद्वाराणि ।
पृ ।
विषयनाम
५ शालोपसंहाराधिकार स्वरूपेनापिलिमिप्रेम बोधे समरनृपकथानकम् । प्रकरणोक्तरोचनेऽधिकारिणः । प्रकरणकृयामसूचनम् । प्रकरणेऽधिकाराणो गाथानां च सपथ्या है
प्रकरणकारकूतान्तिमममलम् । २५२ टीकात्मशस्ति
२९१
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धिपत्रकम् ।
-00
विवृत्ता
शुद्धम् विकृता जम्म
मशुवम् सम्भिवा सिद्धे नि
शुखुम् सम्भिक सिद्धेवि
होइ
सिज्जा
सिज्म
कुष्टादि विझयो
बुझदि विशेयो
दोसाण 'पराक्स:
दोसाण परावतः
रमित
रजिने
वताये
"सेवन
चमुस्तं चैताव शानदान" शील
पालने
सील सञ्चात
पालने 'त्यादिन पापविति निवेता
पासमिति नियनता
'यस्वे
'पनवेद
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
wesmwwraamwamyawyamanwrwwwwwwemwangrewwwwpanjameerweniwarivimeoparaguaranweeyawneeti
TRPr
immmmwwwgoneyawwaryaviroyaymahanmproom
वृक्ष
२३६ २५६ २१८
३२६
RECER%
२५
२५५
विश्वनाम मालोचनादायकगुरोर्गुणाटकम् । तत्रैव व्यवहारपत्रकस्वरूपम् । मालोचकस्य अतिकुल सम्पत्याद्या गुणाः । मालोचनाबिधिद्वारम् । सूक्ष्मेऽपि दोषानालोचने ऋटुकविपाकत्वम् । तबाहकुमारकथा । इलापुत्रकथानकम्
७ मवविरागद्वारम् चतुर्गतिकजीवानां दुःखमेव बाहुश्येन । जननीजनकादिनेम्योऽस्थिरत्वम् । जननीमेरिण चूलनीकथानकम् । पितृप्रेरिण कमकरथनृपकथानकम् । भ्रातृप्रेरिज भरवाख्यानकम् । मानिस्यि सूर्यकान्ताराज्ञिकथा । पुत्रप्रम्गि अशोकचन्द्र(कणिक)नृपाण्यानकम् ।
বিঘনাদ १२२ विषयासारतानिदर्शनम् । ३२३ विषयगृती परिहारे च जिनपालित--जिनरक्षितष्टान्तः । मनुजेषु यावडेवेवपि वास्तविकसुखाभावनिरूपणम् ।
८विनयद्वारम् ३२८ | विनयशब्दार्थस्तथाकाराश्च ।
पथविधस्थापि बिनयस्य पृथक् २ स्वरूपम् । २३३ | विनयस्यैहिकामुष्मिकाले सिंहस्थराजकथा ।
९वैयावश्यद्वारम् ३३८ दविधरवं वैयावृत्त्यस्य । ३५१
सर्वतोऽपि गरियस्य वयावृस्यस्य । । सत्र धनदराजसुतकथानकम् । गृहस्थवैयावृत्ये साधूनां दोषनिरूपणम् । तन्त्र सुभदासाध्वीकथा ।
१० स्वाध्यायरतिद्वारम् । ३४५ | स्वाध्यायस्य परममोक्षानस्थम् ।
२५६
२५२
२६०
KHARA
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
अशुद्धम
स्पर्शने
प्रशमसुख
१६९ १६९
स्पशने पृथ्वीवृत्तम् य वानां
हरिणीवृत्तम् । यदेवाना
रममात्र
१६९
समवंतीति धर्मदेशना म ग्यकुलाचा भा रिद्रयमिति
शुद्धम् * दारभ्या प्रधामसुन्य 'रमणमात्र समवेतीति धर्मदेशना योग्यकुलाना भानेन्द्रियमिति रमणिया
१७१ १७३
१९२
मोक्ष प्रार्थय प्रातर्देशन सयलाण साम्प्रत समानु सुंबात्तम
१७३
१२५
श्रीण मोर्स मोक्तोऽपि
श्रीणि भोसे
१९४ १९४
मोक्ष प्रायते प्रातदोषा सयलाण साम्पत 'समानु टुंबासक 'सारणार्थ विहवेणु वडिय तरः
प्रत्तोऽपि भुझे
१८०
नवणार्थ
1८०
१८१
भुबन् सवत्र बड़ा
सर्वत्र
अहिय तस्करैः
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
अशुद्धम्
शुहम्
शुन्हम् मधुवे मसा
.
अधुचेसा'
NA
'मूतो
.
:::.
२१२ २१२ ३१४ ३१४
MS
कत्तय पृच्छेद प्रायशिस तुम्मान्
३२४ ३३० ३३३
२०५
कर्त "वन्दूरि गहीत मागरसज्जवलनाना विणिमहो बग्गियो ससुरासूर 'नदाइले प्रचिद्वार 'प्रहमाह गभीरो নিবছিলনা मुक्का
कर्स ঘৰি गृहीत লালনसम्ज्वलनानां विणिमहो वणियो ससुर सुरं गंदाइणो प्रतिद्वार 'प्रहगाथामाह गंभीरो 'निर्वाहण
करिष्य कर्सभ्य पृथ्लेद प्रायश्रित सुरगान बडया श्रेणिका संसा [सनुचिता सुजानस्यों भीताभ्या कथमप्य"
३३७ २५५
*णिका समारं सङ्कचिता] भुआनस्पों मीवाभ्या कथमय एवं
२४७
१४
२११
२४७ २४२ २५॥
२१२
चुकाणं
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
EMATER
अशुखम सुश्रूषणं सियन खि
a
२५२
करणभूत
सिय नस्थि
मपक्रम
२६०
maAMITRA
२६१
I
. www ५०-४०'
उत्पाटयेति मोक्षामात्य तात्रय "क्रियते
WWWM 4500
उत्पादयति मोक्षावं साधण्य "स्क्रियते मूल नम स्थितवन्त "प्रभाव)सथैवा धनं धनं
करणमूर्त "मपकमा निरमण' हुति अस्माल्ल्यान सामाः নখ ওর "हीकसच्याः मातापि
'स्थिवर्त 'प्रभ(को)त्तथैवा धनं घन
इंति प्रत्याख्यान सामग्प्याः अन्यथाऽऽ "जीकर्तव्याः मानाय घोष
गृहति इश्वेवमदगम्यम् ।
मान्य
२०५
दोषा
.
२२५
'था
पत्रांक
হৃদি २९. स्थाने ३९० २९८ स्थाने ३९॥
नम्थे ३.. " ___३०४२ सुद्धा
ManmamiNINDURINualvirendinwindianthaldhamamalniliomadimandatabahauriticipediae
बाक्वैस्तुष्ठ
वाक्येस्तुष्ट परदोस
परदोस
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
E
H
o
m
enmegreerondigwww.maayooomnonymmonwapnnnnn.mmmsvm
.........TH
शुद्धमः
स्वर्ग
रोध
१५५
भशुम् स्वग वदन्ते वर्षाकाले परीकर करणीय
१२५
प्राप्तयादिका तीथकों
प्राश्यादिका तीर्थों
१५८
भाविः
अन्दते वर्षाकाले परिकर करणीय ' विस्वम् दोसण कंटट्रिय संपेक्षणाइ गुरुवाण वि
इत्याई
SAKCEKACC
दोसणे कठष्ट्रिय सयेणाई गु भाण वि
'नहनाः वैशोधा মায়ু शायम्से पावसंबए सस्ववीर्य
HWANImaxarmaASSAMACHATERIALoans
१६५ १६६
१४६
निक्कयो
निप्पर्कयो मार्ग
प्रत्ययावा क्षीयते नमें संजए स स्ववीर्य "शटो * लोभाख्यो
बिभक्ति
"आठ
१५४. १५४
पलित
लोभण्यो
PURPANAND
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ॐ अहं नमः ॥ लक्षाधिकनूतनश्राद्धकर्नुशासनप्रभावकश्रीमञ्जिनदत्त-कुशलम्बरीश्वर--क्रियोद्धारकश्रीमन्मोहनमुनीश्वरक्रमकजेभ्यो नमो नमः ॥ मलधारगच्छगगनाङ्गणनभोमगिश्रीमदभयदेवसरिशिष्यश्रीमद्धेमचन्द्रमरिसङ्कलिता श्रीमत्वरतरगच्छालङ्कारहार-जैसलमेरुजावालि. पुगबनेकचि कोशसंस्थापक-श्रीजिनभद्रमूरिवरा लेवासि-महोपाध्याय श्रीसिद्धान्तरुचिविनेय-श्रीमत्साधुसोमगणेवर
गुम्फितया लघुवृत्या समलङ्कृता उपदेशमालेल्यपरनामधेया--
* पुष्पमाला
# जयति जगदेकभानुः, प्रकटितसकलार्थसार्थपरमार्थः प्रहनतमाः परमात्मा, प्रभाम्बुधिमुनिजनकृतार्थः ॥१॥
श्रीहेमचन्द्रगुरुणा, विवृत्तामपि विस्तरेण विततार्धाम् । विवृणोमि पुष्पमाला-मल्पाक्षरमल्परुचितुष्टयै ।। २॥ ४ इह हि पुरुषार्थेषु प्रधानतमो धर्मः, धर्म चोपकारन्तस्मिन्नपि भावोपकारः, तत्रापि स्वपरोपकारः । स च भगवद्भक्तिभावितस्य ! है. सम्यक्तत्वोपदेशसुसाध्या, स च शास्त्ररूपापन्न एवं स्वस्थ स्मृतिद्वारेण परेषां च ज्ञाताज्ञातहिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिस्थापनज्ञापनद्वारेण ।
चिरं खसाध्यं साधयितुमलं, इति परिभाव्य भगवान् ग्रन्थकारः पुष्पमालेत्युपमाननाम्ना प्राप्तप्रसिध्ध्युपदेशमालाख्यं प्रकरणं चिकी
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
तदादौ प्रत्यूहव्यूहव्यपोहेन चिकीर्षितशास्त्रपरिसमाप्तये श्रोतृप्रवृत्तये शिष्टसमयप्रतिपचये च विशिष्टेष्टदेवतानमस्काररूपभावमङ्गलगाँ , तावदिमां गाथा.....
सिद्धमकम्ममविग्गह-मकलंकमसंगमक्खयं धीरं । पणमामि सुगइपञ्चल-परमत्थपयासणं वीरं ॥१॥ * व्याख्या-इह "संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः। चालना प्रत्यवस्थान, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा।।१।।" इति, तत्र संहि
तोक्तैव, यदविभागस्तु सुगमः, चालनाप्रत्यवस्थाने दुर्घटत्वग्रावसङ्घ, न तु प्रसवलमलनोऽल्पधीनात्र सञ्चारमारचयितुं पटीयानिति ते 1 उपेक्ष्य पदार्थादिनैव मन्दमतिसत्त्वोपकृतये यथाप्रति व्याख्यायते-तत्र विशेषत ईर्त-परमपदं गच्छतीति "पचाद्यच्"[पा-३-१-१३४] - विधानाद्वीरः, यदि वा 'ईरणमीर' इति भावे घम्, ततश्च विशिष्ट ईरो-गमन "सर्वे गत्यर्था जानार्था"इति ज्ञानं वा यस्य स बीरः, अथवा
विशिष्टा तपोरूपा तीर्थकुनामकर्मोदयसमुद्भूतातिशयलक्षणा वाईलक्ष्मीस्तया राजते-शोभते,इत्यन्यतोऽपि चेति 'ड'प्रत्यये वीरस्तं वीरं
श्रीवर्द्धमानं वर्तमानतीर्थाधिपति प्रणमामीति क्रियासण्टकः कथम्भृतमित्याह-सिद्ध। सितं-बद्ध, ध्मातं-दग्धं कर्म येन स तथा, पृषोद-1 है। रादित्वात्मिदादेशधकारौ । अथवा 'षिध् गत्या' सेवति स्म-सिद्धा,निवृतिप्रासादोपरि गत इत्यर्थः । अथवा सिद्धस्त्रिभुवनख्यातः, अथवा |
विध शाखे माङ्गल्ये वा' सेधति स्म सिद्धः, शिक्षयति स्मेत्यर्थः, कृतमङ्गलो भवतीति वा, आजन्मदेवासुरविधीयमाननानोत्सवत्यात् ।। या 'पिधू संसद्धौ सिध्ध्यति स्म सिद्धः, परिनिष्ठितार्थो भवतीत्यर्थः, तं सिद्धं । तथा अकर्माणं-निष्ठितज्ञानावरणीयादिनिःशेषकर्माण, अथवा अक्रम्यं-रागादिभिरनाक्रमणीयं । तथा अविग्रहं-सर्वतः साग्रयोजनशतक्षेत्रक्षिप्तसमस्तजन्तुविरोध अशरीरं वा,अथवा अत्र अकि| मेरुः, ग्रहा:-सूर्यादयस्तद्वत्स्थैर्यतेजः सोमतादिप्रबरो विग्रहो-देहो यस्य स तथा, इति विग्रहशब्दाच्या व्याख्यावते, तं [अविग्रहविग्रह]||
BASE
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
SARKला
| तथा अकलङ्क-गोगजतुरगाधनाक्रमणीयसिंहलाञ्छनं, यद्वा अकलङ्क-अविद्यमानव्रतलोपादिवचनीयं । तथा असङ्ग-सबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितं । तथा अक्षदं, अक्षाणि-इन्द्रियाणि, द्यति-खण्डयति स्वेच्छाप्रवृत्तिप्रतिरोधेनेत्यक्षदं, यद्वा अक्षयं-अविनाशिमुक्तिपर्यायं । तथा धी:-सकलावरणविनमुक्ता समस्तवस्त्ववोधशक्तिः, तया राजते तां राति वा तत्प्रापणप्रवणोपदेशद्वारेणेति धीरस्तं धीरं, यद्वा तथाविधयरीषहोपसर्गसंसर्गेऽप्यप्रकम्पं, अनन्तवीर्यत्वात् । तथा सुगतिप्रत्यलपरं, सुदेवत्वसुमनुजत्वसिद्धिलक्षणायाः सुगतेः प्रापणे [ये]
प्रत्यलाः समर्थास्तेषु परं-उत्कृष्टं । तथा अर्थप्रकाशनं, अर्था- ज्ञानादयो जीवादयो वा, तान् प्रकाशयतीत्यर्थप्रकाशनः, “ कृत्ययुटोऽ-| |न्यत्रापि चे"ति ["कृत्यल्युटो बहुल” पा०-३-३-११३] कर्तरि युद, ती अथवा सुगतेः प्राययो 'प्रत्यलाः' परमा:-सधुक्तिरिक्तपरपारेकल्पितपदार्थभ्यो व्यतिरिक्तत्वेन उत्कृष्टया अथां-ज्ञानादयो जीवादयो वा, तान प्रकाशयतीत्येकमेव विशेषणम् । अत्र च अकर्माणमित्य| नेनापायापगमातिशयो धीरमित्यनेन ज्ञानातिशयः सुगतिप्रत्यलेत्यादिना वचनातिशयः साक्षादाख्यातः,एतादृग्गुणग्रामरमणीयश्वावश्य | भक्तिभरनिर्भरसुरासुरनिकरकोटीरकोटिधृष्टपादपीठोपकण्ठ एव स्यादिति पूजाऽतिशयोऽप्यर्थादुक्त एव,इत्यनन्यसाधारणमतिशयचतुष्टयं : | भगवतः प्रकटितमिति ! तथा अत्र स्वपरोभयार्थसम्पत्तयस्तदुपायाश्च भगवतः प्रेक्षावद्भिविशेषव्याख्यानुरोधेन स्वयं परिभावनीया इति गाथार्थः ॥ १ ॥ अथ ग्रन्थकारः कतिचित्सुकृतोपदेशरचनं प्रतिजानीते-- जिणवयणकाणणाओ, चिणिऊण सुवण्णमसरिसगुणड्ढे । उवएसमालमेयं, रएमि वरकुसुममालं व ॥२॥ | व्याख्या-जिनवचनमेव कानन-वनं, तस्मात्"चिणिऊण"चित्वा-सगृह्य, अर्थाद्धर्मोपदेशान्, शोभना वर्णा-अक्षराणि यस्यां सा सुवर्णा, तां । तथा असदृशाः-सिद्धिप्रापकत्वेनानन्यतुल्या गुणा ज्ञानादयस्तैराढ्या-परिपूर्णा, तां । उपदिश्यन्त इत्युपदेशाः-वाक्यवि
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
शेषाः, ते चेह धर्मविषया द्रष्टव्याः, जिनवचनोद्धृतत्वादेव, तेपां माला-परिपार्टी, एतां वक्ष्यमाणां, रचयामि-करोमि, कामिव ?, करकुसुममालामिव, यथा कश्चित्कुतश्चित् काननात्कुसुमान्यादाय श्वेतादिवर्णविशिष्टां दृढमूत्रतन्तुप्रधानां कुसुममाला रचयति तथाऽहमपीति। अत्र चोपदेशमाला रचयामीत्यभिधेयाभिधानं, प्रयोजनं तु कर्तुरनन्तर सच्चानुग्रहः, श्रोतुश्च दानादिधर्मपरिज्ञानं, परम्परन्तुभयोनिःश्रेयसावाप्तिः, सम्बन्धस्तूपायोपेयरूपः शास्त्रधर्मोपदेशयोः सिद्ध एव, जिज्ञासितधर्ममर्माणश्चेहाधिकारिणः, एतच त्रितयमपि सूत्रे साक्षादना-13 ख्यातमपि सुप्रतीतमेव, मङ्गलं तु त्रिभुवनगुरुनमस्करणलक्षणं प्रथममेव दर्शितमिति सकलशास्त्रकारप्रवृत्तिरनुसतेति गाथार्थः ।।२।। ___अथ ये मनुजजन्मनो धर्मस्य च सुलभत्वमाकलय्य प्रमादनिद्रामुद्रितनयनास्तास्तदुले भन्योपदेशेन जागरयति
रयणायरपन्भलु, रयणं व सुदुल्लह मणुयजन्म । तथवि रोरस्स निहिव्य, दुल्लहो होइ जिणधम्मो ॥ ३ ॥ या व्याख्या-रत्नाकरप्रभ्रष्टं अब्धौ पतितं रत्नमित्र सुदुर्लभ अतिदुर्लभं मनुजजन्म-मनुष्यभवो जीवेन, एतेन च "चुल्लंगपासंग-15
धन्ने, जूऐं रयणे य सुमिणचके य । चम्मजुगे परमाण, दस दिता मणयलंभे ॥१॥" एते दशापि सिद्धान्तप्रसिद्धा मानुषजन्मा-1 तिदुर्लभत्वदृष्टान्ताः सूचिताः, तत्र "चोल्लग" इति देशीयभाषया भोजने, 'चर्म' शब्देन महाजलाशयोपरिवर्तिघननिबिडसेवालमिहाह।
एतत्कथासूचकानि चामूनि काव्यानि-----
१-विप्रः प्रार्थितवान् प्रसन्नमनसः श्रीब्रह्मदनात्पुरा, क्षेत्रेऽस्मिन् भरतेऽखिले प्रतिगृहं मे भोजनं दापय । इत्थं लब्धवरोऽथ | तेष्वपि कदाऽप्यन्नात्यहो!! द्विः स चेत भ्रष्टो मर्त्यभवात् तथाप्यमुकती भूयस्तमामोति न ॥१॥२-सिधूतकलाबलाद्धनिजनं जित्वाऽथ हेम्नां भैरै-थाणाक्येन नृपस्य कोशनिकरः पूर्णीकृतो हेलया । दैवादाढ्यजनेन तेन स पुनजीवेत मन्त्री क्वचिद्, भ्रष्टो मर्त्यभवात्
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
लायमान
-Tomane
E तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ॥२॥ ३-वृद्धा काऽपि पुरा समस्तभरतक्षेत्रस्य धान्यावलि, कृत्यैकत्र च तत्र सर्वपकणान् क्षिप्वाPilsbटकेनोन्मितान् । प्रत्येकं हि पृथक्करोति किल सा धान्यानि सर्वाणि चेद्, भ्रष्टो मर्त्यभवान नथाऽप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ॥३॥
४-अष्टसहस्रस्तम्भ-रष्टसहस्रातिभिः समा तस्याः । एककानिया, सहसमष्टाधिका वेलाम् ॥ ४॥ इत्येवं सर्वसभा, जित्वा राज्य | पिवहीतव्यं । एकामपि चेद्वेला, हारयति पुनर्नयेन्मूलात् ।। ५॥ अपि सम्भवेदिदं सलु, विधिनाऽनेनापि कचिदिह राज्यं । गृहीयानहि जीयो, लभते मानुष्यमिह भूयः ।। ६ ।। ५-रत्नान्यायसुतेवितीर्य वणिजा देशान्तरं जग्मुषां, पश्चातापक्शेन तानि पुनरादातुं कृतोपक्रमः । लभ्यन्ते निखिलानि दुर्घटमिदं देवाद्घटेतन् कचिद् , भ्रष्टो मयभवात् तथाप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ||७॥ अथवा| महार्णवजलान्तर-स्फुटितयानपात्रच्युतो; गतोऽबुनि पुननिश-दपि मणिनजो लभ्यते । भवेदपि न चाङ्गिना, भवसमुद्रमध्येऽभितो; मुडविपरिवर्तिना, भवति मानुषत्वं किल ।।८।। ६-स्वप्ने कार्पटिकेन रात्रिविगमे पूर्णन्दुविम्यं मुखे, व्यालोक्य प्रविशत् कुनिर्णयवशादल्यं फलं प्राप्य च । स्वमस्तेन पुनः स तत्र शयनादालोक्यते कापि चेद् , भ्रष्टो मर्त्यभाशत् तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमामोति न ||९| ७-सव्यापसव्यं भ्रमतोऽतिवेगा-अक्राष्टकस्यारविचालमाप्य । अप्यस्वविद्विध्यति कोऽपि राधा, न मानुषत्वं पुनरेति जन्तुः ॥ १० ॥
चन्द्रं शवलवल्लरीभिरभितश्छन्नेऽतिनिम्ने हदे, कूर्मः कोऽपि हि कार्तिकीनिशि महाछिद्रेण दृष्ट्वा गतः । पातालात्स सबन्धुरेति मुचिराद् द्रष्टुं तदा न क्वचि-चन्द्रश्छिद्रमथो तथैव भविनां भूयो न मानुष्यकम् ॥११॥ ९-शम्या पूर्वपयोनिधौ निपतिता भ्रष्टं युगं || पश्चिमा-म्भोधौ दुरवीचिभिश्च सुचिरं संयोजित तवयं । सा शम्या विशेागस्य विवरे नस्य स्वयं कापि चेद् , भ्रष्टो मर्त्यभवात् । तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमानोति न ।। १२ ।। १०-स्तम्भं रखमयं महान्तममरः सञ्चूर्ण्य सूक्ष्माणुशः, कश्चिन्मेरुशिरःस्थितो नलिकया
Padme
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
PEK
मात्कृत्य दिक्षु क्षिपेत् । अप्येषा परमाणुसंहतिरिहानन्तैः परावर्तिते-स्तो स्तम्भाकृतिमेति नैव भविना भूयोऽपि मानुष्यकम् ॥ १३ ॥ |
" इति दशापि दृष्टान्ता मनुष्यभवदुर्लभत्वे दर्शिताः, तत्रापि प्राने मनुजजन्मनि रोरस्य-अतिनिपुण्यकमाणिनो स्लादीनां निधिरिव
दुर्लभो-दुरखापो भवति जिनधर्मो दानशीलतपोभावरूप इति । ननु निहेतुकस्य कार्यस्यासम्भवान्मनुजत्वजिनधर्मदुर्लभत्थे को हेतुरिति । चेत् ?, उच्यते-"आदौ सूक्ष्मनिगोदे, जीवस्यानन्तपुद्गलावतान् । तस्मात्कालमनन्तं, व्यवहारवनस्पती वासः ।।१।। उत्सर्पिणीरसङ्ग्यः ,
प्रत्येकं भू-जला-ग्नि-पवनेषु । विकलेषु च सङ्ख्येयं, कालं भूयो भ्रमणमेवम् ।।२।। तिर्यपञ्चेन्द्रियता, कथमपि मानुष्यकं ततोऽपीह। | क्षेत्रकुलारोग्यायु-बुद्धयादि यथोत्तरं दुरखापम् ॥३॥" इति । आह च भाष्यकार:-"दसहिं उदाहरणेहिं, दुलहं मणुयसणं जहा भणियं ।। | तह जाइकुलाईणि वि, दूसदिट्टतेहिं दुलहाई ।।१।। एत्थं पुव्वं पुवं, लद्धपि तदुत्तरं पुणो दुलहं । जम्माणुमाईणं, अइदुलहो तेण जिणध|म्मो ॥२॥" अतो दुर्लभावेव मानवभवजिनधर्माविति गाथार्थः ।।३।। अथ दुर्लभमनुजत्वजिनधर्मयोः प्राप्तयोर्यकर्त्तव्यं तदाह-- तं चेव दिव्यपरिणइ-बसेण कह कहवि पाविउं पवरं। जइयव्वं एत्थ सया, सिवसुहसंपत्तिमूलम्मि ॥४॥ |
व्याख्या-तं चेति, तत्पुनरनन्तरोक्तं सजिनधर्म मनुजजन्म। एष शब्दोऽयं द्वितीयार्थ "रत्य"नि पदे योज्यते । “दिव्व"ति देवं, प्रस्तावान्मनुजत्वजिनधर्मप्राप्त्यनुकूलं कर्म, तस्थ परिणति-विपाकः, तद्वशत्वेन-आयत्ततया, कथं कथमपि-महता कष्टेन प्राप्यलध्या प्रवरं-प्रधानं यतितव्यं यतः कर्तव्यः । क्व ? इत्याह----""त्ति एतस्मिन्नव जिनधर्म सदा-सर्वकालं । जिनधर्म एव कुतो यतितव्यं ? इत्याह-शिवसुखसम्पत्तिमूलत्वात्-मोक्षसुखप्राप्तिकारणत्वात् , नान्यत्रेति गाथार्थः॥४॥ अथ च जिनधर्मोऽपि दानधर्मप्रधानिस्तत्रापि "दाणाणमभयदाणं" इति [अत्रैव चतुष्पञ्चाशदधिकशततमगाथायामुक्तत्वात] प्रथमतोऽभयदानोपदेशमाह
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्चन्याला
सो य अहिंसामूलो, धम्मो जियरागदोसमोहेहिं । भणिओ जिणेहिं तम्हा, सविसेस तीऍ जइयव्वं ॥५॥ । व्याख्या–स चानन्तरं कर्तव्यतयोपदिष्टः श्रीजिनधर्मः अहिंसामूलो-जीवदयामूलो जितगगद्वेषमोहै - भग्नरागद्वेषाज्ञानजिनस्तीर्थकृद्धिर्भणितः, यथा “धन्नाणं रक्खणहा, कीरति यईओ जह तहेवेत्थ । पढमवयरक्खणहा, कीरति बयाई सेसाई ॥१॥" ततश्च । किं कर्तव्य? इत्याह-तस्मात्सविशेष तस्यामेवाहिंसायां यतितव्यमिति गाथार्थः।।५।। अथाहिंसातोऽन्यधर्मस्य गरीयस्त्वाशङ्कां निरस्पनाहकिं सुरगिरिणो गरुयं, जलनिहिणो किं व होज गंभीरं । किं गयणाओ विसालं, को वा अहिंसासमो धम्मो॥६॥ ____ व्याख्या-इहाय किं शब्दोऽयलापे, ततोऽयमर्थः-किं सुरगिरेमेरोः सकाशाद् गुरुक-बृहत्तर बस्त्वस्ति ?, किं वा समुद्रादपि गम्भीरं ?, किं गगनाद्विशालं-विपुलं ?, को वा अहिंसया समो धर्मः समस्ति ?, नास्तीत्यर्थः, अयम्भावः-अहिंसासमोऽप्यपरो| | धर्मो नास्ति, किं पुनर्गुरुरिति, तथा चाहुस्तीर्थान्तरीयाः-"हेमधेनुधरादीना, दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणि| वभयप्रदः ॥१॥ महतामपि दानाना, कालेन क्षीयते फलं । भीताभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥२॥ दत्तमिष्टं तयस्ततं, तीर्थसेवा तथा श्रुतं । सर्वाण्यभयदानस्य, कलां नार्धन्ति षोडशीम् ।। ३ ।। एकतः क्रतवः सर्वे, समग्रवरदक्षिणाः । एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥ ४ ॥ सर्वे वेदा न तत्कुर्युः, सर्वे यज्ञा यथोदिताः । सर्वे तीर्थाभिषेकाच, यत्कुर्यात्प्राणिनां दया । ५ ॥ ददातु दान विदधातु मौन, वेदादिकं चापि विदाङ्करोतु । देवादिकं ध्यायतु सन्ततं वा, न चेद्दया निष्फलमेव सर्वम् ।। ६ ॥ सकमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्ता-दमृतमुरगवस्त्रात्साधुवाद प्रवादात् । रुगपगममजीर्णाजीवितं कालकूटा-दभिलपति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेन् ।। ७॥
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति । तथा " किं ती पढियाए, पकोडीए लालभूयाए । जइ इतिये न नावे, पस्स्स पीडा न कायव्या ॥ ८ ॥ दीर्घमायुः परं रूप-मारोग्यं लाघनीयता । अथाहिंसायाः सर्प, कमदेव वस्नाभाभीतिदानाभ्यधिकोऽस्ति धर्म इति गाथार्थः ।
1
अहिंसायाः सर्वधर्माभ्यधिकत्वमेव हेतुगमैर्विशेषणैर्ब्रढयतिकाकोडिजणी, दुरंतदुरियारिवग्गनिहत्रणी । संसारजलहितरणी, एक्कच्चिय होइ जीवदया ॥ ७ ॥ व्याख्या - कल्याणानि - मङ्गलानि तेषां कोटयस्तासां जननीव जननी, उत्पत्तिहेतुत्वात् । तथा दुरन्तानि - चिरभोग्यानि दुरि तानि पापानि तत्कार्याणि वा नानादुःखानि तान्येवैकान्ताहितत्वेनारयः - शत्रचस्तेषां वर्गः समुदायस्तस्य निष्ठापनी - पर्यन्तकर्त्री । तथा संसार एवं जलधिः- समुद्रः, स तीर्यतेऽनयेति तरणी-नौः इत्थम्भूता एकैव भवति जीवदा, नान्यत् तस्मात् सर्वधर्मान्यfara गाथार्थः || ७ || कल्याणकोटिजनकत्वमेव प्रकटयन्नाह-
बिउलं रज रोगेहिं, बजियं रूत्रमाउयं दीहं । अन्नंपि न सोक्खं जं जीवदयाइ न हु सन्झं ॥ ८ ॥
व्याख्या - विपुलं विस्तीर्ण, राज्यं चक्रवच्यादिसम्बन्धि तथा रोगैः कुष्टादिभिर्वर्जितं रहित, रूपं- लक्षणोपपत्रसर्व शरीरावयचात्मकं, तथा दीर्घ- चिरकालसम्भवि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमादिकमायुः । किं सर्वं जीवदयायाः साध्यमिदमेव ! इत्याह अन्यदपि सुखयतीति सुखं, सुखमेव सौख्यं - इन्द्रपदादि मोक्षादि वा तन्नास्ति यजीवद्याया नैव साध्यमिति गाथार्थः ॥ ८ ॥
ननु जीवदयातः किं कस्यचिद्राज्यप्राप्तिर्मोक्षप्राक्षिश्च जाता है, येन सर्वमिदं तत्साध्यर्मुच्यते ? इत्याह
देविंदचट्टि - राणाइ भुत्तूण सिवसुह्मणतं । पत्ता अनंतसत्ता, अभयं दाऊण जीवाणं ॥ ९ ॥
--
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
21
व्याख्या - देवेन्द्रचक्रवर्त्तित्वानि भुक्त्वा अनन्तं शिवसुखं-मोक्षसुखं प्राप्ता अनन्ताः सच्चाः प्राणिनः । किं कृत्वेत्याह-अभयं समस्तप्राणरक्षणरूपं दत्वा जीवानां प्राणिनामिति । इदमत्र तात्पर्य-कर्ममलप्रक्षालनजललीलाबलंबिनीं समस्तजन्त्व भयदानरूपां परिपाल्य प्रव्रज्यां तदनुभावादनुभूय देवेन्द्रत्वं ततः सम्प्राप्य चक्रर्वर्त्तित्वं पुनः पर्यन्ते प्रतिपद्येोक्तरूपां प्रव्रज्यां विमलकेवलालोकमासाद्य सिद्धा अनेनापि क्रमेणानन्ताः प्राप्यन्ते, ये पुनरमात्यादिसामान्यविभूतीरनुभूय ततः सिद्धास्ते प्रभूता एवेति गाथार्थः ॥ ९ ॥ यद्येवं ततः किं कर्तव्यमित्याह-
तो अत्तणो हिएसी, अभयं जीवाण देज निश्चपि । जह वज्जाउहजम्मे, दिण्णं सिरिसंतिनाहेण ॥ १० ॥
व्याख्या- ततः- पूर्वोक्तात्कल्याणकोटिजनकत्वाद्धेतोः, आत्मनः स्वस्थ हितैषी - हितेच्छुः सन्नभयं जीवानां नित्यमेव दद्याः, | मरणमीरून जन्तून् सदैव रक्षेस्त्वमिति शिष्योपदेशः, अथ उपदेशोऽपि सदृष्टान्त एवोक्तः कर्त्तव्यतया सम्यक्परिणमतीत्यतस्तमाह-यथेत्युदाहरणे, यथाऽष्टमे वज्रायुधजन्मनि श्रीशान्तिनाथेन - षोडशतीर्थकरेणाभयं दत्तं तथा त्वयाऽपि देयमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथाcarrrrrr विस्तरतः श्रीशान्तिचरित्रादेः सुगममिति नेह प्रपञ्च्यते, केवलं स्थानाशून्यार्थ किञ्चिदुच्यते, यथा
जम्बूद्वीपामिधानेऽस्मिन् द्वीपेऽस्ति प्राम्बिदेहगः । सीताया दक्षिणे भागे, बिजयो मङ्गलावती ॥ १ ॥ तत्रास्ति नगरी रखस या रत्नसश्या । तत्र क्षेमङ्करो राजा, योगक्षेमङ्करः सताम् || २ || रत्नमाला प्रिया तस्य, रत्नमालेव निर्मला । सगुणा हृदयामैव, जहुर्यां केsपि सञ्जनाः ॥ ३ ॥ अन्यदा देवदेवीषु पयाचितशतैस्तयोः । नाम्ना वज्रायुधः पुत्रः पूर्वपुण्योदयादभूत् ॥ ४ ॥ स्पर्द्धयेव
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणैस्सा, वर्द्धमानः सुधोज्ज्वलैः । कामक्रीडावनकोडंx, क्रमाद्यौवनमाप सः॥५॥ ऊढवान् प्रौढराजादि-दत्ता विस्तरतस्तदा ।
सौभाग्यभाग्यभमीभि-प्सरोभिः समाः कनीः॥६॥ सप्रियः सोज्यदोद्याने, करोति जलखेलनं । ग्रीष्मत्तौं शक्रवनन्दीश्वरे - दसरे सरसि तावता ॥ ७ ॥ विद्युदंष्ट्राभिधः प्रेक्ष्य, कुमार से तथाविधं । क्रुद्धो युद्धाय चाहास्त, खेचरः प्राग्भवासुहृत् ॥८॥ रे रे दुध !
स्मर वेष्ट-देवता पूर्वसविता । हो म हन्मि यमस्याध-बलेोग्यस्त्वमेव (मे) हि ॥ ९॥ मा भणिष्यसि नाख्यात-मिति सजीभवेन्द्रवान् । कुमारः प्राह किं कुन्थु-काथे काऽप्यस्ति सजता ॥१०॥ ततश्च खेचरः दूर-रूपैर्मापयति स्म तं । क्षुभ्यति स्म कुमारो न, निर्मीनहद्वन्मनाक् ॥ ११ ॥ विद्युद्दष्ट्रस्ततो रुष्टो, गरिष्ठममुगिरि । कुमारोऽचूरयद्वन-प्रष्ठाभिसृष्टिभिश्च तम् ॥ १२ ॥ खेचरा पुनरप्युः , कोपावनायुधाभिधं । बबन्ध पार्श गाये-चन्दनगुमित्र द्रुतम् ॥१३कुमारेण पुनः खाङ्गो-दूसनादेव : सर्वतः । बन्धन | खण्डशश्चक्रे, दण्डघाताद्यथा घटः॥ १४ ॥ कुमारस्य बलं वीक्ष्य, विलक्षः खचरस्ततः । जीवग्राहं स दुर्ब्रह्यो, भयभीतः पलायितः
॥ १५ ॥ अत्रान्तरेऽद्भुतं दृष्ट्वा, कुमारचरितं तदा | ज्ञानाल्लोकं लोकमान-स्तत्रागादच्युताधिषः ॥१६॥ भविष्यत्तीर्थनायोऽय-मिति | मत्वैकभक्तिभाक् । वज्रायुधं नमस्कृत्य, स्तुत्वा घेन्द्रो दिवं ययौ ॥ १७ ॥ कुमारोऽपि सहर्षः सन्, निजं धाम जगाम च | रथया
प्राजिनार्चादि-धर्मकर्मसु तत्परः ॥ १८ ॥ दत्ते दान सुयात्रेभ्यो, बन्दनाहेषु वन्दनं । अभयं सर्वसत्वेभ्यः, सविशेषमहर्निशम् ।।१९।। । अन्यदाऽसौ सभामध्ये, सौधर्मेन्द्रेण वर्णितः । यथा वज्रायुधो धर्मा-देवैरपि न चाल्यते ॥२०॥ इत्येतच्च वचः कश्चि-दसहिष्णुः सुरस्तदा। पौषधागारसंस्थस्य, कुमारस्थान्तिकं ययौ ॥ २१ ॥ परीक्षाक्षिप्तचेतस्कः, स पारापतरूपभाक् । मनुष्यभाषया दक्षो, रक्ष रक्षति |
xोहा-सूकरस्तम् । * मारणे । शरीरस्थ बलकरणादेव, न तु शस्त्रादिना ।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्नपान
गाजगौ ॥ २२ ॥ पादमूले निलीनश्च, तिष्ठेद्यावदसौ सतः । विस्मितेन कुमारेण, तस्याङ्गीकरणं कृतम् ॥ २३ ॥ तीक्ष्णचञ्चुर्महाश्येनः, * समायानत्र तावना! कमाई गति चाचा, पानी गोलो] मानुषभाषया ॥२४॥ महाभाग! मया ह्येष, क्षुत्क्षामेण धनैर्दिनः । प्राप्तः पारापतो
| भैक्षं, दे(ोन)यह न क्षणं क्षमे ।। २५ ॥ कुमारः प्राह किं हो', भक्ष्यमन्यन्त्र भक्ष्यते । पूपस्योदनादि त्यां, क्षुधा चेद्वाधत्तेतमाम् 1॥ २६ ।। उवाच शकुनिनान्यत् , तृप्त्यै मांसाशिनो मम । खव्यापादितमांसान्य-द्रोचते च न कर्हिचित् ॥ २७ ॥ कुमारः प्राह न |
प्राणि-प्राणायहरणं शुभ । दारुणानन्तदःखानां जनकत्वाद भवे भवे ॥ २८ ॥ अतो रक्षव सर्वेषां सत्वानामचिता शुभा। स्वर्गापदहै संसर्गि-सुखवर्गविधायिनी ॥ २९ ॥ एतञ्जानाम्यहमपि, भवदुक्तं परं शृणु । क्षुधिताः किं न कुर्वन्ति ?, पापानि पुरुषोत्तम ! ॥३०॥
अथ कारुण्यतः पारा-पतं चेद्रक्षसि स्वयं । तन्मां हंसीति विज्ञाय, यद्युक्तं तद्विधेहि भोः ।। ३१ ।। कुमारः प्राह चेदेवं ?, ताई दत्वा
खजाङ्गलं । त्वां तर्पयामि चैतेन, तोलयित्वा गृहाण तत् ॥३२॥ ओमिति प्रतिपन्नेऽस्मि-स्तुलायां रोपितं पलं । एकतः परतः पारा[पतो नैव तु तोलयेत् ।। ३३ ॥ व ते सुतरां पारा-पतो भारेण यावता । अनन्यगतिको धीरः, स्वमप्यारोपयत्तुलाम् ॥ ३४ ॥ एतचानन्यसामान्यं, कौमारं प्रेक्ष्य साहसं । विस्मितः त्रिदशः साक्षाद्-भूत्वा नत्वेत्युवाच च ॥ ३५॥ तस्मै तुभ्यं नमो यस्य, गुणान् वर्णयति स्वयं । शक्रोऽपि स्वसभामध्ये, प्रोक्तवान् वृत्तमप्यदः ।। ३६ ॥ कुमारगुणपूर्णायां, वसुधायाममानिव । जगाम त्रिदिवं देवो,
अक्ते बजायुधः सुखम् ॥ ३७ ।। अन्यदा नृपतिः क्षेम-करो राज्ये निवेश्य तं । दीक्षा कक्षीचकारोच्चै-दक्षस्तीर्थकरान्तिके ॥ ३८ ॥ इस जातो गणभृभूरि-गुणाधारः पटादिवत् । राज्ञो वज्रायुधस्थापि, पुत्रः पौत्रोऽप्यजायत ।। ३९ ॥ राज्ये न्यस्य ततः पौत्रं, प्रचबाज
खपुत्रधुक् । वज्रायुधः पितुः क्षेम-कराचार्यस्य सनिधौ ।। ४० ॥ ततस्ती तपस्तप्त्वा, कृत्वाऽन्त्याराधनां वरां । अवेयके समुत्पन्नो,
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमे शुभभावतः ॥ ४१ ॥ ततोऽपि जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहेषु विश्रुता । विजये मङ्गलावत्यां, नगरी पुण्डरीकिणी ॥ ४२ ॥ राजा घनरथस्तीर्थ-क्रूरः पद्मावती प्रिया । पुत्रस्तयोर्मेधरथो, राजा न्यायवनाम्बुदः || ४३ ॥ प्राज्यं राज्यं परित्यज्या - यदाऽसौ जीर्णपर्णवत् । दीक्षामुपाददे स्वस्य पितुस्तीर्थकृतः क ( रा ) रे || ४४ ॥ अत्युत्कृष्टं तपः कृत्वा तीर्थकुञ्चक्रभृधि । अर्जयित्वा शुभध्यानात् सर्वार्थे त्रिदशोऽजनि ॥४५॥ ततोऽत्र जम्बूद्वीपेऽस्मिन् हस्तिनापुरभूर्भुजः । विश्वसेनस्य जायायाः, अचिरायाः सुनन्दनः ॥ ४६ ॥ पञ्चमवणि तीर्थ-कराणां षोडश सः । जातः श्रीशान्तिनाथोऽयं, सिद्धिश्रीसङ्गरङ्ग
॥ ४७ ॥
॥ इति श्री शान्तिनाथ चरित्रं समाप्तम् ॥
,
तदेवं यथा भगवता शान्तिनाथेनाष्टमे वज्रायुधभवे पारापतस्याभयदानमदायि तथाऽन्येनापि तत्सर्वजीवेभ्यो दातव्यमिति गाश्रार्थः ॥ १० ॥ य एव चाभयप्रदाननिरतो धर्मस्थितोऽपि स एवोच्यते, न शेष इति दर्शयन्नाह—
जह मम न पिये दुक्खं, जाणिय एमेव सयलजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य, धम्मम्मि ठिओ स विपणेओ ॥
व्याख्या- यथा मम न प्रियं दुःखं, एवमेव अप्रियं सकलजीवानामपीति ज्ञात्वा " यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धा" यो न इन्ति तथा न घातयति परैः । कान् ?, “जीवाणं" इति षष्ठयन्तमपि "अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम" इति जीवान्, 'च' शब्दात् अन्तथ पराभानुजानीते, धर्मे स्थितः स एव विक्रेयो, नान्य इति गाथार्थः ।। ११ ।।
तदेवमभयदाननिरतानां विस्तरतो गुणान् दर्शयित्वा सम्प्रति विपर्ययवतां दोषान् दिदर्शयिषुराह—
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
है जे उण छज्जीववहं, कुणंति असंजया निरणकंपा । ते दहलक्खाभिया, भमंति संसारकतारे ॥ १२ ॥ # व्याख्या-ये पुनः षड्जीक्यध-षड्जीवकायधातं कुर्वन्ति । किंविधाः सन्तः ? इत्याह-असंयता:-अनिगृहीतमनोवाकायाः, तथा
निरनुकम्पा-जन्तुरक्षापरिणामवर्जिताः, ते मानसिकादि-कुष्ठज्वरदाहादि अनिष्टसंयोगेष्टविप्रयोगादिदुःखलक्षाभिहताः संसारकान्तारे | भ्रमन्तीति गाथार्थः ॥ १२ ॥ अमुमेवार्थ सोदाहरणं दिदर्शयिपुराह---- है वहबंधमारणरया, जियाण दुक्ख वहुं उईरंता । होति भियावइतणउन्व, भायणं सयलदुक्खाणं ॥ १३ ॥
___व्याख्या-वधो-जन्तुताडनादिपीडारूपः, बन्धो-रज्ज्यादिभिर्जन्तोः संयमन, मारण-जन्तूनां प्राणवियोजनारूप, तेषु निरताः। सदोद्युक्ताः, तथा जीवानां पैशून्याभ्याख्यानादिभिमानसं दुःखं बहूदीरयन्तो-यनं जनयन्तो, 'जीवा' इति विशेष्याध्याहारः, भवन्ति ।
कथम्भूता? इत्याह-भाजनं-पात्रं, केयां ? इत्याह -नारकतिर्यगादिभवभाविनां शारीरमानसानां सकलदुःखानां । क इव ?, “मियावह| तणउव्य" ति । 'वर'त्ति पूरणे श्रुतिसुखार्थ, ततश्च मृगासू नुरिवेत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकगम्यस्तच्चेदम्----
जम्बूद्वीपभरते मृगाग्रामे श्रीवीरः समवासार्षीत् , राजाद्यागमन, धर्म श्रुत्वा स्वस्थानगमनं । तत्र चैकं [नरें]जात्यन्धपधिरं जराजीणेमनाथं कम्पमानकरचरणशीर्ष क्षुत्क्षामं पुरतो दण्डेनाकृष्यमाणं दृष्ट्वा श्रीगौतमो वीरं पप्रच्छ--किं भगवन्नेताकोऽप्यन्योऽप्यस्ति दुःखी ?, भगवानाह-"गोमा ! इहेव मियागामे णयरे विजयस्स रण्णो मियाए देवीए मियाउत्ते दारए जाइअंधे जाइए जाइपंगुले हुंडे, नत्थि णं तस्स हत्था वा पाया वा कसा वा अच्छी वा नासा वा । केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगइमिते आवि बट्टइ, तेणं से लोढागइमित्ते अईव दुक्खिए अच्छ"। ततो भगवद्वचनगाढप्रत्ययोऽपि साक्षादवलोकनोत्पनकौतुको भगवदनुज्ञया मृगादेवीसदनमासाथ तत्कृतोचि
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
तविनयप्रतिपयनन्तरं श्रीगौतमस्तामाह-'हे देवानुप्रिये ! अहं त्वत्पुत्रं द्रष्टुमागां" इति। ततः सा मृगादेवी भृगापुत्रानुजन्मनः सर्वालङ्कारालकृतान् श्रीगौतमचरणरेणुतिलकितान् कृत्वा आह-'भगवनेते ते मत्पुत्रा पश्यते'ति । ततः श्रीगौतमस्तामेकमवादीत्-'नाह-1 मेतांस्ते तनयान् द्रष्टुमायातः, किन्तु ज्येष्ठं वीरनिर्दिष्टं राहसिकं तादृशं मृगापुत्राख्य' इति । तावता जाता तद्भक्तवेला । ततः सा | मृगादेवी परावर्तितवेषाऽशनादिभृतकाष्ठनकटीमनुरूपन्ती श्रीगौतममाय भूमिगृहद्वारे स्वयं चतुष्पटपटेन भगवता च सुखपोतिकया। सघाण मुखं बन्धयित्वा पराङ्मुखी तद्द्वारमुद्घाटयामास, तत्समकमेव च करितुरगगवादिमृतकेभ्योऽप्यनिष्टतरो गन्धो नशापुढं | पाटयन्प्रासापीत् । ततः स मृगापत्रोऽशनपानमादिमस्त्रादिमगन्धेनाभिभूतो भूञ्छितो गृद्धस्तदास्येनाहरश्चिप्रमेव च प्रतिशोणिततथा | परिणमय्य षोडशनाडीभिः परिश्रवति, तदपि च पूतिशोणितमाहारयति । ततोऽहो !! खल्वयं नैरयिकप्रतिकृतिरिति चिन्तयन्मृगामा| पृच्छय श्रीवीरान्तिकमागत्य त्रिप्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य सर्व पूर्वोक्तं निवेद्य नानालोकोपकाराय भगवन्तं मृगापुत्रपूर्वभवं पप्रच्छ श्री| गौतमः, भगवानाह----"गोयमा ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे सपदुवारपुरे धणवई राया, तया तस्स विजयवद्धमाणपामुक्खप६ सयगामाहिवई अहम्मिए अम्मिठे अहम्मन्नू अहम्मक्खाई बहूर्ण जीवाणं वहबन्धमारण(रए)परे रहऊडे नाम खत्तिए होत्या, Mसे य ताणि गमाणि बहिं करेहिं भरेहि य निद्धणे करेमाणे उच्चालेमाणे विहरइ । अन्नं च सवेसि सबत्थ ववहारेसु सुणमाणे भणइ
न सुणेमि, असुणमाणे वि भणइ-सुणेमि । एवं पस्समाणे भासमाणे गिलमाणे जाणमाणे वि विवरीए भणियन्वे । तए णं से राऊडे | एयसमायारेसुं बहुं पार्व समक्षिणमाणे विहरइ । अनया सस्म सरीरगसि समर्ग चेव सोलस रोमायंका पाउन्भूया, तं जहा-"'खासे || सांसे जैरे दोहे, कुच्छिसूले भगंदरे। अरिसाजीरए दिही-मुहसूले 'अकारए ॥१॥ अच्छिारयणा कण्ण-वेयणा कंह उदरे
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
TH
PRESS
| कोडे ।" से य बहहिं विजाईहिं रोगोवसमोवाएहिं विगिछिए, न य इक्केण वि रोगायंकण मुक्के । तए णं से तेहिं रोगायकेहिं अभिभए समाणे अवसट्टोवगए अड्डाइजाई बाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालगए रयणप्पभाए उकोसटिइएसु नेरहएसु उचण्णे । तओ य उव्वट्टित्ता मियादेवीए गन्मंसि पुत्चत्ताए उववण्णे । तओ देवीए तिब्वा वेयणा दोहग्गं रणो अणिकृत्तणं च जायं, तओ तीए अणे| गहा साडिजमाणे वि गन्मे न सडेइ । अण्णं च तस्स गम्भगयस्सेव अठ नाडीओ गम्भतरप्पवहाओ अट बाहिरंतरप्पवहाओ अब पूहसोणियप्पवहाओ । दुचे दुवे कण्णंतरे अनिछअंतरे नहतरे नासंतरे अभिक्खणं अभिक्खणं पूर्य च सोणियं च परिस्सवेमाणी परिस्सवेमाणी चिटंति । अपर्ण च तस्स गन्भगयस्सेव अग्गिवए नाम वाए पाउन्झए, जणं से दारए आहारेइ तणणं खिप्पामेव विद्धसइ, पूयत्ताए सोणियत्ताए परिणमह । तं पि य क पूर्य च सोणिय च परिस्सवमाणं आहारेह । तएणं सा मियादेवी पुबुत्तरूवं दारगं पस्या भीयासमाणी तं दारगं उज्झाविती पढमावञ्चत्तणो राइणा निसिद्धा त दारगं तहा पडिजागरमाणी विहरइति । से गं भंते! दारए कालं | किच्चा कर्हि गच्छिही ?, गोयमा ! इहं छब्बीसं वासाई परमाउं पालइत्ता वेयड्ढे सीहो भविस्सइ, तओ उकोसहिईए रयणप्पभाए नेर| ईए, तओ सरिसवेसु उववञ्जित्ता सकरप्पभाए, तओ पक्खी, तओ तईयाए, तओ सीहे, तओ चउत्थीए, तओ उरगे, तओ पंचमाए, &| तओ इत्थी, तो छडीए, तो पुरिसे होऊण सत्तमाए पुढवीए उववञ्जिही । तओ उद्दित्ता जलयरअद्धतेरसकुलकोडिलक्खेसु एगP मेगंसि जोणिविहाणसि अणेयसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उहाइत्ता तत्थेव भुजो भुओ पञ्चाइस्सइ । तओ उबटित्ता एवं चउप्पएसु
उरपरिसप्पेसु भुयपरिसप्पेसु खहयरेसु चउरिदिएसु तेइंदिएसु बेईदिएसु कड्यरुक्खेसु याउ-तेउ-आउ-पुढविकाइएसु अणेयसयस| हस्सनुतो उववञ्जिही । अविय-"इय हिंडिऊण संसार-सायरं सुप्पइछियपुरम्मि । होही दित्तो वसहो, दुप्पेच्छो इयरवसभाणं ॥१॥"।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्थय सिंगेहिं गंगाकूलं उक्खणतो पडियमि[चित] डेण संचुणिो मरि तत्थेव पुरे सिविसुओ, पञ्चज पडिवजिय सोहम्मे | सुरो होऊण विदेहे सुकुले माणुसतं लहिउँ पञ्चज पडिवञ्जिय धुअकम्मरओ केवली सिद्धि गमिस्सइ । " इय सोऊणं सिरिगोय-माइणो जंति परमसंवेगं | पिच्छह परसतावो, कित्तियमित्त जणह बुक्स्व ॥१॥"
___तम्हा परो न तप्पिञ्जा । इति मृगापुत्रकथा समाप्ता ॥ तदेवं जन्तूनां वधादिविधानान्मृगापुत्र इव सर्वदुःखभाजनं जीवा भवन्तीति गाथार्थः ॥ १३ ॥
___ अथेदमहिंसाद्वारमुपसंह कामोचैव रहस्योपदेशमाहEL नाऊण दुहमणतं, जिणोवएसाउ जीववहयाणं । होज अहिंसानिरओ, जइ निवेओ भवदुहेसु ॥ १ ॥
____ अस्या अक्षरगमनिका-एवमुक्तविधिना जिनोपदेशाजीववधकानामनन्तं दुःखं ज्ञात्वा त्वमहिसानिरतो भवः, यदि निर्वेद-उद्वि
झताऽस्ति भवदुःखेषु-संसारदुःखेषु इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ द भव्या एवं विभाव्य,व्यमनघनशत-प्रापिकैकक्षणेन संसाराम्भोधिहेतु भवति हि विहिला,प्राणिनोऽल्पाऽपि हिंसा।। है संसार वाऽपहाय, प्रभवति भवता-मक्षते मोक्षसौख्ये,काङ्क्षा चेत्माणिरक्षा, कुरुत शिवगते-निदक्षा सदैव ॥१॥
इति पुष्पमालाविवरणे (आये) दानाधिकारे प्रथममभयदानदार समाप्तम् ॥ १॥
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
H
asipornncomadimanandnainition
अथ ज्ञानदानद्वारं विवक्षुः सूत्रकारस्तस्य चोक्तद्वारेण सम्बन्ध रचयन्नाह - हैं| इच्छंतो य अहिंसं, नाणं सिक्विज सुगुरुमूलम्नि । सञ्चिय कीरइ सम्म, जं तस्विसयाइविन्नाणं ॥१५॥
___व्याख्या-इच्छन् , कर्नुमिति शेपः, चकारोऽन्यत्र योज्यते, अहिंसां च प्राणिवधनिवृत्तिरूयां, आदित एव ज्ञानं शिक्षेत् । क ? की इत्याह-सुगुरुमूले-वक्ष्यमाणसंविग्नत्वादिगुणयुक्तगुरुसमीपे । इह ज्ञानमिति सामान्योक्तावपि श्रुतज्ञानमेवाधि(क्रियते)क्षिप्यते, तस्यैव | गुरुपरतन्त्रत्वात् , शेषज्ञानानां तु स्वस्खायणक्षय-क्षयोपशनामस्वत एव जायमानत्वात् "एन्थं पुण अहिगारो सुियनाणेणं]"इत्यादि | वक्ष्यमाण [ अष्टादशमगाथा ] बचनत्वाच । कुतो ज्ञानमेव शिक्षणीयं ? इत्याह --- "सञ्चिय"ति । यद्-यस्मात्सेब अहिंसा सम्यक्| क्रियते । क सति ? इत्याह-"तचिसय"त्ति । तस्या-अहिंसाया विषयादे-विषयभेदफलादेविज्ञाने सति, नान्यथा, तथाहि-हिंसायास्ताव| द्विविधो विषयो, जीवाजीवभेदात् , स्थाण्यादौ स्खलनादिसम्भवेऽजीवेऽपि संक्लेशविषयतायाः सम्भवात् , "तप्पजायविणासो, दुक्खु.
पाओ य संकिलेसो य" इति वचनात् । अतः प्राणिवधनिवृत्तिरूपाया अहिंसाया अपि स एव द्विविधो विषयः । तथा विवक्षितमनुष्यका स्वादिपर्यायविनाशस्थ दुःखोत्पादस्य सङ्क्लेशस्य च निवृत्तौ सत्यां चाहिंसायास्त्रिविधो भेदः । अस्थाच फलादिकं स्वर्गापवर्गादि । एतच्च
सर्व ज्ञानेनवावगम्यते, अतोऽहिंसार्थिना ज्ञानमेव प्रथम शिक्षणीयं । यदुक्तं सूत्रे-" पढमं नाणं तओ दया, [एवं चिट्ठइ सबसंजए । * अनाणी किं काही ?, किंवा नाहि य छयपावगं ।।१॥" दश० ४-१०] इत्यादि । आह-ययेवं तीन प्रथमं ज्ञानद्वारमेव किं नोक्तं ?
इत्यत्रोच्यते--महानताणुव्रतरूपस्य धर्मस्याहिंसामूलत्वाज्ज्ञानस्यापि च प्रथमं शिक्षणीयत्वेऽप्यहिंसाऽर्थमेव व्याप्रियमाणत्वात्तस्या एव प्राधान्यमाकलय्यात्र प्रथम तद्वारमुपन्यस्तमिति गाथार्थः ।। १५ ॥ यदिह ज्ञानद्वारे वक्तव्यं तत्संग्राहिका द्वारगाथामाह
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
किं नाणं? को दांया ?, को गहणविही? गुणों य के तस्स ? । दारकमेण इमिणा, नाणस्स परूवणं बुच्छं ॥१६॥ का व्याख्या-प्रथमं किं ज्ञान ? इति वाच्यं, ततस्तस्यैव ज्ञानस्य को दाता समुचितः ? इति भणनीय, ततस्तस्यैव को ग्रहणविधिः? | इति ख्यापनीयं, ततस्तस्यैच को गुणः ? इति प्ररूपणीयं, द्वाराणां क्रमेणानेनोक्तस्वरूपेण ज्ञानस्य प्ररूपणां स्वरूपनिर्णयात्मिकां वक्ष्ये | | इति गाथार्थः ।। १६ ।। तत्र प्रथमद्वारमाह
आभिणियोहियनाणं, सुअनाणं चेव ओहिनाणं च । तह मणपज्जवनाणं, केवलनाणं च पंचमयं ॥ १७ ॥ ____ व्याख्या-अमीत्याभिमुख्ये, नि इति नैयत्ये, ततश्चागिसोऽर्थग्रहपोयनिदेशावस्थानाक्षी निपत इन्द्रियाण्याश्रित्य स्व
खग्रहणपरिणतो बोधोऽभिनिबोधः, स एवाभिनिबोधिकं, तच्च तज्ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञान, इन्द्रियपञ्चक-मनोनिमितो वस्त्ववबोध | इत्यर्थः। श्रवणं श्रुतं-अभिलापप्लारितार्थोपलब्धिविशेषः, तञ्च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञान, इन्द्रियपश्चक-मनोनिमित्त एवाभिलापारोपितो बोध | एवेत्यर्थः। अवधि-मर्यादा, तेनावधिना रूपिद्रव्यग्रहणात्मकेन ज्ञानमवधिज्ञानं, इन्द्रिय-मनोनिरपेक्ष आत्मनः साक्षाद्रपिवस्तुग्रहणास्मको बोध इति भावः । संबिभिजीवः काययोगेन मनोवर्गणाभ्यो गृहीतानि मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि वस्तुचिन्ताप्रवर्तकानि
द्रव्याणि मनासीत्युच्यन्ते, तानि पर्येति-अवगच्छतीति मनःपर्यायमिति कर्मण्यण [३-२-१पा० । तच्च तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानं, ४ अर्द्धवतीयद्वीपसमूद्रान्तसिंज्ञिजीवचिन्तितार्थप्रकटनपटुरिन्द्रिय-मनोनिरपेक्ष आत्मनः साक्षात्प्रवृत्ती बोध एवेति हृदयम् । केवलं
असाधारण सम्पूर्णज्ञेयग्राहि-वात्सम्पूर्ण वा, तच्च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानं रूप्यरूपिवस्तुग्राहकं पञ्चमज्ञानमिति गाथासंक्षेपार्थः । व्यासार्थस्त्वावश्यकादिभ्योऽवसेय इति । अत्र च 'च-एवं-तथा, शब्दाः पादपूरणे ॥१७॥ अर्थतज्ज्ञानपञ्चके येनेहाधिकारस्तदाह
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
| एत्थं पुण अहिगारो, सुअनाणेणं जओ सुएणं तु । सेसाणमप्पणोऽवि य, अणुओगपईवदितो ॥ १८॥ ____ व्याख्या-अत्र पुनः प्रकृतोऽधिकारः श्रुतज्ञानेन, कुतः १ इत्याह-"जओ"ति, यतः श्रुतेनैव शेषाणां मत्यादिज्ञानानामात्मनो
ऽपि चानुयोगो-व्याख्यानं क्रियत इति शेषः । तु शब्द एवार्थ, स च व्याख्यात एव । अत्र चार्थे प्रदीपदृष्टान्तः-यथा हि प्रदीप ४. आत्मानं शेषान घटादींश्च प्रकाशयति, नथेटमपीति । अयम्भाव:-इह घहिंसापरिज्ञानार्थ ज्ञान शिक्षणीयमित्युपदेशः प्रक्रान्तः, अहिं.
सायाच स्वरूपज्ञापने श्रुतज्ञानमेव मुखरं, न शेषनानानि, तेषां मूककल्पत्वात् , ततस्तेनैव श्रुतज्ञानेनात्राधिकार इति गाथार्थः ॥१८॥ ____ननु यदि श्रुतज्ञानेन शिक्षितेनाहिंसापरिज्ञानं, ततः कार्य सिद्धिस्तर्हि वर्तमानकालभाविना तथाविधमेधाऽभावात्सर्वस्य श्रुतस्य | एशिक्षितुमशक्यत्वादशक्यानुष्ठानोपदेश एवार्य भविष्यतीत्याशङ्कवाह। एकम्मि विमोक्ख-पयम्मि होइ जो एस्थ निञ्चमाउत्तो। तं तस्स होइ नाणं, छिदइ सो तेण दुहजालं ॥१९॥ 5 व्याख्या---एकस्मिन्नपि मोक्षकारणभृते अहिंसादिपदे जिनोक्त योऽत्र लोके नित्यमायुक्तः-अङ्गाङ्गिभावेन परिणततदर्थो भवति,
। तदेकमपि मोक्षपदं "तस्स" इति मोक्षपदे आयुक्तस्य ज्ञानं भवति. छिनत्ति च स तेन कारणभूतेन, दुःखयति संसारिणः प्राणिन इति * दुःखं, तस्य जालं, कारणे कार्योपचाराद्वाऽष्टविध कर्मसमूह । इदमुक्तं भवति-न वयं सम्पूर्णश्रुताध्ययनादेव स्वकार्यसिद्धि बमः, अपि तु रौहिणेयतस्करेन्द्र-चिलातीपुत्रादीनामिव यो यावति श्रुते नित्यमायुक्तस्तस्य तदपि श्रुतं स्वकार्यसिद्धये स्यादिति गाथार्थः ॥ १९॥
उक्तं किं ज्ञानमिति प्रथम द्वारं, इदानीं ज्ञानदातुरि बिभणिधुराहसंविग्गो गीयस्थो, मज्झस्थो देसकालभावन्नू । नाणस्स होइ दाया, जो सुद्धपरूवओ साहू ॥ २० ॥ .
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-यः संविध-उद्यतविहारी, स च साचारावष्टम्भेनाद्वचनं यथावत्प्ररूपयत्यादेयवाक च स्यादत इदं विशेषण, यदुक्तंडा" गुणसुट्टियस्म बयण, महुधयसित्तोत्र पायको भासह । गुणहीणस्स न रेहड़, नेहविष्णो जह हईयो ।॥ १॥"
सविनश्च गीतार्थस्य गुरोः शिक्षका शिष्या)दिरपि स्यादित्याह- गीतार्थः-अधीनच्छेदग्रन्थादिसूत्रार्थः, अयं चोत्सर्गापवादो वेत्तीत्येहै। तद्विशेषणं । अगीतार्थो हि ज्ञानदानेऽनधिकार्येव, यतः
"सावनगवजाणं, वयणाणं जो न जागइ विसेसं | वोत्तुं पि तस्म न खमं, किमंग पुण देसणं काउं? ॥१॥"
___ गीतार्थोऽपि रागद्वेपाभिनिवेशतो गोष्ठामाहिलादिबदहद्वचनमन्यथाऽपि प्ररूपयेदित्याह-मध्यस्थो रागद्वेषाभिनिवेशवर्जितः । पुनः है कथम्भूतः १ इत्याह- देस"इत्यादि, देशः-पावस्थादिभावित क्षेत्ररूपा, काल:-सुभिक्षदुर्भिक्षादिः, भावः-परचित्ताभिप्रायादिलक्षणस्तान
जानातीति देशकालभावनः, यथोक्तदेशाद्यभिज्ञो हि तदनुसारेणैव शुद्धोञ्छदेशनादौ यतते इतीत्थं विशेषणं । ननु गीतार्थत्वेन देशाद्य| मिझता लब्धैव, कि पृथग्रहणेन ? इति चेदुच्यते-गीतार्थो हि कश्चिच्छास्वनिर्णीत देशादिस्वरूप विदन्नपि कर्मक्षयोपशमवैचित्र्यात्तथा| विधदक्षता-स्मृतिपाटवाद्यभावाद् व्यवहारकाले पाभिप्रायाटेरनुचितभाषणादौ प्रवर्तेन, इति व्यवहारकालेऽपि तदौचित्यप्रवृत्तिवैशिष्टय| ख्याफ्नार्थ पृथगेतद्विशेषणोपादान, अत एव षट्त्रिंशदाचार्यगुणेषु सूत्रार्थोभयातायाः सकाशाद्देशकालभावज्ञतादिगुणः पृथगुयात्त इति । पुनः कथम्भृतः ? इत्याह-शुद्धं-यथावस्थितं जिनवचनं प्ररूपयतीति शुद्धप्ररूपकः। ननु यथोक्तगुणविशिष्टः शुद्धप्ररूपक एव भधियति, किमनेन ?, सत्यं, (किन्तु) ज्ञानदातुः कदाचिदशेषगुणाभावेऽपि तीर्थप्रकृति हेतोयथावजिनवचनप्ररूपकत्वस्य गुणस्य प्राधान्यादवश्यान्वेषणीयत्वख्यापनार्थ पृथगुपादानं, अन्यथा विपर्ययसम्भवात् । यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात्स एवंविधगुणविशिष्टस्साधु नस्य
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
दाता भवति । इह च साधुग्रहणेनाचार्यादेरपि ग्रहण, साधुत्वस्य सर्वत्रानुगमादिति गाथार्थः । शुद्धप्ररूपकस्यैव महात्म्य प्रकटयाहreasta विहारे, कम्मं सोहेइ सुलहबोही य । चरणकरणं विसुद्धं उवहंता परुतो ॥ २१ ॥ व्याख्या– विहारे-यथोक्तसंयममार्गप्रवर्त्तनरूपे अवसन्नोऽपि - शिथिली भूतोऽपि अशुभं कर्म शोधयति - निर्जरयति, जन्मान्तरे सुलभबोधिश्व-सुखप्राप्यजिनधर्मश्च स्यात् । किं कुर्वन् ? इत्याह- चरणकरण - महाव्रतपिण्डविशुद्धयादिगुणसन्दोहरूपं, विशुद्ध - अर्हद्भियथा गदितं, उपयन् - प्रशंसन् तथा प्ररूपयेदेति । एतेन च यथावदुपहितेन आत्मनिन्दापरगुणोत्कीर्तनरतो 'बंद न य वंदावेद" इत्यादिलक्षणयुक्तः संविप्रपाक्षिक उक्तः अस्य च कर्मशुद्धिस्सुलभबोधित्वं चोपलक्षणं, यावदैहिकामुष्मिको जनानुरागादिको गुणग्रामोऽन्योऽपि जायते, विपर्यये तु विपर्ययसद्भावात् । तथा चात्र पिण्डनिर्युक्त्युदाहृतमुदाहरणं सङ्घियोच्यते
,
महर्षिमेकमायान्तं दृष्ट्वा काचिद् गृहे निजे । अन्नाद्यादा(नमादा) य दानीयं निर्गताऽगान्मुनिस्ततः ॥ १ ॥ नीद्वारे गृहे तस्मिन शुध्यत्येषणेत्यतः । तदा सविस्मयं श्राद्धी, किञ्चिद् ध्यायति यावता ॥ २ ॥ तावदन्यो मुनिस्तन, समागात्संयमालसः । अशनादि तया तस्य तदस्वेति स जल्पितः ॥ ३ ॥ पूर्वागतो मुनिः किं न जग्राहैतदुवाच सः । नीचद्वारे भवद्गेहे, भिक्षा साधोर्न कल्पते ॥ ४ ॥ अहं तु तेनेमां गृह्णामीत्युदितेति सा । स्मरेत् खनिन्दकोऽस्त्यन्य-गुणग्राही गुणी ह्यतः ॥ ५ ॥ अतो दत्तं पुनस्तस्याशनादिविपुलं तथा । तावदन्योऽपि तत्रैकः समागात्संयमालसः ॥ ६ ॥ तदा तस्यापि सा सर्व तं वृत्तान्तं तथाऽवदत् । स प्राह मायया तेन, भिक्षा नोपाददे सदा ॥ ७ ॥
ORI
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
AMECHNILIALPANA
चीर्णवतास्तु गृहीमो, वयं स्वेनामितीरिते । चिन्तयेत्सा अधर्माऽध-मन्यदन्पं व निन्दति ॥ ८॥ सदपानमिदं नूनं. इत्येषा कुपिता सनी। न किञ्चित्तस्प तहत्त-वती दान विवेकिनी ॥९॥
इति शुद्धग्ररूपकत्वगुणे ज्ञानदाद मिवश्यं गरिमझिरि सानाः ।। २१उक्तं ज्ञानदातद्वारं, इदानीं तद्ग्रहणविधिद्वारमाहअक्खलिमिलियाइगुणे, कालगाहणाइओ विही सुत्ते। मजणनिसेजअक्खा, इच्चाइकमो तयाम्म ॥२२॥ ___व्याख्या---श्रुतं द्विधा-सूत्रतोऽर्थतश्च, तत्र सूत्रे आचाराङ्गोत्तराध्ययनादिसम्बन्धिनि कालग्रहणादिको विधिः, कालश्च समयसिद्धः क्रियाविशेषः, आदिशब्दादुद्देशसमुद्देशानुज्ञाप्रमार्जनादिपरिग्रहः । कथम्भूते सत्रे ? इत्याह-उच्चरतः स्खलनं स्वलितं, पदादिदिच्छेदशून्यं यत्तन्मिलितं, तयोर्भावः स्खलितमिलितत्वं, न स्खलितमिलितन्त्र-अस्खलितमिलितत्त्रं, तदादियामहीनाक्षरानधिकाक्षरादीनां ते अस्खलितमिलितत्त्वादयः, एवम्भूता गुणा यत्र तत्तथा, तस्मिन् । एतेन च अहीनाक्षरानधिकाक्षरास्खलितामिलितत्वादिगुणयुक्तं सूत्रं पठनीयमिति विधिरेवोक्तः, अक्षरहीनत्वाधुपेतं तूचार्यमाणं विद्यामन्त्रादिकमपि विवक्षितफलबैकल्पमनर्थावाप्तिं च जनयेत्, किं पुनः परममन्त्रकल्प श्रीजिनप्रणीतं सूत्रं ?! तथा चात्रानुयोगद्वारचूर्णावुक्तं कथानकं सङ्क्षिप्योच्यते"इह मगहे राय गिहे, पुरम्मि धीरे जिणे समोसरिए । सेषिय-अभपाईया, समागया बंदणनिमित्त ।। १॥" | "धम्म सोऊण विणि-गयाए परिसाए खेयरो एको । उप्पडद पडद धरणि, सेंणिओ तो जिणं पुच्छई ।। २ ॥" PI"किं एस खेयरो नाह!, उप्पद निवए? जिणो भणइ एवं । जह नहगामिणिविज-खरमेगमेयरस पम्हुसिय॥३॥"
"तेणे इमो न हु गच्छह, एयं सोचा जिगोवएसेणं । खिष्पं गंतूणाभय-कुमारो तं खेयरं भणह॥ ४॥"
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
"तुह विजाए पम्हुट्ट-मक्खरं जाणिकण जिणकहिये । वुच्छामि देह जड़ मह, बिजं परिवज्जियं तेण ॥ ५ ॥ " "तो कहर अभयकुमारो, लद्धीए पधाणुसारिणीए य । अक्खरमिमस्म खयरो, बिलं दाऊण उप्पडओ || ६ ||"
इत्येवं यथा हीनखेचरवारिवाद सम्पन्नस्तथा सूत्रेऽप्यक्षरादिहीनतायामभिधेयभेदस्तद्भेदे क्रियाविघातस्तद्विघाते चरणविसंवादस्तद्विसंवादे निर्वाणाभावस्तदभावे च दीक्षावैयर्थ्यमिति, एवं अधिकारादावपि दोषा वाच्याः, अतो यथोक्तगुणयुक्तमेव सूत्रं पठनीयम् । अर्थगतं तु विधिमाह तस्य सूत्रस्य अर्थस्तदर्थस्तस्मिन् श्रूयमाणे मार्जनं-शोधनं शुत्रः कर्त्तव्यं, निषद्या गुरोर्विरचनीया, अक्षा-वन्दनकास्तत्स्थापना कार्या, इत्यादिकः क्रमो - विधिः, आदिशब्दाद्वन्दनकदानादिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ २२॥ ar aaraana forधमाह -
निद्दा- विगहा - परिव-जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भक्तिवहुमाणपुत्रं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥ २३ ॥
व्याख्या --निद्रा-निद्रादिभेदात्पञ्चधा, विकथा - स्त्रीकथायाश्चतस्रस्ताभिः परिवर्जितः, तथा गुप्तै- निगृहीतमनोवाक्कायैः, तथा प्राञ्जलिपुटै:- संयोजित करकमलैः, तथा भक्ति- बह्मप्रतिपत्तिलक्षणा बहुमान वित्तानुरागरूपस्तौ पूर्वं यत्र तत्तथेति क्रियाविशेषणम्, तथैवोपयुक्त - दत्तावधानैः, एवम्भूतैः किं ? इत्याह-श्रोतव्यं आकर्णिनीयं गुरुक्तमिति शेषः, इति गाथाऽक्षरार्थः ।। २३ ।। पुनः कथम्भूतैः श्रोतव्यमित्याहअभिकखतेहिं सुहा-सियाई वणाई अत्थसाराई । विहियमुहेहि हरिसा - गएहिं हरिसं जणंतेहिं ॥२४॥ व्याख्या -- अभिकाङ्क्षद्भि- वञ्छद्भिः सुभाषितानि मधुराणि वचनानि, अर्थसाराणि - महार्थानि तथा विस्मितमुखै नेत्रविका
sadabad...
"
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोल्लासादिना सकौतुकाननः, 'हरिसागरहिति आगतहर्षेः, इषं च जनयद्भिराचार्यादीनामिति गाथार्थः ।। २४ ॥
एवं च श्रवणे श्रोतारो यल्लभन्ते तदाहगुरुपरिओसगएणं, गुरुभत्तीए तहेब विणएणं । इच्छियत्तस्थाणं, खिप्पं पारं समुवयंति ॥ २५ ॥
व्याख्या--गुरुपरितोषगतेन गुरुपरितोषजातेन सता, गुरौ परां प्रीति गतेनेत्यर्थः, गुरुपरितोषप्रकारेण वा, गुरुभक्त्या-तत्सेवारूपया, तथैव विनयेनासनदानादिरूपेण । किमेहेतुभिः स्यात् ? इत्याह-ईप्सितस्त्रार्थयोः क्षिप्रं-शीघ्र पारं-निष्ठां समुपयान्ति । | "सुत्तस्थाण"मिति सूत्रे बहुत्वं य(न) "दुश्चयणे बहुअयण"मिति प्राकृतलक्षणादिति गाथार्थः ॥ २५ ॥ ____ सम्प्रति यस्य सूत्राी देयौ तद्दर्शनपूर्व विध्यन्तरमाहसमयभणिएण विहिणा, सुत्तं अथो य दिज जोग्गस्स । विजासाहगनाएण, होति इहरा बह दोसा॥२६॥
व्याख्या-समयभणितो विधिलेशतो दर्शित एव, विस्तरस्तु स्थानान्तरादवसेयः । तेन समयभणितेन विधिना सूत्रं अर्थ च | दद्यास्त्वं, कस्य ? इत्याह-योग्यस्य अर्हस्य, न त्यपात्रस्य । कुतः ? इत्याह यतो विद्यासाधकज्ञातेन भवन्ति इतरथा दायकग्राहक्योः | सूत्रार्थयोश्च बहवोऽवर्णवादादयो दोषा इति गाथाऽक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकमभ्यस्तछेदम्
वाराणस्यां विजयसेननृप-कमलमालादेव्योरमगुरसौभाग्यभूमिः सकलकलाकेलिगृहं पुरन्दरः कुमारः । अन्यदा तस्यैव राझो राख्या मालतीनाम्न्या कुमारं स्म(मा)रानुकार विलोक्य विहलया विलजया चतुरट्या प्रकटितः खाभिप्रायः कुमारस्य पुरः। तं चाऽऽकर्ण्य | | कुमारेण चिन्तित-"अहो !! मोहस्य महात्म्यं, किश्चित्पश्यत पश्यत । लोकद्वयविरुद्वेऽपि, यतो जन्तुः प्रवर्तते ॥१॥"
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशितं च - "नाभिलाचा कुलस्त्रीणां युक्तोऽपि पुरुषान्तरे । पुत्रे कामानुरागस्तु, पशुस्त्रीणां पुनर्पदि ॥ २ ॥ " "अन्यान्ययुवतिसङ्गम-रसिकेषु ध्वजपटाग्रचलेषु । पुरुषेषु कोऽनुरागः ?, क्षणरक्तबिरक्तचित्रेषु ॥ ३ ॥" तथा"अंधो पंगुव अर्ज-गमन्त्र जर विहुरिओ मुगुरुव आलबि पि न जुत्तो, परपुरिसो सुकूलनारीणं ॥ ४ ॥
39
इति मद्वचसा तां तथा संस्थापय यथा न स्वप्नेऽपि चिन्तयतीदमिति । चेटी विसृष्टा सा च कुमारोक्तं सविशेषं स्वस्वामिन्यै न्यवेtra | तथाप्यनिवृत्त मारविकारा साऽन्यान्यबेटीसचारणान निवर्त्तते यावत्ततस्तत्परिणामस्यानिवार्यत्वं स्वस्य च तदकार्यं विचार्य राज्ञस्तत्खरूपमनिवेद्य देशान्तरं परिभ्रमन कुमारो मार्गमिलिते कस्मिंश्चिद्विप्रे निर्गुणेऽपि वाचालतया मार्गश्रममपहरति बहुस्नेहं बबन्ध । पल्लीपथेषु च प्रत्यर्थितयोपस्थितान् पल्लिनाथान् प्रमध्य कचिन्दिपुरासनोद्याने विश्राम्यति, तात्रता सिद्धकूटशैलादागत्य भूतानन्दाभिधः सिद्धपुरुषः कुमारं ग्राह- 'मो महासत्व : प्रतिदिनच्छा के कनकसहस्रस्थापन-सङ्ग्रामाभङ्गुरत्व- त्रिकालविषय विज्ञानाद्यनेकफल विद्याया योग्यस्त्वमेव मे देवतयाऽभिहितः' इत्युक्त्वा तेन दवां तां महाविद्यां सपूर्वोत्तरसेवाविधि लब्धवान् कुमारः अयोग्यस्यापि तस्य द्विजस्य महाग्रहासां विद्यां तस्माददापयच्च । ततो गुरूक्तविधिना विद्यां सम्यक् साधयित्वा नन्दिपुरे चन्द्रकान्तागणिकागृहे विद्याप्रभावात्पूर्य. माणसर्वसमीहितः स्थितः । विद्यां गुरुं चोषहसन् विप्रस्तु कापि गतः । कुमारस्य तु तत्र मतितिलकामात्यपुत्रेण श्रीनन्दनेन सह मैत्री जाता । अन्यदा कचित्प्रासादे कौतुकोपविष्टः स तत्पुरप्रभोः प्रासादे सकलपुरक्षोभकरमतुच्छ ललितं कलकलमाकर्ण्य तज्ज्ञानाय प्रेषितः कोsपि क्षणादागत्य कुमारमाह, यथा- 'एतत्पुरप्रभोः सूर(सेन) नृपतेः प्राणेभ्योऽपि प्रिया रतेरप्यधिकरूपा चतुःषष्टिकलाकौशलवती बन्धुमती नाम तनया केनाऽप्यपहृता, तेनायं तुमुल' इति । ततश्चिन्तयति कुमारः - अहो !! अस्माकमिह तिष्ठतामपि सा केनाप्यपहृता,
cente
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
तदेतत्संवदितं यदभिहितं केनापि -
19
+6
" सन्निहियाणं विभोगद्राणं न कमलिणी जाया । सालूराणं दूरा-गया वि भुंजंति तं भ्रमरा ॥ १ ॥ इत्यादि चिन्तयन् गतः कुमारः स्वस्थानं । इतव बहुधा विलोकिताऽपि न कचित्प्राप्ता वार्त्ताऽपि कन्यायाः, ततस्तद्विरहेण व्याकुलीभूते विलपति नृपतौ मन्त्रिपुत्रेण श्रीनन्दनेनोक्तं- 'हे देव ! अन पुरे वैदेशिकोऽस्त्येकः कलावान् स निर्द्रव्योऽपि परमैश्वर्यवान् दाता भोक्ता च इति विद्यासिद्धः सम्भाव्यते इति स पृच्छयते । ततः सम्भावनयाऽपीषदुच्छ्रवसितेन राज्ञा मतितिलकप्रमुखप्रधानपुरुषः सानुनयमानावितस्तत्र कुमारः, सबहुमानं दृष्टः पृष्टवोचितं कुशलादि । ततो राज्ञाऽदिष्टेन श्रीनन्दनेन बन्धुमतीस्वरूपं पृष्टः कुमारचिन्तितवान्"व्यसनात्तभ्यर्थितार्थ जीवितं चेदपि व्रजेत् । यातु यातु फले लाते, शालेः शोषो न दुःखकृत् ॥ १ ॥ 'कस्य न स्युः प्रियाः प्राणाः १, लक्ष्मीः कस्य न वल्लभा ? | सतामवसरे प्राप्ते, द्वयमेतत्तृणायते ॥ २ ॥ " इति विचिन्त्य 'देव ! महत्साध्येऽप्यस्मिन्कार्य यदि देवस्य मयि सम्भावना ? तर्हि दशदिवसमध्ये चेत्कन्यां नानयामि तर्हि ज्वलज्ज्लनं प्रविशामी ति प्रतिज्ञां चकार कुमारः, ततो राज्ञा सम्मान्य विसृष्टः । स्वस्थानं प्राप्तं विधिस्मृता विद्या तं प्राह- अत्रैव भरते वैतायगिरौ पञ्चविंशतियोजनोचैः रजतमये गन्धसमृद्धनगरे मणिकिरीटो विद्याधरः, तेन नन्दीश्वरयात्रां कृत्वा वलमानेन रूपमोहितेन बन्धुमती हृता, स सम्प्रति गङ्गातटे घवलकूटगिरौ तस्याः पाणिग्रहणसामग्रीं कुर्वन्नस्ति, एहि तत्र यामि इति । एवं भवत्विति प्रतिप | विमाने निवेश्य विद्यादेवतया कुमारस्तत्र नीतः । तत्र परिणयनसामग्रीं कुर्वाणो हकितः कुमारेण मणिकिरीट:- रे ! किमारधं ? तस्क रमरोचितं । ततः प्रवृत्तं द्वयोर्दिव्यासैर्युद्धं ततस्सर्वथाऽजेयपराक्रमं कुमारं ज्ञात्वा त्यक्ताहङ्कारः प्रणतः खेचरा. ततो द्वयोर्मैत्री. विद्या
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
| धरप्रार्थितः कुमारो बन्धुमतीसहितो वैताढथे गतः। तद्गौरवण कियन्ति दिनानि स्थितः। ततो दशमदिने विद्याधरैः परिवृतो बन्धुमती | लात्वा नन्दिपुरे महामहोत्सवेन गतः । ततो गुणाकृष्टचित्तेन सूरसेन नृपतिना दत्ता स्वस्मिन्मनुरक्तां बन्धुमती परिणीतवान् । कालेन 3पित्रा इतेनाहूतो दशसहस्राणि गजान्-दशसहस्राणि स्थान-लक्षं अश्वान्-कोटिद्वयपदातीन् दत्वा सूरसेननृपेण विसृष्टो बन्धुमत्या सह
विजयसेनेन राज्ञा कारिखप्रवेशमहोत्सवा स्वपुरमा अन्यदा श्रीविजयसेननृपो भार्यामालती-पुत्रपुरन्दर-वधूवन्धुमत्यादिभिः सहान्तरङ्गमुपमितिकथोपदेशं श्रीविमलबोधकेवलिमुखान् श्रुत्वा गृहीतगृहिवतमनिच्छन्तमपि पुरन्दर कुमार राज्ये निवेश्य मालतीयुतस्तत्समीपे ,
दीक्षामादायोत्पन्चकेवलः कैवल्यमलभत । पुरन्दरराजा तु न्यायेन राज्यं पालयनन्यदा गवाक्षे पुरीं पश्यंस्तं पूर्वपरिचितं विघं उन्म E धूलिधूसरं लोकतेषुभिहन्यमानं चतुर्दिक्षु धावन्तमुपलक्ष्य दुःखी जातः, ततो विद्यां स्मृत्वा 'अत्रज्ञां कुर्वन् मयैवायं ग्रहिलीकृत' इति । | तन्मुखेन ज्ञात्वा तां बहुशोऽभ्यर्थ्य विप्रं सजी चके । ततः श्रीपुरन्दरनृपोऽपि चिरं राजसुखमनुभूय बन्धुमतीतनयं श्रीगुप्तं राज्ये संस्थाप्य बन्धुमत्या सह विमलबोधकेलिसमीये दीक्षा जग्राह । बहुश्रुतो गुर्वादेशादेकाकिप्रतिमया विहरन् कचिदुपग्रामं प्रेतवने ग्रीष्मे मध्याहे निरावरणमातापनां करोति । तदा च पूर्वप्रमथितपल्लीपतिना स्मृतप्रापराभवेन रालादिगर्भशणतृणादिना तं वेष्टयित्वाऽमिः ग्रोद्दीपितः।
तं चोपसगै तितिक्षमाणः शुक्लध्यानामिना तत्स्पर्द्धयेव निर्दग्धसकलकर्म(मलो)जालोऽन्तकृत्केवली सिद्धः । पल्लीपतिस्तु महापाप इति || 5 सर्वपरिवारेण निर्वासिता क्वापि रजन्यामन्धतमसेऽन्धकूपे पतितः खदिरकीलकप्रोतजकद्रौद्रपरिणामः सप्तमपृथिव्यामृत्कृष्टायुरप्रतिष्ठाने | समुत्पनः । बन्धुमत्यपि च ती तपस्तप्त्वा सिद्धा, इति पुरन्दरचरितं समाप्तम् ।।
तदेवं यथा योग्यस्य पुरन्दरकुमारस्य दत्ता विद्या सफलतां गता, अयोग्यस्य तु विप्रस्य अनर्थफला सञ्जाता, एवं सूत्रार्थावपीति ||
ThuriTIALका
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
विभाव्य योग्यस्यैव तौ देयो, न त्वयोग्यत्य, बहुतमदोषसम्भवादिति गाथार्थः ।। २६ ॥ अथामुमेवा घटान्तेन दृढयन्नाह... आगे रहे लिहिले, जहाजलं तं बलिणासह । इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ।। २७ ॥ ___ व्याख्या-यथा आमे-अपरिपक्व घटे निक्षिप्नं जलं तमेव घटं विनाशयति, भूमिगमनादिभ्यः स्वयमपि तोर्य विनश्यतीत्यपि द्रष्टव्य, एवं सिद्धान्तरहस्यमप्यल्पाधार तुच्छप्राणिलक्षणं दीर्घरोगोन्मादादिभ्यो विनाशयति, स्वयमपि तत्सिद्धान्तरहस्यमुपहासाप्रीत्यादिभ्यो विनश्यतीत्यत्रापि स्वयं ज्ञेयमिति गाथार्थः ॥ २७ ॥ ___योग्येनापि शिष्येण ज्ञानं जिघृक्षता 'मम तथाविधा मेधा नास्त्यतो नेदं मया गृहीतव्य' इति न चिन्तनीयमित्याह
मेहा हुज न होज व,लोए जीवाण कम्मवसगाणं। उजोओ पुण तह वि हु, नाणम्मि सया न मोत्तव्यो॥२८॥ ECो व्याख्या--"लोए"त्ति अस्मिन् लोके कर्मवशमानां जीवानां मेधा-बुद्धिः, कर्मक्षयोपशमसद्भावात् कस्यचिद्भवेत्तदभावात् कस्खें
चिन्न भवेद्वा, तथाप्युद्योगः पुनः-उद्यमः पुननिऽध्येतव्ये सदा-निरन्तरं न मोक्तव्यः । अयम्भावः कर्मनिरैव हि साध्या, सा च प्रज्ञायत इतरस्य च श्रुताध्ययनं विदधतः सम्पद्यत एव, ततोऽल्पमेधसाऽपि 'मम न क्रिश्चिदागच्छती'त्युद्धेमतोऽध्ययनं सर्वथैव न | मोक्तव्यमिति गाथार्थः ॥२८॥ ननु यदि प्रतिदिनं श्लोकदशकविंशत्यादिकं किश्चित्पठतामागच्छेत् तदाऽधीमहि, यदा तु सकलेनापि | दिनादिना पदादिमात्रमेव किश्चिदागच्छेत् तदा किं तेनेत्याशङ्कयाह--- ४ जइवि हु दिवसेण पयं, धरिज पक्वेण बा सिलोगऽद्धं । उज्जोमा मुंचसु, जइ इच्छसि सिक्खिउं नाणं॥२९॥|
ॐ
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या -- यद्यपि दिवसेन समस्तेनाऽपि पदं धरति-अवतिष्ठते, पक्षेण वा श्लोकार्द्धमवतिष्ठते, तथाप्युद्योगं मा मुच, यदीच्छसि शिक्षितुं ज्ञानं । इयमत्र भावना - यद्यपि दिनादिना पदमात्रमेवागच्छति तथापि बहुना कालेन तद्बहु सम्पद्यते कर्मनिर्जरा च सञ्जायते, अतः श्रुतज्ञानमिच्छना सर्वदेवाध्येतव्यम्, यतः" योजनानां सहस्रं तु शनैर्याति पिपीलिका । अगच्छन्वैनतेयोऽपि, पदमेकं न गच्छति ।। १ ।। " इति गाथार्थः ।। २९ ।। अत्रार्थे सूत्रकार एवं दृष्टान्तमाह
जं पिच्छ अच्छेरं, तह सीयलमउयएण वि कमेण । उदएण वि गिरी भिन्नो, थोवं थोवं वईते ॥३०॥ व्याख्या -- यत् - यस्मात्प्रेक्षध्वमाथर्य, यदुत - ' तथा ' तेन लोकप्रसिद्धेन प्रकारेण शीतलमृदुनाऽपि स्तोकं स्तोकं वहताऽपि, एव | सत्राप्यपि शब्दः सम्बन्धनीयः, उदकेन नद्यादिसम्बन्धिजलेन क्रमेण गिरिर्भिन्नः सर्वजनप्रसिद्धं चैतत् । एवमत्रापि नित्यं स्तोकं स्तोकं पठन्तोsपि कालेन श्रुतरहस्य गिरिमेदिनो भवन्तीत्युपनय इति गाथार्थः ॥ ३० ॥
उक्तं ग्रहणविधिद्वारं, साम्प्रतं 'गुणाश्च के ? तस्येति चतुर्थद्वारमभिधित्सुराह
सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिया त्रि । तह जीवो वि सलुतो, न नस्सइ गओ वि संसारे ॥३१॥ व्याख्या—यथा सूचिः समूत्रा-छियोतसूत्र निर्मितदवरका कचवरे पतिताऽपि न नश्यति । दवरकदर्शनानुसारेण पुनरपि गृह्यत | इति भावः । तथा जीवोऽपि सत्रः- पठितसिद्धान्तः अशुभकर्मोदयवशात्पतितः सन् संसारे गतोऽपि न नश्यति । पूर्वाधीतस्यैव श्रुतस्य महात्म्यात्पुनरप्याक्षिप्तबोधिलाभादिभावः स्तोककालेनैव सिध्यत्येवेति भावः इति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ अत्र व्यतिरेकमाह
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूई विजह असुत्ता, नासइ रेणुम्मि नित्रडिया लोए। तह जीवो त्रि असुन्तो, नासइ पडिओ भवरयम्मि ॥३२॥ व्याख्या -- यथा अस्मिलोके चिरपि अनुत्रा - छिद्राप्रोतसूत्रतन्तुः रेणुमध्ये निपतिता नश्यति, तथा जीवोऽपि असूत्रो-नधीतसिद्धान्तोऽशुभकर्मोदयवशाद्भवरजसि पतितस्सन्नश्यति प्रभ्रष्टबोधिलाभादिभावो दुःखान्यनेकान्यप्यनुभवतीति भावः, इति गाथार्थः ॥ एतेन च ज्ञानस्य बोधिलाभाक्षेपकत्वमेको गुण उक्तः, इदानीं तु तस्यैव चारित्रशोधकत्वगुणमाहजह आगमपरिहीणो, विज्जो वाहिस्स न मुणइ तिगिच्छं । तह आगमपरिहीणो, चरितसोहिं न याणेइ ॥ ३३ ॥ व्याख्या -- यथा आगमेन - आत्रेयादिऋषिप्रणीतशास्त्रादिरूपेण, परिहीणो-रहितो वैद्यो व्याधे-र्वरादिरोगरूपस्य चिकित्सां अपगमोपायरूपां न "मुण "त्ति प्राकृतलक्षणेन जानाते "र्शो जाण - मुणी" इति मुणादेशे जानाति । तथा आगमेन - कल्पव्यवहारादिरूपेण परिहीणस्साघुरपि अतिचारमलक्किन्नस्य चारित्रस्य शुद्धि (शोधिं ) - प्रायश्चित्तप्रदानेन निर्मलीकरणलक्षणां न जानाति, न्यूनाधिकं प्रायश्चित्तं दवा आत्मानमालोचकं च संसारभाजनं करोतीति भावः, इति गाथार्थः ||३३|| अथ ज्ञानादपि प्रधानवस्त्वेष न किञ्चिदस्तीति दर्शयतिकिं एत्तो लहरं, अच्छेरतरं व सुंदरतरं वा । चंदमिव सव्वलोया, बहुस्सुअमुहं पलोयंति ॥ ३४ ॥
व्याख्या--- किमेतस्मान् -ज्ञानालष्टतरं - शोभनतरं १, न किञ्चिदित्यर्थः । अथवा आश्चर्य - चित्तविस्मयरूपं प्रकृष्टमाश्चर्य माथर्यतरं, जनकं वस्त्वयुपचारादाश्चर्यतरं तदपि ज्ञानादन्यरिक १, न किमपीति भावः । चतुर्दशपूर्व विदामनुत्तरसुरशरीरेभ्योऽप्युत्कृष्टतरपुद्गलप्रकल्पितशैलानलाद्य स्खलितहस्तमिताऽऽहारकशरीरकरणादिशक्तिहेतुत्वाज्ज्ञानमेवोत्कृष्टाश्चर्यनिधानं नान्यदित्याशयः । यदि वा सुष्ठु
de
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्पयति-हर्ष नयति दृष्टं सत्सर्वलोकानिति निरुत्या सुन्दरं, प्रकृष्ट सुन्दर-सुन्दरतरं । 'लष्टतर मित्यनेन सामान्यशोभनतरं विवक्षितं, | सुन्दरतरं तु यथोक्तखरूपमित्यतोऽस्य भेदः । ततः सुन्दरतरमपि ज्ञानादन्यत्कि?, न किञ्चिदित्यर्थः। कथमिदं ज्ञायते ? इत्याह| यतश्चन्द्रमिव बहुश्रुतमुख सर्वे लोका अन्तःप्रसर्पत्प्रचुरबहुमाननिभृतचेतसः प्रस्फारित दृशः प्रलोकयन्ति, ततो लोके पुरुषत्वादिधर्मसाम्ये|ऽपि शेषपदार्थेभ्यः स्वाधारे प्रकर्षवद्गौरवाधानकारणत्वाज्ञानमेव लष्टतरादिस्वरूपं, नान्यदिति । अथवेत्थं व्याख्या-चन्द्रमिव सर्व| लोका बहुश्रुतमुखं प्रलोकयन्ति, किमध्यवस्यन्तः ? इत्याह-किमेतस्मादहश्रुतमुखालटतरमाश्चर्यतरं वा सन्दरतरं वा ? इत्येवं योजना
कार्येति गाथार्थः ।। ३४ ।। अथ प्रकृष्टकर्मनिर्जराकारणं ज्ञानमेव, नान्यदिति दर्शयन्नाह| छऽहमदसमदुवा-लसेहिं अबहुस्सुअस्स जा सोही । एत्तो उ अणेगगुणा, सोही जिमियस्स नाणिस्स ॥३५॥
व्याख्या-'षष्ठमिन्युपवासद्वयस्य सामयिकी संज्ञा, 'अष्टम'मुवासत्रयस्य, 'दशम सुपवासचतुष्टयस्य, 'द्वादशम भूपवासपञ्चकस्य । 18 इदं च पक्षमासक्षपणादेरुपलक्षणं । ततश्चतैः षष्ठोष्टमादिभिः क्रियमाणैरबहुश्रुतस्य-अगीतार्थस्य या शुद्धिः-कर्ममलापगमरूपा सम्पद्यते,
| एतस्याः शुद्धस्सकाशात्तु अनेकZण्यते इत्यनेकगुणा शुद्धिर्भवति, अतिबवीत्यर्थः । कस्य ? इत्याह-'ज्ञानिनों गीतार्थस्य । कथम्भूतस्य !, | जिमितस्य-उद्गमादिदोषविशुद्धाहारभोजिन इत्यर्थः । अगीतार्थों हि द्रव्यादिस्वरूपमविदन स्वाग्रहग्रस्तस्तकिमपि विकल्पयति वक्ति
विदधाति(वा), येन बुभुक्षादिकष्टं सहमानोऽत्रैवानर्थलक्षाण्याप्नोति मृतश्च भ्रमत्यनन्तं संसारं, शुद्धरभावात् । गीतार्थस्तु यथावद्रव्या| दिखरूपं पिर्दस्तत्किश्चिदाचरति येनात्रैव सर्वजनप्रि(पूजनी)यो भवति, परत्रापि च न स्पृश्यतेऽपायलेशेनापि प्राप्नोति च सर्वसुखसPम्पदः, तथाविधशुद्धिसद्भावात् । यदुक्तं
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
m
..
.
WA
.
.
"जं अन्नाणी कम्म, रखवेइ बहुग्राहिं वासकोडीहिं । तं नागी तिहिं गुत्तो, ख वेइ ऊसासमित्तेणं ॥ १॥"
इति भावः, इति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ अथ ज्ञानस्यैव सूक्ष्मादिपदार्थज्ञातृत्वलक्षणं गुणमुत्कीर्तयन्नुपदेशमाह--- नाणेण सवभावा, नजति सुहुमबायरा लोए । तम्हा नाणं कुसलेण, सिविश्वयध्वं पयत्तेणं ॥ ३६ ॥ व्याख्या-अस्मिल्लोके सर्वे भावाः मूक्ष्मा बादरा वा बानेनैव ज्ञायन्ते, नान्यथा । तस्मास्कुशलेन प्रयत्नेन ज्ञानमेव शिक्षणीयमिति । गाथार्थः ।। ३६ ॥ अथ ज्ञानस्यैवाकारणचन्धुतादिगुणानाह---
नाणमकारणबंधू, नाणं मोहंधधारदिणबंधू । नाणं संसारसमुह-तारणे बंधुरं जाणं ॥ ३७॥ 18 इह सर्वेऽपि 'कारणाद्यन्धुतामेति द्वेष्यो भय ति कारणात् । अर्थार्थी जीवलोकोऽयं, न कश्चित्कस्यचित्प्रियः ॥१॥"| MI इदं तु ज्ञानं अकारणेनैव-कारणापेक्षामन्तरेणैव अर्थावाप्त्यनर्थपरिहारयोर्महासाहाय्यदानतः सर्वजीवाना बन्धुरिव बन्धुः, तथा ज्ञानं |
मोहान्धकारध्वंसे साध्ये दिनबन्धुः, सूर्य इत्यर्थः । तथा ज्ञानं संसारसमुद्रतारणे बन्धुरं-प्रधानं यानं-यानपात्रमिति गाथार्थः ॥ ३७॥ ४ अथ ऐहिकामुष्मिकगुणानामपि ज्ञानमेव साधकमिति सदृष्टान्तं दिदर्शयिपुराह| वसणसयसल्लियाणं, नाणं आसासयं सुमित्तव्य । सागरचंदस्त व होइ, कारणं सिवसुहाणं च ॥ ३८ ।। ।
व्याख्या-व्यसनशतैः शल्ल्यितानां अन्तःपीडितानां ज्ञानमेवाश्वासक-तनिस्तरणोपायप्रदर्शकत्वेन स्वास्थ्यजनक । किमिव ?, Pा सुमित्रमिवेत्यनेन ज्ञानस्यैहिको गुणो दर्शितः, पारत्रिकमायाह-भवति कारण मोक्षसुखानां चेति । कस्येव ?, सागरचन्द्रस्य यथा, का!
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्र पुनरसौ सागरचन्द्र इति चेन् ? उच्यते--
_ इह श्रीभरते मलयपुरे अमृतचन्द्रराज्ञश्चन्द्रकला[रानी] कुक्षिशुक्तिमौक्तिकं सागरचन्द्रः कुमारः, सोऽन्यदा कस्यापि करात् पञ्चशत्या मदीनाररिमा गाथा जग्राह, यथा-"अप्पत्थियं चिय जहा, एइ दुहं तह सुहं पिजीवाणं। ता मुत्तुं सम्मोहं, धम्मे चिय कुणाह
पडियधं ॥ १ ॥” इति । स कुमारोऽन्यदा क्रीडावने गतः, केनाप्यपहता, स्वं समुद्रे पतितमद्राक्षीत् । ततश्चतः कल्लोलेरितो मत्स्यपुछैराहन्यमानः काष्ठखण्डमवाप्य नवमदिनेऽमरद्वीपमवाप्य नालीकरनीराभ्यङ्गारिकमपि जातस्वास्थ्यः फलवृत्ति कल्पयन् गाथार्थस्मरपोन सदाय मातापितवियोगवनवासादिदुखमसदिय गणयंस्तत्र काप्यरण्योद्देशे दिव्याकृतिमेकां कन्यां 'भवान्तरेऽपि सागरचन्द्रो भर्ता भूया'दिति श्रावणां कृत्वा आम्रशाखाऽवलम्बितपाशबद्धकण्ठा म कामां पाश छियाऽरक्षत् । अत्रान्तरे कोऽपि विद्याधरस्समायातः, स तं कन्यास्वरूपमपृच्छत् , कथितं च कुमारेण यथा ज्ञातं तत् । ततः स पाह-भो ! महात्मंस्त्वयाऽस्माकं महोपकारः कृतः कन्यां रक्षता । ततः कुमारानुयुक्तः खेचरः कन्यास्वरूपमाह-यथाऽस्मिन्नमरद्वीपेऽमरपुरे भुवनभानू राजा, चन्द्रवदना प्रिया, कमलमाला पुत्री कलाकुशला । सा च सागरचन्द्रगुणान् श्रुत्वा तत्पाणिग्रहे कृतप्रतिज्ञा, ततस्तत्पिता यावत्तत्सम्बन्धं करोति तावत्सुसेन विद्याधरेण तद्रूपमोहितेन साऽपहृता, अत्र प्रदेशे स्थितेन कन्यामातुलेन अमिततेजसा सा विलपन्ती दृष्टा, तस्मादाच्छिद्य चात्र मुक्ता, युद्धं च कृत्वा
माला, स चाहमेतस्सा मातुलः। अत्रान्तरे कथमपि संग्राम ज्ञात्वामिततेजसो माता विद्युल्लता शशिवेगमुख्या भ्रातरश्च ससैन्यास्समायाताः, कता सर्वैरन्योन्यचिता प्रतिपत्तिः। अथ विद्यालता सागरचन्द्रं दृष्टा सानन्दं प्राह
"क: कल्पपादपो रत्र-निधिः को वा सुधारसः । अनन्त फलदो लब्धो, योगः सत्पुरुषैर्यदि ॥१॥"
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहो!! सोऽयं जगल्लङ्घनजङ्घालयशम्प्रचारः श्रीअमृतचन्द्रनृपात्मजः श्रीसागरचन्द्रकुमारः, योऽस्माभिनन्दीश्वरे यात्रायां गच्छतद्भिर्मलयपुरे पुरा क्रीडन दृष्टः । एतच्चाकये कमलमालाद्याः सर्वेऽप्यमृतस्त्राता इदोच्छ्वसिताः । ततः कन्यामातामही-मातुलाभ्यां विद्युEMIलता-ऽमिततेजोम्यां दत्ता कमलमालां विस्तरेण परिणिन्ये कुमारः, ताम्यां कृताग्रहश्चामरपुरे गतः श्वशुरेण कारितप्रवेशोत्सवः सगौरव,।
तया सह तत्र विलसन्सुखं तिष्ठति । अन्यदा रात्रौ सुखनिद्रायां प्रसुप्तः कुमारः, प्रबुद्धश्च प्रातः कस्यचिगिरेः शिलायां स्वं पश्यति । साततश्चाहो !! सा वासवेश्म-दिव्यशय्या-कमलमाला-चम्पक्रमालादिसखसामग्री ?क चेयं विकटाटवी-खरगिरिशिला-श्वापदस
सामग्री ? इति क्षणचिन्ताचान्तचेताः पुनश्च तां गाथां स्मरनगांगतायत्चत्राटव्यां भ्रमन् क्वचिदशोकतरुतले कायोत्सर्गस्थित मुनिमेकं दृष्ट्वा तद्दर्शनादेव सजातविवेकः प्रणामपूर्व 'साघो! संसारे किं जीवेन कार्य ? इति विनयेनापृच्छत् । मुनिरपि पारितोत्सर्गो है धर्माशिष दया पाह-शृणु भो भद्रक ! तावत्सर्वः सुखार्थी जन्तुः, तच्च प्रार्यमानमपि न धर्मादृते, धर्म एवार्थकाममोक्षाणां हेतुः, अतः
स एव प्रयत्नेन कार्यः। सम्यक्त्वं च तन्मूलं, तच्च देवगुरुतत्वश्रद्धानरूपं, तेयां च "सर्वज्ञो जितरागादि-[दोषस्त्रैलोक्य पूजितः । यथास्थितार्थवादी च, देवोऽहन परमेश्वरः ॥ ४ ॥" योगशास्त्र २ प्र०] इत्यादिकमन्वयव्यतिरेकाभ्यां स्वरूपमिति । ततो मुनिवचनाद्देवा| देवादिस्वरूपं जीवाजीवादिस्वरूपं च ज्ञात्वा मिथ्यात्वं व्युत्सृज्य सम्यक्त्वमादृत्य पुनर्यावकिश्चित्पृच्छति कुमारस्तावन्मुनिस्तिरोऽभूत् । अथ सुनेर्धर्मोपकारं स्मरन्तं रे रे !!! समरविजयकुमारस्तव रुष्टः' इति त्रुवाणा चतुरङ्गचमस्तं सर्वतोऽवेष्टयत् । ततो माथार्थस्मरणेन तामापदमगणयभिजभुजौजसा कस्यापि रथं सायुध गृहीत्वा तत्सन्यमभांक्षीत् । ततः स्वयं संग्रामं कुर्वन्समरविजयस्तद्रथमारुय कुमारेण केशेषु गृहीतस्तमेव शरणं प्रपन्नश्चरणयोलग्नः । अत्रान्तरे कापि स्त्री समागत्य कुमारं पाह-भो महानुभाव ! कुशवर्द्धनपुरे कमलच
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्द्रनृपोऽमरकान्ता प्रिया, तयो वनकान्ता प्रियपुत्री परिणतजिनरचना तव गुणान् श्रुत्वा त्वत्पाणिग्रहे प्रतिज्ञामकार्षीत् । शैलपुरेशसुदर्शननृपपुत्रेण समरविजयेन त्वत्प्रतिपक्षेण मार्यमाणाऽपि न लब्धा, ततः स्वयं चतुरङ्गसैन्येन मण्डलसीम्नि स्थित्वोधाने क्रीडन्ती सा | निपुणैरपहता विलपन्ती, अहं तु तस्या धात्री स्नेहेनायाता, अत्र च स्वं पृष्टः प्रत्यभिज्ञातो योधितश्च, तस्मान्मोचयित्वा तां परिणीया. नग्रहाणेति । ततस्समरविजयस्तामानीय कुमाराय ददौ । स च संक्षेपेण तां परिणीतवान , समरं च सम्भाष्य विसष्टवान् । समरविज
याद्गृहीते रथे तया सहारूढस्तस्याः पुरं प्रति वजन् क्वचिद्रणद्वेणुवीणं दूरतो गीतमश्रौषीत् । ततः सरथा प्रियां तत्र मुक्त्वाऽग्रतो गच्छन् है वननिकुञ्ज सप्तभूमिकं प्रासादमद्राक्षीत् । तत्रारूढो गीतादिपरं सौभाग्यसारं कन्यापञ्चकं दृष्ट्वा विस्मितः । ताभिश्वाभ्युत्थानासनादि
नोपचरितस्तत्स्वरूपमप्राक्षीत् , तामिरा-शैलाये निधारमा ती सिंहनादः, सारा कनकधी-चम्पकश्री-रम्भा-विमला ताराख्याः पञ्च ४. पुत्र्यो क्य, पित्रा पृष्टेन नैमित्तिकेनास्माकं त्वं वरः प्रोक्तोऽस्यामटव्यां तत्र प्राप्तिश्च । ततोऽत्र प्रासादं कारयित्वा पित्रा वयमत्र मुक्ताः ।
ततोऽस्मद्भाग्येन त्वमन्त्रायातः, कुरु शीघ्रमस्मत्पाणिग्रहणं, इत्याकर्ण्य कुमारः सविस्मयो गाथार्थ स्मृत्वा तासां पाणिग्रहणमकरोत् , तावता न प्रासादो न ताः कन्याः, किन्तु स्वं भूमौ पश्यति, रथे गतश्च तमपि प्रियाशून्यं पश्यति । ततो विषण्णो गाथार्थ भावयन् यावदन
तोऽव्यां याति तावच्छ्रीजिनप्रासादं रत्नमयप्रतिमामण्डितं दृष्ट्या बाप्यां कृतस्नानः कमले: पारमेश्वरीं पूजां कुर्वन प्रत्यासन्नसुमङ्गला. ४ पुरीखामिना सुधर्मनृपेण पितुमित्रेण पूजार्थ तत्रायातेनोपलक्षितः, पित्रा सहायाता सुन्दरी कन्या नैमितिकोक्तं सागरचन्द्रं वरं दृष्ट्वा
| प्रमुदिता । अत्रान्तरे सिंहनादवकी पुत्रीपञ्चकं लात्वा तत्र प्रासादे समायातः, कुमारेण पूजां कृत्वा पृष्टः प्राह-कुमार ! जलवितटेमिॐ ततेजा विद्याधरो यः पूर्व त्वया दृष्टः कमलमालामातुलः, तस्य कमलोत्पलौ द्वौ पुत्रौ, तत्र कमलेन भुवनकान्ता रथस्था अपहता, सच
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
BUMARIMARS
.
4
pm
BREAK
वताहये गतः, उत्पलेन त्वं भूमौ क्षिप्तः, प्रासादः स्वविद्ययाऽदृश्यी कृतः कन्यापञ्चकं चापइत, अहं च सम्प्रत्येव तं हत्वा कन्यापश्चकं लात्वाऽत्रायाता, इत्याकर्ण्य कुषितः कुमारः कथश्चित्सुधर्मनृपोपरोधेन सुन्दरीकन्यां परिणीय वैतादथे विमलद्वारपुरे सिंहनादकृतोत्सबो
गात। तत्र सिंहनाददत्ता बहविद्या असाधयत । ततो विद्याबलेन महती प्रौटीमगात । ततोऽमिततेजा भवनकान्त तां माराय समर्य | स्वपत्र योरपराधमक्षमयत, स्वभागिनेयीं प्रथमपत्नी कमलमालां चानीय ददौ । ततः कमारः सर्वाः कन्याः सुम्मील्य विद्याधरपरिवता स्वं पुरं महामहोत्सवेनागात् , ततः कुमारः पञ्चविधसौख्यान्यनुभयति । अन्यदा तत्र पुरोद्याने भुक्नचन्द्र केवली समवस्तः, तं च राजा
सपरिकरः प्रणम्य देशनान्तरे इदमपृच्छन् , यथा-भगवन् ! सागरचन्द्रकुमारः केनापतः१, श्रीकेवली प्राह-महाविदेहे द्वौ भ्रातरौ | है। वणिपुत्रौ, तत्र ज्येष्ठस्य भार्याऽतिस्नेहवती भर्तरि, अन्यदा ज्येष्ठे अामान्तरं गते लघीयसा हास्येन भ्रातृजाया प्रोक्ता, यथा--भ्राता
पथि चौरौर्यापादितः, तत् श्रुत्वा [सा] मृता, लघोः पश्वानापोऽभवत, कालेन ज्येष्ठः समायातः, ज्ञाततत्म्वरूपो लघीयसा शामितोऽपि
न क्षमते, सक्रोधस्तापसो भूत्वाऽसुरेषत्पन्नः । लघुः श्रीजिनधर्म श्रुत्वा प्रवजितः । पूर्ववैरं स्मृत्वा तेनासुरेण शिला शिरसि मुक्त्वा | *मारितः प्राणतकल्पे गतः । असुररः संसार भान्त्या पुनरसुरो जातः । द्वितीयः प्राणताच्युत्वा तव पुत्रस्सागरचन्द्रम्तेनासुरेणापहृतः पूर्व
| वैराद , पूनरिमेकमुपसर्ग करिष्यति, ततस्सागरचन्द्रादोधमवाप्स्यति । इति पूर्वभवस्वरूपं श्रुत्वा सञ्जातजातिस्मृतिर्मन्त्रिभिरनेकथा वार्यFमाणोऽपि पुत्र राज्ये संस्थाप्य पितृभ्यां युतः कलत्रमन्त्रिसामन्तादिपरिवृतः प्रबजितः । ततो गाथामात्रमपि ज्ञानं ममाश्वासकं जातं, तन्नून
बहुलस्खास्य महात्म्यपर्यन्तो नास्तीति विचिन्त्य विशेषतः पठन् चतुर्दशपूर्वी जातः। ततः पालितदीर्घवतपर्यायः, प्रान्ते पादपोपगमनस्तेनैवासुरेण वैक्रियवज्रतुण्डपक्षिसिंहगजादिरूपैरुपसर्गितोऽप्यक्षुभितचित्तः, पुनः शान्तिभूतेन तेनैवासुरेण प्रशंसितः प्राप्तकेवलज्ञानो मोक्षमगात् |
wnlvnmALAIM.................
more
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसागरचन्द्रः । असुरोऽपि जातसंवेगः सम्यक्त्वं प्रतिपद्य गतः क्रमान्मोक्षं यास्यति । श्रीअमृतचन्द्रप्रभृतिसाधुसाध्वीवर्गे केनापि सुरलोकः केनापि सिद्धिसुखं प्राप्तमिति श्रिसागरचन्द्रचरितं समाप्तम् । तदेवं सागरचन्द्रस्येवान्येषामपि ज्ञानं व्यसनेष्वा श्वासकं शिवसुखकारणं च भवतीति भाव इति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ पुनर्भवन्तरेण तस्यैव गुणमाह-
पावाओ विणियत्ती, पवत्तणा तह य कुसलपत्रखम्मि। विणयस्स य पडिवन्ती, तिन्नि त्रि नाणे समप्र्पति ॥ ३९ ॥
व्याख्या -- पापाद्विनिवृत्तिः, तथा प्रवर्त्तना कुशलपक्षे- धर्ममार्ग, विनयस्य च प्रतिपत्ति-राश्रयणं, एते त्रयोऽपि गुणा ज्ञाने एव सति 'समाप्यन्ते' समर्थ्यन्ते - परिपूर्णा भवन्ति, तदभावे तु केचित् कचित्कियन्तोऽपि कथञ्चिद्भवन्ति, तथापि तेऽसम्पूर्णत्वाद्विडम्ब raafrica इति गाथार्थः || ३९ || ज्ञानगुणानामनन्तत्वात्सामस्त्येन भणनासामर्थ्य मुपदर्शयन्नाह - गंगाए वालुअंजो, मिणिज उलिंचि [उं जो ] ऊण (?) समत्थो । हत्थउडेहिं समुदं, सो नाणगुणे भणिजा हि ॥ ४० ॥ surer - यो गङ्गाया वालुका मिनुयात्, समुद्रं च हस्तपुटैरुल्लञ्चितुं यः समर्थः, स एव ज्ञानगुणान् सर्वानपि भणेत्, नापरः । गङ्गाबालुका संख्यानादिवत्समस्तज्ञानगुणभणनमतिशयज्ञानिनाऽपि कर्तुमशक्यमिति भाव इति गाथार्थः ॥ ४० ॥
इति जिनपतिवाचा ज्ञानमाहात्म्यमुचे- जगति जनितचित्रं सर्वभव्याः । विभाग्य । यदि हृदि शिवसौख्येष्वस्ति काङ्क्षा कुतश्चित्तदति सकलयनाज्ज्ञान मे चार्जयध्वम् ॥ १ ॥ इति पुष्पमालाविवरणे (द्वितीयं) ज्ञानद्वारम् २ |
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथोपष्टम्भद्वारं विभणिपुः पूर्वद्वारेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाहBा आहारवसहिवत्था-इएहिं नाणीणुवग्गहं कुजा । जं भवगयाण नाणं, देहेण विणा न संभवइ ॥४१॥
____ व्याख्या--आहारादिभिर्ज्ञानिनामुपग्रह-उपष्टम्भ कुर्यात् । कुतः ? इत्याह-यव-यस्माद्भवगतानां जीवानां ज्ञानं देहेन विना न सम्भवति, सिद्धानां तु भवतीति विशेषणाशयः। अत्र च 'ज्ञानिनामाहारादिभिरुपष्टम्भः कर्तव्य इत्युक्तमिति द्वारद्धयस्य सम्बन्धः क्रमभणनकारणं च भूचितमिति गाथार्थः ।। ४१ ।। ॥ ननु यदि भवस्थानां ज्ञानं देहमन्तरेण न सम्भवति तर्हि ज्ञानिनामाहारदाने किमायातं ? इत्याहहै। देहो य पुग्गलमओ, आहाराइहिं विरहिओ न भवे । तयभावे न य नाणं, नाणेण विणा को तित्थं ? ॥४२॥
___ व्याख्या -- देवश्व-जीवछरीरं पुद्गलमयत्वादाहारादिभिर्विरहितो न भवति, विशीर्यत एवेत्यर्थः, वनस्पत्यादिषु तथैव दर्शनान् । 3 तदभावे-देहाभावे च ज्ञान नास्तीत्युक्तमेव । मा भूत्तहि ज्ञानमपीत्याह-ज्ञानेन विना कुतस्तीर्थ साध्यादिरूपं ?, न कुतश्चिदित्यर्थः,
| तन्मूलवात्तस्येति गाथार्थः ।। ४२ ॥ न चाहारादिगृद्धरस्माभिरिदमुध्यत इत्याह--- & एएहिं विरहियाण, तनियमगुणा भवे जइ समग्गा। आहारमाइयाणं, को नाम परिग्गहं कुजा ? ॥४३॥
____ व्याख्या---एतैराहारादिभिर्विरहितानां साधूनां यदि तपोनियमादयो गुणाः समग्राः-परिपूर्णा भवेयुस्तदा आहारादीनां, आदि15 शब्दावलपात्रादीनां, परिग्रह-स्वीकार को नाम कुर्यात् ?, प्रार्थनालाधवपर्यटनादिकष्टसाध्यत्वात्तेषां परिग्रहं न कश्चित्कुर्यादित्यर्थः, न
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
चैतदस्ति, अतस्तपोनियमादिगुणोत्सर्पणायैवायमुपदेशो न गृद्धयेति भाव इति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ तस्माद्यदिह पर्यवसितं तदाहतम्हा विणा सम्म, नाणीणमुत्रग्गहं कुणतेणं । भवजलहिजाणवतं, पवत्तियं होइ तित्थंपि ॥ ४४ ॥
व्याख्या--- 1- यस्मादनन्तरोक्तन्यायेनाहाराद्यभावे तीर्थमुच्छिद्यते, तस्मात्सम्यग्विधिना ज्ञानिनामाहारादिभिरुपग्रहं कुर्वता प्राणिना अवजलपा वीर्थमिति भवतीति गाथार्थः ॥ ४४ ॥
तदेवमाहारादिना दानप्रवृत्ति व्यवस्थाप्य तदानविध्यादि प्रतिपादनार्थ द्वारगाथामाह - कह दायगेण एवं दार्यव्वं ? केसु वा विपत्सु ? । दाणस्स दायगाणं, अदायगाणं च गुणदोसा ॥४५॥ व्याख्या – कथं दायकेनैतदातव्यमिति वाच्यम्, तथा केषु पात्रेषु तद्दातव्यमित्यपि भणनीयम्, तथा दानस्य दायकानां ये गुणाः स्युरदायकानां च ये दोषास्सम्भवन्ति ते च वक्तव्या इति गाथार्थ: ।। ४५ ।। तत्राद्यद्वारमधिकृत्याह
आसंसाए विरहिओ, सद्धारोमंचकंचुइतो । कम्मक्खयहेउं चिय, दिजा दाणं सुपतेसु ॥ ४६ ॥ व्याख्या----आशंसया इह परभवगतऋद्ध्यादिप्रार्थनरूपया विरहितः श्रद्धया आहारादिदानोत्साहलक्षणया, रोमाश्च एक कञ्चुकः, स जातोऽस्य स रोमाञ्चकञ्चुकितः । कर्म्मक्षयहेतोरेव दद्यात् दानं दायक इत्येकं द्वारं । केषु तदातव्यमिति द्वितीयमाह-शोभनपत्रेष्विति गाथार्थः ॥ ४६ ॥ तान्येव सुपात्राप्याह
आरंभनियत्ताणं, अकिणताणं अकारविंताणं । धम्मट्ठा दायव्वं, गिहीहिं धरने कयमणाणं ॥ ४७ ॥
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
SAR
व्याख्या-आरम्भनिवृत्तेभ्यः, अफ्रीणग्यः-मूल्येन वसाहाराद्यगृहद्भ्यः, तथा आरम्भ क्रयं वाऽकारयद्भ्यः, धम्में कृतमनो-| काभ्यः, सामर्थ्यान् साधुभ्यो गृहिमिर्धार्थ दानं दातव्यमिति गाथार्थः ॥ ४७ ।। ५ ननु यथोक्तगुणेभ्य एव सर्वमपि दाग काय, उस विशिदन्या पीलायायाय-... &| इय मोक्खहे उदाणं, दायव् सुत्तवपिणयविहीए । अणुकंपादाणं पुण, जिणेहिं सव्वत्थ न निसिद्धं ॥४८॥ # व्याख्या-- इति-उक्तप्रकारेण दायकग्राइकगुणान्वेषणलक्षणेन सूत्रवर्णितविधिना व देयवस्तुगतोद्गमादिदोषविशुद्धरूपेण यदेव |
ज्ञानादिगुणयुक्तेभ्यः सावादिभ्यो मोक्षहेतुर्दानं दीयते तदेवेत्थं दातव्यं, अनुकम्पादानं पुनर्जिन-स्तीर्थकृद्भिः सर्वत्र रोमाञ्चादिशून्येऽपि दायके वनीपकादायपि पात्रे उद्गमादिदोषाविशुद्धेऽपि देयवस्तुनि न निषिद्धं, अनुकम्पामात्रप्राधान्यादेव तस्येति । यथा चेह तीकद्गणधरादिभ्यो दीयमानं दानं आनन्तर्येणव मोक्षहेतुन तथाऽनुकम्पादान, पारम्पयेणैव तस्य मोक्षकारणत्वात , इतीदमिह मोक्षहेतुत्वेन विवक्षितमिति गाथार्थः ॥ ४८ ।। अथानुषङ्गत एव दातृन्प्रोत्साहयन्नाहडा केसिंचि होइ चित्तं, वित्तं अन्नेसिमुभयमन्नेसि । चित्तं वित्तं पतं, तिन्नि वि कसिंचि धन्नाणं ॥ ४९ ॥
व्याख्या--केपांचिदानश्रद्धालूनां चित्तमेव केवलं भवेत् , न वित्तपात्रयोगः। अन्येषां च वित्तमेव स्यात् , न चित्तपात्रयोगः । है। अन्येषां चोभयं चित्तवित्तलक्षण स्यात्, न पात्रं । चित्तं वित्तं पात्रमिति त्रीण्यपि केपाश्चिद्धन्यानामेवाद्भुतपुथ्योदयेनैव भवेयुरिति ॐ गाथार्थः ।। ४९ ॥ अथ तृतीयद्वारमाश्रित्याह
+*
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
आरोग्गं सोहग्गं, आणिस्तरियं मणिच्छिओ विहवो । सुरलोयसंपया वि य, सुपत्तदाणाऽवरफलाई ॥५०॥
व्याख्या-आरोग्यं सौभाग्यं आजैश्वर्य मनीषितो विभयो-धनं देवलोकसम्पदपि च, एतानि सुपात्रदानस्थापराणि-मोक्षापेक्षयाशान्तरालवतीनि फलानि, परं तु फलं मोक्षमेवेति गाथार्थः ।। ५० ॥ तदेव दानस्योत्कृष्टं फलमुपदर्शयन्नाह
दाउं सुपत्तदाणं, तम्मि भवे चेव निव्वुआ के वि । अन्ने तइयभवेणं, भोत्तूण नरामरसुहाई ॥ ५१ ॥
___ व्याख्या-केचित्तथाविधाल्पकर्माणः सुपात्रदानं दत्वा तस्मिन्नेव भवे निवत्ता:-सिद्धाः, अन्ये च नरामरसुखानि भुक्त्वा मा तृतीयभवे सिद्धा इत्यर्थः ॥ ५१ ॥ दानदातुर्गुणानेव सदृष्टान्तमाह
जायइ सुपत्तदाणं, भोगाणं कारणं सिवफलं च। जह दुण्ह भाउआणं, सुयाण निवसूरसेणस्स ॥ ५२ ॥ | ___ व्याख्या-सुपात्रदानं भोगानां कारण तथा शिवफलं च जायते । यथा सूरसेननृपस्य सुतयोयो बोरित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकेनोच्यते, तद्यथा-इह भरते ऋषभपुरे अभयङ्करः श्रेष्ठी, कुशलमती भार्या, तौ च जिनधर्मरतौ जीवाजीवादितस्वछौ, तयोगृहे एको गोपालोऽपरः कर्मकरः, तौ श्रेष्ठिसंसर्गेण जिनपूजन-मुनिदानादिधर्मभावितौ स्तः । अन्यदा चातुर्मासिके श्रेष्ठिना सम जिनभवने पूजानिमित्तं गतौ चिन्तयतः-धन्योऽयं श्रेष्ठी, यो नित्यं जिनान् प्रभूतपित्तव्ययेन पूजयति । ततोऽद्याऽऽवा सकीयेनैत्र का वित्तेन जिनार्चादि कृत्वा निजं जन्म फलस्कुर्व इति चिन्तितवन्तौ, ततो गोपालः स्वीयपञ्चकपईकुसुमैर्जिनपूजां चकार, कर्मकरः
श्रेष्ठिना समं सुगुरुसमीपे प्रत्याख्यातोपवासो गृहं गत्वा आत्मयोग्यं परिवेष्य तदैव दैवयोगाद्ग्लानाद्यर्थ तत्रैवागतान्मुनीन्परमश्रद्धया
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वं कृतार्थ मन्यमानः स्वकीयाहारेण प्रतिलाभितवान् ततस्तयोस्तथा पुण्यनैपुण्यं दृष्ट्वा हृष्टः श्रेष्ठटी सुतरां तयोवत्सिल्यं करोति । इत कलिङ्गदेशाधिपः सूरसेननृपो गोत्रिभिर्गृहीतराज्यः कुरुदेशे गजपुरनृपसेवां कुर्वन् ग्रामचतुष्कं प्राप्य तत्र मुकराभिधाने ग्रामेऽस्थात् । तस्य विजयादेवीकुक्षौ तौ द्वावपि मृत्वा पुत्रौ जातौ अमरसेन - वयरसेनाख्यौ, सम्प्राप्तयौवनौ कलाकुशलौ सकलजनप्रियो गुणाकरौ जातौ तौ च तादृशौ दृष्ट्वा सपत्नी माता मायाविनी राजानमुवाच एतौ तव पुत्रौ दुःशीलौ रामान्धो, यदा प्रभृति त्वं प्रस्थितस्तदाभ्यां निजं शीलं संरक्षितं, अथ यत्त्वत्कुलोचितं तत्कुरु । इत्याकर्ण्य राजाऽज्ञात परमाथ ग्राममा मुख्यमाकार्य तन्मस्तकानयनायादिदेश । स च तत्र गत्वा पुत्रयोस्तत्स्वरूपमवदत् । ताभ्यामुक्तं पितुरादेशः प्रमाणमिति गृहाण मस्तके | तेनोक्तं- राज्ञा वेदविमृश्योच्यते, परं कथमहमीदृशं करोमि 2, इति प्रसद्य युवां देशान्तरं वातः, चित्रकरेण मस्तके कारयित्वा राज्ञो दर्शयिष्यामि । इति श्रुत्वा तो देशान्तरं प्रस्थितौ । मातङ्गेन तथा कृत्वा सन्ध्यायां मस्तकें दर्शिते राज्ञः, वत् श्रुत्वा प्रमुदिता चिमाता । ततस्तौ स्वबुद्ध्या विमातृप्रपञ्चं ज्ञात्वा देशान्तराश्चयावलोकने स्वोपकारिणीं मन्यमानौ कस्याश्चिदव्यां सन्ध्यासमये गतौ । रात्रौ वृक्षाघोऽमरसेनः सुप्तः, वयरसेनस्तु प्रहरके स्थितः । अत्रान्तरे वृक्षोपरिस्थया कीरपल्या भूमिस्थस्य स्वमतु: कीरस्य प्रोक्तं- खामिन् ! एतौ महापुरुषौ समायातौ स्तः कोऽप्येतयोरुपकारः क्रियते । कीरेणोक्तं-पक्षिभिः कथमुपक्रियते ? | तयोक्तं-स्वामिन् । सुकूटशैले विद्याधरेण स्वविद्या परीक्षार्थं विद्याऽभिमन्त्रितौ द्वावाम्रो रोषितौ स्तः, वयोः फलमेतत् एकस्य लघुफलस्य फलेन भुक्तेन प्रतिप्रातः पञ्चशती द्रम्माणां मुखात्पतति द्वितीयस्य वृद्धफलस्य फलेन युक्तेन सप्तमदिने राज्यं भवति, तयोः फले समानीयानयोर्दीयते । इति विचार्य तेन कीरमिथुनेन तत्कालं ते फले समानीय वयरसेनोत्सङ्गे मुक्ते । तेन खस्य राज्यमनिच्छता प्रभाते
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभावमनाख्याय वृद्धफलममरसेन यार्पित] स्यार्पित, लघुफलं स्वयं भुक्तम् । द्वितीयेऽति प्रभाते सम्भूते एकाकी भृत्वा वयरसेनः सरसि गत्वा याचगण्ड्रयं करोति तावत्पञ्चशती द्रम्मायां मुखात पतिता । ततः प्रति (दिन) नगरं भोजनवस्त्रादिभिर्विलसन्तौ गच्छतः । ततस्सप्तमेऽसि काञ्चनपुरे अमरसे महिपक्ष मूले तु मुक्का बयरसेना भोजनादि कारयितुं मध्ये गतः । अत्रावसरे तत्पुरनृपस्यापुत्रस्य मतस्य पञ्चदिव्यैरमरसेनयस्य राज्यं दत्तवयरसेनस्तु कातकी प्रच्छन्नो वेश्यागृहे स्थितः क्रीडां करोति, वृद्धभ्रात्राऽवलोकितोऽपि न दृष्टः। अन्यदा मागधिकादिन्या नियापारस्य तस्य घनं धनव्ययं दृष्ट्वा तत्स्वरूप प्रष्टो बयरसेनः खाजत्वेन जठरस्थानफलप्रभा-16 वमाह । ततस्तया बमनौषधैः पातितफलो निर्द्रव्यः स्वगृहाविष्कासितस्तत्फलं स्वयं गृहीतं । ततो वयरसेनो विलक्षी रात्रौ पुरादहिगतो वस्तुत्रयकुते चौरचतुष्कं कलहं कुर्वाण दृष्ट्वा चौरसंशया तन्मध्ये मिलितस्तत्स्वरूपमपृच्छत् । तरुक्तं-अस्माकं चतुर्णा कन्था-लकूटपादुकारूपं वस्तुत्रयं त्वं विभज्य देहि । वयरसेनेनोक्तं का प्रभाव एतेषां ?, नैरुक्तं-केन सिद्धपुरुषेण पण्मासान् देवताऽऽराधनं कृतं, ततस्तया तुष्टयाऽपितान्यमूनि । प्रभावश्चाय-कन्थावस्कीटने प्रत्यहं प्रगे दीनारपश्चशती पतति, लकुटप्रभावाच्छा न लगति, पादुकाभ्यां गगने गमनं स्यात् । ततः प्रभावं श्रुत्वा कुमारेणोक्नं-मया पुरा कदाऽपि योगिवेषो न परिदधे, तेन पूर्व विलोकयामि। ततस्तैरुक्तं-तथाऽस्तु । ततः कुमारः कन्यां गले क्षिप्त्वा लकुटं लात्वा पादुके यादयोः प्रक्षिप्य आकाशे गतः, वश्चिताचीराः। ततो देशान्तरं भ्रान्त्वा पुनस्तत्रैवायातः, कुट्टिन्या द्रव्यं विलसन् दृष्टः, प्रपञ्नं कृत्वा स्वगृहमानीतः। कालेन नियापारस्य धनं धनं दृष्ट्वा |
हिन्या पुनः प्रीत्या पृष्टः पादुकाप्रभावेण देशान्तराद्धनमानयामीत्याह । ततस्तयोक्तं-वत्स ! मया त्वयि गते त्वद्वियोगदुःखितपु-15 पत्रीकते तवागमनार्थ समुद्रमध्ये यक्षस्थोपायनं मानितमस्ति । तत्पादकाप्रभावेण स्वत्प्रसादास्करोमि । कुमारेणोन-तथाऽस्तु । ततः
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारः पादुकालेन कुट्टिन्या सह समुद्रान्तर्यक्षमवने गतः, पूर्व तन्मध्ये प्राविशत्तावता कुट्टिनी यादुके परिधाय स्वं पुरं गता। कुमाEM रस्तत्रैव स्थितः कान्दिशीका, तात्रता तत्र कोऽपि विद्याधरः प्राप्तः, तेनोक्त-स्वया ममोपरोधेन पक्षमेकं यक्षपूजा विधेया, परं पार्थम तिवृक्षद्वयाधो न गन्तव्यं, इति शिक्षा मोदकादिकं च दत्वा गगनमार्ग गतः । अन्यदा कुमारेण कौतुकात्तबृक्षाधो गतेनामात
पुष्पं, जातः खरः । पुनः पक्षान्तरे ममायातः खेचरस्तं तथा दृष्ट्या द्वितीयवृक्षपुष्पमघ्रापयत् , पुनर्मनुष्यो जातः । ग्वचरेण निष्ठुरमूपालब्धः। खचरं क्षामयित्वा 'किमेतदाश्चर्य?' इति कुमारपृष्टः खेचरः प्राह-वर-मनुष्यविद्याधिष्ठितो वृक्षौ मया कारणेन रोपितो स्तः । ततः कुमारेण तवृक्षद्वयपुष्पाणि पृथग २ अन्धो बद्धानि । ततः पञ्चमदिने विद्याधरेग कुमारः काञ्चनपुरे मुक्तः । तत्र पुनस्त| थैव विलसन् कुट्टिन्या प्रपञ्चेन गृहे नीतः पृष्टश्च-कथं वत्स ! समायातोत्र?, अहं तु तदा केनापि सिद्धपुरुषेण पादुके लात्वा गच्छता पादलमात्र त्यक्ता । कुमारेणोक्तं-यक्षप्रसादेनाहमायातः । तयोक्तं-यक्षेण तव किमपि दत्तं ?, तेनोक्तं-ममोषधी दत्ता, यया जरा याति यौवनमायाति । तयोक्तं-वत्स ! तादृशीमौषधी मम देहि । ततः कुमारेगाघ्रापिता मा तानि पुष्पाणि, जाता रासभी, चटितः कुमारः, कुट्टयन् लकुटन निर्गतो नगरान्तरा, मिलितो बहुजनो, जातो हाहारवः, समायाता राजपुरुषाः, तेन दण्डेन ताडिता रटन्तो राजकुले गताः । ततः सपरिजनो राजा समागतः, राज्ञोपलक्षिततः कुमारः विज्ञातप्रपञ्चेन च मोचिता कुट्टिनी । मिलितो द्वावपि प्रातरी, महान् प्रमोदोऽजनि । ततः स्वपितरौ तत्रानाप्य राज्य कुरुतः । अन्यदा तो द्वावपि गवाक्षस्थो मुनियुग्मं दृष्ट्वा सञ्जातजातिस्मरणी भक्तिभरेण तद्वन्दितुं गतो। तयोरवधिज्ञानिना महर्षिगा सविशेष पूर्वभवमुक्त्वा प्रोक्त-साधुदानतरोः कुसुमसमं ते राज्य, वयरसेनस्य तु || पश्चकपर्दकजिनातिरोर्दीनारपञ्चशत्यादिका लब्धिर्भोगप्राप्मिथ, फलं तु द्वयोरप्यतः पञ्चभवान् देवलोक नरलोकोत्तमभोगान् भुक्त्वा
4-
5
orportantrimianimonianimmmmmmmm
s
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठे भवे पूर्वविदेहेषु राज्यं भुक्वा नीरागसंयमेन मुक्तिः । इति पूर्वभवदानप्रभावं ज्ञात्वाऽनेक सत्रागाराणि कारयित्वा जिनचैत्यानि स्था| पयित्वा सप्तक्षेत्री स्ववित्तेनापूर्य प्रान्ते प्रवज्य पञ्चमस्वर्गं गतौ । पूर्वोक्तक्रमेण महाविदेहे मोक्षं यास्यतः ॥ ५२ ॥ इति पात्रदाने अमरसेन- वगरसेनचरितं समानम् ॥
अथ येभ्यो दीयमानं दानं विशेषतो बहुफलं भवेत् तान् दर्शयन्नाह -
पहसंतगिलाणेसुं, आगमगाहीसु तह य कयलोए । उत्तरपारणगम्मिय, दिनं सुबहुप्फलं होई ॥ ५३ ॥ व्याख्या -- पथभ्रान्तेभ्यो ग्लानेभ्य आगमग्राहिम्यः तथा [च] कृतलोचेभ्यः साध्वादिभ्यस्तथा उत्तरपारणके च विधिना दत्तमशनादि सुष्ठु बहुफलं भवति । यतः - पथश्रान्तस्य पर्यटनाद्यक्षमस्यानुकम्पा मासकल्पविहारे स्थिरीकरणाद्याः, ग्लानस्यार्त्तध्याननिराकरणाद्याः आगमग्राहिणां त्विष्टभक्तादिसम्पादनेन क्षयरोगाद्युत्पत्तिनिराकरणाद्याः, कृतलोचे स्थिरीकरणाद्याः, उत्तरपारण के चोपष्टम्भादयो गुणाः स्युरिति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ अथ दातृणामेवोत्साहनायाह
बज्झेण अणिश्चेण य, धणेण जइ होइ पत्तनिहिएणं । निबंऽतरंगरुवो, धम्मो ता किं न पजतं ? ॥ ५४ ॥
व्याख्या -- तावद्राह्येनानित्येन च यदि धनेन पात्रनिक्षिप्तेन सता नित्यो मोक्षान्तावस्थायित्वाद्, अन्तरङ्गरूपश्चौराद्यहार्यत्वाम्मोद्भाषितो भवति, तहिं किं न परिपूर्ण ?, अपि तु सर्वमपीति गाथार्थः ॥ ५४ ॥
उक्ता दानदायकानां गुणाः, अथ तददायकानां दोषानाह
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
Play
**
8
दारिद्द दोहग्गं, दासतं दीणया सरोगतं । परपरिभवहणं चिय, अदिन्नदाणेऽवस्थाओ ॥ ५५ ॥
व्याख्या -- अदतेन दानेन इति अवस्थाः स्युरिति वाक्यशेषः । कास्ताः 2, दारिद्रयं दौर्भाग्यं दासत्वं दीनता सरोगत्वं परप Heeraमिति गाथार्थः ॥ ५५ ॥ तथा------ ववसायफलं विवो, विहवस्स फलं सुपत्तविणिओगो। तयभावे ववसाओ, विवो चिय दुग्गइनिमित्तं ॥ ५६
व्याख्या - तादृयवसाय फलं विभवः । विभवस्य फलं सुपात्रविनियोगः । तद्भावे - विभवस्य सुपात्रविनियोगाभा व्यवसाय विभवोऽपि च दुर्गतिनिमित्तमेवेति गाथार्थः ।। ५६ ।। अपरश्व
पायं अदिन्नपुव्वं, दाणं सुरतिरियनारयभवेसु । मणुयते वि न देजा, जइ तं तो तं पि नणु विहलं ॥५७॥ व्या० - प्रायो पूर्व दानं केषु ? इत्याह- सुरतिर्यङ्कारकभवेषु देवैर्दीयमानस्याहृतादिदोषयुक्तस्य साधूनामकल्पनीयत्वात् तिरां तथाविधबुद्धयादिसामध्यभावात्, नारकाणां च साध्वादिदर्शनस्यैवाभावादिति भावः । प्रायो ग्रहणं तु देवानामत्रैव वक्ष्यमाणयुक्त्या तिरथां च वैतरणी वानरादीनामित्र केषाञ्चित्कचित्कदाचित कियतोऽपि दानस्य सम्भवान् । ततः सम्पूर्णा दानसामग्री मनुजत्व एवं यदि चातिदुर्लभे मनुजत्वेऽपि प्राप्ते कार्पण्यादिभावमालम्ध्य कश्चित्तदानं न दद्यात्तदा तदपि मनुजस्यमपि विफलमेव गतमिति गाथार्थः । तथाउन्नयविवो वि कुलु-गाओ त्रि समलंकिओ विरूवी वि । पुरिसो न सोहइच्चिय, दाणेण त्रिणा गयंदुव्व ॥ ५८॥
व्याख्या - उन्नतविभवोऽपि मुकुलीनोऽपि अलङ्कृतोऽप्यलङ्कारादिभिः रूपवानपि पुरुषो दानेन विना न शोभत एव यथा
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
R CIBRAR
गजेन्द्रो दानेन-मदेन विना न शोभते इति गाथार्थः ।। ५८ ॥ अथ दानस्सादायकानां दोपदर्शनदर्श दृष्टान्तमाह--- लद्धो वि गरुयविहवो. सुपत्तखेत्तेसु जेहिं न निहितो ते महराउरिवणि ओब, भायणं टुंति सोअस्स ।।५९॥
व्याख्या--लब्धोऽपि महान विभाः सुपामाप्येव क्षेत्राणि ! 'त्र'शब्दोऽत्रातिवृद्धिहेतुत्वात् । यतोRI "व्याजाच द्विगुणं वित्त, व्यवमायाच्चतुर्गुणं। कृषेः शतगुणं प्रोक्तं. पात्रऽनन्तगुणं मतम् ।। १॥" इति, . .
तेषु येन निक्षिप्त, ते मथुरापुरीवणिगिव शोकस्य भाजनं भवन्तीत्यक्षराधः । तत्कथा चेयम् , यथा-..
मथुरायां धनसार श्रेष्ठी, तस्य द्वाविंशतिद्रव्यकोट्यः प्रत्येकं निधि-वृद्धि-देशान्तरेषु, एवं पट्पष्टिकोटीशोऽपि न तिलतुषमात्रमपि धर्मे ददाति । भिक्षाचरं वीक्ष्य ज्वरश्चटति । अन्यमपि दातारं दृष्ट्वा प्रज्वलति । किं बहुना ?, गृहमानुपाण्यपि तस्मिन् बहिर्गत एवं भुञ्जते । एवं च सति तस्य तथा कृपणत्वप्रसिद्धिर्यथा नाभुक्तः कोऽपि नामापि गृहातीति । अन्यदा निधिसत्कं द्रव्यमङ्गारीभृतं, जलमार्गस्थं त्रुडितं, स्थलमार्गस्थं चौरंगहितं । ततः शेषमुरितं दशलक्षरूपमादाय समुद्रे प्रविष्टः । तत्र प्रवहणं भय । ततो जलधिना | कापि तीरे एकस्यामटव्यां प्रक्षिप्तश्चिन्तितवान्-हा!! मया न स्वयं किश्चिद्भुक्तं नापि सुपात्रे दत्त, नतो दानभोगरहितस्य मम नाश एव जातस्तृतीयः प्रकारः, पुनदेवेन दर्शितः कुटुम्बनिरहोऽपीत्यादि । तावसत्र तत्कालोत्पन्नकेवलं देवासुरसेवितं महर्षिमेकमालोक्य हृष्टस्तं नत्वा देशनां श्रुत्वा स्वद्रव्यगमनकारणमपृच्छत् । केवली पाह-धातकीखण्डे भरतक्षेत्रे द्वौ भ्रातरौ, ज्येष्ठः सरलो गम्भीरो दाता दीनादीनामनवरते ददाति । लघुः क्षुद्रः, ततः प्रद्वेषमत्यन्तं वहति तस्मिन् , वारितोऽपि ज्येष्ठो ददात्येव दान, ततो लघुर्विभक्तो जातः। ततः क्षीणसर्वधनोऽजनि । ज्येष्ठस्य तु निजपुण्यस्तथैव बर्द्धते विभवः । ततो लघुना मत्सरेण राजाऽग्रे अलीकं पैशून्यं कृत्वा द्रव्यं ग्राहितः
PE
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
सः। ततस्तद्वैराग्याज्ज्येष्ठः प्रवज्य सोधम्म सुरो जातः । लघुरज्ञानतपाकृत्वाऽसुरः। स च ततश्युत्वा स्वं जातः । ज्येष्ठः साम्रलिसीपुयाँ व्यवहारिपुत्रो भुक्तभोगः प्रव्रजितः, सञ्जातकेवलः सोऽहं । यच्चया पूर्वभवे दानद्वेषः कृतस्तेन कर्मणा कृपणो जातस्त्वं धनं च सहमा । गतं । इति श्रुत्वा जातपूर्वभवः सञ्जातसंवेगो गृहीतसम्यक्त्वश्रापकवतो 'लाभचतुर्थांश एव रक्षणीयः, अंशत्रयं धर्मे व्ययनीय'मिति, कृताभिग्रहः केवलिनं नत्वा ताम्रलिप्ती गतः। अन्यदा ब्यन्तरोद्वासिते कस्मिंश्चिच्छ्न्यगृहे रात्रौ प्रतिमया स्थितस्तक्ष्यन्तरेण सर्वा ।। रात्रिं कृतोपसर्गों न क्षुब्धः । प्रातस्तुष्टो व्यन्तरो बरं ददाति । स तु नेच्छति । ततो ध्यन्तरेणोक्तं-मथुरा गच्छ, पुनस्त्वं षट्पष्टिकोटीशो! भविष्यसि । ततस्तत्र गतेन तथैव च निधानादिषट्पष्टिकोट्यो लब्धाः । महादानपुण्यं कृत्वा धर्ममाराध्य साधर्मेऽरुणाभविमाने चतुप्पल्योपमायुदेवो जातः, (ततश्युतो) महाविदेहेषु मोक्षमगादिति धनसारख्यानक+ समाप्तम् ॥ । इति जिनपतिभिर्याषितं युक्तिभिस्तद्, ददतु वदतु वानं न श्रियः माध्यमन्यत् ।
यवसदपि गुणित्वं ज्ञानववं यशस्वं, जनयति कुलजत्वं विश्ववश्यं शिवं च ॥१॥
___ इति पुष्पमालावृत्तौ तृतीयमुपष्टम्भद्वारं समाप्तम् , तत्समाप्तौ च समर्थितखिविधोऽपि दानधर्मः ॥ अथ क्रमप्राप्तः शीलधर्मः प्रोच्यते--तत्र यद्यपि शीलशब्दः स्वभाव-ब्रह्म-चारित्रेषु, तथापीह लोकसन्याद्याश्रयणाद्ब्रह्मचर्यरूपं श्रीलं विभणिषुः पूर्वद्वारेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाहइय इकं चिय दाणं, भणियं नीसेसगुणगणनिहाणं । जइ पुण सोलं पिरवेज, तत्थ ता मुदियं भुवणं ॥६॥
+ इदं च कथानक जलषितीरे शोकावस्थामेव पावतोपयोगी, शेष प्रातः कथितमिति वृहत्ती ।
।
-
m
m
mmmmmmmmmmmmmmmmmsammanuedeossuenisEInddwnloaUMARAWwumanAMINSunaam
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
ALAM
व्याख्या - इत्युक्तप्रकारेण एकमपि दानं निःशेषगुणगणनिधानं भणितं । यदि पुनः शीलमपि - परकलत्रादिवर्जनरूपं देशतो ब्रह्मचर्यपालन लक्षणं, तत्र दानदायके प्राणिनि भवेत्तदा गुणभणनमाश्रित्य "मुद्दियं "ति मुद्रितं स्थगितं भुवनं नातः परं गुणकथा व नेऽस्तीति भाव इति गाथार्थः ॥ ६० ॥ उक्तार्थसमर्थनायैव शीलगुणान् दिदर्शयिषुराह
जं देवाण वि पुज्जो, भिक्खानिरओ वि सीलसं पुन्नो । पुहइवई वि कुसीलो, परिहरणिजो बुहयणस्स ॥ ६१ ॥ व्याख्या - "जं" ति यस्माद् भिक्षानिरतोऽपि शीलसम्पूर्ण श्वे देवानामपि पूज्यः स्यात् । पृथिवीपतिरपि कुशीलस्तदा बुधजनस्यचतुरलोकस्य परिहरणीयः, "बहुजणस्से "ति पाठे बहुलोकस्येति गाथार्थः ॥ ६१ ॥
तथा सर्वानिष्टं मरणमपि शुद्धशीलरत्नवत्तः प्रशस्यते । सर्वजीवेष्टं जीवितमपि विगलितशीलस्य निन्द्यते इति दर्शयतिकस्स न सलाहणिज्जं मरणं पि विसुद्धसीलरयणस्स । कस्स व न गरहणिजा, वियलियसीला जियंता वि ||६२|| व्याख्या - उक्तार्था ।। ६२ ।। ननु सुबहमेवैतत्ततो व्यर्थमित्थं तन्माहात्म्यकीर्त्तनमित्याशङ्कयाह
zi
जे सयलपुहविभारं वहति विसति पहरणुप्पीलं । नणु सील भव्वहणे, ते विहु सीयंति कसरुव्व ॥ ६३॥
अन्विति पराक्षेपे, ये सकलपृथिव्याः भारं वहन्ति तां परिपालयन्ति, तथा ग्रहरणोत्पीडां विषहन्ते, तेऽपि निश्चितं शीलभद्दने कसरा:- कल्होडका इव सीदन्ति, रावणाद्याचेह दृष्टान्ता वाच्या इति गाथार्थः ||६३ || अथ दृष्टान्तान् दर्शयन् शीलरक्षणोपदेशमाहरइरिद्धिबुद्धिगुणसुंदरीण तह सीलरक्खणपयत्तं । सोऊण विम्हयकरं, को मंइलइ सीलवररयणं ? ॥६४॥
-
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
%%*
* व्याख्या--शीलमेव परमालङ्कारहतुवाद्वररत्न, तत्को मालेनयति !, न कापात्यर्थः, किं कृत्वा ? इत्याह-तथा-तेन शास्त्रप्रसि
द्धन प्रकारेण विस्मयकरं शीलरक्षणप्रयत्नं श्रुत्वा, कासां ? इत्याह-सुन्दरी शब्दः प्रत्येकमभिसम्बद्धयते, ततश्च रतिसुन्दरी ऋद्धिमुन्दरी | बुद्धिसुन्दरी गुणसुन्दरी, तासां कथाः पुनरेवम्
साकेतपुरे जितशत्रुनृपः, तत्र नृप-श्रेष्ठि-मन्त्रि-पुरोधःपुज्यो रतिसुन्दरी-ऋद्धिसुन्दरी-बुद्धिसुन्दरी-गुणसुन्दरीनाम्न्यश्चतस्त्रः । सख्यो जिनधर्ममर्मविदः, तत्र नृपपुत्री नन्दनपुरनृपेण परिणीता, तां चात्यन्तसुरूपां श्रुत्वा हस्तिनापुराधिपः सर्ववलेन तत्पति हत्या | | ताजग्राह, सा राज्ञाऽनेकचादुभिः प्रायमाना मदनफलादियोगेन वमनादिना खदेहस्वाशुचित्वमदर्शयत् । भणति च-सर्वोऽप्यशुचि
देहस्तत्कृतोऽनुरागः १, नृपः प्राह-प्रिये ! मम तव नयनयोर्महामोहः, ततस्तया रात्रौ शत्रण नयने उत्कीर्य राज्ञो हस्ते दत्ते, राजा च | तदृष्ट्वा वैराग्यं गतः । तद्व्यतिकरण रात्रि खिद्यमाने च रतिसुन्दरीकायोत्सर्गाकष्टदेयतया नूतने नयने दत्ते । लोके शीलधर्मप्रभावो मा विस्तृतः, ततः सा प्रत्रज्य स्वर्गमगात् ॥ १॥
अष्ठिपुत्री ऋद्धिसुन्दरी व्यवहारिपुत्रेण परिणीता, स सकलनः प्रवहणे आरूढः, भन्ने प्रबहणे काष्ठं लब्ध्वा सभार्यः शून्यहीये || कापि गता, तत्र जलार्थमागतेनान्यवणिजा स्वप्रयहणे नीतः । तत ऋद्धिसुन्दरीरूपमोहितेन तेन तत्पतिं समुद्रे पातयित्वा प्रार्थिना सा]: 5 ग्राह-"स्त्रीणां शतेन नैक-स्तृप्यति पुरुषोऽनिरुद्धकरणो यः । एकापि नैव तृप्यति, युवतिः पुरुषैश्च निःशेषः ॥१॥" तत्कि मुखसि ?, | ततः स तूष्णीं स्थितः, तदपि प्रवहणं भग्नं, सा फलकमेकं प्राप्य सोपारके गता । तत्र पूर्वायातस्तस्याः पतिमिलितः, कधितोऽन्योऽन्यः ।। ववृत्तान्तः, ततस्तो भवविरक्तो तत्र तिष्ठतः । वणिगपि फलके विलग्नस्तत्रैवागतः । मत्स्याहारैतिकुष्ठो दृष्टस्ताभ्यां उपचरितथ, जात
*
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
45445
| पश्चात्तापच तया प्रतिबोध्य परदारविरतिं ग्राहितः, तत्र धनसुपाय सर्वे स्वस्थान प्राप्ताः । ऋद्धिसुन्दरी समये प्रभज्य स्वर्ग गता।
मन्त्रिपुत्री बुद्धिसुन्दरी सार्थवाहपुत्रेण परिणीता । पिगृहे गवाक्षस्था नृपेण दृष्टा । तदनुरक्तो राजा मिथ्यादोषमुद्भाव्य सकुदुम्ब तं धृत्वा दिव्यशुद्धं चाह-विराधितस्त्वमिति, यदि परं उल्लेन त्वां मुश्चामि । मन्त्री प्राह--यदादिशति देवः, ततो राक्षाऽऽदिष्टा । बुद्धिसुन्दरी उल्ले मुक्ता । ततः सा राक्षाऽभ्यर्थिता न मन्यते । अन्यदा तया स्त्रानुकारा मदनमयी पुत्रिकाऽमेध्यभृता कारिता शृङ्गारिता स्वस्थाने मुक्ता । स्वयं च प्रच्छमा स्थिता । रात्रौ राजा तत्रागतः। पुत्रिका तयुद्धथाऽऽलापयति । अभाषमाणायाश्वालापयितुं यायन्मुखमुलमयति तावत् प्रागेवालपमुक्तं शिरः पपात । प्रसृतो दुर्गन्धः, मुखं मोटयन किमेतदिति चिन्तयति नृपस्तावता सा प्रकटीभृय । माह-वारशीय सादृश्यहमपि वही रम्यान्तरमेध्यपूर्णा, तथा च--"अशुचिरसमांसमिश्राणि, यत्रास्थीन्येव केवलानि पुनः । अजिनेन
वेष्टितानि च को देहेत्राभिरमते तत् ॥१॥" इत्यायुक्तोऽपि यावन्न प्रतिबुद्धधते नृपस्तावत्सा सहसा गशक्षारस्वं मुक्त्वा भूमौ पपात ।। |लतो लजितो नृपस्तत्रागत्य कृतोपचारा तां भगिनी भणित्वा क्षामयित्वा तद्वचसा परदारविरतिं जग्राह । लोके यशोऽजनि । कालेन | प्रवज्य स्वर्ग गता ॥ ३ ॥ पुरोधसः पुत्री गुणसुन्दरी श्रावस्त्यां विप्रपुत्रेण परिणीता । सा साकेतपुरविप्रपुत्रेण पल्लीतो मिलघाटीमा- | नीय सरूपत्वाद्गृहीता, पल्ल्यां सा तेन प्राय॑माना चूर्णयोगेनातीसारमकरोत् स्वदेहे, स च तस्या अनेकप्रतीकारपरोऽप्यनिवर्ण्यमाने । सश्मिनशुचिखरण्टितां तां दृष्ट्वा निर्विग्णः । तदा ज्ञातमावया तया प्रतिबोधितस्ता श्रावस्त्यां स्वपितगृहे मुमोच । अन्यदा सर्पदयो । द्विजस्तयोपचरितो जिनधर्म परदारविरतिं च प्रतिपन्नः । साऽपि वैराग्यात् प्रत्रज्य स्वर्ग मता ॥ ४ ॥
एवं चतस्रोऽप्येताः शीलप्रभावात् स्वर्गसौख्यं भुक्त्वा चम्पापुर्यां महेभ्यगृहेषु पृथक्पृथगुत्पन्ना रूपसौभाग्ययुताः । तत्रेभ्यपुत्रेण |
o
Mosc
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
- विनयन्धरकुमारेण परिणीताः । अन्यदा तासां रूपं श्रुत्या राज्ञा विनयन्धरकुमारेण सह मैत्री कृत्वा कौटिल्येनान्तःपुरदोषमुद्भाव्य - ल तद्गृहे मुद्रा कारयित्या ताः स्वान्तःपुरे प्रक्षिप्ताः । तदा ताः शीलानुभावतो देवतया कुरूपाः कृताः । ततो भीतेन विस्मितेन च राजा
मुक्ताः पुनः सुरूपा जाताः, विनयन्धरोऽपि सम्मानितः । लोक शासनप्रभावना, कालेन केवलिपार्श्व राज्ञा पृच्छा कुता, ततस्तासां ISI पूर्वभवं देवतासानिध्यं च श्रुत्वा संवेगमायनो राजा विनयन्धरश्च सपत्नीकः प्रव्रज्य क्षिप्तकर्ममलो मोक्षङ्गतः । इनि रतिसुन्दर्या|दिचरितं समाप्तं ॥ शीलमाहात्म्यं ख्यापयमाह
जलही वि गोपय चिय, अग्गो वि जलं विसं पि अमयसमं । सीलसहायाण सुरा, विकिरा इंति भुवर्णाम्म ६५ ____ व्याख्या-इह सुवने शीलसहायानां जलधिरपि गोष्पदमेव, अग्निरपि जलं, विषमप्यमृतसम, भवेदिति शेषः । तथा सुरा अपि | किरा भवन्तीति माथार्थः ।। ६५ ॥ तथा--- | सुरनररिद्धी नियर्कि-करिव गेहंगणेव्व कप्पतरू। सिद्धिमुहं पि व करयल-गय व वरसीलकलियाणं ॥६६॥ ___व्याख्या--सुरनरयोस्सम्बन्धिनी ऋद्धिर्निजकिरीव वायत्ता भवतीति भावः । कल्पतरुहाङ्गणे इव, सकलवाञ्छितार्थप्राप्तः। आस्तामेतदैहिक फलं, यावसिद्धिसुखमपि या करतलगतमिव निर्मलशीलकलितानां भवतीति गाथार्थः ॥ अत्रैव दृष्टान्तप्रतिपादनार्थमाहसीयादेवसियाणं, विसुद्धवरसीलरयणकलियाणं। भुवणच्छरियं चरियं, समए लोए वि य पसिद्धं ॥६॥
व्याख्या-सीता-देवसिकयोर्विशुद्धवरशीलरत्नकलितयोर्भुवनस्याप्याथर्यरूपं चरितं समय-सिद्धान्ते लोकेऽपि च प्रसिद्धमिति |
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाक्षरार्थः । तत्र सीताचरित्रं सुप्रसिद्धमेवेति नेह विस्तरेणोच्यते, स्थानाशून्याथं तु किञ्चिदुच्यते,तद्यथा-लङ्काधिपं निहत्य स्वपुर्यामयोध्यायामानीतायाः सीताया गर्भ समुत्पने मासदयेऽतिक्रान्ते रामेण दोहदे पूरिते अन्यदा पूर्वार्जिततीव्रकर्मोदयादतीवापवादः प्रासार्षीत् , | यदुत-'इयचिरं रावणगृहे कथमखण्डशीला सीता ? इति । ततोऽपवादभीरू रामः सीतात्यागाय लक्ष्मणमादिदेश । स च निःश्वस्याह
... “जह सलाइ मंदरो सुसह, सायरो ल्हसइ मयलदिसिचकं ।।
तहवि हुन चलाइ सीलं, मीआए महासहवराए ॥ १ ॥" किञ्च"कत्तो वि दुजणाण, अविनमाणो वि फुरइ परदोसो। सच्छा वि हु सूरकरा, कलुसल्लिया कोमियकुलस्म । २॥" ६ किश्च-सीतायां त्यक्तायां त्रिभुवनेऽपि तेऽपवादः । अमुक्तायां तु पुर्यामेव संशयितः स इति । तथापि रामे तमसदाग्रहममुश्चत्यु
विमो लक्ष्मणः स्वगृहं गतः । ततो रामादिष्टः कृतान्तवदनः सेनानी: सीतामाह-स्वामिनि ! जिनभवनबन्दनदोहदस्तेऽभूत् तदत्र तानि वन्दितानि, शेषदेशेषु तद्वन्दने रघुराजेनाहमादिष्टस्ततो रथमारोहतु स्वामिनी इति । साऽपि दृष्टा तथाकरोत् । ततो ग्रामाकरनगररम्यां | बहुमहीमुल्लङ्घय गङ्गापरपारे भीषणारण्ये रथं संस्थाप्य गद्गदगिरा रामादेश सहेतुं सीतायै न्यवेदयत् सः। सीता तु तदाकर्ण्य मूञ्छिता भूमौ पपात, तेनोपचरिता तु लब्धचैतन्या दैवं नानोपालम्भैः सम्भावयन्ती विलयति पतति मूर्च्छति । सेनानीरपि तां तथा पश्यन् स्वं निन्दन् विलम्बमानोऽपि गत्वा रामाय तजगौ। रामोऽपि तत् श्रुत्वा मूछेति विलपति, सीता गुणान् स्मारं स्मारं पश्चात्तापं करोति । घाइतश्च पुण्डरीकपुरेशः सुश्रावको बज्रजराजा गजबन्धनाय तत्रागतो विलपन्ती सीता भगिनीत्वेन प्रतिपद्य स्वगृहेऽनपीत् । सा च तत्र
पुत्रयुगं सुलग्ने लव-कुशनामक प्रासूत । तारुण्ये लवो बहुकन्याः परिणिन्ये । कुसार्थे तु पृथुराजा प्रार्थितः 'कथमज्ञानकुलशीलस्य सुतां
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
दधि १' इत्याह । चनजङ्घः कुपितस्तदुपरि स्थितः । रघूद्भवौ तु ज्ञानतद्वयतिकरौ रणाग्रे भूय पृथुराजं जित्वा जयश्रिया सह तत्पुत्रीजगृहतुः । अन्यानपि बहुन्नृपतीन जिल्ला तद्देशान् गृहीत्वा महानृपती भृतौ । अन्यदा नारदाद्रामलक्ष्मणस्वरूपं ज्ञात्वा ताभ्यां सह रणाय लग्नौ तौ तत्र हलमु शल चक्रेष्वप्यफलेषु नूनमेतौ बल-केशवाविति चिन्तयतो रामलक्ष्मणयोर्युष्मत्पुत्रावेत, या विधेथामित्यादिनारदेनोक हृष्टी चलकेशवानुपपुत्रमागतौ तावपि तत्यादयोः पतितौ तदा न रामः स्मृनसीतागुणविरं विललाप । ततः पुत्राभ्यां सह पुरं प्रविकार तो 'दुःखेय मिळवी सीतामानाययतु देव !" इति सर्वसामन्तैर्विज्ञतो रामः प्राह - अस्त्येवं यदि परं प्रत्ययेन प्रमार्ष्टि जनापवादं । ततस्तत्प्रतिपद्य विभीषणादिखेचरैः पुरानहिर्मश्चान् बन्धयित्वा सकलराजादिलोकान् मेलयित्वा पुष्पकविमानेन महाविभूत्या समानीता सीता " तो रोहामि तुलाए, जलणं पविसेमि लेमि वा फाले । उग्गं वा पियामि विसं, अन्नं च करेमिजं भगसि ।। १ ।। " इति तयोक्तं रामः प्राह-देवि ! जानाम्येव शशिकलथवलं ते शीलं तथापि लोकप्रत्यायनाय ज्वलनं प्रविशेति, तुष्टा सीता तं प्रतिपेदे, रामः पुराद्धर्हिस्तशतत्रयं समचतुरस्रावगाढां वापीमचीखनत्, चन्दनकाष्ठैः पूरयित्वाऽग्निरुद्दीपितः, ज्वालाभिः कवलितं नमः | अत्रान्तरे कस्यापि मुनेः केवलमहिमार्थ तत्रायातः शक्रस्तं व्यतिकरं ज्ञात्वा सीतायाः शीलेन तुष्टो वैयावृत्यार्थ हरिणेगमेषण प्रपीत् । सीताऽपि पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं स्मृत्वा आत्मानं शीलशुद्धां श्रावयित्वा हाहारखमुखरेषु पश्यत्सु लोकेषु ज्वालामाला - जटिले ज्वलने झम्पां ददौ तावता नाग्निर्न धूमो नेन्धनं किं स्वम्भोभृता नलिनीवनखण्डमण्डिता वापी, मध्ये चैकस्मिन् महाप सीतोपविष्टा दृष्टा जनैः । प्रवर्द्धमानेन वापीनीरेण तु पूरी प्लावयितुं लगा। पौराः पुनर्भीताः सीतापादयोर्विप्राः, सीताकरस्पर्शाच तद्वापीमात्रमभूत् । पुष्पवृष्टिदुन्दुभिगीतनृत्यादिदेव कृतोत्सवः प्रवृत्तः । लक्ष्मणपुत्रादयः पादयोः पतन्ति । रामः प्राञ्जलिः क्षामयित्वा
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
ISAntaraaNABAtenindmmediate...
| राज्यस्वामित्वविषयैः प्रार्थयति सीता, सीता तु 'येषु गृद्धया मया विनाऽप्यपराधमियद् दुःखं प्रासं, अथ तेषु का प्रतिबन्धः?' इत्या| शुक्त्वा तदैव शिरसि लोच कृतवती, ततो देवदत्तवेषा केवलिसमीपे नीता चरण प्रतिपद्य सम्यगाराध्याच्युतेन्द्रोऽभूत् । रामस्स तु यथोचितं वाच्यम् । [सीतया] पूर्वभवे वेगवत्या नाम्न्या ग्रामेण पूज्यमानस्य साधोमत्सरेण कलको दत्तः, ततो लोकः साधौ विरक्ता, देवतानुभावात् तस्या मुख स्यून, ततो भीता सा 'मयाऽलीकमुक्त मिति लोके प्रोचे, ततः पुनर्मुनेः पूजा, इति यन्मुनेरम्याख्यानं दत्त शोधिश्च कृता, तेन कर्मणा तस्या द्वयमपि जातमिति ।। इति श्रीसीताऽऽख्यानं समानम् ॥ . देव[सिका] सेना (?) चरितं त्विदम्-ताम्रलिप्तीपुर्यां कमलाकरश्रेष्ठी, जिनसेनः पुत्रो जिनधर्मपरः, स च रत्नाकरपुरनिवासिधर्म| गुप्तश्रेष्टिपूत्री देव[सिकां] सेना (१) परिणीतवान् । अन्यदा पितयुपरते जिनसेनोऽर्थोपार्जनाय देशान्तरं गच्छन् देव[सिक्या सेनया (१) भणितः-नाथ! त्वं तत्र गतोऽन्यान्यरमणीमिर्लोमयिष्यसे । स पाह-यावजी ममापररमणीरमणे नियम इति, तथापि सा न
प्रत्येति । ततो जिनसेनो देवतामाराध्य तदत्तं यमद्वयं लात्वैक पत्न्याः करे समर्थापरं स्वकरे कृत्वा बभाण-त्वच्छीलस्खलने भत्कर५ कमलं मच्छीलस्खलने त्वत्करकमलं शुष्यतीति प्रत्ययः । ततः क्रयाणकानि गृहीत्वा स्वस्थचित्तो जलावना पार्श्वकूलमगात् । तत्र राज* मान्यो व्यवसायं कुर्वन् प्रत्यहं करकृतकमलस्तत्पुरनिवासिव्यवहारिपुत्रैश्चतुर्भिदृष्टस्तकमलस्वरूपं पृटो यथार्थ प्राह । ते तथाऽश्रद्दधाना
श्वत्वारोऽपि ताम्रलिप्त्यामागताः, कस्याश्चित् परित्राजिकाया गृहे स्थिताः, तैलक्षं लक्ष द्रव्यं मानयित्वा तस्य गृहे प्रेषिता परित्राजिका
देव[सिकाऽग्रे] सेनाऽग्रे धर्मकथा कथयति । सा शृणोति, प्रत्यहं यात्यायाति सा । अन्यदा परिवाजिकया तम्या गृहशुन्या चूर्णमिश्रा* हारो दत्तस्तस्या नेत्रे स्पन्देते, तदृष्ट्वा देवमिकया सेनया (?) कारण पृष्टा परिवाजिका प्रपञ्चन कूटध्यानं नादयित्वा प्राह-इयं शुनी
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
State
भदे ! मम पूर्व भवसायी, तो यमत्यत्तसाणऽनेकैस्तरुणैः प्राध्येमाना तेषां वचो नामन्यत, सम्प्रति शुनी जाता मां दृष्ट्वा ज्ञातपूर्व |
भवा पश्चात्तापेन रोदिति, इति श्रुत्वा देवसेना (?)। देवसिका)ऽचिन्तयत-नूनमियं दुराचारिणी, केनापि कामिना प्रेषिता मम शीलमार्थ हि कल्पितवचांसि वक्ति, अन्यथा कथं सा शीलवती मृत्वा शुनी जाता है, तर्हि तथा करिष्ये यथा अस्याः प्रपश्चो मिथ्या भविष्यतीति
ध्यात्या देव[सिका सेना (?) प्राह-तहिं मया किं विधेयम् ?, तयोक्तं चत्वारः पुरुषाः प्रत्येकं लक्षाभरणास्तव सौभाग्याकृष्टाः पाश्चकूलादायाताः सन्ति, तैः सह स्वयौवनं कृतार्थयेति । देवसिका सेना (?) ग्राह-एवमस्तु । ततः परिव्राजिका सङ्केतेनैकः कृतशृङ्गारः समायाता, | देव[सिका]सेना (१) स्वदासी शृङ्गारयित्वा शिक्षा दत्वा द्वारि संस्थाप्य स्वयं प्रच्छन्ना स्थिता, दास्या लोहशिलाकां तापयित्वा स ललाटे दम्मितो दासीभिमिलित्वोहालितसर्वाभरणो विलक्षो गतः । अपया स्वस्वरूपमन्येषां नोक्तं । पुनातीयेऽन्हि द्वितीयो गतः, सोऽपि गृहिताभरणोऽङ्कितः । एवं चत्वारोऽपि । ततः सर्वेऽपि समदुखाः परस्परं सद्भावमुक्त्वा लजिताः परिवाजिकोपरि द्विष्टास्तस्या नाशां
कर्णी च छिच्चा पाचकूले गताः। तद्वयतिकरं देव[सिकया सेनया (१) ज्ञात्वा चिन्तितमा एते तत्र गता मम पन्युः किमपि विरूपक EVीरनिति श्वश्रुसमक्ष उक्त्वा यानपात्रेण सपरिचारा प्रस्थिता । अन्तराऽकृतपूजया मिथ्याग्देवतया प्रवहणे भग्ने सम्यग्दृष्टिदेवतया
शीलादिगुणाकृष्टया क्षणात सपरिवाग पार्थकले नीता। तत्र पत्युः सर्व प्रोक्तं, पुरुषवेषेण राज्ञः प्राभृतं कृत्वोक्तवती-अस्माकं चत्वारः | किङ्करा बहुद्रव्यं लात्वा ताम्रलिप्तीपुर्या अत्रायाताः सन्ति । राज्ञोक्तं-विलोक्य गृहन्तु । तयोक्तं-सर्वे पुरुषा राजादेशेनात्रायान्ति तदा सुज्ञानं स्यात् । राज्ञोक्तं-किमपि तेषामुपलक्षणं चिन्हमस्ति । तयोक्तं ललाटे अस्मत्स्वामिनोऽङ्काः सन्ति । ततो राज्ञा सर्वे पुरुपास्तत्र सभायामाहृताः । तया विलोक्य चत्वारोऽपि प्रकटिताः । उक्तं चैते ते मम किङ्कराः । राज्ञः सर्वलोकानां च महान् विस्मयः । अहो
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ एतेऽस्मत्पुरप्रधानव्यवहारिपुत्राः कथं किक्करा जाताः ? । ते च पृष्टा अपि त्रपया न बदन्ति । ततो देव[सिकया]सेनया(?) यथास्थिते.
कथिते राज्ञा ते चत्वारोऽपि तस्याः समपिताः, उक्त यसमा दुष्टानां यधुकं सत्यमेव गुरु । सशसाया धर्मदेशनया सम्बोध्य परदारचिरति ग्राहिताः सत्कृत्य मुक्ताः । देव सिकाऽपि]सेनाऽपि राज्ञा लोकैश्च स्तुता कृतशीलप्रभावना पत्या सह स्वावस्थानपुरं प्राप्ता कालेन ।
त्रिभुवनचन्द्रकेवलिधर्मदेशनां श्रुत्वा सञ्जातवैराग्या प्रत्रज्य प्राप्त केवलज्ञाना मोक्षमगात् । इति देवसिकाचरितं समाप्तम् ॥ 61 अन्वयदृष्टान्ताभिधाय व्यतिरेकदृष्टान्तमाह
विसयाउरेहि बहुसो, सील मणसा वि मइलियं जेहिं । ते निरयदुहं दुसह, सहति जह मणिरहो राया ॥६८॥
____ व्याख्या-यैर्विषयातुरैः सद्भिर्मनसाऽपि शीलं बहुशोऽनेकवारं मलिनीकृत, ते दुःसहं नरकदुःख सहन्ते, यथा मणिरथो राजेति होगाथार्थः ।। ६८ ॥ तत्कथा चेयम्-अवन्तीदेशसारे सुदर्शनपुरे मणिरथो राजा, तस्यैवानुजो युगबाहुर्युवराजः, तस्य पत्नी मदनरेखा । # अन्यदा तस्या रूपरक्तेन ज्येष्ठेन दूतीमुखेन प्रार्थिता साऽऽह
"अन्नमिम वि परदारे, सप्पुरिसाणं न बच्चह मणं पि। जे पुण बहुजणम्मि वि, कायपवित्ती महापावं ॥ १॥" | "सी चिय पढमगुणो, नारीणं जइ न सोवि मह होजातो के गुणा य अने,अणुरजजेसु नरनाह " किञ्चHit "तुच्छाणं भोगाणं, कले पाथिहिसि तिहुयणे अयसं । घोरे य पडिहिसि नरए, दुहाई किणि सहस्थेणं ॥३॥"
___ ततो चिरमैतदकार्यादित्यादि, इत्या चैतभिवेदितं तस्य, तथाप्यनिवृत्तकामग्रहः स्वभ्रातजिघांसया छिद्राणि विलोकयति । अन्यदा वसन्ते क्रीडाथै वने गतः, तत्रैव सुप्तो मणिरथा युगबाह]स्तेन व्यापादितः। ततो मदनरेखया युगवाहोरन्त्यावस्थां ज्ञात्वा कर्णमूले भूत्वा
AR
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
TAKE
.
CA%AGAREKAR
मधुरगिराऽऽराधना कारिता, प्रतिपन्नभावचरणो मृत्वा ब्रह्मलोके उत्पन्नः । ततः शेषपरिजनेषु क्रन्दन्सु | "मज्झनिमित्तं वहिओ, नियधंधू जेण मो अवस्सं पि। ग[भ]जिहद मजा मीलं, तमियाणिं रक्स्विउं जुत्तं ॥१॥"। 1 इति विचिन्त्य गर्भा मददरेतः शनाय नशा, सागरच्यां पुत्ररत्नं प्रसूता । तत्करे युगबाहुनामाङ्को मुद्रां क्षिप्त्वा तत्रैव मुक्त्वा | है। वस्त्रादिक्षालनार्थ सरसि गता | तत्र जलगजेन गृहीत्वा गगने उल्लालिता पितृमुनेर्वन्दनाथ नन्दीश्वरे गच्छता मणिप्रभविद्याधरेणान्तरा | गृहीता । पुत्रार्थ विलपन्ती तेनोक्ता-तव पुत्रोऽश्वापहृतेन मिथिलापुरीस्वामिना पथरथेन गृहीतः पुष्पमालाया अपितः, इति मम
प्रनप्त्योक्तं. ततो मुश्च विवाद, मया मह रमस्व खेचरीश्वरी भव, तावता तेन नीना नन्दीश्वरे मुनिसमीपे । अत्रान्तरे मदनरेखाकारिहै ताराधनः पञ्चमस्वर्गादागतो युगबाहुदैवस्तां त्रिप्रदक्षिणीकृत्यारन्दत । ततो मुनिदेशनाबुन विद्याधरेण क्षामिता । देवस्ता मिथि
लायां स्वपुत्रान्तिके मुक्त्वा स्वस्थानमगात । तत्र प्रबजिता मदनरेखा, पुत्रः सर्वारिनमनाभमिनामा पथरथेनोक्तः, यौवनप्राप्तं च तं | राज्ये संस्थाप्य प्रवज्य पयरथो मोक्षमगात् । इतश्च मणिरथस्तस्यामेव रजन्यां कालसर्पदष्टः चतुर्थे नरके उत्पनः । मन्त्रिभिर्युगबाहुपुत्रो |ज्येष्ठश्चन्द्रयशा राज्ये स्थापितः । अन्यदा नमिनृपतेर्धवलगज आलानमुन्मूल्य वनं व्रजन्नन्तरा चन्द्रयशसा राज्ञा गृहीतः । नमिराज्ञा मार्गितोऽपि यावत्स न मुञ्चति, तावत् सबलवाहनो नमिस्तदुपागतः । नमिमात्राऽऽयया तत् श्रुत्वा तयोः स्ववृनान्तं ज्ञापयित्वा द्वावपि भ्रातरौ मेलितो प्रतियोधितौ । चन्द्रयशाः स्वराज्यं नमेर्दवा प्रबजितः । अन्यदा नमिनृपतेर्दैहे दाधज्वरः पाण्मासिको जातः । | तदुपशमनार्थमन्तःपुरीभिग्रंमाणे चन्दने यहुबलयरवो राज्ञः कर्णकटुरिति वलयमेकैकं रक्षयित्वा वर्षणं कुर्वन्ति । ततो राज्ञा चिन्तितंयद्यहमप्येकाकी भूत्वा तिष्ठामि, तदा सुखमनुभवामि वलयदृष्टान्तेन । ततः प्रत्येकबुद्धस्मजातजातिस्मृतिघिदोषमुक्तः पुत्र राज्य संस्था- |
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
| प्य देवतादत्तलिङ्गः प्रव्रज्यां प्रतिपनः शक्रेण परीक्षितोऽक्षोभ्यचित्तः प्रणतः, स्वर्ग गतः [शक्रः । मुनिरपि निरवद्या दीक्षां पालयित्वा | | सिद्धिं गतः । इति मणिरथचरितं समाप्तं, प्रसङ्गान्न मिचरितमपि । * हह च यदेव प्रकर्षमापन्नमुक्तनीत्या प्राणातिपातादिषु निमित्ती भवति, तदेव मनसा शीलविराधनं नरकदुःखहेतुर्विवक्षितं, न
तन्मात्रमिति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ शीलमहात्म्यख्यापनार्थमेवाह
चिंतामणिणा किं ? तस्स, किं च कप्पदुमाइवत्थूहि ? । चिंताईयफलकर, सीलं जस्सऽथि साहीणं ॥६९॥ में व्याख्या-तस्य चिन्तामणिना किं ?, न किञ्चिदित्यर्थः, किं वा कल्पद्रुमादिवस्तुभिः ?, आदिशब्दात्कामधेन्वादिपरिग्रहः, यस्य |
चिन्तातीतं मोक्षप्राप्त्यादिफलकरं शीलं स्वाधीनमस्ति । चिन्तामण्यादयः कल्पितस्वरूपाणि हिरण्यलाभादीन्येव फलानि प्रयच्छन्ति, शीलं तु चिन्तातीतं मोक्षादिकं फलमपि करोतीत्येतदेवो पादेय] पेयं, नान्यदिति भावार्थः ॥ ६९ ॥
इति जिनपतिविष्टं देहभाजो! यथेष्ट, कृतगुणगणलीलं शोलपत्ये शीलम् । दिविजमनुजराजाऽभ्यर्चनाभक्ति हेतु-यदिह विकसदापत्सागरोत्तारसेतुः ॥ १॥
इति पुष्पमालाविवरणे [द्वितीयः] शीलधर्मः समर्थितः ॥ ४ ॥ ___ अथ तपोधम्म विभणिषुः शीलधर्मेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाहइय निजियकप्पदुम-चिंतामणिकामधेणुमाहप्पं । धन्नाण होइ सील, विसेसओ संजुयं तवसा ॥ ७० ॥
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
RESKTM
व्याख्या-इत्युक्तनीत्या निर्जितकल्पद्रुमचिन्तामणिकामधेनुमाहात्म्यं शीलं धन्यानां केषाश्चिद्भवति, विशेषतस्तपसा संयुक्तमिति, नशीलसम्पन्नोऽपि तपसव विशिष्टां कर्मनिञ्जरामामोतीनि शीलानन्तरं तपः प्रोच्यते इतीह सम्बन्धः प्रोक्को द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥७०!
कतिभेदं पुनस्तसपः ? कर्थ कश्च विधेय? इत्याह---- समयपसिद्धं च तवं, बाहिरमभितरं च बारसहा । नाऊण जहाविरियं, कायव्वं तो सुहत्थीहिं ॥ ७१ ।। चा व्याख्या–'समयः सिद्धान्तः, तत्प्रसिद्धं तपो बाह्यमभ्यन्तरं च तावद् द्वादयघा, तच्चाशेषैर्गुरुसमीपे ज्ञात्वा यथावीर्य-खशक्त्य
नुसारेण कर्त्तव्यं, न सर्वथा शक्तिर्गोपनीया, यत उक्त-" तिथयरो चउनाणी, सुरमहिओ सिज्झियवए धुवम्मि । अ. निगहियबल विरिओ, सम्वत्यामेण उज्जमह ॥१॥ किं पुण अबसेसेहि, दुखक्वयकारणा सुविहिपाहिं । होइ | जान उज्जमियब्वं १. सपञ्चवामि जियलोए ॥२॥" न च शत्यतिक्रमेण तत्कर्तव्यम् । यदक्तं-"सो य तयो कापव्यो, । जेण मणो मंगुलं न चिंते । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न सीयंति ॥१॥ कैः कर्तव्यमिद ? इत्याह-सुखाथिमिः, न तु भवाभिनन्दिभिरिति गाथार्थः ।। ७१ ॥ किमिति तपः कर्तव्यमित्याशङ्कय तन्माहात्म्यं ख्याफ्याहजं आमोसहिविप्पो-सही य संभिन्नसोयपमुहाओ । लद्धीओ इंति तवसा, सुदुल्लहा सुरवराणं पि ॥७२॥ - व्याख्या-यस्मात्कारणादामर्पणमामयः संस्पशनमित्यर्थः, स एव कुष्ठादिव्याध्यपनयनसमर्थवादौषधिरामोपधिः । अयम्भावःयया संस्पर्शनमात्रादेव सकलव्याधीनयनयति, सा लम्धिरामपौषधिः, यया विप्रतिष्ठाद्याः सुगन्धयः स्युः संस्पर्शमात्रादेव च सकल
-
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
Pares
S
3:49
व्याधीनपनयति सा लब्धिर्विश्डौषधिः, तथा सम्भिनं - सर्वशरीरख्यापि श्रोतः श्रवणं यस्यां लब्धौ सा, अथवा श्रोतांसि - इन्द्रियाणि संभिन्नानि - एकैकशः सर्वविषयैः परस्परतों वा यस्यां सा तथा अथवा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सम्भिन्नान्-सुबहूनपि शब्दान् शृणोति यया सा सम्भिन्नाश्रोतोलब्धिः प्रमुखग्रहणात् खेल-मलौषध्यादिकाः जङ्घाचारणादिकाथ गृह्यन्ते, सर्वा अध्येतास्तपसा क चित्साधोरेव भवन्ति । तच सुराणां न सम्भवत्यतस्तेषामप्यतिदुर्लभा एताः इत्यालोच्य तप एव कर्त्तव्यं, एवमुचरत्रापि तयो माहाregator यथायोगमित्थं सम्बन्धः कर्त्तव्य इति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ तथा
सुरसुंदरिकरचालिय- चमरुप्पीलो सुहाई सुरलोए । जं भुंजइ सुरनाहो, कुसुममिणं जाण तत्र तरुणो ॥ ७३ ॥ व्याख्या-- कचिकाविदजी जन्मनि शुद्धं तपो विधाय सुरलोके सुरनाथत्वेनोत्पन्नः सुरसुन्दरीकरचालितचमत्करः प्रवरवैषयिक सुखानि यद् भुते, तत्कुसुममात्रमेव जानीहि कस्य : इत्याह-तप एव तरूस्तस्य तपस्तरोः फलं तु मुक्ति| सुखमेवास्येति गाथार्थः ॥ ७३ ॥
१
जं भरहमाइणो च - किणो वि विष्फुरियनिम्मलपयात्रा । भुंजंति भैरहवासं, तं जाण तत्रप्पभावेणं ॥ ७४ ॥
यद्भवाद्याणिst विस्फुरितनिर्मलप्रतापाः सन्तो भरतक्षेत्रं भुञ्जन्ति, तत्तपोमाहात्म्यादेवेति जानीहीत्यक्षरार्थः ॥ ७४ ॥ पायाले सुरलोए, नरलोए वा वि नत्थि तं कज्जं । जीवाण जं न सिज्झइ, तवेण विहिणाऽणुचिपणं ॥७५॥ पाard देवलोके मनुष्यलोके वाऽपि जीवानां तत्कार्यमेव नास्ति, यद्विविनाऽनुचीर्णेन तपसा न सिद्ध्यतीत्यक्षरार्थः ॥ ७५ ॥
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
CHECK
विसमं पि समं सभयं,पि निभयं दुजणो विसुयणोव।सुचरियतवस्स मुणिणो,जायइ जलणो वि जलनिवहो। | व्याख्या-'विपममपि सङ्कटरूपमपि सम-सम्पदारूपं, तथा समयमपि निर्भय, दुर्जनोऽपि स्वजन इन, ज्वलनोऽपि जलनिवह
व जायते, कस्ख ? इत्याह-सुचरिततपनो मुने-महात्मनः, उपलक्षणं चैतत्तेनोग्रतपस्विनामन्येषामप्येतत् सकलं तपःप्रभावात्सम्पद्यत |
इति गाथार्थः ।। ७६ ।। अथ च तपसोऽतिगरीयस्त्वं दुष्करत्वं चाकलय्योत्पन्नभक्यतिरेको ग्रन्थकृत्तपाकसाधूनां प्रणाममाहसेतवसुसियमंसरुहिरा, अंतोविएफरिवगरुयमाहरण । सलहिज्जति सुरेहि वि, जे मुणिणो ताण पणओहं।।७७॥ ___व्याख्या-ये तपःशोषितमांसरुधिरा अन्तर्दिस्फुरितगुरुकमाहात्म्याः मुरैरपि श्लाघ्यन्तै, तेभ्यो मनिभ्योऽहं प्रणतोऽस्मीति गाथार्थः | ॥ ७७ ॥ अथ दृष्टान्तपूर्व तपोमाहात्म्यं स्पष्टयनाह--
जं नंदीसेणमुणिणो, भवंतरे अमरसुंदरीण पि । अइलोभणिज्जरूवं, संपत्तं तं तवस्स फलं ॥ ७८ ॥ | व्याख्या-यमन्दिषेणमुनेर्भवान्तरे-श्रीवसुदेवभवलक्षणे अमरसुन्दरीणामप्यतिलोभनीयं रूपं सम्प्राप्तं-जातं, तत्तपस एवं फलमित्यथरार्थः, भावार्थस्तु कथानकेन कथ्यते-- ___मगधदेशे शालिग्रामे विप्रपुत्रो नन्दियेणः, तस्मिन् जाते मातापितरौ मृतो, सर्वमपि गृहधनं गतं, दुःखेनाष्टवर्पा जाता, बालकालादुर्भगो रूपादिहीनः सर्वदोषमन्दिरं भिक्षां भ्रमन् मगधपुरे मातुलगृहे गतो गृहकर्माणि कुर्वस्तिष्ठति । मातुलः सप्तपुत्रीभ्य एकैकां तस्य ददासि, ताः सर्वा अपि कृतमरणनिश्चया दुर्भगत्वात नेच्छन्ति, किं पुनरन्याः कन्याः, ततो निर्विण्णो वैभारगिरिशृङ्गात्पतत्केनाऽपि |
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुनिना निवारितस्तत्याचे दीक्षां गृहीत्वा एकादशाङ्गान्यधीत्य द्वादशविधं तपः कुर्वन् जघन्यतः कृतपष्ठतपोऽभिग्रहो दशविधवैयावृश्ये कृतयावञ्जीवाभिग्रहः साधूनामिच्छता निवद्याशनादि आनीय ददाति । अन्यदा तस वैयावत्यस्थिरताप्रशंसां शक्रकृतामश्रद्दधानी द्वाबमरौ साधुश्रेषेण परीक्षार्थमत्रायातौ। एको बहिः स्थितः, अपरस्त बसतावागत्य प्राप्में मध्याह षष्ठपारणे प्रथमकबलमुरिक्षपन्तं नन्दिषेण महामुनिमुवाच-यद्यत्र गणे कश्चिद्ग्लानप्रतिजागरकोऽस्ति ? तत्समन्यावस्थाप्राप्तं [ग्लान] प्रतिजागर्नु । ततस्त्यक्त्वा कवलं सहसोस्थितः स पाह-कक्क सः प्रतिवसति ग्लानः?, केनौषधेनार्थः । देवमुनिराह-अरण्ये स्थितोऽस्ति सोऽतिसारकी, स्वं पुननिर्लज ! निश्चि
तो मिष्टभोजी रात्रिदिवास्वपि निरपेक्षः वैयावश्यकरोऽहमेतावतैव तुष्टः । ततो नन्दिषेणस्तं क्षमयति निन्दति चात्मानं । अथ देवर्षिस्त| क्षेत्रकालदुर्लभान्यौषधानि उष्णोदकं चानाध्य प्रतिगृहमनेषणामकरोत् । तथाऽप्यदीनचित्तः क्वचिद्वयाक्षिप्ते सुरे तत्सर्व गृहीत्वा प्राप्तो ग्लानमुनिपाचे, सोऽपि नन्दिषेणं वीक्ष्य क्रुद्धो बक्ति-अहमेनामवस्था प्राप्तोऽरण्ये तिष्ठामि, त्वं पुनर्निर्भाग्यशेखर ! निर्लज्ज ! सुखेन तिष्ठसि तत्रेत्येवं निर्भसितोऽपि पुनस्तमपि क्षमयित्वाऽनुनायाशुचिरसानुलिप्तं तदेहं प्रक्षाल्यासौ स्कन्धे कृतो नन्दिषणेन। सोऽप्युपरि स्थितो दुर्गन्धं मुञ्चत्यशुचिरस, शिरसि गुरुप्रहारैर्हन्ति, 'रे दुरात्मन् ! किं न समं गच्छसि ?, कठिनहस्तैर्ममाङ्गं किं गाढं धरसि ?, न पेरिस ? परपीडा, यत्पदे पदे मे दुःखमुत्पादयसि, रे दुष्ट! निष्ठुर ! निष्कृपा निखप ! कथं वैयावृत्त्य प्रतिपन्न ?' इत्यादि निष्ठुरं भणतस्तस्य नन्दिषेणश्चिन्तयति-कथमस्थ साधोः समाधिविधेया, यदहमसम्यग्वजनेतस्य व्याधिविधुरस्य मुनेः पीडां करोमि, तन्मिथ्या दुष्कृतं इत्यादि चिन्तयन् शुद्धधीनन्दिपेणः पाह-मा कुरु खेदमिदानीं त्वा सुखेन नयामि, यथा नीरुम् भविष्यसि तथा मया कर्वव्यम् , मा क्रोधं कुरु, क्षमस्व, एवं मधुरं जल्पभवधिना देवाभ्यामक्षोम्योऽयमिति ज्ञात्वा प्रकटीभूय प्रदक्षिणापूर्व नत्वा भणित-त्वमेव
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
R
धन्यस्त्वमेव पूज्यो भुवनस्य, यस्य सुरेन्द्रो वैयावृत्ये निश्चलत्वं प्रशंसतीत्यादि स्तुत्वा क्षमयित्वा मुनि स्यागमनकारणमुक्त्वा स्वर्ग गतौ। मुनिरप्यनाकुलचित्तो मध्यस्थमना गुर्वन्तिकेऽविस्तवैयावृत्त्यमालोचयति । ततो विशेषतस्तपोवयावृत्यादि कुर्वन् पञ्चपश्चाशद्वर्षसहस्राणि श्रामण्य पालयित्वा कृतसंलेखनः प्रान्ते दौर्भाग्यं स्त्रीजनपराभवं विरूपित्वं पितृमरणादि च स्मृत्वोद्विग्नः साधुभिर्वारितोऽपि यद्येतस्य | तपसः फलमस्ति, तर्हि मनुष्यभवे मम मौभाग्यं स्वीजनवल्लभत्वं सुरूपत्वं लोकवल्लमत्वं भृयादिति कृतनिदानो मृत्वा सप्तमस्खगें सप्तदशसागरोपमस्थितिर्देवो जातः । ततः सौरीपरेऽन्धकवृष्णेदेव्याः सुभद्रायाः पुत्रो वसुदेवनामा रूपादिसम्पन्नस्समजनि । स च यथा
सौभाग्यभूमिर्देशान्तरं गतोऽनेकविद्याधरनरेन्द्रकन्याभिः परिणीतः, यथा च यादवानां मिलितो, यथा वासुदेवः पुत्रो जातस्तथा सर्व | ४ वसुदेवहिण्डेझेयमिति नन्दिषेण कथानकं समाप्तम् । तपस एव माहात्म्यं ख्यापयन्नाह ---
सुरअसुरदेवदाणव---नरिंदवरचकवहिपमुहेहिं । भत्तीए संभमेण य, तवस्सिणो चेव धुव्वंति ॥ ७९ ॥ # व्याख्या-इह सुरा-वैमानिकाः, असुराः-भवनपतयः, देवाः-ज्योतिष्काः, सूर्यादीनां लोकेऽपि देवत्वेन प्रसिद्धः, दानवा-उपठा लक्षणत्वादेव व्यन्तराः, नरेन्द्रवरा:-मण्डलिकादिभूपतयः, चक्रवर्तिनः प्रसिद्धाः, प्रमुखग्रहणेन सामन्तामात्यश्रेष्ठयादि(परि)ग्रहः, एतैः सर्वैरपि भक्त्या सम्यग्दृष्टिभिः सम्भ्रमेण वा शापदानादिभयेन वा मिथ्यादृष्टिभिरपि तपस्विन एव स्तूयन्ते इति गाथार्थः ।। ७८ ॥
___सुखार्थिभिश्च तपस्येव यतितव्यमित्याहका पत्थइ सुहाई जीवो, रसगिद्धो नेय कुणइ विउलतवं । तंतूहि विणा पड़यं, मगइ अहिलासमित्तेण ॥८॥
CAM
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ व्याख्या- तावत् सर्वोऽपि संसारिजीवः कामभोगादिसम्भवानि सुखानि प्रार्थयते, अथ च रसेषु-मधुरादिषु गृद्धस्तत्कारणभूतं न करोति विपुलं तपः । स विधः सन् कीदृशो द्रष्टव्यः ? इत्याह-स नूनं कारणभतेस्तन्तुभिर्विना अभिलाषमात्रेणेव पटं मृगयते। अयम्भावः-यथा खहेतुतन्तुसङ्घाताभावे पटो न भवेत् , तथा सुखान्यपि स्वकारणभूततपोचिरहितानि न सम्भवन्ति, अतस्तदर्थिना तत्रैव ।
यतितम्ममिति गाथार्थः ॥ ८० । पूर्वोपचितकर्मणामपि तप एवापगमहेतुरित्याह5 कम्माई भवंतरसं-चियाई अइकक्खडाई विखणेण । डझंति सुचिपणेणं, तवेण जलणेण व वणाई ॥८॥ | व्याख्या-कर्माणि भवान्तरसञ्चितानि अति कक्खडाणि"(कर्कपाणि)-दुर्थे(दुर्भ)द्यान्यपि क्षणेन दह्यन्ते सुचीर्णन तपसा,
केन कानी ?, ज्वलनेन बनानीवेति गाथार्थः ॥ ८२ ॥ अत्रार्थ दृष्टान्तमाह| होऊण विसमसीला, बहुजीवखयंकरा वि कूरा वि । निम्मलतवाणुभावा, सिझंति दढप्पहारिष्व ॥२॥
व्याख्या---इह केचिद्विषमशीला-असदृशाचारा बहुजीवक्षयंकरा अपि क्रूरा अपि भूत्वा निर्मलतपोऽनुभावाढप्रहारीव सिद्ध्य[न्तीत्यक्षरार्थः ।। ८२ ॥ भावार्थः कथानकेनोच्यते, यथाहि... वसन्तपुरे अनिशर्मविप्रपुत्रः क्रूरका मांसाशी मद्यपानलुब्धो दोषैः समं वृद्धिं गतोऽनयंभीरुणा पित्रा निर्वासितोष्टव्यां गत थोरैमिलिती धादीषु गतो न मुञ्चति बालं वृद्ध गां महिषी वा, प्रहरत्येव । ततस्तैः कृतदृढप्रहारिनामा सेनापतौ मृते स एव सेनापतिः कृतः । अन्यदैकस्मिन् ग्रामे धाट्यां गतस्तत्र क्षुधितेचौरर्दरिद्रविप्रगृहास्पायसस्थाली गृहीता । तड्डिम्मै रुदतिः मातुं गतस्य पितुनि
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेदि, स च भार्यया निवार्यमाणोऽपि धावितश्वीरेभ्यः शपते । ततः कोपेन दृढप्रहारिणा विप्रशिरश्छिन्नं तद्दृष्ट्वा गर्भवती विप्रभार्या क्रुद्धा ग्रहारिणमाक्रोशति, तेनाप्यतिक्रुद्धेन खङ्गेन तस्या उदरं विदारितं । गर्भोऽपि द्विधाभूतो भूमौ पतितः । तं तथा वीक्ष्य दृढप्रहारी परमं निर्वेदमुपगतस्तुद्यत्कर्म्मकवचश्चिन्त यति-हा !! अत्रावतीर्य मया सर्व पायमेव समाचीर्ण, स नास्ति जीवो यो मया निदयेन न हतः, तथा कामटगच्छलितेन इयन्तं कालं परदाररमणाभक्ष्यभक्षणापेयपानादीनि पापान्याचीर्णानि, इदं पुनर्महापापं चिन्तयितुमपि न तीर्यते । "जम्हा हस्थी सत्थवि. समुच्त्रिणी वंभणी दरिक्ष य ।
गभेण सह निया, मा क
गयस्म मह सृद्धी ! ॥ १ ॥
fi ast विशामि ? पर्वताद्वा पठामि ? नीरं वा साध्यामि ? इत्यादि यावचिन्तयति तावन्महर्षिमेकं समीप एवं विलोक्य तत्र गत्वा तं नत्वा देवनां श्रुखा प्रवजितस्सच्वनिधिरेवंविधमभिग्रहमकरोत् - मार्यमाणेनापि न मया रोलः कर्त्तव्यः, अन्यश्च यावद्गर्भ स्फुरत्स्फुरन्तं स्मरामि तावश्व चतुर्विधमाहारं गृहीष्यामि । ततरत्वेनोपतलोको त्पादितोपसर्गान्सिर्वानप्यदीनमना सहन शुद्धध्यानेन केवलज्ञानमुपाध सिद्धः श्रीढप्रहारी, इति प्रहारिकथानकं समाप्तम् । दृष्टान्तान्तरमाह-
संघगुरुपञ्चणी, तवोभावेण सासिउं बहुसो । विण्डुकुमारूव मुणी, तित्थस्स पहावया जाया ॥ ८३ ॥
व्याख्या - सङ्घगुरुप्रत्यनीकान् प्राणिनस्तपोऽनुभावेन अनुशिक्षयित्वा बहुशोऽनन्तकालेन बहवः साधवस्तीर्थस्य प्रभावका जाताः, क इव १, विष्णुकुमार इव । कः पुनरसौ १ इत्युच्यते
हस्तिनागपुरे पद्मोत्तरो नृपः ज्वालाख्या पडुराज्ञी जिनधर्मरता । तयोः सिंहस्वमसूचितो विष्णुकुमारो ज्येष्ठः पुत्रः, चतुर्दशख
"9
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममूचितो द्वितीयो महापद्मः । ज्येष्ठो निःस्पृहः, इतरः समीहते, इति राज्ञा युवराजत्वे स्थापितः । इतश्चोजयिन्यां श्रीमुनिसुव्रतशिष्याः * सुत्रताचार्याः समायाताः, श्रीधर्मनृपो वन्दनार्थ गतः, तमात्यो नमुचिर्नास्तिको धर्मनिन्दा कुर्वन् क्षुल्लकन वादे जितः साधुषु | का प्रद्विष्टो रात्रौ साधुमारणार्थ गतो देवतया तत्रैव स्तम्भितः । प्रभाते राज्ञा लोकैश्च दृष्टो निन्धमानो लज्जया निर्गत्य हस्तिनागपुरे गतः,
तत्र महापद्मकुमारसेवां करोति । अन्यदा महापमकुमारग्रामान भजन सिंहबलनृपो नमुचिना प्रपञ्चेन बद्ध्वाऽऽनीतस्तुष्टेन कुमारेण |
वरो दत्तः, तेनोक्त-समये गृहीष्ये वरं। अन्यदा ज्वालादेवी श्रीजिनप्रासादं कारयित्वा रथयात्रोपक्रममकरोत् । अपरा सपत्नी लक्ष्मीः, | सासा स्पर्द्धया ब्रह्मायतनं कारयित्वा रथयात्रामारेमे । तयोः प्रथमस्थनिम्मरणे स्पर्धा ज्ञात्वा द्वावपि स्थौ राज्ञा स्थापितौ । ततः स्वमातुः | 6] पराभव ज्ञात्वा महापो देशान्तरेषु भ्रमन्ननेके विद्याधरनृपामात्यपुत्रिकाः परिणीय महाविभूत्या चम्पापुरीप्रभोजन्मेजयस्य पुत्री मद
नावली स्त्रीरत्नं परिणीय चक्रवर्तिऋद्धिसमृद्धः स्वपुरमगात् , पित्रा राज्याभिषेकः कृतः, स्वयं सुव्रताचार्यपावे दीक्षा प्रपेदे । विष्णुकु- | मारोऽपि पित्रा समं प्रव्रजितः । महापद्मः क्रमात् साधितषट्खण्डभृमण्डलो नवमश्चक्री सञ्जातः । तदा जननीकारितं जिनरथं महावि| भूत्या भ्रमयित्या मातुमनोरथः पूरितः। भरतक्षेत्रे जिनभवनकोट्यः कारिताः, द्वात्रिंशत्सहस्रा राजानो धर्म स्थापिताः, अनेकधा शास
| नोन्नतिः कृता, पश्नोत्तरराजपिस्तु विगतकर्मा मोक्षमगात् । विष्णुकुमार। पुनस्तपःप्रभावान्नभोगमनक्रियलब्ध्यादिलन्धिसमद्धो मेरु मालिकास्थस्तपः करोति । इतच ते सुत्रताचार्या हस्तिनागपुरे वर्षारानं स्थिताः कनिममुचिना हाः । ततः पूर्व नरं स्मृत्वा पूर्वप्रतिपणे लावरमयाचत राजानं नमुचिः। ततो राजा तद्याचितं कतिचिदिनानि राज्यमदात् । स्वयमन्तःपुरे स्थितः । नमचिरपि कपटेन बहिय
ज्ञपाठके दीक्षितो जाता, प्रारब्धं यज्ञकर्म, तत्र लोकाः पाखण्डिभिः सह सर्वे वर्धापनके समायाताः, न पुनः श्वेतभिक्षवः । ततोन
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुचिः सुव्रताचार्यानाकार्य तमेव दोषमुद्भाव्य भगति क्षुद्र:- पूर्व लोकव्यवहारवाद्याः, अतो मुञ्चत मम राज्यं, अन्यथा मारयिष्यामि । ततः सूरिभिर्बहुधा प्रज्ञापितोऽपि न मन्यते । तत उद्याने गत्वाऽऽचार्यैः साधवः पृष्टाः किं कर्त्तव्यं ?, तत एकेन साधुनोक्तम्-भगवन् ! मेरुशिरस्थो विष्णुकुमार क्रिश्राता यद्यायाति तदा तद्वचनेन नमुचिर्मुञ्चति कदाग्रह, नान्यथा । गुरुराह - साधूक्तं, परं स कथमायाति । | एकेनोक्तं अहं तत्र गन्तुं शक्तो, न पुनः प्रत्यागन्तुं । गुरुराह - स एव भवन्तमानेष्यति । ततस्तेन मेरुचूलायां गत्वा सहकार्य निवेदितं विष्णुकुमारः । सोऽपि तं गृहीत्वा क्षगेन प्राप्तो गुर्वन्तिकं । ततः प्राप्तो नमुचिपा, धर्मापदेशात्क्रमत्रयभूदाने कुपितेन विष्णुना साधिकलक्षयोजन रूपकरणेन ग्रामाकरनगर गिरिभवनवनज्योतिष्कक्षोभं जनयता नमुचिः शिरसि पादं दत्वा रसातले क्षिप्तः । पूर्वोपरसाग| रपदस्थापने नक्षी शक्रप्रेषितसुराङ्गनाभिस्तत्कर्णाभ्यर्णमागत्य प्रशमप्रधान गानेन सङ्घवचनेन चक्रिणा च ससम्भ्रमेण सपरिजनेन क्षामितः कथमप्युपशान्तस्तत्प्रभृति त्रिविक्रम इति प्रसिद्धः, आलोचितप्रतिक्रान्तः शुद्धः, यदुक्तम्
64
" आयरिस गच्छमि य, कुलगणसंघे ग चेहधविणासे । आलोपडित सुद्धो जं निखरा बिडला ॥ १ ॥" विवाणो, विष्कुमारो कमेण तो सिद्धो । चक्की वि महामो, गहिऊण वर्ष गओ सिद्धिं ॥ २ ॥” इति विष्णुकुमारचरितं ममाप्तम् ।
पुनस्तपोमाहात्म्यं ख्यापयन् दृष्टान्तमाह
होंति महाकल्पसुरा, बोहिं लहिउं तवेण वियरया । जह खंदओ महत्पा, सीसो सिरिवीरनाहस्स ॥८४॥
******
وا
Ma
****, pomocnene
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - यद्यपि तेनैव भवेन केचिन सिद्ध्यन्ति तथापि तपसा विधूतरजसोऽत्यल्पकर्माणस्सन्तो महाकल्पेषु-महर्द्धिदेवलोकेषु सुरा भवन्ति । ततोऽपि च्युत्वा महाविदेहेषु बोधि च्या 'am विधूतरजस' इत्यावृच्या अत्रापि योज्यते तपसा क्षक्तिकर्माणः, सिद्धन्तीति शेषः । क इव ?, यथा स्कन्दको महात्मा - शिष्यः श्रीवीरखामिनः, तत्कथा चेयम्
कङ्गलापुर्यां श्रीवीरः समवसृतः प्रत्यासन्नश्रावस्तीपुर्यां गर्दभालिपरिब्राजकशिष्यः स्कन्दकञ्चतुर्वेदस्मृतिपुराणादिग्रन्थनिपुणः परिवसति । स श्रीवीरशिष्येण पिङ्गलेन पृष्टः- भो स्कन्दक ! 'किं सअंते लोए अणते लोए ?, एवं जीवे सिद्धी सिद्धे वि पुच्छियचे, क्रेण वा मरणेण जीवे संसारमणुपरियगुड़ १, केण वा तं वीवय १, तए गं से खंदर परिव्वायए एयमहं अयाणमाणे तुमिणीए चिट्ठछ । एवं दोपि पि पुच्छिए तुसिणीए चिदुइ' । ततः श्रावस्त्या लोकं श्रीवीरवन्दनार्थ यान्तं दृष्ट्वा सोऽपि स्वसन्देहपृच्छाथै चचाल । rataar श्रीवीरेण गौतमस्य पिङ्गलप्रस्कन्दकानवगमखरूपमुक्तम् । ततः समागते स्कन्दके श्रीगौतमः सम्मुखं गतः, स्वागतमपृच्छत् पिङ्गलस्वरूपं च । तत् श्रुत्वा विस्मितः स्कन्दकः प्राह- कथं जानासि ?, श्रीगौतमेनोक्तं मम धर्माचार्यणोक्तमिति । ततः प्रमुदितः सर्वज्ञत्ययस्थादवन्दत श्रीवीरं । भगवता च तत्सन्देहाः कथिताः, यथा - 'खंदया ! दव्वओ णं लोए एमदम्बे, अओ सते, खिचओ वि सासु दिसासु असंखिजे जो अणकोडाकोडिप्पमाणे, अओ सते । कालओ सया वि चिट्ठइति अनंते, भावओ (वि) अणतपजायसओ अनंते, एवं जीवे सिद्धि (सिद्धे) वि भाणियच्चे । नवरं खित्तओ अध्यऽप्पणी पमाणं भाणियन्वं । मरणे वि खंदया ! दुविहे पन्नचे, तं ना बालमरणे य पंडियमरणे य । तत्थ णं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अध्याणं अगतेहिं नेरहयतिरियम शुदेव भवरहमेहिं संजोएड | संसारमणुपरियडू | पंडियमरणेण मरमाणे जीवे संसारं वीक्य' इति श्रुत्वा स्कन्दको बुद्धः । श्रीवीरोपदेशं श्रुत्वा प्राह-आलिये
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
4RLS
भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलित भंते ! लोए जगए मरणेण य । यथा कश्चिद्गृहे प्रदीप्ते सारं भाण्ड निष्कासयति, म तथाऽहमपि सारमात्माने निष्कासयिष्यामि इति प्रबजितः । स्वामिना शिक्षित:-'एवं खछु देवाणुपिया! गंतव्यं । एवं चिडियब्ध
एवं निसीयव्यं) एवं तुयष्टियन, एवं सुंजियचं, एवं भासियब्ध, एवं संजमेण संजमिपव्य, अस्सि च अढ नो पमाएयव्यं । तओ से | सामण्णरए आगाए पडिबद्ध अणगारे जाए, इकारस अगाई अहिमित्या, पारस वि मिशानुपडिमाओ, तओ गुणरयणसंवच्छरं तवो| कम्मं सम्मं आराहेत्ता पुणो वि भगवो अगुष्माए बहुहि चमत्थहमदममवालसेहिं मासद्धमासखमहिं विचित्तेहि तवोकम्मे हिं | अपार्ण भावेमाणे सुक्के लुक्खे निम्मंसे किसे धमणिसंतए जाए। कालेगं सनेगं गच्छइ, सतेगं चिट्ठइ, भासपि भासिउं कामं गिलायइ । | तओ केवलनाणेग तस्स अज्झवसियं जागेत्ता सयमेव भगवया महावीरेणं अभशुम्यार हट्ट तुडे खंदर अगगारे विहिगा पाओम अ| गसणं करेइ । एवं से खंदप दुवालसवासाई सामणगपरियायम गुपालेत्ता मासं पाओगमे कालं अणखमाणे समाहियते कालं किच्चा
अच्चुए कप्पे देवत्ताए उबवणे । तओहितो चहत्ता महाविदेहे वासे सिन्ज्ञिही सादुक्खामामंत काहि त्ति स्कन्दकचरितं समाप्तम् ॥ । तपोगुणानामनन्तत्वेन न्यक्षेण भणनाशक्यत्वात् संक्षिपनाह----
केत्तियमित्तं भणिमो?, तबस्स सुहभावणाए चिपणस्त । भुषणतए वि न जमओ, अनं तस्सऽस्थि गुरुपय॥८५॥ ___व्याख्या-शुभभावनया चीर्णस्य तपसः कियन्मात्रं भणामः ?, यतो भुवनत्रयेऽपि तस्मात्तरसोऽन्यद्गुरुकतरं नास्त्येवेत्यनेन तपोऽप्याशंसायक्षितमेव फलबदिति वक्ष्यमाण च भावनाद्वारमिति सूचितमिति गाथार्थः ॥
*
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
" इति गदितमनन्तज्ञानिभिः कर्मकाष्ठ-प्रचयदहनवहिर्यत्तपोऽनुष्ठितं च । तदिह भजत भत्र्याः! भावनातः प्रभू, श्रपति च खलु युष्मान् येन सन्मोनलक्ष्मीः ॥१॥"
इति पुष्पमालाविवरणे [कृतीयः] तपोधर्मः समर्थित इति ॥ ५ ॥ इदानीं भावनाधर्म विमणिषुः पूर्वेण (मह) सम्बन्धगी गाथामाह---- दाणं सोलं च तवो, उच्छ पुष्पं व निष्फलं होजा । जइ न हियम्मि भावो, होइ सुहो तस्सिमे हेऊ ॥८६॥ | व्याख्या-दानं शीलं तपश्चेति पूर्वोक्तं सर्वमपि इक्षुपुष्यमित्र निकलं भवेत् , यदि हृदये भपनिदमोक्षामागमः शुभो भावो | न भवेत् , अतो दानादीनभिधाय भावनाधर्मोऽभिधीयते, तस्य च शुभमावस्येते वक्ष्यमाणा हेतब इति गाथार्थः ॥ ८६ ॥ तानेबाहसम्मत्तचरणसुद्धी, करणजओ निग्गहो कसायाणं । गुरुकुलवालो दासाग, वियाडगी भवविरोंगो य ॥८॥ विणंओ वेयावच्चं, सज्झायरई अगाययणचाओ। परपरिवायनिवित्ती, थिरया धम्मे परित्रा य ॥ ८८ ॥ ___ व्याख्या-सम्यक्त्वशुद्धिश्चरणशुद्धिरिन्द्रियजयः, कषायाणां निग्रहः, नित्यं गुरुकुलबासः, दोषाणां प्रमादायाची गानां विकटनाआलोचना, भयविरगश्च । तथा विनयः, वैयावृत्त्यं, स्वाध्याये रतिः, अनायतनस्य-ज्ञानादिदूतकास्तुनरत्यागः, परपरिवानिवृत्तिः, [ स्थिता में, परिज्ञा च-प्रान्तेऽनशनरूपा, इत्येते चतुर्दश [१४] शुभभावस्य हेतवः, हेत्वन्तराणां सम्भोऽप्यत्रैवान्तावादिति द्वारगाथाद्वयार्थः, विस्तरार्थं तु सूत्रकारः प्रतिद्वारं वक्ष्यतीति ।। ८७-८८ ॥
काका
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
aritra agrन् सम्यक्त्वमेव तावद किस्वरूपमित्यादिद्वारगाथा माह-----
किं सम्मतं ? ते होज, किहं ? णु करूं ? व गुणां य के ? तस्स । कईभेयं ? अइयारा, लिंग वा किं भने ? तस्स ॥ ८९ ॥ व्याख्या- किंखरूपं तावत्सम्यक्त्वं १, कथं केन प्रकारेण वा सजीवानां भवेत् 2, कस्य वा तद्भवेत् 2, गुणाश्च के ? तस्य सम्यक्त्वस्य, कति भेदं तद्भवेत् ?, अतिचाराः लिङ्गं वा किं भवेत् । तस्य सम्यक्त्वस्येति द्वारगाथासङ्क्षेपार्थः । अत्राद्यद्वारनिर्णयार्थमाहअरिहं देवो गुरुणो, सुसाहुणो जिणमयं मह पमाणं । इवाइ सुहो भावो, सम्मत्तं बिंति जगगुरुणो ॥ ९९ ॥
4. व्याख्या अत्रेव मम देवो, खादयः, साधक को परिवाजकादयः, जिनमतमेत्र प्रमार्ग, न कुतीर्थिकाभिमतमित्यादिको य आत्मनः शुभः परिणामः स सम्यक्त्वमिति जगद्गुरवस्तीर्थङ्करगणधरा ब्रुवते । उक्तं च तै:-"से य सम्म पसत्यसम्मत्त मोहणिजकम्मांणुवेयणो समयसमुत्थे जबसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते "त्ति गाथार्थः ।। ९० ।।
तं किं सम्यक्त्वमिति द्वारम् अथ तत्कथं भवेदिति द्वितीय द्वारमाह
भमिऊण अनंताई, पोग्गल परियइसय सहस्साई | मिच्छतमोहियमई, जीवा संसारकंतारे ॥ ९१ ॥ पार्वति खवेऊणं, कम्माई अहापवत्तिकरणेणं । उबलनाएण कहमवि, अभिन्न पुत्रि तओ गंठि ॥९२॥ युग्मम् )
व्याख्या -- प्रथमं तावत् मिध्यात्वमोहितमतयः सर्वे जीवाः संसारकान्तारे अनन्तानि पुद्गलपरावर्त्तलक्षाणि श्रान्त्वा कथश्चिदुपलज्ञातेन यथाप्रवृचिकरणेन ग्रन्थिप्रदेशागमन प्रतिबन्धीनि कर्माणि क्षयित्वा निपूर्वी ग्रन्थिकेचित्प्राप्नुवन्ति । तत्रानन्तीत्सर्पि
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-2012-10-2022015-Manipiranti.s1:00Siddikaliomsitamminats atabeadianpocente- wwwsksiviskedevanagawadekadaNMADHA
NNondridrawhnamasiestnuteadiosienanesapMROPAN
ण्यवसर्पिण्यः पुद्गलपरावतः, तदुक्तम्-"उस्सप्पिणी अर्णता, पुग्गलपरियङ्को मुणेयरवो" इति । करणं-अध्यवसायविशेषः, विशिज्ञानादिगुणमन्तरेण कथमपि स्वयगेट प्रवृत्तं यशायानुन, तय समय कह पातुनकरणं, यथा गिरिनया उपलो पश्चनाघोलनावनतः खपमेव वृतादिभावमापयते, एवं जन्तवोऽपि यथाप्रबृत्तकरणेन स्वयमेव कर्म क्षपयन्तीति भावः । इति गाथाद्वयार्थः ॥ ९२ ॥
ननु अन्धिरिति कः पदार्थः ? इत्याह ---- गठिं भणंति मुणिणो, घणरागदोसपरिणइसरुवं । जम्मि अभिपणे जीवा, न लहंति कयाइ सम्मत्तं ॥९३॥ 1 व्याख्या-घना-निविडा या रागद्वेषपरिणतिः. तत्स्वरूपं प्रन्थि मुनयः प्रतिपादयन्ति, यथा वल्कादिनिष्पन्नः कश्चिभिविडग्रथिर्भेदो भवत्येवं रागद्वेषपरिणामोऽपि यः सम्यक्त्वप्राप्तिप्रतिबन्धकोऽनन्तकालेनापि जीने मिन्ना, स ग्रन्थिरिति भावः। सम्यक्त्व
प्रामिप्रतिबन्धकत्वमेव तस्याह-~-यस्मिन्नभिन्न जीवा न कदाचिल्लभन्ते सम्यक्त्वमिति गाथार्थः ॥ २३ ॥ । ननु ये केचन जीवा ग्रन्थि यावदागच्छन्ति ते सर्वेऽपि तं भिन्दन्ति ?, नेत्याह
उलसियगरुयविरिया, धन्ना लहुकम्मुणो महऽप्पाणो। आसपणकालभवसि-द्धिया यतं केइ भिंदति ॥९॥ RA च्याख्या-उल्लसितगुरुवीर्या धन्या लघुकाणो महात्मान आसनकाले भवा-भाविनी सिद्धियेषां ते आसमकालभवसिद्धिकाश्च
तं अन्धि केचिदेव प्राणिनो भिन्दन्ति, न सवें, इति गाथार्थः ॥ ९४ ॥ व्यतिरेकमाह--- जे उण अभदवजीवा, अणंतसो गंठिदेसपत्ता वि । ते अकयगंठिभेया, पुणोवि वड्दति कम्माई ॥ ९५ ॥
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-ये पुनस्सर्वथैव अभाविनी सिद्धियेषां ते अभव्याः, ते च ते जीवाश्च अभव्यजीवा:, उपलक्षणत्वाव्याश्च, तेऽन5न्तशो-ऽनन्तवारं ग्रन्थिदेश प्राप्ता अपि अकृतग्रन्धिभेदा एव स्युः। ततः पुनरपि वर्द्धयन्ति कर्माणि, स्थितिरसादिभिर्गुरूणि कुर्वन्तीति
गाथार्थः ।। ९५ ।। अथ ये ग्रन्थि भिन्दति तेषां सम्यक्त्वलामक्रममाह| तं गिरिवरं व भेत्तुं, अपुत्रकरणोग्गवजधाराए । अंतोमुहत्तकालं, गंतुं अनियट्टिकरणम्मि ॥ ९६ ॥ हैं। पइसमयं सुज्झंतो, खविउं कम्माई तत्थ बहुयाई। मिच्छत्तम्मि उइण्णे, खीणे अणुइयम्मि उवसंते ॥९७॥ |
संसारगिम्हतविओ, तत्तो गोसीसचंदणरस व । अइपरमनिव्वुइकर, तस्संऽते लहइ सम्मत्तं ॥९८॥ [विशेषकम्] ___ व्याख्या-करण-विशिष्टाध्यक्सायविशेष एव अपूर्व-अननुभूतपूर्व करणमपूर्वकरणं, अत्र हि बसेमानो जीवस्तादृशान् स्थितिर| सघातादीन क्रियाविशेषान् करोति, यादृशः संसारे न कदाचित् पूर्व कृता, इति कृत्वा वज्रधारेत्र वनधारा, अपूर्वकरणमेवोग्रवज्रधारा | अपूर्वकरणोग्रवज्रधारा, तया गिरिवरमिव तं ग्रन्थि भिवा-तथाविधं रागद्वेषपरिणामं किञ्चिदपनीय ततोऽन्तर्मुहत्तै कालं अनिवृत्ति
करणं गत्वा । अत्रापि करणं-विशिष्टतमोऽध्यवसायविशेष एव । न विद्यते प्रथमाद्यसङ्ग्ल्येयतमावसानसमानसमयवर्तिनां प्राणिनां &ा खभावादेव परस्परमध्यवसायस्थ निवृचि-लक्षण्यं यत्र तदनिवृत्तिः, तच तत्करणं चानिवृत्तिकरणम् । ततोऽत्रान्तमुहर्स यावत्प्रतिस- | VIमयमनन्तगुणविशुद्धया विशुद्धयमान आयुवर्जानि शेपसप्तकम्मर्माणि बहनि क्षपयित्वा प्रत्येक पल्योपमासहख्ययभागन्यनैकसागरोपम| कोटाकोटिमात्राणि विकृत्य, शेषाणि क्षपयित्वेत्यर्थः, सतश्च मिथ्यात्वं यदीर्ण तस्मिन् क्षीणेऽनुदीणे तु सत्तामात्रवर्त्तिन्युपशान्ते सति
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
संसार एव ग्रीष्मस्तेन तप्तो गोशीर्षचन्दनरसमिवातिपरमनिवृत्तिकरं - मुक्तिशर्मविधायक, तस्य अनिवृत्तिकरणस्य अन्ते सम्क्लं लभते । यथा ग्रीष्मतप्तः कश्चित्पुण्यवशादतिपरमनिवृत्तिकरं गोशीर्षचन्दनद्रवं लभते एवं जीवोऽपि संसारदुःखोपतप्तः सम्यक्त्वमिति । अय*भावः - अपूर्व करणेन ग्रन्थिभेदं विधाय मिध्यात्वमोहनीय कर्म्मस्थितेरन्तर्मुहूर्त्त मुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्यानिवृत्तिकरणरूपेण शुद्धिविशेषेणातत्कालप्रमाणं वैद्य दलिकाभावरूपमन्तरकरणं करोति, स्थापना । अत्र च मिध्यात्वदलिक वेदनाभावादपशमिकसम्यक्त्वं जीवो लभते इति गाथात्रयार्थः ।। ९६-९७-९८ ।। इदानीं 'कस्य तद्भवेदिति तृतीयं स्वामित्वद्वारमाह
पुण्वपडिवन्न पडिवज - माणया निरयमनुवदेव च । तिरिए तु पदस्ता, बेईदियमाइणो होजा ॥ ९९ ॥
व्याख्या - नारकमनुष्यदेवाः पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाश्च भवन्ति, तथाहि मनुष्या देवाश्च धर्म्मश्रवणादिभ्यः, नारकाश्च वेदनादेः कर्म्म निर्जरयन्तस्तथाभव्यत्वपरिपाकतः कुतश्चिन्निसर्गादित एवं केचित्सम्यक्त्वं प्रतिपद्यमाना आद्यसमये प्रतिपद्यमानाः द्वितीयादिसमयेषु तु ते पूर्वप्रतिपन्ना एवोच्यन्ते इति । तिर्यक्षु पुनः “पवन्न" ति प्रतिपन्ना द्वीन्द्रियादयो भवेयुः तत्र द्वीन्द्रियत्रीन्द्रि यचतुरिन्द्रियेषु तावद्यः सास्वादनसम्यग्दृष्टिः, स न मृत्वा एतेषूत्पद्यते, सोऽपर्याप्तावस्थायां कियतीमपि वेलां यावत्तद्भावेनावतिष्ठते, ततः परं नियमेन मिध्यात्वं गच्छत्येवासी, ततोऽमुमेवाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्ना एषु मन्तव्याः, नान्यथा । पञ्चेन्द्रियेषु तु सामान्यमपि सम्यक्त्वमाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्नाः प्राप्यन्त इति गाथार्थः ॥ ९९ ।।
ननु उक्का द्वीन्द्रियादिषु पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकास्तेषु भवन्ति न वा ? इत्याहपविजमाणया fव हु, विगलिंदिया अमणवजिया हाँति । उभयाभावो एगिं-दिएसु सम्मत्तलडीए ॥१००॥
50.
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - विकलानि - असम्पूर्णानीन्द्रियाणि येषां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां ते तथा अमलस्का:- सम्मूर्छाः पञ्चेन्द्रियाः, एतेषु तथाविधाव्यवसाय शुद्ध्यभावान सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसम्भवः, अतस्तिर्यक्षु एतान् वर्जयित्वा शेषा गर्भजपञ्चेन्द्रियाः प्रतिपद्यमानका अपि भवन्ति । उभयस्यापि पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकलक्षणस्यै केन्द्रियेषु सम्यक्त्वलब्धेरभावः । यतोऽत्र तथाविधाध्यवसायशुद्धयभावात् सम्यक्त्वस्य प्रतिपद्यमानको न कथञ्चिद्भवति । पूर्वप्रतिपन्नं तु कार्मग्रन्थिका द्वीन्द्रियादिवत्पृथिव्यादिषु साखादनसम्यग्दष्टयुत्पत्तेर्मन्यन्त एव, सैद्धान्तिकास्तु तस्य तत्रानुत्पत्तेः स्वल्पत्वेनाविवक्षणादेर्वा कुतश्चित्कारणात्पूर्वप्रतिपन्नस्थात्राभावं मन्यन्त इत्यत्र मतद्वयं तत्त्वं |तु सर्वविदो विदन्तीति गाथार्थः || १०० || अथ 'गुणाश्व के तस्येति चतुर्थद्वारभिधित्सुः सम्यक्त्वस्य सर्वगुणाधारत्वलक्षणं गुणमाहजह धन्नाणं पुहई, आहारो नहयलं व ताराणं । तह नोसेसगुणाणं, आहारो होइ सम्मतं ॥ १०१ ॥
व्याख्या -- उत्पत्तिवृद्धिस्थित्यपेक्षया यथा सर्वधान्यानां पृथिवी आधारः नभस्तले वा ताराणां आधारः, तथा निःशेषगुणानां शमसंवेगनिर्वेदादीनां आधारः सम्यक्त्वं भवतीति गाथार्थः ॥ १०१ ॥ अथ तस्यैव सुगतिगमनहेतुत्वमाह - सम्मदिट्टी जीवो, गच्छइ नियमा विमाणवासीसु । जइ न विगयसम्मत्तो, अहव न बद्धाउओ पुवि ॥१०२॥
व्याख्या—-इह सम्यग्दृष्टिरुत्कृष्टतस्तेनैव भवेन सिद्धयति, योऽपि सम्पूर्णकालादिसामध्यभावान्न निर्वाणं गच्छति, सोऽपि जन्तुनरकतिर्यज्यनुजभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कगती निरुध्य नियमाद्विमानवासिष्वेव सौधर्मादिदेवेषु गच्छति, यदि मरणसमये सर्वथा विगतसम्यक्त्योऽतिचारम लिन सम्यक्त्वो वा, अथवा सम्यक्त्वलाभकालात् पूर्व बद्धायुश्च न भवति, अस्य हि चतसृष्वपि गतियुत्पत्तेः ।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ
देवनारकाच सम्यग्दृष्टयोऽपि मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते, तेषां देवगतिनिषेधादिति मन्तव्यमिति माथार्थः ।। १०२॥
दृष्टान्ताभिधानद्वारेण तस्यैव गुणान्तरमाहBअचलियसम्मत्ताणं, सुगामि आण शुगंलि भालीए : हरदत्तमज्जा-ए अहव निविकमाईणं ॥१०॥
व्याख्या--दृढसम्यक्त्वानां सुरा अपि भक्त्या आतां कुर्वन्ति, यथा अमरदत्तभार्यायाः, अथवा नृपविक्रमराजादीनामित्यक्षरार्थः, भावार्थकथनार्थ स्वमरदत्तभार्याकथानकं तावदुच्यते___ सुराष्ट्रादेशे कनकरत्नपूर्णायां द्वारिकापुर्या पद्मश्रेष्टिपुत्रोऽमरदत्तो रूपसौभाग्यसम्पन्नः कुशद्वीपे सुवर्णपुरे वाणिज्यार्थ जलाध्वना बहुविभवो गतः । तत्र विशङ्कष्ठिपुत्री श्रीजिनधर्मपरां रूपादिभिरनुत्तरां विमलयशानाम्नीं दृष्ट्वा ययाचे । पित्रोक्तं-ददामि, परं 'यः कोऽपि मां धर्मवादे जयति, स एव मम वर' इति कृतप्रतिज्ञा साऽस्ति । ततो जाते वादे स मिश्यामतिस्तस्याः स्याद्वादवादिन्या
उत्तरं दातुमक्षमश्चिन्तयति-अहो ! सुनिपुणेयं जिनधर्मे गृहस्थ्यपि, ततोऽहमप्येनमेव शिक्षयित्वैनां निरुत्तर करोमीति कपटश्रावको 18 भूत्वा जिनधर्ममभ्यस्यन् ज्ञाततत्यः सद्भावेन श्रारकोऽभूत् । ततः समन्तभद्रसूरिपाचे गृहीतधर्म तं दृष्ट्वा विमलयशया हृष्टया प्रोक्तं| भो ! तवैव धर्मविचारेऽद्याप्यस्तीच्छा ?, अत्रान्तरे श्रेष्ठयपि तत्रैवागतः, ततोऽमरदत्तेनोक्तं-'भद्रे ! शुद्धाकरप्रभवे वजे या पुनर्विचारणा अभिनिविष्टयुद्धिभिः क्रियते, सा तेषां जडत्वमेव साधयति, पूर्वापराविरुद्ध प्रमाणसिद्धे जगत्प्रसिद्ध सर्वत्रभाषिते धर्म विप्रतिपमा ये विचारणां कुर्वन्ति, तेपामसमञ्जसभाषिणां सा दुगतिमेव फलं साधयत्ती ति श्रुत्वा विमलयशया चिन्तित-परिणतधाज्यं शुद्धवचनेलक्ष्यते, अन्यच्च मय्यपि स्तोकानुरागः सम्पन्नोस्त्यसौ, तयदि मामिच्छति, मत्पिताऽपि यदि कथमपि प्रतिपद्यते, तदैतेन परिणीता एनं
ॐॐॐॐ
the
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
मSUHASKSX
धम्में स्थिरं करोमि। पित्राऽपि च तस्या दृष्टथैव भावं विवाय चिन्तितं-युक्तमिदम् । ततः क्षणं धर्म श्रुत्वा स आदरेण स्वगृहमानीतः, सम्मान्य श्रेष्ठी पुत्रीमदात् । ततः स तां परिणीय स्वगृहे गतः। तां च जिनधर्मपरां दृष्ट्वा पितरौ मिथ्याशौ द्वेपमुद्वहन्तौ तस्याः पाश्व सङ्केतेन पुरुषमेकं प्रेष्य पूत्कृत्य कलङ्कमदातां । अमरदत्तो विस्मितमनाः सविषादं चिन्तयति-नूनं प्रियायाः कल्पान्तेऽपि शीलं न लु*प्यते, तत्किमप्यत्र कस्यापि दुविलसितमित्यादि । तावन्मातापितृभ्यां प्रोक्तम्-'रे मृढ ! यस्याः शीलेन गर्व वहसि, तस्याश्चेष्टितमेतत् ।
अस्या एप धमः, एषः साधुसाध्वीनामुपदेशः, एतादृश्यः श्राविका जिनधर्म । त्वं चेदद्यापिन मन्यसे, तदा न स्वया नानयाऽस्माकं | | कार्यम् । इत्यादि गाढस्वर कलहं कुर्वन्या लोकप्रसिद्ध कलः सा जिनधर्ममालिन्यभीता दृढसम्यक्त्वा सकलजनसमक्ष पुराहिःप्रदेशस्थे देवताधिष्ठिते महापद्महदे निजपतिव्रताव्रतजिनधर्मैकचित्तताश्रावणं कृत्वा झम्पामदाद । ततः सन्निहितदेवैस्तत्सत्वरजित रत्नमयद्रोण्यां रत्नमयसिंहासने स्थापिता सा सर्वजनदृष्टा, तीरे उत्तारिता, पुष्पवृष्टिश्चक्रे जयघोषणा च, श्वशुरवर्गस्य दुर्विलसितं नृपप्रमुग्नुस्योक्त्वा | विमलयशा स्तुता, एवं शासनप्रभावना कृता । ततः संसारं विरसपरिणाम विभाव्य गृहवासे क्षणमपि रति अलभमाना नृपामरदचप्र| मुखैार्यमाणाऽपि तदाहोपशमनाय प्राप्ता केवल्याचार्यसमीपे धम्मै श्रुन्या 'कुतो मेऽसद्भुतः कलङ्कः?" इति प्रश्ने कृते पूर्व भरे सपत्नी
कलकदानं पुनस्तां चिरसं रसन्ती श्रुत्वा पश्चात्तापः कलङ्कोत्तारणं च कृतमतस्तवाप्येवं जातमिति श्रुत्वा सञ्जातवैराग्या दीक्षां गृहीत्वा | सुन्दरायाः प्रवर्तिन्याः याच एकादशाङ्गान्यधीत्य उग्रं तपः कृत्वा मोक्षमगात् । तेनैव निदेन राजासामन्ताया अमरदत्तोऽपि च प्रव. Mज्य पञ्चमे कल्पे महर्द्धिका देवाः सञ्जाताः । अमरक्सभार्यावृत्त समाप्तम् ॥
अथ नृपविक्रमाख्यानकमुच्यते-[इव] भरते कुसुमपुरे हरितिलकनृशे, गौरी प्रिया, तयोः पुत्री विक्रमः द्वासप्ततिकलाकुशलः ||
.
inniuiremedieadoskvakistansaAAMAAAAAE.
mammiaasiiscalincatumbinireviofestandanileonymsalimavsamparkNomes
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राप्तयौवनः स्वयंवरायातद्वात्रिंशत्कन्याः परिणीय तद्योग्यान् द्वात्रिंशत्प्रासादान् मनोहरान् मध्ये स्त्रोतुङ्गभवनकलितान् कारयित्वा तामिः समं यावद्भोगान् मुङ्क्ते, तावत् तद्देहे कुष्ठादयो महारोगा अभूवन् । अनेकवैद्यौषधमन्त्रतन्त्रादिभिर्गुणाभावे कुमारेण वेदनासन पुरानहिःस्वसप्रभाव धनञ्जययक्षस्य महिषशतं मानितं । अथ तस्मिन्नेव दिने तत्र विमलकीर्त्तिः केवली समागात् कुमारोऽपि पित्रा सह वन्दनार्थं गतः, केवलप्रभावादुपशान्त व्यथोऽभूत। राजा पुत्रस्य रोगकारणं पृष्टः श्रीकेवली ग्राह-पूर्व (अपर) विदेहे रत्नस्थलपुरे पद्ममुखी नृपो नास्तिकः, अन्यदा मृगयां गतः कायोत्सर्गस्थ मुनिमेकमालोक्य पापात्मा बाणैर्जवान । शुभध्यानेन मुनिः सर्वार्थसिद्धिविमानेऽगात् । राजा लोकधिकारितो लोकान्मारयन्मन्त्रिसामन्तः काष्ठपञ्जरे प्रक्षिप्य निष्कासितः, तत्पुत्रः पुण्डरीको राज्ये स्थापितः । ततः स नृपसर्वत्र धिकारितः केनापि तापसेनावज्ञां कुर्वन् तेजोलेश्यया दग्धः सप्तमं नरकं गतः । ततः स्वयम्भूरमणमत्स्यो भूत्वा सप्तमनरके गतः, ततो मत्स्यः, ततः षष्ठनरके, ततश्चाण्डालखी, ततः प्रष्ठनरके, तत उरगो भूत्वा पञ्चमनरके, ततो मत्स्यः, पञ्चमनरके, ततः सिंहः, चतुर्थनरके, ततो व्याघ्रचतुर्थनरके, ततः श्येनस्तृतीयनरके, पक्षी, तृतीय नरके, सरीसृयो, द्वितीयनरके, पुनः सरीसृपो, द्वितीयनरके, ततो मत्स्यः, प्रथमनरके, पुनर्मत्स्यः, प्रथमनरके, ततः पृथिव्यादिष्वनन्तोत्सर्पिणीकालो गतः । ततो वसन्तपुरे सिन्धुदत्तवणिक्पुत्रो, बालतपः कृत्वा तव पुत्रोऽभूद्, इति श्रुत्वा कुमारस्सञ्जातजातिस्मरणस्संविप्रः प्रतिपभसम्यक्त्व मूलद्वादशवतो विगतवेदनो स्वगृहेऽगात् । क्रमेण राजाऽभूत् । धनञ्जययक्ष्याचितान्महिषान्न दस । ततस्तेनानेकधोपसर्गितोऽपि दयापरो यावन दते, तावत्सेनैव यक्षेण तद्गुणहृष्टेन कृता पुष्पवृष्टिः, प्रशंसितः कुमारस्य दयापरो धर्मः सम्यक्त्वनिश्चयश्च । ततो यक्षेण कृतसान्निध्यः साधितसकलभूवलयः 'कदाचित्पुराहि कायोत्सर्गस्थ सोमारूपं मुनिं दवा साकोपो महिभिः पुनः २ महत्वधिमा ज्ञातमवचनद्वित्वेन तेन मुनिना सती ।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभावितजिनशासनः कृत सर्वाङ्गीणपुण्य कृत्यः प्रान्ते श्री केवलिपावें दीक्षां गृहीत्वा कृतकर्मक्षयो मोक्षमगात् ।। ॥ इति श्रीविक्रमराजाऽख्यानकं समाप्तम् ॥
"#
आदिशब्दादन्ये सुरसम्पादिताज्ञाः सुलताद्या द्रष्टव्या इति गाथार्थः ॥ २०३ ॥ अथ सम्यक्त्वस्यैव गुणोत्कर्षमाह - अंतोमुहुत्तमित्तं पि, फासियं जेहिं हुन सम्मतं । सेसिं अवड्ढपोग्गल परियहो चैत्र संसारो ॥ १०४ ॥
व्याख्या- -अन्तर्मुहूर्त मात्रमपि स्पृष्टं- आसादितं यैः सम्यक्त्वं भवेत् तेषां पश्चात् कथमपि तीर्थकराशातनादिमहापातकिनां गोशाकादीनामप्युत्कष्टतः अपापुद्गलपरावर्तमात्र एवं संसारः । अपगतम यस्मादसाव पार्द्ध:, स चासौ पुद्गलपरावर्त्तचा पापुद्गलपरावर्त्तः, पुद्गलपरावर्त्तस्यार्द्धमित्यर्थः । तदप्युपलक्षणत्वादेशोनमिह ज्ञेयम् । पुद्गलपरावस्वरूपं चैत्रमष्टघाहु:"* खित्ते काले, भावे चउड दुह बायरो सुमो । होह अगंतुस्सप्पिणि- परिमाणो पुग्गल परि अहो ॥ १ ॥ उतणुमणत्रयपाण-तणेण परिणम मुअ सव्वाणु । एगजिओ भवभमिरो, जत्तियकाले मो धूलो ||२||"
-
* नासामेयोऽयं व्यपुङ्गपराः क्षेत्रद्गपरावर्त्तः कालपुद्गलपरावर्त्ता भावपुद्गपरावसेति चकारो भवति पुद्गलपशवः । पुनरप्येकेको द्विधाः सूक्ष्मश्चानन्तस्युपलक्षणादीका प्रमाणो भवति ॥ तत्र भवं भ्रमम्नेको जीवनुमोदारिकवैद्रियजल का मैणरूपशरीरचतुष्टयं तथा मनोवाक्षासा, इस्केवेन परिणमयसि मुखति यावता कालेन सर्वात् समग्ररुवर्तिनः सर्वान् पुद्गान् स - किमु भवति ? यावता कालेनैकेन जीवेन सर्वेऽपि जगद्वर्त्तिनः परमाणत्रो यथायोगमादारिकशरीरादिकरूपत्वेन परिभुज्य परिभुज्य परियकास्तावान् कालविदोषो बादरदयपुद्गपरावर्तः, आहारकशरीरं श्रोग्कृष्ठतोऽप्येकजीवस्य वाचतुष्टयमेव सम्भवति, ततस्तथ पुन
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
g
सत्तण्डनयरेण, इय फुसणे सुभदव्य परियो । अने चउतणुसु कर्मणमेणं तु विंति दुबिहं पि ॥ ३ ॥ " "लोग एसुस्सप्पिणि-समया अणुभागबंधठाणा य । पुट्ठा मरणेण जया, कमुक्कमा बायरत्ततया ॥ ४ ॥” "पुट्ठाणंतर मरण, पुणे जया ते तया भवे सुहुमो । पुग्गल परियो वित्त- कालभावेहिं इय नेओ ||१५||” इति । रूपरावर्ष प्रत्थमुपयोगाचं दारिका दिसतादम्यतरेणैकेन केनचिद्रूपत्वेन समलोकप्रर्तिमान परमान स्पर्शने सूक्ष्मद्रयगलपरावर्ती भवतीति शेषः । अन्ये पुनरीदारिकादिचसु तनुषु गधागोतमन्यतमेनैकेन वा क्रमेण विवक्षितंकवशरीरस्पृष्टरूपया परिपाच्या परिणमस्य त्यते इति एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एष द्विविधोऽपि द्रयपुद्गलपरावल मचतीति मुक्ते । किमुकं भवति ?, अन्येषामाचार्याणां मतेनीदारिकवै क्रियते जसकार्मणशरीरयष्टरूपतया निशेषग्यग्रहणे सर्वलोकपुद्गलानां परिभुग्द्ध परिभुज्य परियजनेऽयं बादशे द्रव्यपुद्गपरावर्ती भवति तथैव यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाकाशभाविनः परमाणव भौदारिकायन्यतमेक्रशरीररूपतथा अनुक्रमेम, अर्थाद्विवक्षितेकारीरूपतिरेकेणान्यशरीरतया के परिपरि परिवयम्ले ते स गण्यन्ते, किन्तु प्रभूतेऽपि काले गले के विवक्षितेकशरीररूपतया परिणम्यन्ते व एवं परमाणयो गण्यते इत्येतदवेणानुक्रमेण परिभुज्य परिभुज्य निर्धा नीयन्ते तावान् कालविशेषः सूक्ष्ममुद्गपरावर्त्तः । पुद्गलानां परमाणुनामीदारिकादिसहकरूपतया विवक्षितेका विरूपतया वा सामशयेन परावर्त्तः परिणमनं यावति काले भवति स तावान् काल: पुद्गपरावर्त्तः ॥३॥ लोकल चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य वे प्रदेशाः, उत्सर्पिण्या उपलक्षणादवसर्पिण्या ये समयास्तथा भयेको काकाप्राय देशप्रमाणान्यसये याम्यनुभागबन्धस्थानानि सर्वाण्यप्येकेन जीवेन पक्ष क्रमेणभानन्तर्येणोकमैण-परम्परवाच स्पृष्टानि भवन्ति तदर क्षेत्रकालभाचैर्बाद, यदा पुनस्त एव कोकप्रदेश उत्सर्पिण्यव सर्विभीसमास्थानुभावस्थानायनम्रमरपोन स्टानि भवेयुस्तदा तैरेव क्षेत्र का भावैः सूक्ष्मः पुापनावर्षो भवेदिति ज्ञेयः । इदमुकं भवति यादव कालेनैको जीवः क्रमेण या यत्र तत्र वा पाणस्वनिधि लोकाकाशप्रदेशाम्मरणेन स्टकति तावाश्कालविशेषो बादरः पावता च कालेनैकः कखिजीवोऽनन्तरानन्तरप्रदेश मरशामकेन क्रमेण सर्वेष्वपि लोकाकाशप्रदेशेषु मृतो भवति यात्रा काकविसेदः सूक्ष्मः क्षेत्रपुद्गपरावर्षो भवतीति शेषः । यावता कालेनेको जीवः
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
2. तथाऽपीह सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गलपरावनस्य देशोनमर्द्ध सम्भाव्यते, निश्चयं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति, व्यक्तनिर्णयस्यादर्शनात् । एतच देशोनं पुद्गलपरावाद्धमनन्तोत्सापिणीकालमान नेयं, तदन्तेऽवश्यं क्षपितका नितिमामोतीति भावः, इति गाथार्थः ।। . अथ अमरादिसम्पदादिभ्योऽपि सम्यक्त्वस्य दुर्लभत्वलक्षणं गुणमाहलब्भंति भानरमं या उसोचार कलियाओ।न य लब्भइ सम्मत्तं. तरंडयं भवसमुदस्स ॥१०५॥ - व्याख्या-लभ्यन्तेऽमरनरसम्पदास्तु सौभाग्यरूपकलिताः, न च लभ्यते सम्यक्त्वं भवसमुद्रस्य तरण्डक, उचारे इति शेषः । यथा चास्य दुर्लभत्वं तथा प्रागेवोक्तमिति ॥ १०५ ।। उक्तं गुणद्वारं, अथ कतिभेदं तद्भवतीति पञ्चमद्वारमाहसर्वाग्मप्युरमर्षिय वसर्पिणीसमयान क्रमेणोत्फमेया वा मरणेन ग्याप्नोति ताबाकामविशेषो बाद कालपुरगळपरावतः, यदा चैकः कधिजोधोऽवर्षिण्यापसमये मनः, पुनस्थ एव जीबोऽवसार्पण्याचसमग्रस्थानम्बर द्वितीये ममये नियसे, एवमनम्तरानन्तममयभाविमणः सर्वानप्युत्तापियवसर्पिणीसमयान् कमेव स्पृष्टान् करोति, सदा सूक्ष्मः काल पुद्गलपसयतों भवति । श्रावका कालेन अनुभागवनवा समायस्थानानि सर्वाण्यभ्य सङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाजानि यदै केन जीवेन म्रियमाणेन कमेणोरक्रमेण च स्पृष्टानि भवन्ति, नावाकालो गदरस्तता श्रावता कालेनकेन जन्तुना प्रधमद्वितीयकृतीवाचानुभागबशायनमायस्थानेषु मरणानि कुर्वता असाव्येयलोभाकाशवदेशप्रमाणानि मरण्यप्यनुभागवभाध्यवसायस्थानानि स्टानि भवति, तस्यान काल: सूमो भावपुद्गलपगवतः । अथानुभागवावस्थानानीति का शब्दार्थः ?. उच्यते-तिष्ठत्यस्मिन् जीव इति म्यानं, अनुभागबन्धस्य स्थानममुभागसम्वस्थान, एन कापायिकेणाभ्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षितकसमक्चरससमुदायपरिमाणमित्यर्थः, सानि म्यानुभागबन्धस्थानाम्पसहरूपयकोकाकासप्रदेशत्रमाणानि, सेवा चानुमागम्यस्थानानां निप्पाका ये पायोदयरूपा अध्यबसायास्तेऽप्यनुभागबन्धम्थानामी युध्यन्ते, कारणे कार्योपचारात , हेऽपि सानुभागबग्धाभ्यवसाया असलयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा इति । ५-५ ॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
खईयं खओवसमियं, वेययमुवसामियं च सासाणं । पंचविहं सम्मत्तं, पपणतं वीयरागेहि ॥ १०६ ॥ है न्याख्या-अनन्तानुबन्धिचतुष्टयस्य त्रिविधस्यापि दर्शनमोहनीयस्य च क्षयेण-अत्यन्तोच्छेदेन निर्वृत्तं क्षायिकं, तच्च क्षपक
णिमारोहतो भवति १ । तथा उदीर्थस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेणानुदीर्णस्य चोपशमेन सम्यक्त्वरूपत्तापसिलक्षणेन विष्कम्भिवोदयत्वरूपेण
यभित्तं तत्क्षायोपशमिकं २। तथा क्षायिकसम्यक्त्वस्यैव निर्वर्तनकालेऽनन्तानुबन्ध्यादिषु षट्सुश्चपितेषु मिथ्यात्वपुञ्ज(सम्यक्त्वपुञ्जे)लपि बहुतरे क्षपिते क्षायोपशनिपालपुइगमोऽतिवमाने यायि सम्पायपुद्गलानां कियतामपि धेद्यमानत्वादिकं, तदुक्तं-"स
|म्मत्तचरमपुग्गल-अणुभवणा वेयगं विति" ३ । तथा औषशमिकं तु प्रागुक्तमेव, यदुक्तं-"ऊसरदेसं दडि-लयं च विज्झाइ वणदवो | | पप्प | इय मिच्छस्साणुदए, उवसमसम्म लहइ जीवो ॥१॥" उपशमश्रेण्यारूढस्स चौपशामिक "उवसमसेढिगयस्स, होइ उपसामियं तु | सम्म।" इति । तथा "उबसमसम्मत्ताओ, चयओ मिच्छ अपायमाणस्स । सासायणसम्मत्तं, तयंतरालंमि छावलिया ॥१॥" इति सम्यक्त्वं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं वीतरागैरिति । एतदेव निसर्गाधिगमभेदाद् दशधा । अथवा " निसग्गुवएसरुई, आणरुई सुर्तबीयरुइमेव ।
अभिगमरित्याराई, किरिया संखेबंधम्मरुई ॥१॥" इति दशधा सम्यक्त्वं । रोचककारकदीपकभेदास्त्वत्रैवान्तभूता इति गाथार्थः ॥१०६॥ है षष्ठमतिचारद्वारं विभणिपुराह
संकासविगिच्छा, पासंडीणं च संथवपसंसा । तस्स य पंचाइयारा, वजेयत्वा पयत्तेणं ॥ १०७ ।। B व्याख्या-तस्य च-सम्यक्त्वस्य पञ्चातिचाराः प्रयत्नेन वर्जनीयाः, तत्रातिचरन्ति-मालिन्योत्पादनेन सम्यक्त्वमुद्रा लायन्ति |
कल
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
SEXSEX
यस्तेऽतिचाराः, मिथ्यात्वमोहनीयोदयादात्मनोऽशुभपरिणामविशेषा इत्यर्थः । के ते ? इत्याह-शङ्कनं शङ्का, अर्हतप्रणीतेषु जीवादितवेषु मतिमान्धादनवबुद्धथमानेषु संशयकरणमित्यर्थः, किनिमियमेवालया कामात इति, सा च विचा-जीवो नित्योऽनित्यो वा? इत्यादिदेशविषया देशतः, मूलत एवं जीवोऽस्ति न वा ? इत्यादि सर्वविषया सर्वत इति । द्विधाऽपि चेयं सम्यक्त्वं मलिनयति, सर्वज्ञोक्तेऽपि संशयात् १। तथा काचणं काङ्क्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, शाक्यादिदर्शनानामपि सर्वज्ञदर्शनतुल्यत्वेन विकल्पनमित्यर्थः, साऽपि देशतः सर्वतश्व, तत्र यदा चित्तनिग्रहादिकं कश्चिद्धर्म सर्वत्रोक्तमन्यदर्शने श्रुत्वा चिन्तयति-यथेदमप्येकं दर्शनं सर्वनदर्शनेन तुल्यमेव, अत्रापि चित्तनिग्रहादेः प्रतिपादनात् , तदा देशतः, यदा त्वक्षपादादिषु बहुषु दर्शनेषु जीवदयादिकं श्रुत्वेत्थं विकल्पयनि-सर्वाणि दर्शनानि सर्वशदर्शनतुल्यानि, जीवदयादेः सर्वत्र तुल्यत्वात् , तदा सर्वतः, इयं च द्विधाऽपि सम्यक्त्वं दूषयति । धुणाक्षरन्यायेन जीवदयादेस्तुल्यत्वेऽपि शेषैः प्रभूतधम्मरन्यदर्शनानामतीव व्यभिचारात्। अथवा ऐहिकामुष्मिकसुखादीन् काङ्गतः काङ्गा, इयमप्यतिचाररूपैत्र, अर्हनिषिद्धाचरणरूपत्वेन मालिन्यहेतुत्वादिति २। विचिकित्सा-मतिविभ्रमः, युक्त्यागमोपपत्रेऽप्यथै फलं प्रति सम्मोहः, किमस्यास्तपःप्रभृतिक्रियाया उत्तरकाले फलसम्पद्धविष्यति न वा ? इति, अथवा विदितयथावस्थितवस्तुत्वाद्विद्वांसः-साधवस्तेषां जुगुप्सा विद्धज्जुगुप्सा, इत्येवमिह व्याख्यायते । एषाऽपि सम्यक्त्वदक्षिकैच । यदा हि मलमलिनान साधूनालोक्य कश्चिदेवं निन्दति-दन्त !! को
त्र दोषः स्थान ?, यदि स्वल्पप्रासुकजलेन शरीरादिप्रक्षालनममी कुर्वीरनिति, तदा दृष्यत एवं सम्यक्त्वं, अहंदुक्तस्याविभूषामार्गस्य | नियुक्तिमत्वविकल्पमात्रेणाप्रमाणीकरणात् ३। तथा पाखण्डिनां नाक्यादीनां संस्तवः-एकत्र निवासादिरूपः परिचयः, न स्तुतिः, तस्या अनन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् , सम्पूर्व स्तोतेश्च परिचये रूढत्वात् , यथा---' असंस्तुतेषु प्रसभं कुलेपु" इति । अनेनाप्यतिचरस्येव जीवः.
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वं, तत्परिचये हि तरिक्रयाश्रवणदर्शनाभ्यां पुनरपि मिथ्यायोधोत्पत्तेः ४ । तथा तेषामेव पाखण्डिनां प्रशंसा-स्तयः, यथा-पुण्यभाज एते सुतपस्विन इति । अनयाऽपि सम्यक्त्वमालिन्यं जन्यते, तत्करणे हि तेषामात्मनोऽन्येषां च मिथ्यात्वस्थिरीकरणपक्षपातमिध्यात्वगमनजिनशासनद्वेषादयो दोषाः प्रभवन्तीति, तत्तपःप्रभृतिगुणानां चाज्ञानकष्टरूपत्वेनानर्थफलत्वात् , अत एते वर्जनीया इति | गाथार्थः ॥ १०७ ।। अतिचाराधिकारादन्यदपि यत्सम्यक्त्वपकं तनिषेधयन्नाइ---
पिंडप्पयाणहुयणं, सोमग्गहणाइलोयकिचाई । वजसु कुलिंगिसंग, लोइयतिस्थेसु गमणं च ॥ १०८ ॥ | व्याख्या-पिण्डप्रदानं पितृणां प्रतीतं, हवन-अग्न्यादौ तिलादिशेयोऽग्निकारिकेत्यर्थः, सोमग्रहणं प्रसिद्धम् , आदिशब्दात् सूर्यग्रहण| सङ्क्रान्तिमाघनवभ्यादेग्रहणं । एतानि लौकिककृत्यानि वर्जय। एतेनान्यान्यपि यानि लोकहाँ प्रवृत्तानि कृत्यानि, तानि नियुक्तिकत्वानिषिद्धत्वानिष्फलत्वेन जीवधातहेतुत्वेन वर्जनीयानीत्यर्थः, तथा कुलिङ्गिमिः शाक्पादिभिः सङ्गं सम्भाषणादिकं, लौकिकतीर्थषु]कायतनेषु गमनं च वर्जयेति सम्बन्ध इति गाथार्थः ॥१०८॥ ननु किमित्येवं पुनः पुनः प्राचुर्यप्रवृत्त कुलिङ्गिसङ्गादिवर्जनं ? इत्याह| मिच्छन्तभाविअचिय, जीवो भवसायरे अणाइम्मि । दढचित्तो वि छलिजइ, तेण इमो नणु कुसंगेहिं ॥१०९॥ ___ व्याख्या---पूर्व तापञ्जीवोऽनादौ संसारसागरे मिथ्यात्वभावित एव भवेत् , तेनायं जीवः सम्यक्त्वे दृढचित्तोऽपि निश्चित कुसङ्गैःसहकारिभिश्छल्यते, मिथ्यात्वं नीयते इति यावत् , स्वभ्यस्तत्यक्तमदिरापानस्तदर्शनाघ्राणश्रवणादिभ्यस्तस्पानामिलापमिवेति गाथा: | १०९ ॥ उक्तमतिचारद्वार, सप्तमे लिङ्गद्वारं विभणिषुराह--
P
mammittee
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
जस्स भत्रे संवेओ, निव्वेंओ उवसमो य अणुकंपा । अत्थितं जीवाइसु, नजइ तस्सऽत्थि सम्मत्तं ॥ ११०॥ व्याख्या - यस्य भवेत् संवेगो निर्वेद उपशमोऽनुकम्पा जीवादिष्वस्तित्वं च तस्य जन्तोरेतैर्लिङ्गज्ञायते यदुत - अस्ति सम्यक्त्वं । तंत्रसुखपरिहारेण मुक्तिकालापीवेयः १ । सांसारिकदुःखेभ्यो निर्विण्णता निर्वेदः २ । अपराधवत्यध्यक्षमावर्जनशमः ३ । अविशेषतो दुःखितसभ्येषु कारुण्यमनुकम्पा ४ । शङ्काकाङ्क्षादिरहितो जिनोदिततच्चाभ्युपगमो जीवास्तित्वमिति गाथार्थः ।। ११० ।। अपराण्यपि सम्यक्त्वगमकानि लिङ्गान्याह
सव्वत्थ उचियकरणं, गुणाणुरोओ रई य जिगवणे । अगुणेसु अ मज्झत्थं, सम्मद्दिहिस्स लिंगाई ॥ १११ ॥
व्याख्या - सम्यग्दृटेस्तद्भावगमकान्येतान्यपराण्यपि लिङ्गानि स्युः, कानि ? इत्याह- सर्वत्र देवगुरुमातृ पितृस्वजनादिषुचितकरणं १, तथा ज्ञानादिषु औदार्यगाम्भीर्यमार्गानुयायितादिषु च गुणेष्वनुरागः- प्रीतिः २ तथा रतिथ तस्य जिनवचन एव स्वात् यदाह"यूनो वैदग्ध्यवतः कान्तायुक्तस्य कामिनोऽपि दृढं । किन्नरयादधिकः, सम्यग्दृष्टेः श्रुतौ रागः ॥ १ ॥ २ तथा अगुणेषु च - गुणरहितेषु च प्राणिषु माध्यस्थ्यं उपेक्षैव तस्य भवतीति ४, एतानि सम्यग्टेलिङ्गानीति गाथार्थः ॥ १११ ॥ तदेवमुक्तानि किं सम्यक्त्वमित्यादिद्वाराणि तेषां चोपलक्षणत्वादन्यदप्यत्राकारद्वारं द्रष्टव्यम्, ते चामी आकाराः - राजाभियोग-गणाभियोग-बलाभियोग- देवत्वाभियोग- गुरुनिग्रह - वृत्तिकान्तारलक्षणाः पद् । तत्राभियोजनं-अनिच्छतोऽपि व्यापारणमभियोगः, राज्ञोऽभियोगो राजाभियोगः, एवमग्रेऽपि समासः | गणः - खजनादिसमुदायः, बलं - हरप्रयोगः, देवता कुलदेव्यादिकेति, गुरूणां मातापित्रादीनां निग्रो-निर्बन्धः,
+
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
आग्रह इति यावत् , वृत्तिः-प्राणवर्तनरूपा, कान्तार-अरण्य, बाधेति यावत् , वृत्तः कान्तारं वृत्तिकान्तारं-वृत्चिबाधेत्यर्थः । ननु कथं कान्तारमेव वृत्तेर्याधाभिधीयते ?, उच्यते-तद्धतुत्वात्तस्येत्यदोषः । अत्रायम्भात्रा-प्रत्याख्यातमिथ्यात्वस्य तावत् “नो मे कप्पइ अ
जप्पमिइ अनउथिए(इ वा अनउस्थियदेवयाणि वा अनउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए का नमसित्तए वा पुविं ॐ अणालत्तेग आलवित्तए वा [संलवित्तए वा], तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा दाउं या अणुप्पयाउं) वा" इत्यादिवचनाद
न्यतीर्घिकादेरनुकम्पा विहाय दानवन्दनादिकमिह प्रतिपद्धं, ततस्तेयामनुकम्पयाऽन्यत्रापि च राजाभियोगादिभिः पड्भिरेतः कारणभक्तिविरहितो द्रव्यतस्तत् समाचरनपि कार्तिकश्रेष्ठयादिवत्सम्यक्त्वं नातिचरति । एवमन्यदप्यत्रोपयोगि स्वयमेव वाच्यमिति ।
"अनन्तसंसारनिदानमेनं. मिथ्यात्वमेवं परिभाव्य भव्याः।
सम्यक्त्वमेकं विमलं अयध्वं, कैवल्यलक्ष्मी स्वरितं लभध्वम् ।। १॥" इति पुष्पमालाविवरणे [चतुर्थे] भावनाद्वारे सम्यक्त्वशुद्धिलक्षणं प्रतिद्वारं समर्थितम् ॥ ६ ॥ सम्प्रति चरणशुद्धिद्वारं विमणिषुः पूर्वद्वारेण सम्बन्धगर्भी गाथामाहचरणरहियं न जायइ,सम्मत्तं मोक्खसाहयं एक । तो जयसु चरणकरणे, जइ इच्छसि मोखमचिरेण ॥११२॥
व्याख्या-चरणरहितमेकमेव सम्यक्त्रं मोक्षसाधकं न जायते, तस्माचरणस्य करण-निर्वतन, प्रतिपालनमित्यर्थः । तत्र यतस्वभयतनं कुरु, यदि मोक्षं अचिरेण स्वल्पकालेनैव इच्छसि । अयम्भावा-प्राप्तेऽपि सम्यक्त्वे चिरकालेनापि तावञ्चारित्रं स्पृष्टैव मोक्षः |
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
raame
Luwana
प्राप्तव्यो, नान्यथा, उक्तं च-"मुटु वि सम्मट्टिी , न सिग्झ चरणकरणपरिहीणों" इत्यादि । तबद्यग्रेऽप्यवश्यं प्रतिपत्तव्यमेवेदं मोक्षार्थिना तदिदानीमेव प्रतिपद्यस्व, येन शीघ्रमेव समीहित सिद्धयतीति । एवं च सन्त्रि सम्यक्त्वशुद्धिद्वारानन्तरं चरणशुद्धिद्वारमभिधीयत इति पूर्वद्वारेण सम्बन्धाभिधानमिति गाथार्थः ॥११२॥ अथ चरणस्वरूपमेव किश्चिद्विस्तरतो विभणिषुरिगाथामाहकिं चरणं? कइंभेयं?, तरिहं पडियत्तिविहिपरूवणयों । उस्सग्गऽववाएहि यतं कस्स फलं व किं तसं ॥११३॥ ___व्याख्या--किं चरणमिति तस्वरूपं तावद्वाच्य, ततः कतिभेदं तदिति वक्तव्यं । ततस्तदहश्विरगयोग्या जन्तयो वाल्याः । ततोऽपि का चरणस्य प्रतिपत्तिविधिएकपणा कार्या ! ततमोत्सर्गापगाथ, शुद्धमिति शेषः, तबरणं कस्य साधोर्भवतीत्यभिधानीय । फलं वा-साध्य | किं तस्येति वायमिति सङ्केपार्थः । विस्तरार्थस्तु सूत्रकार गवाहसावजजोगविरई, चरणं आहेण देसियं समए । भेएण उ दुवियप्पं, देसे सब्वे य नायव्वं ॥ ११४ ॥ ___व्याख्या-सह अवद्येन-पान वर्तन्त इति सावद्याः, योगाः-जन्तुघातादिहेत्वारम्भादिच्यापारास्तेषु सावद्ययोगेषु या विरति
निवृत्तिस्तचरण-सपापच्यापारपरिहाररूपं, ओवेन सामान्यतो देशसर्वादिविचारविरहेण समये-सिद्धान्ते देशित-कथितमित्यर्थः । गत Et. किंचरणमिति द्वारं, कति भेदं तदित्याहू-भेदेन तु चिन्त्यमानं द्विविकल्प-द्विप्रकार चरणं ज्ञेयम् । तदेव द्वैविध्यमाह-देशे स्थूलप्राणाEM तिपातादौ सर्वस्मिंश्च-स्थूलसूक्ष्मजीवघातादौ विरतिरूयं चरम ज्ञातव्यं, देशचारित्रं सर्व चारित्रं चेत्यर्थः, इति गाथार्थः ॥ ११४ ॥
कस्य पुनस्तावद्देशचरणं भवतीत्याह
HERS+सरल
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
mstripgarigade
देसचरणं गिहीणं, मूलुत्तरगुणविअप्पओ दुबिई । मुले पंच अणुव्वय, उत्तरगुण दिसिक्याईआ ॥११५॥ । | व्याख्या-देशचरणं गृहिणामेव भवेत् , न यतीनां, तेषां सर्वचारित्र एवाधिकारात् । तदपि कतिमेदं ? इत्याह-मूलोत्तरगुणविक
ल्फ्तो-मूलोत्तरगुणभेदाभ्यां तदपि द्विविधं । तत्र मूले-मूलगुणविषये पञ्चाशुव्रतानि, तत्राणूनि-महाव्रतापेक्षया लघूनि व्रतानि अणुवतानि, अणोर्वा गुणापेक्षया यतिभ्यो लधोः श्रावकस्य व्रतान्यव्रतानि, अथवा देशनाकाले महाव्रतप्ररूपणातोऽनु-पश्चात् प्ररूपणीयानि | मतान्यनुव्रतानि, यदाह-"जधम्मस्सासमत्थे,जुनह तदेसणं पिसाहर्ण" इति,पश्च तानि च अणुव्रतानि पञ्चाणुव्रतानि,स्थूलप्रागणातिपातविरमण-स्थूलभूषावादविरमण-स्थूलादत्तादानचिरमण-परदारविरमणखदारसन्तोष-अपरिमितपरिग्रहविरमणलक्षणानि एतानि । 5 श्रावकथर्मतरोमूलकल्पत्वान्मूलगुणाः। दिखतादीनि तु तदुयचयलक्षणगुणहेतुत्वेन श्रावकधर्मद्रुमस्य शाखाकल्पा उत्तरगुणाः, उत्त
रूपा गुणा उत्तरगुणास्ते च दिग्बाताद्याः सप्त । तत्रोधिस्तिर्यदिग्गमनपरिमाणकरणं दिव्रतम् १। तथा नियतपरिमाणोपभोगप-।। रिभोगकरणमुपभोगपरिभोगवतम् । इदं च द्विधा-भोजनतः कर्मतश्चति । तथाऽनर्थदण्डविरमण, तब अर्थ:-प्रयोजन, तदभावोऽनर्थः, - दण्ड्यते आत्माऽनेनेति दण्डः, अनर्थन-प्रयोजनाभावेन निजजीवस्य दण्डोऽनर्थदण्डः, स चतुर्दा, तद्यथा-अपध्यानं प्रमादाचरितं हिंसपदानं पापकर्मोपदेश इति । तस्माद्विरमणं अनर्थदण्डविरमणं । एतानि च दिग्वतादीनि त्रीण्यपि गुणवतान्युच्यन्ते, अणुव्रतानां PI गुणाय-उपकाराय व्रतानि गुणव्रतानीतिकृत्वा, भवति घणुव्रतानां गुगवतेभ्य उपकारो, विवक्षितक्षेत्रादिभ्योऽन्यत्र हिंसादिनिषेधादिति।
अथोत्तरगुणचतुष्टयरूपाणि चत्वारि शिक्षावतानि उच्यन्ते । तत्र शिक्षा-अभ्यासस्तत्प्रधानानि व्रतानि शिक्षाव्रतानि, पुनः पुनरासेवनार्हाणीत्यर्थः । तानि च सामायिकादीनि, तत्र समस्य-रागद्वेषरहितस्य जीवस्य आयो-लामा समायः, समो अनुक्षणमपूर्वज्ञानदर्शनचा
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
रित्रैर्युज्यते । समायः प्रयोजनमस्य क्रियाऽनुष्ठानस्येति सामायिकं, सावद्यपरित्यागनिरवद्यासेवनरूपो x व्रतविशेष इत्यर्थः । इदं च श्रावकेण प्रतिदिवसमन्वरान्तरा यत्नेन कर्त्तव्यम्, यदुक्तं आगमे - " जाहे खणिओ ताहे सामाइयं कुजा" इत्यादि [आवश्यकचूर्णै] १| तथा देशावका शिकलक्षणं द्वितीयं शिक्षावतं. तत्र गृहीत सविस्तरदिप्रमाणस्य देशे - सङ्क्षिप्तविभागेऽवकाशः- अवस्थानं देशावकाशिकस्तेन निर्वृत्तं देशावकाशिकं, बहुतरदिक् परिमाणसङ्कोचरूपमिति भावः २ । तथा पौषधस्तृतीयं शिक्षावतं, तत्र पोषं पुष्टिं प्रक्रमादर्म्मस धनेकरोतीति पौषथः, अष्टमीचतुर्दशी पौर्णमास्यमावास्यापर्व दिनानुष्ठेयो + व्रतविशेषः । अयं च आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्या व्यापारपौषधमैदा
* न हि निरवद्यासेवन - सावधपरित्यागरूपो यक्ष एस देवाशपकस्यमुपलभ्यते "सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवजणं निरवजजोगपडिसेवण च" इत्यावश्यक सूत्रस्तथैव "सिक्खावयं तु पत्थं, सामाध्यमो तयं तु विष्णेयं । सावजेयरजोमाण, वज्रणासेवणारुवं ॥ १४" व्याख्या-xxx 'तकं तु तत्पुनः सामायिकं 'विज्ञेयं' ज्ञातव्यं 'सावद्येतरयोगानां' सपापनिष्पापव्यापाराणां यथासङ्ख्यं [अनुक्रमेण] न श्वयथासङ्ख्यं, 'वजेनासेवनरूपं ' परिहारानुष्ठानस्वभाव' इति नवाङ्गवृत्तिकारक श्रीमद्भदेव सूरि पुरन्दरसम्पञ्चाशकतिपय २२ पत्रे । एतदादिशास्त्रमाणेः स्फु दतरं म्यसे सावधपरिवर्जन रूप सामाथिको बारादर्वा निश्वासेवनामिकेर्याप्रति कार्निषेधः सावचेतरयोगानां यथासङ्क्षयमनुक्रमेणैव वर्जनासेन रूपावेनोकस्वात् । अपरं च अकृष्णा सत्वग्रमकोत्सर्जनं शुद्धिहेतोः पानीयप्रतिक्रान्त्यन्युपगन्तृमसेन त्वमस्य "सामा नाम निरमोपडिसेच सावजोगपरिवजण थ" इत्येवं पाठो लिखितुमुचितोऽभूत् परं न काप्येवमुपलभ्यतेऽतो युक्तियुक्तेष शाखकाराभीटाऽपि च सामाथिको चारादीप्रतिक्रान्तिः
x मापस्वपि यदाऽनुष्ठेयः शास्त्रव्यस्याष्टम्यादिप्रतिनियत दिन से वे वासुदेवत्वेन प्रतिदिवसेष्वमा चरणीयत्वेन चोक्तत्वात् तथाहि पौषधोपचासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियत दिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसा (नुष्ठेयो) चरणीयो" इति पञ्चाशति (पत्र 30 ) आवश्यक बृहद्वृद्धि (पत्र ८३९ ) भावकवृत्ति (पृष्ठ १८२) तस्वार्थ (भ० सूत्र १९) नेकेषु शास्त्रप्वेष एव पाठः ।
ये च प्रतिपतिम्मन्या "न प्रतिदिवसाचरणीयी" इत्यत्र नकाशे न प्रतिषेधवाचकः, तदयुक्तं, साहितया परिकल्पितस्य तथाविधपाठस्यैव
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
तबावश्यकरपादावभावात् । अवलोकयन्तु सहायकवचन-महीयं न प्रतिदिवसावरणीयाविति] बच्चन पर्वाम्यदिनेषु पौषधनिषेधपर, किन्तु पर्वसु पौषभकरण नियमपरं, पथा आवश्यकयूष्यादी प्रायममप्रतिमाऽधिकारे दिवेव प्रमशरी, न सु सधौ' इति वचनं दिवसे ब्रह्मचर्य नियमार्थ, न तु रात्री बानिषेधार्थ, सम्यथा एबमप्रतिमाऽऽराक्षादेन रानामब्रह्मचारिणव भाग्यमिति पापोपदेश एव सः स्यात् , रात्री ब्रह्मपालने प्रतिमाऽतिचार प्रसज्येत" इति श्रावपतिक्रमणसूत्रवृत्तावर्थदीपिकायाँ १६५ पत्रे । श्रावश्यवृश्यादिनाना पासप्रतिमाराधनाबमुद्दिश्य "दिवैध ग्रह्मचारी, न तु रात्रौ" इति अबुक, तक्षितान्तमसस्त्रम् , कमिश्नपि शास्ने तथाविधालगन्धस्यापभावात , तथा च दश्य हे कतिचित्रासपाटा पाठानां मतिमोहनिरासाय"दिमा बंभयारी, राती परिमाणकड़े अपोसहिए । पोसहिए रत्तिम्मि भ, नियमेणं भयारी अ॥१॥" मायावृति, पत्र ६४।।
“दि बंभयारी, राति परिमाणकडे " समयापासूत्र, पत्र । "असिणाणधिअद्धभोई, मउलिसडो दिवसबंभयारी भ । रति परिमाणकडो, पडिमावज्जेसु दिवसेसु ॥१॥" प्रवचनमारोद्वार, १७ २९४ ।
"जात्र परिमा पंचमासिमा न समपति ताय दिवसओ अभयारी, रति परिमाणं करेति-पग को तिथि वा घारे अपोसहिओ, पोसहिओ रसि पिबभयारी" इति पाशर्णिः ।
नास्येतेषु पाठेषु "दिवैव ब्रह्मचारी, न तु रानी" इत्यर्थगन्धोऽपि, त्याऽप्येवं शशामगठपरावर्तनद्वारा स्वाभिमत सिद्धये पूर्वाधार्योपरि पापो| पदेशदानस्य चाकलवाने तत्र मुवा स्वमताभिनिवेशायुमाहिस्व माम्यत् किमपि कारणमवतरति टिपथे ।
भन्यच-मे पर्व तिषिवृद्धिप्रसले सूर्योदयारसम्पूर्णाहोरानावस्थायिनीषु प्रथमारम्यादिपर्वविधियपि स्वयं पौपचादिधर्मकायांसिक्यम्तोऽपि यादवलम्ही म पश्यति" इति न्याय मारयम्योपर्यपर्वपौषधनिषेधत्वास होषारोपण कुन्ति तैर्विकार्यमेतत् , यदुत-पौषधशब्दोऽपि धर्षस्यैव वायको, मापर्वल, । यदु श्रीमस्वरगनानभोमणिकल्पवावृत्तिकारः श्रीमदभय देवरिया--"पौषध-पर्षदिनमतम्यादिः" इति समवायावृत्तिः, पत्र १९ ।। एकमेव “ पोषं धसे पौषधः अधुमीचतुर्दश्यादिपर्वदिवसः" इति धर्मबिन्दुवृत्तौ श्रीमन्मुनिबन्धसूरयः । तथा "पौषधः पर्व इत्यनर्थान्तर" इस्युमास्वातिवाचकमिश्रासावार्थभाध्ये, सथैव "पोषधः पर्वेति मार्थान्तरं" इति साहायवृत्ती। इत्याधने श्रुतधरैः पौषधशम् एव पर्ववाचकवेनोकः।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुओं, पुनरपि प्रत्येकं द्विधा-देशतः सर्वतश्च *, अस्मिन्मङ्गीकृते आहारशरीरसत्कारयोः परिहारो ब्रह्मचर्शव्यापारयोरासेवनं च देशतः ला तथा च यरपर्ववादयायमनुम तरकथमवर्ष स्वपि वियत्या प्रतिपादयितुमपि शक्यते , न कथम्पीति ।
ननु निरक्यानुधामस्म सर्वदा विधेयरवस्वीकारे को दोषः ?, प्रत्युत कर्म निर्जरादिविशिष्मामायैव भविष्यतीति वेतहि पाक्षिकादि प्रतिकमभानां कथं न सर्वका विधेयरवं स्वीक्रियते १. कि तेषां सर्वदा करणे कर्मनिर्जसहि विशिष्टलाभो न भविष्यति , स्वाध्यायकरणेऽपि च प्रयोजनमस्वाध्यायकाकोलादे
जनस्य !, कर्चन्तु यदाकदा कालेऽकाले यस्छया, कर्म नि अंसदि विशिष्टताभस्यात्रापि समानावात् । छामाज्ञाभाप्रसान्न तथा स्वीक्रियते तवा कथमाप्रहः पौषधस्थ प्रति दिवसेष्वषिधेयस्वस्वीकारे?, अत्रापि "प्रतिमियादिवसानुष्टेयो, न प्रतिदिवसा(नुष्यावरणीयो" हरयेतष्ठाचाज्ञाया भगमन मनिवार देखि विमृश्य पक्षपासविस्तस्वविवेचरियल।
* कृतचतुविधाहारप्रस्थास्यानिनस्सर्वतो मुमत्वोधानिकनन्यौषधे त्रिविधाहारोपोषितस्य देशतो भवास, आहापचतुरकान्यतस्त्यायस्यैव देशकेन उपपदेष्टुमुस्मितस्वात् । कृते विविधाहारोपवासे माहारचतुष्कस्यैक देश अस्मासुकोदक, सस्य मुकलन शेमहारत्रिकस्य स्वागेन च युक्तियुकमेव तत्र देशत भा. | हारपौषध' इति षपदेष्टुं । अन्य नामाप्येकादशतस्य न केवलं 'पौवध इत्येतावन्मानमेव, किन्तु यौषधोस्वास' इति, सच दिनोपवावं न कथमपि | सफलीभूतं भवितुमईति, अतस्तत्रोपचासकरणमेव स्थाय, तथा धोक्तं परमगुरुभिर्भवातिनणसूत्रधारः श्रीमदभव देवरिपूज्य-"पौषध-पर्षदिनम-. म्यादिस्तत्रोपवासो-ऽभक्तार्थः पौषधोपवास इति, इयं तु व्युत्पतिरेष, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यम्यापारपरिवजेनेविति ध्येयम्" इति समवायावृत्ती १९ पत्रे । अनेन सिद्ध पोषधेभोजमं । ये पुनईदम्ति पौषधे भोजनाभ्यनुज्ञा तऽप्यपवारस एच, मोत्सर्गतः । पश्यन्तु सपागडीयाचार्य श्रीमसोमसुन्दरसूरिशिष्य श्री हेमहंसगगिकतावश्यकबाकावरोधस्यैतं पार्ट-" तृतीयशिक्षाप्रतं पौषधोपवासः, स व पर्वतिथिः। वहोरात्रं यावश्चतुर्विधाहारत्यागेन, तथा न शक्नोति सदा त्रिविधाहारपरित्यागेन, पवमप्यशक्तावपवादत आचाम्लादिसमुश्चार्य भोजन | क्रियते" इति । तया चापचारामु निक्षिप्योपधानमन्वरेणापि पौधे भोजनकरणमधनं चतुः पृथुस्थूबुद्धेनुमाप । पचाने स्वनुमतं पौषधिकस्य भोजनकरण सर्वगच्छीयाशठगीता रित्यदोषः ।
रु
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
* सर्वतो वा भवतीति भावः । अथातिथिसंविभागचतुर्थ शिक्षाबत, तत्र तिथिपर्यादिलौकिकव्यवहारत्यागादोजनकालोपस्थायी श्रावकस्या
तिथिः साधुरुच्यते । तदुक्तं-"तिथिः पर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि ने विजानीया-च्छेषमभ्यागत | विदुः॥१॥" तस्यातिथेः सङ्गतो-निर्दोषो न्यायागताना कल्पनीयानां वस्तूनां श्रद्धासत्कारादिक्रमयुक्तः पश्चात्कर्मपरिहारार्थ भाग:-- ६ अंशोऽतिथिसंधिभागः । तदेवमुक्तानि लेशतो द्वादशापि श्रावकत्रतानि, एतेष्वातिचारादिविचारविस्तारस्त्वावश्यकादिभ्योऽवसेया, एतेन | च व्याख्याता देशचरणस्य मूलगुणा उत्तरगुणाति गाथार्थः ।। ११५ ।।
अथ मूलगुणैरुत्तरगुणश्च मीलितेर्यथा देशचरण द्वादशधा भवेत् तथा आहपंच य अणुव्वयाई, गुणवयाई च होति तिनेव। सिक्खाक्याई चउरो, सव्वं चिय होइ बारसहा ॥११॥ व्याख्या-पञ्चवाणुव्रतानि श्रीण्येव गुणत्रतानि भवन्ति, चत्वारि शिक्षावतानि, सर्वमेवैतन्मीलितं द्वादशधा भवतीति गाथार्थः ।।११६॥
उक्तं सप्रभेदं देशचरण, अथ सर्वचरणं निरूपयन्नाहमूलुत्तरगुणभेएण, सव्वचरणं पि वणियं दुविहं 1 मूले पंच महन्वय-राईभोअणविरमणं च ॥ ११७ ॥ - व्याख्या-मूलोत्तरगुगभेदेन सर्व चरणमपि द्विविधं वर्णित तीर्थकगणधरः, तत्र मूले- मूलगुणविषये पञ्चमहानतानि, महान्ति
अमुव्रतापेथम गुरूणि व्रतानि महावतानि, पञ्च तानि च महावतानि पञ्चमहावतानि, स्थूलसूक्ष्माभ्यां प्राणातिपातमृपावादादत्तादानमथुनपरिग्रहेभ्यो विरमणलक्षणानि, षष्ठं रात्रिभोजनविरमणं चेति । ननु देशचारित्रे तु रात्रिभोजनविरमणं उचरगुणेधूक्तं इह तु, मूल
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
गणेष्विति कोऽत्र विशेषः १; उच्यते-देशचारित्रिणस्वारम्भजाणातिपातादिभ्योऽनिवृत्तत्वात्स्थूलप्राणातिपातविरत्यादिषु मूलगुणेधूपकारमात्रत्वेनैव रात्रिभोजनविरमण वर्त्तते, इत्युत्तरगुणेषुक्तं; सर्वचारित्रियो हि सर्वसावधव्यापारनिवृत्तस्वात् सर्वेष्वपि मूलगुणरूपेषु महाव्रतेषु रात्रिभोजनविरमणमत्यन्तोपकारित्वेन मूलगुणेष्विति गाथार्थः ॥ ११७ ॥ उक्ताः सर्वचरणमूलगुणास्तदुत्तरगुणात्रिरूपयन्नाहपिंडविसोही समिई, भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहणंगुत्तीओ, अभिग्गहा उत्तरगुणेसु ॥११८॥ है व्याख्या-- उत्तरगुणेधूच्यमानासौ सप्ततियथा-पिण्डस विशुद्धिश्चतुर्दा-पोडशोद्गमदोषशुद्धिः १, षोडशोत्पादनादोषशुद्धिः २, 4दश ग्रहणेषणादोषशुद्धिः ३, पञ्च ग्रासैषणादोपशुद्धिः ४ इति । समितयः-ईर्यादिविययाः पञ्च प्रसिद्धाः । भावना द्वादश-"अनित्य-नामशरणं, भवमेकत्वमन्यता-मशौचमाश्रत विधिः, संवरं कर्मनिर्जराम् ।।१।।धर्मस्वारुपातला लोक, द्वादशी बोधिभावना।" इति जानीहि । प्रतिमा द्वादश, तत्स्वरूपं च विनेयजनानुग्रहार्थ सिद्धान्तानुसारेण किश्चिल्लिख्यते--- "मामाईमत्तमा, पहमा बिहतश्यमत्तरायदिणा। अहराह एगराई, भियखुपडिमाण पारसगं ॥ १॥"
अस्या एवं व्याख्या-मासाद्यास्सप्लान्ताः सप्त भिक्षुप्रतिमा भवन्ति, तत्राद्या एकमासिकी द्वितीया द्विमासिकी यावत्सप्तमी सप्तमासिकी ! ताच सप्ताऽपि वर्षासु नारभ्यन्ते, किन्तु ऋतुबद्धकाले एक, अतः प्रथम सम्यग्गुरुगाऽनुज्ञातराद्यसंहननश्यधृतियुक्तैर्जिनक| ल्पिकवत्--" तवेण सुत्त-सत्तेण, एगत्तण बलेण । तुलणा ग पंचहा एवं, जिगप्पं पष्टिबजओ ।। १॥” इति गाथोक्तपञ्चविधतुलनापरिकर्मितर्गच्छमध्यस्थैरेबोत्कर्षतः क्रिश्चिन्यूनदशपूर्वाणि जघन्यतोऽपि नवमपूर्वस्य तृतीयं बस्तु यावत् सूत्रसो- । sर्थतश्च पारंगैयुत्सृष्टदेहरुपसर्गादिसहै। एषणाऽभिग्रहयद्भिरलेपकडल्लचणकादिभिक्षामोजिभिः--
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
...........
muhur-newdnn.geimaginnerwaganneareggaer Now:00 •
Avham
madeoaamirgam.veafte
"संसहमसंमट्टी, उद्धवडो तह अप्पलेबडा चेक | उग्गहिया पगगहिया. उजियधम्मा ग मत्तमिया ॥१॥"
इति गायोक्तसप्तभिक्षामध्या[दायद्यवर्जनाच्छेषपञ्चकेपि कृतभिक्षाद्वयाभिग्रहेर्दिने दिने एका दति भक्तस्यैको पानकस्य गृह६ द्भिरेकं मासं यावदेवं परिकर्मणां कृत्वा गच्छानिष्क्रम्य बांहरप्येक मासं यावत्समिदं कृत्वा दिवा वृक्षादिमूलस्थै रात्रौ श्मशानादावे
कपुद्गलपस्तदृष्टथा कायोत्सर्गकारिभिर्यत्रास्तं यात्यादित्यस्ततः स्थानात् हस्त्यादिभयेऽपि पदमात्रमप्यसञ्चरद्भिर्षिकटोदकेनापि पादाधप्रक्षालक स्थित्वा चतुर्विधसङ्घन महाप्रभावनया राजादिसम्मुखानयनादिभिर्महा पश्चशब्दादिवादनपूर्व प्रवेशकमहोत्सवेन नगरमध्येन गच्छमध्ये आगम्यते, एवं सर्वास्वपि महोत्सवः क्रियते । एवं मासद्वयेन प्रथमा प्रतिमा पूर्णा भवेत् । एवमेव पूर्वोक्तरीत्या तस्मिन्नेव वर्षे द्वितीया प्रतिमा प्रारभ्यते, मासद्वयं गच्छमध्यस्थैः परिकर्मणापूर्व मासद्वयं बहिः स्थित्वा गच्छे आगम्यते । एवं मासचतुष्केण द्वितीया पूर्णा भवति, नवरं-द्वितीयाद्यासु सप्तमी यावदेकका दत्तिभक्तस्यैकैका पानकस्य क्रमक्रमेणाधिकी क्रियते । एवं प्रथमवर्षे प्रतिमाद्वयं सम्पूर्यते । तृतीया तु मासत्रयं गच्छे मासत्रयं बहिरेवं पभिमांसक्तिीयवर्षेण पूर्यते । चतुर्यपि मासचतुष्टयं गच्छे मासचतुष्टयं बहिरेवं तृतीयवर्षेण सम्पूर्णा भवेत । ततः पञ्चमी मासपञ्चकं यावत् गच्छमध्ये चतुर्थ वर्षे परिकर्मणा पञ्चमे वर्षे मासपञ्चकं, बहिरवस्थानेन वर्षद्वयेन पूर्णा स्यात् । षष्ठयपि षष्ठसप्तमवर्षाभ्यां मासषद्कं गच्छमध्ये परिकर्मणया मासषटकं बहिरवस्थानेन स्यात् । सप्तम्यपि अष्टमनवमवर्षाभ्यां गच्छे माससप्तकं परिकर्मणया माससप्तकं बहियथोक्तविधिना महाकष्टावस्थानेन पूर्यते । एवं ससापि नवभिः षट्पञ्चाशता मासैः सम्पूर्णा भवन्ति । तथाऽष्टमी प्रतिमा [प्रथमा] सप्तरात्रिन्दिवा नाम सप्तभिर्दिनैरकान्तरितैः पानकाहारवर्जितश्चतुर्भिवतुर्थैः पारणकाचाम्लैषिभिर्गच्छमध्यस्थैरेव साधुभिः सकलां रात्रिं यावदुत्तानकपार्श्ववर्तिस्थानशायिभिरूलपादैनिए
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्यास्थाय कैर्दिव्याद्युपसस हैः पूर्यते । नवम्यपि प्रतिमा द्वितीया सतरात्रिन्दिवा नाम चतुर्भिचाम्लैस्त्रिभिरुपवासैः । नवरं गच्छानिष्क्र ध्य ग्रामादेव हिरेवोल्कटिकासनस्थैर्यद्वा लगण्ड-चक्रकाएं, तद्वत्स्यायिभिर्दण्ड यतवडा - दण्डवदायतीभूय -सरलीभूय सकलां रात्रिं शिरसा पादाभ्यां च भूमिस्पृशद्भिः शयानैः सम्पूर्यते । दशम्यपि तृतीय। सप्तरात्रन्दिवा नामैव नवमीवद्धहिस्थैस्तपसा स्वष्टमीवद् | नवरं आसनवर्जित गोदो हक पुरुषासनस्थैरथवाऽऽसनस्थ राम्र फलवत् कुब्जासनस्थैव सम्पूर्यते । एवमेतास्तिस्रोऽप्येकविंशत्या दिनैर्निरन्तरैः सम्पूर्णा भवन्ति । एकादशी तु अहोरात्रिकी नामा कृताचाम्लेः सकलमहोरात्रं ग्रामादेर्बहिः स्थैर्लम्बितभुजद्वन्द्वैः कायोत्सर्गेण स्थित्वा पर्यन्ते च पानकाहारवर्जितं षष्ठं-उपवासद्वयं कृत्वैवं त्रिभिर्दिनैः पूर्यते । द्वादशी तु दिवाऽऽचाम्लं विधाय रात्रौ निर्निमेषदृष्टिभिरीपत्प्राग्भारगप्रमादेर्बहिः सकलां रात्रिं द्वावपि पादौ संहृत्य जिनमुद्रया स्थित्वेत्यर्थः, प्रलम्बित भुजद्वन्द्वेर्निर्निमेषदृष्टिभिः कायोत्सर्गस्थैः पर्यन्ते च पानकाहारवर्जितमष्टमं - उपवासवयं कृत्वैवं चतुर्दिनः सम्पूर्णा क्रियते । अग्रम्यादिषु पञ्चखपि प्रतिमासु दस्याद्यभिग्रहो न हि । सर्वप्रतिमापर्यन्ते च नानाविधलब्धय उत्पद्यन्ते । इत्येवं सण दर्शिता द्वादशप्रतिमाः । तथा इन्द्रियाणां - स्पशेनरसनम्राणचक्षुः श्रोत्रलक्षणानां निरोधः - स्वखविषये रागद्वेषाभ्यां प्रवृत्तिनिषेधरूपः पञ्चधा । प्रतिलेखना मुख सेतादिविषयाः पञ्चविंशतिः प्रसिद्धाः । गुप्त मनोवाक्कायानां सावयव्यापारेभ्यो गोपनरूपास्तिस्रः । अभिग्रहा द्रव्यक्षेत्र कालभावानुगता नियमविशेषाचतुर्विधा इति । कचितु "पिंडस्स जा विसोही, समिईओ भागात दुर्विहो । पडियाँ अभिहा वि य, नव उत्तरगुणा एए ॥१॥"
I
उपलक्षणमात्रमेव पिण्डविशुद्धयादीनामुत्तरगुणत्वं ततच
"इच्छा मिच्छा करो, आवस्मिँगा निमीहिंगा आपुच्छ । पडिपुच्छ छंदणीय, निमंत्रणों उसे काले ॥ १॥"
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
RAJAS
इति प्रकार अन्या आणि मावोसोनाशुणेषु द्रष्टव्या इति गाथार्थः ॥ ११८ ॥ ४ा उक्तं लेशतो भेदतश्चारित्रं, एवमन्येऽपि चरण मेदा इह वाच्या इति पूर्वार्द्धन सूचयन्नुत्तराद्धेन तदईद्वारप्रस्तावनां च कुर्वनाह
इय एवमाइभेयं, चरण सुरमणुअसिद्धिसुहकरणं । जो अरिहइ इय घेत्तुं, जे तमहं वोच्छं समासेणं ॥११९॥ & व्याख्या-इत्येवमादयः सामायिक-च्छेदोपस्थापनीय-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातलक्षणा भेदा यस्य तत्तथाभूतं ।।
तत्र समोरागद्वेषरहितत्वात् , अयो-गमनं समायः, एप अन्यासामषि साधुक्रियाणामुपलक्षषा, सर्वासामपि साधुक्रियाणां रागद्वेषरहि
तत्वात् , समायेन निवृत्तं समाये भवं वा सामायिकं, यद्वा समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो-लाभः समायः, समाय एवं सामायिकं ।। हैं| "विनयादिभ्यष्ठक्” [पा० ५-४-३४, तथा “ठस्येकः" पा० ७-३-५०] इति स्वाथै [ठगिको] इकण् । तच्च सर्वसावद्यविरतिरूपं,
| यद्यपि सर्वमपि चारित्रमविशेषतस्सामायिक, तथापि छेदादिविशेविशिष्पमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानास्त्र भजते, प्रथम पुनरविशे४पणात् सामान्यशब्दे एवात्रतिष्ठते सामायिकमिति । तच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथितं च, तत्रेवरं भरनैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेषु | | अनारोपितमहावतस्य शैक्ष्यस्य विनेयम् , यावत्कथिकं प्रवज्याप्रतिपत्तिकालादारभ्य मरणं यावत् भरतैरावतभाविमध्यमद्वाविंशतितीर्थ-!
करतीर्थेषु विदेहतीर्थकरतीर्थेषु च साधूनामवसेय, तेषां उपस्थापनाया अभावात् । C"समिण सामाअ-छे आइविसेसिपुण विभिन्नं । अचिसेसि असामाइ, ठिअमिह सामन्नमनाए ॥१॥"
|"सावनजोगविरह-ति तत्थ सामाअं दुहा तं च । इत्तरमा कहति अ, कहति पदम तिमजिमाणं ॥२॥" ॐ"तिस्थेस अगारोविभ-वयस्स सेहस्म थेवकालीअं । सेसाणमावहि अं, तित्थेसु विदेहयाणं च ॥३॥"
5
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐॐॐॐ ॐAGAKAR
ननु चेवरमपि सामायिक 'करोमि भदन्त ! सामायिक यावजी इत्येवं यावदायुस्ताबदागृहीतं, तत उपस्थापनाकाले तत्परित्यM जतः कथं न प्रतिज्ञाभङ्गः ?, उच्यते-नतु, प्रागेवोक्तं-सर्वमेवेदं चारित्रमविशेषतः सामायिक, सर्वत्रापि सवैसावद्ययोगविरतिसद्भावात् , है। केवलं छेदादिविशेषैर्विशिष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, ततो यथा यावत्कथिकं सामाणिकं छेदोपस्थापनं वा परमविशुद्धिविशेषरूपसूक्ष्मसम्परायादिचारित्रावाप्तौ न भङ्गमास्कन्दति तथेत्वरमपि सामायिक शुद्धिविशेषरूपच्छेदोपस्थापनावाप्नो, यदि प्रव्रज्या परित्यज्यते शहिं आया, [] () तस्यैव विशुद्धिविशेषावाप्तौ । [ यदुक्तम् ।
"मणु भणि सर्व चि, मामाइ अमिण विशुद्धि उकिन । मावविहमइयं, को अविलोबो विसुद्धीए । ॥१॥ PI उशिवमओ भंगो, जो पुण तं त्रिअ करे सुद्धपरं सन्नामित्त विसिहं, मुहम पि व तस्स को भंगो १ ॥२॥" । तथा छेदः पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च-आरोषणा महानतेषु यस्मिश्चारित्रे ताछेदोपस्थापन, तह द्विधा--सातिचार निरतिचारं च। । तत्र निरतिचार यदित्यरसामायिकवतः शक्षकस्यारोप्यते, नीर्थान्तरसङ्क्रान्तौ या, यथा श्रीपाश्वनाथती वर्द्धमानस्वामितीर्थ स इन्क्रामतः । पञ्चयामधर्मप्रतिपत्तौ । सातिचारं यन्मूलघातिनः तोच्चारणं, उक्तं च" सेहस्स निरहयारे, तित्वंतरसंकमेव हु। मूलगुणधाणो सा-हारमुभयं च ठिआकप्पे ।। १ ।।"
भयं चेति सातिचा निरतिचारं च स्थितकल्पे-प्रथमपत्रिमतीर्थकरतीर्थ। तथा परिहरण परिहारस्त गोविशेषस्ते विशुद्धिर्य|स्मिश्चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिकं । तच द्विधा-निर्विशमान निर्विष्टकायिक च, तत्र निर्विशमानका विवक्षितचारित्रासेवकाः, निर्विष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायाः, तदव्यतिरेकाचारित्रमप्येवमुच्यते । इह नत्रको गणश्चत्वारो निर्विंशमानकाचत्वारोज्नुचारिण |
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
44-4
*एका कल्पस्थितो वाचनाचार्यः, यद्यपि च सर्वेऽपि श्रुतातिशयसम्पन्नास्तथापि कल्पत्वात्तेषामेकः कश्चित्कल्पस्थितोऽवस्थाप्यते । निर्वि- ।.
समानकानामय परिहार:--- "परिहारिया| उ तवो, जहन्न मझो तहेवउकोसो। सीउहवासकाले, भणिओ धीरेहि पत्तेयं ॥१॥" " होइ जहन्नो गिम्हे, चउथलह होइ मजिनाओ! अहमप्रित दलोसो, इत्तो सिसिरे पवश्वामि ॥ २ !!" "सिसिरे उ जहन्नाई, छवाई दसमचरिमगो होई । वासासु अट्ठमाई, थारस पञ्चत्तगो(होइ)नेओ ।। ३ ॥"
पारणगे आयाम, पंचसु गहो दो सभिग्गहो भिक्खे । कप्पट्टियावि पदिणं, करति एमेव आयाम ।। ४ ॥" "एवं छम्मासन, चरिडं परिहारिगा अणुधरंति । अणुचरिंगे परिहारिय-पयदिए जाब छम्मामा ॥ ५॥" | "कपट्टिओ वि एवं, छम्मासतवं करेड सेसाओ। अणुपरिचारगभावं, वचंति कप्पहिगत्तं च ॥ ६॥" | " एवेमो अहारस, मासपमाणो उ पनिओ कप्पो । संखेवओ विसेसो, सुस्तादेसाड नायब्यो ।॥ ७॥" | " कापसमत्तीइ तयं, जिणकप्पं वा उचिंति गच्छ वा । पडिबजमाणगा पुण, जिणस्तगासे पवनंति ॥ ८॥" LE "तिस्थयरसभीवासे-वगस्स पासे व नो उ अन्नरस । एएसिज चरणं, परिहारविसुद्धिगं तं तु ॥ ९॥"
तथा सम्पति संसारमनेनेति सम्परायः-कषायोदयः, सूक्ष्मो, लोभांशावशेषत्वात् , सम्पराय:-कपायोदयो यत्र तत्सूक्ष्मसम्परा-| यम् । तच द्विधा-विशुद्धयमानकं सक्लिश्यमान च, तत्र विशुद्धथमानक क्षपकणिमुपशमश्रेणि वा समारोहतः, सक्लिश्यमानकं | तूपसमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य । उक्तं च
+
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
"सेटिं विलग्गओ तं, विसुद्धमाणं तओ चुअंतस्स । वह संफिलिसममाण, परिणाम विसेसे विनेयं ॥१॥" श तथा यथासायपिति, गणा-यमलोके ख्यातं-प्रसिद्धमकपायं भवति चारित्रमिति तथैव पत्तद्यथाख्यात, अथारुयातमिति द्वितीय नाम, तस्यायमन्वयः-अथ शब्दो यथाथै, आङभिविधौ, याथातथ्येनाभिविधिना च यख्यातं अकषायचारित्रमिति तदथाख्यातं, उक्तं च--"अहस हो जाहत्थे, आङोऽभिथिहीए कहिअमावायं । चरणमकमायमुदिअं, तमहवायं जहवायं ॥१॥" ___इदं च द्विधा छानस्थिक कैवलिकं च, तत्र छानस्थिकं उपशान्तमोहगुणस्थानके क्षीणमोहगुणस्थानके वा, कैवलिकं च सयोगिक
बलिभवमयोगिकेवलिभवं चेति । चरण-चारित्र, कथम्भृतं ? इत्याह-सुराश्च मनुजाश्च सिद्धिश्च, तासां सुख शकचक्रवादिभोमजितं PIनिरुपमस्वाभाविकपरमानन्दरूपं, तत् क्रियतेऽनेनेति करणं, एतश्च यो ग्रहीतुं-आसेवितुमर्हति, "जे" पादपूरणे, तमई समासेन-सङ्केपेण | | वक्ष्ये इति गाथार्थः ॥ ११९ ।। चरणाधिकारिपु ताबद्देशचरणाधिकारिणं निरूपयभाहसंवेगभाविअमणो, सम्मत्ते निश्चलो थिरपइन्नो । विजिइंदिओ अमाई, पनवणिजो किवाल्लू अ ॥ १२० ॥ जइधम्मम्मि वि कुसलो, धीमं आणालई सुसीलो । विनायतस्तरूवो, अहिगारी देसविरईए ॥१२१॥ आ व्याख्या ---संवेगभावितमनाः सम्यक्त्वे निश्चलः स्थिरप्रतिज्ञो विजितेन्द्रियोऽमायः प्रज्ञापनीयः, अकदारवीत्यर्थः, कृपालुश्च । का यतिधर्मऽपि कुशलः, उक्त च-"नाएऽणगारधम्मे, मावगधम्मे भवेज जोगो"त्ति । [तथा धीमान-तीर्थान्तरीयैरक्षोम्यो निपु
बुद्धिः] आज्ञारुचिः-आशाग्राह्यनिगोदादिजीवसत्ताङ्गीकारकः, सुशीलो, विज्ञाततत्स्वरूपो-ज्ञातदेशचरणस्वरूपः, उपलक्षग चैतेऽन्येऽपि
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ancirrigini serrequptemainedianwwwinnismame.dikaniiiio.amitions........nideiowinite iskenarayanasansexympression mroeno
useuropati...............CONTEXCowwer
विनीतत्वादयो गुणा यथासम्भवं ग्राह्याः । अत्र च पूर्वपूर्वगुणसद्भावेऽपि उत्तरोत्तरगुणाभावेऽनधिकार्यव, इत्येवम्भूतसर्वगुणविशिष्टो 5 देशपिरतिप्रतिपथावधिकारीति गाथार्थः १२०-१२१ ।। अथ सर्वचरमाहान प्ररूपयवाह----
पाएण होति नोग्गा, पवजाए वि तेच्चिय मणुस्सा । देसकुलजाइसुद्धा, बहुखीणप्पायकम्मंसा ॥ १२२ । ... व्याख्या-व एव देशविरतेोग्या उक्ताः, सर्वविरतिरूपाया: प्रव्रज्याया अपि प्रतिषत्तौ त एवं प्रायो देशकुलनातिभिश्शुद्धा बहुक्षीणनायकांशा मनुष्या योग्या-अधिकारिणो भवन्ति । देश आयर्यादिः, पैनिकं कुलं, माविकी जातिः । न देशविरतिप्रतिषत्तुर्मनुध्यत्वदेशशुद्धत्वादीनि विशेषणानि, तस्यास्तिर्यमादिभ्योऽपि दीयमानत्वात् । नापि बहुक्षीणप्रायकाशत्वविशेषणं, यावत्यां हि कर्मस्थितौ सत्यां सम्यक्त्वं लभ्यते, तसाः पल्योपमपृथक्त्वे क्षीणे देशविरतः श्रावको भवति, ततोऽपि सङ्ख्यातेषु सागरोपमेषु क्षीणेषु । सर्वविरतिचरण लभ्यते, ततोऽपि तावत्स्वेतेषु क्षीणेषुपशमश्रेणिः, ततोऽपि इयत्स्वेतेष्वतिक्रान्तेषु क्षपकश्रेणिः । तदुत्तम्| "सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहुप्तेण सावओ होला । चरणोवसमस्खयाणं, सागरसंखतरा होति ।। १ ॥” इति ।
उपलक्षणमात्रमेते च गुणास्तेनान्वेऽपि रमाप्राप्तत्वारोग्यादयोऽत्र गुणा द्रष्टच्या इति गाथार्थः ॥ १२२ ।। अन्वयव्यतिरेकाम्या निर्णीतोऽर्थस्सुग्रामः स्यादतः सर्वविरतेोग्या उक्ताः, अब अयोग्यानाह
अहारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसुं। जिणपडिकुदृत्ति तओ, पवावेडं न कप्पंति ॥ १२३ ॥ ET व्याख्या---पुरुषेषु मध्येऽष्टादश श्री विश्वतिर्नसकेषु दश, एते जिनः प्रतिकुष्टा-निनारिता, इत्यता प्रव्राजयितुं न अल्पसे
ति गाथार्थः १२३ ।। तत्र ये पुरुषवादश तानाह--
madam
acide
MarutisauhanrakhnahAnirwayramine
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाले बुड्ढे नपुंसे य, कोबे जड्डे य ाहिए । तेणे रायबिगारी य, उम्मते अ अदसणे ॥ १२४ ॥ ६ दासे ढुंढे य मृढ य, आणित्ते जुंगिएँ इय । ओबद्धएँ य भयए, सेहनिप्फेडिया इय ॥ १२५ ॥
___व्याख्या-अत्र सप्तादौ वर्षाणि यावद्वालः । सप्ततिवर्षाणामुपरि वृद्धः, पष्टिवर्षाणामुपरीति केचित् । न स्त्री न पुमान् नपुंसकं । (यः स्त्रीभिर्भोगैनिमन्त्रितोऽसंघृत्ताया वा स्त्रियोऽङ्गोपाङ्गानि दृष्ट्वा शब्द या मन्मनोल्लापादिकं तासां श्रुत्वा समुद्भूतकामाभिलापोऽधिसोहूँ न शक्नोति स क्लीयः) । जडस्तु विधा-भाषया शरीरेण करणेन च, तत्र भाषाजडविधा--जलमृको मन्मनभूक एलकमकः, अत्र जलनिमन इत्र बुडबुडायमानो कोक्ति स बलमूमा, यक्ष तु पासपमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमृका, यस्त्वेलक इवाव्यक्त
शब्दमात्रमेव करोति स एलकमकः । शरीरजस्तु यः पथि भिक्षाटने वन्दनादिषु चातीव स्थूलादितथाशक्तो भवेत् । करण क्रिया, | तस्यां जड्डा, समितिगुप्तिप्रतिक्रमणप्रत्युवेक्षणादिक्रियामसदुपदिश्यमानामपि यो गृहीतुं न शक्नोति स इत्यर्थः । भगन्दराकुष्ठादि४. रोगग्रस्तो व्याधितः । चौर्यरतः स्तेनः । राजादिद्रोहद्राजापकारी । यक्षादिना प्रबलमोहोदयेन वा परवशता नीत उन्मत्तः । अन्धो
दर्शनः स्त्यानदिनिद्रोदयवान्या । तथा दासीजातः अथैन वा क्रीतः ऋणादिव्यतिकरे च रुदो वा दास उच्यते । दुष्टो द्विधा-कषायदुष्टो विषयदृष्टश्च, तत्र कषायदुष्टोऽत्युत्कटकषायः, विषयदुष्टोऽतीव परयोषिदादिषु गृद्धः। स्नेहाज्ञानादिना यथावस्थितवस्त्वनभिज्ञो मूढः। योऽन्येषां धनादिर्धारयति स ऋणात्तः । जातिकर्मशरीरादिमिपितो जुङ्गितः, तत्र छिम्पकमातङ्गादयोऽस्पृश्याः कुर्कुटादिपोपकाः स्पृश्याश्च जातिजुङ्गिताः, नखप्रक्षालनादिनिन्दितकर्मकारिणः कमजुङ्गिताः, करकर्णादिवर्जिताः कुब्जयणपङ्वादयश्व शरीरजुङ्गिताः।
ner-MainamratasthanigahenAIL
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
Munivenewsl
owenlousMANANINNOMINAINMakamaksamuddawnMwAINMEAnimlamwan
+
+
+
+ अर्थग्रहणनिमित्तं विद्यादिग्रहणनिमित्तं वा इयत्कालं त्वदीयोऽहमित्येवं येनात्मनः परायत्तता कृता स्थान मोऽचबद्धः । भृत्या पगदेशकर
णाय प्रवृत्तो भृतकः । शैक्षकस्य-अन्येन दीक्षितुमिष्टस्योपलक्षणान्मातापित्रायननुज्ञातस्य च निस्फेटिका-दीक्षितुमपहरण शैक्षकनिस्फे| टिका । इत्यष्टादश दीक्षाऽनहीं: पुरुषस्य-पुरुषाकारवतो भेदा इत्युत्तरगाथायां सम्बन्धः । एषां च बालादीनां दीक्षणे प्रवचनमालिन्य| संयमात्मविराधनादिदोषाः सुखाबसेया इति नोक्ताः, वैरस्वाम्यादिप्रवाजने त्ववादपदमिति साधिकगाथाद्वयार्थः ॥ १२४-१२५ ॥ ___अथोक्तान व्रतानह पुरुषभेदानुपसंहरन्ननुक्तां[व] स्त्रीभेदानाह
इय अट्ठारस भेया, पुरिसस्स तहित्थियाए ते चेव । गुठिवणि सबालवच्छा, दोन्नि इमे होति अन्ने वि ॥१२६॥ + व्याख्या-यथा पुरुषाकारवतस्तथा स्त्रीजनाकारवतोऽपि व्रतायोग्या बालादयोऽष्टादश भेदास्त एव, तथाऽन्यावपि द्वाविमौ भवतः- |
गुत्रिणी, सह बालेन-स्तनपायिना बत्सेन वर्तत इति सबालवत्सा । एते सर्वेऽपि विंशतिः स्त्रीभदा इति गाथार्थः ।। १२६ ।। 51 श्रुतोक्तेषु षोडशभेदेषु नपुंसकेषु "दस नपुंसेसु"त्ति मूलगायोक्तान तानर्हान दश तझेदानाह
पंडपं वाईए कीबे, कुंभी ईसालए ति य । सउणी तकम्मसेवी य, पक्खियापक्खिए इय ॥ १२७ ॥ सोगंधिएं य ऑसित्ते, दस एए नपुंसगा। संकिलह ति साहणं, पळवावेउं अकप्पिया ॥ १२८ ॥
व्याख्या-तत्र पण्डकस्य स्वरूपं तावदत्रैव किञ्चिद्वक्ष्यति | वातक्यादीनां तु स्वरूपं विशेषत इदं-सनिमित्तमनिमित्तं वा लिने का स्तब्धे स्त्रीसेवा बिना यो वेदं न धारयति स नातिकः । क्लीवश्चतुर्दा-यो विवस्वां स्त्रियं वीक्ष्य क्षुभ्यति स दृष्टिक्लीयः, यः शब्द श्रुत्वा
भा
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
ASTERNET
शुन्यति स शब्दक्लीयः, एवमाशियो निमन्त्रितश्च । यस मोहोत्कटतया द्रापकाले लिकं वृषणौ वा कुम्भवद्भवतः स कुम्भी । खियमा
सेव्यमानामालोक्य यस्येया महती जायते स ईध्योलः । यो वेदोत्कटतयाऽभीक्ष्ण मैथुनासक्तः स शकुनिः। यो गलितशुक: श्वान इस का स्वलिङ्ग लेढि स तत्कर्मसेवी । यः शुक्लपक्षेसवेदो, न कृष्णपक्षे, स पाक्षिकापाक्षिकः । यस्सुभगं मन्वानः खलिज जिघ्रति स सौगन्धिका
यो वीर्यपातेऽपि स्त्रियमालिङ्गय तिष्ठति स आसक्त इति । सामान्यतः पुनरत्रैवाह-एते दशापि नपुंसकाः सलिष्टाः स्याद्यासेवनामा- | श्रित्यातीयाशुभाध्यवसायवन्तः, अविशेषेण नगरमहावाहसमानकामध्यवसायसम्पन्नत्वात्, इति साधूनां प्रवाजयितुमकल्पिता-अयो। ग्या इति गाथार्थः ।। १२७-१२८ ।। अथ प्रतानि षड्नपुंसकभेदानाह----
वैद्धिए चिप्पिए चेव, मंतओसहि उवहए । इसिसत्ते देवसत्ते य, पव्वावेज नपुंसए । १२९ ॥ व्याख्या-यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्वा वृषणी गालितो भवतः स वर्द्धितः। यस्य च जातमात्रस्याङ्गुष्ठाङ्गुलीभिर्मर्दयित्वा वृषणौ दाविती स्तः स चिप्पितः। कस्यचिन्मन्त्रसामर्थ्यादन्यस्यौषधिवशतः पुंवेदः स्त्रीवेदो का उपहतः । अन्यश्च 'मदीयतपःप्रभावादसौ नपुंसको भवस्विति ऋषिणा शप्तो देवेन वा शमः । एवं च सत्येतेषां नपुंसकवेदोदयो जायते, इत्येतान षड्नपुंसकान् निशीथोक्तविशेष- 1 लक्षणसम्भबे सति प्रधाजयेदिति श्लोकार्थः ।। १२९ ॥ पूर्वोक्तपण्डकस्वरूपमाहमहिलासहायो सरवण्णभेओ,मिदं महतं मउआय वाणी। संसदयं मुत्तमफेणगं च,एयाणि छप्पंडगलक्खगाणि
व्याख्या-पुरुषाकारवतोऽपि महिलास्त्र भावत्वं पण्डकस्यक लक्षणं । स्वरवर्णयोर्मेदः-स्त्रीपुरुषापेक्षया वैलक्षण्यं, उपलक्षणत्वाद् /
.
...
...............................................................................
wwwwwww
w
wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wie
m
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-%B1-
गन्धरसस्पर्शानां चेति द्वितीयमिदं । मेण्डू-पुरुषचिन्हं महद्भवति । मृवी च वाणी योषिद् वाणी इस जायते। ललनाया इा सशक मूत्र | | भवेत् , फेनरहितं च तद्भवति । एतानि षट्पण्डकलक्षणानि । वातक्यादीनां तु स्वरूप मूलगाथाव्याख्यायामुक्तमेवेति वृत्तार्थः ।।१३०।।
तदेवं दार्शताः सविरतेयोन्याः, देशविरत्ययोग्यास्त्वसंवेगभावितचित्तादयः स्वयमभ्यूयाः । एवं च सत्यवसितं तदहेद्वार, अथ । प्रतिपत्तिविधिप्ररूपणाद्वारं विभणिपुराह-- बालाइदोसरहिओ, उबहिओ जइ हविज चरणऽत्थं । तं तस्स पउत्तालो-यणस्स सुगुरुहिं दायव ॥१३१॥ ___व्याख्या-पूर्वोक्तबालादिदोष रहितो यदि चरणार्थनुपस्थितो भवेत्तदा प्रथममेव प्रयुक्तालोचनस्य-दत्तालोचनस्य तस्य 'त' इति चरणं सुगुरुभितिव्यमिति गाथार्थः ।। १३१ ॥ क्रिमेतावन्मात्रेणैव तदीयते ?, नेत्याह
आलोषणसुद्धस्स वि, दिज विणीयस्स नाविणीयस्स । नहि दिजइ आभरणं, पलियत्तियकन्नहत्थस्स ॥१३२॥ ___व्याख्या-आलोचनाशुद्धस्थापि विनीतस्यैव तद्देयं, नाविनीतस्य । असुमेवार्थमर्थान्तरन्यासेन दृढयति नहि आभरण परिकर्चित
कर्णहस्तस्य दीयत इति गाथार्थः ॥ १३२ ।। अथ विनीतस्वरूपमेवाह| अणुरत्तो भत्तिगओ, अमुई अणुवत्तओ विसेसन्नू । उज्जुत्तोऽपरितंतो, इच्छियमत्थं लहइ साहू ॥१३३॥
___ च्याख्या-स एव साधुरीप्सितं चरणादिकमर्थ लभते, यः, कथम्भूतः ? इत्याह-'अनुरक्तः' पटे नीलीरङ्ग इव गुरुषु प्रतिषः ।। गुरोभक्ति-कृताञ्जलिपुटादिभावेन सेवां गतः-प्रपत्रो गुरुभक्तिगतः । अमोचको-यावजीवितं गुरुचरणापरिहारी। अनुवर्तका-सर्वखा
*
R
Manang=n=== = n-myman
a inmeRANILON
a
in
a
................
..
FANANDIR...
ROMANIMrimudalmanasalaimadakistatitimisdalimmihitihanim'
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
3%
प्यौचित्यप्रवृनिनिष्ठः । विशेषज्ञः-सदसहस्तविवेकज्ञाता । उद्युक्तः-अध्ययनवैयावृत्यादिध्यतीयोद्यमपरः । अपरितान्तो-विवक्षितार्थसाघनेनिर्षिणः । तदह द्वारसगृहीतमपि विनीतत्यं विनयगुणम्य मुख्यतयाऽन्वेषणीयत्वख्यापनार्थ पुनरुपन्यस्तमिति गाथार्थः ॥१३॥ _ विनीतस्यापि केन विधिना चरण देयं ? इत्याहविणयवभो वि हु कयमं-गलस्त तदविग्घपारगमणाय । दिज सुकओवओगो, खित्ताइसु सुप्पसत्येसु १३४॥ ____ व्याख्या विनयवतोऽधि दद्यास्त्वं चारित्र, कथम्भूतस्य ? इत्याह-कृतानि मङ्गलानि जिनचैत्यसङ्घ-पूजादीनि येन, तस्य, किमर्थ
इत्याह-'तस्य चरणस्याविघ्नं पारगमनाय । गुरुगतं विधिमाह-सुष्टु कृत उपयोगो निमित्तादिषु येन स तथा, केपु ? इत्याह-क्षेत्रादिषु । - सुप्रशस्तेषु, तत्र क्षेत्रे जिनायतनेक्षुक्षेत्रक्षीरवृक्षसमीपादौ दातव्यं चरण, न तु भन्नध्यामितकचबराकीर्णादौ । कालेऽपि| " चाउद्दसि पनरसिं, च वजह अहमि च नवमि च । हि च च उत्थि था-रमि च संसासु दिजाहि ॥ १ ॥" | "निसु उत्तरासु तह, रोहिणीसु कुजा हु सेहनिश्चमणं । गणिवायए अणुन्ना, महब्बयाणं च आमहणा ॥२॥" | इत्यादितिथिनक्षवादिशुद्धिकलिते, नाप्रशस्ते । भावेऽपि प्रशस्ताहारादिप्रवृत्तिशुद्धे इति गाथार्थः ॥ १३४ ॥
श्रुतोक्तस्य सर्वथापि विधेर्वक्तुमशक्यत्वादुपसंहरन परीक्षाकालदशेनपूर्वे व्रतदानमाह-- का इय एवमाइविहिणा, पाएण परिक्खि ऊग छम्मासा । पयजा दायव्वा, सत्ताणं भत्रविरत्ताणं ॥ १३५ ॥ ।
... ग्याख्या-प्रायेण इत्येवमादिविधिना पण्मासान् परीक्ष्य भवविरताना सन्त्रानां प्रवज्या दातव्या, वैरखाम्यार्यरक्षितादिभिरुदा। यिनृपमारकायैश्च साभिचारवारणाय प्रायो ग्रहणमिति गाथार्थः ॥ १३५ ।।
83%C
E
%
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
खदेवं सर्वविरतिसामायिकप्रतिपचिबिधिरुक्तः, अथ महावतारोपणं लेशतो दयितुमाहविहिपडिवनचरित्तो, दढधम्मो जइ अवज्जभीरू य। तो सो उपविजइ, वरसु विहिणा इमो सो उ ॥१३॥ श व्याख्या--विधिप्रतिपन्नवारित्रो यदि दृढधर्मा पापभीरुश्च, ततः स विधिना व्रतेषु उपस्थाप्यते-आसेप्यते, स पुनर्विघिरयं ।।
वस्त्रमाग इति गाथार्थः ॥ १३६ ।। तमेवाह - पढिए य कहिय अहिगय,परिहारुट्टावणाए सो कप्पो छज्जोवघायविरओ,तिविहंतिविहेण परिहा(?)रो[]॥१३७॥ 5 व्याख्या-यथोक्तगुणविशिष्टोऽपि स एवोपस्थापनायां-व्रतारोपणायां कालथ्योल्पा-योग्यः, यः "पारेहाति प्राकृतत्याल्लोका
सन्तनिर्देशात् परिहारी-सविरतः, क सति ? इत्याह-'पटिते' षड्जीवनिकायमहाव्रतरूपादिप्रतिपादके शस्त्रपरिबादशवकालिकाधुचितसूत्रेऽधीते, ततः कथिते-गुरुणा तदर्थ व्याख्याते, ततोऽप्यधिगते-शिष्येणापि तस्मिन् सम्यगवधारिते सति । ननु का पुनः परिहारी ? इत्याह-पड्जीवकायधातात्रिविधंत्रिविधेन-मनोवाकायः करणकारणानुमतिभिर्विरतो-निवृत्तो यः स इह परिहारीत्यभिमतः, सूत्रार्थाभ्यामधिगतशस्त्रपरिक्षादिश्रुतः षड्जीवनिकायं श्रद्दधानो व्रतोपस्थापनायोग्यो भवतीति भाव इति गाथार्थः ।। १३७ ।। J. उक्तवक्ष्यमाणविधिविपर्यये दोषमाह। अप्पर अकहिचा, अणहिगयऽपरिच्छणे य आणाई । दोसा जिणेहि भणिया, तम्हा पत्ता दुवडावे ॥१३॥
- व्याख्या--इहानन्तरमेव वक्ष्यमाणो जघन्यतः सप्ताहोरात्रादिरुपस्थापनायो कालक्रमस्तं अप्राप्तेऽस्पकालिके शैक्षके, अकथयित्वा ।
BaianimamienewaksAppscluxasivah-nAsiauninterpretattornhumanmainme-----...
alkinila...mvww.kamsin........nidina.vi.si.nindmmipikchi.ki.kinvs......
mikimedieiswwwnoudesisaina
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
च यथोक्तसूत्रार्थ, अनधिगते च शिष्यके तस्मिन् , तथा अपरीक्षगा च शिष्पकस्य, किं जीवनिकायानसौ अद्धत्ते न वा ?, श्रदानेऽपि । तान् रक्षति न वा ? इत्येवं वृषभैः सूत्रोक्तविधिना परीक्षायाममायामित्यर्थः । उपस्थापनां कुर्वत इति सर्वत्र गम्यम् । आत्राविराधनाऽनवस्थादयो दोषा जिनर्भणिताः, तस्मात्कालक्रमेण प्राप्तादीनेवोपस्थापयेनान्यानिति गाधार्थः ॥ १३८ ।।
उपस्थापनायोग्यतायां कालक्रममाह| सेहस्स तिन्नि भूमी, जहन्न तह मज्झिमा य उकोसा। राइंदिय सत्त चउमा-सिया व छम्मासिया चेव ॥१३९॥
व्याख्या--शिष्यक शैक्षस्य अभिनवदीक्षितस्य व्रतोपस्थापनायां कर्तव्यायां तिस्रोभूमिका-योग्यवास्थानानि, तद्यथा-जघन्या तथा मध्यमा उत्कृष्टा च । तत्र जघन्या सप्ताहोरात्रिकी मध्यमा चातुर्मासिकी उत्कटा पाण्मासिकी चेति । सप्ताहोरात्रादिभिरतिकान्ततोपस्थापनायोग्यः शैक्षकः स्यादिति गावार्थः ।। १३९ ।। दत्र कस्य का भूमिभवेदित्याहपुवोवढपुराणे, करणजयट्ठा जहणिया भूमी । उक्कोसा उ दुम्मेहं. पडुन अस्सदहाणं च ॥ १४ ॥ __व्याख्या-'पुराणः' समयभाषया व्रतभ्रए उच्यते, पूर्व प्रोषस्थायितः पूपिश्थापितः, स चासौ पुराणश्च पूर्वीपस्थापित पुराणः, 3 तस्मिन् यथोक्ता जघन्या भूमिः, कर्मक्षयोपशमवशात् पुनरप्यसौ कश्चि प्रबजितोऽपि समभिरहोरात्रैरतिक्रान्त तेषूपस्थाप्यते । ननु हि तस्य सूत्र पूर्वाधीतमेव, ततश्च सप्ताहोरात्रातिक्रममपि यावकिमर्थ विलम्बित ? इत्याह-'करणांनी इन्द्रियाणि, तजयाथै, एतावन्तमपि
| कालं विना करणजयोऽपि सम्यङ्न ज्ञायन इत्याशयः । उत्कटा तु पाण्मासि की भूमिमैत्रसं-सन्दप्रज्ञ प्रती त्य, तस्य हि यथोक्त शीघ्रमेव
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ नागच्छतीति भावः । अथवा अश्रद्धानं प्रतीत्योकमा भूमिः, शीला तात्रोऽपि लिलामोडनीयोदयादेकेन्द्रियजीवादिकं यो न श्रद्धचे || तस्यापि बोध्यमानस्योत्कृष्टा पाण्मासिकी भूमिर्भवतीत्यर्थः, इति गाथार्थः ॥ १४० ॥ तर्हि मध्यमा कस्य ? इत्याहहै। एमेव य मज्झिमिया, अणहिझंते असइहंते य । भावियमेहाविस्स वि, करणजयहा य मज्झिमिया ॥१४॥ । वाख्या-एवमेव दुर्मेधस्त्वेन सूत्रमनधीयाने मोहोदयाद्वा अश्रद्धानवति पूर्वोक्तात्किश्चिद्विशिष्टतरे मध्यमा चातुर्मासिकी भूमिभवति । तथा च भावितमेधाविनोऽपि अपुराणस्य करणजयार्थ मध्यमा भूमिर्द्रष्टव्येति माथार्थः ॥ १४१ ॥
तदेवं कृता लेशतः प्रतिपतिविधिप्ररूपणा, अथोत्सयिवादविशुद्धथा तच्चारित्रं भवतीति चिन्तनीय, तत्र पूर्वोक्तविधिप्रतिपन्नम-1 + हावतस्य तत्पालनोपदेशममिधित्सुः प्राणातिपातव्रतपरिपालनोपदेशं तावदुत्सर्गतः प्राह--- | इय विहिपडिवन्नवओ, जएज छजीवकायजयणासु । दुग्गइनिबंधणच्चिय, तप्पडिवत्ती भवे इहरा ॥१४२॥ ___व्याख्या---इत्युक्तविधिप्रतिपन्नवतः षड्जीवकाययतनासु यत्नं कुर्यात् , इतरथा-षड्जीवकायपालनमन्तरेण तत्प्रतिपत्तिः-वतनतिपत्तिदुर्गतिनिबन्धनैव भवेदिति गाथार्थः ।। १४२ ॥ षड्जीवकाययतनोपायमेवाहएगिदिएसु पंचसु, तसेसु कयकारणाणुमइभेयं । संघट्टणपरितावण-ववरोवणं चयसु तिविहेणे ॥ १४३ ॥ ___ व्याख्या-एकेन्द्रियेषु पञ्चसु पृथिव्यादिषु, असेषु द्वीन्द्रियादिषु च, त्यज त्वं, किम् ? इत्याह-सट्टनं चरणस्पर्शादिभव, परितापन-लकुटपातादिना गाढपीडनरूपं, तथा व्यपरोपण-प्राणेभ्यश्यावनं, एकैकमिदं कथम्भूतं ? इत्याह-कृतकारणानुमतिभेदं, केन
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
REPRESS
दी यज? इत्याह-'त्रिविधेन' मनसा वचसा कायेन चेत्यर्थः, एवं च कुर्वता षड्जीवकाययतनासु प्रयत्नः कृतः स्यादिति भावः, इति | गाथार्थः ।। १४३ ॥ अस्य च विशेषतः कर्तव्यतामाहजइ मिच्छदिष्टियाण वि, जसो कसिवि जीवरक्खाए। कह साहहिं न एसो, काययो ? मुणियसारेहिं ॥१४॥
व्याख्या–यदि नाम अविदितपरमार्थानां मिथ्यादृशामपि केपाश्चित्स्वाभिप्रायतो जीवरक्षायां कोऽपि कथश्चियत्नो दृश्यते, तर्हि कथं झातसिद्धान्तसारैः साधुभिरेष-जीवरक्षायनो न कर्त्तव्यः ?, कर्तव्य एवेत्यर्थः, इति गाथार्थः ॥ १४४ ॥
नन्वशक्यानुष्ठानत्वान्न केनाप्यसौ कृतो भविष्यतीत्याह| नियपाणच्चाएण वि, जति परपाणरक्खणं धीरा । विसतुंबओवभोगी, धम्मरु ई एरथुदाहरणं ॥ १४५॥
व्याख्या-निजप्राणत्यागेनापि धीराः परप्राणरक्षण जनयन्ति, अत्र विषतुम्वकोपभोगी धर्मरुचिरुदाहरण-दृष्टान्ता, स चाय
इह चम्पापुर्यां सोम-सोमदत्त-सोमभूतिनाम्नां विप्राणां बन्धूनां नागश्री-भृतश्री-यक्षश्रियो भार्याः, अन्यदा मधुरभ्रान्त्या कटु| तुम्ब नागश्रिया उपस्कृतं, पतिते तद्रसचिन्दौ मक्षिकामृतेजति परमार्थ, गोपितं च । इतश्च पूर्वधरधर्मघोषसूरिशिष्यो धर्मरुचिर्मास[क्षपण]पारणे तत्रैव समागतः, ततो मा भूय॒था इयान्व्ययोज्यत्रास्य त्यागेन, दानेन चायं तोषितो भविष्यतीति विचिन्त्य तत्सर्वं तया पायया तस्मै दत्तं । स च तद्गृहीत्वा गतो गुरोर्दर्शितवान् । गुरुभिश्च कथश्चिज्ज्ञात्वा 'विषतुम्बकमिदं, ततः परिष्ठापयेत्यादिष्टः सः शुद्धस्थण्डिले गत्वा कुतोऽपि बिन्दुमेकं मुमोच, तद्गन्धेन चायाताः कीटिकास्तत्र लग्ना मृता दृष्टाः, ततो 'चरं ममैकस्य विधिना मृतिर्न त्वेवमेतस्माजन्तुसमूहस्येति विचिन्त्य तत्सर्वं तत्रैव बुभुजे । ततो महावेदनाक्रान्तः सिद्धसाक्षिकमालोच्य प्रतिक्रम्य पादपोप
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
KIKAANAACHAL
Eगमनेन सर्वार्थसिद्धिमगमत् । श्रुतोपयोगात् ज्ञात्वा च गुरुभिर्नागश्रीदानस्वरूपं धर्मरुचेराराधनापूर्व सर्वार्थसिद्धिगमनं च सङ्घायाभ्य
धायि, ज्ञाततव्यतिकरलोकधिकक्रियमाणा च नागश्रीभर्तृदेवरहान्निभयं निष्कासिता सर्वत्र लोकपिक्रियमाणा धूतक्रियमाणा बालैलेष्टुभिर्हन्यमाना क्वचित्स्थानमलभमाना भिक्षया जीवन्ती पोडशरोगाक्रान्ता मृता षष्ठपृथिव्यामुत्पन्ना। ततो मत्स्यादिभवान्तरितासु समपृथिवीप्यनेकश उत्पद्यमाना तिर्यगादिभवान् भ्रान्त्वा चम्पायां सागरदत्तसार्थवाहस्य भद्राभार्यायाः पुत्रीत्वेनोत्पन्ना, काले चोत्पन्न| तीबदौर्भाग्या भादित्यक्ता प्रवज्यां गृहीत्वा गुरुणीनिषिद्धाऽपि बने कृतकायोत्सर्गा पञ्चमिटिर्वि विधोपचारः काम्यमानां काश्चिद्ग|णिकामालोक्य स्खदौर्भाग्य स्मृत्वा कृत[पञ्च]भर्तृनिदाना काले मृत्वा ईशाने कल्पे सुरगणिकात्येनोत्पन्ना । ततश्च च्युत्वा काम्पिल्यपुरे द्रुपद| राजपुत्री द्रौपदीनाम्नी, यौवने पूर्वनिदानास्वयंवरे पश्चपाण्डवानां पत्नी जाता। अथकदाऽनादरकुपितेन नारदेन धातकीखण्डभरते | अमरकङ्काधिषस्य पद्मनाभस्य तद्पादीन गुणानुक्त्याऽपहारिता नित्यमाचाम्लपारणकषष्ठतपस्तप्यमाना शुद्धशीला षण्मासान्ते पद्मनाभं | विजित्य केशवेन निवर्तिता पाण्डुमथुरायां पाण्डवानुकारं पाण्डुसेनं सुतमजीजनत् । तस्मिन् राज्येऽभिषिक्ते पाण्डवैः सह प्रव्रज्य ब्रह्म| लोकं गता, ततश्युत्वा विदेहे सेत्स्थतीति धर्मरुचिचरित्रं प्रसङ्गाद्रौपदीचरितमपि किश्चिदुक्तं, विस्तृतं तु पाण्डवचरित्राज्ञेयमिति २॥१४५ ॥ इति धर्मगचिकथा समाप्तः ॥ अथ द्वितीयव्रतपरिपालनोपदेशमाह। कोहेण व लोभेण व, भएण हासेण वा वितिविहेणं । सुहमेयरं पि अलियं, वजसु सावजसयमूलं ॥१४६॥ ___ व्याख्या-क्रोधेन निमित्तभूतेन लोभेन वा भयेन वा हास्येन वा वर्जयेत् , किम् ? इत्याह-'अलीकमपि' मिथ्यावचनमपि, कथ| म्भूतमिदम् ? इत्याह-सूक्ष्मं चेतरच सूक्ष्मेतरं, सावद्यशताना मूलं । केन त्यजेत् ? इत्याह-त्रिविधेनेत्युपलक्षणत्वात्रिविधं त्रिविधेनेति
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथार्थः ॥ १४६ ॥ का पुनरलीकवादिनी दोगः ? इत्याह--... 5 लोए वि अलियवाई, वीससणिज्जो न होइ भुअगोव्ध । पावइ अवन्नवाय, पियराण वि देइ उन्वेयं ॥१४७॥ ____ म्याख्या-प्रत्यक्षलक्ष्येऽस्मिल्लोकेऽप्यलीकवादी भुजग इब कस्यापि विश्वसनीयो न भवति प्राप्नोति चावर्णवाद, ततश्च पित्रोमातापित्रोरप्युटेनं ददातीति गाथार्थः ॥ १४७ ।। सत्यवादिनो गुणानाहआराहिजइ गुरुदे-वयं व जणिव जणइ वीसंभं । पियवंधवोव्व तोसं, अवितहवयणो जणइ लोए ॥१४॥
व्याख्या- अवितथवचन इह लोकेऽप्याराध्यते गुरुदेवात्रिय, जननीयद्विसम्भं जनयति, प्रियवान्धव इव तोपं जनयतीति । | गाथार्थः ।। १४८ ॥ इह सत्यवादो द्विधा-लोकोत्तरो लौकिकश्च, तवाय समर्थनार्थमाहमरणे वि समावडिए, जति न अन्नहा महासत्ता । जन्नफलं निवपुवा, जह कालगसूरिणो भयवं ॥१४९॥ ____ व्याख्या-मरणेऽपि समापतिते-ध्रुवमागते सति महासत्या नान्यथा जल्पन्ति, यथा नृपेण यज्ञरुलं पृटा भगवन्तः कालका- | चार्या इति । के पुनरमी १, उच्यते
भारते तुरमिणीनगयाँ जितशत्रू राजा, तत्र भद्राब्राह्मणीषुत्रो व्यसनी क्षुद्रो रौद्रो दत्तनामा, अन्यदा राजानं संवितुं प्रवृत्तः, क्रमेण सामन्तचक्रं वशीकृत्य जितशयु निर्वास स्वयं नृपीभूतः, यता-"उचयरमाणाण घिस जणाण विहडइ खलो खणद्धण । बुद्धाइदाणओ पो-सिओ वि सहचिय भुअंगो ॥१॥" जितशत्रुरन्यत्र गतः, दत्तस्तु वहून यज्ञान् वजने, अन्यदा
---
--
-
-
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
दसमातुला कालिकाचार्यस्तत्रागतः, दत्तस्तं यज्ञफलं पप्रच्छ, स च पशुवातप्रधानानां यत्रानां फल नरक' इत्याह, यतः प्रोक्तं व्यासेन
" ज्ञानपालिपरिक्षिले, ब्रह्मचर्यदयाऽभसि | स्लात्वाऽतिविमले तीर्थ, पापपङ्कापहारिणि ॥ १॥" " ध्यानानौ जीवकुण्डस्थे, दममारतदीपिते । असत्कर्मममिक्षेपैरग्निहोत्रं कुरुत्तमम् ॥ २॥"[युग्मम्] " कषायपशुभिर्दुष्ट-धर्मकामार्थनाशकैः । शममन्त्रहनेयज्ञं, विधेहि विहितं बुधैः ॥ ३ ॥" "प्राणिघातातु यो धर्म-मीहते मूहमानसः । स वाञ्छति सुधाष्टि, कृष्णाहिमुग्वकोटरात् ॥४।" इत्यादि ।
ततः कुपितेन खेनास्मिअर्थ का प्रत्ययः ? इति पृष्टो गुरुः 'सप्तमेति श्वमिस्त्रह तैलकुम्भ्यां तब क्षेप एव प्रत्यय' इत्याह ।। तत्रापि का प्रत्ययः' इति पृष्टस्तस्मिन्नेवालि प्रागेव स्वन्मुखे कृतोऽप्पशुचिप्रवेश इति । ततोऽतिक्रुद्धोऽसौ गुरुमाह-कस्स करे ते । मृतिः, गुरुराव-न कस्यापि, किन्तु सुचिरं चरिष्याम्यद्यापि व्रतमई । ततो गुरुं रोधयित्वाऽतिकुपितो राजा सशको गृहं प्रविश्य | स्थितः । इतवातिदुष्टत्वेन तेनोद्वेजितैः सामन्तैरतीय दृढ़ मन्त्रयित्वा जितशत्रुश्छन्नमानीतः । दत्तस्तु कोपयशात्सप्तममप्यष्टमं दिन मन्यमानोऽश्वारूढो यावद् गृहासन्नं मुनि जिघांसुर्याति, तावदश्वक्षुरोरिक्षमोऽशुचिलवस्तन्मुखे प्रविवेश । ततो नूनं दिनन्तिोऽहमिति । विचिन्त्य भीतो यावदश्वं पश्चाद्वालयति सः, नाचता 'कुतोऽपि मन्त्रो भिन्न' इति मन्यमानास्सर्वे सामन्तास्तं बन्धयित्वा गले च तस्य बहन शुनो बन्धयित्वा तसतैलकम्म्यां चिक्षिपुरधश्वानि ज्वालयन्ति, दयमानाः श्वानो नृपं खण्डशः कुर्वन्ति । एवं वेदनातॊ दत्तो नृपो । मृत्वा नरकाता, सूरिः पुनः सुचिरं विद्वत्य त्रिदिवङ्गतः । इत्ययितथजिनमतपरूपककालिकाचार्यकथानकमिति गाथार्थः॥
अथलौकिकसम्यग्वादसमर्थनार्थमाह
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
वसुनरवइणो अयर्स, सोऊण असचवाइणो किलिं । सच्चेण नारयस्स वि. को नाम रमिज ? अलियम्मि ॥ १५०॥
व्याख्या नरपतेयादन[अ] कीर्तिमतिशयेन श्रुत्वा अपिशब्दस्य व्यवहितस्य सम्बन्धात्, तथा नारदस्य सत्येन कीर्त्तिमपि श्रुत्वा को नाम रमेतालीके ?, न कोऽपीत्यर्थः । भावार्थः कथानकेनोच्यते -
चेदिविषये शुक्तिमतीपुर्यामभिचन्द्रे राज्ञि क्षीरकदम्बोपाध्यायान्तिके पुत्रपर्वतक- राजपुत्र सुनारदा वेदान् पठन्ति । अन्यदाऽऽकाशे गच्छतो मुनेर्मुखाद्वयोर्नरकगमनमेकस्य स्वर्गगमनं श्रुत्वोपाध्यायो विषण्णः परीक्षार्थं लाक्षारसभृतं कुकुटं पृथक् पृथक् प्रदत्वो| क्तास्ते 'यत्र न कविजानातीक्षते वा तत्रायं हन्तव्य' इति । बचो यसुपर्वतौ कचिच्छून्यगृहे तो हत्वाऽऽयातौ नारदस्त्वहतकुकुटविरं समागतो गुरुं नत्वोवाच- नास्त्येव स प्रदेशो यत्र न कश्विजानाति पश्यति वा, यतो यावत्सन्ति सर्वज्ञा अपि । ततस्तदितरयोर्नरकं निश्चित्य वैराग्याद्गुरुः प्रावाजीद् । पर्वतस्तस्थाने शिष्यानध्यायवति नारदः स्वस्थानं गतः, पितरि प्रबजिते व राज्यं शास्ति । इतश्व मृगाय मुक्ते बाणे स्खलिते सार्यकरस्पर्शादाकाशनिर्विशेषां स्फटिकरत्नशिलां नृपोचितां विज्ञाय चसुनृपायाख्यव्याधः, वसुश्च तामानाय्य प्रद्धको सिंहासनं तयाऽचीकर, शिल्पिनच जघान । आस्थाने च तस्मिन्भासने स्वयं निविष्टः, न चासनासने कोऽपि गन्तुं लभते । ततः सत्यादिगुणैर्वसुर्वसुमतीश व्योम्नि तिष्ठतीति प्रोच्छलितः प्रवादः । अन्यदा नारदो गुरौ गौरवाद्गुरुतमालोकयितुमायातः । अत्रान्तरे "अजैर्यष्टव्यमिति ऋग्वेदपदं नारदसमर्थ शिष्येभ्यः पर्वतो व्याख्यानयति, यथा--'अजा ' पशवस्तैर्यथ्यमिति । एतच्चाकर्ण्य कर्णौ पिधाय ऋषिणोक्तं-आः !! शान्तं पापमिति, यतो हन्त यदि पशुभिर्वज्ञो भवेत्तदा व्यासेन [पण्डितादिपुरुष] चतुष्टयलक्षणं कुर्वता यदुक्तं
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
चकमक
"धर्मात्मा पण्डितो ज्ञेयो, नास्तिको मूर्ख उच्यते । मर्वभूतहितस्साधु-रमाधुनिर्दयः स्मृतः ॥१॥" "वरमेकस्य सत्त्वस्य, प्रदत्ताऽभयदक्षिणा । न तु विप्रसहस्रेभ्यो, गोसहस्रमलकृतम् ॥ २॥" "सत्यं सत्यं पुनः सत्य-मुक्षिप्य भुजमुच्यते 'दाहिन नानादि सार्थ, परस्पा कुर्चतः ॥३॥"
इत्यादि, तद्विरुद्धथेत । न चाचार्यणाप्येवं व्याख्यातमिदं, किन्तु 'वप्तास्सन्तो न जायन्ते-न प्ररोहन्तीत्यजातिवार्षिका बीहयस्तै. यष्टव्य'मिति व्याख्यातं तैरिति । पर्वतस्त्वसम्बद्धवाक्यैनौरदमाशन 'अजैः-पशुभिर्यष्टव्यमित्येवोपाध्यायाख्यातं, अत्र च सहाध्यायी 5 वसुराजः प्रमाण, यद्यसौं त्वत्पक्षं गुरुसम्मतं मन्यते तदा सम्ला मे जिह्वा छिद्यते, अन्यथा तवे'ति प्रतिज्ञां चाकरोत् । नारदोऽपि । तदेव प्रमाणीकृत्य देवार्चादिनिमित्तं जगाम । ततो निशि निजमात्रा सहिन पर्वतो गत्वैकाकिने बमुराजाय तत्सर्वे छन्नमाख्यद्वसुरपि
यथा नारदः प्राह तथैव गुरुभिर्व्याख्यातत्वादयुक्तमुक्तं भवतेत्याह । ततश्वोपाध्यायभार्याऽऽग्रहात्पर्वतोक्तं समर्थनीयं मयेति राज्ञाSङ्कीकृते पर्वतो माता च तस्मा आशीर्वादं दत्वा स्वगृहं गतौ । प्रातः समागते पर्वते नारदे च मिलिते सबालवृद्धपुरजने कौतुकाविष
भवन[पतिज्यन्तरादिदेववर्गपाशीर्वादपूर्व पर्वतनारदाभ्यामुक्त स्वस्वपक्षे-- PL “घडमाईचं दिव्वं, लोए वि हु फुरह सच्चवाईणं । तो मोत्तुणं सच्चं, पसंसिमो? किमिह लोअमिम ॥१॥" । 5 तदनयोः पक्षयोर्यत्सत्यं तत्प्रसद्य निवेद्यतामिति ब्राह्मणवृद्धरभिहितेऽप्यविवेकतिमिरतरलिततत्वदृष्टिना राज्ञा व्यलीकोऽपि
पर्वतपक्षः सहसैव समर्थितः । तदैव च कुद्धया कुलदेवतया दत्वा पाणिप्रहारं पातितः सिंहासनानरपतिः क्षिप्तश्च पातालं। ततश्च आ! किमिदमिति भीतो लोका, प्रवृत्तः पर्वतकभूपयोस्सर्वत्र धिक्कारः, समुच्छलितो नारदस्य तु साधुकारः, विडम्ब्य निर्वासितो नगरा
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्वता, अभिषिक्तो राज्ये वसुभूपतेः पुत्रः, पितृव्यतिकरक्रुद्धया कुलदेवतया सोऽपि निपातितः । एवं परेऽपि सप्त चमूपुत्राः क्रमेण तदुर्णयत एव तथैव निपातिताः। अभिनिविष्टेन च पर्वतेन तत्प्रभृति यज्ञेषु सुतरां जीवघातः प्ररूपितः 1 वसुस्तु नरकं गतः । इति | वसुराजकथानकं समाप्तम् । अथ तृतीयव्रतपालनोपदेशमाह
अवि दंतसोहणं पि हु, परदव्यमदिन्नयं न गिण्हेजा । इहपरलोगगयाणं, मूलं बहुदुक्खलक्खाणं ॥१५॥ ____ व्याख्या--"अथी"ति कोमलामन्त्रणे, दन्तशोधनमात्रमपि परद्रव्यं न गृहीयात् । कथम्भृतमिदं ? इत्याह-इहपरलोकमताना | बिह] दुःखलक्षणां मूलमिति गाथार्थः ।। १५१ ॥ इदमेव समर्थयबाह४ तइयव्वए दढत्तं, सोउं गिहिणी वि नागदत्तस्ल । कह तत्थ होति सिढिला, साहू कयासव्वपरिचाया ?॥१५२॥
___ व्याख्या-तृतीयत्रते दृढत्वं गृहस्थस्यापि नागदत्तस्य श्रुत्वा तत्र-तृतीयव्रते कृतसर्वपरित्यागा साधवः कथं शिथिला भवन्ति ?, प्रायो गृहस्थ: सुवर्णधनादिषु गृद्ध एव स्यात् नथापि नागदत्तस्य तृतीयत्रते दृढत्वं, तर्हि तसर्वसावद्यपरित्यागाः माधवः कथं न नत्र | दृढा भवेयुरिति भावः । कः पुनस्तृतीयव्रते दृढो नागदत्तः?, वाणारस्यां जितारिनृपः, धनदत्तः श्रेष्ठी, धनश्रीः प्रिया । तयोः पुत्रो
नागदत्तः सौभाग्यभाग्यकभूजिनधर्ममर्मज्ञः संसारासारताज्ञः, स्त्रगुणगणावर्जिता स्वयंवरत्वेनागता अपि चतुभाष्टिकलाकुशला अपि * महेभ्यपुत्रीन परिणयति । अन्यदा तत्र निवासि प्रियमित्रसार्थवाहपुत्री पुरुषद्वेषिणी नागबसुनाम्नी पुरादहिहेममणिमयजिनायतने
जिनाचा कुर्वन्त नागदत्तं दृष्ट्वा तं वरं प्रत्यज्ञास्त । तत्रैव पुरे यसुदत्तनामा आरक्षकस्तां दृष्ट्वा दृढानुरागः सार्थशादयाचत, ज्ञातप्रतिक्षेन
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ
पित्रा तस्मै नादायि सा | इतश्च राजपाटिकां गच्छतो राज्ञः कर्णात्कुण्डलमपतत् , बहुधा विलोक्यमानमपि न लेभे । अन्यदा रेणुच्छन्नं रागों नागान्तरन् दृष्ट्वा पकियोऽयमा गच्छन् वसुदत्तेन दृष्टः, ततः किमेतदिति तत्र विलोकयता कुण्डलं लब्ध्या नहि नागदत्ते जीवति नागवसुर्मा परिणेष्यतीति तस्यानर्थे हेतुं विचार्य पर्वणि पौपधप्रतिमास्थितस्य नागदत्तस्य गले तदधा राजे विज्ञप्तं, यथा-देव ! तत्कुण्डलं नागदत्तगले मया दृष्टं, राज्ञा तं तथावस्थमानाट्यानेकधा कुण्डलखरूपं पृष्टः, प्रतिमाऽन्तेऽपि
मा भूद्वसुदत्तस्थापकारिणोऽप्यनर्थ इति मौनेनास्थानागदत्तः। ततो रुष्टेन राज्ञा वध्यतयाऽऽदिष्टस्य विडम्यमानस्य अध्यभूमौ ग्रेषितस्य | तदुःखदुःखिताया नागवमुकन्यायाः सवेन तस्य च सत्येन धर्मप्रभावेण च शूलिका सिंहासनं प्रहाराचामरणान्यभूवन् । जिनशासने प्रभावना भूत् । राज्ञा नागदत्तः पूजितो वमुदत्तो निर्वासितः । नागदत्तोऽपि तथाऽनुरक्तां नाग(वसुं)श्रियं (1) परिणीय चिरं विषयानुपभुज्य प्रबज्य प्रियया सह स्वर्ग गतः, तौ क्रमान्मुक्तिं यास्थतः, इति तृतीयव्रते नागदत्तकथानकं समाप्तम् ।। 1 अथ चतुर्थव्रतपालनोपदेशमाह| नवगुत्तीहिं विसुद्धं, धरिज बभं विसुद्धपरिणामो। सव्ववयाण वि परमं, सुदुद्धरं विसयलुद्धाणं ॥१५३॥ मा व्याख्या-रूयादिवजिता वसतिः, तत्र देव्यो नार्यश्च स्त्रियः सचित्ताः, चित्रवास्तुरूपास्त्वचित्ताः, पशवो-गोमहिष्यादयः, Pा पण्डका:-खीनरसेविन:, एतद्विकारदर्शनाद्वाबाधा १ । स्त्रीणां कथा-एकाकिना धर्मदेशनादिरूपा "कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा
लाटी विवधप्रिया" इत्यादिका वा न कर्तव्या २ । स्वीमिः सबैकासने नोपविशेत् , उस्थितास्वपि मुहूर्त (यावत्र) तिष्ठन् , यदाह
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
" इत्थीहिं मलियसघणा-सम्मि तफासदोसओ जाणो । दूसेह मणं जहणो, कुठं जह फामदोसे गं॥१॥"३।। ___ तदिन्द्रियाङ्गोपाङ्गावलोकनत्यागः ४ । गृहस्थैः सह कुड्यान्तरितादस्थितिविरहः ५। पूर्वक्रीडितस्मरणाकरणं ६ । अतिरित्र
धाहारानभ्यवहरणं ७ । अतिमात्राहाराग्रहणं ८ । विभूषापरिवर्जन च ९। इत्येताभित्रभिर्युमिभिर्विशुद्धं, सर्वत्रतानामपि मध्ये | परम-प्रकृष्ट, विषयलुन्धानां सुदुर्द्धरं ब्रह्म विशुद्धपरिणामो धरेदिति गाथार्थः ।। १५३ ।। अस्य च सर्वत्रतोत्तमत्वमाह
देवेसु वीयराओ, चारित्ती उत्तमो सुपत्तेसु। दाणाणभयदाणं, वयाण बंभवयं परमं ॥ १५४ ॥
व्याख्या- देवेषु प्रसिद्धेषु यथोत्तमो वीतरागः, सुपात्रेषु चारित्रवान् , दानानां मध्येऽभयदानं, व्रतानां मध्ये तथा ब्रह्मव्रतं प्रधानमिति गाथार्थः ।। १५४ ॥ अधेतद्विरहितस्य व्रतादेरकिञ्चित्करत्वमाह18 धरउ वयं चरउ तवं, सहउ दुहं वसउ वनिकुंजेसु । बंभवयं अधरितो, बंभाविहु देइ मह हासं॥१५५॥
व्याख्या-व्रतं धरतु, तपश्वरतु, दुःख सहता, वननिकुनेषु बसतु, तथापि ब्रह्मयतं अधरन् , आस्तां अन्यो, ब्रह्मापि मम हास्यमेव ददातीति गाथार्थः ॥ १५५ ।। अथैतद्वयतिरेकस्य सर्वदुःखप्रभवत्वमाह18 जं किंचि दुहं लोए, हइपरलोउब्भवं पि अइदुसहं । तं सव्वं चिय जीवो, अणुभुंजइ मेहणासत्तो ॥१५॥
व्याख्या--यत्किञ्चिदुःखं इह-परलोकोद्भवं अतिदुस्सहमपि, तत्सर्वमेव मैथुनासक्तो जीवोऽनुभुक्त इति गाथार्थः ॥१५६।। दृष्टान्तद्वारेणैतत्समध्याह
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंदंतु निम्मलाई, चरियाई सुदंसणस्ल महरिसिणो। तह विसमसंकडेसु वि, बंभवयं जस्त अक्खलिय॥१५५ है व्याख्या--सुदर्शनस्य महःनिर्मलान्यद्भूतानि चरित्राणि नन्दन्तु । यस्य, तथेति प्रसिद्धौ, स्खलनाहेतुत्वाद्विपमेषु सङ्कटेवा
ब्रह्मवतमस्खलितं, अत्राय वक्ष्यमाणश्च सुदर्शन-स्थूलभद्रयोर्गुणस्तुतिपदप्रणतिद्वारेणोपदेशस्तयोरसममहासत्वविस्मितेन शास्त्रकारे निषद्ध इति गाथार्थः ।। १५७ ।। कः पुनरयं सुदर्शनमहर्षिः १, उच्यते-- | अङ्गदेशे चम्पापुर्या दधिवाहनो राजा, ऋषभदासः श्रेष्ठी, अईदासी भार्या, तयोर्महिषीपालका सुभगाख्यो दासो हेमन्तेऽटव्य | कायोत्सर्गस्थं चारणश्रमणं दृष्ट्वा जातभक्तिर्महिषीश्वरन्ती मुक्त्या सर्व दिनं तं पर्युपास्ते । सायं पुनस्तं नत्वा ताभिः समं गृहं गत का साघोर्गुणान्स्मरन्कथं सकलां रात्रिमेतादृशं शीतं स सोदेति चिन्तयन् सकलां रात्रि निद्रामलभमानः प्रातर्महिषीं नीत्वा तत्र गतस्तं सा दी तथैव स्थितं पश्यति, तायता पारितोत्सर्गो "नमो अरिहंताण" भणनाकाशे उड्डीनः । स चेयमाकाशगामिनीविधेति जान
"नमो अरिहंता" इत्येवोच्चरन् भ्रमति, सर्वकार्याणि करोति । ततस्तस्य श्रेष्ठिश्रेष्टिनीभ्यामुपह्यमाणस्य भक्तिरपि तत्र जाता अन्यदा वर्षासु गङ्गाऽपरतीरे युध्यमानानां महिषीणां निवारणायाकाशगमनबुद्ध्या "नमो अरिहंताणं" उच्चरन्नुत्प्लवमान पतन्महाकीलकेनोदरे विद्धो मृत्वा तत्रैव ऋषभदासाईबासीपुत्रो दिव्यरूपलावण्यः सुदर्शननामाऽभूत् , तारुण्ये सागरदत्तश्रेष्टिपुत्र | मनोरमानाम्नी परिणिन्ये । पिता प्रव्रज्य स्वर्ग गतः । तस्य च द्वितीयारमा पुरोधाः कपिलः, तत्कान्ता कपिला सुदर्शनगुणोत्त श्रुत्वाऽनङ्गलाणविद्धा शिक्षयित्वा दूती प्रेषपति, सा चागत्य श्रेष्ठिनं प्राह-ननु कपिळो दायवरातों रतिमलभमानः क्षण सुखा
कार
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
KARANG
स्वामाकारयति । ततस्तयैव सह सुदर्शनस्तद्गृहं गतो यावदित इतो मध्येऽपवरके निर्याते ते वान्धव इति गुप्ते नीस्वा दत्त द्वारा तद्भार्या:
ह-न कपिलो न दाधज्वरः, किन्तु कपिलायाः कामज्वरप्रतीकारं कुरु प्रसादं । ततस्तदतिसङ्कट निस्तितीर्घः श्रेष्ठी प्राह-भद्रे! कि करोमि ?, दैवहतोऽहं पण्डकः, सुगुप्तमात्मानं जने रक्षामीति । ततो जातविरागा सा तं विसृजति । अथान्यदा कपिल-सुदर्शनसहितो राजा वसन्तक्रीडार्थ निर्गतः । पट्टराज्ञी अभया कपिला मनोरमाश्च शिविकारूढाः स्वस्वपरिवारोपगूढा निर्गताः । तदा च कपिलाऽभयामाइ-कस्येदं पुण्याधिकस्य स्त्रीरत्न?, गल्याह-सुदर्शनस्य, पुत्राश्चैते जयन्तोपमा इति । कपिला ग्राह-अहो!! पण्डकस्यापि पुत्राः?, राज्याह-कथं जनासि पण्डकः? | ततः सा पूर्ववृत्तान्तमाह । राशी हसति-धूर्तमन्यायि वश्चिताऽसि । ततः सा दूना प्राइज्ञास्यते ते वैदग्ध्य, यद्यनेन रिंग्यसे ग्मसे(१) । ततोऽभयानपतिज्ञा उपाय निचार्य पण्डितानाम्न्या धाच्या सुदर्शनप्रतिरूयं पुत्रक कारयित्वा सत्रिप्रथमयामे स्वान्ते आनाययति । किमेतदिति कञ्चुकिमिः पृष्टे देव्याः पूजनार्थ कामदेवं नयामोति पण्डिता प्राह ।
एवं प्रत्यहं क्रियमाणे विश्रब्धेषु तेष्वष्टम्यां पायधप्रतिमायां स्थितं सुदर्शनमानयति पण्डिता, कामप्रतिमेति न किञ्चित्पृष्टं कन्चुकिमिः । सततः पुरो मुक्तं तं कामातुराऽभया सर्वाङ्गालिङ्गनचुम्बनप्रार्थनपरिहाससीत्कारधिकारधूत्काराधनुकूमप्रतिकूलैः सर्वा शर्वरी न क्षोभ
यितुमलं । ततः प्रातःप्राये स्वं नखरुल्लिख्य सा पूत्करोति, राजा तत् श्रुत्वा तत्रागत्य सुदर्शने नदसम्भावयन् किमिदं ?, सत्यं बहीति तं पृच्छति, स तु मा भूदभयाया भयमिति मौनेनास्यात् । ततस्तत्रैव सुदीने व्यलीक निश्चित्य तं वश्यमादिनदयनीशः । ततस्तत्सा| मझ्या नीयमानं तं दृष्ट्वा मनोरमा परया भत्या जिनमभ्यर्च्य सामिग्रा कायोत्सर्गेऽस्थान् । इतश्च तस्याः सवेन स्वशीलमहिम्ना च पिण्यभूमौ शूलिका सिंहासनं प्रहाराश्चाभरणान्यभूवन, तज्ज्ञात्वा राजा तत्रागत्य तं क्षमयित्वा सिन्धुरस्कन्धमारोप्य महाविभृत्या |
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
| स्वगृहेऽधीत् । अमया बदुश्चरितभयेनात्मानमुखाध्य मृत्वा पाटलिपुत्रे व्यन्तरी जाता, पण्डिता तु पलाय्य पाटलिपुत्रेऽनुसमर्थ सुदर्शनरूपादीन वर्णयन्ती देवदत्तागणिकागृहे तिष्ठति । अत्रान्तरे गृहीतदीक्षं तत्रायातं भिक्षायै समेतं तं [सुदर्शन] देवदत्ताय उपालक्षयन , मा द्वारं पिघाय विविधवेश्याभावः सन्ध्यां यावदक्षुन्धं तं दृष्ट्वा पश्चात्तापेन प्रेतबनेऽमोचयन् । तत्र च कायोत्सर्गस्त सं दृष्ट्वा पूर्ववैरं स्मृत्याऽभयाच्यन्तरी सप्तदिनीमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गस्तं व्यडम्बयत् । तदन्ते च शुक्लध्यानात्तस्य केवलज्ञानमुत्पन्न शक्रादिभिर्महिमा कृता । देशनां श्रुत्वाऽभयाव्यन्तरी पण्डिता देवदत्ताऽपरेऽपि च बहवः श्राद्धधर्म केचित्साधुधर्म च जगृहुः एवं भवानव्यानुद्धविरं बिहत्य मीसुदर्शनकिवानिशीले जीवनदृष्टान्तः समाप्तः । ___ अत्रैवोदाहरणान्तरमाहवंदामि चरणजुयलं,मुणिणो सिरिथूलभद्दसामिस्स।जो कसिणभुयंगीए,पडिओ विमुहे न निडुसिओ॥१५ | व्याख्या-श्रीस्थूलभद्रस्वामिनो मुनेश्वरणयुगलं वन्दे, यो भगवान् मदनोद्दीपनविषमविषेण संयमप्राणापहारकत्वात्कृष्णभुज | कोशागणिका, तस्या मुखे-गोचरे पतितोऽपि न निर्दष्टो-न तद्विषपविषेण व्याप्त इति गाथार्थः ।। १५८ ॥ | श्रीस्थूलभद्र कश्यानकं ह्यावश्यकादिषु प्रसिद्धमेव, स्थानाशून्यार्थ तु किश्चिदुच्यते-पाटलिपुत्रे नन्दराज्ञो मन्त्री शगडाल
स्थूलभद्र-सिरियाख्यौ तस्य पुत्रौ, सिरियाविवाहावसरे पूर्व विरोधितेन वररुचिपण्डितेनोद्भावितं कपट, ततो जातकोपे नन्दे वि | प्रयोगादिना शगडाले मृते द्वादशकोटीकनकव्ययेन द्वादशवर्षाणि कोषागृहे वेश्यावासे क्सन्तं विषयदृलेलितं स्थूलभद्रमानार
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
| मन्त्रिमुद्रापरिधानायादिशनि नन्दः । विमृशामि इति तेनोक्ते राजा प्राह-अत्रैव भमाशोकयने विमृशेति । ततः श्रीस्थूलभद्रस्तत्र गत्वा धर्मार्थकाममोक्षधमधिकारं विमृश्य पितृपञ्चत्वचरितं च चिन्तयन् पैराग्यरङ्गतरङ्गितः पञ्चमौष्टिक लोच कृत्वा रत्नकम्बलं प्रावृत्य तस्यान्नैः कृतरजोहरणो नन्दनपं धर्मलामयिका श्रीमार्यविजयसम्भूति श्रीआर्यसम्भूतिविजय हस्ते प्राबाजीत् । क्रमाद्गीतार्थी गुरुभिः सह कदाचित्पाटलिपुत्रे समागतः । वर्षासु सिंहगुफा-सर्पविल-कूपकाठेपु कायोत्सर्ग स्थातव्यमिति मुनित्रयेऽभिग्नई गृहति कोशाऽऽवासवसनाभिग्रहमग्रहीमधूलभद्रः । नवसनि याचित्या चोपवने स्थितः । यथाप्राप्तं पसः पविकृतिभिरप्यनुदिनं मुझे। ततः पङ्गिकृत्याहार केकि चातक दरारावे विद्युद्गर्जनकोशाप्रकाशितहावभावादिद्रव्यक्षेत्रकालभांवरक्षुब्धे तस्मिन्नुपशान्ता सा|| | भगवन्तं प्रशंसति । सोऽपि तथा तामुपदेशैरनुगदाति यथा विषयविमुखा राजदनादन्यनरपरिहाराभिग्रहं जग्राह सा । इतश्चतरो मासानिगहारं तपस्तप्त्या सिंहगुहादिवासिनः समायाताः, प्रत्येकं वागतं दुष्करकारकाणामिति यदादिरीपदभ्युत्थानेन सम्भाविता गुरु-- भिः । स्थूलभद्रस्त्वतिसम्भ्रमेणाम्युत्थितः सादरतरं स्वागतं भणिती दुष्करदुष्करकारकइति प्रशंसितश्च । तत इतरे प्रयोऽपीयान
लतर्जिताश्चिन्तयन्त्यही!! वेश्यागृहे सुखं स्थितोऽपि नित्यं विग्धभोज्यपि सर्वाङ्गोपचितोऽप्यमात्यमुतत्वाद्यथाऽसावादरेण दृष्टो न| सनथा वयं तथाकतकष्टा अपि । अथ चागते द्वितीपवर्षाकाले गुरुभिर्निवारितोऽपि स्थूलभद्रमत्सरेण गृहीत्वाऽभिग्रह सिंहगुहानिवासी
गतः कोशागृह, मार्गता वसतिदेना च तस्मिन्नेयोपबने सा नया । प्रशान्तचिता च सा विभूषिताऽप्यविभूषिता वा प्रतिदिनं तं यः || दन्ते । ततोऽतीवोदाररूपायां तस्यां जातपरिणामीऽन्यस्मिन् दिने स तां प्रार्थयते । ततोऽहो!! महानुभावस्य कर्मपारतन्ध्यं, तदुपायेन /प्रतिबोधयामीति विचिन्त्य तयोक्तं न वेश्यानां धर्मलाभा, किन्तु द्रव्य(द्रम्म)लाभोऽयः, तघद्यस्माभिरर्थस्तहि नेपालनृपेणापूर्व
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधवे दीयमानं लक्षमूल्यं रवकम्बलं स्वमप्यानय । ततः स कामतृष्णया वर्षास्वपि तथाकरोत्। दत्तव रत्नकम्बलस्तस्याः करे, क्षिप्तथ तया तदैव क्षाले । ततः साधुराह - सत्यं मुग्धाऽसि यदेवं कष्टेनानीतोऽप्येतादृग्रनकम्बलो मलक्लिन्ने क्षाले क्षिप्यते । साऽप्याह-ज्ञातं ते वैदग्ध्यं यदनन्तभव भ्रमणदुर्लभं चारित्रचिन्तामणिरत्नं सर्वथाऽशुचिस्त्रीशरीरेषु क्षिपसीत्यादि । तद्वचनाञ्जातविवेकविकाशः साधुभणति साधु भणितं, मिथ्या मे दुष्कृतं स्यात् सर्वे । साऽपि साधुं क्षामयति । साधुरपि गुरुसकाशं गत्वा तं नत्वा स्वापराधं क्षामयति, श्रीस्लभद्रं प्रशंसति, प्रायश्वितं गृह्णाति । स्थूलभद्रस्वाम्यप्युपभद्रबाहुस्वा मियादमर्थतो दशपूर्वाणि, सूत्रतस्तु सर्वाणि पूर्वाण्यधीत्य प्राप्ताचार्यपदः स्वर्गङ्गतः । तदेवं परैरपि साधुभिर्दृडशीलै भव्यिमिति श्रीस्थूलभद्रकथानकं समाप्तम् । अथ परिग्रहव्रतपालनोपदेशमाह - as aहसि कवि अत्थं, निग्गंथं पत्रयणं पवण्णो वि । निग्गंधत्ते तो सा-सणस्स मइलत्तणं कुणसि ॥ १५९ ॥
व्याख्या --निर्ग्रन्थं प्रवचनं यतिधर्मलक्षणं प्रपन्नोऽपि यद्य वहसि ततो निर्ग्रन्थत्वे विषयभूते शासनस्य मालिन्यमेव करोषि । निग्रन्थत्वं मुनीनां वाङ्मात्रमिति लोका मणिष्यन्तीत्यर्थ इति माथार्थः ॥ १५९ ॥ [ ननु ] भवत्वेवं, को दोष: ? इत्याह--- तम्मलणा उ सत्थे, भणिया मूलं पुणब्भवलयाणं । निग्गंथो तो अत्थं, सव्वाणत्थं विवज्जेज्जा ॥ १६० ॥ व्याख्या -- तन्मलिनता पुनः क्रियमाणा पुनर्भवलतानां - पुनः पुनस्संमात्पलिनां मूलं कारणं भणितं शास्त्रे, तद्यथापावइ तित्थयरतं, जीवो जिणसासणं पभावतो । तं चैव य महतो, भमइ भवे भीसणदुहस्मि ॥ १ ॥ ततो निर्ग्रन्थः सर्वे अनर्था वधबन्धादयो यस्मात्तं सर्वानि वर्जयेदर्थमिति गाथार्थः ।। १६० ।।
6
५७
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आस्तां तावदर्थसङ्ग्रहस्तत्प्रतिबन्धोऽयुपार्जनाद्याग्रहरूपो न कार्य इत्याह--- जइ चक्रवद्विारिद्धिं,लवं पिचयंति केइ सप्पुरिसा। को तुज्झ असंतेसु बि, धणेसु तुच्छेसु पार्डबधी?॥१६॥
व्याख्या--यदि विपुलां चक्रवर्तिन ऋद्धि-लक्ष्मी लब्धामपि-विद्यमानामपि केचित्सत्पुरुषा भरतादिवत्यजन्ति तहि सायो :कस्तवायत्स्वपि धनेषु तुच्छेष्वमारेषु प्रतिबन्ध-उपार्जनाद्याग्रहः ? इति गाथार्थः ॥ १६१ ।।
कितावद्विभृत्यां, शरीरेऽपि केचिदासबसिद्धिका ममत्वं न कुर्वन्तात्या:---- वहवेरकलहमूलं, नाऊण परिग्गहं पुरिससीहा। सरीरे वि ममत्तं, चयंति चंपाउरिपहव्व ॥ १६२ ॥
व्याख्या-परिग्रहं वधवैरकलहानां प्रसिद्धानां मूलं ज्ञात्वा पुरुषसिंहाचम्पापुरीप्रभुरिव स्वशरीरेऽपि ममत्वं त्यजन्तीति गावार्थः॥१६२| | तत्कथानकं पुनरिदम्---चम्पापुर्या किर्तिचन्द्रनृपस्तदनुजः समरविजयो युवराजः । अन्यदा वर्षाकाले यातायनगतेन प्रासादतलाग्रे वहन्ती कल्लोलिनी निरक्ष्य कौतुकाभिजवन्धुना समं बेडामारुह्य मन्त्रिसामन्तादिवेडाकलितस्तत्र क्रीडित लमः । तावत्स कोऽपि नदीप्रवाहः सभागात्, येन द्रोणयोऽन्यान्यदिक्षु क्षिप्ताः, सर्वोऽपि पुरीलोको निष्कासनाय मिलितस्तावन्नृपद्रोणी अदर्शनं गता, | नदीवेगेन दूर नीता । ततो दीर्घतमालाभिधाटव्यां क्वचित्तरूमूले लमा नृपद्रोणी, उत्तीर्णः सबन्धुपः कतिपयपरीकरकलितः, तीरे यावद्विश्राम्यति तावनदीखाततटस्थं निधानं ददृशे । तल्लोभादनुजो नृपं हन्तुं दधावे । परिच्छदेन मिलित्वा निवारितो निर्वासि-र तश्च । अन्यदा केवलिपार्श्वेऽनुजप्राम्भवं नृपोऽपृच्छत् , केवली प्राह-अत्र जम्बूद्वीपे महाविदेहेषु मङ्गलावतीविजये सुगन्धिपुरे मदना
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
| भिधश्रेष्ठिपुत्रौ सागरफरङ्गनामको महापरिग्रहो जातौ । बहुलोमादनेक्सपापव्ययसायान् कारं कारं शतसहस्रलक्षकोटिलामे लोभादनुजो ज्येष्ठं जपान, जातस्तृतीयनरके । द्वितीयोऽपि मृत्वा पञ्चमी पृथिवीं गतः । ततो राजन् ! भवं भ्रान्त्वा नानारूपो सुदुःखितो कथश्चित्कर्मयोगादञ्जनागरी सिंही जाती । तत्राप्येकगुहार्थे परस्परं युध्या मृतौ चतुर्थ नरकं गतः । ततः सो जाता। तावप्येकानधिकृते युध्वा मृतौ पञ्चमं नरकं गनौ । ततो बहुभयस्यान्ते एकस्य धनिनो गृहे कलत्रत्वं प्राप्ती, तयोः पृथक् पृथक् पुत्रोऽभवत्। भर्तरि मृते
धनार्थ कलद्देऽतिरोषेण शस्वयंच्या मृता विमुख्य तद्वितं पुत्रगेहादि चोत्पत्रौ षष्टे नरके, ततो बहुभवात्यये एकस्य नृपस्य पुत्री जातो, ID तत्राप्युपरते राजि राज्याथे परस्परमतिमंरम्भ कृत्वाऽन्योन्यनिहती जाती तो सप्तमावनी । ततः पुनर्भवे परिग्रहस्यार्थे नानास्थानेष्वा
पदो लब्ध्वा न कापि स्वयं स्वीयः परिग्रहो भुक्तः । इतः पूर्वं भवेऽज्ञानकष्ट तथाविधं विधाय सागरस्त्वं समुत्पन्नः, त्वद्धाता तु कुरङ्ग संज्ञः, मोऽद्याप्येकवारं तव बाधां विधास्यति, भवानाराधको राजन् ! तृतीयभवसिद्धिकः, भवद्धाता त्वनन्त भवं भ्रमिष्यति । इति श्रुत्वा संविग्नो निजभागिनेयस्य हरिसिंहस्य राज्यं दत्त्वा च राजा प्राबाजीत् । नवपूर्वधरः स्वदेहेऽपि निस्पृहः प्रतिपन्नजिनकल्प क्वचिदुद्याने कायोत्सर्गस्थोऽनुजेन दृष्ट्वा ज्वलितकोपेन खड्गेन हृतः सहसारे कल्पे समुत्पन्नः । नतच्युतो विदेहेषु सेत्स्यति | इति कीर्तिचन्द्रनृपाख्यानकं समाप्तम् । अथ रात्रिभोजनविरमणपालनोपदेशमाह... पञ्चक्खनाणिणो वि हु, निसिभत्तं परिहरंति वहमूलं । लोइयसिद्धतेसु वि.पडिसिद्धमिणं जओ भणिय॥१६
व्याख्या---प्रत्यक्षं अवधि मनःपर्याय केवलरूपं ज्ञानं येषां ते प्रत्यक्षबानिनः । इन्द्रिग्रजम्याम्मदादीनां घटपटादिज्ञानस्य र
Media
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहारमात्रेणैच प्रत्यक्षत्वात् । ततः केवल्यादयः प्रत्यक्षज्ञानिनोऽपि निशि-रात्री भोजनमाश्रित्य भक्तं परिहरन्ति कुतः इत्याह-यतो वधस्य जीवघातस्य मूलं कारणं तत्, केवल्यादयः कुन्ध्वादिजन्तून् भक्तगतान् पश्यन्तोऽपि तेषां वधस्य परिहर्तुमशक्यत्वाद्रात्रौ न भुञ्जते, तर्हि तान् जन्तून् द्रष्टुमप्यशक्नुवन्तोऽस्मदादयः कथं भुञ्जते ? इति भावः । किञ्च लौकिक सिद्धान्तेष्वपि प्रतिषिद्धमिदं रात्रिभोजनं, यतो भणितं तेष्विति गाथार्थः ॥ १६३ ॥ किं तदित्याह---
१ ॥
२ ॥
३ ॥
४ ॥
भादसंभूयं भाणुं जंपति बेयवी । पुढं करेहिं तो तरस, सुभं कर्म समायरे ॥ रिसिहिं भुतं मझहे, पुचपहे तियसेहि य । अवरण्हे पियरेहिं सायं भुजंति दाणवा ॥ संझार जक्रखेहिं, भुत्तमेवं जहकमं । सबवेलामइकम्म, राओ भुत्तमभोगणं ॥ बाहुई न य पहाणं, न सद्धं देवयचणं । दाणं वा विहियं राओ, भोयणं तु विसेसओ ॥ aratist लोकाः स्त्र्यादीनामुपकाराय प्राकृतत्वेनोक्ताः स्मृतौ त्वेत एव संस्कृतास्तद्यथा-ब्रह्मादितेजस्सम्भूतं भानुं वेदविदो विदुः । स्पृष्टं करस्ततस्तस्य, शुभं कर्म समाचरेत् ॥ मध्याह्ने ऋषिभिर्भुक्तं पूर्वाह्न त्रिदशैस्तथा । अपराह्ने पितृभिर्मुकं, सायं भुञ्जन्ति दानवाः ॥ " यक्षरक्षोभि-मुक्तमेवं यथाक्रमं । सर्वबेलामतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ नैवाहुतिने च स्नानं न श्राद्धं देवताऽचनं । दानं वा विहितं रात्री भोजनं तु विशेषतः ॥ पासिद्धा एव । यदि लौकिकैरपीदं निषिद्धं ततः किम् ? इत्याह
१ ॥
२ ॥
३ ॥
66
४ ॥
""
"
"
31
39
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
साइय अन्नाण वि वज्ज,मिसिभत्तं विविहजीववहजणय छज्जीबहियरयाणं,बिसेसओ जिणमयट्रियाण॥१६
व्याख्या-इत्युक्तनीत्या अज्ञानामपि-सभ्यस्त्रानरहितत्वेन घिग्वर्गादीनामपि बर्थ-वर्जनीयं निशिभक्तं, यतः, कसम्भृतम् स्त्याह-विविधानां कीटिका-पतङ्गादिजीवानां वधजनक. ततः पजीवनिकायेषु रक्षणादिद्वारा हिनरतानां जिनमतस्थिताना विशेषता दर्जनीयमिति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ अथ रात्रिभोजिनामैहिकामुष्मिकानपायानाह| इहलोयम्मि वि दोसा, रविगुत्तस्सव हवंति निसिभत्ते।परलोए सविसेसा, निहिट्ठाजिणवरिंदेहि ।।१६५ ___व्याख्या-रविगुप्तस्येव निशिभक्त इहलोकेऽपि दोषा मक्षिकादिभक्षणाद्वान्त्यादयो भवन्ति । परलोके पुनः सविशेषा-बहुता नरकादिगतस्य तप्तत्रपुपानादयो दोपा जिने[जिनवरेन्द्र निर्दिष्टा इति गाथार्थः ॥ १६५ ।।
कोऽसौ रविगुप्तः ? उच्यते-उज्जयिन्यां महेन्द्रदेवश्रेष्टिसुतो रविगुप्तः, स च विषयगृद्धो यौवनगर्वितो निशिभोजनेऽत्या रक्तः, चतुष्पवादिष्वपि सकलां रात्रि मुद्धामस्तिष्ठति, श्रावकाग्निन्दति, यदेते बराका रात्रिभोजनरमानभिज्ञा इति, स्वजनान्निन्दति अन्यदा पितर्युपरते गृहस्थापि स्वामी जातः । ततो निश्शङ्कः सविशेष पापान्याचरति, यज्ञेषु पशुधातं करोति । अचान्यदा रात्रि भोजनाज्जातरोग आर्तध्यानेन मृत्वा तृतीयपृथिव्यां समुत्पन्नः, तत्र छेदनभेदनताइनकर्तनदहनादीनि दुःखानि निशिभक्तं स्मारयित्व स्मारयित्वा अनिशमुत्पाद्यमानानि विषा तत उद्धृत्तोऽनन्तं संसार भ्रान्त्वा रात्रिभोजनार्जितं बहुदुःख क्षुधापिपासादि सहमानोऽनन्त भवप्रान्ते काम्पिल्यपूरे मधुनाम्नो विप्रस्य पुत्रो वामदेवनामा जातः । तत्रापि गृद्धो रजन्यां भङ्क्ते । अन्यदा श्रावकैमित्रपिवाहार्थ नीत
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम
एकस्मिन् मार्गग्रामे रात्रिमुषिता यज्ञयात्रिकाः । तत्र च श्रापका यावन भुञ्जते तापद्वामदेव उपहमति-रात्रौ यदि भवतां गले कवलो 5 विलगति तहि न भोक्तव्यं, अहं तावद्भोये। ततस्तनिमित्तमुपस्कृतः कूरः, महानसे भ्रमन् धूमब्याकुलः कृष्णाहिपोतस्तद्भाजनमध्ये पच्य
मानः खण्डशो जातस्तेनाद्धभुक्तेन यः, तत्क्षणमेवासी विषेण व्याप्तो भूमौ पतितः, नत आसन्न दशपुरनगरे गारूडिकपार्श्व नीतः, कथं ऋथमप्यनिक्लेशेन जीवितः संवेगं प्राप्तः. श्रावकैः करुणया केवलिपार्श्व नीतः। भगवता कर्मशत्रुसंहारिणी कता देशना, प्रोक्तश्च रात्रीभोजनात्याग्भवेषु एवंप्रकारेण बहनरकादिरोगदारिद्रयादिदाखभाग्जातस्त्वं, नतस्तदाकर्ण्य संविग्नसंसारभीरुवामदेवो दीक्षां जिघृक्षः काम्पिल्यपुरं गत्वा निजपितुर्मधोः सर्वे गत्रिभोजनादिव्यतिकरं कथयिरवा बतार्थमात्मानं मोचितवान् । ततो मधुवियोऽपि मिथ्यात्वाविषे गर्ने प्रबजितुकामोजनि । ततः शीघं गृहीत्वा य, व्रतं केवलिनोऽन्तिके । युक्त्याऽनुपाल्य सम्प्राप्तीद्वावष्यमरसम्पदम् ।। १ ।।
। इति रविगुप्तकथा समाप्ता । तदेवं अलपट्कपरिपालनोपदेश दत्योपसंहरन्नाहअलमत्थ पसंगेणं, रक्खेज्ज महव्वयाई जनेण । अइदुहसमज्जियाई. रयणाई दरिद्दपुरिसोव्व ॥ १६६ ॥ al व्याख्या-अलमत्र बनोपदेशे प्रसनेन विस्तरेण, संक्षिप्ययोपदिश्यते, यथा रक्षेस्त्वं महाग्रतानि यत्नेन, क य कानि ! |
इत्याह-दरिद्रपुरुप इवातिदुःखसमर्जिनानि ग्नानीति गाथार्थः ॥ १७० ॥
।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्कथानकं पुनरेव - कौशाम्ब्यां कश्चिनिपुणोऽपि बुद्धिमानपि आजन्मदरिद्रः पुरुषो वसति स चान्यैरीश्वरैः स्वजनेश्वाभि भूयते, स्वोदरपूरणेऽप्यक्षमः ।
65
46
""
64
"
'जंपर दीणं छंद, चरे धणवंतयाण गेहेसु । कुण कुकम्मं न तहा, वि तस्स भोक्तुं पि संपट ॥ १ ॥ " ततः स्वं निन्दन् निर्विण्णश्चिन्तयति मरणमात्मनः । अथान्यदा भ्रमन् स क्वापि विद्यामठे प्राप्तः । तत्रेदं व्याख्यायमानमशृणोत्'जाई रूवं विज्जा, तिन्नि वि निवडंतु कंदरे विवरे । अत्थोचित्र परिवडूढउ, जेण गुणा पायडा होति ॥ १ ॥ 'वियुज्जोएण विणा, दारिहमहंधयारपिहिमाई | सगुणग्धवियाइ वि, नज्जेति न पुरिसरयणाई || २ || धणजीविएण मु# दरिदमयं अमंगल भएण । न छिवंति नृणं धणिणो, दरेणं चित्र परिहरति ॥ ३ ॥ " 'तम्हा अजिगह धणं, पयत्तओ जेण विबुहाई । अणहुतये पि पावहु, गुणनिवहं सयललोयस्मि ॥ ४ ॥ इत्यादि श्रुत्वा दरिद्रपुरुषेणोक्तं-जानाम्यहमेतदनुभवामि, परं तत्किञ्चिद्वदन्तु येनाहमपि धनमर्जयामि । तत उपाध्यायः प्राहrges समुद्र, योनिपोषणमेव च । प्रसादो भूभृतामेते, धन्ति शीघ्रं दरिद्रताम् ॥ १ ॥
64
१"
66
Of
गुरूणां च सेवा नैव निष्फला भवतीति मत्वा गुरुश्च जलधिरिति तस्यैव सेवा प्रारब्धा, त्रिकालं पुष्पाञ्जलिं क्षिपति विनयेन प्रणमति, वेलायां चटन्त्यां धावति निवृत्तायां निवर्त्तते एवं प्रभूतकालं क्लेशे कृते तद्विनयगुणाक्षितः सुस्थितो लवणाधि पस्तस्य प्रत्येकं लक्षमूल्यानि पञ्चरत्नानि ददौ सोऽपि तानि विनयेन गृहीत्वा एवं चिन्तयति मयाऽमूनि महाकष्टेन प्रभूतकालेना
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
|| जितानि, ततो गुरूपायेन स्वदेशं नेतुं युज्यते, इति तत्रैय कचिद्देशे तानि सुगुप्तानि कृत्वा रत्नाकाराणि पश्चोषलखण्डानि अपराणि |
गृहीत्वा कौशाम्बीमागे सर्वचौरपल्ल्यास इत्युच्चैर्वदन् प्रजति, विलोकयन्तु मम पञ्चरत्नानि २ । ततश्चौरा आगत्योपलान् वीक्ष्य । || निवर्तन्ते, नूनं पहिलः कोऽध्ययमिति मुश्चन्ति, इति कौशाम्बीसमुद्रयोरन्तरा निर्गमनागमनं चकार । ततः सर्वत्र ग्रहिल इति
कृत्वा पूत्कुर्वन्तमपि न गणयन्ति चौराः । सतस्तुर्यवेलायां निजजवायां रबानि गोपित्या वलितम्तेनैव नगराध्वना, आसन्नमेव जलं पियति, कन्दमूलफलादि च भुले, न पुनरे याति, अ()दृष्टपूर्वचौरभयात् । एवं कष्टेन रवान्यादाय स्वपुरी प्राप्तो विषयसुखभागी जातः । एवं पञ्चमहावतरत्नान्यपि मुनिः सुगुरुसमुद्राल्लब्ध्वा रक्षिता ज्ञानादिमान नयन रागादिचार मयाज्ञानादिमार्गस्सास तिष्ठन् अन्त. प्रान्तमशनाद्यास्वादयवृितिपुरी प्राप्तोऽनन्तसुखभागी स्यात् । इत्यादि शेषोऽप्युपनयो बुबैः कार्य: । इति दरिद्रपुरुषकथा समाप्ता। ||
अथ व्रतोपकारिणीनां समितिगुप्तीनामुत्सर्गतः परिपालनापदिदिक्षुराह---- ताणं च तत्थुवाओ, पंच यसमिईउ तिनि गुसीओ।जासुसमप्पइ सव्वं, करणिजं संजयजणस्स ॥१६॥
___व्याख्या-तेषां च महावतानां तत्र परिपालनेऽयमुपायः, कः ? इत्याह-पश्च समितयस्तिस्रो गुप्तयः, कुनः १ इत्याह-- ॥ यासु सिमितिगुप्तिषु पाल्यमानासु समाप्यते-समर्प्यते (?) सर्वमपि करणीय संयतजनस्य, समितिगुप्ती सम्यक् पालयतो महाग्रतानि ! I पालितान्येव भवन्ति, अतो प्रतपालनार्थिना एतास्वेव यत्नो विधेय इति भावः, इति गाथार्थः ॥ १६७ ॥
ननु सर्व संयतकरणीयमेतासु कथं समाप्यते ? इत्याह--
-
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवयणमायाउ इमा, निद्दिट्ठा जिणवरेहिं समयम्मि। मायं एयासु जओ, जिणभणियं पवयणमसेसं ॥ १६८
व्याख्या - इमाः समितिगुप्तयो ( प्रवचनमातरः ) निर्दिष्टा जिनवरैस्तीर्थकरैः समये - सिद्धान्ते, कुतः १ इत्याह-यत एतासु समितिगुप्तिषु मार्त-निष्ठाङ्गतं जिनभणितं प्रवचनं द्वादशाङ्गमशेषं, तथाहि--इर्यासमितौ प्राणातिपात विरमणव्रतभवतरति, तद्वृत्तिकल्पानि च शेषवतान्यतोऽत्रैवान्तर्भवन्ति, तथा सावयवचन परिहारतो निरवद्यवचनभाषणात्मिकायां भाषासमितौ निरवद्यवचनपर्यायः सर्वोऽप्यन्तर्भवति न च तहिर्भूतं किमप्यपरं द्वादशाङ्गमस्तीति । एवमेषणासमित्यादिष्वपि भावनीयम् । इत्यर्थतः सर्वमपि प्रवचनमिह मातमुच्यत इति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ अथैतासु प्रकारान्तरेण प्रवचनान्तर्भावमाह
सुयसागरस्स सारो, चरणं चरणस्स सारमेयाओ। समिईगुत्तीण परं न किंचि अन्नं जओ चरणं ॥ १६९ ॥
7
१
व्याख्या -- श्रुतसागरस्य सारः -- परमार्थश्वरणं चारित्रं, तदर्थमेव तत्प्रवृत्तेः । चरणस्यापि सारमेता एव कुतः ? इत्याह-समितिगुतिभ्यः परं न किञ्चिदन्यद्यतश्चरणमस्ति, अनुपयुक्तममनादिसावद्यविरतिरूपं हि चारित्रं, तच समितिगुप्तिभिरेव साध्यते, अतः स्थितमेतज्ज्ञानदर्शनाविनाभाविनि चारित्रे प्रवचनमवतरतीति चारित्रं समिति गुप्तिषु इत्येतासु प्रवचनं मातमुच्यत इति गाथार्थः ॥१६९
काः पुनस्ताः समितिगुप्तयः ? इत्याह
इरियाभासाएसण - आयाणे तह परिद्वत्रणसमिई । मणवयणकायगुती, एयाओ जहक्कमं भणिमो ॥ १७० ॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
SA:
व्याख्या--'सम्यम् अहंद्वचनानुसारेण 'इतिः' आत्मनश्चेष्टा समितिरिति तान्त्रिकी संज्ञा । समितिशब्दस्य सर्वत्र योगादारणा , गमनरूपा चेष्टा, सद्विपया समितिरीर्यासमितिः। (एवं) भापासमितिः एषणासमितिः । 'आयाण ति एकारस्थालाक्षणिकत्वाद्देशेन च समुदायगमनादादानं-पीठफलकादेग्रहणं, निक्षेपणं-तस्यैव मोचनं, तद्विपया समितिरादाननिक्षेपणासमितिः । तथा परिष्ठापनसमितिरित्येताः पञ्च समितयः । अथ तिखो गुतिराह-'मण' इत्यादि, चेष्टादिषु गोपनं गुप्तिः, सम्यग्योगनिग्रह ।। | इत्यर्थः । गुप्तिशब्दस्थापि प्रत्येकं सम्यन्धान्मनोविषया गुप्तिर्मनोगुप्तिः, एवं वाग्गुप्तिः कायगुप्तिः, एताः समितिगुप्तपतीः (१, प्रत्येक किश्चिद्विस्तरतो यथाक्रम भणाम इति गाथार्थः ॥ १७० ॥ . तत्रोर्यासमिति तावदाह---
आलंबणे य काले, मग्गे जयणाएँ चउहि ठाणेहि। परिसुन्दै रियमाणो, इरियासमिओ हवइ साहू ॥१७॥ - व्याख्या-विभक्तिव्यत्ययादालम्बनेन कालेन मार्गेण यतनया च, एतैरेव चतुर्भिः स्थानैः परिशुद्ध रीयमाणः-पर्यटन्नीर्यासमितिमान् साधुर्भवतीति गाथार्थः ।। १७१ ॥ आलम्बनादीन्येय व्याचिख्यासुराहनाणाई आलंबण-कालो दिवसो य उप्पहाविमुक्को।मग्गो जयणा य पुणो,दव्वाइ चाउव्विहो इणमो॥१७२|___ व्याख्या-आलम्ब्पत इत्यालम्बनं, यदालम्ब्य यतीनां गमनमनुज्ञायते, तञ्च 'नाणाइ'त्ति ज्ञानदर्शनचारित्ररूपमित्यर्थः ।। ज्ञानप्रयोजनेन पाठार्थित्वादिना, दर्शनप्रयोजनेन तस्थिरीकरणार्यवादिना, चारित्रअयोजनेन तदुपष्टम्भकाशनपानार्थिवादिनव । | साधुना स्त्रोपाश्रयाभिर्गन्तव्यं, न राजाधवलोकनादिनिमित्त निरर्थकं चेति भावः । कालश्च साधुपर्यटनविषयत्वेन दिवसो, न रात्रिः,
HANT
T
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्यां चक्षुर्विषयत्वादिभ्यः पुष्टालम्बनं विना गमनं निषिद्धमिति भावः । मार्गस्तु साधुगमनविषयत्वेनोत्पथविमुक्तो द्रष्टव्यः, उत्पथगमने आत्मविराधनादिदोषप्रसङ्गात् । यतनां पुर्नद्रव्यादिविषया चतुर्विधा 'इणमो'ति इयं वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ।। १७२ ।। तदेव चातुर्विध्यमाह
जुगमित्तनिहियदिट्ठी, खेत्ते दव्वम्मि चक्खुणा पेहे। कालम्मि जाव हिंडइ, भावे तिविहेण उवउत्तो ॥१७३॥
व्याख्या - यदा युगमात्रक्षेत्रन्यस्तदृष्टिः पर्यटति तदा क्षेत्रे क्षेत्रविषया यतना कृता भवति, अत्यासस्य दृष्टस्यापि कस्यचि - ज्जीवादे रक्षितुमशक्यत्वात् युगमात्रात्परतस्तु सूक्ष्मजीवादेष्टुमशक्यत्वामाग्रहणं । द्रव्ये द्रव्यमाश्रित्येयं यतना, यथा चक्षुषा प्रेक्षेत, जीवादिद्रव्यमिति गम्यते । कालतस्तु यावद् हिण्डते तावत्कालमानं सर्वामपि द्रव्यादियतनां करोति । यत्तु त्रिवि - धेन मनसा वाचा कायेन चोपयुक्तः पर्यटति सा भावतो यतना । इह च गाथाबन्धानुरोधात् द्रव्यपतनामुत्सृज्य क्षेत्रयतनायाः प्रथमसुपन्यासः कृत इति गाथार्थः ।। १७३ || उपयुक्तत्वमेव व्यक्तीकुर्व आह
हो करतो, हसिरो सद्दाइएस रज्जंतो । सज्झायं चिंतंतो, रीएज्ज न चक्कवालेणं ॥ १७४ ॥ व्याख्या- ऊर्ध्वमुखः, कथासु- वार्त्तासु रक्तो, हसन, शब्दादिषु रज्यन-रागं कुर्वन, स्वाध्यायं चिन्तयन, तथा चक्रवालंवार्ताकथनाद्यर्थं कुण्डलकविरचनं, तेन च न रीयेत, किन्तु ज्येष्ठोsयतः शेषास्त्वनुज्येष्ठादिक्रमेणोपयुक्ताः पृष्ठतः इत्येवमेव
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
जरीयेतेत्यर्थः । अत्र चोर्ध्वमुखादिविशेषणैर्यथासम्भव कायवाङ्मनोऽनुपयुक्ततानिषेधः कृतः । उपलक्षणस्वाच्छब्दादिषु द्वेषादयोऽपीह |
निषेद्धव्या इति गाथार्थः ॥ १७४ ।। अथोदाहरण द्वारेणातीवेर्यासमितिपालनपरैर्भाव्यमित्युपदेशमाहतह होज्जिरियासमिओ, देहे वि अमुच्छिओदयापरमो।जह संथुओसुरोहि,वि वरदत्तमुणी महाभागो ॥ ___ व्याख्यातर्यासमितो भवेत् देहेऽप्यतिनयायां परीक्षा नियन्तुलोपदनिर्महाभाग इति गाथार्थः ॥१७५
का पुनर्वरदत्तमुनिः? उच्यते-क्यापि गच्छे वरदत्तमुनिहाचारित्री स्वशरीरेऽपि निस्पृहः प्रशमैकभावितः, विशेषत ईर्यासमितः, प्राणान्तेऽप्यनुपयुक्तो न गच्छति, अन्यदा शक्रेण सुरेषु तस्येयां प्रशसिता, देवैरप्यक्षोभ्यत्वमुक्तं । तत्रैको मिथ्यादृष्टिसर:"कस्स न बल्लहं नियय-जीविय ? भरणभीए लोए। किंत वियारो न खमा, निउणाण विभतिभरिएसु ॥१॥"
इत्यादि चिन्तयित्वा तं चालयितुमागात् । तेन साधोबिचारभूमौ गच्छतो मार्गे मक्षिकाप्रमाणा निरन्तरा मण्डकिका विहिताः। ४ पृष्टितो मतो गज आनीतो, लोकैनश्यहितोऽपि साधुन पश्चाद्विलोकयति, न च गति मिनत्ति, उपयुक्त ईयों शोधयति | चिन्तयति च रुष्टो गजो मामेकं हनिष्यति, अहं तु धावनितयतीनां याताय भविष्यामीतीयांशोधयतो यद्भवति तद्भबत्विति, तावद्गजेनी. पाट्य से क्षिप्तः पतन् स्वदेहं मण्डकीपातकारिण] निन्दन पविधजीवान् क्षामयन् पुनःपुनर्मिध्यादुष्कृतं भणभवगणितमरणभयः सुरेण ज्ञातः प्रत्यक्षीभूय प्रशंसितः, शक्रप्शसाव्यतिकरं उक्त्वा क्षामयित्वा सुरः स्वर्गमगात् । इति देवः स्तुतोऽपि गतगर्वो विजहार । इति वरदत्तमुनिकथा समाप्ता।
अथ भाषासमितिमाह
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोहाइहिं भएणव, हांसेण व जो न भासए भासं । मोहरिविगाहिं तहा, भासासमिओ स विष्णेओ ॥ १७ orrent - 'क्रोधादिभिः' क्रोधमानमायालो भैश्चतुर्भिः भयेन वा हास्येन वा, तथा मौखर्यविकथाभ्यां च यो भाषां न भाषते, किन्तु हितमितनिरवद्यगुणोपेतामेव भाषत इत्यर्थः, स भाषासमितो विज्ञेयः । एतैस्त्वष्टमिः स्थानैराविष्टः सत्यमपि वदभिचयतो मृषावाद्येव स्यादिति गाथार्थः ॥ १७६ ॥ अत्रैव किञ्चिद्विशिष्टमुपदिशन्नाह---
"
बहुअं लाघवजणयं, सावज्जं निट् ठुरं असंबद्धं । गारत्थियजणउचियं, भालासमिओ न भासेज्जा ॥ १७७
व्याख्या - बहुक- मकार्य भाषणादिरूपं, अस्मिनाभोगादिनाऽनेकासस्यवचनादिप्रवृत्तिसम्भवात् प्रवचनादिलाघवजनकं कश्चन घनादयमुद्दिश्य दीनतामालम्ब्य 'त्वदीयोsहं, न भवन्तं विमुच्य ममापरो निर्वाहकर्ताऽस्तीत्यादिरूपं, सावद्यं- 'गच्छागच्छ भुङ्क्ष्व वा भो गृहस्थ ! लमित्यादि, निष्ठुरं रे काणान्धबधिरचौर्याट । इत्यादि असम्बद्धं " गङ्गायमुनयोर्मध्ये, दशहस्ता हरीतकी। चित्रकूटं गमिष्यामि, राहुग्रस्ते विनायके [गरौ] ॥१॥" इत्यादि, गृहस्थजनोचितं- "हे हो-हलेति [अत्रेति, महे | सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुलेत्ति, इत्थियं नेवमाल || १६ | " दश० अ० ६ ] इत्यादि, एवमन्यदपि लोकागमविरुद्धं भाषा समितो न भाषेतेति गाधार्थः || १७७ || एतदेव सद्दान्तमाह-
न विरुज्झइ लोयटिई, बाहिज्झइ जेण नेय परलोओ । तह निउणं वत्तव्यं, जह संगयसाहुणा भणियं ॥१७८
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या--न विरुध्यते लोकस्थितिः, बाध्यते येन नैव परलोक, तदेव वक्तव्यमिति शेषः । किम्बहुना ? तथा निपुणं || या वक्तव्यं यथा सङ्गतसाधुना भणितमिति गाथार्थः ॥ १७८ ।।
। कः पुनरसी सनातसाधुः १. उच्यते-कापि गच्छे विज्ञातसमयसारो गुणरत्नरोहणस्सङ्गतमामा मुनिः, स गुरुभिस्सम | | बिहरन कापि नगरे प्राप्तः। तत्र गुरुभिनिमित्तात्परचक्रागमनं ज्ञात्वा गच्छोऽन्यत्र विहारितो । ग्लानाधर्थ सङ्कतं साधु मुक्त्वा | गुरवोऽपि बिजहुः, परचक्रेण नगरे कर सङ्गतः साधुः शुद्धमेपजाहारार्थ बहिनिस्मृतः सेनान्या दृष्टः पृष्टः-कुतस्त्वमागतोऽसीति, तेनाप्यक्षुब्धचित्तेनोक्त-नगरात् , सतः सेनान्या नृपसैन्यपदातिलोकसुखदुःखादिस्वरूपं पृष्टोऽपि नाचीकथन् । कृतकोपेनापि पृष्टः प्रादसाधूनां नेदं वक्तुं युक्तं, यस उक्तम्---
__ + (दश०८-२०) . "बहुं सुणेइ कण्णेहिं, पहुं अच्छीहिं पेच्छइ । न य दिढे सुयं सघं, भिक्खू अक्साउमरिहई ॥१॥x
"संगरहियाण जम्हा, सावन जुलए न जंपेठ । परतितीलु पवित्ती, सत्थे लोयम्मि य विरुद्धा ॥ २॥"
ततः सेनानी प्राह-किंबहुना भगितेन ? यूयं हेरिकाः, मुनिः प्राह-न वयं हेरिकाः, किन्तु साधवो निस्सङ्गा लोकचिन्तारहिताः | मोक्षार्थिन इत्यादि । एवमेकमपि लोकविरुद्धं वचनमभणतो हृष्टः सेनानी प्रणम्य भगति-सत्यं, सत्य एष एवं धर्मस्ततो ममाप्येनं || 5 कथयन्तु । ततो मुनिधर्ममुक्त्वाऽणुव्रतादि दत्वा गतः, एनमन्येनापि भाषासमितेन भाव्यम् । इति सङ्गतमुनिकमा समाप्ता।
अथैषाणासमितिमाह
-
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
आहार उवहि सिजं, उमारइयायालणासुदगिएह अदीणहियओ, जो होइ स एसणासमिओ ॥१७९
व्याख्या आहारं-अशनादिके, उपधि-प्रच्छादनादिकं, शम्या-सुपाश्रय, उद्गमशुद्ध-गृहस्थसमुत्थाधाकर्मादिषोडश्न दोपरहित, उत्पादनाशुद्ध-आत्मसमुत्थैर्धात्रीकादिषोडशदोपैः परिहतं, एपणाशुद्ध-गृहस्थात्मोमयसम्मः शक्तिमक्षितादिदशभि दोपविरहितं गृह्णाति, अदीनहृदयो- लाभांदिष्यपि वैक्लव्यमनवलम्बमानो यः स एव एपणासमितो भवति, नान्य, इति गाथार्थः ।।१७९॥
आहारशुद्धिर्द करेति चेदाह- ..... आहारमेत्तकने, सहसञ्चिय जो विलंघइ जिणाणं कह सेसगुणे धरिही?, सुदुद्धरे सो जओ भणियं ॥१८०
व्याख्या--आहार एबाहारमात्रं, तस्यापि कार्य यः सहसैव-वारत्रयमन्यत्र पर्यटनमकृत्वा पुष्टालम्बनं विनैव जिनानां--एष जासमितिपालनरूपां चिलङ्घयति अनेषणीयग्रहणेनातिकामति, स वराकः कथं शेषगुणान् ब्रह्मचर्यादीन् सुदुर्द्धरान् धरिष्यति ? न कथ निदिति भावः, यतो भणितमागमे इति गाथार्थः ॥ १८० ॥ आगमोक्तमेवाह| जिणसासणस्स मूलं, भिक्खायरिया जिणोहिं पण्णत्ता। एत्थ परितप्पमाणं, तं जाणसु मंदसद्धीयं ॥१८
___ व्याख्या-'जिनशासनस्य' जिनोतमार्गस्य 'मूलं' तत्वं, भिक्षार्थमुद्गमादिदोषत्यागेन चरणं भिक्षाचर्या, सैव जिनः प्रजाता ऽऽदिष्टा । अस्यां तु भिक्षाचर्यायां परितप्यमान-निर्वेदं गच्छन्तं तं साधु जानीहि धर्मविषये मन्दश्रद्धाकमिति गाथार्थः ॥ १८१ ॥ .... ननु जिनाजोलचने किमनिष्टमापद्यते ? इत्याह .. .. ....
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
जह नरवइणो आणं, अइसमता पमायदोसणे । पावंति पंधवहरो-हच्छिामरणावसाणाणि ॥१८॥ तह जिणवराण आणं, अकमंता पमायदोसेणं । पार्वति दुग्गइपहे, विणिवायसहस्सकोडीओ ॥१८॥
व्याख्या---पया नरपतेराजामतिक्रामन्तो-लायन्तः स्वकीयप्रमाददोषेण प्राप्नुवन्ति, कानि? इत्याइ-बन्धो रज्वादिभिर्वधो लकुटादिइननं, रोषो गुतिगृहादिषु, छेदन-देहावयवादेः कर्तनामित्यादीनि मरणावसानानि, दुःखानीत्यपाहारः । सवा जिनवराणामाशामतिझामन्तः प्रमाददोषेण दुर्गतिपय विनिपान सहस्त्रकोटीः प्राप्नुवन्तीति गाथाद्वयार्थः ॥ १८२-१८३ ॥ एवं च सति---- जो जहवतहवलद्धं, गिहा आहारउबहिमाईयं। समणगुणविष्पमुक्को, ससारपवाओभणिओ ॥१८ | ध्याख्या--यो 'यथा वा तथा वा' उद्गमादिदोषदूषितमर्पितं या 'लग्ध प्राप्नं कामचारिवाजिनाशाविरहेण राहात्यारोपव्यादिक, स श्रमणगुणैविप्रमुक्तः संसारमवर्द्धको भणित इति गाथार्थः ॥ १८४ ।।
____ अक्षेपमाशुद्धिपालने आदरोत्पादनार्थं तपिष्टमीणां नमस्कारमाह-- धणसम्म-धम्मरुइ-माइयाण साहूण ताण पणओऽहं । कठट्ठियजीएहि विन एसणा पिल्लिया जोई 1eml IN . व्याख्या-तान् धनशर्म-धर्मरुल्यादिकान् साधूनई प्रणतोऽस्मि. कण्ठस्थितजीवेरपि न येरेपणासमितिः पीडिता-खण्डिने। त्यर्थः । अत्र चापासुकमनेषणीयं च परिहरपणासमितः स्यादित्यप्रासुकानेषणीपयोः परिहारे कमादनभर्म-धर्मलरियानो, वो वैव
अवस्यां धनमित्रश्रेष्ठी. धनभर्मा पुनः, अन्यदा धर्म अन्वा मसुतः म प्राबाजीत । मोऽन्यदा दारुणे श्री गुरुमिस्त
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
| बिहार कुर्वारण्ये व्रजति, तावद्धन शर्मक्षुल्लकस्तथा पिपासया पीडितो यथाऽक्षिणी भ्रमति मूर्च्छा समायावि, सुति विसंस्धुलानि पदानि परिशुष्यत्यमृतकला, ततो गच्छेन समं गन्तुमशक्तः स दूरे पृष्ठत आगच्छति । जनकोऽपि तत्प्रतिबन्धेन तदास स्थ वजति, ततः काप्यन्तरा शीतलेजलकल्लोलसकुला महानदी मार्गे समायाता । ततो धनमित्रः पुत्रमोहमोहितो भणति-वत्स ! पिवेदं जलं येन स्वस्थो गन्तुं शक्नोषि । ततो गत्वा नदीतीरे वृक्षान्तरितः स्थितः [पिता ], मा एप लआतो न पिवतीति । धनशर्मा क्षुल्लकस्तु जिनागमोक्तवचनानि स्मरत्रशुद्धजलस्याराहणे परित्यक्तायाः शुभपरिणामो वैमानिकदेवेषूत्पन्नोऽवधिना पूर्वभवष्यतिकरं झालाधिष्ठित [क]शरीरो जनकस्य दर्शनं दत्वा मिलितो मुनिसमूहे, मा मम मरणं ज्ञात्वा मुनीनां खेदो भवेदिति । ततः सर्वान मुनीन क्षुत्पिपासापीडितान् ज्ञात्वा सकलेऽपि मार्गे स्थाने स्थाने गोकुलानि विकुर्वितानि । मुनयोऽप्यज्ञाततत्वास्तेषु तक्रादि गृहन्ति। अथ यावसे सुखेनारण्यं लङ्घयित्वा जनपदे प्राप्ताः ततः संहृतेषु गोकुलेषु देवसाभिध्यं ज्ञात्वा मुनिभिर्मिध्यादुष्कृते कृते देवो निजं रूपं कृत्वा जनकं विना साधून वन्दमानी पिपासापीडित [क]मरणवृत्तान्तं वदन् गुरुभिर्भणितो-पये किं न जनकं चन्दसे १, सुरः प्राह-अनेन नेपणीयोपदेशेन संसारे क्षिप्तोऽभूवं यदि जलं गृहीतं भवेत्, अतोऽयगतपरमार्थः कार्ये एवोपदेशी दातव्य इति ज्ञापनार्थ न जनको after regent जनकं श्रामयित्वा गतो देवः । एवमापत्स्वप्यपरेणाप्यप्राशुकं न स्वीकर्तव्यमिति धनशर्मकथा समाप्ता 1 अापणीयत्यागे धर्मरुचिकधेयं कापि गच्छे तपोषिताको धर्मरुचिर्मुनिः सोऽन्यदा ग्रीष्मेऽष्टमतपःपारण के काप्यरण्ये गच्छन्सुवाक्रान्तो वनदेवतथा कालिकातालानुको दो पुरुषी मार्गे गच्छन्तौ पुत्रमुत्रे स्थितौ दर्शितौ । तयोरेकः प्राह-भो ! एतत् स प्राह-न ढषितोऽहं तरः प्राह तदिदं को बोडा ? त्यजामि अपरेणोक्तं यद्यस्य मुनेः कार्ये किमध्यापाति तदास्य
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
CL
हा देहि, तत इतरो मुनि प्रत्याह-गृहाण भो मुने! यदि ते रोचते, अथ त्यजामि, ततः साधुना तृषार्तेनापि द्रव्यक्षेत्रकालादिविलो
कनेन देवसम्बन्धी ज्ञात्वा दोपमीतेन नाग्राहि, प्रकटीभूय देवतया प्रशंसितो विगतगर्वः शिवमगात् । एवमन्येनाप्यप्रमत्तेन एषणा कार्या, इति धर्माधिकथा समाप्त । अथादाननिक्षेपणविषयों समितिमाह---
. सापडिलेहिऊण सम्म, सम्मं च पमजिऊण वरणि । गिण्हेज्ज निक्खिवज्जव,समिओ आयाणसामिइए।
व्याख्या-यः सम्यकप्रत्युपेक्ष्य-दृष्टया सम्पग्निरीक्ष्य ततः सम्यक् प्रमृज्य च रजोहरणादिना वस्तूनि-पीठफलकादीनि | गृहीयानिक्षिपेद्वा, स, पदे समुदायोपचारादादाननिक्षेपणसमित्या समितो भवेत, नान्य, इति माथार्थः । १८६ ॥
। यदि तावदशक्यं कर्तुं न शक्यते. ? तदा शस्य तु कर्तव्यमेवेत्याह-- . ताजइ घोरतवचरण, असकणिज्जन कीरए शाहि । किं सका विन कीरइ ?,जयणा सुपमजणाइया॥१८॥ |... ध्याळ्या- यदि तीव्रतपश्चरणं कर्त्तमशक्यमत इदानी न क्रियते, तर्हि किं शक्याऽपि सुप्रमार्जनादिका यतना न क्रियते । क्रियत एवेति गाथार्थः ।। १८७ ॥ ततः किमित्याह- ... ' तम्हा उवउत्तेणं, पडिलेहपम जगासु जइयव्यं । इह दोसेसु गुणेसु वि, आहरणं सोमिल ऽनमुणी ॥१८ - व्याख्या- तस्मादुपयुक्तेन प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनयोयतितव्यं, इद दोपेषु गुणेष्वप्युदाहरणं मोमिलार्यमुनिरिति गाथार्थः ॥८८||
कः पुनः सोमिलायः ?, उच्यने क्वापि गच्छे सोमिलो मुनिदेशापात्रकाणि [सकेलं] प्रतिलिख्योद्ग्राह्य किश्चित्कार्य प्रति
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
चलितः कार्य सिद्ध पुनः स्थितः, प्रतिलेखनाविला]यां जातायां माशुभिर्माणतो-बापाकाण्यतप्रन्ध्य प्रतिलिख, तेनास-मयेदानीमेव प्रतिलिस्योपकरणं गृहीत, किंतत्पुनः पुनः प्रतिलेखनया?, नहीदानीमेवैतन्मध्ये सर्पः प्रविष्टोऽस्ति । तसो देवतया तस्योलण्ठवास्पेन तत्र सर्पः क्षिप्तः। गुरुभिः प्रोक्तः साम्प्रतमपि सो भवतीति प्रेरितो यावत्पात्रकाण्यादसे तावदावितो गलं प्रति सर्पः, मुनि;ष्ट्वा गुरुशरणं गतः स्वापराध क्षामयति स्म। देवतयाऽपि प्रत्यक्षीभ्योपालब्धः, ततोऽतीव प्रतिलेखनाशीलो जातः । पवादपि शुद्धप्रतिलेखनया निरन्तरं गच्छदागच्छतां साधूनां प्रतिलिख्य प्रतिलिप दण्डग्रहणार्पणविश्रामणादिवैयावत्येन च पातिकर्मक्षयात्सिद्धः । एवमन्योऽपि चतुर्यसमिती प्रमायन् दोषान् अप्रमत्तस्तु गुणानासादयतीति तत्राप्रमत्तेन माव्यम् । सोमिलार्यकथानकं समाप्तम् । ___अयोचारप्रसवणादिपरिस्था[]पनायां समितिमाह| आवायाइविरहिए, देसे संपेहणाइपरिसुद्धे। उच्चाराइ कुणतो, पंचमसमिइं समाणेइ ॥१८९॥
व्याख्या-आपातस्तिर्यग्मनुष्याणामाममनं आदिर्येषां संलोकादीनां, ते आपातादयो दोपास्तविरहिते सम्प्रेक्षणप्रमार्जनाभ्यां च परिशुद्धे प्रदेशे उपचारप्रसवणादिकुश्मनेषणीयमतिरिक्तं पा भक्तपानादि च परिष्ठापयन् पञ्चमी समितिं परिष्ठापनरूपा | | समानयति-समर्थयते आराधयतीति यावदिति गाथार्थः ।। १८९॥ अश्रोदाहरणमाह । धम्मरुइमाइणो इह, आहरणं साहुणो गयपमाया। जोहि विसमावइसु वि, मणसा विन लंधिया एसा॥
भ्या.-इह धर्मरुन्यादयो गतप्रमादाः माधन उदाहरणं, येविषमापस्वपि पक्षा-परिठापनासमितिर्मनसाऽपि न लवितेति भावार्थः ।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मचिव्यतिकरस्तावदुच्यते-स्त्रापि गरे धमझचिनियापरः प्राणान्तेऽप्यविधिनोच्चारप्रसवणोत्सजनादि न कयोति । अन्यदा तस्य सन्ध्यायों स्थण्डिलप्रतिलेखना विस्मता, रात्रौ तस्य प्रवणनिरोधे कृते. दयानिमिन पीडा सहमानस्य रे जीव! प्रमादपरः किं स्थण्डिलप्रतिलेखनां न करोषि ?, इदानी किताम्यसि ? निजप्रमादतरुकुसुमला' इति चिन्तयतः स्थिरचित्तस्य सव. रखितः कश्चित्सुरो हटः प्रभातं चकार । साधुः स्थण्डिल प्रतिलिख्य प्रस्त्रवणोत्सर्गमकरोत् , तावता पुना रात्रि गित्येव जाता । ततः | | साधुर्देवमायां ज्ञात्वा स्वं निन्दन देवमाभिध्येऽप्यर्षितः मुरप्रशसिनो विशेषत उत्सर्गसमितिरतः कर्मक्षयात्सिद्ध, इत्यन्योऽपि चरमसमिती सुद्धस्त्रं कुर्यात् । [इति] धर्मरुचिकथानकं समाप्तम् ।
उक्ताः सोदाहरगाः पञ्च समितयः, अथ गुप्तित्रये मनोगुलिं तावदाह--- अकुसलमणोनिरोहो, कुसलस्स उईरणं तहेगत्तं । इय निद्वियमणपसरा, मणगुत्ति विति महरिसणो ॥१९१||
व्याख्या-योऽकुशलस्य सावधचिन्तारूपस्य मनसो निरोधः, कुशलस्य-मूत्रार्थादिचिन्तारूपस्य मनसो यदुदीरणं, तथा || तस्येव मनस एक-एकाग्रताव्यवस्थापन, इत्युक्तरूप त्रिविधामपि मनोगप्ति जाते. सकलविकल्पातीतत्वाधिष्ठितो विकल्परूप
मनमः अमरः-प्रवृत्तियेषां ते निष्ठितमनःप्रमग महर्षय-स्ताकरा इति गाथार्थः ॥१९॥ करीमशक्या चेयं गुरुकर्मणामित्य | अवि जलहीवि निरुज्झइ, पवणोवि खलिज्जइ उवाएणं । मन्ने ननिस्मिओञ्चिय, कोवि उवाओमणनिरोहे ॥
| व्याख्या-अपिः सम्भावने, एनदपि सम्भाव्यते, यदुत-फेनापि पर्वतादिक्षेपेण जलधिरपि निरुध्यते, पवनोऽप्यन्तरे ।।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
कटकुडयादानाशुपायतस्तीवेषप्रवृत्तोऽपि स्वल्यते, मनोनिराधे पुनः मत्राध्ययनादिको जिननिर्मितोऽपि परमोपायो, कोपि मन्ये है न निर्मित इर, अनविजसका अशोरया का मामस्माइंशां तदुपायबहि तत्वादिति भाव इति गाथार्थः ।। १९२॥
- कुत शतदित्याह---- चिंतइ अचिंतणिज्जं, वचाइ दूरं विलं घइ.गुरुं पि। गु आणरू विजेण मगो, भमइ दुरायारमहिलव्य ॥१९३ । . व्याख्या--चिन्तयत्यचिन्तनीय स्त्रीरूपादि, ब्रजति दूरे, विलयति गुरुमप्यद्रिसमुद्रादिकं, महतामपि येन मनी भ्रमति Ki दुराचारमहिलेवेति गाथार्थः ।। १९३ ॥ अथ जिनवचनविद्यासहायाः केचिद्गृहिणोऽपि विषमित्र मनो निरन्धयन्त्येवेत्याह---- जिणत्रयणमहाविजा-तहाइणों अह य केइ सप्पुरिसा।रुभति तंपिविसभिव, पडिमापाडवनसड्ढोव्य।
व्याख्या--जिनवचनमेव महाविद्या, तत्महायाः केऽपि सत्पुरुषास्नदपि प्रमरणशीले मनो विषमविषमिव रुन्धन्ति, प्रतिमा प्रतिपन्नः श्राहो जिनदासः स इवेति गाथा: ।। १९४ ॥
कोऽसौ जिनदासः ?. उच्यते-चम्पायां जिनदामः श्राडो ज्ञानजिनधर्मो महानष्ठिकोऽष्टमीचतुर्दश्याः पौषधं गृह्णन प्रतिमा अन्यगृहादियु प्रतिपद्यते । अन्यदा ऋचतुदश्यां पौषधं महीत्वा नृपमन्दिरासनशून्यगृहे प्रतिमया स्थितः निशि परपुरुषलुब्धा तद्भार्या तत्रैवागतां, तया तमपि भर्ना न ज्ञातः, निश्चलत्वकृते चतुष पादेषु क्षिप्ततीक्षा लोहकीला खट्या क्षिप्ता नत्र । ततो जिनदासचरणोपका कीलः समागात् । स च पादं मिया भूमौ प्रविष्टः, प्रवृनो रुधिरप्रवाहः, उच्छलिनाऽतीव वेदना, विटेन ज्य
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
*- 04-%C4%82%
मानां प्रियां दृष्टाऽचिन्तयत्-रे जीव ! संसार भ्रमता स्वयाऽनन्ता भार्यास्त्यक्ताः, एनामपि तास्वेको जानीहि, मा पुनर्विषादं गच्छ, ।। शाखपीदृशा नार्यः किं त्वया न श्रुताः? "सुकृतेन न गृह्यन्ते, गुरुमपि मुञ्चन्ति यान्ति नीचेऽपि । तत्तोषविषादकरा, न भवन्त्येता महामनसाम् ॥ १॥” इत्यादि, ततोऽसौ निचलचितः पापेन प्राणैव सममेव परित्यक्तः प्राप्ती वैमानिकसुरेश। | पतिते च तदेहे सम्भ्रान्तोत्थिता.तद्धार्या । एतद्व्यतिकरं ज्ञात्वा पश्चातापपरा सां सुरः रुपया समागत्य प्रतिबोध्य जिनदाक्षोन्मुखा । चकार । तस्माद्यदि गृहस्था अपेई मनोनिरोधं कुर्वते तर्हि साधुभिरसौ सुतरां कार्यः, इति जिनवासकथानकं समाप्तम् ।।
अथ बातिमाहअकुसलवयणनिरोहो, कुसलस्स उईरणं तहेगत्तंभासाविसारपहि, वइगुत्ती वपिणया एसा ॥१९५॥
व्याख्या--पोऽकुशलस्य-सारधभाषणरूपस्य वचनस्य निरोधो-निवारण, कुशलस्य तु-सूत्रामणानादिरूपस्य वचसो पर दीरणं, तथा तस्यैव वचसो यदेकत्व-निर्व्यापारतालक्षणं, एषा त्रिविधाऽपि भाषाविशारदेग्गुिप्तिर्वर्णितेति गाधार्थः ॥ १९५ ॥
अशक्या चेयमपि गुरुकर्मभिः कर्तुमित्याह--- दम्मति तुरगा वि ड, कुसलेहिं गया विसंजमिजति।बइवन्धि संजामिउं निउणाण वि दुकरं मन्ने ॥१९॥
____ व्याख्या-दम्यन्ते तुरक्षा अपि, दुः-स्फुट, कुशलैः गजा अपि संयम्यन्ते, बागेर व्याघ्री वाग्व्याघ्री, तां पुनः संयमित 8 निपुणानामपि दुम्करं मन्य इति गाथार्थः ।। १९६ ।।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
indiahinion
R Idescracmohanner
नन्वशक्यानुष्ठानरूपया किमायो विष्टया: पति दा...सिद्धंतनीइकुसला, केइ निगिण्हंति तं महासत्ता। सन्नायगचोरग्गह-जाणगगुणदत्तसाहुव्व ॥१९७॥
___. व्याख्या--सिद्धान्तनीतिकुशलाः केचिन्महासत्त्वास्तामपि वाग्व्याधी निगृहन्त्यतस्तदुपदेशो न निरर्थकः । क इव निगृ. || हन्ति ? इत्याह-"समायग" ति स्वजनास्तेषां चौरैऽहं जानाति यो गुणदत्तसाधुः, स हवेत्यक्षरार्थः ॥ १९७॥
कथानकं तून्यते--कश्चिद्गुणदत्तनामा बहुलस्विजनादींस्त्यक्त्वा प्राबाजीत् । गीतार्थः प्रतिपनकाकिविहारः स्वजन| प्रतिबोधनार्थ बजारण्ये चौरगृहीतः, श्रमण ज्ञात्वा 'अस्माकमत्र स्थितानां स्वरूप कस्याप्यग्रे मा कथये रित्युक्त्वा तैमुक्तस्य तस्याग्रसो गच्छतो मिलिता मातृपितृभ्रात्रादियुताः स्वजनस्वज्ञातीययज्ञयात्राः । जानीया' इति लोके ], स्वजनैर्वन्दितो मुनिः, तेन साधुवक्तव्याई प्रोक्तं, न चौरादिस्वरूपं, स्वजनैरागृह्य साधुः पश्चाद्वालितस्तैस्सम गच्छत्यन्तरा स्थितैश्चौरेलृष्टिता यज्ञयात्रा धृतास्तत्स्वजनाबालिताः | पल्ली प्रति । ततः माधुर्दष्टथोरैरुक्तं च-स एवायं साधुर्यः आत्ममिबद्धो मुक्तश्च, हन्यतेऽसौ, माऽऽत्मस्वरूप वैरिणो गत्वा कथयेत् , सातावदेतत्कथञ्चित्साधजननी श्रुचा प्राह-भोः। पल्लीशास्वत्वरिका ममार्पय, येन निजी स्तनौ छिश्व
एं-वृद्ध! कस्मादेवं करिष्यसि ?, योक्त-यत आभ्यां स्तन्यं पायितोऽप्यसौ प्रत्यक्ष भवतो दृष्ट्वा नास्माकमकथयत् । चौर : साधुः पृष्टों-भोः! कस्मान कथिता वयमत्र स्थिताः ? । साधुनोक्तं-साधूनां स्तोकाऽपि गृहिप्रसङ्गवार्ता जिननिषिद्धा । ततः सर्वज्ञवचनमुल्लङ्ग्य स्वजनकार्य कथं (कथयामि ?) करोमि ? इत्यादि श्रुत्वा हयाश्चौराः भद्रका जाताः सर्वममुश्चन् । मुनिरपि तुष्टानां स्वजातीयानां धर्ममुक्त्वा प्रतिबाध्य विहरतिस्म । एवमन्येनापि वाग्गुप्तिः कत्तव्या । इति [वारगुप्तो गुणवत्ससाधुकथा समाप्ता ।। अथ कायगुप्तिमाह
*
*
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
mawe
जो दुट्टगयंदो इव, देहो असमंजसेसु वहतो। नाणकुसेण रुंभइ, सो भन्नइ कायगुत्तो ति ॥ १९८ ॥
व्याख्या-अत्र प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययस्ततो यो दुष्टगजेन्द्रमिव देहमसमञ्जसे-वागमविरुद्धेषु वर्तमानं ज्ञानाङ्कुशेन । रुणद्धि, स कायगुप्त इति भण्यत इति गाथार्थः ।। १९८ ॥ दृष्टान्तद्वारोपदेशमाह-- | कुम्मुव सयांगे, अगोगाइं गोविउं धीरा चिट्ठति दयाहउं, जह मग्गपवनओ साहू ॥१९९ ॥ ___ व्याख्या-कूर्म इव सदाऽले अङ्गोपाङ्गानि गोपयित्वा धीरास्तिष्ठन्ति दयाऽर्थ, यथा मार्ग प्रपन्नः साधुरित्यक्षरार्थः ।।१९९।।
भावार्थस्तु कथानकमोच्यते-कश्चित्ताधुः सायन सभं प्रस्थितः, सार्थः कापि हरितभूमौ स्थितस्तत्र भूमौ सर्वत्र हरित| स्वात्साधुः स्वयोग्यां भूमिमलभमानः कृच्छ्रेनेकपादस्थापनयोग्य स्थण्डिले प्राप्य रात्री तत्रेकपादेन स्थितो ध्यानसंलीनः, शक्रेणावधिना दृष्टो, भक्त्या वन्दितः, कायगुप्त्या सभामध्ये प्रशंसितश्च । ततः कश्चित्सुरो व्याघ्ररूपेणाचालयत्त, पर साधु चलचिजध्यानात, फालाहतोऽपि तिलतुषमात्रमप्यशुद्ध स्थण्डिल न परिभुक्तवान , ततस्तद्गुणरक्षितः सुरस्तं मुनि नत्वा क्षामयित्वा हृष्टः स्वर्गमगात् । साधुरप्यगर्वितो मोक्षमगात् । इत्यन्येनापि कायगुप्तिः कार्या, इति. कायगुप्तसाधुकथानकं समाप्तम् ॥
तदेवं समर्थिताः समितयो गुप्तपश्च, आसा परस्परं चप विशेषः-गमनभापणाहारग्रहणादाननिक्षेपपरिष्ठापनारूपचेष्टाकाल एवं समितीनां व्यापारो, गुप्तीनां तु गमनादिरहितकायोत्सर्गाद्यवस्थायामचेष्टाकालेऽपि च व्यापारः । यत उक्त"समिओ नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणम्मि भइयग्यो । कुसलवइमुईरंतो, जं वइगुत्तो वि समिओ वि ॥१॥ इति ।।
- अथ व्रतकलितोऽपि समितिगुप्त्युपतोऽपि च सूत्रार्थपौरुषीक्रमेण तदुपकारार्थमेव सूत्रं पठेदित्याह
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
%95-%
-
%
*
&%
इय निम्मलवयकलिओ, समिईगुत्तीसु उज्जुओसाहू। तो सुत्तअस्थपोरिसि-कमेण सुतं अहिझिजा ।२०० व्याख्या-इत्युक्तप्रकारेण निर्मलत्रतफलितः समितिगुनियुक्तः साधुः, ततस्तदुपकारार्थ सूत्रार्थपौरुषीक्रमेण सूत्रमधीपीतेति गाथार्थ
सूत्रं च पठतः कथञ्चित्तदालम्बनेनातीव तीवं तयोऽतप्यमानस्यैकत्रापि क्षेत्रे तिष्ठतस्तस्मिमधीते विशेषतः कृत्यमुपदिशभाहतम्मि अहीए विहिणा, विसेसकयउज्जमो तवविहाणेदव्वाइअपडिवतो, नाणादेसेसु विहरेजा ॥२०॥
व्याख्या-तस्मिन्-सूत्रे अधीते विधिना तपोविधाने विशेषेण कृतोद्यमः, द्रव्ये-श्रावकादौ, आदिशब्दारक्षेत्रे-निर्वातबसत्यादौ । काले-शरदादौ, भावे-शरीरोपचयादी, अप्रतिम दो सानादेलेगु निमालयणादिना, पुष्टालम्बनं बिना मुखेच्छया नैकत्र तिष्ठः । दित्यर्थः । अयम्भावः-द्रव्यादिप्रतिबद्धममुकं क्षेत्रं, इदं तु न, विहरता रमणीयोऽयं शरत्कालादिः, स्निग्धमधुराबाहारादिप्राप्त्या तत्र | मे शरीरसुखं भविष्यति, नात्र, अथ चैवं विहरन्तं मामेवोद्यतविहारिणं लोका भणिष्यन्त्यमुकं शिथिलमित्यादि, द्रव्यक्षेत्रकालभावर प्रतिबन्धेन मासकल्पविहारोऽपि कार्यासाधक एव, ततो विहारोऽवस्थानं वा द्रव्याधप्रतिबद्धन विधेयमिति गाथार्थः ॥२०१॥
नन्वेकत्र कुनो न स्थीयते ? इत्याह-- | पडिबंधो लड्डुयत्तं, न जणुवयारो न देसविन्नाणं । नाणाईण अवुड्डी, दोसा आविहारपक्खम्मि ॥ २०२ ॥
___व्याख्या-बहुकालमेकवावस्थाने प्रतिबन्धः श्रावकादिषु जायते, अनादेयवाक्यतादिनिवन्धनं लघुत्वं लोके भवेत् , न च नानादेशीयजनस्य सम्यक्त्वप्राप्त्याधुपकारो जायते, नापि देशसम्बन्धिभाषादीनां विज्ञानं भवति, तदन्नाने च तत्रोत्पनशिष्यप्रतिबोधानुवृत्ती दुस्साध्ये, ज्ञानदर्शनचारित्राणां च प्रचुरयहुश्रुतादर्शनेन न शिष्यायप्राप्त्या या वृद्धिरेय जायते, इत्याद्या अविहारपक्षे दोपाः, अतोऽपु
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
टालम्बनेन नैकवावस्थितिः कार्यति माथार्थः ॥ २०२॥
मासकल्पादिना विहरताऽयेवम्भूतेनैव भाध्यं, अन्यथा स्वकार्यासिद्धेरित्याह-- | गयणं व निरालंबो, हुज्ज धरामंडलं व सब्बसहो । मेरुव्व निष्पकपो, गंभीरो नीरनाहुव्व ॥२०॥
चंदुब्ब सोमलेसो, सूरुव्व फुरंत उग्गतवतेओ।सीहुब्ब असंखोभो, सुसीयलो चंदणवणुब्ब ॥ २०४ ॥ पिवणुव्ब अप्पडिबद्धो,भारंडविहंगमुव्व अप्पमत्तो । मुद्धबहुव्वऽवियारो, सारयसलिलं वसुद्धमणो ॥२०५॥
व्याख्या-गगनमिव निराधार:-स्वजनकुलादिनिधारहितो भवेत् । धरामण्डलमिय सबसहः । मेरुरिव निष्प्रकम्पः-परीपहपवनाक्षोभ्यः । नीरनाथ इव गम्भीरः-परैरलब्धमध्यः । चन्द्र इव सौम्यलेश्यः-प्रसनो, न तु रौद्रमूर्तिः । सूर्य इव स्फुरदुग्रतपस्तेजाः । सिंह इवासङ्क्षोभ्यो-यादिगजघटाऽभीतचिसः। चन्दनवनमिव मुशीतलः-आप्यायककोमलवाक्प्रवृत्तः । पचन इवाप्रतिबद्धो द्रव्यादिषु । मारण्डपक्षीवाप्रमादवान् । मुग्धवधूवद विकार:-शृङ्गारगर्भवक्रोक्त्यादिविकाररहितः । प्रागरसलिलमिव शुध्धमना इति | गाथात्रयार्थः ।। २०३-४-५॥ पुनः कथम्भूतो भवेत ? इत्याहवजेज मच्छरं पर-गुणेसु तह नियगुणेसु उक्करिसं। दूरेणं परिवज्जसु, सुहसीलजणस्स संसम्गिं ।। २०६ ॥
. व्याख्या-वर्जयेन्मत्सर-प्रद्वेषं परगुणेषु, तथा निजगुणेपूत वर्जयेत् , तथा दूरेण परिवर्जय सुखशील:-सुखलिप्सुर्जन:पावस्थादिस्तस्य संसर्ग-सतिमिति गाथार्थः ॥२०६ ॥ सुखशीलजनमेवाह
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
4R amvasnaauchtartuwwsxmmmm .cgwinkura.mms
WITTARIUNITrwwwwwmnindianaminister
...
"
---
%
%
%
पासस्थो ओसन्नो, कुसीलसंसत्तनी अहाछंदो। एएहिं समाइग्नं, न आयरेज्जा न संसेज्जा ॥ २०७॥
व्याख्या सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यः पार्थ-पृथक् तिष्ठतीति पार्श्वस्थः, स द्विविधा-सर्वतो देशतश्च, तब ज्ञानादिभ्यः * पृथग्भूतः सर्वतः, निष्कारणमेव शय्यातराभ्याहृतराजनित्यायपिण्डभोजित्वादिदोषदुष्टस्तुः देशतः, सातिचारचारित्रसद्भावात् । अव| सीदति-प्रमायति साधुसामाचार्यामित्यवसम्भः, सोऽपि द्विधा-सर्वतो देशतश्च, अत्रावबद्धपीठफलका स्थापनाभोजी च सर्वतोऽवसभा, | तत्रैककाष्ठनिष्पनसंस्तारकालामे बहुभिवंशादिकाष्ठखण्डै देवरकादिवन्धान दत्वा वर्षासु संस्तारकः क्रियते, तं च यः पक्षसन्ध्यादिषु बन्धापगमं कृत्वा न प्रत्युपेक्षते सोऽवबद्धपीठफलकोऽभिधीयते, अथवा नित्यमास्तीर्णसंस्तारक एकान्तानास्तीर्णसंस्तारक एव वा य आस्ते स एव वा वाच्यः, यस्तु प्रतिक्रमणस्वाध्यायप्रत्युपेक्षणाममननिर्गमनस्थाननिपीढ़नादिकां साधुसामाचारी प्रत्येकं न करोति, हीनाधिकादिदोषदुष्टां वा करोति, सबलिने मिथ्यादुष्कृतं न ददाति, प्रेरितच गुरोः सम्मुखीभूय बबीतीत्यादिदोषदुष्टो देशावसमः। कृत्सितं ज्ञानदशेनचारित्ररूपं शीलं यस्य स कुशीलः, अयं च त्रिधा-ज्ञानदर्शनचारित्रकुशीलभेदात् , तत्र कालविनयादिकमध्या | सानाचारं विराधयन् जानकृशीलः, निश्शाक्तित्वादिकमष्टधा दर्शनाचारं विराधयन् दर्शनकुशीलः, ज्योतिष्कविद्यामन्त्रयोगचूर्णनिमि
सादिकं प्रयुञ्जानो जातिकुलशिल्पकर्मसपोगणसूत्राणि चाहारादिगृद्धया आजीवन् विभूपादिकं च चरणमालिन्यजनकं कुर्वाणवरण| कशील ! मूलोचरगुणविषयैर्वहुभिर्गुणैर्दोषैश्च संसज्यते-मिश्रीभवतीति संसक्तः, यथा-गो भुकमुच्छिष्टमनुच्छिष्टं च भक्तखलकर्पासा
दिक सर्व स्पृशति, एवं यो गुणान् दोपश्चेित्यर्थः, अयं च द्विधा-सक्लिष्टोऽसक्लिष्टश्च; तत्र पञ्चाश्रवप्रवृतो गौरवत्रयप्रतिबद्धः I खोप्रतिपेवी गृहकार्यचिन्तकश्च सक्लिष्टः, यस्तु बहुरूपः सम्पद्यते-संविग्नेषु मिलितः संविग्नता भजने पार्थस्थादिषु च तश्यतां,
%
E
A
%
1
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोsसक्लिष्टः । छन्दो - भिप्रायः, स चार्थावथाछन्दस्येव ततो जिनवचनबहिर्भूतं स्वाभिप्रायस्यैवानुरूपं प्ररूपयति करोति वा इति पथाछन्दः, उत्सूत्रमाचरन् प्ररूपयंश्च परततिप्रवृत्तः स्वल्पेऽप्यपराधे पुनः पुनर्झषनशीलो मिध्यालम्बनस्य किञ्चिद्भुदयादिविकल्पसुखाभिलाषी विकृतिप्रतिबद्धो गौरवत्रयगर्वितश्च यथाछन्द इत्यर्थः । एतेऽनन्तरोक्ताः षडपि सुखशीलजनस्वरूपाः, एतैश्व 'भिरपि यजिनाज्ञामतिक्रम्य समाचीणं तत्र स्वयमाचरेत्रापि शंसेच्छोभनमिदमिति न प्रशंसेदित्यर्थः । एतेषां च पार्श्वस्थादीनाम|पुष्टालम्बनेनाग्रपिण्ड भोजित्वादिनोत्तरगुण विराधकानां पञ्चाश्रवप्रवृत्यादिना मूलगुणविराधकानां च कृतिकर्मादिकमपि निषिद्धं विशुद्वालम्बनाः पुनरात्यन्तिके कारणे कटकसम्मर्दमपि कुर्वन्तोऽल्पेन बह्निच्छन्तः संयमश्रेण्यामेव वर्त्तन्त इति वन्दनीया, अपरं चेह भ्रष्टसंयमगुणोऽप्यायोपायकुशलेन कार्यार्थिना वन्दनीयः, अन्यथा दोषप्रसङ्गात् । नन्वस्य वन्दनेऽपि संयमव्ययादोषाः प्रजन्ति ?, सत्यं, किन्तु संयमव्ययातदायो यथा गरीयान् भवति तथा यतितव्यमेव, तथा च भायं
46
'कुणड़ वयं घणहेउं, धणस्स घणिणो य आगमं नाउं । इय संजमस्स वि वओ, तस्सेवाट्टा न दोसाय ॥ १ ॥ * 'गच्छस्स रक्खणड्डा, अणागयं आडवायकुस लेणं । एवं गणाविणो, सुहसीलगवेसणं कुजा ॥ २ ॥ " reer - "वायाए नमोकारो" इत्यादि, किम्बहुना १
"बायाए कम्मुणा वा तह चिहह जह न होह से मन्नुं । परसट जओ अवार्य, तं भावं दूरओ बजे ||१|| " इति गुणवर्जित विषयं च नमस्कारादिकृत्यमुक्तं यत्र गुणः स्वल्पोऽस्ति तत्र किं कर्त्तव्यम् ?, अत्रापि भाष्यं -
* युद्धकाले मासकल्प वर्षासु पुनः कार्तिकचातुर्मासिकमलिकम्यालम्बनस्पतिमाएका क्षेत्र [] स नित्यवासी " वृत
64
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
*
*
*
-%
| "दसणनाणचरितं, तबविणयं जय जत्तियं जाणे। जिणपनत्तं भत्तीए, पूयए तं तहिं भावं ॥१॥” इति [जीत. मा० १३३२], किमिह बहुना ?, “पहिसेहो य अणुण्णा" इत्यादिना सूत्रेणात्रैव प्रवचनसारमेव वक्ष्यते, तद्विस्तरार्थिना तु निशीय उ०५] कल्पा [३० ३] वन्वेषणीयौ, अतो गम्भीरं जिनवचनं पौर्वापर्येण परिभावनीयं, न तु क्वचिद्वचनमात्राकर्णनेनापि सम्मोहः कार्य इति गाथार्थः ॥२०७|| अन्यदपि यत्साधूनां निषिद्धं तदाह| पेज भयं पओसो, पेसुन्नं मच्छरं रई हासो। अरई कलहो सोगो, जिणेहिं साहूण पडिकुट्ठो ॥२०॥
___ व्याख्या-प्रेमः-स्वजनादिषु स्नेहः, भयं परीषहोपसर्गेभ्यः शक्का, अद्वेषो-जीवाजीवादिषु क्रोधः, पैशून्यं-दुर्जनता, मत्सरः प्रतीतः, रतिः-सुष्ठु शब्दादिषु समाधिः, हासः-क्रोडा, अरतिः-कप्टरोगादायसमाधिः, कलहः, शोकः, जिनः, साधूनां प्रतिष्टोनिषिद्ध इति गाथार्थः ॥२०८।। तथादिज्जंतो हरिसं,निदिजतो करेज न विसायं। न हि नमियनिंदियाण, सुगई कुगइंच बिति जिणा॥२०९।।
__ व्याख्या-माधुर्धनाढ्यादिभिर्बन्धमानो हर्ष, गोपालादिभिश्च निन्द्यमानो न विषादं कुर्यात् । कुतः ? इत्याह-न हि र यस्माल्लोकैवतानां साधूनां सुगति निन्दितानां कुगति वा अवने जिनाः, किन्त्वात्मगतगुणदोपैरेव तत्प्राप्तिरिति गाथार्थः ॥२०९||
आत्मन एव सुगतिदुर्गतिसाधकत्वं दर्शयनिP अप्पा सुगई साहइ, सुपउत्तो दुग्गई दुपउत्तो। तुट्ठो रुट्टो य परो, न साहओ सुगइकुगईणं ।। २१० ॥
व्याख्या-आत्मैव सुप्रयुक्तः-शोभनाचानादिमार्गव्यापूनः सुगति साधयति, स एवात्मा दुष्प्रयुक्तः-प्राणियधाधुन्मार्ग
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्थितश्च दुर्गतिं साधयति न च तुष्टः परः सुगतेः साधकः रुष्टो वा कुंगतेः साधक इति गाथाथः ॥२१॥
अथ श्रीमहावीरचरितं चिन्तयता परीपहोपसर्गाः सोढव्या इत्याह
लहुकम्मो चरमतणू, अणंतवीरिओ सुरिंदपणओ वि। सब्वोवायविहिन्नू, तियलोय गुरू महावीरो ॥। २११ ॥ 'गोपालमाइएहि, अहमेहिं उईरिए महाघोरे । जो सहद्द तहा सम्मं, उवसग्गपरीसहे सव्वे ॥ २१२ ॥ अम्हारिसा कहं पुण, न सहति विसोहियत्वघणकम्मा । इय भावंतो सम्पं, उवसग्गपरीसहे सहउ | २१३ | व्याख्या - यदि लघुकर्मा चरमतनुश्च अनन्तवीर्यः उपसर्गकर्तृभिगृहीतुमपि शक्तः सुरेन्द्रप्रणतः सर्वोपायविधिज्ञय लो" क्यगुरुरपि श्रीमहावीरोऽघमैर्गोपालादिमिरुदीरितान् महाघोरान् सर्वानप्युपसर्गानू-सुरनरतिर्यग्जनितोपद्रवान्,.. परीपदान - क्षुत्पि पासादीन्, तथा - तेनावश्यकोक्तप्रकारेण सम्यक्सहते, तर्हि अस्मादृशाः कथं पुनस्तान सहन्ते ? कथम्भूताः सन्तः ? इत्याह-विशोघयितव्यं - क्षपणीयं धनं प्रचुरं कर्म येषां ते तथा गुरुकर्माण इत्यर्थः । अनेन पूर्वोक्तलघुकर्मताया वैपरीत्यमुक्तं, अस्य चोपलक्षणareenagerदीनामपि विपर्यय आत्मनि बावनीयः इत्येवं परिभावयन्नुपसर्गपरीषहान् सहस्वेति गाधात्र्यार्थः ॥ २९१-९२-९३॥
ननु परीपोपसर्गतर्जितस्य साधोर्यदि चरणेऽरतिर्जायते, गृहवासप्रदिपन्या विषयसुखवाच्छोत्पद्यते तर्हि स किं कुर्यात् ? इत्याहएवं पि कम्मत्रसओ, अरई चरणम्मि होज जड़ कहवि । तो भावणाए सम्मं, इमाए सिग्धं नियतेजा ॥ २१४ ॥ व्याख्या - एवमपि भावनां भावयतः साधोः कर्मवशायदि कथमपि चरणेऽरतिर्भवेत् ततस्तदाऽनयानन्तरं वक्ष्यमाणया nister first तामेवारतिमिति गाथार्थः ।। २१४ ॥ तत्र तावद्गृहवासप्रतिपचि निवृत्यर्थं भावनामाह
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
HOS
oundymiummarytendan
सयलदुहाणावासो, गिहवासो तस्थ जीव! मा रमसु। जं दूसमाए गिहिणो, उयरंपि दुहेण पूरंति ॥२१५॥ . व्याख्या-सकलदुःखानामावासो यो गृहवासस्तत्र-गृहबासे रे जीव ! मा रमस्व । यस्मादस्मिन् दुष्षमाकाले गृहिण उदरमपि णोऽप्युदरे (1) दुःखेन पूरयन्ति, दुष्षमासुषमादिषु प्रायो निर्वाहः सुखेनैवासीदिदानीन्तु सोऽपि महाकष्टेनेति भाव इति गाथार्थः ॥ २१ ॥ विर.. जललवतरलं जीयं, अथिरा लच्छी विभंगुरो देहो। तुच्छा य कामभोगा, निबंधणं दुक्खलक्खाणं ॥२१६॥
व्याख्या-जीवितं जललवतरलं कुशाग्रवर्तिजलचपलं, लक्ष्मीरप्यस्थिरा, भारो-विनाशी देहः, एततत्रियम्लाः कामभोगाः शब्दरूपरमस्पर्शविषयरूपाश्चासारा-स्तुच्छाः, निबन्धनं चैहिकपारत्रिकदुःखलक्षाणां, अतः कस्यार्थ व्रतत्यागः १ इति गाथार्थः ।।२१६।। ४ को चकवाटिरिद्धि, चइडं दासत्तणं समभिलसइ को बररयणाई मोनु, परिगण्हइ? उवलखंडाई ॥२१॥
. व्याल्या-कश्चक्रवर्षिसमृधि त्यक्त्वा दासत्वं समभिलपति ?, को वा रत्नानि मुक्त्वा परिगृहात्युपलखण्डानि ?, चकि | ऋधि-रत्नसमं व्रतं त्यक्त्वा को नाम दासत्वोपलखण्डकल्यं गार्हस्थ्य प्रतिपद्यते ?, न कोऽपीति माव इति गाथार्थः ॥१०॥ किञ्चभनेरइयाण वि दुक्खं, झिज्झइ कालेण किं पुण नराणं? तान चिरंतुह होहि, दुक्खमिणमासमुव्वियसु।२१८
___व्याख्या--पल्योपमसागरोपमापुपां निरन्तरदुःखानां नारकाणामपि तदुःख गच्छता कालेन स्वायुःपर्यन्ते क्षीयते-घुवति, किं पुनः प्रतिक्षणं परिवर्त्तमानदुःखानो स्वल्पायुषां नराणां तन्न टि यति ? त्रुटिष्यत्येवेत्यर्थः। तस्मान्न तव दुःखमिदं चिरं-महुकालं श भविष्यति, मा समुद्विजस्व-मा प्रतत्यागलक्षणं वैक्लव्यं भजस्वेति गाथार्थः ॥ २१८ ॥ भावनोपसंहारार्थमाह
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
इय भावंतो सम्म, खेतो दंतो जिइंदिओ होउ। हत्थिव्व अंकुसेणं, मग्गम्मि ठवेसु नियचित्तं ॥२२०॥
व्याख्या---इत्येवं सम्यग्भावयन् 'क्षान्तः कृतोपशमः 'दान्तोऽहकतिरहितो जितेन्द्रियश्च भूत्वा, विभक्तिव्यत्यादस्ति PL नमिवाकुशेन 'मार्गे व्रतपरिपालनशुभाध्यवसायलक्षणे स्थापय निजचित्तमिति गाथार्थः ।। २१९ ।।
ननु वेषमात्रं चेन मुच्यते तर्हि किं मनसः शुभाशुभाध्यवसायचिन्तया ? इत्याह--- * जम्हान कज्जसिद्धी. जीवाण मणम्मि अहिए ठाणे । एत्थं पुण आहरण, पसन्नचंदाइणो भणिया।२२१॥
व्याख्या-यस्मान मोक्षप्राप्स्यादिका कायसिद्धिाधाना, आपते इति शेषः, क सति ? शुभपरिणामादौ स्थाने मनसि | अस्थिते सति । अत्र पुनरुदाहरण प्रसन्नचन्द्रादयः सिद्धान्ते भणिता द्रष्टच्याः, तस्मात्सत्यपि वेष मनोनिग्रहाभावे सप्तमनरकादिEll गमनयोग्यकर्मबन्धान वेषमात्रे तुष्टैर्भाव्यमिति गाथार्थः ॥ २२१ ।।
. अत्र प्रसन्नचन्द्रकथानकं किञ्चिदुच्यते-पोतनपुरे नगरे मोमचन्द्रनृपः, धारिणी देवी, तयोः पुत्रः प्रसत्रचन्द्रः। अन्यदा राज्ञः | शिरः सम्मायन्त्या धारिण्या पलित दृष्ट्वा हस्ते दवा प्रोक्तम्-देव ! जरयाऽयं दतः प्रेषितोऽस्ति 'मा भणिष्यसि यत्रोक्तं,
अहभागता, धर्म कुरु' इति ज्ञापनार्थ । ततो जातवैराग्यः प्रसन्नचन्द्र राज्ये संस्थाप्य समार्यस्तापसदीक्षां प्रपेदै । तस्याः स्तोकदिनो | गर्भ आसीत् , ततस्समये पुत्रो जातः । सा च मृत्वा ज्योतिष्कामरेपुत्पन्ना, बनमहिपीरूपेण कुमारमुखे दुग्धं स्नेहेन क्षिपन्ती वृद्धि तं नीतवान् । बकलाकृतत्वावल्कलचीरीति नामा जातः । अथ स कतिपयवर्षान्ते प्रसनचन्द्रेण पितुः प्रच्छनमेव स्वपार्श्वे आनाय्प पुवराजत्वे स्थापितः, पश्चापितु पितं, तथापि स्नेहेन रुदतस्तस्य नयनयोनीली जाता। अन्यदा वल्कलचीरी पितरं स्मरत्सबन्धुराब
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
- मपदं प्राप्तः, ताभ्यां कृतप्रणामस्य पितुहर्षाभयनयोनील्यपगता । ततः प्रसनचन्द्र कुशलं पृच्छति पितरि वल्कलचौरी कौतुकात्स्वFoll स्थापितानि वल्कलान्युनमुद्रय प्रमार्जयन् पूर्वमन्या काचन्मया वस्त्रश्रमाजना कृतति चिन्तयन सजातजातिस्मृतिः कृतपूर्वा जिनदीक्षा | वैमानिकामरत्वं चानुभूतवान् । ततः संवेगमुपगतस्य भावतः परिणता दीक्षा, कृता क्षषश्रेणिः, केवलज्ञानं चोत्पन्न । अथ तद्देशनया वैराग्यं प्राप्तः प्रसन्नचन्द्रो गृहं गतः । वल्कलचीर्यपि पितरं श्रीवीरजिनान्तिकं नीत्वा दीक्षा ग्राहयित्वा सिद्धः । अन्यदा पोतनपुरे श्रीवीरे प्राप्ते देशनां श्रुत्वा संवेगमागतः प्रसनचन्द्रः पुत्र बालमपि राज्ये संस्थाप्य प्रवन्य उग्रं तपः कुर्वन् गीतार्थः श्रीवीरजिनेन समं राजगृह प्राप्तः । तत्र च___ “एगचलणप्पाटो, सूराभिमुहो समूसियभुयग्गो। चिट्टइ काउस्सग्गे, आसन्न समवसरणस्स ॥१॥" ''- अर्थ भगद्वन्दनार्थमागच्छतः श्रेणिकनृपतेः सेनामुखस्थेन सुमुखाभिधेनोक्तं-धन्योऽयं मुनिर्यस्येदृशं ध्यान, अनेन मोक्षः स्वर्गौ वा करस्थः कृतः । ततोऽन्येन दुर्मुखनाम्ना प्रोक्तं-'मैवं बादीः, यतः प्रसन्नचन्द्रोऽयं, येन बालोऽपि पुत्रः परित्यक्तः, इदानी चतरसुतोऽनाथो नगररोध विधाय दधिवाहनप्रभृतिभिर्भपैमन्त्रिभिश्च राज्यभ्रष्टः क्रियते, तदसावप्रेक्षणीयः । इति अत्वा राजर्षिः कोषपरवशः प्रत्यक्षानिक रिपुप्रभृतीन वीक्ष्यमाणो 'रे कृतप्रशेखरा मन्त्रिणो ! यूयं तथा सम्मानिता लालिता अपीदानीमिति विपरीतास्ताह युष्मान् शिक्षयामि, रे नृपाधमा ! इदानीं भवन्तोऽपि सज्जीभवन्त्विति भणिया योढुं लमः । ततः सुभटकरदितुरंगसम्मद निजमनसि कूर्वतस्तस्य बाधतः सद्धधानसभिवे दृष्ट्वा हृष्टः श्रेणिको भक्त्या चरणयोर्निपतितस्तद्गुणनिकरं स्तौति । रौद्रध्यानगतेन च तैनासो न ज्ञातः, ततोऽधिकतर तुष्टेन राज्ञा भगवत्समीपं गत्वा पृष्ट-भगवन् ! मया यदा प्रणतः प्रसन्नचन्द्रस्तदैव
।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
यदि कालं करोति तदा गच्छति ? इति । भगवानाह-सप्तमपृथिव्यां । ततश्चिन्तयति राजा-क तयानक चितभारकत्व, कि मया सम्यग्न श्रुतमेतदिति विलम्स्य पुनः पप्रच्छ-भगवभिदानी कालगतः प्रसनचन्द्रः क ब्रजति ?, भगवान् भगति-सर्वार्थसिद्धौ । ततो विस्मितेन राबाउमाणि-माया कथं पूर्व नरकममनमिदानी यूयमेव सुरत्वमादिशथ ? । स्वाम्याह-दुर्मुखवचनाच्चिने प्रवृष रौद्रध्यानेऽरिभिर्युयमानस्य तहागमने पुनर्मनोषिकल्पादेव सकले प्रहरणवर्गे परिनिष्ठिते स चिन्तयत्येवं-निजशिरस्त्राणेनेनं रिपू हनि।
ततस्तेन स्पृष्टं इस्तेन शिरो विलुप्लकेशं मात्वाऽऽत्मानं निन्दन् लब्धविवेकः शुद्धध्यानात् क्षपकश्रेणिशिरस्समारूढो जातः पुनरपि ॐ सर्वार्थसिद्धियोग्यः, इति यावद्वदति स्वामी सावत्प्रसमचन्द्रस्योत्पन्नं केवलज्ञानं, सुराश्यकुमहिमा, सत्प्रकर्ष श्रुत्वा भणति भूपः किमेतत् १, शुद्धि प्रकत्त्रिमनचन्द्रर्षेः केवलज्ञानयुक्तं स्वामिना । ततः श्रेणिकचिन्तयति, सत्यमिदं वचः"वावाराणं गरुओ, मणवाबारो जिणेहिं पनत्तो। जो नेइ सत्तमीए, आहवा मोक्खम्मि सो चेव ॥१॥"
इति प्रसन्नचन्द्रकथा समाप्ता ।। एवमन्येऽपि दृष्टान्ता द्रष्टव्या, अथ मनस्समाधौ यत्नो विधेय इत्येतदेवाहअहरगइपट्ठियाणं, किलिट्ठचित्ताण नियडिबहुलाणं। सिरतुंडमुंडणेणं, न वेसमेत्तेण साहारो ॥ २२१॥
व्याख्या अधरगति-नरके प्रति प्रस्थितानां क्लिष्टचित्तानां निकृति-या बहुला येषां ते तथा, तेषां शिरस्तुण्डमुण्डनेन वेषमात्रेण रजोहरणादिना न साधार-खाणं । वेषमात्रं धारयतां जनानां मिथ्यात्वोत्पादहेतुत्वेन प्रत्युताधोगतिपात एव स्पात्र वाणमिति भाव इति गाथार्थः ।। २२१ ।। कि
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
16-
-
+
+ K
वेलंबगाइएसु वि, दीसइ लिंगं न कासंसिद्धी । पत्ताई च भवोहे, अणंतसो दव्वलिंगाई ॥ २२ ॥
___ व्याख्या-विडम्बका-वेषविदूषकास्तेष्वपि यतिवेषग्रहणावस्थायां दृश्यते लिङ्गं रजोहरणादिकं, न च तेन तेषां काचिन्मोक्षप्राप्तयादिका कार्य सिद्धिः, विडम्बकत्वादेव भावशून्यत्वात् । आदिशब्दात्स्वयम्भरमणगतसाध्याकारमत्स्यादिपरिग्रहः, "तस्माद[प्रमाणं वेषः। किश्च यदि लिङ्गमात्रमपि साधक म्यान ? तो तावन्तं कालं संसारेऽवस्थितिरेव न स्यात , यतोऽनादिभवप्रवाहे भ्रमद्धिः प्रत्येकं सर्वैरपि जीवः क्वचिदाजीविकाहेतोः क्वचिदुपरोधेन क्वचित्कीयादिकाश्या प्राप्तान्यनन्तशो वेपमात्ररूपाणि द्रव्यलिङ्गानि, द्रव्यतो भावतो वा गृहीतयतिलिङ्गस्यैव हि अवेयके त्यत्तरुक्तत्वात् , मणितश्च प्रज्ञप्त्यां सर्वजीवानां अवेयकेयूत्पादः, तथाहि-"सब्वजीवा विणं भंते ! उबरिमगेविसु देवत्ताप देवित्ताए आसणसयणवणखंडभडमत्तोबगरणसाए उपवनपुवा ?,! हंता गोयमा ! असई अदुवा अर्णतखुतो, नो चेव णं देवित्ताए" इति । अतः प्राप्तान्यनन्तशो द्रव्यलिङ्गानि । प्राप्तैरपि च | तेन मोक्षलक्षणा काचित्कार्य सिद्धिस्तस्मान्मनःशुभपरिणामलक्षणे भावे एवं यत्नो विधेय इति गाथार्थः ।। २२२ ॥ एतदेवाह--.. तम्हा परिणामो चिय, साहइ कजं विणिच्छओ एसो। ववहारनयमएणं, लिंगग्गहणं पि निद्दिष्टुं ॥२२॥
व्याख्या-तस्मान्मनसः शुभपरिणाम एव कार्य मोक्षरूपं साधयति, एष विनिश्चयो-निश्चयः। यद्येवं तर्हि लिङ्गग्रहणमयाकमेव ? इत्याह-व्यवहारनयमतेन लिङ्गग्रहणमपि जिननिर्दिष्टमिति गाथार्थः ।। २२३ ॥
.. ननु निश्चये एवं यत्नो विधेयः, कि व्यवहारेण ? इत्याह-- जड़ जिणमयं पजह, तामा ववहारनिच्छय मुयह । ववहारनउच्छेप, तित्थुच्छेओ जओ. भाणओ॥२२४॥
ALOOK
-42-40
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
MER
%AEat%
- व्याख्या-यदि जिनमतं प्रपद्यध्वं, तदा मा व्यवहारनिश्चयो मुनथ, यतो व्यवहारनयोच्छेदे तदभिमतानि लिङ्गग्रहण४ जिनार्याचैत्यनिवर्सनवन्दनपूजनादीनि सर्वाण्यकर्मव्यानि स्युः, ततस्तीर्थोच्छेदः प्रतीत एवेति गाथार्थः ॥ २२४ ।।
स्थादेतत् , तथापि निश्चय एव बलवान् , नेतर इत्याशक्याहववहारो विहु बलवं, जं वंदइ केवली वि छउमत्यं । आहाकम्म भुंजइ, सुयववहारं पमाणतो ।। २२५ ।।
व्याख्या-न केवलं निश्चयोऽपितु व्यवहारोऽपि स्वविषये बलवानेव, यद्यस्मात्कारणादुत्पत्रकेवलझानोऽपि शिष्यो व्यवहार | प्रमाणयन् छबस्य गुर वन्दते, सासनदात्मानादिक व विनयं पूर्दवदेव करोति यावदधापि न ज्ञायते, हाते पुनगुरुरपि | निवारयत्येव । तथा च मुग्धेन केनचिद् गृहिणा कृतमाधाकर्म, तब श्रतोपयुक्तेनाशठेन छनस्वसाधुना [शुद्धं] विज्ञाय तं गृहीत्वा । केवलिनिमित्तमानीतं, यथास्थितं च तज्जानतः केवलिनी निश्चयनयमतेनाभोक्तव्यमपि श्रुतरूपं व्यवहारनयं प्रमाणीकुर्वअसो | तमुक्त एव, अन्यथा श्रुतमप्रमाणं कृतं स्यातच न कर्तव्यः प्रायः सर्वव्यवहारस्य श्रुतेनैव प्रवर्तमानत्वात् । ततो व्यवहारो बलवानेव, केवलिनाऽपि समर्थितत्वात् । ततः स्थितमिदं-निश्चयव्यवहारशुद्धे संयम एव मनो निश्चलं विधेयं , नतु कुतश्चिद् गृहवासाद्यभिलाषः कार्य इति गाथार्थः ॥ २२५ ॥ अथ तीयकरोशेनापि यतिवेषेण संयमशिथिलीकरणे दोषमाहतिस्थयरुद्देसेणवि, सिढिलिजन संजमं सुगइमूलंातित्थयरेण विजम्हा,समयम्मि इमं विणिहि ॥२२६॥
___ व्याख्या--तीर्थकरोद्देशेनापि पूजाद्यारम्भप्रवृत्या सुगतेः परमं निवन्धनं संयम साधुन शिथिलीकुर्यात् । यस्मात्कारणाचं । यदर्थ फुप्पसट्टाधारम्भ चिकीसि, तेनापि तीर्थकरेण सिद्धान्ते इदं वक्ष्यमाणे निर्दिष्टमिति गाथार्थः ।। २२६ ।। तदेवाह
%A4%
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
चेइयकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य । सव्वेसु वि तेण कयं, तवसंजमउज्जमतेण ।। २२७ ॥
व्याख्या-चैत्ये जिनप्रतिमायतनरूपे, कूले विद्याधरादौ, गणे तत्समुदायरूपे, सङ्घ साध्वादो, आचार्याणां च प्रतीतानां, प्रवचने सूत्रार्थरूपे द्वादशाङ्गे, श्रुते च केवलमत्ररूपे, एतेषु सर्वेष्वपि यत्किमपि चैत्यनिवर्धनपूजनादिकं कृत्यं ततेन साधुना कुतमेव | क्षेयं । कि कुर्वता? इत्याह-तपस्संधमयोर्विषये उघ कुर्वता, चैत्यनिर्वर्तनादिकहि कुशलानुबन्धक्रमेण संयमः प्राप्यते, ततो मोक्षः। येन च सोऽपि मुक्तिनिवन्धनः संयमः प्राप्तस्तेन चैत्यनिर्वर्तनादिकं कृतमेव, तत्फलत्वात्संयमस्येति भावः । किश्श संयमवानुपादेय. वाक्यो देशनादिद्वारेण शोभनचैत्यनिवर्त्तनादि करोत्यतः संयम एव यत्नो विधेयो, नान्यत्रेति गाथार्थः ।। २२७ ॥
अथ चैत्यविधापनासंपमपालनस्य बहुगुणत्वमास.-.... सव्वरयणमएहि, विभूसियं जिणहरेहिं महिवलयं । जो कारिज समग्गं, तओ वि चरणं महिडियं ॥२२॥
व्याख्या--यः सकलमपि महीतलं सर्वरत्नमर्जिनगृहैर्विभूषितं कारयेत् , तस्मादपि, आस्तामेकचैत्यमात्रकृत्यात , चरण | : महरिक, संयमपालनं बहुगुणमित्यर्थः, यतः सर्वोत्कृष्टगुणादपि श्रावकादनन्तगुणविशुद्धधारित्री मण्यते, अत एव कारितानेकचैत्यादयोऽपि चक्रिशक्रादयस्त हनदीक्षितद्रमकमयि चारित्रिणं प्रणमन्तीति गाथार्थः ।। २२८ ॥
आगमोक्तनै प्रकारेण द्रव्यम्तवाद्भावस्तबो गरीयानित्याहदबत्थओ य भाव-स्थओ य बहुगुणोति बुद्धि सिया। अनिउणवयणमिणं, छजीवहियं जिणा धिति ।।२२९॥ छजीवकायसंजमो, दबत्थए सो विरुज्झए कसिणो। ता कसिणसंजमविऊ, पुप्फाईणं न इच्छति ॥२३०॥
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या--द्रव्यशब्दोऽत्र गुणवचनः कारणपर्यायो वा, मतश्च व्यस्पो गौणनामापयो भावनयकारणभूतो वा स्तवत्यविधापनपूजाकरणादिना गुणवदभ्यर्चनं द्रव्यस्तवः । मावतः-परमार्थतः स्तवः-सद्गुणोत्कीर्तनान्तरङ्गप्रीत्याऽज्ञापालनादिना | पूज्यपूजनं भावस्तवः । च शब्दो द्रव्यभावस्तरयोः स्वस्वाधिकारिविधेयत्वे नैयत्यख्यापनपरी । अनयोश्वान्योन्यापेक्षया द्रव्यस्तो [ बहुगुणः, स्वपरयोः शुभाध्यवसायस्यैव हेतुल्यातीर्थोन्नतिनिमिसत्वाचेति कस्यचिबुद्धिः स्यात्तदयुक्त, यतोऽनिपुणमतियचनमिदं द्रव्यस्तक्महुगुणत्वरूपं । कुतः १ इत्याह-यतः पणा जीवानां पृथिव्यादीनां यत्किमपि हितं तदेव जिना ब्रुवते, प्रधान मुक्तिकारण| मिति गम्यते, किं पुनस्तद्धितम् ? इत्याह-पड्जीवनिकायविषय:-'पुढविदगअगणिमारुय-वणस्सइचितिचउपणिदिअजीये।
पेहुप्पेहपमजण-परिठवणमणोवईकाए ॥१॥" इत्येवलक्षणः संयमोऽपमेव हितस्तहि द्रव्यस्तवेऽप्येष भविष्यति । इत्याह-- | द्रव्यस्तवे क्रियमाणे स संयमः पुष्पसङ्घनाघारम्भतः कृत्स्नः-परिपूर्णो विरुद्धयते, ततः कृत्स्नसंयमप्रधाना विद्वांसः साधवः पुष्याचारम्भसाध्यं द्रव्यस्तवं नेच्छन्तीति गाथाद्वयायः॥ २२९-३० ।।
यद्येवं तर्हि न केनाप्यसो द्रव्यस्तयो विधेय इस्याशक्याहअकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे, दुव्बत्थए कूवादिटुंतो ॥२३१॥
व्याख्या--अकृत्स्नमसम्पूर्ण संयम देशविरतिरूपं प्रवर्तयन्तीत्यकृत्स्नप्रवर्तकाः श्रावकारलेषां विरताविरतानां, खलु एवार्थे, तत एव द्रव्यस्तवो युक्त एव, कुतः ? इत्याह-यतोऽयं संसारप्रतानवहेतुः । ननु प्रकृत्यैव य आरम्मरूपः स श्रावकाणामपि | कथं युक्त इत्याशझ्याह-तस्मिंश्च द्रव्यस्तवे कर्तव्ये कूपदृष्टान्तोऽर्हद्भिरुक्तः, यथा हि तृष्णावापादिवाधितस्वदपगमनिमित्तं कृपख
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
ननारम्भे कियमाणेऽधिकतरं तेषां तृप्याश्रमादयो जायन्ते, खनिते च तस्मिन् विपुलं शीतलं जलमासाद्य तेषामन्येषां च तृष्णाद्यपगमः सम्पद्यते, एवं द्रव्यस्तवे यद्यप्ययमो भवेत्तथापि कारितान् जिनगृहादीन् दृष्ट्वा तेषामन्येषां च स कोऽपि विशुद्धपरिणामो | भवेद्यो भूरिभवर्जितानि द्रव्यस्तवकृतानि च पापानि स्फेटयित्वा निर्वृतिं जनयति तस्मान्नित्यमारम्भप्रवृत्तानां श्रावकाणां बहुलाभहेतुत्वाद्रव्यस्तत्रो युक्तो, न पुनस्त्यक्तारम्भाणां भागस्तवलाभवतां मुनीनां निषिद्धत्वात्, निजमतिविकल्पितं पुनस्सर्वं भवहेतुरेवेत्यलम् । किं पुनस्तदालम्बनं ज्ञानादिवृद्धिहेतुः ? इत्याह--- काहं अछित्ति
अदुवा अहीहं, तत्रोविहाणेण य उज्जमिस्तं ।
गच्छेचनीईए (नई अइ ? ) सारइस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ॥ २३३॥
व्याख्या -मां बिना तीर्थोच्छेदापत्तेस्तस्याव्यवच्छित्तिं करिष्यामि अथवा ज्ञानादिसाधकान् ग्रन्थानध्येष्ये, यदिवा तीव्रतपोविधानेन पुरस्तादुद्यमं करिष्यामि, अथवा मां विना गच्छेऽसमञ्जसापतेस्तं सिद्धान्तोक्तनीत्या सारयिष्यामि सन्मार्गे प्रवर्त्तयिष्ये, एवमावालम्बनेन सह वर्त्तत इति सालम्ब:- पुष्टालम्बनवान् एत्रम्भृतस्सन रोगाद्यापदं प्राप्तो यः साधुर्गीतार्थोऽनन्यतदपगमोपायः किमप्यनेपणीयमौषधादिकं सेवत इति सालम्ब सेवी । सच जिनाज्ञाऽनुल्लङ्घनान्मोक्षं समुपैति गच्छति, तस्मात्तीर्थाव्यवच्छेदादिकमेव यथोक्तं ज्ञानादिवृद्धिजनक मालम्बनं नान्यदिति गाथार्थः ॥ २३३ ॥
ननु कुत रोगाद्यापदपगमेऽपि ज्ञानादिवृद्धिजनकमालम्बनमन्वेषणीयं ? इत्याह-सालवणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमे वि धारेइ । इय सालंबणसेवा, धारेइ जई असदभावं ॥ २३४ ॥
1
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-आलम्ब्यते-पतद्रिराश्रियते इत्यालम्बन, तश्च द्रव्यभावभेदाद्विधा, सतश्च सहालम्बनेन वर्चते इति सालम्बनः, 18|| असो पतनात्मानं दुर्गमेऽपि गर्नादी दृढवल्ल्यादिपृष्टालम्बेनावष्टम्भतो धारयति, इत्येवमेव सहालम्बनेन वर्तन्त इति सालम्बना
| जिनोक्ततीर्थाव्यवच्छित्यादिपुष्टालम्बना, न स्वमतिमात्रकल्पिता अपुष्टालम्बनेत्यर्थः, सा चासौ सेवा, निषिद्धाचरणरूपा च सालम्बनसेवा कभूता संसारग यां पतन्तं यतिमशठमा-मावस्थानरहितं धारयति, एष आलम्बनान्वेषणे गुण इति गावार्थः ॥२३४।।
यद्येवं ततः किम् ? इत्याह--- उस्सग्गेण निसिद्धं; अववायपयं निसेवए असढो। अप्पेण बई इच्छइ, विशुद्धमालंबणो समणो ॥२३५॥
व्याख्या-उत्सर्गेण-सामान्यविधिरूपेण यनिषिद्धमागमे, तदप्यपादस्यानेपणीयपरिभोगादिरूपस्य पदे रोगप्राप्त्यादिरूपे | स्थाने प्राप्तः सेवते अशठो-मायावी, कुतः ? इत्याह-यतोऽल्पेन संयमव्ययेन बहु संयमलाभमिच्छत्यसौ श्रमणः । कथम्भूतः सन् ? इत्याह-विशुद्ध-मयारहितं आलम्बनं यस्यासी विशुद्धालम्बनः, मकारोऽलाक्षणिक इति गाथार्थः ।। २
ननु प्रतिषिद्धं कुर्वनप्यसौ कथं न दोपभाग् ? इत्याहपडिसिद्धं पि कुणंतो, आणाए दव्यखित्तकालन्नु । सुज्झइ विसुद्धभावो, कालयसूरिव्य जंभणिय॥२३॥
व्याख्या-कालकमरिवद्र्व्यादिस्वरूपज्ञो जिनाज्ञया-" साहण चइयाण य, पहिणीय तह अवपणवायं च । जिणपवयणस्स अहिये, सम्वत्थामेण वारेइ ॥१॥" तथा--"संघाइयाण कज्जे, धुग्णिवा चकवहिम”ि इत्यादिकया| सामान्यतः प्रतिषिद्धमपि जन्तुघातादिकं कुर्वन् आज्ञापरतन्त्रप्रवृत्ते विशुद्धभावः शुद्धत्येव-कर्म निर्जरपत्येव, अत्रच कालकाचार्यकथा
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
| विस्तारो निपुणैनिशीथादवसेयः, तद्रहस्यं तु__ "भगिन्यावतध्वंसि-विशालेश तथा तथा । उत्खनन्नपि संशुद्धः, कालकार्यः स्फुट ह्यदः ॥१॥"
ननु कथमेवं कर्म निर्जरयतीत्येतज्ज्ञायते ? इत्याह-यद्यस्माद्भणितमागमे इति गाथार्थः ।।२३६॥ आगमोक्तमेवाहजा जयमाणस्स भवे, विराहणासुत्तविहिसमग्गस्स।सा होइ निजरफला, अझत्थाविसोहिजुत्तस्स ॥३७॥
व्याख्या--'यतमानस्य विराधनारक्षणतत्परस्य सूत्रविधिसमग्रस्य गीतार्थस्य या काचित्पृथिव्यादिसञ्चद्धनादिका विरा| धना भवेत्साऽशुभकर्मनिर्जराफलैब स्थान ! पदपि पनपनम्य हिमालय सदपि प्रथमे समये बध्यते, द्वितीये निर्जरयति, है। तीये त्वकर्मा भवतीति सिद्धान्तरहस्यं । कीदृशस्य ? इत्याह-अध्यात्मविशुद्धियुक्तस्येति गाथार्थः ॥ २३७ ॥ | कथं विराधनाऽपि निर्जगफला ? इत्याहजे जत्तिया य हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे। गणणाईया लोगा, दोण्ह वि पुण्णा भवे तुल्ला॥२३॥
व्याख्या-रागद्वेषाज्ञानवतो जन्तूनां वधानिवृत्तानां विनथारूपणादिप्रवृत्तानां ये सूक्ष्मवादरजीवसर्वद्रव्यादयो भाषा Vायायन्मात्राश्च हेसबो-निमिचानि संसारस्य, रागादिविरहितानां सम्यक् श्रद्धानवतामवधावितथवरूपणादिप्रवृत्तानां त एव सर्व
जीवादयो भावास्तावन्मात्रा हेतवो मोक्षे-मोक्षस्थापीस्यर्थः, उक्तं च--"अहो ! ध्यानस्य माहात्म्य, येनकाऽपि हि कामिनी। अनुरागविरागाभ्यां, स्याद्भवाय शिवाय च ॥१॥"
ननु भवत्येवं, किन्तु कियत्सङ्या अमो भवशिवहेतवः ? इत्या -द्वयोरपि भवमोक्षयोः सम्बन्धिनां हेतूनां प्रत्येक
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
गणनया एक द्विध्यादिरूपतयाऽतीता-अतिक्रान्ता लोका भवन्ति पूर्णाः, नैकेनाप्याकाशप्रदेशेनहनाः परस्परं तुल्या- अन्यूनाधिकसङ्ख्याः । ननु त्रैलोक्यान्तर्वर्त्तिजीवादिपदार्थानामनन्तत्वेनानन्ता एव भवमोक्षयोर्हेतवो भवन्त्यतस्ते कथं असङ्ख्येथा इत्युक्तं ? सत्यं, यद्यपि जीवादयो मात्रा अनन्तास्तथापि तैः सर्वैरपि विसदृशान्यसङ्ख्येयान्येवाध्यवसायस्थानानि जन्यन्ते, नानन्तानि, तेभ्यः परसोन्याध्यवसायानां पूर्वाध्यवसायेष्येवान्तर्भावात्, अतस्तञ्जन्याध्यवसायस्थानानामसयेयत्वेनार्थी अप्युपचारादसंख्येयस्वेनोक्ता इत्यदोषः, अतः स्थितमेकाऽपि जीवोपमर्दादिका विराधना परिणामवैचित्र्येण कर्मबन्धहेतुस्तभिर्ज्जराहेतुश्च जायत इति गाथार्थः॥
अथ जीवादयोseः येषां बन्धहेतव येषां च मोक्षहेतवो भवन्ति, तदाह-
इरियावहियाईया, जे चेव हवंति कम्मबंधाय । अजयाणं ते चेव उ, जयाण निव्वाणगमणाय ॥२३९ ॥
व्याख्या - ईरणं ईर्या - गमनं तदुपलक्षितः पन्था ईर्ष्यापथ-गमनमार्गस्तत्र भवपिथिक - गमनागमनं च तदादियेषां भोजनशयनादीनां ते ऐयपथिकादयो भावा य एवायतानां - असंयतानां कर्मबन्धाय जायन्ते, त एव च यत्तानां संयमोद्योगपराणां पुनर्निर्वाणगमनाय भवन्तीति गाथार्थः ॥ २३९ ॥
एगंतेण निसेहो, जोगेसु न देसिओ विही बावि। दलियं पप्प निसेहो, होज्ज विही वावि जह रोगं ॥ २४०॥
व्याख्या -- योगेषु - गमनागमनभोजनादिषु तीर्थकरैरेकान्तेन निषेधो विधिर्वा न दर्शितः, किन्तु दलिकं जीवद्रव्यं 'प्राप्य' समाश्रित्य निषेध विधिर्वा भवेत् । दान्तमाह-यथा रोगे । इदमुक्तं भवति-य कथिद्वैद्योधा जरादावुत्पन्न कश्वित्पवनपीडित परिभाव्य तस्मिन् लङ्घनादिकं निषेधयति, स्निग्धोपचारादिकं त्वनुजानति, अन्यं तु तस्मिन्नेव ज्वरेऽजीर्णपूर्ण परिभाव्य व्यत्यय
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
मादिशति, एवं जिना अपि तथाविधसंहननविकले अध्ययनादिप्रवृत्तं साधुद्रव्यमाश्रित्य विकृष्टतपःकर्मादिकं निषेषयन्ति, स्निग्बाहारादिकं स्वनुजानन्ति, अन्यं तु दृढसंहननं विज्ञाय तस्मिमेव कर्मरोगे चिकित्सनी ये व्यत्ययमेवादिशन्ति, एकस्यैव वा जीवद्रव्यस्य देशकालादिभेदेन कृत्यभेदमादिशन्तोति गाथार्थः ॥ २४० ॥ एवं च सति मुज्यमानाहारादिकोऽर्थः कस्यचि पम्पादिकारणं, किन्तु स्वपरिणाम एवेत्याह-अणुमित्तोविन कस्संह, बंधो परवत्थुपच्चयो भणिओ । तह वि य जयंति जइणो. परिणाम विसोहिमिच्छता ।। २४१ व्याख्या---परवस्तुप्रत्ययाद्वाह्मार्थकारणादणुमात्रोऽपि स्वल्पोऽपि न कस्यचिषो मोक्षो वा मणितः किन्तु स्वपरिणामवादेवेति । शुद्धमनसो बाह्यास प्राणातिपातादिचेष्टासु यथेष्टं वर्तामहे इत्याशनषाद-सथापि यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति मुनयः प्राणातिपाथवर्जनादिविति शेषः, किं कुर्वन्तः १ इत्याह- परिणामस्यैव विशुद्धिमिच्छन्तोऽन्यथा च तच्छुद्धेस्योगादिति गाथार्थः ॥ २४१ ॥
ननु प्राणातिपातादिकं कुर्वन्तः परिणामं शुद्धमेव करिष्यामः १ इत्याह
जो पुण हिंसाययणे- वट्टई तस्स नणु परिणामो । दुट्टो न यतं लिंग, होइ विसुद्धस्स जोगस्स ॥ २४२ ॥ व्याख्या– यः पुना रामादिदूषित चिन्तः घटतया हिंसायतनेषु - हिसारयानेषु उपलक्षणत्वान्मृषावादादिपदेषु चानेकशः प्रवत्तते नमित्यमायां दन्तस्य परिणामो दृष्ट एव न च वाक्यमात्रेणैव परिणामशुद्धता ज्ञायते, किन्तु क्रियाद्वारेण न च वाच्यं कालकार्यस्येबास्माकमपि हिंसादिप्रवृत्तियि शुद्धपरिणामस्य लिङ्गं भविष्यति इत्याह-न च तद्धिसास्थानादिवर्त्तनं विशुद्धस्य योगस्य मनःपरिणामरूपस्य लिङ्गं चिह्नं भजति, यो हि सम्यगज्ञानवान् रामदूषितमना सर्वदा लीवरथादिपरिणतोऽनन्योपायसाध्ये महाकार्य समुत्पन्ने कदाचिदेव विवादों प्रवर्त्तये, तस्य शुद्धपरिणाम चिन्हमपि तद्भवति, परंतु रागादिदोषदुष्ट एव तेषु प्रवर्त्तते तस्य सक्ष्टपरिणामचिन्हमेवेति गाथार्थः ॥ २४२॥
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
किम्बहुना ? सर्वतात्पर्यमेवाद
पडिसेहो य अणुन्ना, एगतेण न वन्निया समए । एसा जिणाण आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ॥ २४३ ॥
व्याख्या - एकान्तेन समये - सिद्धान्ते प्रतिषेधोऽनुज्ञा च न वर्णिता, किन्येव सर्वजिनानामाज्ञा परकायें औपचादिविषये सरपेन- मायारहितेन भाव्यम् । एषणादिशुद्धे सस्मिन्प्राप्यमाणे शठतयानेषणीयादिदृष्टं तभ प्रायमित्यर्थः इति गाथार्थः ॥ २४३॥ तथादोसा जेण निरुम्भंति, जेण खिज्जंति पुव्वकम्माई । सो सो मुक्खोवाओ, रोगावस्थासु समणं व ॥ २४४ ॥ व्याख्यायेनकेनापि च प्रकारेण दोषा रामादयो निरुन्ध्यन्ते येन च पूर्वार्जितानि कर्माणि सायन्ते स स मोक्षोपाय एव यथा हि रोगावस्थायां तदेव मनं औषध रोगमोक्षोपायो, येन पूर्वेसञ्चिताजीर्णादयः क्षीयन्ते, वशतादस्तु निरुन्ध्यन्ते इति गाथार्थः ॥ २४४ ॥
अपरश्य
बहुवित्थर मुस्स गं- बहुयरमवायवित्थरं नाउं । जेण न संजमहाणी, तह जयसू निजरा जह य ॥ २४५ ॥ व्यापा-बहुविस्तरं उत्सर्ग बहुतर विस्तरमपवादं च ज्ञाखा येनोत्सर्गेणापवादेन वा सेवितेन संयमयोगानां हानिने भवति यथा च कर्मनिर्जरा स्यात्तथा यतस्वति गाथार्थः ॥ २४५ ॥ उक्तो बहुधोत्सर्गापवादविषः, अर्थदयोः स्वरूपमाहसामन्त्रेणुस्सग्गो, विसेसओ जो स होइ अववाओ । ताणं पुण वावारे, एस विही वष्णिओ सुते ॥ २४६ ॥
व्याख्या - सामान्येनैव यो विधिरुच्यते स उत्सर्गः यथा-" गोवरगापषिट्टो य, न निसीएज कत्थई । [ कई चन पधेखा, विहिता गवसजए ॥१॥ " ] इत्यादि [ दश० अ० ५३०२ मा० ८] विशेषतो विशेषप्रोक्तो यो विधिः सोऽपवादः,
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
यथा-" सिगादायपEARREJ, मिसे कपजराए अभिभूयस्स, याहियरस तवस्तिणो । १३" [५२० ६-६०] | तयोः पुनरुत्सर्गापवादयोव्यापारे एष वक्ष्यमाणो वविवर्णितः पत्रे-सिद्धान्ते इति गाथार्थः ।।२४६॥ त्रोक्तमेव चार| उस्सग्गे अश्वार्य, आयरमाणो विराहओ होइ । अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गनिसेवओ भईओ ॥ २४७॥
व्याख्या-लानावस्थायामुत्सर्गे चिकित्सादिकं विनाऽपि संयमयोगनिहरूप प्राप्ते अपवाद-चिकित्साकारणादिकमाचरन् | साधुशिधको भवति, अपवाद-चिकित्साकारणादिके पुनः प्राप्ते उत्सर्गनिषेकश्चिकित्सादिकमकुर्वन भजनीयो-विकल्पनीयः, कश्चिच्छुद्धः
कश्चिमेत्यर्थः इति माया ॥२४७॥ एतदेव सप्रश्नोत्तरमाइ--- किह होइ भइयब्बो ?, संघयणघिईजुओ समत्थो य । एरिसओ अववाए, उस्सग्गनिसेवओ सुद्धो ॥२४॥ | इयरो उ विराहेई, असमत्थो जं परीसहे सहिउँ । घिसंघयणेहितो, एगयरेणं व सो हीणो ॥२४९॥
_ व्याख्या-कथमसो भजनीयो भवतीति शिष्यप्रश्ना, उत्तरमाइ-वचमनाराचादिदृढसंहनेन धृत्या च संयमस्थैर्यरूपया यो युक्तः, E! समर्थश्व-बलोपचयसम्पन्नश्च, ईषः साधुर्जिनकल्पिकादिपवादप्राप्तायप्युत्स, निषेत्रमाणः शुद्ध एव । तस्येत्यमप्यार्तध्यानावसम्मवादिति
| हृदयम् । इतरस्तु कश्चिदसारवपुरपवादप्राप्ताबुत्सर्ग सेवमान: आधिानादिसम्भवेन विराधयति, संयममिति गम्यते । कुतः १ इत्याह5 यद्यस्मादसमर्थोऽसौ परीषहान क्षुत्पिपासादीन सोलु । इदमपि कुतः १ इत्या-धृतिसंहननाम्यां द्वाभ्यामन्यतरेण वा यतोऽसो होनो अल । इति गापाद्वयार्थः ॥ २४८-२४९ ॥ अथोत्सवादादिनानगानं जिनवचनं विभाज्याह
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंभीरं जिणवयणं, दुबिनेय अनिउणबुद्धीहिं । तो मज्झत्थेहिं इम, विभावणीय पयत्तेण ।। २५० ॥
बधन ताप गम्मोर-महाथै, अत एवानिपुणबुद्धिमिबिशेपम, तस्मान्मध्यस्थै-रागद्वेषकदाग्रायषितचिरेत. जिनवचनं प्रयत्नेन विभाषनीर्य-विचारणीयमिति नाथार्थ: ।। २५० ॥ ' मनु यद्येवं ताई बतिगम्भीर जिनप्रवचने कोऽपि चारित्री कोऽपि न वा इति न निश्चीयते, तदनिश्चये च सर्वव्यवहारामावप्रसङ्ग इति का पुनश्चारित्रमिय लापपरमायो ! त्या-- उस्सग्गऽववायविऊ, गीयस्थो निस्सिओ य जो तस्स । अनिगूहतो विरियं, असढो सव्वत्थ चारिती ॥२५१॥
व्याख्या-या स्वयमेवोत्सर्गापवादस्वरूपव्यापारादिवेचा, गीतार्थो-गृहीतसम्यक्षरिणमितसिद्धान्तपरमार्थभाचार्यादिः, यक्ष स्वयमनवीततथाविश्वार्थस्तस्येति गीतार्थस्य निश्रितः शिष्यादिः, सस्ववीर्य सर्वत्रानिगूल्यन, स्वक्तितस्तपःसंयमादिषधर्म अमुश्चमित्यर्थः, सर्वत्र च यावृपयादिकत्तव्येऽशठा मायावी, कालोचिस्येन यतमानशास्त्रिीति व्यवहियत इति भावार्थः ॥ २५१ ।।
अथ धरणशुद्धेरेव फललक्षणं चामद्वारमारागाइ दोसरहिओ, मयणमयठाणमच्छरविमुको । जं लहइ सुहं साह, चिंताविसवेयणारहिओ ॥ २५२ ॥ तं चिंतासयसल्लिय-हियएहिं कसायकामनडिएहिं । कह उवमिजइलोए, सुरवरपहुचकवट्टी हिं॥ ५५३ ।।
व्याख्या-रामादिदोषरहितो मदनेन मदस्थानमत्सरेण च विमुक्तः, भादिशब्दलचा अपि मदनादयोऽतिदुर्मयत्वख्याफ्ना पृथगुक्ता, द्रविणोपार्जनरक्षणव्ययादिचिन्तैव विषवेदना, तया च रहित साधुर्यमुखमत्रापि लमते तरसुख लोके चिन्तायतशल्पितहृदयः
%ERY
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
W
W
Mmmaa
++++AAAA
पुष्पमाला लघुतिः ५१३९
कारे मनोयभ्यं वीतराग मुखपैकिं चरणफलं च।
wwwwww
ना
-
-
-
...
काय कामविडम्बितैश्च सुरवर अमुचक्रवनिमिः कथमुपमीयते ? कथं प्रकचक्रवर्ति सुखपदृशं माधुसुखं गीयते ?. न कश्चिदित्यर्थः । तस्मादनन्त गुणस्वातस्येति भावः । इदमुक्तं भवति-नाकास्तिर्यञ्चश्च प्र.यो दुःखिता एवेति न तचन्ता, देवा अयोध्या विवादमदादिभिगमरोद्रध्यानाधगता निन्य दुखिता एव, मनुष्या अप्यद्य-- अन्नं नास्पद नास्ति, मास्ति तैलं घृतं धनं : इन्धन रवणं नास्ति, कधं मावि !
टुम्नकम् ॥ १ ॥ अदा द्विष्टः प्रभू रुष्टः, कुमार्यस्ति मुता सुतः : नायन्पर्थमित्यादि-मचिन्ताविम्सिाः | २ |" अनेक व्याधि नाधिताश्चेति । नित्यं चिन्तादिवर्जितः जिनवचारताः माधव एवेदमऽपि सुखिन प्रति माथाद्वयार्थ ! २५२-५३ ॥
मनु यदि शक्रादिभ्यो यमन्तगुणस्तुका माधवक्ता कर्थ परीषदादिदुःखामायेन मुखितानेव तामावगच्छ : ? इत्पत्रा--- जं लहइ वीयराओ, सुक्खं तं मुणइ सुच्चिय न अन्नो । नहि गत्तासूयरओ, जाणइ सुरलोइय सुक्खं ॥३५४॥
व्याख्या-विशेषेण '' सर्वथैवापरतो मन्दीमती मा गो-माशालोमरूपो यम्य म तया, गामापामे च क्रोधमानात्मक| द्वेषापामा लभ्यत एत्र, द्वेषक्षयं न मागक्षयायोगान् । नतो वीतरागद्वेषो मुनियप्रथममुखं लेते तदनुभवसिद्धत्वात्य एव जानानि, नान्यो
रामादिविषमूच्छित्तः, येन ह्यनादिमवादार याद्यापि प्रमाखलेशोऽपि नानुभूत: स कमिय यकीय मनस्वास्थ्यरूपं प्रश्मनुस्ख कथ्यमानमपि जानाति श्रद्दधाति का ? Bf HT: ! एतदेशा-न मननुभूत सुग्लोकमुखं मदेवाशुचिरममावनिमग्नी पत्ताशक : ममवेतीनि मायाथः ॥ २५४ ॥ तदेवमहिक चामफलमुपदश्योपसञ्जिहीषुः पात्रि च तदर्शयिधुगहइय सुहफलयं चरणं, जावई एत्थेव तग्गयमणाणं । परलोयफलाई पुण, सुरनरवरसिद्धिमोक्खाई ॥२५५!!
व्याख्या-"एत्थेव" ति ह लोके एव चरण-चारित्रं इत्युक्तस्वरूपं सुरूफलदं जायते, केषां ? इत्याद-तद्गलमनसा-याण
-
Amarimminiwan
-
-
-
-
-
॥१६९
-
-
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
मात्रित चिसानां न पुनस्तदुद्विम्नानां उक्तं च--" देवलोपसमाणो य, परिचाओ महेसिणं । स्थाणं भरयाणं तु महा निरयस रिसो ॥ १ ॥ " ति [देश० चूलि० १ गा० १०], परलोकफलानि पुनरनन्तरमये एवं चारित्रिणां दिव्यदेवेन्द्रसुखानि जायन्ते ततोऽपि च्युतानां नरवरा कार्यादयस्तत्सुखानि सम्पद्यन्ते, सचानन्तानि सिद्धिसमन्विमुखान्यपि भवन्तीति गाथार्थः ॥ २५५ ॥
तिष्ठतु तावत्परिपूर्णेन, एक दिनमा विनाऽप्यव्यक्तसामायिकचरणेन परलोके राज्यादिश्रीः प्राप्यत एवेत्याह-
अव्वत्तेण वि सामा- इएण तह एगदिणपवन्नणं । संपइराया रिद्धि, पत्तो किं पुण समग्गेणं ? ॥ २५६ ॥ व्याख्या - अव्यक्तेन तथैकदिनप्रपमेनापि सामायिकेन हेतुना सम्प्रतिराजः ऋद्धि राज्यादिरूपां प्राप्तः किं पुनः समग्रेण-पूर्णेन ? terक्षरार्थः, मावार्थः कथान के नोच्यते---
कोशा दुर्मिचे प्रश्नेऽम्पदा सुइस्तिरिसाधूनां लोकेग्भादिकं बह्वाग्रहे क्रियमाणे दीयमानं केन द्वारस्थेन पुरुषेण चिन्तितं'तुल्येऽपि जीवितव्येऽपनाशतैः सम्बमधुगण्येकान्यनिरीक्षाणां पर्यटतामेतेषां जनो ददाति मम पुनः पापस्य प्रतिगृह प्रार्थयमानस्याप्य मनोज्ञं खक्षा भिक्षाप्रापमपि न ददाति केवलमाक्रोशलिये, सदेवान सुकृतिनः किमपि प्रार्थये' इति प्रार्थिता मुनयो दीक्षां वैरमाणि- गुस्व इदं विदन्ति ततः स पृष्टशो गुर्वन्तिकमगादीक्षामयाचत, असे शासनप्रभावको भावोति ज्ञात्वा गुरुमिदक्षितः सद्भोजनेन मोजितथ, रात्री गावकिnा गुरुभिर्निमितः शुद्धस्याने वर्त्तमानो मृतः । इत पाटलिपुत्रे पुरे चाणिक्यस्थापित चन्द्रगुप्तो बिन्दुसारस्तत्सुतोऽशोक श्रीवस्य सुतः कुणालस्तस्य सुतो द्रमकजीवः सम्प्रतिनामाऽभवत् स चाव्यक्तमामायिकप्रभावेण अनार्यानपि कृत्य भरंतादधिपो जातः अन्यदोज्जयिन्यां गवाक्षस्यो जीवत्स्वामिप्रतिमावन्दनार्थमागतं श्रीसुस्तरि नगरीराजमार्गे दृष्ट्वा जातजातिस्मृतिस्वा
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
MMtn
तमनन्दत । गुरुणां पार्श्वे धर्मदेशनां श्रुत्वा पृष्टम्-किंफलो जिनधर्मति , गुरु[
मिचे-वर्गाश्वगफलः । पुनः सामायिकस्य कि फसमिति प्रश्ने अध्यक्तमामा यकस्य गज्यं फलमित्युक्त जातहढप्रत्ययो गजा पप्रच्छ-भगवन ! प्रत्यभिज्ञायते ? कोमिति । गुरवः श्रुतोपयोगपूर्व हास्वा प्राह-काम जानीमः, राजन् ! पुग यूयं अस्माध्यिा असूवन कौशाम्यो, मतो दृष्टो सामादिगुरुगुणविस्मितः श्रापकर्म प्रतिपय विधिवत्करोति । स च जिनप्रामादमण्डितां मेदिनीमकाम्यत, श्रीजिनधर्मोप्रत्यर्थ साधुः प्रेषितश्राद्धैरनार्यदेशेषु दण्डदापिन्पमुख्यान्मनुष्यान [पनि जिनधर्म कारितवान् । ततः कियकालं अनार्यदेशेष्वपि मुसाविहारोऽमबत् । पुनर्वहन भयोग्पालाना योगादरुपानां यंग्यकुलानो सम्भवः स्थितः। अथान्यदा नृपः पत्रमाङ्कस्वं स्मान् चतुषि नगाद्वारेषु महादानाला: कारयित्वा महादानं बदत, भोगिरिवमयनादिमहानसिकम्यो मूल्येन गृहीत्वा साधुभ्यो यच्छति, अमूल्यदान चाविदन्तः सास्सद्गृहन्ति । एवं च सति मजनोऽप्येवमेव प्रातः। तच विदन्तोऽप्याचार्याः शिष्यानुगगान निवारयन्ति । अथैकदा उज्ज्ञाता भार्यमहानिरिक्षया मार्यसहस्तिनमुपालमन्ते, स मणति-जनो रामाऽनुवृत्या स्वयं ददाति, कात्रानेषणा १ इति, सतः परिर्माया एषा ति कुपितः मार-मार्य प्रभृति सपा सहासम्भोगोऽस्माकं । शत: सुस्तिभिरून सामयित्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्तम् । तमोऽन्यत्र विजः। श्रीसम्प्रतिरपि श्रावकत्वं प्रपाल्य । वैमानिको शासा, क्रमेण सिद्धि यास्यति । अव्यक्तमप्येवं फल किं पुना प्रतिपूर्ण सामायिकमिति मम्मतिराजकपा ममाता ।। इत्युत्सर्गापवावा, शुद्ध निगदितं जिनः । चारित्रं प्रतिपन्नो हि, प्राप्नुयात्परमं पदम् ॥ १ ॥
इलि पुष्पमालाविवरणे भावनाबारे चरणशुद्धिरूपं प्रतिद्वार समाप्तम् ॥ ७ ॥
K
an.-------
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ करणजयलक्षणं प्रविद्वारे दिमणिः पूर्वेद्वारेण सह सम्यन्त्र गाथामाद---
अजिदिएहिं चरणं, कटुं व घुणेहिं कीरइ असारं । तो चरणइत्थीहिं, दर्द जयव्वं इंदियजयम्मि ॥ २५७॥
व्याख्या- -पुणे-मंध्ये सारभूत पक्षणपरैः कौटविशेषेः काष्टमित्र अजितेन्द्रियैः कष्टानं कुर्वजिग्य निवृत्त रसना दिलोज्यैः साधुभि वाणमपारं - अन्तस्वभ्वशून्यं कियते, ततः सारचरणार्थिनिरिन्द्रियजये दृढं यतितव्यमिति गाथार्थः ॥ २५७ ॥
अथ प्रस्तुतद्वारेण भविष्यमाणार्थसङ्ग्रहमाद-
भेजो सामित्तं चिय, संठाण पमाण तह य विसओ य । इंद्रियगिद्वाण तहा, होइ विदागो भणियो
व्याख्या - इन्द्रियाणां मेदः प्रकारां वाच्यः, तथा केर्षा जीवामा कतीन्द्रियाणि स्वरित्येवं रूपं स्वामित्वं च वाच्यम्, कदम्बपुष्प गोलकाका संस्थानं, अङ्गुला सङ्ख्येयमानादिकं प्रमाणे, द्वादशयोजनादिको विषयः, इन्द्रियगृजन्तूनां विपाकवैहिकदुःखादिको मणिष्यत इति गाथार्थः ॥ २५८ ॥ तत्र पञ्चविधत्वरूपं भेदमाइ
ida इंदियाई, लोयपसिद्धाई सोयमाईणि । दव्विंदियभाविंदिय-भेय विभिन्नं पुणिकिकं ।। २५९ ।।
उपाख्या -- लोकप्रसिद्धानि श्रोत्रादीनि पश्चैषेन्द्रियाणि, उद्वैविध्यमाह-द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियभेदाभ्यां विभिन्नं पुनरेकैकं भोत्रादि द्विमेदमिति गाथार्थः । २५९ ।। सत्र द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रिययोः स्वरूमाह
अतो बहिनिव्वत्ता, तम्मतिरूवयं च उवगरणं । दव्विदियमियरं पुण, लडुवओगेहिं नायव्वं ॥ २६०॥
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - भवणादीन्द्रियाणां 'अन्त' मध्ये चक्षुगबगीता केवलिष्टा कदम्बपुष्पगोलकाद्याकाश देहावयवमात्ररूपा या निर्वृतिः साऽभ्यर्निर्वृत्तिः, पहिर्निर्वृतिस्तु पहिरेव श्रोत्रादीनां कर्णशष्कुलिकादिका दृश्यमानाऽवमन्तव्या तेषामेव कदम्बगोलकाकारादीनों या स्व स्वविषयग्रहणशक्तिस्तत्स्वरूपं चोपकरणं द्रष्टव्यम्, ततोऽन्सर्वडिस या निर्वृतिस्तस्था अन्तर्निर्वृतेः शक्तिस्तत्स्वरूपं च यदुपकरणं, एतद्वितयमपि द्रव्येन्द्रियमुच्यते, " निर्वृभ्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्" इति [०२-१७] वचनात् । इतरद्-भावेन्द्रियं पुनर्लघुपयोगाम्यां व्यम् । तत्रज्ञानाकरणादिकर्मक्षयोपशमाओवस्थ शब्दादग्रहणशक्तिलेब्धि, उपयोगस्तु कब्दादीनामेव ग्रहणपरिणामः, एतसु द्वयमपि माषेन्द्रियमिति भावः इति गाथार्थः ॥ २६० ॥ अथ स्वामित्वद्वारमाह
पुढविजलवाया, कासा पनिदित विभिरिहा । किमिसंखजलूगालस माइवहाई य बेहंदी ॥ २६२ ॥ कुथुपिपीलिय पिसुया, जूया उद्देहिया य तेहंदी । विच्छुयभमरपयंगा, मच्छियमसगाह चउरिंदी ॥२६२॥ मूसयसष्पगिलोइय--बभणिया सरडपक्खिणो मच्छा । गोमहिस समय सूअर - हरिणमणुस्सा य पंचिंदी ॥ २६३ ॥
व्याख्यामादरादिभेदभिनाः पृथिव्यादयः एक-स्पर्धानमेवेन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रिया विनिर्दिष्टाः । कृम्यादमो - स्पर्शनउसने इन्द्रिये येषां द्रीन्द्रियाः । कुन्यादयः त्रीण-स्पर्शनरसनप्राणानीन्द्रियाणि येषां ते श्रीन्द्रियाः । वृश्चिकादयत्यारि-स्पर्शनासनप्राणचन्द्रियाणि येषां से चतुरिन्द्रियाः । सूषकाद्याः पञ्च-स्पर्शनासनम्रानचक्षुः षोत्राणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः । "पिय" ति सुलमकाः, सरदा:- कुकलाशाः, "माइवइ" चि मातृवहका ये काण्डानि समानि सम्बन्नन्ति, शेष व्यक्तमिति गायाश्रयार्थः ।। २६१-६२-६३ ॥ संस्थानद्वारमाह
m
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
कार्यबपुष्फगोलय--मसूरअइमुत्यस्स पुष्पं व । सोयं च घाणं, खुरप्पपरिसंठियं रसणं ॥ २६४॥ | नाणागारं फासिं-दियं तु
व्याख्या-श्रोत्रं चक्षुणं रसनमिति चत्वान्दियावन्तनिश्चिमाभिस्य क्रमेण कदम्पपुष्पगालक १ पान्यमसूर २ मतिमुक्तक | कालापुष्प ३ क्षुम्प्र-प्रहरण ४ संस्थानानि मन्तव्यानि । स्पर्शनेन्द्रियं तु नामासंस्थान, तद्व्याप्यानां सर्वजीवधरीराणामसङ्येयत्वास दाकारपरिणतं स्पर्धनमप्यसयेयाकारमिति भाव इति सपादगाथार्थः ।। १६४ ॥ प्रमाणद्वारमाभिस्या
बाहल्लओ य सव्वाई। अंगुलअसंखभागं, एमेव पुहत्तओ नवरं ॥ २६५॥
अंगुल पुहत्तरसणं, फरिसं तु सरीरवित्थडं भणियं ।
व्याख्या-श्रोत्रादीनि सर्वाश्यप्यन्तनिवृत्तिमाश्रित्य पाहल्यत:---थूलतया प्रत्येकमङ्गुलासयेयमागप्रमाणान्येष, पृथुत्व all माश्रित्याप्येतदेव प्रमाण, नवरं-उत्कृष्टतो रसनेन्द्रियकस्यचिदङ्गुलपृपक्त्वमपि पृथुलं भवति, स्पर्शनेन्द्रियं तु स्वाधारभूतकरीरविस्तारोपेस | द्रष्टव्यमिति सार्द्धपादोन] गाथार्थः ॥ १६५ ॥ अय विषयद्वारमाह
बारसहिं जोयणेहिं, सोयं परिगिण्हए सई ॥ २६६ ॥ रूवं गिण्हइ च, जोयणलक्खाउ साइरेगाउं । गन्य रस च फासं, जोयणनवगाउ सेसाई ॥ २६७ ।
व्याख्या-श्रोत्रं तायन्मेवगर्जनादिशब्दरूपं स्वविषयमुस्कृष्टतो द्वादशमिर्योजनैर्व्यवहितमागतं परिगृहाति-शृणोति, न परतः
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
चक्षुः पुनरुत्कृष्टतो योजनलक्षात्सातिरेकापं गृह्णाति, विष्णुमादे कृतसाधिकलधयोजनमानक्रियदेहस्य स्वधरमपुरोवर्तिगाधन्तर्गत लेवादिकं पश्यतयापा सातिरेकयोजनलवषिषयता द्रष्टव्या, एतथामारपदापेक्षयोक्तं, भास्वरं वधिकमपि पश्यति, यथा
"पणसयमततीमा, घडातीसमहस्सलक्खड्गयीसा । पुक्खरदीपवनरा, पुटप्रेणऽवरेण पिछति ॥ १ ॥” इति ।
शेषाणि पुनर्माणासनस्पर्धनेन्द्रियाणि यथासङ्ख्यं गन्धं रसं पः च प्रत्येकमुत्कृष्टतो योजनमवकादागतं गृहन्ति, न पातस्तथाहिकश्चित्पघ्राणादिशक्तिर्देवादिः काहीनामुत्करतो नयोजनानुगिनानापि भाग गन्धं गृह्णाति, तितकटुकादिरसं च वेति, शीतादिसमिपि परिच्छिनत्तीति सार्द्धगाथार्थः ॥ ६६-६७ । जघन्यतः पुनः कियन्तुरस्थितं स्वविषयमेवानि गृहन्तीत्याअंगुल असंखभागा, मुणंति विसयं जहन्नओ मोत्। च तं पुण जाणइ, अंगुलसंखेजभागाओ॥२६८॥
व्याख्या-चक्षुर्मुक्रमा शेषाणि सर्वाण्यवि इन्द्रियाणि जवन्यतोऽङ्गलासङ्ख्येयभागे स्थितं प्रत्येक विषयं गृहन्ति, सहि क्षुपः | all का बार्नेस्याह-तत्पुनश्चक्षु नाति जघन्यतो रूपं अङ्गुलसङ्ख्येयमागे स्थित, मतिसन्निकृष्टस्य चक्षुषा अनुपलम्मादसयेयमागस्थितं | भत्यास चक्षुर्न पश्यत्येवेति गायाः ॥ २६८॥
मिन्द्रियार्थगृद्धिविपाक एव वाच्यः, तस्यैव वैराग्यजनकत्वात, किमिन्द्रियमेदादिकथनेन ? इत्यारइय नायतस्सरूवो, इंदियतुरए सएसु विसएसु । अणवस्यं धावमाणे, निगिण्हइ नाणरज्जूहि ॥ २६९ ॥
व्याख्या----इत्युक्तप्रकारेण ज्ञानेन्द्रियभेदादिस्वरूप एव पुरुष इन्द्रियतुरगान स्वेषु स्वेषु विषयेषु अनवरतं धापमानान प्रवृत्तिमाको | ज्ञानबल्गामि सुखेनैव निगृहाति, नाज्ञातं निगृहीतुं शक्यते, इति इन्द्रियभेदादयोऽपि कथनीया एषेति गावार्थः ॥ २६९ ॥
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
का पुनरिन्द्रियैर निगृहीतदोका ? इस्यातह सुरोतह माणी, तह विक्खाओ जयम्मि तह कसलो। अजियं दियत्तणेणं. लंकाहिवागओ णिहणं ॥२७१
व्याख्या-'तथा' तेन लोकप्रनिदेन प्रकारेण शूगा, तथा मानो महङ्कारी, तथा प्रगति विख्यात)-प्रसिद्धस्तथा कला, सोई लाधिपती राषणः सीताहरणाधमिव्यङ्गेनाजितेन्द्रियत्वेन विमस्यशोधीवितनाशलक्षणं निषनं गतः, किं पुमरितरः । इति गाथार्थः ॥२७.
राणकथानकं तु लोकेऽप्यतिपसिद्धमेवेति न किश्चिदेवोपते, यदि पा रावणः शूर एच न भक्तीस्था:---- देहटिएहिं पंचहि, खंडिजह इंदिएहिं माहप्पं । जस्स स लक्खपि बहि, विणिजिणतो कह सूरो? ॥२७॥
व्याख्या--देहस्थितैः पञ्चभिरिन्द्रियैर्यस्य सामर्थ्य खण्यते स हि पुरुषलवमपि विनिर्जयन कथं शूरो ?, न कश्चिदि गाथार्थः ॥ २७१ ॥ कस्तहिं शूरः १ इत्याहसोचि य सूरोसो चेव, पंडिओ तं पसंसिमो निच्चं । इंदियचोरेहिं सथा, न लुटियं जस्स चरणधणं ॥२७२
व्याख्या-- एचशूरः, स एव पण्डिता, समेव नित्यं प्रशंसामो, यस्य चरणधन मिन्द्रियोरेन लुपिटतमिति गापार्षः ॥ २७२ ॥
मथोदाहरणाद्वारेणोपदेषमा:---- सोएण सुभद्दाई, निहया तह चक्खुणा वणिसुयाई । घाणेण कुमाराई, रसणेण हया नरिंदाई ॥२७॥ फासिदिएण वसणं, पत्ता सोमालियानरेसाई । इक्केिण वि निहया, जीवा किं पुण समग्गेहि ? ॥२७॥
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या- प्रोत्रणा निगृहीतेन समदादयो निहता. अत्रैव पवे मारणान्तिकीमापदं प्राप्ता, तथा पाषाऽनिगृहीतेन बक्सितायो । निहलाः, घ्राणेन पुन (राज) कुमारादयो निताः, उसनेनानियन्त्रितेन इता नरेन्द्रादया, स्पर्धनेन्द्रियेण धादिव्यसनं प्रामा मालिकासम्बन्धिमरेशादयः, एक्मेकैकेनापीन्द्रियेण जन्तयो निस्ताः किंपुनः समरिति गायावयार्थः ।। २७३-७४ ॥
मद्रादीनां कथानकानि पुना क्रमेणानि मन्तव्यानि, तपथा
सन्तपुरे धनसार्थवाद: समृद्ध था पदव विख्याता, तस्य सुभद्रा मायो, अबदा पनो वाणिज्याथै देशतरं गतः। अन्यदा असन्तपुरे मधुरस्वास पुष्पकालनामा mयन: किराणामपि श्रवणसुखं गानं हन सुभद्रया चिरकार्यप्रेषितदासीमिष्टस्तद्गीतं पापर्व का भुतं । हतचिसद्गुर प्रामा निस्सितात सुमद्रया मन्ति-स्वामिनि! कि कोपं करोष ? मन्त्र कारणं शृणु-पदयास्मामिति पुष्पलाल स्म VI अतं तेमाक्षिप्ता कोऽपि निषलास्तिष्ठन्ति, कि पुनर्मनुजाः १, सतोगपि कालो न शात | भद्रा प्राइ-गयेवं ममापि । तद्गेयं श्रावयन्तु, दासीमा प्रतिपक्ष, अन्यदैवत्र देवकुलपात्रायो प्रसार्या मिलितेषु लोकेषु पुष्पकाले गीतं मायति समद्रा व विलोकितुं गता, सावरपुष्पकालो गानं कृत्वा देवलपछौ हप्तः स तत्र दासीमिति। कुरूपं पिङ्गल के दन्तरं दृश्या धकृत्य पार कप ताशमेवेतस्थ गेयं मावि, आकृतिविहे कुतो गुणा ? इति निन्दनी स्वगृहं पुनर्गता। तत्र सनिहितेन केमवित्पुष्पमालव । सुमद्रास्वरूपात । गायनो सस्तस्पतिदेशन्तरगमनस्वरूप ज्ञात्वा तद्गृहास गवा या सार्थवाहयालितो देशान्तरं च प्रातः, यथा रामा मानितो मनमर्जित, यथा च बलिस क्रमेण गृहं प्राता, इत्यादि सलमेव रात्री सपा गातुं प्रातो पथा सा साहप्रदीतविहानला प्रासादोपरिषमप्यारमानं भमिक मन्यमाना प्रकर्ष प्राप्त गीते भाका क्रमं दमा भूमौ पतिता मृता, एवं नितिनं कृत्वा पुष्पमालोऽन्यत्र
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
गठः । एवं मोत्रनिमितं सुकृता, परलोक दुःखमनुभविष्यति, आदिशम्यादन्येऽपि समयप्रसिद्धा ज्ञातव्याः । इति श्रोत्रे सुभद्रा कथा समाप्ता ॥
काञ्चनपुरे भी मिल श्रेष्ठी, यशोमद्रा भार्या तयोः सुतो जातः सर्वलक्षणलक्षितोऽपि लक्षणविद्वियलचक्षुस्वास्त्रीलोलो भावीति प्रोक्तः सोऽपि मालकालायां नारीं पश्यति तत्र तत्र दृष्टि बनाति, इति जनैर्लोला इत्याख्यया जल्पितः, यौवने पुनः काचिद्रूपवती तदनुधावन काचिदालिङ्गन् तद्व्यतिकरेण स्थानेस्थाने जनैः द्वितो दुःखानि विषहते । अन्यदा मगधदेशे रूपवती स्त्रीः श्रुत्वा व्यवसायादिमिषेण च घनमादाय गतस्तत्र हई गृहीत्वा व्यवहरति । तत्र काञ्चिद्रपवर्ती लोलाक्षत्वेन स्पृशन् बद्धो राजपुरुषैर्धनं सर्वे गृहीतं, राझेोऽग्रे नीयमानोऽन्तरा पितुर्मित्रेण द्रुमनाशा नोपलक्ष्य बहुव्यैमचयित्वा स्वगृहे नीतः स तत्रापि श्रेष्ठमार्यायां नयां carri लुन्धः सज्ञात्वा बेष्ट्री द्वैराश्यात्सर्व त्यक्वा प्रान्नाजीत् । लोलाक्षस्तु सद्गृहवासेऽप्यन्यदा सुरसुन्दरीनाम्नी राजपत्नी रूपवर्ती दृष्ट्वा धृतिमान रात्र गृहं प्रति वजन केनचिद्विद्या साधकेनान्तराले धृतोऽरण्ये गृहीत्वा विद्यासाधनवांसार्धं प्रतिदिनं छेदितसर्वाङ्गांशोऽश्रेष aresai दुःखमनुभवन् विधासाधकं प्रत्याह-मोः ! मम समाध्यर्थमेकदा राजपत्नीं दर्शय पथाज्जीवितं हर, इत्यादि मानसशारीरदुःखसन्तप्तस्तन दिनानि गमयति, तावदेकः काश्चनपुर निवासी श्रीनिलयश्रेष्ठिनो बालमित्रो वनोमनामा सार्थवाहो वाणिज्ये आगत्य विनिवृत तस्मिन् प्रदेशे विधायन देवयोगालोलाई बौक्ष्य गतस्तस्मीपे सपरिवार । लोलाक्षोऽपि प्रणष्टमयः स्वस्वरूपं प्रोक्तवान् ततस्तेनौषधैः शरीरपरिकर्मणां कारयित्वा सज्जीकस्य मुक्तः, पुनः राशीदर्शनार्थ मोहितो राजगृहे गतः स्व [१४] गृहे] चनवस्था व इयन्ति दिनानि स्थितः ११ इति पृष्टे वस्वन्तरेणोचरं कृतवान । ततः सुरसुन्दरीबिरधन दितो राजभवनं गतचक्षुर्लोलः, रार्शी eat af प्रति भावन् राजपुरुषैर्वच्या
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
नानाप्रकारे विडम्बितो राजादेशेनोलम्बित
छाला, राजपुरुषैर्मृत इति ज्ञासा त्यक्तः, ततो वैवातिपाशो वनपवनैर्लब्शश्वासः लागतो धनवतीगृहे । तथा च सः कृतः । अन्यदा तत्र बने केवलिनं समागतं नन्तुं नृपादयो यघुर्लोलाक्षोऽप्यगात् । तत्रापि aleraterद्रा our freसारितो राज्ञा । ततो मण्डन् स काञ्चित्समागच्छन्तीं पश्यन् भवेन हतो रौद्रध्यानानृतीयन के उत्कृष्टायुनरको जातः अन् सर्व अमिष्यति, केवलिना स्पर्श्वने १ [ चक्षुरि ]न्द्रियस्वरूपे प्राके वैशम्यान्नृपः प्रवज्य प्रासकेवलः सिद्धः । तदेवं लोलाषा इतः एवमन्येऽपि वाच्याः समयप्रसिद्धा:, इति चक्षुषि लोलाक्षारूपानकं समाप्तम् ॥
वसन्तपुरे नरसिंहनृपस्य ज्येस्तो राज्याईः सर्वगुणमयः परं घाणलोलः सुरभि दुरभि वा गन्धे हा सर्वमेकदा जिति । पितृगुर्वादिभिर्निपारितोऽपि न विद्वति प्राणोस्यात् । अन्यदा सदस्या मात्रा स्वपुत्रराज्येच्छया मञ्जूषायां उज्वल विपपुटिकां क्षिया 'इमारस्य नदीजले क्रीडता उपरि पार्श्वे सामोचि कुमारेण सां नवीनां तरन्तीमागच्छन्तीं दृष्ट्वा हृष्टेनोमुद्रय - विलोकयता पुटिकाऽदर्शि अत्रे च । ततः कुमारः क्षणेन प्राणः परित्यक्ता, अतो यदपि तदपि वस्तुनाऽऽघातव्यं न च सुरमिदुरभिगन्धेषु मूर्च्छा इत्सा वा कार्या इति घ्राणेन्द्रिये राजसुतकथा समाप्ता ॥
मिथिलानग विमलयचानृपोऽन्यदा बहिस्थाने केवलिनं नन्तुं गतस्तस्य धर्मकथां कथयता भगवती"अक्खाण रसणी कक्रमाण मोहणी तह बयाण बंभवयं । गुतीण व मणगुती, चडरो दुक्खेण धि ( जि) पंति ॥ १ ॥
ततो नृपेणोक्तम्-भगवन् ! शेषेन्द्रियेभ्यो रसनं कुसो दुर्जेयम् १, उच्यते-रसनस्य निग्रहे क्षुधालान्तस्य गेपरूपादीन्परतिं जनयन्ति * " सध्वनिते स्थादे, रसशारास्नयोरपि । " इति हैमानेकार्थः का. ३, लो. ४३१।
}
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचित्रसमोक्का तु ललितयं रतिसुखं कर्पूरामरुचन्दनं विलेपनादि च प्रार्थयते, यथा च इसे सिकेत फलति मुझे शुष्के शेषाङ्गान्यपि पन्ति तथेन्द्रिravrit रसने प्रीणिते पहुभिर्विकारः फलति तस्मिन पुनः शुन्के शुष्यति, तदिदमेव दुर्जेयं, अस्मिथ जिते निःशेषाणि जितानि । मत्रोदाहरणम्----
safat fasनृपः, तस्य द्वे मायें-मसुन्दरी अशुभसुन्दरी च । प्रथमायाः पुत्रो faguनामा दक्षः कृतः सरलो धीमान, द्वितीया तो अतिविकारः पूर्वस्याद्विपरीतगुणो विशेषतो रसलोecer लोके सलोल इति विख्यातः । यथाकामं खाद्याखाद्य पेयापेयं च मुङ्क्ते, सोऽन्यदा रोगैर्व्याप्लो वैद्यैलेना (चै) यां प्रोकोऽपि न च लङ्घनं करोति, गाढं बहुमी रोगे पीडितोऽन्यदा भ्रातुर्वचसा दाक्षिण्याल्लङ्घने स्थितो भ्रातरं भोज्यैमनं कृर्षाणं दृष्ट्वा चिन्तयति, यथा-दुष्टोऽयं, मां अत एव वारयति योजनाद दही सर्व मधुरं सुजे, नूनं सपलोजो भ्राता बैरी स कथं दिसः ? इति ततो रे !! मां मोज्याभिवार्थ भवान के क्लास रिकामादाय भ्रातरं हन्तुं दधावे, विबुधो पातं वञ्चयित्वा वैशम्यास्त्राबाजीत, लोलया समं चूर्णितेन्द्रियसैन्यः प्रातकेवल: सोऽहमिहागतः । विमलयचानृपेण सकौतुकं पृष्टं भगवन् ! विकलयविना पुरतः किं प्राप्तम् , भगवानाह स च राजा जातो विशेषेण रसगृद्धो लियो मनदव एव न किञ्चित्यजन् पलं मुङ्क्ते, अन्या बक्कारेण पलपाके कृते सन्मार्जार्वा मुक्तं भौतेन सूपकारेण वापि मृतप पलं (लम्, तदेव ) लावा संस्कृत्य मोजितो नृपः। ततो मनुष्यपले लुब्धो शलकान् प्रतिदिनं नगराद्यञ्जन मन्त्रिभिर्बध्वामाल्लघुभ्राता राज्ये स्थापितः बन्यो रक्षो मुत्वा मनुष्यान सुके, अपेकदा मिलाके च तक्षणे क्रुद्धेन मिलेन पापेन मानों । ततोऽनन्तं संसारं भ्रमिष्यति । इत्याकर्ण्य विमलमचो नृपः प्रवश्य प्राप्तकेश्लो विद्युश्केवलिना समं सिद्धः इति
यानीं नीतः । विद्धो मृतो
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिह्वेन्द्रिये रसलोलपकथा समाप्ता ॥ - वसन्तपुरे जितशवपः, सुकुमालिका राजी, तस्याः कोमलस्पर्शेऽत्यासक्तो नृपो देशराज्यपरिजनचिन्ता त्यक्तवान् । ततो
मन्त्रिभिस्सरानीको निद्राभरे बद्ध्वा महावने मुक्तः, तत्सुतो राज्ये स्थापितः । अथ तयोर्मार्गे महाष्टव्यां गच्छतो देवी परि15 श्रान्ता वृषिता पुरो गन्तुं न शक्नोति । राजा ता एकत्र स्थापयित्वा सवत्र गवेषयन् यावज्जलं न लभते तावत्क्षुरिकया स्वबाहु
भ्यां शोणितं निष्कास्य पुटिकायां क्षिप्त्या मूलिकाक्षेपेणाच्छं विधाय पायतिस्म । ततो दृढं क्षुधिता जाता सा, अन्यस्याहारस्याभावे निजोर्वोर्मासं छित्त्वा संरोहणमूलिकया व्रणरोथं कृत्वा दवाग्नौ भर्जयिस्वा शशादिमांसच्छलेन राज्ञा सा भोजिता । एवं गङ्गातीरे क्वचिनगरे प्राप्तो नृपो देच्याभरणमूल्येन वाणिज्यं कुरुते । अन्यदा देवी प्राह-पूर्वमह सखिभिन नागीताद्यर्विनोदिता तदिदानी कथमेकाकिनी तिष्ठामि ?, सत्कमपि मानुष मे सखायं कुरु, ततो नृपेणायं कलावानिति विचिन्त्य पङ्गुहे स्थापितः, न पुनरिदं ज्ञातम्-यथा वनेषु वल्ल्यः प्रत्यासत्रमेव तरुमाश्रयन्ति आम्र वा निम्ब वा, इति नार्योऽपि सगुणमगुणं वा नीचमुसम | वा आसनमेव पुरुषं भजन्ते, ततः पङ्गुस्वरादिमोहितया तेनैव समं लुब्धया अन्यदा गङ्गातीरे गतो नृपः प्रेर्य जले क्षिप्तः क्यापि
तटलग्नः श्रान्तः सुतस्तरुतले । पुण्येन छाया तदुपरितो नापसरति । तत्रच तत्पुरनृपे अपुत्रे मृते दिव्यैरभिषिक्तो राजा जातः । सकमालिकाऽपि हस्तगत द्रव्यं भुक्त्वा पदचोरलके क्षिप्त्वा भिक्षा मार्गयति. पडाः प्रतिग्रहं गीतं गायति. प्रतिपर च हिण्डमाना दैवाज्जितशत्रनृपपुरे प्राप्ता, राज्ञा गवाक्षस्थेन दृष्टा, आकार्य पृष्टा, भूमिस्था प्राह-पितृदेवत्राह्मणैरेष एव दत्तो भर्ता, ततः शीलं पालयन्ती पतिव्रताऽहं । नृपः प्राह-" बाह्रो रुधिरमापीतं, उार्मासं च भक्षित । गङ्गायां वाहितो भर्ता,
reAMERAHESA KAPLACES
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
GESecSS
साधु साधु पतिव्रता ॥१॥" निर्विषयाऽऽज्ञप्ता । इति स्पशनेन्द्रिय व्यसनहेतुर्नृपस्य देव्याश्च सविशेष जातम् ।।
॥ इति स्पर्शनेन्द्रिये सुकुमालिकानृपकथा समाप्ता ॥ सेवंति परं विसमं, विसंति दीण भणंति गुरुआवि । इंदियांगेद्धा इहइ, अहरगई जति परलोए ॥२७५॥
___व्याख्या-इह इन्द्रियार्थगृद्धाः प्राणिनः पर-मन्यं सेवन्ते, विषम सङ्ग्रामादिकं विशन्ति, तथा दीनं प्रार्थनादिरू भणन्ति महान्तोऽपि, परलोके च नारकतिर्यकुदेवमनुजरूपां अधरगति यान्तीति गाथार्थः ॥ २७५ ॥
इन्द्रियवशगानां यानि दुःखानि तेषामनन्तत्वात्स्वस्य तणनाशक्तिमाहनारयतिरियाइभवे, इंदियवसगाण जाइंदुक्खाई।मन्ने मुणेज्ज नाणी, भणि पुण सो विन समत्यो॥२७६
व्याख्या-इन्द्रियवशगानां नारकतिर्यङ्नरामरभवेषु भ्रमतां यानि बन्धनताडनमारणादीनि दुःखानि जायन्ते तान्यहमेवं मन्ये-सण्यपि जानीयात्केवली, नात्र संशयः, भणितुं-प्रत्येकं कथयितुं पुनः सोऽपि न समर्थः, तेषामनन्तत्वात्केवलिनस्त |परिमितायुष्कत्वात् , ततः कुतोऽस्मादृशस्याज्ञानिनस्तद्भणनशक्तिः ? इति गाथार्थः ।। २७६ ॥
अथेन्द्रियजयद्वारमुपसंहरन् वक्ष्यमाणकषायनिग्रहद्वारप्रस्तावनामाह--- है तो जिणसु इंदियाई, हणसु कसाए व जइ सुहं महसि । सकसायाण न जम्हा, फलसिद्धी इंदियजए वि
___ व्याख्या-यत एवं तस्मात्त्वमिन्द्रियाणि जय, तथा जहि-समुन्छिन्द्धि कषायान् , यदि स्वर्गापवर्गसुखं वाञ्छसि
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAAAAAAA
न विन्द्रियजयमात्रादेवोक्तफलप्राप्तिर्भविष्यतीत्याह-यस्मात्सपायाणामिन्द्रियजयेऽपि फलसिद्धिर्न भवतीति गाथार्थः ॥ २७७ ॥ इति मनिलनः मत खल्या महलजिनोदितां, प्रकृतिमशुभां पश्चाक्षाणामनिग्रहदारुणाम् । | शिषसुखरसाकारक्षेणैषां जयाय महोयमः, शमवमवता कार्यः स्थैर्य विधाय निजे हृदि ॥१॥ [पृथ्वीवृत्तम् ]
इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे करणजयलक्षण प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥८॥
अथानन्तरमेव सम्बन्धितं कपायनिग्रहद्वारं विभणिधुर्मणिष्यमाणार्थसङ्ग्रहद्वारमाह| तेसि सरूवं भेओ, कालो गइमाइणो य भणियव्वा । पत्तेयं च विवागो, रागहोसत्तभावो य ॥२७८।।
व्याख्या-'तेषां ' कषायाणां यथार्थाभिधानतारूप स्वरूपं तावद्वाच्यम् , तथा भेदो वाच्यः, तदवस्थितिरूपः कालो, | देवगत्यादिका गतिः, आदिशब्दाघरकगत्यादिषु क्रोधावधिकत्वादयो भणितव्याः। प्रत्येक चैहिकामुष्मिकफलरूपः क्रोधा
दीनां विपाको वाच्यः। तथा रागद्वेषत्वेन भवनं-भावो वाच्यः, कः कषायो रागेऽन्तर्भवति ? को वा द्वेषे ? | त इति माथार्थः ॥ २७८॥ तत्र स्वरूपद्वार तावदाह---- कम्मं कसं भवोवा, कसमाओ सिंजओ कसाया तो। संसारकारणाणं, मूलं कोहाइणो ते य ॥२७९॥
व्याख्या-कष्यन्ते-हिंस्यन्ते जीवा अनेनेति कर्ष-कर्म अस्मिमिति वा कष-श्चतुर्गतिको भवः। ततश्च "कसं" | ति विभक्तिव्यत्ययात्कपस्य-क्रमणो भवस्य वा आयो-लाभः, "सिं" ति एतेभ्यः क्रोधादिभ्यो यतो भवति "तो" ति
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्मात्कारणाद्यथार्थनामानः कषायाः क्रोधादयो भभ्यन्ते । भवलाभ हेतवश्च गौणस्याऽपि स्युरित्याह- संसारकारणानां असंयमादीन मध्ये मूलं प्रधानं कारणं कपायाः, के ते? इत्याह-ते व क्रोधादयः, आदिशब्दान्मानमायालोभा इति माथार्थः ॥ २७९ 'मेदद्वारमभिधित्सुराह
कोहो माणो माया, लोभो चउरो वि होंति चउभेया । अणअपञ्चक्खाणा, पञ्चक्खाणा य संजलणा ॥ २८० व्याख्या - क्रोधादयश्चत्वारोऽपि प्रत्येकं चतुर्वेदा भवन्ति, सदेवाह - सूचनात्सूत्रस्यानन्तानुवन्धी क्रोधः, अप्रत्याख्या arart: क्रोधः, प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः, सज्ज्वलनः क्रोध इति । एवं मानाद्यभिलापेनापि चत्वारो भेदाः प्रत्येकं वाच्य इति गाथार्थः ॥ २ ॥ जगत इषि का चन्दार्थः ? इत्याह
संति भवमणतं, ते (य)ण अणताणुबंधिणो भणिया । एवं सेसा वि इमं, तेसि सरूवं तु विनेयं ॥२८१
व्याख्या-ये कषाया उदयप्राप्ताः सन्तोऽनन्तं भवमनुबध्नन्ति - भ्रमणीयत्वेनावस्थापयन्ति ते. च) सम्यक्त्वमात्रस्यापि घातक अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादयस्तीव्रतमा इत्यर्थः । एवं “ सेसा वि"त्ति यथाऽनन्तानुबन्धिनो व्युत्पादितास्तथा शेषा अपि व्युत्पादनीयाः तथाहि - नत्रोऽल्पार्थत्वादरूपं काकमांस विरत्यादिमात्रमपि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति ये ते अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधादयस्ती अंतर इत्यर्थः तथा ये प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावृण्वन्ति निवारयन्ति ते प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधादयोऽद्यापि तीव्रा इत्यर्थः arround ये ज्वलयन्ति-क्षणमात्र मौदयिक भावमानयन्ति ते सज्ज्वलनाः क्रोधादयो मन्दतामापत्रा इत्यर्थः । अथैतेष किञ्चिद्विशेषं व्याचिरव्यासुराह - तेषां पुनरनन्तानुबन्ध्यादिक्रोधादीनामिदं पञ्चानुपूर्व्या वक्ष्यमाणं स्वरूपं विज्ञेयमिति गाथार्थः ।। २८१ ॥ किं पुनस्तदित्याह
६
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmmmmmmm
जलेरणुपुढे विपढ्बय-राईसरिसो चउठिवहो कोहो। तिणिसलयाकटुंद्वियं-सेलॅत्थंभोवमो माणो ॥२८२॥ मायाऽवलेहिगोमुत्ति-मिसिंगघणसिमलसमा। लोहो हलिइखंजण-कदमकिमिरागसामाणो ॥२८३॥
__ व्याख्या-प्रथमा प्रत्येक राजिशब्दसम्बन्धाञ्जलराजिसमानः सज्वलनः क्रोधः, यथा जले रेखा क्रियमाणा शीघ्रमेव निवर्सते, तथा यः कथमप्युत्पन्नोऽपि सत्वरमेव व्यावर्चते स सञ्चलनः क्रोध इत्यर्थः, रेणुरेखातुल्यस्तु प्रत्याख्यानावरणः, अयं हि रेणुमध्यविहितरेखावधिरेण निवर्तत इति भावः, पृथ्वीराजिसमानोऽप्रत्याख्यानावरणः, यथा स्फुटितपृथ्वीसम्बन्धिनी रेखा कनवरादिभिः पूरिता कप्टेनापनीयते, एवमेषोऽपीति भावः, विदलितपर्वतरेखातुल्यस्त्वनन्तानुबन्धी, कथमपि निवर्तयितुं न शक्यत इत्यर्थः, इति चतुर्विधः क्रोधः। मानस्तु तिनिसो-वनस्पतिविशेषस्तस्य लतोपमा सुखेनैव नमनीयः सज्वलनः, काष्ठोपमा प्रत्याख्यानावरणो मानः, यथाऽग्निस्वेशादिभिः कष्टेन काष्ठं नमति तथाध्यमपीति भावः, अस्थि-हडूं, तदुपमः कष्टतरनमनीयोऽप्रत्याख्यानावरणो मानः, शिलायो घटितः शैला, स चासौ स्तम्भश्च शैलस्तम्भस्तदुपमस्त्वनन्तानुबन्धी मानः, कथमप्यनमनीय इत्यर्थः। माया पुनरुल्लिख्यमानानां धनुरादीनां याऽवलेखिका वक्रत्वपा, तत्समाना मा सज्वलनीत्युच्यते, सुखेनैवार्जवमापादनीयेत्यर्थः, गोमूत्रिकासमाना किञ्चित्कष्टेनापनीया प्रत्याख्यानावरणी माया, एवं मेषशृङ्गोपमा कष्टतरनिवर्तनीया अप्रत्यख्यानावरणी माया, धनं-दृढं यवंशीभूल, तत्समाना त्वनन्तानुवन्धिनी, यथा निविडवंशीमूलस्य कुटिलता किल बहिनाऽपि न दह्यते, एवं या कुटिलता कथमपि न निवर्तते साऽनन्तानुबन्धिनी मायेत्यर्थः । लोभस्तु हरिद्रारागोषमः सुखनिवर्तनीयः + सकारस्य दीर्घ प्राकृत्वात् ।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
धमत्थकामभोगाण, हारणं कारणं दुहसयाणं । मा कुणसु कयभवोहं, कोहं जड़ जिणमयं मुणसि ॥ २८८
व्याख्या - धरति दुर्गतिपतन्तं प्राणिनमिति धर्मों जीवदयादिः, अर्थ्य [ अर्थ्य]त इत्यर्थो - घनं काम्यन्त इति कामाः शब्दादयः, सुज्यन्त इति भोगाः स्पर्शादयस्तेषां दारण-नाशनं दुःखशतानां च कारणं - साधनं, तथा कृतो भवधः - संसारप्रवाही येन स तथा तं एवंविधं क्रोधं मा कुरुव, यदि जिनमतं जानासि ? " ज्ञोर्जाणणी" इति [ हैमप्रा० ९४-७] गुणादेश इति गाथार्थः ॥ २८८ ॥ किश्व
इह लोए चिय कोवो, सरीरसंतावकलहवेराई | कुणइ पुणो परलोए, नरगाइसु दारुणं दुक्खं ॥ २८९ ॥
व्याख्या - इह लोके एवास्मिन् भवे एव तावत्कोपः शरीरसन्तापकलहवैराणि प्रसिद्धानि करोति, धातूनामनेकार्थवाज्जनयति परलोकेऽन्यभवे पुनर्नरकादिषु दारुणं - असयं दुःखं जनयतीति गाथार्थः ॥ २८९ ॥ अथ व्यतिरेकमाहखंती सुहाण मूलं, मूलं धमस्स उत्तम खंती । हरइ महाविज्जा इव, खंती दुरियाई सयलाई ॥ २९०॥ व्याख्या क्षान्तिः सर्वेषां सुखानां मूलं - मुख्यमुत्पत्तिनिबन्धनं स्थानमिति यावत्, तथोत्तमा क्षान्तिर्धर्मस्य मूलं, स्फुरत्प्रभावा महाविद्येव क्षान्तिः सकलानि दुरितानि हरतीति गाथार्थः ॥ २९० ॥
इह च को क्षमायां च दोषगुणदर्शनपरं दृष्टान्तद्वय माह
hanaमाए विअ - चकारियखुड्डुओ य आहरणं । कोवेण दुहं पत्तो, खमाए नामओ सुरेहिं पि ॥ २९९ ॥ व्याख्या -- कोपे क्षमायां च एकदेशे समुदायस्य गम्यमानत्वात् अचङ्कारितभट्टिका तथा क्षुल्लकच नागदत्ताभिधानः
,
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
KI 'कूरगट्टयक इति प्रसिद्धः, ताबदुदाहरण, कथम्भूनोऽयम् ? इत्याह-पूर्व कोपेन दुःख प्राप्तः, पश्चात्तु विहितया क्षमया प्रणतः |
सुरैरपि मोक्ष च गतः, अचङ्कारितभडिकाऽपि कथम्भूता ? पूर्व कोपेन दुःखं प्राप्ता, पश्चातु विहितया क्षमया मुरैरपि FPI प्रणतेत्यावृत्या योज्यते, का पुनरसावित्युच्यते
उज्जयिन्यां धनश्रेष्ठी, कमलश्री भार्या, तयाऽष्टपुत्रोपरि सुता प्रसूता भडिकेति नाम्नी, श्रेष्ठिनाऽभाणि-नैया केनापि मत्सुता चङ्कारयितव्येति लोकेऽचङ्कारितभट्टिकेति प्रसिद्धा, प्राप्तयौवना परिणयनार्थ अनेकांच्यमानाऽपि श्रेष्ठिना न दीयते, | भगति य एतस्या आज्ञावचनं नित्यमेव सपरिजनो न खण्डयति तस्य ददामि, नान्यस्य । ततः सुबुद्धिनाऽमात्येन कामातुरेण तत्तथा प्रतिपद्य महाविभूत्या परिणीता, नीता निजगृहं । स तदाबया वर्तमानो भोगान भुक्ते । अन्यदा तया भणितो, यथाअलमिते सूर्य क्षणमपि न बहिः स्थेयं, गृहमागन्तव्यं, तथैव नित्यं करोति । अन्यदा राजा ज्ञाततद्भार्यावृत्तान्ते कौतुकेन कार्यच्छलेनामात्यो धृतः। अर्द्धरात्रिसमये विसृष्टो गृहं गतः, तावत् दृढजटितकषादसम्पुटवासगृहस्थिता नानोक्तिभिर्भाषिताऽपि न कपाटमुद्घाटयति सा, ततः कटुवचनोक्ती झगित्येव कपाट मुद्घाट्यामात्यस्य दृष्टिं वञ्चयित्वा निर्गता पितगृहं प्रति, मार्गे चौर हीता, विलपन्ती मुखे वस्त्रपिण्डं दत्वा नीता नगराबहिः, गृहीतानि कोटिमूल्यान्याभरणानि, ततः पल्ल्यां नीत्वा विजयनाम्नी निजाधिपतेर्दत्ता, तेनापि सृष्टेन चौराणां बहुधन दर्स, समयेऽनेकप्रकारैः पल्लिपतिना प्रार्थिताऽपि सर्वथा तं नेच्छति, ततः कुपितेन बाढं ताडिता, कण्ठगतप्राणाऽपि यावन्नेच्छति तावद्विक्रीता एकस्य सार्थवाहस्य हस्ते बहुद्रविणेन । सोऽपि प्रार्थयतेऽनुकूलैः प्रतिकूलैश्वोपायैः, यावश्रेच्छति तावद्विक्रीता पार्श्वकूले कम्बलवणिजो दत्ता, सोऽपि तथैव प्रार्थय , तत एषा
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
SCRESS
| कर्पासपाण्डुरदेहा क्षीणाही जाता । ततो देवात्कथमप्यत्रागतेन ज्येष्ठेन तद्धन्धुनासौ दृष्टा प्रत्यभिज्ञाता, कथञ्चिन्नीता स्वगेहं. यदेवं तया पदे पदे दुःखं अज्ञानकोपकरणादनुभूतं, ततः संविग्ना साध्वीना पार्श्व धर्म श्रुत्वा ब्रह्मवतं प्रतिपद्य मार्यमाणाऽप्यह कस्थाप्युगरि कोपं न करिष्ये इति घोरमभिग्रह गृहीत्वा तिष्ठति । अन्यदा तस्याः शरीरबलकरणव्रणरोधनार्थ लक्षपाकतैलघटत्रय कृतं, ततैलार्थ च मुनयोज्यदा तवागताः, अचङ्कारितभडिकया दास्याः सकाशाद्धट आनायितः, अत्रान्तरे शक्रेणाचकारित| मट्टिकायाः क्षमादृढत्वं प्रशंसितम् । तदैको देवोऽसहमानस्तदा तत्रागत्य दास्या हस्तात्तैलघटं स्फोटयतिस्म, द्वितीय आनायित सोऽपि स्फोटित: सुरेण, अथ प्रशस्तभावा स्वयं गत्वा तृतीयं घटमानीय साधुभ्यस्तैलं दत्वा हृष्टा । ततः सुरः प्रत्यक्षीभूय स्तुत्वा स्वर्ग गतः, साधवोऽपि स्वोपाश्रयं गताः । इतराऽपि गतगर्वा श्रावकधर्म पालयित्वा स्वर्ग गता। एवं कोपेन दुःखं प्राप्ता क्षमया पुनरसौ सुरैर्नता, इति अचङ्कारितभट्टिकाकथासमाप्ता ॥
अथ क्षुल्लककथोच्यते-क्वापि गच्छे मासक्षपकः साधुरासीत् , अन्यदा मास[क्षपण]पारणके भिक्षायां क्षुल्लकेन सर बजता तेन प्रमादान्मण्डूकी चम्पिता मृता। ततः क्षुल्लकेनोक्त-महर्षे ! एपा त्वया पादेन चम्पिता, ततः क्रुद्धः क्षपका पूर्व । मृतास्ता दर्शयन् प्राह--रे रे दुष्ट ! किमेषाऽपि मया हता?, अन्या अपि कि मया हता ?, ततो भावं प्रात्या क्षुल्लकस्तूष्णीक स्थितः, अथाऽऽवश्यककाले स्वस्थावस्थं क्षपर प्रत्याह क्षुल्लम-'मण्डकीमालोचय महर्षे ।। ततोऽधिकं ज्वलितकोपानल क्षुल्लकाभिमुखं धावन् क्रोधान्धः स्तम्भे आम्फाल्य मर्मप्रदेशे स्फुटितशिरो मृत्वोत्पन्नो ज्योतिष्फेषु, ततयुत्ता [उत्पन्नः क्वाप्य रण्ये दृष्टिविषयुतानां पूर्वभवविराधितश्रामण्यानां भुजङ्गानां कुले. जातिस्मृतिश्चैपामस्तीति ते सर्वे च रात्री भ्रमन्ति, भुञ्जते २
NAMES
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
PURI
प्रासुकाहार, मास्माकं दृष्टिविषेण प्राणिघातो भूयादिति । स तु विलेsपि अधोमुखः कृतानशन स्तिष्ठति । इतश्च वसन्तपुरेऽरिदमननृपतेः सुतः सर्पेण दष्टो मृतः, ततः कुपितो भूप भुजङ्गान् स्वयमन्यैश्व मारयति, यो यः स हत्वा शिरो राज्ञः समर्पयति तस्य दीनारमर्पयति । अन्यदेको गारुडिको मन्त्रौषधैर्बिलात् सर्पाभिष्कास्य शिरो गृहस्तं सर्प निष्कासयति सोऽपि धर्मबुद्धधाsatमुखः पुच्छेन निर्गच्छति, तावत्स गारुडिको निर्गतं निर्गतं निति, ततो दृढं दुःखे उत्पद्यमाने भुजङ्गः सम्यक् संवेगात्सहते । एवं सोऽपि गारुडिन हतः, सर्वेऽपि नृपस्य दर्शिताः, लब्धमुचितं द्रव्यं । अत्रान्तरे भूपः केनापि नागदेवेन पुत्रस्ते भविष्यतीसवर्तितः, तदा च स भुजङ्गो मृत्वा तत्पुत्रत्वेनोत्पन्नस्तस्य नागदत्त इति नाम कृतम् । स च रूपादिगुणाकरोऽपि धर्ममेव पुरुषार्थं मन्यमानः साधूनुपास्ते । अन्यदा सञ्जातजातिस्मृतिः चित्रविरिणः प्रवजितः पालयति निष्कलङ्कं चारित्रं, केवलं क्षुधा बहुस्ततो द्वित्रिर्भुङ्क्ते निरवद्यमाहारं, ततः कूरगइयक' इति प्रसिद्धाख्योऽजनि । तस्मिंश्च गच्छे चत्वार एकद्वित्रिचतुर्मासिकाः क्षपकाः सन्ति तान् दृष्ट्वा चिन्तयति सफलमेतेषां जीवितं, ये कर्मशैलकुलिशमेवं तपः कुर्वन्ति, अहं पुनर्मन्दभाग्यो, यः प्रत्यहं बहुवारमाहारं गृण्हामि, इति भावनाशुद्धमना वैयावृश्येनापि महती निर्जरा इति विचिन्त्य क्षपकानां वैयावृत्याभिग्रहं गृहीतवान् । अन्यदा क्षपकानतिक्रम्य देवतया स एव प्रणतः साधुः, ततो निवर्तमाना सा चातुर्मासिकक्षपकेन कोपेन rare धृता भणितापाये कटपूतने । किमिह प्राप्ताऽसि १ यन्महाक्षपकालुल्लङ्घ्य त्रिकालभोजिनं वन्दसे, ततो देवतयोक्तं तपस्विन् ! मा कुरु अकार्ये कोपं, भावक्षपकं वन्दे, न द्रव्यक्षपकं । जानीथ यूयं स्वयमेव यादृशी आत्मनो द्रव्य क्षपकता सुलभाऽनन्तशः प्राप्ता च । एष त्रिकालं भुङ्क्ते इति यद्भणसि स मत्सरः ईदृशानां नित्यमुपवास एव यदुक्तं
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
"निरवज्जाहाराण, साहणं निश्चमेव उपवासो | उत्तरगुणवुद्धिकरा, तहबिहु उपवासमिच्छति ॥१॥" "सत्तीए तयो जिणेहिं, भासिओ तं च गोवए न इमो । ता कि तवेण हीणो ?, एसो किह समहिया तुम्भे? ॥२॥
इत्यादिप्रशंसा कृत्वा गता देवता, प्रातः पानमादाय समागतः साधुनिमन्त्रयति चतुर्मासिकायक, सोऽपि कुषिस्त त्पात्रके खेलमकरोत् , शेषा अपि निमन्त्रितास्तथैव चक्र:, संविग्नो मुनिर्भणति-विधिग् मां प्रमादिनं, आपकानां खेलमल्लक न कृता, अहमेतेपामसमाधिकारणं जातः, "इत्याद्यात्मानं निन्दन तमाहारं भुजानस्तथोपशमप्रकर्ष प्राप्तो यथोत्पनं केवलज्ञानं देवैः सुरभिवायुगन्धोदककुसुमवृष्टि पुनर्गकालापिलहिमा हता। देवतो शपकाः ! पश्यन्तु त्रिकालभोजिनो माहात्म्य ततस्ते सर्वे स्वकोपनिन्दा तस्योपशमश्लाघां च कुर्वन्तस्तथा संवेगमापमा यथा प्राप्त केवलज्ञानं । पञ्चापि क्रमेण सिद्धाः इत्यसो नागदत्तः कोपेन दुःवं प्राप्तः, पुनः क्षमया सुरैर्नत इति क्षमा कार्या, कोपस्त्याज्यः, इति नागदत्तमुनिक्रयासमाप्ता।
उक्तः सोदाहरणः क्रोधविपाकोऽथाधिकृतमानस्याष्टधात्वोयदर्शनपूर्व हेयत्वमाह| जाइकुलरूवसुअवल-लाभतविस्तरियअट्ठहामाणो । जाणियपरमत्यहि, मुको संसारभीलाह ॥२९२॥
व्याख्या-जातिकुलरूपश्रुतबललामतपऐश्वर्यै ममोत्तमा जातिरित्यादिरूपोऽष्टधा मानो झातपरमार्थः संसारभीरुभिर्मक्तो नैव कृत इति गाथार्थः ।। २१२ ।। अथैनेष्वन्यतरोऽपि क्रियमाण इह लोकेऽपि महते दोपायेत्याह--- अन्नयरमउम्मत्तो, पावई लहुयत्तणं सुगुरुओ वि। विबुहाण सोयणिज्जो, बालाण वि होइहसणिज्जो॥२९३
व्याख्या-जात्यादीनामन्यतरेणैकेनायि मदेनोन्मत्तः, आस्तां लघुः, सुगुरुकोऽपि-अतिमहानपि लघुत्वं प्राप्नोति,
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
विधान शोचनीय मति, किंबहुना बालानामपि हसनीयो भवतीति गाथार्थः ॥ २९३ ॥ किञ्च -
जइ नाणाइमओ वि हु, पडिसिद्धो अट्टमाण महणेहिं । तो सेसमयट्ठाणा, परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२९४॥ arrer - यदि ज्ञानादीनां शुभानामपि पदार्थानामहं ज्ञानीत्याद्यात्मबहुमानरूपोऽपि मदोऽष्टविधमानमथनैस्तीर्थकरगण धरैः प्रतिषिद्धः, ततः शेषाण्यशुभानि जात्यादिमदस्थानानि बुद्धिमता प्रयत्नेन परिहर्तव्यानीति गाथार्थः ।। २९४ ।।
विशेषेण ज्ञानमदस्या कर्त्तव्यतामाह
दप्पविसपरममंतं, नाणं जो तेण गव्वमुव्वहइ । सलिलाओ तस्स अग्गी, समुडिओ मंदपुन्नस्स ॥ २९५ ॥ व्याख्या---जात्याद्यर्थविषयस्यापि दर्पविषस्योत्तारणार्थं किल ज्ञानमिष्यते यस्तु तेनापि गर्वमुद्रहति तस्यापुण्यवतो राकस्य सलिलादयनिरुत्थितो, ज्ञानस्य सलिलकल्पत्वाद्दर्पस्य स्वग्नितुल्यत्वादिति गाथार्थः ।। २९५ ॥
ननु दर्पे क्रियमाणे को दोषो ? येन प्रतिषिद्वयत इत्याशङ्कयाह
धम्मस्स दया मूलं, मूलं खंती वयाण सबलांण । विणओ गुणाण मूलं दप्पो मूलं विणासस्स ॥ २९६॥
व्याख्या --- यथा धर्मस्य जीवदयादयो (१) मूलं यथा च सकलानां व्रतानां क्षन्तिर्मूलं यथा विनयो गुगानां मूलं, तथा विनाशस्य दर्पो मूलं मुख्यमेव निबन्धनमिति गाथार्थः ॥ २९६ ।। raat sarit aferणावकाश एव नास्तीत्याह-बहुदोससंकुले गुण लवम्मि को होज्ज गव्विओ इहई ? । सोऊण विगयदोर्स, गुणनिवहं पुब्वपुरिसाणं । १९७
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-साम्प्रत तावदुष्पमासमानुभावाद्गुणलब एव कश्चित्प्राप्यते, न तु सम्पूर्णः कोऽपि ज्ञानादिको गुणः, सोऽपि || च बहुभिः क्रोधादिभिदोषः सङ्घलो-व्याप्तः, ततस्तस्मिन्नपि बहुदोषसहकुले गुणलवमाने सति को नाम सविवेकः सन् गर्वितो | भवेत् १, न ऋश्चिदिति भावः। किं कृत्वा ? इत्याह-पूर्वपुरुषाणां-तीर्थकरगणधरचक्रवादीनां विगतदोष गुण निवह अनन्त|| ज्ञानेश्वर्यादिरूपं श्रुत्वा । अयम्मावः-मात्सर्यादिदोपलेशेनाध्यकलङ्कितान् प्रत्येकमनन्तान पूर्वपुरुषाणां ज्ञानेश्वर्यादिगुणान् श्रुत्वाऽनेक| दोपकलङ्किते गुणलवे गर्यस्य कोऽवकाशः ?, इति गाथार्थः ॥ २९७॥
विमविना गुणिना च विशेषरतः) एवाहङ्कारो न कर्तव्य इत्याह-- . माहेइ दोसायो, मुमोच्य महोइ मच्छरुत्तिण्णो। विहवीसुतह गुणीसु य, इमेइ ठिओअहंकारो॥९॥
___व्याख्या-पायो दोषाभावोऽपि यदि मत्सरोसीणों भवति, अहङ्कारमिश्रितो न भवति, तर्हि गुणवच्छोभत एव, || अहङ्कारः पुनर्विभविषु गुणिषु च स्थितो दूनोति-शिष्टजनस्य महतीं मनोबाधां जनयति, अन्येनाप्यहङ्कारो न कर्तव्यो, विशेषतो | | विभविना गुणवता चेति भाव इति गाथार्थः ॥ २९८ ॥ अथ दृष्टान्नद्वारेण मानवियाकमाह-- जाइमएणिक्केण वि, पत्तो झुंघातणं दियवरो वि । सबमएहिं कहं पुण, होहिंति ? न सव्वगुणहीणा ॥२९९॥
व्याख्या---एकेनापि जातिमदेन हेतुभूतेन द्विजवरोऽपि-पुरोहितपुत्रोऽपि डुम्बत्वं जन्मान्तरे प्राप्तः, ततः सर्वैत्यादि|| विषयैर्मदैः क्रियमाणैः कथं पुनस्तैः सर्वैरपि सुकुलोत्पत्त्यादिगुणहीना न भविष्यन्ति ?, अपि तु भविष्यन्त्येवेत्यक्षरार्थः ॥ २९९ ॥
अथ कथ द्विजवरेण डुम्बत्वं प्राप्तमित्युच्यते-गजपुर(वरे) पुरे सोमदत्ताभिधपुर धसः पुत्रो ब्रह्मदेवनामा सर्वविद्यागृहमपि ।
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालाजातिमदं कुर्वननेकयुक्तिभिः पित्रादिभिरितोऽपि ब्राह्मणजाति त्यक्तवान्यत्सर्वमवस्तु मन्यमानः सचरद्भिः शब्दैरष्यपावित्र्यशङ्कया पुनः पुनः सचेलस्नानं कुर्वन् जातिमत्सस्तिष्ठति । अन्यदा पितर्युपरते राज्ञा तं जातिमदग्रस्तं ज्ञात्वा तत्पदेऽन्यपुरोधाः कृतः । स ब्रह्मदेवो निर्धनो व्यवहाररहितो लोकशङ्कमुपहस्यमानश्चिन्तयति तत्र मया गन्तव्यं यत्र सर्वोऽप्यशुद्धजनो नदृष्ट्याsपि इयते न च सचरति क्वचिन्मार्गेऽपि । ततो निर्गतोऽव्यां एकाकी मार्गमजानन् भ्रान्तो इम्पल्ल्यां प्राप्त बहून दुभ्धान पश्यति, तावदेकेन इम्बेनागत्य स्पृष्टः को- निन्दन् पति ने नि क्षुरिकया हतो मृत्वा तस्यैव डुम्बस्य सुतो जातः, तस्य दमन इति नाम कृतं । स च काणः खञ्जः कुब्जः पितुरप्युद्वेजकरूपः पापर्द्धिप्रभृतिबहुपापानि कृत्वा मृतः पञ्चमनरकपृथिव्यां नारको जातः । ततो मत्स्यभवान्तरितो नरकेषु भ्रान्त्वा प्रायः सर्वत्र हीनजातिषुत्पद्य महादुःखितो. जातः । अथान्यदा कथमध्यज्ञानतयोऽनुभावाज्जातो ज्योतिष्केषु । ततो मरते पद्मखेटे नगरे कुन्ददन्ताया गणिकायाः मदननामा सुतो सुरूयः कलावान् विद्यावान् जातः । स च कृतज्ञः परोपकाररसिको गम्भीरस्तथापि जनो भगति - किमेष ? भो दारिकापुत्र ! | ततोगुणानुरूपं फलं प्राप्नुवन् कदाचिचिते चिन्तयति-धात्रा यद्यहं हीनजाती क्षिप्तस्ततोऽयं गुणप्रकर्षः कथं कृतः १ यदि चामो तत्कुतोऽधमा जातिः ? अथवा "सयलगुणमीलणेर्मु, सच्च विहिजो परम्मुद्दा बुद्धी । रयणेहिं पूरिऊण वि, खारो जं निम्मिओ जलही || १ ||" इत्यादि यावद्विषण्णचिन्तयति तावत्केवलिनं आस भवने समवसुतं ज्ञात्वा तत्र गतः, धर्मदेशनां श्रुत्वा स्वस्था घमजातिकारणमपृच्छत् । ततः केवलवचनात्प्राग्भवान् विप्रभवादारभ्य ज्ञात्वा वैराग्यादीक्षां याचितवान् दीक्षणानर्हजातिरपि 1. लिनाऽतिश यज्ञानेनाराधको भावीति मत्वा दीक्षितः सम्यगाराध्य पर्यन्ते मासं पादपोपगमनानशनेन माहेन्द्रकरपे देवो जातः,
7
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
AMRP
महाविदेहे सिद्धिं गमिष्यति । इति जातिमानविपाके (ब्रह्मदेवाविप्रकथासमाता ॥ अथ मायाविपाकमधिकृत्याह| जे मुद्धजणं परिवं-चयंति बहुअलियकूडकवडोहैं। अमरनरसिवसुहाण, अप्पा विहुवंचिओ तेहिं ॥३०॥
__ व्याख्या-ये पुरुषा मुग्धजनं परिवश्रयन्ति, कै ? इत्याह-बहून्पलीकवचनरचनाप्रधानानि कूटकपटानि बललीककूटहै कपटानि, तैः, अत्र कूटानि हीनाधिकतुलादीनि, कपटानि अन्यथा चिकीर्षितस्यान्यथा बहिः प्रकाशनादीनि, तः, खलु अमर| नरशिवसुखेभ्यः स्वात्माऽपि वञ्चित एवेति गाथार्थः ।। ३०० ॥ अथ दृष्टान्तदर्शनेन मायाविपाकमाहजइ बणिसुयाइ दुक्खं, लद्धं एक्कसि कयाइमायाए। तो ताण को विवागं,जाणइ ? जे माइणो निश्चं ॥३०॥
_ व्याख्या-यधेकशः कृतयाऽपि मायया वणिक्मुतया वसुमतीनाम्न्या दुःखं लब्धं, ततो ये नित्यं मायिनस्तेषां विपाक को को जानातीति गाथार्थः ॥३०१॥
कथं पुनस्तया वणिक्सुतया दुःख लब्धं ? इत्युच्यते-श्रावस्त्या (सुधनुः श्रेष्ठी, तस्य अमृतश्री-कमलश्रीनाम्न्यो द्वे भायें,) अमृतश्री वसुमती सुता प्रसूता, सा सकलकलासु निपुणा बालपण्डितेति सर्वत्र विख्याता श्रेष्ठिनः प्रेमपात्रं जाता। अन्यदा रागकेसरिसुता मोहनरेन्द्रनषी बहुलानाम्नी तस्याः सखी जाता। तस्याः कुमारत्वेऽपि परभवं प्राप्ताऽमृतश्रीः। अन्यदा वसुमत्या मातृमत्सरेण मातुः सपत्न्याः कमलायाः कलङ्कदानार्थ पितरं गृहान्तः सुप्त जागतं ज्ञात्वा शनैबहुलानाम्नी सखी भाषिता-सखे ! मम माता कमला शाटिकया चोक्षा न वर्तते, सख्योक्तं-किमिदं ?, तया मायया पुनरुक्तं-किं (अनेन)? सम्प्रति निद्रासमायाती(ति) सुप्ता सा । श्रेष्ठिना तत्श्रुत्वा सञ्जातकोपेन त्यक्ता कमला, तदुःखेन द्वादशाहरान्निरन्तरं रुदन्ती कमलां दृष्ट्वा कृपया तत्कलको
RISE
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
SANSAR
सरणार्थ पितरमाह-तात ! किं कमलां मातरमवजानासि ?, स आह-ननु वयेवोक्त यदसावचोक्षमाटिकेति, साऽऽह-नासो तां धाश्यतीति मया तदुक्तं, न शीलमालिन्येनेति । ततो व्यावृत्तचित्तो धनुस्तथैव कमला स्नेहेनालोकते । वसुमत्यपि चिरं गृहवासे स्थित्वा प्रान्ते तापसीत्वं गृहीत्वा मृत्वा व्यन्तरेषु वेश्या जाता । ततो मृत्वा ऋषमपुरे सत्पथश्रेष्टिसुता कमलिनी नाम्नी जाता। चम्पायां मुद्रतश्रेष्ठिपुत्रवसुदत्ताय दत्ता सा। वसुदत्तस्य च केनधिधर्मणा कमलिन्याः कार्यकागत्वकुब्जत्वकुरूयस्वादिदोषास्तथोक्ता यथा तान् श्रुत्वा तामनिच्छन्नपि पित्रा परिणाग्यमानो समुदत्तचक्षुषणमिषेण नेत्रयोः पट्ट बद्ध्वा तस्या आस्यमनालोक्य परिणीय पूर्वभवकर्मणा द्वादशवर्षाणि तां तत्याज। पित्रादिमिः प्राध्यमानोऽपि नाङ्गीन । अन्यदा मतिमन्दिरमित्रेण तामानाय्य राजपत्नीवेषां विधाय स्वापि दर्शयित्वा वसुदत्तस्तदनुरक्तो व्यधायि, प्रोक्तश्च मा दुःखमावहेस्त्वमेना सम्पादयिष्यामीति प्रकारेण प्राकर्मणः
क्षयाद्रतो प्रीतिभाजी जाती कमलिनीवसुदत्तौ । कालेनावधिज्ञानिनः पार्श्वे धर्म श्रुत्वा प्राप्तावसरा कमलिनी प्राह भगवन्! कि कर्म | मया पूर्वभवे कृतं ? येन तथा प्रियेण परित्यक्ता ?, ज्ञानी ग्राह-वसुमतीभवे बहुलासखीत्वेन कमला द्वादशप्रहरांस्तीव्र प्रियावमानना8 दुःखे पातिता यत्वया तत्कर्मविपाकेन द्वादशवर्षाणि तवैवं दुःखं जातम् । प्रश्ने सति वसुमतीभवात्सविस्तरं पूर्वभवानुवाच ज्ञानी,तच्छृत्वा || संवेग प्राप्ती कमलिनीवसुदत्तौ प्रवज्य दशमं देवलोकं गतो, इति मायायां वणिक्सुतायसुमतीकथा समाप्ता !!
अथ लोभस्प बलीयस्त्वमतिव्याप्ति चाहको लोभेण न निहओ?,कस्स न रमणीहिं भोलिय? हिययाको मच्चुणान गसिओ?,को गिद्धो नेय विसएसु?
व्याख्या-लोभेन को न निहतः ?, नारीभिः कस्य हृदयं न भोलित-व्यामोहितं ?, मृत्युना च को न गस्तो ?, विषयेषु
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
गृद्धः ? अपि तु सर्वेऽपीत्यर्थः । यथा रमणीमृत्युविषयप्रभृतयः पदार्था व्यामोहनादिष्वतीव समर्थाः सर्वत्रास्खलिताश्च तथा लोभोsपीति भावः इति गाथार्थः ॥ ३०२ ॥ गरीयस्त्वमेव लोभस्य प्रकारान्तरेणाह
पियविरहाउन दुसहं, दारिद्दाओ परं दुहं नत्थि । लोभसमो न कसाओ, मरणसमा आवइ नत्थि ॥ ३०३॥
व्याख्या - प्रियविरहादन्यद्दुस्सहं नास्ति, दारिद्र्यात्परं दुःखं नास्ति, लोभसमानोऽन्यः कषायो न, मरणसमा अन्या ssपन्नास्तीति गाथार्थः ॥ ३०३ ॥ शेषकषायेभ्यो लोभस्य गरीयस्त्वे किं कारणं ? इत्याहथोवा माणकसाई, कोहकलाई तओ विसेसऽहिया । मायाऍ बिसेसऽहिया, लोहं मितओ विसेसऽहिया॥३०४ इय लोभस्सुवओगो, सरोवि हु दीहकालिओ भणिओ । पच्छा य जं खविज्जइ, एसोच्चिय तेण गरुययरो ॥ ३०५ ॥ व्याख्या - चतसृष्वपि गतिषु केवलिना चिन्त्यमानेषु जीवेषु स्तोकास्तावन्मान कषायवन्तः मानकषायोपयोगस्य वकालत्वात्स्तोका एव तदुपयोगे प्राप्यन्त इत्यर्थः । तेभ्यः क्रोधकषायवन्तो विशेषाधिकाः । तेभ्योऽपि मायोपयोगे वर्त्तमाना विशेषाधिकाः । तेभ्योऽपि लोभकषायोपयोगयुक्ता विशेषाधिकाः । एतेषां यथोत्तरमुपयोगकालस्य विशेषाधिकत्वादित्युक्तप्रकारे
शेवपायोपयोगमधिकृत्य लोभस्यैवोपयोगः सूत्रेऽपि आगमेऽपि हुर्यस्माद्दीर्धकालिको भणितः । क्षपकश्रेण्यां चानिवृतिचादरसम्परायणाने सर्वेष्वपि शेषकपायेषु क्षपितेषु यतः पश्चान्महता कष्टेन सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानक एव लोभः श्रप्यते तेनामुना कारणद्वयेन एष एव - लोभ एवं गुरुतरः शेषेभ्य इति गाथार्थः ॥ ३०५ ॥ तृतीयमपि कारणमाह-कोहाइणीय सव्वे, लोभाओच्चिय जओ पयर्हति । एसोच्चिय तो पढमं, निग्गहियव्वो पयसेणं ॥ ३०६ ॥
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-क्रोधादयश्च सर्व लोभादेव यतः प्रवर्तन्ते, अतोऽप्ययमेव गुरुतर इति शेषः । नहि सर्वथा निष्परिग्रहस्य शरीरमात्रेऽपि निममस्य निरालम्बनाः क्रोधादयः प्रवचन्ते, किन्तु धनादिमूर्छावत एवेति भावः । ततः किं ? इत्याह-एष एव-लाभ एवं || ततः प्रथमं प्रयत्नेन निगृहीतव्यः, तस्मिन्निगृहीते चक्तियुक्त्या निगृहीता एव शेषा इति गाथार्थः ॥३०६॥
यद्येवं तर्हि प्रभूतं विभवमेवार्जयित्वा तं शमयिष्याम इत्याहनयावहवेणुवसमिओ, लोभो सुरमणुयचक्कवट्टीहि। संतोसोच्चिय तम्हा,लोभविसुच्छायणे मंतो॥३०७॥ की व्याख्या-न च-नैव सरमनुजचक्रवर्तिभिर्विभवेन लोभ उपशमितः, तस्मात्सन्तोष एव लोभविषोत्सादने-लोभविषपरा| करणे मन्त्र इव मन्त्र इति गाथार्थः ॥३०७॥ विभवयुद्धौ च प्रत्युत लोभोऽपि वर्द्धत एवेत्याहजहजह बड्ढइ विहवो, तहतह लोभोवि वड्ढए अहिर्य । देवा इत्थाहरणं,कविलो वा खुड्डओवा वि॥३०॥
व्याख्या-यथा यथा वर्द्धत विभवस्तथा तथा लोभाऽप्यधिक बढ़त एत्र, देवा अनादाहरणं, तेषां हि विभवस्तायन्महानिति प्रतीतमेव, लोभोऽप्यागमे शेषजीवेभ्यो देवानामेवाधिक उच्यते, मयेष्वपि च वृश्यते विभविनां प्रायो पूर्छाधिक्यं, कपिलश्वेहोदाहरणं, तथा क्षुल्लकश्चापि । तत्र कः पुनः कपिलः?, उच्यते
__कौशाम्न्यां पूयों राजदसबहुमानः कासवनामा पुरोहितस्तद्भार्या जसा, कपिलनामा पुत्रस्तस्य बाल्येऽणि पिता ब्रह्मस्वर्ग जगाम । राज्ञा तदधिकारोऽन्यस्मै सविधविप्राय प्रदत्तः । सेोऽन्यदा शिरोधृतधबलातपत्रः पुरमध्ये भ्रमन् दृष्टस्तज्जनन्या । सा सदुःखं करुणस्वरं रोदित प्रवृत्ता । समीपस्थेन कपिलबालकेन पृष्टा-हे मातः! किमिति रोदिषि? । हे वत्सा तब पितुरियं विभूतिरनेन प्राता।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
| राज्ञाऽस्माकं किं न दत्ता ? । सा प्राह-वत्स! त्वं लघुवया मूखः, इहत्या अध्यापका मत्सरेण न त्वां पाठयन्ति, अतः श्रावस्त्यां त्वत्पिमित्र इन्द्रदत्तनामाऽध्यापकोऽस्ति स त्वां पालयिष्यतीत्यादि श्रुत्वा मातराशिर्ष गृहीत्वोपपिमित्रं गतः कपिलः । आगमनकारणादिष्यतिकरः सर्वोऽपि साधितः । तत इन्द्रदतेन गुरुतरस्नेहेनालियोक्त-वत्स ! सम्यग्विहितं, भवादृशानुनमकुलप्रमवानां युक्तमेतत्, परमत्र न भोजनसम्पत्तिः, तामन्तरेण पठनं न स्यात् । यता-"आरोग्यबुद्धिविनयाद्यमशाखरागाः, पश्चान्तराः | पठनसिद्धिगुणा भवन्ति । आचार्य पुस्तकनिवाससहायवल्ला, बाधास्तु पञ्च पठनं परिवर्द्धयन्ति ॥१॥"
ततः स बसन्तक्रीडार्थमुद्यानप्राप्तमिभ्यं शालिभद्रश्रेष्ठिनं "ॐ भूर्भुवः स्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवः स्वधीमहि धियोयोनि | प्राणे देवे"त्याघाशीर्वादपुरस्सरं प्रार्थयामास । तत्पुरः सर्वोऽपि स्त्रोदन्तो निवेदितः, प्रतिपन्न भोजनं । ततः पठति, तद्गेहे भुङ्क्ते। सोऽन्यदा तत्परिवेषणाधिकारियां दास्यामनुरक्तो भोगान् विलसति, अन्यदा दास्युत्सवे शृङ्गारितदासीः प्रेक्ष्य सा शृङ्गारकुसुमताम्बूलविरहिता रुदति, 'अहो ! मन्दभाम्याया मे पतिर्दरिद्र' इति तद्वचः श्रुत्वा सोऽप्यचतिं गतोऽहो !! निर्धनानां पदे पदे पराभव | इति । तत्रैको धनश्रेष्ठी निद्रान्ते प्रत्यूषे प्रथममेव यस्तै प्रार्थयते तस्मै पलद्विकं स्वर्ण प्रयच्छति, तश्चिन्तावशगतः सद्य एव तस्मिन्
सुप्त एष व्रजामीत्यादि विचिन्त्य अर्द्धरात्रे उत्थाय जन्नन्तरा आरक्षकैद्धः, प्रभाने राज्ञः समर्षितस्तेनेङ्गितादिना शुद्धो विज्ञातः, | पृष्टश्च स सर्व यथार्थमुक्तवान् । तुष्टेन करुणापरेण राझोक्तं-'यावत्स्वर्ण याचिष्यसि तावन्मानं दास्यामीति वद'। ततः सोऽशोकपनिकामध्ये विमष्टु लग्ना द्वाभ्यां पलाम्यां वासांस्यपि न भविष्यन्ति, तत : मुवर्णशतं सुवर्णसहस्र सुवर्णलक्ष सुवर्णकाटिं सुवर्णकोटाकाटिं यावचिन्तयतोऽपि ने मनस्सन्लोषः, नस्निनासरे समुहीन किमपि शुभकर्म, तेनेति चिन्तयितुं लग्न:-कि मया मूढ
..
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसेन दुष्कृतं प्रारब्धमिति भावयतः समुत्पेदे जातिस्मरणं, ज्ञातं च पूर्वभवे पश्वशतसाधुमध्ये श्रामण्यं सुरलोकगमनं च । ततो ज्ञातभवपरमार्थो दीक्षां प्रपेदे देणे देवाः उपधर्मदः किमेतदिति राज्ञा पृष्टे इदमेवालोचितं, सन्तोपजलेन तृष्णाग्निरुपशामितः, धर्मोपदेशप्रदानेन सर्वोऽपि राजलोकः प्रबोधितः । ततो नवकल्पविहारेण विहरन् उग्रं तपःकर्म समाचरन् स्वयम्बुद्धः कपिलः पष्ठे मासे केवललक्ष्मीं पर्यवपीत्, तस्मिन् समये पूर्वभवसम्बन्धिनं साधुशतपञ्चकं मृत्वा स्वर्गसुखमनुभूय राजगृहासभाटविषु सञ्जातकिरातसमूहं वीक्ष्य प्रतिबाधितुं जगाम । तस्करै सेनापतिसमीपं धृत्वा नीतः स ऋषिस्ततस्ते नर्तितुं लग्नाः, ऋषि:- ''अधुवेसासयम्मि, [संसारम्मि दुक्खपउराए । किं नाम हौज तं कम्मी, जेणाहं दुग्गई न गच्छा ||९|| " उतरा० ८ अ०] "संयुज्झह मा विमुज्झह, [संयोही पुणरावि दुलहा । नो वणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवि || ९ ||" सूत्रकृ० वेतालीयाध्ययन ] इत्यादिधुवकान् कथयामास सर्वेऽपि ते प्रतिबोधिता दीक्षां प्रतिपद्य क्रमेण मोक्षं यास्यन्ति एवमन्यानपि जन्तून् प्रबोध्य कपिलः केवली सिद्धि प्राप । इति कपिलकेबलीकथा समाप्ता ॥
अथ क्षुल्लककोच्यते - राजगृहे नगरे श्रीसिंहरथगजा राज्यं करोति, अन्यदा तत्र गुणशिले चैत्ये धर्मरुचिमूरयः समागतास्तच्छिष्य आषाढभूतिः सोऽन्यदा भिक्षार्थ व्रजन्नृपनटगेहे प्रविष्टः, तत्र को मोदको रसगन्धाढ्यः प्राप्तः तते निर्गत्याचिन्ति - एष तावद्गुरूणां भविता पुनरात्मनेऽन्यं याचयामीति चक्षुः काणीकृत्य पुनर्गतो, दत्तो मोदकश्चैकः पुनरेष उपाध्यायानां भवितेति मनसि निधाय कुब्जरूपं विधाय गतो, विहारितको मोदकः, एष सङ्घाटकसाधोर्भवितेति विचिन्त्य पश्चात्कुष्टिरूपं विधाय पुनर्गता, विहा रित्यादि क्षुल्लकचरित्रं प्रासादोपरि स्थितेन नटेन दृष्ट्वा चिन्तितं- एष सुन्दरो नटो भवति, केनाप्युपचारेण रक्ष्यः, लब्धोपायेन
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेन पुनराकारितस्साधुमद के तस्थालैः प्रतिलाभितः, पुनर्भणितश्च स्वयेह प्रतिदिनं मोदकार्थ समेतव्यमिति श्रुत्वा निर्गतः । तदनु भार्यां प्रत्युक्तं - एक सादिकादिना प्रतिलाभ्यः, निजपुत्र्योः प्रत्युक्तं च- सानुकूलोपचारैरेनं वशीकुरुत । ततस्ताभ्यां मुदा शृङ्गारहावभावादिभिस्तस्य तस्तथा भिनं यथा नष्टः कुलाभिमानः विस्मृतस्सुगुरुवाङ्मन्त्रः सञ्जातो निखप उदितं चरणावरणं कर्म तस्य, ततः सोऽपि परिहासादिक प्रवृत्तः, प्रतिपद्य विवाहादि उपश्रीआचार्य गतो, भणितो निजपरिणाम विशेषस्ततो गुरुराह -
1
"उत्तम कुन्भवाणं विवेयरयणायराण होऊणं । इहपरलोयविरुद्धं, किं जुषं ? एरिसें काउं ॥ १॥" "दीहरसीलं परिपालिऊण विसएसु वच्छ मा रमसु । को गोपयम्मि बुड्डइ?, जलहिं तरिऊण वाहाहिं ॥२॥ ॥ ततः क्षुल्लकेोक्तं एतत्सत्यमेव परं प्रवज्यां कर्त्तमहं न तरामि साम्प्रतं । लिङ्गं मुक्त्वा वसतेर्निर्गतो नटगृहं प्राप्तो, नटेन स्वसुते तस्मै परिणाति, उक्ते चायं धर्मानुरक्त उत्तमप्रकृतिः सत्पुरुषस्ततो युवाभ्यामप्रमत्ताभ्यां शुचिभूताभ्यां उपचरणीयः, यथा वैराग्यं न गच्छति। एवं पञ्चविधविषयसुखमनुभवतः कालो धजति, अन्यदा राज्ञा दिवसे आषाढभूतिप्रमुखा नटा नाटक निरीक्षणार्थमा कारिताः, तस्मिन् प्रस्तावे नटवधूभिः क्षुलवधूभिस्सह मद्यं पीतं यथेच्छम्, ततस्ता विलुठितकेशकलापाः प्रसृतदुर्गन्धा जाताः । ततो राजकुलादागतेन तेन तचेष्टितं वीक्षितम् । ततः प्राप्तवैराग्यरङ्गचिन्तयति- 'किं मयेदं विलसितं ?, चारित्रचिन्तामणिवृथैव हारित एतयोः कृते' इत्यादि, ततो निर्गच्छन् गेहाभटेन दृष्टचेष्टितैज्ञतो विरक्तचिसोऽसाविति । तेन पुग्यौ भणिते आः पापे ! किं युवाम्यां विलसितम् १, मर्त्ता चारित्रा जतीत्युक्ते विगलितमदे पतिपादमूले निपत्य वदतः क्षमस्वापराधं, एहि गेहूं, नो चेदाजीविकां दत्वा व्रज । ततस्रात्रेण निर्मितं भरतच क्रिचरित्रप्रतिबद्ध नाटकं, ततो राज्ञे निवेदितं नटैः राज्ञोक्तं तच्छीघ्रं मत्पुरतो नाटयन्तु ततो नटेन
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
| राज्ञः पार्थात्पश्चशतं पात्राणां सर्वालङ्कारप्रवराणां राजपुरुषाणां प्राप्य आषाढथतिः स्वयं भरतीभूय पश्चश्तपात्रेस्समं तबाटकं नाट | यति, यथा भरतक्षेत्रं साधितं, यथा निधयः प्राप्ताः, यथा द्वादशवर्षाणि राज्याभिषेकः, यथा च भुक्ताः कामभोगाः, यथा च राज्य
पालयति श्रीभरतस्तथा तेन साभिनयं सर्वमपि सत्यचितेन नाटयता नृपतिः प्रवरनाटकरसेन तथा प्रतोष नीतस्सपरिजनः, यथै5 तस्य भुकुटाद्यलङ्कारो दत्तः, शेषजनाभरणैश्च तत्र कनकस्तूपो जातः । तत आषाढभूतिः श्रीभरतनृप इद प्रविष्ट आदर्शगृहे, मुद्रा
पतनादिक्रमेण पञ्चशतपात्रैस्समं गृहीतश्रमणलिङ्गः पश्चमौष्टिक लोच कृत्वा नृपं धर्म लाभयित्वा निर्गतः, ततो हा हा ! ! किमत| दिति भणन्नपप्रभृतिलोको बाहौ लगित्वा निवर्तयति तं, आषाढभूतिभणति-यदि भरतो दीक्षां गृहीत्वाऽपि विनिवृत्तस्तर्हि मामपि निवर्सयत, मुञ्चतान्यथा असद्ग्रहं । ततो भावं ज्ञात्वा मुक्तः । शेषाणां पञ्चश्तराजपुरुषाणां लज्जया कुलाभिमानेन दीक्षाममुश्चत भावतोऽपि परिणता । आषाढभूतिरपि आलोच्य प्रतिक्रम्य उग्रं तपः कृत्वा प्राप्तकेवला सिद्धः। केचित्पुनरेवमाहुः-श्रीभरत हवादर्शगहे प्रविष्टः श्रीआषाढभूतिरड्-गुलीयकरत्नपातात्तथैव भरतवन्दुरिभावनया लब्धकेवलालोको गहीतद्रव्यलिङ्गो राजादीन् सम्बोध्य पात्रीकृतराजसुतपञ्चशत्याः प्रदत्तवतो भव्यलोकमबोधयत् । अथ कुसुमपुरेऽप्यस्मिन्नाटके नर्तिते प्रद्रजितो बहुजनः, ततो नागर| स्तदग्धं । आपाढभूतितुल्याकियन्तो भविष्यन्तिीतस्मात्प्रथममेवाहारादिषु लोभो न कार्य।इति लोभे आषाढभूतिकथा समाप्ता।
तदेवं चतुर्णामपि कषायाणां प्रत्येकं विपाकमभिधायाथ समुदितानां तमाह---- सामन्नमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उकडा हुंति। मन्नामि उच्छपुप्फंव, निरस्थयं तस्स सामन्नं ॥३०९॥
व्याख्या-श्रामण्यं चारित्रमनुचरतो यस्य कषायाः क्रोधादय उत्कटा भवन्ति, तस्य श्रामण्यमिक्षुपुष्पमिव निरर्थकं मन्ये
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
tones
इति गाथार्थः ॥ ३०९ ॥ कुत एतदित्याह। जं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुवकोडीए । तंपि कसाइयमित्तो, हारेइ नरो मुहुतेणं ॥ ३१॥
____ व्याख्या-पूर्वकोटयधिकायुष्कस्याकर्मभूमिजादेस्तावद्वतमेव न भवति, पूर्वकोटयायुष्कस्यापि वर्षाष्टकोपर्येव दीक्षा, अतो । देशोनयाऽपि पूर्वकोटया यदर्जितं चारित्रं-दुश्वरतपश्चरणलक्षण, तत्सर्वमपि कश्विभर केनचित्कर्मवशेन कपायितमात्रोऽन्तर्मुहीमात्र
मपि कालमनन्तानुबन्धिकषायोदये वर्तमानो हारयति - विफलीकुर्यात्, तथाविधकषायतीव्रत्वे मृत : कदाचिस्मारकेप्वप्युत्पद्यत इत्यर्थ : इति गाथार्थः ।। ३१० ॥ एतदेवाह
जइ उवसंतकसाओ, लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं । न हु भे वीससियध्वं, थेवे वि कसायसेसम्मि॥३११॥ ॐ व्याख्या-यधुपशान्तकपाय:-उपशमितसमस्तमोहमीपी, एकाक्षा मागायती, केलियागचारित्रयुक्त इत्यर्थः,
सोऽषि कश्चित्पुनरप्यनन्तभवभ्रमणलक्षणमनन्तं प्रतिपातं लभते , तदा भवद्भिरनुपशान्तकषायैः स्तोकेऽपि कपायशेषे न खलु विश्वसनीयं-नोपेक्षा कार्या, किन्तु सर्वथोपशमनीय एवेति गाथार्थः ।। ३११ ॥ अथ के कपायाः के गुण घ्नन्तीत्याहपढमाणुदये जीवो, न लहइ भवसिद्धिओ वि सम्मत्तं । बीयाण देसविरई, तइयाणुदयम्मि चारित्तं ॥३१२॥ सव्वे बिय अइयारा,संजलणाणं तु उदयओडंति। मूलच्छज्ज पुण होइ, बारसण्हं कसायाणं ॥ ३१३॥
व्याख्या-प्रथमाना अनन्तानुबन्धिनां पायाणामुदये, मवा-तस्मिन्नेव भन्ने भाविनी सिद्धिर्यस्यासो भवसिद्धिकः, सोऽपि जीवः सम्यक्त्वं न लभते, तथा पूर्वलब्धमपि तत्तदुदये वमत्येवेत्यपि द्रष्टव्यम् । द्वितीयानां अप्रत्यारव्यानावरणकपायाणामुदये देश
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरतिं न लभते, पूर्वप्रतिपनामपि च तां त्यजत्येवेति । तृतीयानां तु प्रत्याख्यानावरणकषायाणामुदये चारित्रं न लभते, लब्धमपि | चोज्यतीति। सज्ज्वलनानां चतुर्थकषायाणामुदये लम्धस्यापि चारित्रस्य मालिन्यहेतवो वितथाचरणरूपाः सर्वेऽपि-मलोत्सरगुणविषया Aअतिचारा भवन्ति । सम्वलनोदये यथाख्यातचारित्रं तावत्सर्वथैव न लभते, शेषस्यापि सामायिकादिचारित्रचतुष्टयस्य मालि
न्यजनकत्वेन देशवातिन एते इति भावः । तर्हि कथं शेषचारित्रस्य सर्वधातः १ इत्याह-द्वादशानां पुनरनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणरूपाणां कपायाणां प्रत्येकं समुदितानां वा उदये, मूलेन-अष्टमप्रायश्चितविशेषेण छिद्यते ऽपनीयते यद्दोषजालं तन्मूलच्छेद्यं भवति, अशेषचारित्रघातकं दोषजातं तदुदये समक्ष इति भाषावार्थः ।। ५६२-६३ ॥
अथ कपायनिग्रहानिग्रहफलस्य व्यक्तितो भणितुमशक्यत्वात्सामान्यतस्तदाह---- जंपिच्छसि जियलोए, चउगइसंसारसंभवं दुक्खं । तं जाण कसायफल, सोक्खं युण तजयस्त फलं ॥३१॥
व्याख्या-यजीवलोके चतुर्गतिसंसारसम्भवं दुःखं प्रेक्षसे तत्कपायफलं जानीहि, सौख्यं पुनस्तजयस्य-कषायजयस्य फल-| || मिति गाथार्थः ॥ ३१४ ॥ यद्येवं तर्हि कि विधेयं कह परमार्थः ? इत्याह
तंवरधुं मुत्तव्यं, जं पइ उप्पजए कसायऽग्गी । तं वत्थु चित्तव्यं, जत्थोक्समो कसायाणं ॥३१५॥ एसो सो परमत्थो, एयं तत्तं तिलोयसारमिण। सयलदुहकारणाणं, विणिग्गही कसायाणं ॥ ३१६ ॥
व्याख्या-तद्वस्तु मोक्तव्यं, यत्प्रति-यद्वस्त्वाश्रित्योत्पद्यते कषायाग्निः । तद्वस्तु प्राध, यत्रोपशमः कषायाणां । एष स परमार्थः, एतत्तत्त्वं त्रैलोक्यसारमेतत्, सकलदुःखकारणानां विनिग्रहो यत्कषायाणामिति गाथाद्वयार्थः ॥ ३१५-१६ ॥
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
MAHARASHTR
.....
गतं विशकद्वारमय कषायाणामेव रागद्वेषरूपतापरिणमनरूपमन्त्यद्वारमाह-- माया लोभोरागो,कोहो माणो यवपिणंओदोसो।निजिणसु इमेदोन्नि वि,जइ इच्छसि तं पयं परमं॥३१॥
व्याख्या-मायालोभश्चेत्येतो द्वावपि रागः, मायासहितो लोभपरिणाम एव रागव्यपदेशभाग्भवतीत्यर्थः । क्रोधमान योस्तु संवलितपरिणामो द्वेषो वर्णितः । ततः किम् ? इत्याह-एतौ द्वावपि [रागद्वेषौ] क्रोधमानौ (१) निर्जय-तिरस्कुरु, यद च्छसि तत्समयप्रसिद्ध पदं-मोक्षलक्षणं स्थानं परमं प्रधानमिति माथार्थः ॥ ३१६ ॥
अथ ये रागद्वेषौ जयन्ति त एव सुभटा इत्याहससुरासूरं पि भुवर्ण, निजिणिऊण वसीकर्य जहि । ते रागदोसमल्ले, जयंतिजे ते जये सुहडा ॥ ३१८
. व्याख्या-सुरा-भवनपत्यादयश्चतुविधा देवाः, न सुरा असुराः, नमो निषेधमात्रवृत्तित्वात्, सुरव्यतिरिक्ताः शेषा नारय तिर्यमनुष्याः, सह सुरासुरैर्बनत इति ससुरासुरं, तदशेषमपि भुवनं यकाभ्यां रागद्वेषाभ्यां निर्जित्य वशीकृत-संसार एवं सम्पिण्ड विकृत, तावेवम्भूती सर्वजगज्जेतारौ रागद्वेषमल्ली ये केचिञ्जिनवचनरता महासस्वा जयन्ति-अभिभवन्ति त एव जगति सुभटा झा गाथार्थ ।। ३१८ ॥ अथ रागमेदाभिरूपयन् तेषु द्वेषे चोदाहरणान्याह| रागोय तत्थ तिविहो, दिठिसिणेहाणुरायविसएहि । कुप्पवयणेसु पढमो, बीओ सुयबंधुमाईसु ॥३१९ विसयपडिबंधरुवो, तइओदोसेण सह उदाहरणा।लच्छीहरसुंदर-अरिहदत्तनदाइणो कमसो॥३२० ।
व्याख्या-तत्र तयो-रागद्वेषयोर्मध्ये रागस्तावविविधः, कथम् ! इत्याह-इहानुरागशब्दो उमरुकमणिन्यायेम पश्चावग्रतः
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
योज्यते, सतश्च विभक्तिव्यत्ययादयमों-दृष्टिषु-शाक्यादिकप्रवचनरूपास्वनुरागो दृष्टयनुरागः प्रथमः । स्नेहः-सुतवान्धवादिषु प्रतिबन्धस्तपोऽनुरामः स्नेहानुरागो द्वितीयः । विषयेषु शन्दादिषु प्रतिबन्धो-गाय, तद्रूपोऽनुरागो विषयानुरागस्तृतीयः । अस्मिश्च त्रिविधे रागे द्वेषेण सहेति चतुर्थे द्वेष लक्ष्मीधरादयश्चत्वारोऽपि क्रमेणोदाहरणानि, तद्यथा-विन्ध्यपुरे वरुणश्रेष्ठी, तस्य श्रीकान्ता-विजयानाम्न्यौ द्वे भार्ये । श्रीकान्तायां लक्ष्मीधर-सुन्दर-अर्हद्दत्तनामानवयः सुता जाताः, विजयायां नन्दनामा नन्दनोऽभूत् । तत्कुटुम्नं जिनधर्मभावितं । पुत्रा चर्द्धिताः, पित्रा परिणायिताः। इतश्चानादिभवपुरे मोहनृपः स्वास्थानसंस्थः चिन्तापरो यावसातस्ताववष्टिराग-स्नेहराग-कामराग-द्वेषगजनामानश्रत्वारोऽपि पुत्रा आगत्य प्राहातात! काते चिन्ताऽस्मासु सत्सु, मोहः प्राह हे वत्साः ! वैरी चारित्रधर्मराजस्तेन वरुणश्रेष्ठिकुटुम्ब वासितम् । तत्र चत्वारोऽपि श्रेष्ठिसुता अद्यापि सम्यग्वासिता न सन्ति, अवसरोऽयमात्मना । तच्छ्रुत्वा चत्वारोऽपि मोहसुता धारिताः, मेलितो दृष्टिरागेण लक्ष्मीधरस्य त्रिदण्डी,तेनावर्जितो मन्त्रतन्त्रादिभिः कुमारः प्रथमः । स्नेहरागेण सञ्जातपुत्रस्य सुन्दरस्य कारितः पुत्रलालनादिव्यापारस्त्यक्तधर्मकृत्यो जातो द्वितीयः कुमारः । विषयरागेणार्हद्दत्तस्य भार्यावशित्वे कारिते तद्वचसा पातितो महाचिन्तायां, जातो धर्मपराङ्मुखस्तृतीयोऽपि कुमारः। द्वेषगजेन नन्दस्य शिक्षित कलहकरणं पित्रादिष्वपि, कारितं दुर्भाध्य भाषणं, त्याजितो जिनधर्मपरिणामाचतुर्थोऽपि कुमार : । ततो वरुणश्रेष्ठी सुतान् धर्मविमुखान वीक्ष्य दुःखितः साधूनां पार्थे प्रव्रज्य मुगतिभागभवत् । सुता रागद्वेषैाप्ताश्चत्वारोऽपि मारणान्तिकं दुःखं प्राप्ताः दुर्गतिध्वनन्तं भवं भ्रमिष्यन्ति, प्राप्स्वन्त्यनन्तानि दुःखानि, तानि च केनापि सर्वायुष्केण वक्तुं न पार्यन्त इति ।
"ता जाणिऊण एयं, अप्पमत्ता निजिणेह पोवि इमे। रागहोसे दुनय-सत्तू अइविरसपरिणामे ॥ ९॥"
--
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
%
इति लक्ष्मीधरादीनां कथानकं समाप्तम् ॥ यतबेहामुत्र चानन्तदुःखदायको रागद्वेषावत आहसत्तू विसं पिसाओ, वेयालो हुयवहो य पज्जलिओ। तं न कुणइ जं कुक्यिा,कुणंति रागाइणो देहे ॥३२॥
. व्याख्या-शत्रुर्विष पिशाचो तालः प्रज्वलितो हुतवहश्च तदुःख देहे न करोति, यस्कुपिता-बाहुल्यं प्राप्ता रागादय कुर्वन्ति । शत्रुप्रभृतयो ऐहिकदुःखमात्रप्रदानेऽपि सन्दिग्धाः, रागादयस्तु परमवेऽप्यसङ्ख्यदुःखप्रदाः, अतस्त एव यत्नतो जेतव्य || इति भावः। इतेि गाथार्थः ।। ३२ ॥ अथ रागादिविपाकस्य तञ्जयस्य च कलमनन्तं पश्यन् सक्षेपतस्तदाहजो रागाईण वसे, वसम्मि सो सयलदुक्खाणं । जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाई ॥ ३२२ ।
व्याख्य!----यः प्राणी रागादीनां वशे, स निःशेषदुःखानां वशग इति मन्तव्यम् । यस्य तु वशे रागादयस्तस्य सर्वापान Kा सौख्यानि वशवनीन्येवेति त एव जेतव्या इति गाथार्थः ॥ ३२२ ॥
इत्थं कषायान् विषमान विभाव्य, प्रोड्य प्रमादं प्रशमं श्रयध्वम् । __ यथा शिवेऽनन्तसुखे सुखेन, लक्ष्मी लभध्वं लघु देहभाजः ॥९॥
इति पुष्पमालावृत्तौ भावनाधिकारे कषायनिग्रहलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥९॥ अथ गुरुकुलवासद्वार विमणिषुः पूर्वद्वारेण सह सम्बन्धगी गाथामाहपुव्वुत्तगुणा सव्वे, सणचारित्तसुद्धिमाईया। होति गुरुसेवणुच्चिय, गुरुकुलवासं अओ वुच्छं ॥ ३२३ ॥
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या- - पूर्वं सम्यक्त्वचारित्रादिकषायनिग्रहान्तेषु •द्वारेषु तच्छुद्ध्यादयः कषायजयान्ता गुणा उक्तास्ते सर्वेऽपि गुरुसेवाप्रवृत्तस्यैव भवन्ति, तदुपदेशादेव तत्परिज्ञानादित्यतोऽनन्तरं गुरुकुलवासं वक्ष्य इति गाथार्थ : ॥ ३२३ ॥
अथ प्रस्तुतद्वार भाष्यमाणार्थसङ्ग्रहमाह---
कोय गुरू ? को सीसो ?, के य गुणा? गुरुकुले वसंतस्स । तप्पडिवक्खे दोसा, भंणामि लेसेण तत्थ गुरुं ॥ ३२४ ॥ व्याख्या को गुरुः :- कीदृग्गुणयुक्तो गुरुर्भवतीति तावत्प्रथमं वक्तव्यम् । कथ शिष्यः ? इति वाच्यम् । के च गुणा गुरुकुले वसतः शिष्यस्येति वाच्यम् । तस्य च गुरुकुलवासे वसनस्य प्रतिपक्षे तत्परित्यागरूपे ये दोषाः शिष्यस्य भवन्ति तानपि मणियामि । तत्र तेषु यथोक्ताधिकारेषु मध्ये लेशेन सङ्क्षेपतस्तद्गुणनिरूपणद्वारेण गुरुं तावद्भणामीति गाथार्थः || ३२४|| तदेवाहविहिपडिवनचरितो, गीयत्थो वच्छलो सुसीलो य। सेवियगुरुकुलवासो, अणुयत्तिपरो गुरु भणिओ ॥ ३२५॥
1
Y
व्याख्या - विधिना शुभमुहूर्त्तकरणादिना प्रतिपन्नचारित्रः, गीतार्थ :- समस्तसूत्रार्थवेना, वत्सल:- सर्वजीवेषु हितः, सुशीलश्च सेवितगुरुकुलवासः, शिष्यजनादेरनुवृत्तिपरी गुरुर्मणित इति गाथार्थः || ३२५ || मन्तरेण गुरुगुणाने वाहदेसंकुलजाइरूवी, संघयणधिईजुओ अणासंसी । अविकत्थणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवक्को ॥ ३२६ ॥ जियपरिसो जियनिदो, मज्झत्थो देसकालभावण्णू । आसन्नलद्धपइभो, नाणाविहदेसभासण्णू ॥ ३२७॥
૧૨
२५
२०
२७ २८
૨૯
पंचविहे आयरे, जुत्तो सुन्तऽत्थतदुभयविहिष्णू । आहरणह उउवणय - नयनिउणों गाहणाकुसलो || ३२८ ॥
1
ससमय पर समयविऊ, गभीरो दित्तिमं सिवो सोमो गुणलयकलिओ एसो. पवयणउवएसओ य ग ॥३२९||
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - "देस" चि, अत्र सर्वत्र सूचामात्रत्वात्सूत्रस्यार्यदेशोत्पत्र एवं गुरुः स्यादित्यर्थः १, तथा “कुल"त्ति पितृपक्षशुद्धः २, "जाइ" ति मातृपक्षयुद्ध:, तथा रूपवान् प्रतिरूपः ४, संहननेन-विशिष्टशरीरसामर्थ्येन युक्तः ५, धृत्या - संयमादिनिर्वाहण प्रत्थलम नोबलेन युक्तः ६, धर्मकथादिप्रवृत्तौ वस्त्रभोजनाद्याशंसाविरहितः ७, स्वल्पेऽपि केनचिदपराद्धे तुच्छतया पुनः पुनस्तदुत्कीर्त्तनं विकस्थनं, तद्रहितः ८, मायाविनिर्मुक्तः ९, स्थिरपरिपादि:- अविस्मृत सूत्रार्थः १०, गृहीतवाक्य:-आदेयवचनः ११, जितपरिषत्-महत्या
सभायां क्षोभरहितः १२, जितनिद्र:१३, मध्यस्थो - रागद्वे परहितः १४, देशौचित्येन यः प्रवर्त्तते स देशज्ञः १५, एवं कालज्ञः १६, भाव :- पराभिप्रायस्तदौचित्येन प्रवर्त्तको भावज्ञः १७, आसचा - शमित्येव लब्धा - कर्मक्षयोपशमेनाविर्भूता प्रतिभा परतीर्थिकादीनां उत्तरप्रदानशक्तिर्यस्येत्यासन्नलब्धप्रतिभः १८, नानाविध देश भाषाकुशलः १९, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्या चाररूपपञ्चविधाचारयुक्तः २४, सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः २५, आहरण- दृष्टान्तः २६, साध्यार्थगमको हेतुः कृतकत्वादिः २७, टान्तदर्शितस्यार्थस्य प्रकृते योजना उपनयः २८, नया नैगमादयः, एतेषु सर्वेष्वपि निपुणः २९, ग्राहणाकुशल:- प्रतिपादकशक्तियुक्तः ३०, स्वसमयवेत्ता ३१, परसमयवेत्ता ३२, गम्भीर:- परैरलब्धमध्य ३३, दीप्तिमान् कुतीर्थिकादीनामसहाप्रतिभः ३४, विद्यादिसामर्थ्यादुपद्रवशमकत्वेन शिवहेतुत्वाच्छिवः ३५, सौम्यो- रौद्रप्रकृतिः ३६ इति षटत्रिंशद्गुणोपेतः, उपलक्षणत्वाच्चामीषामपरैरपि गुणशतै: कलितः, एष प्रवचनोपदेशक गुरुर्भवतीति गाथाचतुष्टयार्थः ।। ३२६-३२९ ॥ पुनर्मड्स्यन्तरेण गुरोः षट् त्रिंशद् गुणानाह - अविहा गणिसंपय, आयाराई चउविहिक्केक्का । चउहा विणयपवित्ती, छत्तीसगुणा इमे गुरुणो ॥ ३३० ॥
+
व्याख्या - गणोऽस्यास्तीति गणी- आचार्यस्तस्य सम्पत्-समृद्धिः सा चेहाचारादिभेदादष्टविधा, तद्यथा - आचारसम्पत् १,
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतसम्पत् २, शरीरसम्पत्३, वचनसम्पत् ४, वाचनासम्पत् ५, मतिसम्पत् ६, प्रयोगमतिसम्पत् ७, सग्रहपरिज्ञासम्पत्टा तथा चोक्तं "आयारसुअसरीरे, वयणे चायणमई पओगमई । एएस संपया खल, अमिया संग्रहपरिण्णा ॥ १ ॥
एतासु चैकैका चतुर्विधा, तत्र तावदाचारसम्पदित्थं चतुर्द्धा नित्य चारित्रोद्युक्तता १, जात्यादिमदमुक्तत्वं २, अनिविहारस्वरूपता ३, निर्विकारता ४ || अथ श्रुतसम्पचतुर्द्धा - बहुश्रुतता १, परिचिसूत्रता २, घोषविशुद्धिकरणता ३, उदात्तानु दात्तादिस्वर विशुद्धिविधायिता ४ । अथ शरीरसम्पञ्चतुर्द्धा लक्षणप्रमाणोपेतदैर्ध्य विस्तारयुक्तता १, सम्पूर्णाहीनसर्वाङ्गत्वेन लज्जfugeesक्यो वा अलञ्जनीयस्तद्भावोऽलज्जनीयता २, परिपूर्णेन्द्रियता ३, स्थिरसंहननता चेति ४ । अथ बचनसम्पञ्चतुर्द्धा आदेयवचनता १, मधुरवचनता २, रागाद्यनिश्रितवचनता ३, परिस्फुदासन्दिग्धवचनता ४। अथ वाचनासम्पञ्चतुर्द्धा - शिष्याणां यथायोग्यं सूत्रस्योद्देशनं १, एवं समुद्देशनं २, पूर्वप्रदत्तसूत्रालापकान् सम्यक् परिणमध्य ततोऽपरालापकानां वाचना ३, पूर्वापरसात्येन विमृशतः प्ररूपयतो वा सूत्राभिधेयस्य सम्यग्निवहिणाना ४ । अथ मतिसम्पचतुद्धी- अवग्रह १, ईहा २, अवाय ३ धारणा ४ भेदात्, तत्स्वरूपं च - "अत्थाणं उग्गहणम्मि, उग्गहो तह विधारणे ईहा । ववसायम्मि अवाओ, घरणं पुणे धारणं विति ॥ १॥" इत्यादि । अथ प्रयोगमतिसम्पचतुर्द्धा वादादिव्यापारकाले किममुं वादिनं जेतुं मम शक्तिरस्ति न वा ? इत्याद्यात्मस्वरूपपर्यालो
१, किमयं वादी साङ्ख्यः सौगतोऽन्यो वा ? प्रतिभादिमानितरो वा इत्यादि पुरुषपरिभावनं २ किमिदं क्षेत्रं साधुभिर्भावितभाव वा इत्यादि विमर्शनं ३, क्रिमिश्माहारादिवस्तु मम हितं न वाई इत्यादि विचारणं चेति ४ । सङ्ग्रहोपसम्पदपि चतुद्धी-बालorangतादि निर्वाहयोग्यक्षेत्रग्रहणं १, वर्षासु निषद्यादिमालिन्यजन्तुघातादिपरिहाराय पीठफलकोपादानम् २, यथासमयमेव
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वाध्यायप्रत्युपेक्षणाभिक्षाटनोपधिसमुत्पादनं ३, प्रव्राजकाध्यापकरत्नाधिकादीनामुपरिवहन विधामणाभ्युत्थानादिरूपा चतुथी ४ तदेवं दर्शितः प्रत्येकं चतुर्विधा अष्टावपि गणिसम्पद । अथ चतुर्विधा विनयप्रतिपत्तिः, तद्यथा-संयमताप्रभृतीनामाचरणकारा पणस्थिरीकरणादिरूप आचारविनयः१, सूत्रवाचनव्याख्यानादिरूपः श्रुतविनयः२, मिथ्यादृष्टयादीनां सम्यक्त्वधर्मादिस्वीकार णादिलक्षणो विक्षेपणाविनयः३, कषायविषयादिभिर्दष्टस्य सद्भावनिवर्त्तनादिरूपो दोपनिर्धातनाविनयः। तदेवमेते सर्वेऽपि षट्त्रिंशद गुणा गुरोभवन्तीति गाथार्थः ॥ ३३० ॥
नन्वेते सम्पूर्णा गुणाः साम्प्रतं न सम्भवन्ति, तदसम्भवे च गुरोर्व्यवच्छितिग्रसङ्ग इत्याशझ्याहकालाइदोसवसओ, एत्तो एक्काइगुणावहीणो वि।होइ गुरू गीयत्थो, उज्जुत्तो सारणाईसु ॥ ३३१ ।।
___ व्याख्या-कालादिदोषवशतः, आदिशब्दात्क्षेत्रादिपरिग्रहः, इतः पत्रिंशद्गुणसमुदायादेकद्विव्यादिगुणैविहीनोऽपि गुरुभवति, यदि पुनीतार्थ उद्युक्तश्च सारणादिश्वित्येतद्गुणद्वयं गुरोविशेषेणान्वेषणीयम् । सारणादीनां चैष विशेषः-"पम्हुइठे सारणा बुत्ता, अणायारस्स वारणा ॥ चुक्लाण घोषणा बुत्ता, निटुरं पडिचोयणा ॥१॥” इति गाथार्थः ॥ ३३१ ॥
अथ सारणाद्यभावे दोषानाहजीहाए विलिहितो, न भदओ जत्थ सारणा नत्थि। दंडेण वि ताडतो, भद्दओ सारणा जत्थ ॥३३२॥ I ब्याख्या-अतिवत्सलतया गुरुः शिष्यं जिह्ययाऽपि लेढि-अवलेडि, शेषवात्सल्यातिशयोक्ति परमेवेदं विशेषणं, सोऽप्येन म्मूतो गुरुर्न भद्रको · न शोभनो, यत्र गुरौ सारणा नास्ति, उपलक्षणं चेदं वारणादिनां । दण्डेनापि ताडयन् स एव गुरुभद्रको, यत्र
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
IPA सारणादय इति मावार्थः ॥ ३३० ! कः प्राणायामदाने गुर्दोषः ? इत्याह
जह सीसाइं निकितइ, कोई सरणागयाण जंतूर्ण। तह गच्छमसारतो, गुरू वि सुत्ते जओ भणियं ॥३३३॥
___ व्याख्या-यथा कश्चित्पापकर्मा शरणागतानामपि जन्तूनां शिरांसि निकन्तति-छिनत्ति, सथा-तेनैव प्रकारेण गुरुरपि संसारल भीत्या सरणमुपागतं गच्छ-साधुसाधीसमुदायरूपमसारयन् ज्ञानदर्शनचारित्ररूपतच्छिरस्कर्तको द्रष्टव्यः । द्रव्यशीर्ये हि कर्तिते
एकमविक क्षणिकमेव दुःखं, गुरुणा तु दोपेभ्योऽनिवर्तितानां भ्रष्टशिष्याणां नानादिरूपे भावशिरसि कर्तितेऽनन्तभविका निरवधिरेव | दुःखप्राप्तिः, सूत्रे-आगमेऽपि यतो भणितमिति गाथार्थः ॥ ३३३ ।। किं तदित्याह
जणणीए अनिसिद्धो, निहओ तिलहारओ पसंगेणं । जणगी वि थणच्छेयं, पत्ता अनिवारयंती उ ॥३३४॥ 6 इय अनिवारियदोसा, सीसा संसारसागरमुर्विति । विणियत्तपसंगा उण, कुणंति संसारखुच्छेयं ॥३३५॥
व्याख्या-जनन्या अनिषिद्धो निहतो-निपातितस्तिलहारकः प्रसङ्गेन जनन्यपि चानिवारयन्ती स्तनच्छेदं प्राप्ता । इत्यनिवारितदोषाः शिष्याः संसारसागरं प्राप्नुवन्ति, चिनियतप्रसङ्गाः पुनः कुर्वन्ति संसारोच्छेदमित्यक्षरार्थो, भावार्थः किश्चिदुच्यते--
बसन्तपुरवासिन्या, एकस्या विधवस्त्रियः । पुत्रो बाल्ये कृतस्नाना, स्विभाङ्गो निरगान गृहात् ॥१॥ कस्यचिद्वणिजो बह-शारेऽसौ विलराशिपु । आस्कल्प पतितो लग्ना-स्तदने बहवास्तिलाः ॥२॥ ततो गेहे गतस्यास्य, माता तानाददे तिलान् । है एवमेन द्वितीयेऽपि, दिनेऽसावकरोततः ॥ ३ ॥ अभयाऽपि गृहीतास्ते, तथैवेति दिन प्रति । अन्यान्याणिजो धान्या-न्याइरेन्मुख
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
मष्टिमिः ॥ ४ ॥ निवारयति नो माता, तष्टा सबहुमन्यते । प्रसङ्गादलगचौर्य, स्थूलेऽप्येष ततोऽन्यदा ॥ ५॥ प्रातः स राजपुरुषैः, सलोपत्रः प्राप्तयौवनः । वधस्थाने समानीत-स्तान्प्रति प्राह च स्वयम् ॥ ६ ॥ एकवार ममाम्मा मे, मेलयन्विति तैस्तथा । प्रतिमन्न
समासना, समानीता जनन्पपि ॥ ७॥ तेन स्वमातुस्तकालं, कपाण्या कचितौं स्तनौ । जनो हाहारवं कृत्वाऽपृच्छदेनं ततोऽजदता H॥८॥ एषा हेतुरनर्थाना--मेतेषां मेऽभवद्यतः । न्यवारिध्यमाकरिष्य, चौथे बाल्येऽधुनाऽप्यदः ॥९॥ जनस्सत्यमिदं ज्ञात-मेव नाशयति व्यं । निजं शिष्यांश्च दोपेभ्यो, गुरुरप्यनिवारयन् ॥१०॥ तहि यत्र गच्छे सारणादयो न दृश्यन्ते तत्र किं कर्चव्य ! इत्याहजहिं नत्थि सारणवारणा, व चोयणपडिचोयणाव गच्छम्मि। सोय अगच्छो गच्छो, संजमकामीहिं मुत्तब्बो ३३ः
व्याख्या-पत्र गच्छे उक्तस्वरूपाः सारणादयो न भवन्ति स गच्छोऽपि पच्छकार्याकरणादगच्छ एव, ततः संयमामिलाषि४ मिमोक्तव्यः । यत्र च सारणादयः स एवाश्रयणीय इति गाथार्थः ॥ ३३६ ।। सतः किम् । इत्याहअणभिओगेण तम्हा, अमिओगेण व विणीयइयरे य । जचियरतुरंगा इव, वारेअव्वा अकज्जेसु ॥३३७||
व्याख्या-तस्माद्गुरुणा अकार्येषु पवर्तमानाः शिष्या विनीतास्तावदनभियोगेन-कोमलवचनादिरूपेण निवारणीयाः, * इतरे-अविनीतास्त्वभियोगेन-निष्ठरवचनादिरूपेण निोक्साः । दृष्टान्तमाह--जात्पेतरतुरङ्गा इव, यथा जात्यतुरङ्गा बल्गासश्चारादिसा मारोपायेनाप्युन्माभिवय॑न्ते, इतरे-दुष्टाश्याः कशापातादिनि छुरोपायेन, एवं शिष्या अपीति गाथार्यः ॥ ३३७ ॥
___ अथ गच्छस्य सारणाचप्रदाने गुरोदोषं तत्पदाने गुणं चाह
कन
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
४-ॐ
गच्छं तु उवेहितो, कुम्वइ दीहं भवं विहीए छ । पालंतो पुण सिज्झइ, तइयभवे भगवई सिद्धं ॥३३॥
व्याख्या-सारणाधप्रदानेन गपक्षमागी गुरुदा न करोति,विधिना पुनस्तं पालयंस्तृतीयभवे सिद्ध्यति, भगवत्यांपञ्चमाङ्गे सिद्धमिदम्, यदाह-"आयरियउवझाएणं भंते ! अगिलाणीए गणं संगिण्हेमाणे उवगिण्हेमाणे कई हिं भवरगहणेहिं सिझइ १ जाव सव्वदुक्खाणमंत करेइ १ गोधमा! अस्थेगइया तेणं घेव भवम्गहणेणं सिझद | जाव अंतं करेइ, तचं पुण भवग्ग हणं नाइकमइ” अन्लान्या-अनिर्विष्णतयेत्यर्थः इति माथार्थः ॥३३८॥
उक्तं गुरुगुणदारं, अथ गुणद्वारेण शिष्यस्वरूपमाहलगुरुचित्तविऊ दक्खा, उपसंता अमुइणो कुलबहब्ब । विणयरया य कुलीणा, होति सुसीसा गुरुजणस्स ३३९
व्याख्या-गुरुचितविदोऽत एस दधा, उपश्चान्ताः, यथा कुलवधू सभा आकुश प्रहता वा न कयश्चित्तं मुश्चत्येवं सुशिष्या अपि "अमुइणो" ति अमोचकाः, न कश्चिद्गुरुं मुञ्चन्तीत्यर्थः । गुरुजनस्य विनयरताच, तथा कुलीनाः, एवंविधाः
मशिष्या भवन्तीति गाथार्थः ॥ ३३९ ॥ पुनरपि सुशिष्यः किं कुर्यादित्याह। आगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा। तहवि य सिं न विकूडे. विरहम्मि य कारणं पुच्छे ३४०
व्याख्या-आकार:-प्रस्थानादिभाषचको दिगवलोकनादिः, इङ्गितं तु प्रवृत्तिनिवृतिसूचकमीषझुशिरःकम्पादि, तयोः कुशलं शिष्य यदि कथश्चिदिनपपरीक्षादिनिमित्वं पूज्या-गुरवः श्वेतं वायसं पश्येत्यादि बदेयुस्तथापि सिंति एतेषां पूज्यानां तद्वषो न विकूटयेद
सरलत
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथा-किमाचाय ! न पश्यसि चक्षुभ्यां । यत्कृष्णमध्यमुं वायस श्वेतं अधीपीत्यादि न विकत्थषेत्. किन्तु तथैव प्रतिपयत । पुनः । या कुर्यादित्याह-विरहे-एकान्ते प्राप्त सति तच्छेतत्वाभिधाने कारणं पृच्छेद्गुरुं सुशिष्य इति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ P दृष्टान्तपूर्व सुशिष्यत्वोपदेशमाह| निवपुच्छिएण गुरुणा, भणिओ गंगा कआमूहां वहइ ? | संपाइयवं सीसा, जह तह सम्बत्थ कायब ३४
व्याख्या-नृपपृष्टेन गुरुणा गङ्गानदी किंमुखी बहतीति मणितः शिष्यो यथा सम्पग्विनयपूर्वकं सर्व सम्पादितवान् कृतवास्ता | सर्वेष्वपि प्रयोजनेषु सुशिष्येण कत्तव्यमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु यथा
प्रावर्तत पुरा जल्पो, राज्ञरसूरेश्च फस्यचित् । राजा विनीतास्तत्राह, राजपुत्रान गुरुर्मुनीन् ।॥१॥ परीक्षाय ततो राक्षा-ऽऽज्ञापि राजपुत्रकः । निवेश्य निरीक्ष्य त्वं, गङ्गा वहति किम्मुखी ॥२॥ आदावेत्र च तेनोक्तं, प्रेक्षणीयं किश्त्र यत् । सुप्रतीतमिदं पूर्व मिमुख्येव बहत्यसौ ॥ ३ ॥ ततः कथश्चिन्महता, कष्टेन प्रेषितोऽप्ययं । अपान्तरालादागत्य, प्रोक्तवानिति तयथा ॥४॥ आगतो द्रुतं राजन् !, गत्वा तत्र निरीक्ष्य च । न चलेन्मद्वचः पूर्वा-भिमुख्येव वहत्यसौ ॥ ५ ॥ ततश्च गुरुणा साधुः, प्रेपितो नवदिक्षितः
सोऽप्यचिन्तयदित्येत-द्विदन्ति गुरयोऽप्यदः ॥ ६॥ यत्पूर्वाभिमुखी मङ्गा, वहतीह पुरे परं । केनचित्कारणेनेह, भाव्यमेचं विमृत || च ॥ ७ ॥ जाननपि गतो गङ्गा, स्वतश्च परतश्च सः । विशेषतो विनिश्चित्य, गुरुभ्योऽदो न्यवेदयत् ॥ ८॥ यथा-मया तावदिई ॥ ज्ञातं यदुत पूर्वगा। गङ्गा सत्वं पुनः पूज्याः, जानन्तीह महाशयाः ।।९।। उभयोरपि चेप्टेयं, राजः प्रच्छन्नपूरुषैः । निवेदिता भूमिभुजे
प्रतिपनमनेन च ॥१०॥ साधूनां विनयः काम, प्रतिबुद्धश्च शुद्धधीः । तत्सर्वमन्येनाऽप्येवं, कार्य विनयपूर्वकम् ।।११॥ इति गाथार्थः
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
रा मायण
गावsinamra
wantarwwwhina
-
-
-
...
...MARAdv......mmm ..
":.
.....
hti
.'-"'.
-.
P३४|सुशिष्यमुक्त्वा तद्व्यतिरेकमाह
नियगुणगारवमत्तो, थो विणयं न कुब्बइ गुरूगं । तुच्छो अण्णमाई, गुरुपडिणीओ न सो सीसा ३४२ नेच्छई य सारणाई, सारिजंतोअ कुप्पड स पावो । उवएम पिन अरिहइ, दुरे सीसतणं तस्स ॥ ३४३ ।। _ व्याख्या- अब गुणवानिति निजगुणगौरवमत्तोऽत एवं स्तब्धो-निनोऽत ए च विनयं न करोति गुरूगा, तथा तुच्छो
1, अत एक गुरुपयनीका, स एवंविधो न सुशिष्यः । तथा यो नेच्छति गुरुणा दीयमानान् सारणादीन् उक्तरूपान, तत्तय सार्यमाणो गुरुं प्रति कृप्यति स पाप-पवान, उपदेश-साध्वाचारादिकथनलक्षणमपि नाति, दूरे पुनस्तस्य शिष्यत्वं, उपदेश| दानमात्रेऽपि क्रुध्यमानत्यादिति गाथाद्वयार्थः ।। ३४२-३४३ ॥ तर्हि तस्य कि विधेयम् । इत्याहछंदेण गओ छंदेग, आगओ विदिओ य देण । छंदे आमाणो, सोसो छदेग मुतब्बो॥ ३४४ ॥
___ व्याख्या-यः छन्देन-खाभिप्रायेण गुरुमनाच्या चित्माभिमते प्रयोजने गतः, छन्दैनैव चागतः, छन्देनैव चोपाश्रय ए स्थितः, उपलक्षणत्वादन्या अपि क्रियाः खाभिषापेपैक करोति, स एवम्भूतो गुरूणां छन्दे-ऽभिप्रायेऽवर्तमानः शिष्यो गुरुमिश्छन्देन-स्वाभिप्रायेणैव मोक्तव्यः-परिहतव्यः, अन्यथा शटितपत्रन्यायेनान्येषामपि विनास आपद्यते इति गाथार्थः ।। ३४४ ॥
समर्थितं शिष्यहार, अथ गुरुकुलवाससे कागुमहारममिपिरसुराहनाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवास न मुंचंति ॥ ३४५ ॥
RE
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-गुरुकुलवाससेवी शानस्य भागी-भाजनं भवति, तथा दर्शने चारित्रेप स्थिरतरको प्रतिस्थिरो भवति, अतो धन्या यावत्कथया-याधज्जीवितया गुरुकुलवासं न मुञ्चन्तीति गाथार्थः ।। ३४५ ॥ ... ननु गुरुकुलवासे वसतां शिष्याणां गुरोः प्रेरणावाक्यानि दुःखमुत्पादयेयुस्तस्कथमसौ प्रशस्यः ? इत्याहपदमं त्रिय गुरुपयणं, मुम्मुरजलगोब्ब दहइ भन्नंत परिणामे पुण तं चिय, मुणालदलसीयलं होइ ३४६
व्याख्या-प्रथ रमेव ताबद्गुरुवचनं मम्मुरज्वलन इव दहति, दापसदृशदुःखजनकत्वाद, शिष्यार्थ मण्यमानं । परिणामे-- । विपाके पुनस्तदेव गुरुवचनं मृणालइवलच्छीतलं भवति, तदेव सुखसम्पादकत्यादिति गाथार्थः ॥ ३४६ ॥
. किं गुरुकुलवाससेवायां केवलमात्मोपकार एव? परोपकारोऽपीत्याहतह सेवंति सउन्ना, गुरुकुलबास जहा गुरूण पि । नित्थारकारणं चिय, पंथगसाहुब जायति ।। ३४७ ॥ | ब्याख्या- सपुण्या:-पुण्यवन्तस्तथा-तेन प्रकारेण गुरुकुलवासं सेवन्ते, यथा स्वचित्कश्चिदमार्गसेविना गुरूणामपि निस्तारकारणमेव जायन्ते, पन्यसाधुवदिति गाथाऽक्षरार्थः ।। ३४७ ॥
पन्थककथास्येवम् -श्रीद्वारवत्यां नगयां जगत्प्रसिद्धो नारायणप्रभुः, तत्र सार्थवाहमार्यायास्थावच्चानाम्न्या गाधापतिपल्या E पुत्रस्थावच्चापुत्र इति नाम्ना विख्यातो धनधान्यकनकरत्नसमृद्ध्या च । क्रमेण प्राप्ततारुण्येन तेन परिणीतद्वात्रिंशत्कन्यकाभिर्दिव्यान्
भोगान् भुजता रैवतकाचले श्रीनेमिखामिसमवसरणं श्रुत्वा बन्दनार्थ सपरिकरण गतम् । तत्र च सरसा मधुरां मगवद्वाणी निशम्य प्राप्तसंवेगेन व अनन्या निवेदितः खाभिप्रायः, ततो जनन्या सुतनिष्क्रमणमहोत्सपार्थ तदा चामामुकटादीन्यामरणानि राकः पाई
A
Hinufilaspur
-scameraturerammamatma.sasi...
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
याचितानि, तन्निशम्य ससैन्यस्तद्गृहमागतो राजा, बहुशो निवारितोऽपि थापश्चापुत्रो न स्नेश्वशं गमिता, ततः कृपेन वपुरमध्ये । परहो वादिता, अन्योऽपि यः कश्चिदनेन सह दीधा गृण्हाति तस्यापि निष्क्रमणमहोत्सवमहं कारयिष्यामि, सरियोनिहिं च ददामि, | ततस्थानचापुत्रो राजेश्वरसार्थवाहप्रमुख राजसहस्रपतः श्रीकारितमदास श्रीगेभिवादले प्रवज्यामग्रहीत् । ततो द्विविधशिवाशि| क्षितः पठितचतुर्दशपूर्वः श्रमणसहस्रपरिवृतस्थापच्चापुत्रो महामुनिः श्रीनेमिनाथापा महीमण्डलं खरादैः पवित्रयन शैलकपुर प्राप्तः, तत्र मा सलकनामा नृपतिः पन्थम्प्रमुखप्रवरपञ्चशतमन्त्रिसहितः श्रावकधर्मे नियोजितः,ततः सौगन्धिकनगरे शुक्नामा (परिव्राजका) प्रतियोध्य
दीक्षितः । स द्विविधशिक्षाशिक्षितः क्रमेण चतुर्दशपूर्वधरो जातः । अन्यदा सकस्थावचापुत्रः पुनः शैलकपुरं प्रासला शैलकनृपपञ्चश्चतपरिकरो मुण्डकाभिधानं सुराज्ये संस्थाप्य निष्क्रान्तः । कालेन जातो गीतार्थः । अस्मिन्समधे साधुसहस्रयुतः समस्यावापुत्रो महामुनिः श्रीपुण्डरीकागिरी अनशनं प्रपद्य सिद्धः । ततः शैलकमुनिः स्थापितस्परिपदे । अन्यदा जासोऽस्य व्याधिरकारि सुतेन । चिकित्सा, पश्चात्प्रगुणीभृतोऽपि रसादिलाम्पट्याच्छीतलविहारिता जगाम । पन्थकमेकं विहाय त्यक्तः शेषशिष्यः । अन्य चातुर्मासिक सेवामयता गाढनिद्राप्रसुप्तः सद्वितस्तेन सूरिश्चरणयोः । ततोऽसावकाण्डनिद्राव्यपगमादुरामक्रोधस्तं प्रत्याह-कएप दुरात्मा मां प्रेरयति ।।
शिष्योऽप्रवीत् भगवन् । पन्धकसाधुरहं चातुर्मासिक क्षामयामि, सतः पादयोलग्नो, न पुनरेयं करिष्ये, शमध्वमेकमपराध मन्दमाग्यस्य मे 3 मिथ्यादुष्कृत' मिति वदन् पतितः पुनः पादयोः । ततोऽहो !! अस्य प्रशमो गुरुभक्तिः कृतज्ञता च मम तु प्रमादातिरेको निर्विवेकत्वं नति जातसंवेगोत्कर्षस्थरिराइ-महात्मन् ! इच्छामि वैयाकृत्यमुद्धृतोऽहं भवता भवगत्तापातादिति ।। तता प्रभृत्युद्यतविहारेण बह
कालं विहत्य पक्षाच्छत्रुञ्ज गिरी पञ्चशतसाधुपरिवार: सिद्धः अलकाचार्य इति । एवं गुरुकुलबास सेवमानाः केऽप्युत्तमप्रकृतयः
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
%A5%
%
C3%A9-
आत्मानं च परं च भवाखान्मोचयन्ति, इति पन्थकसावुकथा समाप्ता॥
.. न केवलं पन्थकेन, श्रीगौतमादिभिरपि गुरुकूलवास एवं निषेवित इत्याह| सिरिंगोयमाइणो गण-हरा वि नीसेसअइसयसमग्गा । तब्भवसिद्धीयावि हु, गुरुकुलवासं चिय पवन्ना ३४.
मामा --श्रीगजलाइयो गगणा अणि शिवपातिशयः समग्राः-सम्पूर्णाः, निश्चिततप्रसिद्धिका अपि गुरुकुलवासमे अपना इति माथार्थः ।। ३४५ ॥ अथ गुरुकुलवासत्यागे दोषप्ररूपणारूपं चरमद्वारमाहउज्झियगुरुकुलवासो, एक्को सेवइ अकज्जमविसंको। तो कूलवालओ इत्र, भवओ भमइ भवगहणे ३४
व्याख्या-परित्यक्तगुरुकुलबास एकाकी अविशङ्को-मतान्यशको कार्य सर्ववतलोपलक्षणं सेवते, ततः किम् ? इत्याह - ततोऽकार्यसेवनाद्धष्टवतः कुलवालक व भवगहने भ्रमतीति गाथार्थः ।। ३४९॥
कूलवालककथानकं पुनरेवम्-कश्चिक्षुल्लः केलिपाः श्रीसिद्धाचलतीर्थादेव समस्कृत्योतरतां गुरूणां पृष्टिस्यश्वपलस्वाच्छिलाम में चालयत्, सा पतन्ती गुरूणां गिति प्रसारितपादानां कथमपि न लग्ना। गुरुभिः क्षुल्लयोक्त-रे दुध ! त्वया किं कृतं?, यद्येवंवि
धोऽसि तत्सीतस्तव विनाशो भविष्यति, ततः क्षुल्ल आचार्यक्चोऽलीकताकरणाथ महाऽरण्ये स्त्री पवेशरहिते गत्वा महसः करोति || काचित्क्वापि तत्रागतसार्थाद्भिधां गृहाति । वर्षाकाले नधा कायोत्सर्गस्थस्य तस्य देवतया कूलमन्यत्र वालितं, ततः कूलवालकनाम्न प्रसिद्धः । इतथाशोकचन्द्रापरनामा कोणिकनृपः पद्मावतीभापांप्रेरितो हल्लविहल्लाभ्यां हारकुण्डलादियाचमानस्ताभ्यां सेचनकं गृहीत्व मुक्तोऽशोकचन्द्रः; आश्रितो विशालायां चेटको मातामहः । तन्निमित्तं तयोर्नुपयोलग्नं युद्धं, यान्छिलाकण्टक नाम युद्धमभवत्
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्मिंश्चतुरशीतिलक्षा जनाः पतिताः । अन्यश्च रथमुशलं नाम युद्धं जातम् । तत्र षण्णवतिर्लक्षा जनाः पतिताः । ततो विद्यालायां । प्रविष्टश्चेटकनृपः, इतरो रोधं कृत्वा स्थितः । श्रीमृतिस्वभावास व साहाने तो पण कोणिकं देवताकाशस्था प्राह-"समणे जड़ कूलवालए, मागहियं गणियं रमिस्सई । राया असोगचंदर, बेसालिं नगरिं हिस्सई ॥ १ ॥ तत् श्रुत्वा नृपेण मागधिका प्रार्थ्य प्रेषिता । तया श्राविकावेषेण सङ्घयुतया तत्र गत्वा यात्रार्थं प्रार्ध्य कूलवाल(क) चालितः । कुद्रव्य मिश्र मोदकदानेनो त्यादितातिसारो वैयावृत्योद्वर्त्तनाद्यतिभक्तिपरिचयेन पातितः संयमात् नीतः कोणिकपार्श्वे, नृपेण पृष्टों | विशाल ग्रहणार्थे । स च नैमित्तिकवेयेग विशालामध्ये मत्त्रा तंत्र प्रभावं श्रीमुनिसुव्रतस्तूपं ज्ञात्वा बहूदिनरोधव्याकुलाखनान् प्राहयावदसौ स्तूपस्ताव नगररोधो नोपशमिष्यतीति तत् श्रुत्वा जनैः स्तूपः पातितः । ततः कोणिकेन विशालायाः कोट्टे पातिते निर्गच्छन् चेटकनृपो भणितः कथय किमिदानीं करोमि ?, चेटकः प्राह-क्षणमेकांमव तिधु मा प्रविश नगरी यावदहं पुष्करिण्यां स्नानं कृत्वा समागच्छामि इति प्रतिपन्नं तेन ततोटकस्तत्र गत्वा लोहमयीं प्रतिमां गले बच्चा वाच्य पतन् धरणेंद्रेण स गृहीतः, Saffronics निजभवने, तत्रासी कृतानशनो गतः सहस्रारकल्पे । उद्रचमान गरी जनश्च नीतो नीलवगिरौ (सत्यकिना ) ( कोणिश्व विद्यालायां गर्दभयोत्रतानि हान्यवाहयत् ।
LL
गुरुकुला भो, भवओ धूभमंजणाईयं । तं कूलवालओ विहु काऊणऽसमंजस सब्र्व्व ॥ १॥ भमिही भवं स बहु सहभागी दारू महादुक्खं । तम्हा गुरुकुलवास, मा मुंबसु पाणचार विशा फुलवालककथा समाता ॥ अथ प्रकृतान्क्ष्यमा सम्बन्धमा
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
तो सेविज्ज गुरुं चिय, मुक्खत्थी मुक्खकारणं पढम । आलाएज्ज सुसम्म, पमायखलियं च तस्संऽतो ३५०
व्याख्या-यत एवं तस्मान्मोक्षार्थी गुरुमेव सेवते, यतो गुरुसेवनमेव प्रथम कारणं मोक्षस्य, तदन्तरेण ज्ञानादिगुणावाप्स्यभावात्, गुरुसेवनं कुर्वन् यत्किमपि प्रमादवशात्स्खलितमागच्छति तत्सर्व तदन्तिके सम्यगालोचयेत्, अन्यथा तत्सेवनख निष्फलत्वादिति सद्वारमुच्यत इति गाथार्थः ॥ ३५० ॥
इति गुरुकुलवासस्सर्वदा सेवनीयः, सुकृतिभिरभियुक्तर्मोक्षमाकानमाणैः। न खलु भयति मोक्षो ज्ञानलाभाहते यत्, स च पुनरिह सम्यक्सगुरोस्सेवनेन ॥१॥
इति पुष्पमालाविवरणे भावना द्वारे गुरुकुलवासलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ।। १० ।। अथोक्तसम्बन्धे आलोचनाद्वार एव भणियमाणार्थसहमाह-- कस्सालोयण ? आलो-यओ यआलोइयवयं चेव । आलोयणविहिमुवरिं, तदोसगुणे य वुच्छामि ॥३५१॥
व्याख्या-कस्य गुरोस्तावदालोचना दातध्येति वक्तव्यम् , आलोचकः शिध्यक्ष कीशो भवतीति वाच्यम्, किश वस्तु | गुर्वन्तिके आलोचनीयमिति च वाच्यम् । तथा उपरि आलोचनाविधि तथा तद्दोपान्-आलोचनाविषयाणि क्षणानि तथा तद्विषयानेव
गुणांव वक्ष्यामीति गाथार्थः ॥ ३५१ ॥ तत्रायद्वारमधिकृत्याह* आयारबमाहाख, ववहारोवीलए पकुवै य । अपरिस्सावी निज्जव, अवायदंसी गुरू भणिओ ॥ ३५२ ।।
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
*CARRANGABREAK
व्याख्या-तत्राचारवान्-शानादिपञ्चप्रकाराचारयुक्ता, मकारोऽलाक्षणिका, 'आहारथ सि आलोचितापरापानामवधारणासम्पमः, 'यवहारव' ति अनन्तरवक्ष्यमाणागमश्रुतादिपश्चपकारव्यवहारवान् , अपनीडका-लज्जयाप्तीचारान् गोपापन्तं विचित्र वचनैर्विलज्जीकृत्य सम्यगालोचनाकारयितेत्यर्थः ।, प्रकुर्वका-सम्यक् प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धि कारयितु समर्थः, अपरिपावीआलोचकनिवेदितदोषाणामन्यस्यानिवेदक, निर्यापका-असमर्थस्य प्रायविचिनस्तदुचितप्रायश्चिचदानतो निर्वाहक, 'अवायसी' ति सम्यगनालोचयतः पारलौकिकापायदर्शका, एवंविध एवालोचनीयवस्तुकयनयोग्यो गुरुभणित इति गाथार्थः ॥ २५२॥
अत्र यदुक्तं व्यवहारवानिति, तत्र पञ्चप्रकारव्यवहारस्वरूपदर्शनार्थमाहआगमसुयआणा-धारणा य जीयं च होइ ववहारो । केवलमणोहिचउदस-दसनवपुब्बाई पढमोत्य ३५३
व्याख्या-आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते पदार्या अनेनेत्यागमः १, श्रवणं श्रूयत इति वा श्रुतं २, पाचायते-आदिश्यत इत्याला ३, धारण धारणं ४, जीयत इति जीतं ५, इति पश्या व्यवहरणं व्यवहारो-मधुप्रासिरूपस्तस्कारमस्वादानविशेषोभी व्यवहारो * भवति । क आगमव्यवहारः ! इत्याह-केवलहान मनापर्यायानं अवधिज्ञानं चतुर्दशपूर्वाणि दशपूर्वाणि नवपूर्वाधि, एष प्रथम
आगमव्यवहार उच्यते । इह च यदि केवली प्राप्यते सदा तस्यैवालोचना दीयते, तदभावे मनापर्यापहानिनस्तसाप्यभावेऽवधिदशानिन, इत्यादि यथाक्रमं वाव्यमिति गाथार्थः ॥ ३५३ ॥
ननु केवली सर्व आनन् शिष्यापरापाः । वयमपि प्रकटीकत्य प्रायविरं ददाति न था ? इत्याशमाह
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
कहेहि सव् जो वृत्तो, जाणमाणो वि गूहइ । न तस्स दिति पच्छिलं, विंति अन्नत्थ सोहय ॥ ३५४ न समरइ जो दोसे, सम्भावा न य मायओं । पञ्चक्खी साहए ते उ, माइणो न उ साहई ॥ ३५५
व्याख्या--कथय सर्व दोषजातमिति केवलिना प्रोक्तो यः शिष्यो वानपि दोषान्मायावितया गोपायति, न त मायाविने प्रायश्रित ददति केवलिनः किन्त्वेतदेव बुवन्ति यदुतान्यत्र काचिदात्मानं शोधयेति । यस्तु न स्मरति सद्भावेने कांश्रित्स्वदोषान्, न पुनर्मायातः, तस्य तान् दोषान् प्रत्यक्षी - केवली साधयति, मायाविनस्तु न साधयतीति लोकद्वयार्थः ३५४-५ इत्यलं प्रसङ्गेन । अथ प्रस्तुतश्रुतादिव्यवहारनिरूपणार्थमाह---
यापकप्पाई, सेसं सव्वं सुयं विनिषिद्धं । देसतरष्ट्ठियाणं, गूढपयालोयणा आणा ||३५६||
व्याख्या - आचारप्रकल्पो निशीथस्तदादिकं कल्पव्यवहारदशाश्रुतस्कन्धादिकं शेषं श्रुतं सर्वमपि श्रुतव्यवहारः । चतुर्दश दिपूणां तु विशेषेऽपि विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमखेन व्यपदेशः । आज्ञाव्यवहारमाह- देशान्तरस्थितानां गुरूणा मन्तिके गन्तुमशक्तः शिष्यो गच्छदगीतार्थहस्ते आगमभाषया गूढान्यपराधपदानि लिखित्वा प्रस्थापयति, गुरुरपि तथैव गूढपदे प्रायचि लिखित्वा प्रेपयति, तदाऽसौ आज्ञालक्षणस्तृतीयो व्यवहार इष्यत इति गाथार्थः || ३५६ || धारणाव्यवहार माइगtत्थे दिन्नं, सुद्धि अवधारिऊण तह चेव । दितस्त्र धारणा सा, उद्धियपयधरणरूवा वा ॥ ३५७ ॥
व्याख्या - इह केनचिद्गीतार्थसंविग्नेन गुरुणा कस्यापि शिष्यस्य काचिदपराधे द्रव्यायपेक्षया शुद्धिः प्रदया, वािं
.
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथैवावधायै सोऽपि शिष्यो यदाऽन्यत्रापि तद्रूप एवापराधे तथैव प्रयुङ्क्ते तदाऽसौ तुर्यो धारणाव्यवहार इष्यते, अथवा यदा गुरुरशेष४ च्छेदश्रुतायोग्यस्य कस्यचिच्छिष्यस्यानुग्रहं कृत्योद्धृतान्येव कानिचित्प्रायश्चित्तपदानि कथयति, तदा तेषां पदानां धरणं धारणाऽभिघीयत इति गाथार्थः ॥ ३५७ ।। जीतव्यवहारमाहदबाइ चिंतिऊणं, संघयणाईण हाणिमासज्ज । पायच्छित्तं जीयं, रूदं वा जे जहिं गच्छे ।। ३५८ ॥
व्याख्या- येवपराधेषु पूर्वाचार्या बहुतपाप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्ते वेध साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभान्विचिन्त्य संहननादीनां EMच हानिमासाद्य ममुचियेन केनचित्तपःप्रकारेण यत्प्रायश्चित्तं गीतार्था निर्दिशन्ति तत्समयभाषया जीतमुच्यते, अथवा यद्यत्र गच्छे | । सूत्रातिरिक्तं कारणतः प्रायश्चित्तं प्रवर्तितं, अन्यैश्च बहुभिरनुवर्तितं, तत्तत्र रूढं जीतमुध्यत इति गाथार्थः ।। ३५८ ॥
एतेषां च व्यवहाराणामन्यतरेणापि युक्तो गीतार्थो गुरुः प्रायश्चित्तदानेऽधिकारी, न त्वगीतार्थः, कुतः ? इत्याह-- 15 अगीओन बियाणेइ. सोहि चरणस्स देइ ऊणऽहियं । तो अप्पाणं आलो-यगं च पाडेइ संसारे ॥३५९॥
व्याख्या-अगीनाथों हि चरणस्य (शोधि)-शुद्धि न विजानात्यतः सूत्रोक्तानामधिकामपि च तां ददाति, ततो न्यूनाधिकप्रायश्चित्तदानादात्मानमालोचकं च संसारे पातयतीति गाथार्थः ।। ३३५९ ॥ यत एवं तन आइतम्हा उक्कोसेणं, वित्तम्मि उ सत्तजोयणसयाई । काले बारसमरिसा, गीयत्थगवेसणं कुज्जा ॥ ३६॥
व्याख्या- तस्मादुत्कर्षण क्षेत्रे-क्षेत्रमाश्रित्य सप्तयोजनशतानि यावत् , काले-कालमाश्रित्य द्वादशवर्षाणि यावद्गीतार्थगुरुगवेषणां
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुर्यात् , एतावति क्षेत्रे तदन्वेषणार्थ पर्यटेदेतावन्तं च कालं तमागच्छन्तं प्रतीक्षेतेत्यर्थः इति गाथार्थः ।। ३६० ।।
नन्वेवं कुर्वन्धौं यद्यन्तरालेऽप्रदत्तालोचनो म्रियते तदा किमाराधको न था ? इत्याह - आलोयणपरिणओ, सम्मं संपठिओ गुरुसगासे । जइ अंतरा वि कालं, करेइ आराहओ तह वि ॥३६१॥
व्याख्या-आलोचनां दातुं सम्यकपरिणतो गुरुसकाशे गन्तुं च सम्प्रस्थितो यदि कदाचिदन्तराऽपि कालं करोति-निय तथाप्ययमाराधक एव, विपर्यये तु विराधक इति गाथार्थः ॥ ३६१ ॥ अथालोचकद्वारं विभणिषुराहजाइकुलविणयउवसम-इंदियजयनाणदंसणसमग्गा । अणणुताकी अमाई, चरणजुयालोचना भणिया ३६२
व्याख्या-जातिमम्पन्नाः खदोषान् सम्यगालोचयन्तीति, कुलसम्पमा हि प्रतिपश्चप्रायश्चित्तवोदारः स्युः, विनयसम्प है | बन्दनाद्यालोचनासामाचार्याः प्रयोक्ताः, उपशमसमग्राः गुरूपालम्भादितर्जिता अप्यकोपनाः, इन्द्रियजयसम्पमाः सम्यक्तपःकार
झानसम्पमाः कृत्याकृत्यविभागलाः, दर्शनसममाः प्रायश्चित्तेन भुद्धिं श्रद्दधाना, अननुतापिनः आलोचितापराधेषु किमिति मवेदम | लोचितमित्यादिपवयाचापरहिताः, अमायाविनो-ऽगोपायन्तः, चारित्रयुक्ताः, नान्ये, शोधनीयस्यैवाभावाद । एवंविधायोपे | आलोचका भगिता इति गाथार्थः ।।३३२ ॥ अथालोचयितव्यद्वारमाश्रित्याहमूलुत्तरगुणविसयं, निसेवियं जमिह रागोसेहिं । दप्पेण पमाएण व, विहिणाऽऽलोएज्ज तं सब् ॥३६३
व्याख्या-प्राक्प्रदर्शितमूलोत्तरगुणविषयं यदवितमिह रागद्वेषाभ्यां दर्पण-उपेत्य करणेन प्रमादेना-नाभोगादिना या निषेवितं
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
desi wearer मेदभिनं विधिना वक्ष्यमाणलक्षणेनालोचयेदिति गाथार्थः ॥ ३६३|| आलोचना विधिद्वारमेवाश्रित्याहचाम्मासयवरसे, दायव्वालोयणा चउछकन्ना । संवेयभाविएणं, सव्वं विहिणा कहेयव्वं ॥ ३६४ ॥
व्याख्या-त्रिषु चतुर्मासषु पर्युषणायां चावश्यमालोचना प्रदातव्या । केन विधिना ? इत्याह- चतुःकर्णा पट्कर्णा व । यदा पुरुषः शुद्धिं प्रतिपद्यते तदा गुरुशिष्ययाः प्रत्येकं द्विकर्णत्वाश्चतुःकणांssलोचना भवति । योषितस्त्वेकाकिन्या आलोचना न दीयते, किन्तु सद्वितीयायाः, ततच योयोंषितो चत्वारः कर्णाः द्वौ च गुरोरित्येवं पकर्णालोचना मरतीति, संवेगमावितेन सर्वे सूक्ष्मबादररूपं दोषजातं सूत्रोक्तेन विधिना कथनीयमिति गांथार्थः || ३६४ || कः पुनरसौ विधिः १ इत्याह -
जह वालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा, मायामय विप्पभुक्को उ ॥ ३६५॥ व्याख्या - यथा किल बालो जल्पन कार्यमकार्य व ऋजु सरलमेव भणति, तथा मायामदविप्रमुक्तः संस्तत्स्वदोषजात | समालोचयेदिति माधार्थः || ३६५॥ इयं चालोचना सर्वैरपि परसाक्षियेत्र विधेयेत्याह
१
छत्तीसगुण समन्ना - गएण तेण वि अवस्स कायव्या । परसक्खिया विसोही, सुइद्भुवि ववहारकुसलेणं ॥ ३६६ ॥ व्याख्या- पत्रिंशङ्गुणैस्समन्वामतेन-आश्लिष्टेन तेन गुरुणाऽप्यवश्यं परसाचिकी विशुद्धिः कर्त्तव्या, कथम्भूतेन : इत्याहसुष्ठु - अतिशयेनागमादिपश्चप्रकारव्यवहारकुशलेनापि किं पुनरितरेणेति गाथार्थः || ३६६॥ एतदेव समर्थयवाहजह सुकुसलो वि विज्जो, अन्नस्स कहेइ अतणो वाहिं । एवं जाणवस्त्र वि, सल्लुद्धरणं परसगासे ३६७
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ व्याख्या-यथा सुकुशलो-मानाचिकित्साचतुरोऽपि वैद्य आत्मनों व्याधि अन्यस्य कथयति, एवं शुद्धिं जानतोऽप्याचार्या परसमीपे एवं शल्योद्धरणमिति गाथार्थः ॥३६७॥ विधिविस्तारस्तु छेदग्रन्थेभ्योऽबसेयः, अथ तद्दोपहार विभणिपुः सूक्ष्मेऽप्यपराधप
अनालोचिते यो दोषः सम्पद्यते तं सदृष्टान्तमाह* अप्पं पि भावतरलं, अगुद्धिय सपनियतगएहि जायं कडुयविवागं, किं पुण बहुयाई पोचाई? ॥ ३६८ ।
ब्याख्या-इह च राजतनयेनार्द्रकुमारेण वणिक्तनयेन इलापुत्रेण चानुत्धृतं-गुरुभ्योऽनिवेदितं स्वसमपि भावशल्यं जीवधार मृपावादादि, कटुविशक-दारुणफलं जातं, किं पुनर्बहूनि पापानि ।।
तत्रार्द्रकुमारकथा स्वे-कविद्वसन्तपुरवासी सोमादित्यनामा बन्धुमतीपत्न्या सह श्रीसुस्थित सूरिसकाशे वैराग्यात्मात्राजीव - सम्यगध्ययनतपोधैयाहत्यादिपरो गुरुभिस्सम विहरति । अन्यदा भार्या साध्वीं दृष्ट्वा पूर्वविलसितानि स्मृत्वा तस्यां तस्य साधोर्मन
सरागमभूत् । ततो भावनासहनिवय॑मानमपि य(दादि तस्यां मनो न निवर्तते ततस्तेन सङ्घाटकसाधोरुक्तं-भो! यदाऽहमेनां पश्या तदा मे मनः सरागं स्यादिति । तेनापि तदुक्तमुक्तं बन्धुमतीसाव्याः, ततः साऽऽत्मानं तस्य कर्मबन्धकारणभूतं विचिन्त्य गुरुण्याश्च ख्यायानशनं गृहीत्वा स्वर्ग गता । स साधुरपि तद्विज्ञायाहो!! सा महतरक्षार्थ प्राणानत्याक्षीदई तु भावतो बतभङ्गमकार्ष तस्याः मृत्यये जातस्तदथो महापातकिनः कि में जीवितव्धेन ? इति विचिन्त्यानशनं गृहीत्वा तत्स्थानमनालोच्यैव वर्ग गतः । ततश्युत्वाऽनारे आर्द्रदेशे आर्द्रपुरे आई(क राजस्यानाम्ना स पुत्रो जातः । सकलकलाकुशलस्तारुण्यं प्राप 1 अन्यदा क्रमागतस्नेहधुख्यथं श्रीश्रेणिक मापालेन प्रेषितं प्राभृतं गृहीत्वा श्रीभाकराजोपान्तिकमागतेभ्यः प्रधानेभ्यः सकाशात् श्रीअभयकुमारगौरवमाकर्ण्य तेन सह प्रीति
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
-:"--
चिकीः श्रीआई कुमार श्रीअभयार्थ तेषां मुक्ताफलादि समर्पयति सन्दिशति च
. . "दूरस्थान्यपि मित्राणि, मित्राणामुपकुर्वते । तावत्यध्यन्तरे पश्य, पछेषु रविणा कृतम् ॥१॥ ... त्वनिमलगुणग्राम-रज्जुसन्दानितं मनः। मदीयं श्रीमदभय !, जानीहि स्वान्तिके स्थितम् ॥२॥" · अथ प्रतिप्राभृनं दत्वाऽऽद्रराजेन विसृष्टास्ते राजगृहं गत्वा श्रेणिकामययोस्तहत्वाऽऽर्द्रकुमारसन्दिष्टमभयायालयन्, अभयस्त्वचिन्तयत्
.. .."मृगा मृगैस्समनुब्रजन्ति, गावच गोभिस्तुरगास्तुरङ्गैः। • मूर्खास्तु मूर्खस्सुधिमाधीभिः, सासरशीदस्यलाधु सख्यम् ॥१॥" तन्नूनमयं मया मैत्रीमासूत्रयन् कोऽप्यासप्रसिद्धिका पूर्वमीपद्विराद्धश्रामण्याद नार्येशून्यत्रतत्केनाप्युपायेनैनं जिनधर्म बोधयामि । यत:- “प्रवर्तयति धर्म य-जीवं मोहवशानुगं। निवर्तयति पापातु, तत्सुमित्रमुदाहृतम् ॥२॥"
तबद्धता काजिजिनप्रतिमा प्रेपयामि, तदर्शनात्कदाचिआतिं स्मरेदिति युगादिजिनप्रतिमामनुपमरनमयीं धूपदहनघण्टाधुपकरणसहिनां मञ्जूषायो चिप्ता मुद्रां च कृत्वा राजपुरुषाणां इस्ते प्रस्थापयति सन्दिशति च-साधुशिरोमणे! तव न किश्चिदुपकर्तुं मई | क्षमस्तथापि किनिदिदं प्रेषितमस्ति, तन्मामनुगृह्य क्वचिद्गूढापपरके महान्धकारे एकाकिनोद्घाट्य यत्नेन निरीक्षणीयमिति । तेरपि नीत्वा तदाकमारस्थापित सन्देशयोक्ता हटेन तेनापि सन्दिष्टरीत्योद्घाटिता मन्जूषा, दृष्टा च निजप्रमापटलेन प्रयोतनमायुपहसन्ती युगादिजिनप्रतिमा। ततोऽहो। अपूर्वमहो। अपूर्वमिदमाभरणं शीर्षकण्ठादी क्व परिधीयते । इति न जाने, अथवा क्वचिदष्टमिति - चिन्मलय आतिस्मरणमुत्पन.सता पूर्व यथा.: गृहीतं यथा च विराई श्रामण्यं तथा स्मृत्वा संवेममापमधिन्तयत्वहो। मना
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
कल्पितविराधनाफलमिदं, यदहमनायेंत्पन्नो, यत्र धर्मेत्यधरश्रुतिरपि न, किन्तु येनैवं करुणयामनुगृही स श्रीमपामार एवं मे परमबन्धुः, यदुक्तं-“कस्तस्मात्परमो बन्धुः ।, प्रमादाग्निपदीपिते। यो मोहनिया सुप्तं, भवगेहे प्रबोधयेत् ॥१॥' तदार्येषु गल्दा प्रबन्यां गृहामीति। ततः प्रतिमा प्रपूज्य पितरमाह, यथा-तात! कता मया मैत्र्यमयेन, साम्प्रतं तं द्रष्टु मागताच इति। ततो न वत्स! वैरिवारान्तरितेऽस्माकं गमनमुचितमिति राक्षा निषिद्धः कुमारः संसारोहिग्नो न विलासादि कुरुते। आ साततदभिप्रायेण राजा नदीधार्थमादिष्ट नृपत्रपत्रिशती। सा च सर्वव तेन सौव यायायाति च। ततस्तया मह वाखाली याति तुरगान् वाइयमधिकमपि गत्वा पुनरायात्येवं प्रतिदिनं कुर्वता सा विश्वता। इतवाधितीरेतिप्रतीतनरैः प्रवहणं रस्नैः पूरित, प्रतिम च सत्र क्षिपिता । सर्वथा प्रगुणीकृते प्रवहणे कुमारस्तुरगमारुर पलायितस्समुद्रतीरे मत्वा प्रवहणमारकार्यदेशं सम्प्रातः । ततो जिनप्रतिमा अभयकुमारस सम्प्रेष्य रखानि धर्मे दत्वा स्वयं यावत्पश्चमौष्टिकं लोच करोति तावदेवतया गगने भूत्वोक्तं-- भोः सवाद्यापि मोगकर कर्मास्ति, ततो मा दीक्षां गृहाणेति। ततः कुमारः किं तेन कर्मणा, यदि प्रत्याख्यावान् भोगाम मोक्ष्य, सरिक करिष्यति? में भोगफलं कर्मति दीक्षां गृहीत्वा विहरन् वसन्तपुरं प्राप्तो बहिः कायोत्सर्ग स्थितः। तब पूर्वमवमार्याऽपि देवलोकास्युत्तार
अष्टिपत्री धनश्रीनाम्नी जागा साऽपि च देवयोगात्तस्मिदेव प्रदेश पालिकामिस्सम पतिवरण]कीच्या क्रीमति, तामिः परस्सा & मषितम्-खामिकचितं बरं कृणुध्वं, ततो धनत्रिया वृत आर्द्रकुमारषिः, शेषामिण कोऽपि कोऽपि। अत्रान्तरे कापि देवता मुहर भणन्ती गर्जितं कला रस्लदृष्टि चकार । ततो गर्जितक्षुधा धनश्रीर्मनीन्द्रचरणयोर्लया। तत उपसर्ग शात्वाऽन्यत्र गतसाधुः। तत पो रत्नानि गृहीतुमागतो देवतया निवा मणि:- मयाऽग्नि कन्पाया परने चानि सन्ति, ततो नान्यखात्राधिकारः। ततः
44.
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्या रत्नानि च गृहीत्वा निजगृहं गतो जनकः। अथागच्छत्सु बरणार्थ बहुत मणस्पेपा-किमेते समायान्ति, गिता प्राह-वारका
साप्राह- "सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते" इति वचनोलन किमिदमारग्घी, यस्य परणपनं स्वया रक्षितं तस्याहं दर प्राक्। ततः IMI पित्राऽमाणि-मनु सव्रती न परिणयति को वा तमुपलक्षयति।। सा भणति-स एक मे गतिरग्निा , लक्षणं चास्ति तदक्षिाही
ततस्तदुपलक्षणायं पित्रादेवादानशालायां सा सर्वमिवावराणां दान दले, द्वादशान्तेि कर्मशालामतमासानिएपलक्ष्य परमयोलेगिस्ता सा मणति-दानाप! अनार्था मा मुस्त्यावर प्रान्तः, सम्प्रति न त्वक्ष्यामि न त्यक्ष्यामि सारणी, सावता श्रेष्ठी राजा च समापातौ साधु भणत:-भो महानुभाव! शो मण्यमानाऽप्यसो त्वय्येव सतप्रतिधा, नान्यनामापि सहते, त्वयाऽनङ्गीकता व सज्वलज्जालनमवेशपतिज्ञा, तत्करुणां त्वा परिणयेमा पाला, करुणैव हि धमों विश्चिप्प्यिा (?) युमन्मार्गे, सदेवं तस्वारा श्रेष्ठिनबारदेन्यप्रार्थनागर्भमणिरुदितमोगफलकर्मा मुनिर्विवाहमकरोत् । अब भोगप्रजासत्रे जाते साधुः प्रियां मणति-जातोऽयं | सब सहायो, बिसर्बय को, गृहामि दीक्षाम् । ततो दूनेय स्वावमेकान्ते शिक्षयिस्ता कार्ययितुं लगा। इतब तनुजोमादीदम्बा किं स्ववेदमसासमारम्धी, सा प्राइ-पुत्र! यस्यौ परोक्षे वीणामिदमेव मण्डनं, समाह-मात ! साते विजयमाने किमिदमसम्बदं भूरे, सा प्राह-वत्स! क्वचिचलितोऽयं तव पिता, ततः स याति! तातो, बदा धरामीति मन्मनमुपस्वन्तभिस्तं पादयोर्वेष्टपति सः। तख तथा वेष्टया हष्टस्तावोऽपि चिन्तपति- पारतो पेप्टानसौ दाखति शान्ति वर्षाणि मया स्पेयम्। सन्तोदश वेष्टान्गणवित्वा स्थितो द्वादसण्याः धनगेंहै। तदन्ते च चिन्तयति-प्राइमनसैर विरानभाययोनार्येत्तमा, सम्प्रति तु सर्वथा मग्नबता कि भविष्यामीति न जाने, किन
RSSC+EOS-
44
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
"पच्छा वि ते पपाया, खिप्पं गति अमरभवणाई। जेसि पिओ तयो सं-जमा अखती य मचेरं च ॥१॥"
. [वश० --२८ M. इत्यधुनाऽपि तपः श्रेप इति विचार्य बार्यमाणोऽपि भार्यया निक्रान्तः कुमाराः। इतव ये रामा पञ्चशवराजकुमार
माररक्षार्थ दचा अभ्वंस्ते कुमारे पलाय्य गते लाभयादिभिरुपराजं गन्तुमशक्नुवन्तः कुमारं गवेषयन्तः- काञ्चिदटव है। प्राध्यानिर्वहन्तौरवृत्या गरी विष्ठानि से सिनिना वांबोतावेचित्रश्रुतोपदेशलब्ध्या प्रतियोध्य दीक्षा ग्राहिताः। सस
पुरतः श्रीवीरपावं गच्छत आर्द्रमुनेगोशालको मिलितः, स चोल्लष्ठवचनैः श्री वीरदोषान् भाषपाणो वादे निर्जित्य महामतिनाऽनेन
तथा निरुत्तरीकतो. यथा नष्ट्वा गतः। अथ यावत्पुरः कुमारी राजगृहपुरसमीरमायाति तावमा तापमानामाश्रमोऽस्ति, तेच 'वि ट्र बहुभिर्वीजादिभिविनाशितः ?, घरमेकं गजं हत्वा बहून् दिवसान श्रीम' इति कुविकल्पेन हस्तिनं पातं धातं सान्ति-भक्षयन्ति, तद &च तैरेको बनकरी भारशतशृखलाशङ्खलिताहिर्मशातरुस्कन्धनिद्धस्कन्धो टार्गलाञ्जलितस्तत्राथमे तिष्ठति स च इस्त
मार्गप्रतियोधितमक्तशलाद्गीयमानगुणग्राम सं मुनि निरीक्ष्य चिन्तयत्यहमप्येनं मुनि बन्दे, तदैव च मुनिप्रभागझटिति त्रुटितशृखलादिबन्धन: करीत:प्रणम्य वनं गता, तेन चातिशयेनामाद्विवदमानाः सर्वे तापसा निर्जित्याईद्ध में स्थापिताः। इतने श्रीश्रेणि:: श्रीअभयश्च अनामनाम्गजबन्धनोन्मोचनादि तम्यातिशयं श्रुत्वा तत्रैवाश्री वन्दनाय सभायातो, नत्वा स्तुत्वा राजा पाह-भावन् ! अतिदुष्करं यदलोहबन्धनात्तिर्यमपि करी मोचितो निजमहिम्ना। मुनिसह
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
"न दुक्कर पंधणपासमोअणं, गयम्स मत्सस्स घणम्मि राय ! ।
- जहा उ चत्ता लिएण संतुणा, सुवुकर मे पडिहाइ मोअणं ॥१॥" राजाऽऽह-किमिदं ? मुने !, भगवानपि स्वव्यतिकरं सर्व सविस्तरमुक्त्वा पाह- राजन् ! अव्यक्तमुलपता तेन बालेन यः शास्त्रसन्तुभिर बद्धस्ते स्नेहतन्तब एत्र मयाऽपि दुःखेन त्रोटिनाः, तदपेक्षया गजबन्धनत्रोटनं किपदेतत् । । ततष धर्मदेशनां श्रुत्वा
निमबुद्धस्साफल्येन दृष्टी श्रेणिकामयो प्रणम्प स्वगृई गतौ। मुनिश्च श्रीवीरजिनान्ति के गतः, प्रणतो भगवान्, प्रतियोषितांच सर्वानपि राजपुत्रप्रमुखान् श्रीवीरपाच दीक्षा ग्राहयिस्वा स्वयं चालोचितप्रतिकान्तो निस्सङ्ग उग्रं तपः कृत्वा केवलज्ञानमुत्पाद्य मोक्षमनन्तसौख्यं प्राप्त, इत्यार्द्रकुमारकथा समाप्ता ।। ___अथ वणिक्तनयकोच्यते-वसन्तपुरे अग्निशर्मनामा द्विजो धर्म श्रुत्वा समायः स्थविरान्तिके प्राधाजीत् । तद्वयमपि रखत्रयनिष्ठं, परं साधुः पूर्वाभ्यासाद्भार्यायामनुराग न त्यजति, साध्वी तु द्विजजातिमदमबहते, ते स्थाने अनालोच्य गती द्वावणि १. देवलोके, साधुजीवस्ततश्युत्वाऽत्र भरते इलावर्द्धनपुरे धिनदत्त] इभ्यधारिण्योरिलादेश्युपयाचनेन जातत्वादिलासुतनामा सुतो जातः ।
साध्वीजीवस्तु जातिमददोषारस्वरूपोपहसिततिलोत्तमाऽपि नृत्येऽतिचतुरा नटसुता जाता। अन्यदा यौवनोन्मादी यौवनोन्मादिनीं तो नीं दृष्ट्रलासुतस्तथा तस्यामनुराग बान्ध यथा कुलफलकाधवगणय्य नटेभ्यस्तामयाचत । ते साहु-अक्षयनिधिकल्पा सुवर्णकोटिदानेऽपि नैना दमा, यदि पर सवास्यां निबन्धस्तदाऽस्मासु मिल, शिक्षस्खास्मत्कला, तस्यामत्यानुरक्तेनतेन मातापिमित्रादिस्नेह
१ नकोसरिस्थनिर्बलेन सन्तुना.
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
- विहाय तदेव कृतं शिक्षितं सातिशयं शिल्पं । ततस्ते भणन्ति - अर्जय विवाहार्थे धनं, ततः परिणयेमां, तदप्यभ्युपगम्य नटपेटकेन सार्द्धमिलापत्र गतो बेनातटं राज्ञोऽग्रे नचितुं सामग्या गतः, निखातचात्र महावंशः, तदूर्ध्वं महत्काएं, तस्य द्वयोरन्तयोद्वौ द्वौ dreniont, arrace लापुत्रोऽसिखेटकव्यग्र छिद्र पादुके परिधाय सप्तकरणानभसि पश्चादभिमुखं सप्त चाग्राभिमुख, एवं चतुर्दश करणान् ददाति प्रतिकरणं च पादुकाछिद्रयोः कीलको निवेशयति सा नटकन्या च वंशमूले तिष्ठति, पाक्षिप्तताविन्तयति नृपतिः -- यद्य पतित्वा म्रियते तदाऽहं परिणयामीति, लोकः स्माइ- साधु साधु नृत्यं ददातु पारितोषिकं देवो यथा वयमपि दद्यः किश्चिद नृः शतया स्माह- न मया सम्यगवलोकितं, पुनर्नृत्यतु, वतो राज्ञो मात्रं विज्ञाय जनः श्याममुखीभूतः, इलासुतस्तु प्राग्यच्चतुर्दशा करणांमादत्ते, राजा पतनेच्छया पुनर्न सम्यग्दष्टं इति प्राह । ततः प्रद्विष्टो जन इतरः, पुनर्नृत्यति, एवमष्टाविंशतौ करणेषु दत्तेपि राजा तथैवेच्छया तथैवाह, ततो राज्ञि सर्वो जनस्तथा विरक्तो जातो यथा समक्षमेत्र नृपमाकोशते । इलापुत्रेण च ज्ञातो राज्ञो मनोगतो भावः । प्रत्यास चेश्वरगेहे भक्तिव्यक्ति मिलत्स्कारशृङ्गारसुन्दरीभिः प्रतिलाभ्यमाना शुद्धवणोपयुक्ताः केऽपि arat er: । तत इलापुत्रः संवेगमुपगतचिन्तयत्येवं - अहो !! मोहस्य महाविलासः, येनाई तथाविधोत्तमकुलोत्पन्नोऽप्येवं दुःखावस्थां ग्रापितोऽस्मि । तत एते एवं धन्या मुनयो, ये दूरोत्सारितविकारलेशा । प्रशान्तमनसो ब्रह्मवतं घरन्ति एतेषामेव मार्गो मापि प्रमाणं इति भावनां भावयतः पारिणामिकं चारित्रं जावं, समुत्पन्नं च केवलज्ञानं, नटवरपि नृपस्य भावं तथाविधं विज्ञाषाचिन्तयत्, यथा- धिग्मे यौवनं येनायं इलाgत्र एताशमन प्रापितः संसारथ सर्वोsपि दुःखाकर इति भावयन्त्यास्तस्याः केवलज्ञानमुत्पi, tar नृपपार्श्वस्याया अग्र महिन्याथ राइवित्त ( मित्रापपरिज्ञानाद्वैराग्यं गतायाः केवलं समुत्यनं राजाऽपि च
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
HORAGARIES
जनविरागं ज्ञावा स्वं निन्दन तथा विशुद्धमावोजनि यथोत्पन्न तस्यापि केवलज्ञानं । तत इलापुत्रः केवली यथा प्रियायामनुरागोऽनालोचितो दुःखदो जातः, प्रियायाश्च जातिमदोऽनालोचितो नीचकुलहेतुर्जातस्तत्सर्व सर्वजनस्योक्त्वा सतः प्रतिबोध्य बहुजनं चत्वारोऽपि कर्मक्षयादनन्त मोशायं प्राणा, इति इलापुत्रकथा समाप्ता ।
अथ लादिभिः स्वदुधरितं गुरुभ्योऽनिवेदयता यो दोषस्तमाइलज्जाए गारवेण व, बहुस्सुयमएण वा वि दुचरियं । जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुंति ।।३६९।। ____ व्याख्या- लजया आत्मनो गौरवेण का बहुश्रुनमदेन वाऽपि ये गुरूणां खदुश्चरितं न कथयन्ति ते नरा नैवाराधका भवन्तीति गाथार्थः ॥३६९।। किञ्च| न वि तं सत्यं व विस, दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं सम्बदुहमूलं ॥३७०॥ __व्याख्या--नैव शश्वं विषं वा प्रतीतं, दुष्प्रयुक्त:- प्रकोपितो वेगालो वा तदुःख-करोति, यस्सर्वदुःखमूलं भावशल्यमनुद्धृत सत्करोतीति गाथार्थः ॥३७॥
अथालोचनाप्रदानोपस्थितेन वर्जनीयान् दोषानाह- . आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिहं वायरं व सुहुमं वा । छवं सद्दालय, बहुजणअन्वत्ततस्सेवी ॥३७१॥
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
ध्याख्या-आवर्जितो गुरुः स्तोक मे प्रायश्चित्तं दासतीति बुझ्या गुरुं वैयावृत्यादिना आकम्प्य-प्राज्यालोचनं दोष तथा अनुमान्य-अनुमानं करा लघुतरापराधिनां मृदुदण्डप्रदायकत्वादिस्वरूपमाकलय्यालोचनं, एवं यदाचार्यादिना दृष्टमपराधजा तदेवालोचयति. नायर, तथा बादरमेवालोचयति, न पूक्ष्म, तबावज्ञापरतात, तथा पक्षममेव दोषमालोचयति, न पादर, या कि धक्ष्ममप्यालोचयति स कथं बादरं नालोचयेदित्येवं मावज्ञापनार्थमाचार्यस्येति; तथा छन्न-प्रच्छन्नमालोचपति, लजादिकारण तोऽत्यव्यक्तवचनेन वक्तीत्यर्थः; तथा शब्दाकुलं बृहच्छब्दं यथा भवत्येवमालोचपति, अगीतार्थादीनामपि श्रावयतीत्यर्थः, तथ पायो जना आलोचनायां यत्र साहुजनं, एकस्याप्यपराधस्स बहुम्यो निवेदनमित्यर्थः। तथा अव्यक्तो-गीतार्थस्तस्य यद्दोपालोच सदस्यव्यक्तमिह विवक्षिन; "तस्सेवि" ति शिष्यो यं दोपमालोचयति तमेव सेवते यो गुरुरसौ तत्सेवी, तस्मै यदालोचन सोऽप्यालोधनादोष इति गाथार्थः ॥३७॥
. यद्येते आलोचनादोषास्तहि किम् । इत्याहएयदोसविमुक्कं, पइसमयं वड्ढमाणसंवेगो। आलोएज्ज अकज्जं, न पुणो काहंति निच्छइओ ॥३७२||
___ व्याख्या- एतदोषविमुक्तं यथा भवति तथा प्रतिसमय बर्द्धमानसंदेपस्सन्: पुनरप्यमुं दोषं न करिभ्यामीति कृतनिश्चयः वसमकार्यमालोचयेत् , अन्यथा आलोचनादानस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गादिति गाथार्थ ॥३७२॥
नविदानी प्रायशिव तहातारा न सन्त्येव, तका कमालोचनां दास्यतीति ये प्रास्तत्सम्योधनार्थमाह
namavalangan
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
जो भइ नत्थि इहिं, पच्छित्तं तस्स दायगा वह वि। सो कुव्वइ ससारं, जम्हा सुत्ते विणिहि ||३७३ ॥ व्याख्या-पः कश्विदेवं ब्रवीति यदुतेदानीं प्रायवित्त विवादकाभावात्प्रायश्चित्तं तदातारथ गीतार्था न सन्स्येव, स उन्मार्गदेशकत्वादात्मनो दीर्घसंसारमेव करोति यस्मात्त्रेऽपि छेदग्रन्यलक्षणे निर्दिष्टं भणितमिति गाथार्थः ||३७३|| किं तदित्याहसव्यंपि य पच्छित्तं, नवमे पुत्रम्मितइयवत्थुम्मि । तत्तो वि य निज्जूदा कप्पपकप्पो य ववहारो ॥ ३७४ ॥
व्याख्या सर्वमपि प्रायवित्तं तावयवमे च प्रत्याख्यान [प्रवाद] नाम्नि पूर्वे तदन्तर्गते च तृतीयवस्तुनि पूज्यैर्निबद्धं । ततोऽपि च प्रायश्चित्तप्रतिपादकनयमपूर्वगतवतीयवस्तुनो मध्यान्निर्यूहाः समुद्राः कल्पः प्रकल्पो व्यवहारथ, तत्र प्रकल्पो निशीथ इति गाधार्थः || ३७४॥ सेऽपि च कल्पादय इदानीं न सन्तीति चेत् ? आई
ते वि य घरंति अज्जवि, तेसु घरंतेसु कह तुमं भणसि ? । वोच्छिन्नं पच्छित्तं, तद्दायारो य जा तिथं ॥ ३७५॥ व्याख्या - तेऽपि च कल्पादयोऽद्यापि धरन्त्यनेकार्थत्वाद्धातूनामवतिष्ठन्ते, अतस्तेषु घरत्यवतिष्ठमानेष्वेवं कथं स्वं भणसि १, यत पछि प्रायश्रितमिति असम्बद्धमेवेत्यर्थः । अथ प्रायधिशदातारो गीतार्था व्यवच्छिनास्तदप्ययुक्तमित्याह-बद्दवारः-प्रायक. सावारोsपि याची- दुष्प्रमदाचार्यपर्यन्तं यावत्प्राप्स्यन्ते इत्यागमेऽद्भणितमिति गाथार्थः || ३७२ ||
अालोचनाप्रदाने यो गुणस्तद्भणनलक्ष्णं परमद्वारमाह
पाव मणूसो, आलोइयनिंदिउं गुरुसगासे होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरुव भावो ॥ ३७६ ॥
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या कृपापड मनुष्यों गुरोरमकाशे खदोषान् विधिपदालोख्य निन्दित्ता-पश्चाचार्य कृत्य "अरेगलहुओ" विगतबहुकर्मवारकर्माण्याप्रित्यातिरेकलघु-रतीलघुकर्मा भवति, क ? इत्याह-अपरतभरो भारवह इवेति गाथार्थः ॥३६॥
अथालोचनाप्रदानेनैवानन्तानां मोक्षप्राप्तितित्याह5 निवियपावपंका, सम्म आलोइङ गुरुसगासे। पत्ता अगंतजीवा, सासयसुक्खं अगावाहं ।।३७७॥
व्याख्या --गुरोत्साशे-समीपे स्वदोपान सम्यगालोच्य-कथयित्वा क्षपितरापपङ्कास्सन्तोज्जन्ता एवं जीना अनावावं शाचतं सौख्यं प्राप्ताः, सिद्धा इत्यर्थः इति गाथार्थः ॥३७॥
इत्यं विभाव्य भगवद्रचनेन शुद्वे-दोषान्गुणांश सुचनी स्वकृतापराधान् । आलोच्य सम्यगिह सद्गुरुपादमूले, शुद्धःप्रयाति पदमव्ययमद्वितीयम् ॥१॥
इति पुष्पमाला विवरणे भावनाद्वारे दोषविकटनालक्षण प्रतिद्वार समाप्तम् ॥११॥ · अथ भवविरागार विमणिपुः पूर्वद्वारेग सम्बन्धाभों गाथामाहएवं विसुद्धचरणो, सम्म विरमेज्ज भवसरूपाओ। नरगाइमेवभिन्ने, नस्थि सुहं जेग संसारे ॥३७॥
व्याख्या-एवं-यथोक्तविधिना प्रायनिसप्रतिपतिद्वारेण विशुद्धं चाणं यस्य स विशुद्धवरणस्मन् सम्यग विरमेस्त्र-विरागं मच्छर, कस्मादित्याह- मास्वरूपात्, न पुनरालोचनादानेनैव तुपस्तिष्ठेरिति भावः। कुन: ? इत्याह- येन नरकादिभेदमित्र नास्ति
CHECKUMARCH
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुख संसारे, एतेनालोचनाप्रदानेऽपि भविराम एवार्थसाधक इत्यालोचनाद्वारानन्तरं भगविरागद्वारमुच्यते इति गायार्थः ॥ ३७८ ॥ तत्र नरकेषु यथा न सुखं तथाऽऽह
दीहं सुसंति कलणं, अतिविदुक्ा । इया आरोप्यर - सुरखितसमुत्यवियाहिं ॥ ३७९ ॥ व्याख्या - दीर्घ श्वपन्ति श्वासान् गृण्हन्ति, कलु गं-दीनं भाषन्ते विरसं रमन्ति-प्रारयन्ति दुःखाची नारकाः । 'कामि: इत्याह- परस्परं च सुराम क्षेत्रं च परदाररक्षेत्राणि, स्वस्थः प्रादुर्भूता या वेदनाला मिः । नारकाणां हि नरक यात्रिविधा वेदना, पुरतस्तु परमधार्मिकरगननामावाद्विविदेदेति गाथार्थः ॥ ३७९ ।।
१
अनारकःखानां प्रत्येकं मणितुमशक्यत्वात्संक्षिपजाह
नारयाण दुक्ख, क्वणदहणछिदणाईयं । तं वरिससहस्से हि वि, न भणेज्ज सहस्त्रयणो वि ॥ ३८० ॥ व्याख्या--नारकाणां दुःखं उत्कर्षनदन दनादिकं तद्वपहले न भणे सहलाइनः शक्रोऽपीति गाथार्थः ॥ ३८० ॥ इदं कर्णादुः केवलवचनगम्यं तिरयां तु दुःखं लोकस्यापि प्रत्यक्षमेवेत्याहसौउण्हखुष्पिवासा- दहणं कणवाह दोहदुक्खेहिं । दूमिज्जति तिरिक्खा, जह तं लोए वि पञ्चकख ॥ ३८१ ॥
व्याख्या - शीतोष्णक्षुत्पिपासाः प्रतीताः, दहनं वनवादिना, अङ्कनं त्रिशूजाद्याकारेगदम्बानादि, वाह:- कन्त्रादिना
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
errari, दोहो- गोमहिष्यादित्तनेभ्यो दुग्धाकर्षणं, एनेर्पा सम्बन्धि यानि दुःखानि वैद्यन्ते दिर्यश्च यथा लोकेऽपि प्रत्यक्षमेवेति गाथार्थः ॥ ३८॥
मनुष्येष्वपि नानाप्रकारं दुःखं सर्वजन पत्यक्षमेव । अथ सुखतयां प्रतीतानां लक्ष्म्यादीनामपि च दुःखरूपतां विभणिपुराहूलच्छी पिम्मं विसया, देहो मणुयत्तणे वि लोयस्त । एवाई बलहाई, ताणं पुण एस परिणामो ॥ ३८२॥
व्याख्या - लक्ष्मीर्धनं, प्रेम-स्वजनादिष स्नेहः विषयाः शब्दादयो, देहः-शरीरं, एतानि मनुजत्वेऽपि सुखभ्रान्तिजनकत्वेन लोकस्य किल वलमानि तेषां पुनरेष वक्ष्यमाणः परिणामः- स्वामिति गाथार्थः ॥ ३८२॥ तत्र लक्ष्मीखरूपमाह - न भवइ पत्ताण वि, जायइ कइया वि कहवि एमेव । विहडइ पिच्छंताण वि, खगेग लच्छी कुमहिलब्॥ ३८३ व्याख्या- यथा महिला - दुःशीला नारी एवं लक्ष्मीरपि कदाचित्प्रार्थयमाणानामपि पुरुषाणां न भवति, कदाचित्तु तेषामेवाप्रार्थयमाणानामपि एवमेत्र स्वत एव कुतोऽपि कथमपि जायत एवं जाताऽपि क्षत्र काचित्पश्यतामे विघटत इति कस्तस्यां विवेकिनः प्रतिबन्धः ? इति माथार्थः ३८३ || किश्शेषं जाताऽपि प्रायो ऽनर्थ फलैवेत्याह
जह सलिला वहुति, कूलं पाडेड़ कलुसए अप्पं । इह विहवे बहुंते, पायं पुरिसेो वि दवे ॥ ३८४॥
व्याख्या -- यथा सलिला नदी वर्षासु प्रचुरपयःपूरेण बर्द्धमाना विस्तरन्ती स्वकीयमेत्र कूलं तटं पातयति, पूराकुष्टामुचिक antartar कलुषयति चात्मानं उरलक्षणवाजिनाभिगमनीया च जायते, इह विपत्रे प्रवर्द्धनाने पुरुषोऽपि प्राय एवमेर
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jar
MANAGautameAeSewakSaajana.tum...........
श्प्या, पाहि-पोशी रमादार शुररूरतया स्वकूलकल्पं खजनादिकं तावदुपदन्ति, नानारम्भगव्यापारोपार्जितकर्मरजसा च कलुषषलास्मानं, कार्पण्यादिमिश्चासम्भोग्यलक्ष्मीकस्बेन शिष्टानभिगमनीयः सम्पद्यते, प्रायो ग्रहणं त केषाश्चिदालनमवसिद्धिकानो विमववृद्धावप्युक्तस्वरूपपरीत्यदर्शनादिति गाथार्थः ॥३८४॥ अथ प्रेमस्वरूपं दर्शयमाह| होऊण वि कह वि निरं-तराई दूरतंराई जायंति। उम्मोइयरसणंऽतो चमाई पेम्माई लोयस्स ॥३८५॥
व्याख्या-उन्मोचिता-छोटिता याऽसौ रसना-कटिसूत्रं, तस्या अन्तावुन्मोचितरसनान्ती, ताभ्यासुपमा-सारश्य येषां तानि उन्मोचितरसनान्तोपमानि प्रेमाणि-स्नेहा लोकस्य, कथं ? इत्याह-यतो भूत्वाऽपि क्वचित्कथमपि केषाशिमिरन्तराणि-निविडानि प्रेमाणि पुनरपि कदाचित्केनापि कारणेन दूरान्तराणि जायन्ते । इदमुक्तं भवति-यथा कटीवन्धनकाले रसनाया अन्तौ निरन्तरौ भूत्वाऽपि पुनरेव तच्छोटनकाले तो दूरान्तरौ जायेते, एवं लोकस्यापि प्रयोजनापेक्षितया प्रथमं प्रेमाणि निरन्तराणि भूत्वाऽपि पुनरपि स्वप्रयोजनसिद्धावपराधश्रवणादिना झगित्येव दूरान्तराणि सम्पद्यन्ते, तस्कम्तेष्वपि विवकिनां प्रतिबन्धः ! इति गाथार्थः ॥३८॥
ननु मातापित्रादिषु निविई प्रेम, तच्च न व्यमिचरतीति चेदित्यत आहमाइपिइबंधुभज्जा-सुएसु पेम्मं जणम्मि सविसेसं। चुलणीकहाए तं पुण, कणगरहविचिढिएणं च ॥३८६।। तह भरहनिबइमज्जा-असौगचंदाइचरियसवणेणं । अइविरसं चिय नज्जइ, विचिदठियं मूढहिययाणं ॥३८॥
व्याख्या-मातृपिपन्धुमासुतेष्वेव साबजने-लोके सविशेष प्रेम इत्यस्माकमप्यभिमतमेव, केवलं तत्पूनयमिचारिख्या
|
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिविरसं-अतिनिर्वेदजनकं ज्ञायते, कथम्भूतम् ? इत्याह-मूढहदयानां-पालप्रकृतीनां प्राणिनी विवेष्टित-विजृम्भितं, कया हेतभूतया सहिरमं? इसाइ-महादत्त ननन्याशुलन्याः कथया मातृप्रेम तावदतिविरसं निश्चियते। कनकरथराजविचेष्टितेन च पितृप्रेम, तथा
भरतनृपतिपरितपणेन बन्धुप्रेम, प्रदेशीनामकनृपतिमार्याचरितश्रवणेन मार्याप्रेम, अशोकचन्द्रः-फूणिकस्तच्चरितश्रवणेन सुतप्रेम, । आदिश्वब्दादपरैरपि समयलोकप्रसिद्धर्जन्तुभिस्त द्विरसता भावनीयेति माथाद्वयाक्षरार्थः ३८६-८७ ॥
अत्र कथानकानि पुनरेवं क्रमेणोच्यन्ते, यथा-आदौ चुलनीकथानकं, तदस्- साकेतपुरखामीचन्द्रावतंसकराजयनुना मुनिचन्द्रेण अपात्रतेनाटव्यां चत्वारो गोपालदारकाः प्रतियोध्य प्रवाजिताः, तन्मध्ये जिनधर्मजुगुप्सया श्रामण्यं विराध्य द्वौ देवलोके समुत्पनी, ततोऽपि च्युल्वा दशार्णपूरे दासी, ततोऽपि विषवरदष्टौ मृत्वा कालिखरपर्वते मृगौ, ततोऽपि गमातटे हेमो, ततो वाराणस्या वित्रसम्भूतनामानौ मातङ्गदारकावुत्पन्नौ । तत्र सम्भूतः सनिदानचारित्रः चित्रस्त निरतिचारचारित्रो, द्वावपि सौधर्मदेवलोके समुत्पत्रो, ततोऽपि च्युत्वा चित्रः पुरिमतालपुरे इभ्यपुत्रतया समुत्पन्ना, सम्भूतस्तु पश्चालजनरदे काम्पिल्पपुरे ब्रह्मनरेन्द्रराज्याधुलन्या ब्रह्मदत्तपुत्रः समुत्पमा, तालत्वेऽपि नियमाणेन ब्रह्मराजैन भवद्भिरेवायं पालको राज्य कारयितव्य इत्युक्त्या काशीजनपदाधिपतिकटक-मजपुरप्रमुकणेरुदत्त-कोशलाविषयवामिदीर्घ-चम्पापुरीप्रभुपुष्पचूलाभिधानानां निजभित्राणां ब्रबदलः समर्पितः। सन्मध्ये दीर्धे चुलनी समासक्ता, तदनु रागमूढमानसया च तयाऽभिनवपरिणीतं स्वपुत्रं ब्रह्मदत्तं सप्रियं जगृहमध्ये प्रक्षिप्य ममन्तादहनः प्रदीपितस्तन्मध्याच धनुर्मन्त्रिविरचितोपायेन तत्सुतवरधनुना सार्द्ध प्रमदत्तोऽपि निर्गत्य देशान्तरेषु प्रान्तस्तेषु च बली बाणवाणम्भूपाल विद्याधरपुत्रिकाः संविधानपूर्वकं परिणीतवान् । क्रमेण च दीर्घराज निहत्य भरतक्षेत्रं प्रसाध्य पकवर्षिपदं प्रतवान्। ततः प्रति
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
पावतेन पूर्वमभ्रात्रा वित्रेण विचित्रवचनोक्तिभिर्बोध्यमानोऽपि न कथमन्यसौ प्रतिबुद्धः पर्वते परिक्षीणपुण्पोइयेन प्रकृतिकब्राह्मणमात्र नियुक्तगोपालाकर्षितनेत्रो रौद्रध्यानोपगतश्च त्वा सप्तमपृथिव्याम प्रतिष्ठाननरकावासे समुत्पन्नो, व्यासार्थ चित्रसम्भूतीयाध्ययनादवसेयः । यदीत्थं चुलन्यपि तस्य मारणाय को मातृप्रेम्ण प्रतिबन्धः ? इति : चुलनीकथा समाप्ता ॥ अथ कनकरथ [नृप] कथानकं कथ्यते-तेतलिपुरे नगरे राजा कनकरथः, सकलान्तःपुरप्रधाना तजाया पद्मावती, तन्मन्त्री तलनामा राज्यचिन्तां करोति । अन्यदा राज्यसुखतृषितेन राज्ञा विविषयातनाभिताः खसुता वर्द्धमाना मे राज्यं हरिष्यन्ती'त्यभिप्रायेण सर्वे मारिताः । तवस्तेतलित मन्त्रिणाऽन्यदा 'पद्मावत्या अथ दारिका जाता, साऽपि मृतेति व्याजेन कनकध्वस्तत्सुतः स्वगृहे निधाय रक्षितः, स च कनकरथे मृते राज्येऽभिषिक्त इति । इह यदीत्थं कनकरथोऽपि पुत्राणां व्यापाद कीऽजनि ततः कः पण प्रतिबन्धः १, इति कनकरथकथा समाप्ता ॥
अथ भरताख्यानकमुच्यते श्रीऋषभदेवपुत्रौ मरतबाहुबलिनौ, राज्यार्थे द्वावपि भ्रातरौ युद्धाय प्रवृत्ती, स्त्राददृष्टियुद्ध ततो वाग्युद्धं ततोsपि बाहुयुद्धं तो मुष्टियुद्धं ततो दण्डयुद्धं जाते, किन्तु सर्वत्र बाहुबली जयति भरतो हारयति । ततः स विषण्णश्विन्तयति-किमेष चक्री ? मम निष्फलप्रयासः १ साता देवताऽधिष्ठितं चक्ररत्नं स्फुरद भरतकरतले समागत्योपविष्टं, ततः स चक्रेण बाहुबलिनं हन्तुं प्रधावितः। वाद्वाहुबली चिन्तयति - चक्रेण सममेवेनं चूर्णयामि । अथवा दण्डयुद्धे प्रारब्धे चक्रेणो-. पस्थित एषः, ततो अष्टप्रतिशोऽयं स्वयं मृतो बकः, तुच्छानां कामभोगानां कार्ये यद्यसौ मूढात्मा अलजित एवं करोति, तथापि न मे युज्यते बान्धवः कर्तु ततः प्राह-चक्रेण सममपि त्वां चूर्मपामि परं कोका मणिष्यन्ति - श्री ऋषभस्त एवमकृत्यं कृतवान्,
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुम्छाब वी चितौनाइयोऽर्धाः, ततस्त्वमेव गृहाण राज्यं, अब तु दीक्षा गृहामि । सदः कराहण्डं समस्या पचनौटि लोचं कृत्वा दीक्षा प्रतिपश्नः । वर्षप्रान्ते केवलं गमुत्पन्न।
"ता जइ वामसरीरो, उच्चमपुरिसो वि उसमतणओ वि। माहो वि बंधवाईणं, इय अवसइ रजालोभेण ॥१॥ A "तो सेसाण मुषेजर, कमावेक्खाए वेव पेमाई। ताई तु वगेण विसं-वयंति तो किमिह पडियंधो " :
इति भरताख्यानकं समाप्तम् ।। अथ नृपतिमार्याकथोच्यते-श्वेताम्ब्यां नगरीं श्रीपदेशीरामा, सूर्यकान्तानाम्नी तक्रार्या, चित्रो मन्त्री जैनः। स च बहिस्याने समवसृतं केशिनामानमाचार्यमाका चिन्तयत्-अयं राजा महामिथ्यात्वग्रहग्रस्तः पापानुष्ठानरतो, मयपपि मन्त्रिणि यास्यति नरकं, तदेनं नयामि भगवन्मूलं, ततोऽववाहनिकाव्याजेन नीतस्तत्प्रदेशं, खेदविनोदच्छलेनोपवेशितो यत्र बहुजनपरिषमध्यगतो भगवान् धर्ममाचष्टे, स मन्त्रिणं प्रत्याह-किमयं मुण्डो रारटीति?, मन्त्रिणोक्त-न जानीमोऽभ्यर्णीभ्याकर्णयामो, गती निकटे, सता परिणा प्ररूपिते देवताविशेषस्वरूपे जीवादिषु च प्राह-सर्वमिदमसम्बद्धं, असत्वात् । असचं च प्रत्यक्षमोचरातीतल्वाद, वियदरविन्दवत् , विद्यमानं हि न प्रत्यक्षगोचरातीतं, भूतचतुष्टयक्त् । मरिराह-भद्र ! किमिदं भवतोऽध्यक्षविषयातीसमुत सर्वात्मना । आयपक्षे तावत्स्तम्भादिमध्यपरभागादीनाममावप्रसङ्गो, मवद्दयार्वाग्भागवर्तित्वमात्रग्रहणतयैव व्यापारात् । नापि द्वितीय पक्षा, तस्याप्यसिद्धत्वात्, तसिद्धौ तवैव सर्वज्ञजीवतासिद्धदेवताविशेषजीवादिप्रतिषेधानुपपत्तिा, जीवे सति बन्धादीनां सपपादकत्वादित्वाविना बादेन निराकतो जातसम्पग्दर्शनपरिणामः स पाह-भगवान् ! एवमेव, नष्टो मे मोइपिश्चाची युष्मदचनमन्त्रैः, कालं कुलश्रमापाता.
कर
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुष्पमाला लघुवृतिः ॥ २४५॥
wwwwww
अस्माकं नास्तिकता, सा कथं मोक्तव्या । गुल्लाह - भद्र! न किञ्चिदेतत् सति विवेके, किं कूलक्रमायातो व्याधिर्दारिद्रयं वा न त्यागाई ? इति किं वा कुलमकुलं वा ?, प्राणिनामेकाकिनामेवानादौ भने भ्रमणात्सर्वकुले पूत्पाद सम्भवाच । ततोऽसौ सञ्जातन्वनिर्णयः प्रतिपद्य श्राप प्रतिपाल्य च निरतिचारं पञ्चात्पुरुषान्तरामक्ता सूर्यकान्तामिघया भार्यया पारण के दस विधो ज्ञातव्यतिकरोऽप्यचलितचित्तोऽनशनं प्रतिपद्य समाधानेन मृत्या सौधर्मे कल्पे सूर्यामे विमाने समुत्पन्नः सूर्याभामा देवः । तत्र चत्वारि पल्योपमान्याः पालयित्वा महाविदेहे सेत्स्यति इति भार्यया सममपि विरसपरिणामं प्रेम ज्ञात्वा कस्तत्रापि प्रतिबन्धो विवेकिनाम् । इति सूर्यकान्ताऽख्यानकं समाप्तम् ॥
।
अशोकचन्द्रापरनाम्नः कूणिकस्य कथा कम्यते, यथा- श्रीराजगृहे नगरे श्रीश्रेणिकराज पन्यालनामा गर्भदोष द्द्मरन्त्रमक्ष्णे दोहदोऽभूत् पूरितं तदन्धकारे कृत्रिमान्त्रैर्मन्त्रिणा, जातोज्झितो दुष्टोऽयमिति तनयस्तथा गृहोपवने, दृष्टः श्रेणिकराज्ञा समर्पितो धायाः कृतशोकचन्द्र इति तन्नाम, तस्य चोज्झितस्य कुक्कुटेनाङ्गली मनाम् भक्ष्विाऽऽसीत्, तत्पीडया रुदतोऽतिस्नेहेन क्लेद दिग्धां तां पिता चूपितवान् । प्रगुणीभूता च सा कूणा [सङ्कचिता] जाता, तद्वारेणासौ कूणिक इत्याकारितः । पश्चात्कृणिकाय राज्य भारं दित्सुना राज्ञा इल्लविइल्लाभ्यामष्टादशचक्रो हारः कुण्डलयुग्मं हस्तिरत्नं च द, अज्ञात्तदभिप्रायम्योत्पन्नः कूषिकस्य मत्सरः, सामन्तान्सहायीकृत्य बद्ध्वा क्षितश्चारके स राजा तेन, कशानां शतेन कदर्थयति च प्रतिदिनं क्रोधात् । अन्यदा भुञ्जानस्पत्सोपविटेन तस्य सुतेन भाजने नागपाशुकं तचेन, चेल्लनां च प्रत्युक्तं हे मातष्टोममात्यस्नेहः । सा गद्गदवा गाह- वत्स ! तब पितुर्गुरुतरस्नेहोऽभूत्, तत्कलमनुभवतीदानीं । स प्राइ-कथं ?, ततः कथितो वृत्तान्तस्ततो जावपाचापः स्वयमेव गृहीत्वा परशुं निगड खण्डनायें गतः
-
४ भावनाधिका प्रेमरयासारता कूणिकदृष्टान्ता ॥
॥२४५॥
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारागृहं, आगच्छन् दृष्टो गुप्तिपालैः, कथितस्तैः श्रेणिकाय, तेनापि 'दुःखमारेण मां मारयिष्यतीति सञ्चिन्त्य भक्षितं तालपुटं विपं, प्राग्यदायुष्कत्वान्मृत्वा गतः प्रथमपृथिवीमितरोऽपि कालेन षष्ठीमिति। "इय पुत्तेसु वि पिम्म, विरस नाऊण मुणियपरमत्या। मोतुं तप्पडिबंध, सकजसिद्धि पयजति ॥१॥"
इति अशोकचन्द्राख्यानकम् । इति दर्शिता प्रेम्णोऽसारता ॥ अथ विषयासारतां दर्शयन्नादहाति मुहेचिय महुरा, विसया किंपागभूरहफलं व । परिणामे पुण तेञ्चिय, नारयजलर्णिधणं मुणसु ॥३८८॥
व्याख्या--भवन्ति मुख एव-आदावेव मधूरा-मनोझा विषयाः- शब्दादयः, किं यदित्याह-किम्पाकवृक्षफलक्द, यथा किल किम्याकफलं भक्षणसमय एवं मधुरं, विपाके पुनरुणस्वरूपं तथेत्यर्थः, परिणामे पूनस्त एज नारकज्यलनेन्धनं जानीहि, नरकवल्लिविषयेन्धनैरेव नरकोत्पत्रप्राणिदहनाप प्रज्वलति, नान्यथा, विषयासेवां विना हि न कश्विनरकं ब्रजेन् , ततश्च निनिमित्तो नरकवाहन प्रज्वलेत , इति विषया एव नरकबद्धेरिन्धनमिति गाथार्थः ॥३८८॥ अस एव विषयगृद्धिपरिहारार्थ सधान्तमुपदेशमाहविसयावेक्खो निवडइ, निरवेक्नो तरइ दुत्तरभवोहं । जिणवीरविणिददिट्ठो, दिट्ठं तो बंधुजुयलेणं ॥३८९॥
व्याख्या-विषयापेक्षो-विषयाभिलाषी निपतति बुडति, विषमे संसारसागरे इति शेषः। तनिरपेक्षः पुनस्तरति दुस्तरमबोध । 5. अत्रच वीरजिनविनिर्दिष्टो बन्धुयुगलेन दृष्टान्तो छातच्यः, तद्यथा-चम्पापुर्यां माकन्दीनामा सार्थवाहः, तस्य जिनपालित-जिनरक्षित। सुतौ, तौ द्वावप्येकादशवाराः क्षेमेणागत्य द्वादशी वारां पितृभ्यां वार्यमाणावपि प्रवहणं पूरयित्वा समुद्रे जग्मतुः। अभाग्याद्भग्ने पोते
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
%
+12-CLAKSI.y
लब्धप्रफलको लग्नौं रत्नदीपम् । तत्र भ्रमन्तौ तद्द्वीपस्वामिन्याः क्षुद्रायाः देवतायाः रत्नमयं प्रासाद विलोक्य सत्र गती।। तया सप्रणयं निजमर्तृत्वे स्थापितो दूरीकृताशुभपुद्गलौ। अन्यदा देवतया शक्रादेशेन जलधिशोधनाथं गच्छन्त्या प्रोक्तं-भो भो ! यावदहमागच्छामि तावद्भवद्भ्यां प्रासादाक्षिणमुद्यानं मुक्त्वाऽपरोधानेषु स्थेयमिति । तस्यां गतायां तो अपरं सर्व विलोक्य कौतुकाइक्षिणोद्यानं गतौ, तत्र शूलिकाभिन्न कश्चित्पुरुषं क्रन्दन्तं दृष्ट्वा तत्कारणं पृच्छतः। सोऽवदत्-मो! भग्नपोतोऽहं फलकलग्नोत्रायातो देवतया बहुमानं दत्वा स्थापितः, तया समं भुक्ता भोगाः, अन्यदा तुच्छमपराधमुद्भाव्य क्षिप्तोऽहं विलपन शूलायां । अन्येऽप्येत्र । बहलो व्यापादितास्तथा नराः। ततो माकन्दीपुत्राभ्यां मीताभ्यामुक्तं वयमप्येवमेव तथा सस्गृहीतास्तिष्ठामा, तत्किमस्माकं भावि, शूलापूरुपेणोक्त-एकोऽस्त्युपाया, 'अहं जानामि । ताभ्यामुक्तं-भो महाभाग ! प्रसादं कृत्वा बद, ततो मणितं तेन-पौरस्त्योधाने पवारूपधारी शैलकयक्षोऽस्ति सम्यग्दृष्टिा, स चाष्टम्पो चतुर्दश्यां पूर्णिमायां अमावस्यां च 'कं पालयामि ? के सारयामि ?' इति । मणति, यूयं च तदा तत्र गत्या 'स्वमस्मान् पालय रक्षेति भणतः । ततस्स युष्मान् सुस्थान् करिष्यति, यदि देवीवाक्यं न । करिष्यति । ततः पीयूषमिव तद्वचनमभ्युपगम्य तथैव कृतं ताभ्यां, यक्षेण ' तारयामी' त्यादि भणितं । 'इदानी क्यमेवाशरणास्ततोऽस्मान् पालय तारयति भणितं । यक्षः प्राह-करोम्येतस्परं मम पृष्टी समारूद्वान् दृष्ट्या समुद्रे सा क्षुददेवता समागत्य परुथैः ।। स्निग्धमधुरैश्च वाक्ययुष्मचित्तं हरिष्यति, तद्यदि चिचे कथमप्पनुराग करिष्यथ तदा निजष्टेधूिनथित्या क्षेप्स्यामि। अथ तदपेक्षा न करिष्यथ तदा श्रीभाजनं करिष्यामि । अथ तौ द्वावपि 'यथा यूयं भणय तथा करिष्याम' इति भणतः । ततो यक्षः प्रस्तुरमरूपं । कृत्वा निजपृष्टो द्वावप्यारोप्य चलितः समुद्रमध्ये। अत्रान्तरे सा क्षुइदेवता ज्ञानेन विज्ञाय तत्रैव समुद्रमध्ये समागता प्राह-रे रे दुष्टा ।
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
मां त्यक्त्वा कथं शैलवेल स ग है। उततस्याः स्नेहवचने में दिनो जिनरक्षितः, तथा गृहीला नानोपायैर्विडम्बितो दुःखमागभवत् । जिन पालितः स्वगृहं प्राप्तो भोगान् सुक्त्वा श्रीवीरजिनान्तिके प्रवजिनोऽतिसुखभागभूत् । एवं अन्योऽपि विषय राहितो दुःखी स्यात् । अस्य चायमुपनयः - यथा रत्नद्वीपदेवी तथाऽविरतिः ; यथा लोभार्थिनो वणिजस्तथा सुखकामा जीवाः ; यथा तैर्भीतैर्डष्टः शूलीपुरुषस्तथा संसारभीता धर्मकथां पश्यन्तिः यथा तेन दुःखकारणं देवी उक्ता, तत शैलकपक्षाभिस्तर उक्तस्तथा धर्मकथा भव्यानामविरतिस्वभावं वक्ति सकलदुःखकारणरूपं, शैलकपृष्टोपमं चरणं वाञ्छित देश सुखहेतुः यथा पुनस्तरणीपसमुद्रस्तथा संसारः; यथा स्वगृहगमनं तथा निर्माणमिति बन्धुयुग्मकथानकं समाप्तम् ॥ अथ देवासान्तामाहआहारगंधमला - इएहिं सुअलंकिओ सुपुट्ठो वि । देहो न सुई न थिरो, विहडइ सहसा कुमित्तोव्व ॥ ३९०॥
:
व्याख्या- - भोजनगन्धपुष्पदामादिभिरलङ्कतः सुपुष्टोऽप्यभ्यङ्गादिभिर्देहो न शुचिर्नापि स्थिरः, किन्तु विघटते सहसा कृमित्रमिवेति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ अथोपसंहरन् पुनर्मनुष्येषु सहेतुकं सुखामात्रमाह
तम्हा दारिद्दजरा - परपरिभवरोगसोगतवियाणं । मणुयाण वि नत्थि सुहं, दविणपिवासाइनडियाणं ॥ ३९९ ॥ व्याख्या - तस्माद्दारिद्रयजरापरपरिभवरोगशोकतप्तानां द्रव्यतृष्णादिनटितानां मनुष्याणामपि सुखं नास्तीति गाथार्थः । ननु न सर्वोऽपि संसारः सुखरहितः सुराणां रत्नमय प्रासादनिवासादिमहा सुखस्य प्रतीतत्वाद, सत्यं तच्चतस्तेष्वपि सुखाभाव एवेति दर्शयन्नुपसंहारमाह
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
R
AMESHREENA
व्याख्या-सत्यमिति परप्रतीतिमात्रेणाभ्युपगमे, सुराणा रत्नावितभानेषु दिव्याभरणानि च विलेपनानि च वरकामिन्यच नाटकानि च, ते रताना-मासक्तानामनुत्तरो विभवा-सुखं विद्यते, किन्त महमानमत्सरविषादेनलेन सन्तमास्तेऽपि देवास्तस्मादेवलोकाच्युत्ता केचिदनन्तं भवं भ्रमन्ति, तस्मादुक्तयुक्त्या तच्चतः सुराणामपि न किश्चित्सुखं । अथवा इमानि महाविमादीनि सुखानि भवभ्रमणनिबन्धनादिभ्योऽवसानदारुणान्येवातः किमेतैः साध्यते १, अनन्तश्च प्रासपूर्वाण्येतानि, तत्कस्तेषु सुखामिमानः?,
इति गाथात्रयार्थः ।।३९२-९३-९॥ एतदेवाह* तं नत्थि किं पि ठाणं, लोए वालग्गकोडिमित्तं पि । जत्थ न जीवा बहुसो, सुहदुक्खपरंपरं पत्ता ॥३९५॥
व्याख्या-'लोके चतुर्दश्वरज्ज्वात्मके वालाप्रकोटिमात्रमपि तत्स्थानं किमपि नास्ति, यत्र सर्वे जी बहुशो-ऽनेकारान् सुखदुःखयोः परम्परां न प्राप्ता इति गाथार्थः ॥३९॥ अर्थतत्समर्थनासारं द्वारस्योपसंहारमाहसव्वा अवि रिद्धीओ, पत्ता सव्वे वि सयणसंबंधा। संसारे तो विरमसु, तत्तो जइ मुणसि अप्पाणं ॥३९॥ ।
व्याख्या-सर्वा अपि ऋद्धयः सर्वेऽपि स्वजनसम्बन्धाच संसारे प्राप्ताः, परं ते न च स्थिराः, अतस्तेभ्य ऋदिखजनसम्बन्धेभ्यो विरम[ख], यदि जानासि किमप्यात्मानं नित्यस्वरूपादिना तेभ्यो मिश्रमिति गाथार्थः ॥३९६॥
इति निरवधिदुःखाश्लेषरोधैकवक्षा, कृतशिवसुखपोषः प्रास्तनिःशेषदोषः । अवगतगुरुवाचा सविवेकाश्रितानां, भवतु भवनिरागः प्राणिनां नित्य एवं ॥१|| इति श्रीपुष्पमालाविवरणे भावनाबारे भवविरागलक्षण प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१२॥
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ चिनयद्वारं विभणिपुः पूर्वेण सह सम्बन्धगर्भा गायामाह -
इय भवविरतचित्तो, विद्धचरणाइगुणजुओ निचं । विणए रमेज्ज सच्चे, जेण गुणा निम्मला हुति ॥३९७॥ व्याख्या - इत्थं भवविरक्तचित्तो विशुद्धचरणादिगुणकलापेन युक्तो नित्यं सध्ये-मायावदूषिते विनय एवं रमेत कुतः ? इत्याह-येन विनयेन हेतुभूतेन सर्वे गुणा निर्मला भवन्ति, विनयस्य सर्वगुणालङ्कारहेतुत्वादित्यर्थः । इति भवविरागद्वारानन्तरं विनयद्वारमुच्यत इति गाथार्थः ॥ ३९७ ।। तत्र सावद्विनयशब्दस्यार्थमाह
जम्हा विणय क्रम्मं, अलविहं वाउरसमीच्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ, विणओ चि विलीण संसारा ॥ ३९८ ॥ व्याख्या - यस्माद्विनयति-स्फेटयन्यष्टप्रकारं कर्म तस्माद्विलीनर्ससाराः विदो - ज्ञानिनस्तीर्थ करगणधरा विनय इति वदन्ति, किमर्थं पुनरसों कर्म विनयति ? इत्याह- चत्वारोऽन्ता नारकादिगतिलक्षणा यस्यासौं चतुरन्तः, चतुरन्त एव चातुरन्तः - संसारस्तस्य मोक्षो ऽवगमस्तदर्थमिति गाथार्थः ॥ ३९८ ॥ अथ विनयप्रकारानाह
लोगोवयारविणओ, अत्थे कामे भयम्मि मुक्खे य। विणओ पंचवियप्पो, अहिगारो मुक्खविणणं ॥ ३९९॥
व्याख्या - लोकानामुपचारो व्यवहारस्तत्र रूढो विनयो लोकोपचार विनयः, तद्यथा-वदुचितस्य कस्यचिद्रागच्छतोऽभ्यु स्थानं आसनप्रदानं विज्ञापनादावञ्जलबन्ध इत्यादि, तथा अर्थे ऽर्थविषये तत्प्राप्तिनिमित्तं विनयस्तद्यथा - अर्थलाभाकाङ्क्षया राजादीनां समीपेऽवस्थानं छन्दोऽनुवर्त्तनं अभ्युत्थानाखबिन्धासनप्रदानादि चेति । एतान्येव समीपस्थानादीनि कामिनां वेश्या
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
afe कुर्वतां कामविनयः । एतान्येव भृत्यादीनां स्वामिनो भयेन कुर्वतां मय चिनयः । वक्ष्यमाणस्वरूास्तु मोक्षविनयः । एवं पञ्चप्रकारो विनयः । अत्र धर्मोपदेशानामेवाविकृतत्वात् मोक्षविनयेनैवाधिकार इति गाथार्थः || ३९९ || अथ धिकृतस्य मोक्षविनयस्यैव स्वरूपमाहदंसणनाणचरिते, तवे य तह ओवयारिए चेव । मोक्खविणओ वि एसो, पंचविहो होइ नायव्वो ॥१००॥
व्याख्या न केवलं विनयः सामान्येनैव पश्चधा, तद्भेदरूयो मोविनयोऽप्येष पञ्चविधो ज्ञातव्यो भवति । कथं? इत्याहदर्शने ज्ञाने चारित्रे तपसि च विनयः, तथा औपचारिकश्चेति गाथार्थः ||४-०॥ अथ दर्शनादिविनयखरूपं तावदाहदव्यासह हंतो, नाणेण कुणंतयस्स किचाई । चरणं तवं च सम्मं, कुणमाणे होइ तव्विणओ || ४०१ ||
व्याख्या-- द्रव्यक्षेत्रकालांस्तत्पर्यायांच समस्तान् समेयोक्तनीत्या श्रमतो दर्शनविनयः । ज्ञानमनुक्षणमेवाभ्यस्यतस्तदुक्तानुसारेणैव च सर्वाणि संयमत्यानि कुर्वतो छानविनयः । चरणं चारित्रं तपश्च सम्यग् जिनाइया कुर्वतस्तद्विनयश्चाचारित्र विनयस्तपोविनय येति गाथार्थः || ४०२ ॥ अथौपचारिकमोक्षविनयस्वरूपं विभणिपुराह
अह ओवयारिओ उण, दुविहो विणओ समासओहोइ । पडिरूवजे । गजुंजण, तह य अणासायणाविणओ ॥ ४०२ ॥ व्याख्या--अथ गुर्वाद्युपचारे भव औपचारिकः पुनर्विनयः समासतः सपतो द्विविधो भवति । प्रतिरूपा - उचिता योगामनोवाक्काय लक्षणास्तेषां योजनं यथास्थानव्यापारणं प्रतिरूपयोगयोजनं, तथा अनाशातनाविनयचेति गाथासङ्क्षेपार्थः ॥ ४०२ ॥
विस्तरार्थं तु पत्रकार एवाइ
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
पडिवो खलु विणओ, काइयजोगे य वायमाणसिओ। अचउबिहदुविहो, परूषणा तस्सिमा होइ ॥४०॥
व्याख्या-प्रतिरूपः' खानौचिस्पेन योगन्यापारलक्षणो विनयः खल-निषयेन, काययोगविषयो वाग्योगवियो 5 मनोयोमविषयवेति तात्पर्यम् । तत्र काययोगोऽष्टपिया, बाम्पोषणया , म यो विधिपः, इति यथाक्रम सम्बन्धः। तस्य
चाष्टविधकायिकादिविनयस्य प्ररूपणा इय-मनन्तरवक्ष्यमाणरूपा भवतीति गाथार्थः ।।४०७॥ सत्र कायिकस्याष्टविधत्वं वावदाहअन्मुड्डाणं अंजलि, आसणदाणं अभिग्गहं किई य। सुस्सूसण अणुगच्छण, संसाहण कायअवविहो ॥४०४॥ | व्याख्या-तदईस साचादरम्पुत्थानं १, गुरुप्रसादावालिगन्धः २, श्रुतवृद्धादीनां आसनप्रदानं ३, अभिग्रहो-गुर्वापादेशकरणनिया साधारस्करणं च ४, कृतिकर्म-स्त्रार्थश्रवणादौ वन्दनकं ५, सुश्रूषणं-विविधदरासमतया गुर्मादिसेग्नं ६, अनुगमन-आगच्छतोऽभिमुखयानं ७, संसाधनं तु-जतो-च्छतोऽनुवजनं ८, इत्यविधः कायिको बिनयः । लोकोपचारविनयस्यास च मेदो व्यवहारादिमात्रेणेत्यपरजनैः क्रियमाणत्वेन मोक्षाकाङ्क्षया मुसक्षुमिः क्रियमाणत्वेन च दृष्टव्य इति माथार्थः ॥१०॥ 1 अथ वाग्योगस्य चातुर्विघ्यं मनोयोगस्य च द्वैविध्यमाइ-- हियमियअफरसवाई, अणुवीईभासि वाइओ विणओ। अकुसलमणो निरोहो, कुसलमणोदीरणं चेव ॥४०५
व्याख्या-वाक्शन्दस्य प्रत्येक सम्बन्धाद हितशक-परिणामसुन्दरवचनः १, मितवाक्-स्तोकाक्षरवचनः २, अपरुषवाक्अनिष्ठुरणचनः ३, अनुपिचिन्त्य माषी स्वालोचितवक्ता ४, इति वाचिको विनयः । अकुशलस्य आध्यानादियुक्तस्य मनसो निरोधः १,
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
adosindhenuivalenamenatma
wo
m grammu-tuncepictantrastrw:-.
नाना
कुशलस-धर्मध्यानादियुक्तस्य मनस उदीरणं-प्रवर्तनं २, इति द्विविधो मानसो विनय इति गम्पने, इति माथार्थः ॥४०५"....
ननु किमारमकोऽसौ प्रतिरूपविनयः ? कस्य चायं भवति ? इत्यत्राहपडिरूवो खलु विणओ, पराणुवित्तिमइओ मुणेयत्रो। अडियो विणओ, नायव्यो केवलोणं तु ।।४०६॥
व्याख्या-प्रतिरूप-उचितः खलु विनयः परानुवृत्यात्मको ज्ञातव्यः, अप्रतिरूपो-ऽपरानुवृत्यात्मकः केलिनामेव ज्ञातव्यः, एतेन च प्रतिरूपविनय छवस्थानां भवतीति गाथार्थः ॥४६॥ अवैतदुपसंहरन् अनाशातनाविनयं तु विभणिपुराह-- एसो भे परिकहिओ, विणओ पडिस्वलक्खणी तिविहो । बावन्नविहिविहाण, बिति अणासायणाविणयं ॥४०७॥
व्याख्या-एषो-ऽनन्तरोक्तो भे-भवतां परिकथितः प्रतिरूपलक्षणो विनयखिविधा, अनाशातनाविनयं पुनर्द्विपश्चाशद्विधिविधानं बुरते तीर्थकद्गणधरा इति गाधार्थः ॥४०७ एतदेवाहतित्थयरसिद्धकुलगण-संघकिरियधम्मनागनाणीणं । आयरियथेाज्झाय-गगीणं तेरस पयाणि ॥४०॥
व्याख्या-तीर्थकरसिद्धौ प्रतीतो, कुलं नागेन्द्रादिः, गणं कौटिकादिः, सङ्घः प्रसिद्धः, क्रियाऽस्तिवादरूपा, धर्मो यति- धर्मादिः, ज्ञानं मत्यादिः, हानिनस्तदन्तः, आचार्यः प्रतीतः, स्थविरः सीदतां स्थिरीकरणहेतुः, उपाध्यायः प्रसिद्धा, किंयतोऽपि साधुसमुदायस्साधिपतिर्गणी-गीतार्थी, इति तावत्त्रयोदश पदानीति गाथार्थः ॥४०॥ ततः किम् ? इत्याहअणासायणा य भत्ती, बहूमाणो तह य वनजलगा। तित्थयराई तेरस, चउरगुणा होति वावन्ना ॥४०९॥
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
___व्याख्या-आशातना-जालाविहीलना, तदमावोऽनाशामा तीर्थरादीनां सर्वदेष कर्तव्या, तया भक्तिस्तेम्वेवोचितोपचाररूपा, बहुमानस्तेम्वेवान्तरङ्गभावप्रतिवन्धरूपः । वर्णसज्वलना-तेषामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तनरूपा । अनेन प्रकारेण तीर्थकराद 5 यत्रयोदश चार्गुणाः अनाशातनायुपाधिमेवेन द्विपश्चाशझेदा मवन्ति, एतेषां चाष्टविधकर्मविनयादिनयस्वमिति गाथार्थः ॥४०९।।
अथ सर्वगुणेषु विनयस्य प्राधान्यमाहअमयसमो नत्थि रसो, न तरू कप्पदुमेण परितुल्लो। विणयसमो नत्थि गुणो, न मणी चिंतामणिसरिच्छो ।।४१०
व्याख्या-पथा किल रसेनमृतसमो रसो नास्ति, तरुषु कल्पद्रुमेण तुल्यस्तरुर्मणिषु चिन्तामणिसहशो मणिर्नास्ति, तथा गुणेषु मध्ये विनयसमो गुणो नास्ति, विनय एवं प्रधान इति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥४१०॥
केषां पुनरेष विनयो भवतीति सदृष्टान्तमाहचंदणतरुण गंधो, जुण्हा ससिणो सियत्तणं संखे । सह निम्मियाई विहिणा, विणओ य कुलप्पसूयाणं ॥४११ * व्याख्या- यथा चन्दनतरूणां गन्धः, शशिनो ज्योत्स्ना, शस्खे श्वेतत्वं, एतानि विधिना सह-उत्पत्तिसमयादप्यारम्य
निर्मिसानि, तथा कुलप्रसूतानां विनयोऽपि जन्मना सहव जायत इति पाथार्थः ॥४॥ विनीतानां किमप्यमाध्यमेव नास्तीत्याहहोज्ज असझं मन्ने, मणिमंतोसहिसुराण वि जयम्मिानस्थि असझं कज्जं, किंपि विणीयाण पुरिसाणं ॥४१२
व्याख्या-अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां पभावः, "मणसा देवाण"मित्यादिवचनान्मणिप्रभृतीनां किमप्यसाध्यं
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
नास्ति तयाप्यहमेवं मन्ये-भवेदसाध्यं किमपि कार्य जगति तेषामपि, परं विनीतानां पुरुषाणां नास्ति किमप्यसाध्य कार्य, विनीतो || हि स्वर्गापवर्गावपि साधयति, न तु मणिमन्त्रादिरिति गाथार्थः ॥४१२॥ ऐहिक पारत्रिकं च विनयफलं सदृष्टान्तमाहर इह लोएचिय विणओ, कुणइ विणीयाण इच्छियं लच्छि। जह सीहरहाईणं, सुगइनिमित्तं च परलोए ।।४१३॥
व्याख्याइहलोक एव तावदिनयो विनीतानां ईप्सिता लक्ष्मीं करोति, यथा सिंहस्थादीनां, परलोके पुनः सुगतिनिमिर्च च भवतीति माथार्थः ॥४१३॥
कथानकं तूच्यते-सुगन्धपुरे पुण्डरीकनृपः, तस्य सुतः सिंहरथनामाऽपरगुणयुक्तोऽपि दुर्विनीतत्वाद्राज्ञोऽशेषजनस्य चानियोजनि, राना स परित्यक्तो दुःखी क्यापि पुरे भ्रमन् क्वाप्येकं तुरङ्ग सर्वप्रकारैरय॑मानं द्वितीयं कूटयमानं दृष्ट्वा विस्मितः कुमारः कचनापृच्छत् , स नरः प्राह-मो! असौ विनीता, स्वखामिनो मनोऽभिप्रायेण चलति, अतः पूज्यते, अपरो दुर्विनीतस्तेन कुट्यते । तदुनियफलं श्रुत्वा प्रबुद्धो विनयं तथा चकार यथा [तवत्य] नृपं जनाब रखपामास सः। तेन च राहा सत्स्वपि बहुषु पुत्रेषु विनीतत्वात्तस्य स्वं राज्यमदायि। पित्रा पुण्डरीकनृपेणापि सुतं विनीतं जातं श्रुत्य बहुमानपूर्वकमाकार्य सुगन्धपुरराज्यं तस्यादायि। नृपाभ्यां दीक्षा गृहीता। श्रीसिंहस्थो विनयाश्रयणात्प्राप्तप्रौढप्रतिष्ठ आश्रितसर्वगुणः क्रमेण लब्धश्रीसंयमसाम्राज्या सर्वार्थसिद्धिमगमत् । महाविदेहेषु सेत्स्यति । इति ऐइलौकिकपारलौकिकसुखाना कारण विनयः, इति सिंहस्थराजकथा समाप्ता ॥
अथोपसंहरमाकिं बहुणा ? विणओच्चिय, अमूलमंतं जए वसीकरणं । इहलोयपारलोइय-सुहाण वैछियफलाण ॥४१॥
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या किम्बहुना ? तात्पर्यमेवोच्यते - विनय एवं अमूमन्त्र - मूलमन्त्राभूतं, अपूर्वमेव किञ्चिदित्यर्थ जगति परमं वशीकरणं, के वशीकरणं? इत्याह-रेडिनारत्रिकपुखानां सौभाग्यारोग्यादिपवर्गादोनां कथम्भूतानां मनोवाञ्छिता et पुण्यस्य फलानां सर्वसुखानां विधायी विनय एवेति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥ ४१.४ ॥
इति सुकृतसुरद्रोर्मूलमानन्दकन्दः, सुरनरशिवलक्ष्मीकार्मणं कर्मभेदी । प्रतिदिन नवथः पुण्यवद्भिर्विधेयो, विनय इह तदर्हे सर्वतः स्वष्टसिद्धये ॥ १॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे विनयलक्ष्णं प्रतिहारं समाप्तम् ॥१३॥ अथ वैयावृत्यं विभणिः पूर्वेण [स] सम्बन्धगर्भा गाथामाह - विणयविसेसोय तहा, आयरियगिलाणसेहमाईणं । दसविहवेयायचं, करिज्ज समए जओ मणियं ॥ ४१५॥ व्याख्या -- यथा विनयस्तथा आचार्यादिषु दशसु स्थाने[षु] क्रियमाणस्वादशविधं व्यावृत्तस्य भावो वैयावृत्यं-मक्त पानौषधप्रदानादिरूपं तदपि कुर्यास्त्वं केषां : हत्याह-आचायग्लान शैक्षकादीनां उक्तं च
" आयरियउवज्झाए, धेरैत बस्सी गिलोणसेहीणं । साम्मिय कुलग संघ-संगयं तमिह कायव्वं ॥ १॥":
कथम्भूतं यद्वैयावृत्र्यं ? इत्याह- विनयविशेष एव समयप्रसिद्धेन केन केनचित्प्रकारेण वैश्वमपि विनय एवेत्यर्थः, अनयैव व त्याच्या विनयद्वारानन्तरं वैयावृश्यद्वारकं इत्यधिकृतद्वारस्य सम्बन्धः सूचितः । कुत इदं कर्त्तव्यं ? इत्याह-समयेसिद्धान्ते यतो मणितमिति गाथार्थः ||४१५|| समयोक्तमेवाह
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
Hypsu
m
adaltomansusksikntamane
R୧୬
भरहेवयविदेहे, पन्नरस वि कम्मभूमिगा साहू । इक्कम्मि [वि] पूइयम्मि, सव्वे वि] ते पूइया हुंति ।।४१६॥
व्याख्या-मरतैरवतविदेहेषु पञ्चदशवपि कर्मभूमिषु गच्छन्ति-तिष्ठन्तीति पञ्चदशकर्मभूमिगा, ये केचन साधनस्ते सर्वेऽपि पूजिता भवन्ति, क्व सति ?, एकस्मिबपि साधौ पूजिते सति, यतः समपवचनं । ततो लाभसम्भवाद्भक्तपानादिना साधूनां वैयावृत्त्यं कर्तव्यमिति भाव, इति गाथार्थः ।।१६।। व्यतिरेकमित्याइएक्कम्मि हीलियम्मि वि, सब्वे ते हीलिया मुणेयब्बा । नाणाईण गुणाणं, सब्बत्य वि तुलभावाओ ॥४१७॥
व्याख्या-(न) केवलमेकस्मिन् पूजिते सर्वे पूजिता भवन्त्यपिन्वेस्मिन् जात्यादिना हीलितेऽप्य-पमानितेऽपि सर्वेऽपि ४ ते साथवो हीलिता बातच्याः । कथमेतदित्याशयोपत्तिमाह-ज्ञानादिगुणानां सर्वत्र तुल्यत्वात्, पुरुमा एवं किल भिन्नाः,
ज्ञानादिगुणास्तु सर्वत्र त एव, पूजाऽपि च ज्ञानादिगुणानामेव, न तु पुरुषमात्रस्येत्ये कस्मिन्साधी पूजिते सर्वेऽपि तद्वन्तः पूजिता एव, एवं ज्ञानादिगुणवता हीलनमपीति भाव, इति गाथार्थः ।।४१७॥ प्रकृतमुपसहरमाहतम्हा जइ एस गुणो, साहूर्ण भत्तपाणमाईहिं । कुज्जा वेयावच्चं, धणयसुओ रायतणउब्ध ॥४१॥
व्याख्या-वस्मायथेष गुण एकस्मिन् पूजिते समस्तपूजासिद्धिलक्षणस्तदा साधूनां भक्तानादिमिः कुर्यास्त्वं वैधावृत्यं । अपम्मावा-पश्चदशस्वपि कर्मभूमिषु जघन्यपदेऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वं चारित्रियां सर्वदेव प्राप्यते, उक्तं च प्रज्ञप्त्यां-"सामाइयसंजयाणं भंते ! एगसमएणं केवइया होजा, गोयमा ! पडिबजमाणए पडुछ सिप अस्थि सिप नत्थिा जइ अस्थि, जहणं एको वा
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
दो या तिभिवा" एवं सर्वत्र प्रश्नालापः प्रतिपद्यमानकान् प्रतीत्य अपन्यपदोचरालापश्च द्रष्टव्यः । "उक्कोसेणं सहस्सपुहत्त, पुन्चपडि
बनाए गच्च जहन्ने कोसिस सोम वि कोडिसहस्सपुहत्तं, छेओवट्ठावणियसंजया० गोयमा! पडिवञ्जमाणए पडुच्च सिय 3 अस्थि सिय नस्थि, जइ अस्थि, जहनणं एको वा दो बा तिमि का, उचोसेण सयपहुल, पुनपडिवमए पढच्च सिय अस्थि सिय नस्थि, जह 7 अस्थि, जहन्नेणं कोडिसयपुरत्वं उकोसेण वि कोडिसयपुहुत्त" इहोत्कृष्टं छेदोपस्थापनीयसंयतपरिमाणं आदितीर्थकरतीर्थान्याश्रित्य
सम्भवति, जघन्यं तु सत्सम्यग् नावगम्यते। दुष्षमान्ते मरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येकं तद्द्यस्य भावाविंशतिरेव तेषां श्रूयते । केचित्युनराहुः इदमप्यादितीर्थकराणां यस्तीर्थकालस्तदपेधयैव समवसेयम्, कोटिशतपृथक्त्वं च जघन्य-मल्पतरं, उत्कृष्टं च बहुतरमि"ति 'भगवतिकृत्ती [९१८ पत्रे] "परिहारविसद्धियसंजया० गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुञ्च सिय अस्थि सियन स्थि, जइ अस्थि, जहन्ने] एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयपुहु, पुखपडिवमए पडुच्च सिय अस्थि सिय नस्थि, बह अस्थि, जहन्नेणं एक्को का दोबा तिन्नि बा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं ३। मुहमसंपरायसंजया वि पडिबजमाणए पडुच सिप अस्थि सिप नस्थि, ज अस्थि, जहन्नेणं एक्लो वा दो बा तिन्नि बा, उक्कोसेणं बावट्टिसयं, अट्ठोत्तरसयं खवगाणं, चउत्पन्न उक्सामगाण; पुम्बपडिअन्नए पळुच सिप अस्थि सिय नस्थि, जर अस्थि, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेण सयपुस ४ । अहवायसंजयाणं पुच्छा, गोयमा! पडिबजमाणए पडच्च सिय अस्थि सिय नस्थि, जइ अस्थि, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं बावद्विमयं, अछुत्तरसर्य खबगाणं चउत्पन्न उक्सामगाणं, जहा सुहमसंपरायसंजया; पुबपडियन्नए पड्च जहन्नेणं कोडिहुत्तं उक्कोसेण वि कोडिपुटु ५. । इत्येकस्मिन्नपि साधौ पूजिते वर्तमानकालापेक्षयाऽपि निषितं कोटिसहस्रपथक्त्वं पूजितं भक्तीति, अनागतकालापेक्षया त्वनन्ता
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
2 अपि साधः पूजिताः स्युः। तदेतावती गुणसिद्धिमालोव्य सदैव वैयावृत्यं कुर्यास्त्वं । क इव ? इत्याह-राजपुत्र इव, कस्य | | सत्कोऽसावित्याह-धनदराजसुत, इति गाथार्थः ।।४१८॥
कथानक त्वेवम्-कुसुमपुरे धनदनृपः, पद्मावतीदेवी, तयोः पुत्रो भुवनतिलकनामा विद्यापारङ्गतो रूपसौभाग्यादिकलितो विश्वविख्यातो रत्नपुरवामिनोऽमरचन्द्रऋपस्य यशोमती सुतां कुमारगुणश्रवणमोहितां परिणेतुं गन्छन् ससैन्यो यावत्प्राप्तः सिद्धपुरं ताबदकस्माद्रोगग्रस्तः, कण्ठीरवामिधसामन्तादिमिः क्रियमाणाविनिशेषनारोऽपि न मलोऽभूत् । इतश्च तदेव दैवयोगाद्रत्नभानु केवली तत्र समयासा/त , सामन्ताधैर्गस्वा केली तद्रोगकारणं पृष्टः प्राह-धातकीखण्डभरते भवनाकरपुरे एकस्मिन् गच्छे वासानामा साधुः
सुकुलमयोऽपि क्रियाप्रमादी, साधुभिः शिष्यमाणो रुटो गच्छप्रतिकूलो यतिमारणार्थ नीरे तालट विष चिक्षेप । कयाचित्माधुभक्तमा देवतया विषमपनिन्ये, स च निर्भसितोरण्येऽमात् । मार्गे दबदग्धः सप्तमं नरक जगाम, तत उद्धृत्य मत्स्येपु, पुनर्नरकेषु, पुनतिर्यक्षु,
पुनर्नरके, एवं सप्तसु नरकेषु प्रान्त्वा ततः क्वापि कृतपुण्यो भुवनतिलककुमारो जाता, ऋषिपातपरिणायेन यत्तदा कर्मोपार्जितं तच्छेप भएतस्येदानीमुदयप्राप्तस्तेनायं रोगसमुदायोऽस्य । इदानीमेव कालादिवशेन क्षीगतकर्मा सोनामभिष्यति, सावदायातः कुमार, प्रणतः सावली, पूर्वभवादिव्यतिकरं केवलिपाधै श्रुत्वा जातजातिस्मरणः तत्वामयित्वा वैराग्यात्प्रात्राजीत् । प्राकर्मफलविपार्क स्मारं स्मारे
साधुभक्तिपरो दशविधवैयावृश्यं कुर्वन् मुरैहुधा वैयावृष्ये परीक्षितोऽपि नाचलत्। बासमतिपूर्वलक्षाणि वैयावृत्यं कृत्वा अशीतिपूर्वलक्षाणि सर्वायुः परिपाल्य शुममावनागतः केवलहानमुत्याध मोक्षममात्, इति वैयावृत्ये धनदन्द्वपसुतकथा समाप्ता॥
খানজাহানলাম যামুঘক্ষণৰয়াই
ॐ
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
arraj निययं, करेह उत्तमगुणे घरंताणं । सव्वं किर पडिवाई, वेयावच्च अपडिवाई ||४१९||
व्याख्या - वैयावृवं निपतं निचितं कुरुत यूर्य, केपां ? इत्यापाद- उसमान ज्ञानदर्शनचारित्रगुणान् ये धरन्ति तेषां यतः कारणात् किलेव्याप्तोपदेशे, सर्व चारित्रश्रुतादिकं प्रतिपतनशील, वैयावश्यं पुनरप्रतिपाति- अविनाशीति गाथार्थः ॥ ४१९ ॥ एतदेव भावयति
परिभग्गस्स मयस्स व, नासइ चरण सुर्य अगुणणाए । न हु वेयावचकथं, सुहोदयं नासए कम्मे ||४२०|| व्याख्या - प्रतिमग्नस्य - उत्प्रवजितस्य सतो मृतस्य-अविरतत्वमापभस्य नश्यति तावचरणं, 'वा' पुनरर्थे, थुतं पुनरगुणनयाअपरावर्त्तनया नश्यति, अतस्सर्वमपीदं प्रतिपाति, न तु वैयावृत्योऽपि तुल्यमेवैतदिति चेचरणश्रुतशब्देनात्र तजनितं शुभ कर्मोच्यते, ततचरणत गुणेनोपार्जितं पच्छुभं कर्म तत्प्रतिमग्नाद्यवस्थायामविरतस्थ विस्तृतस्य च सतः किश्चित्प्रदेशोदयेनेव द्यमानं खकीयविपाकमदत्वा एवमेव नश्यति । वैयावृच्ये तु नैवमित्याह-'न हु' नैव वैयावृत्येन हेतुभूतेन कृतं शुभ उदयो-विपाको यस्य तच्छुभोदय- शुभचिपाकं कर्म तीर्थकर नामगोत्रादिकं प्रदेशोदय मात्रेणैव वेद्यमानं स्वविपाकमदत्वा एवमेव न खल्यपगच्छति, हेतोः प्रबल सामर्थ्येन प्रतिभग्नाद्यवस्थायामपि स्वविपाकेनैव तत्प्रायो वैद्यते, नान्यथेति भावः । इति वैयावृत्यमप्रतिपातीति बुद्धयामहे, सत्वं पुनः केवलिनो विदन्तीति गाथार्थः ४२० ॥ ननु यद्येतावान्गुणो वैयावृत्यस्य तर्हि गृहस्थादीनामपि तत्कर्म इत्याहगिहिणो वेयारडिए, साहूणं वन्निया बहु दोसा । जह साहुणी सुमद्दाए, वेग विसए वयं कुज्जा ॥४२९॥
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
AnilonilveerNaa
RA
व्याख्या साधूनां गृहिणो वैयावृत्य-गृहस्थरस वैपावृत्यं कृर्षता आगमे यहवो दोषा वर्णिता, यथा साध्वीसुभद्राया, लातेन कारणेन विषये-ययाऽहमेव तक-वैयावृत्त्यं कुर्यान्न यथेष्टं।
का पुनरसौ सुभद्रा ? इत्युच्यते-वाराणस्या भद्रबाहुः सार्थवाहा, तस्य सुभद्रा भार्या, पर निरपत्या, तदुःखेन साध्वीपाश्च । प्राबाजीत् , महातयः करोति, पर तत्रोपाश्रये समागतश्राविकाणां डिम्भान् मालयति उत्पाटयति उत्सले लाति, साध्वीमिरिताऽपि तत्कृत्यानोपरमते, ततः पृथगुपाश्रयस्था निरङ्कशा सविशेष हिम्मोहनिरता कालं गमयति। तदनालोच्य प्रान्तेऽष्टमासान् यावदनशनं कृत्वा मृता सौधर्मकल्पे देवी जाता। अन्यदा कृतानेकडिम्भरूपैः परिवृता श्रीवीरवन्दनार्थमागता, टिम्मरूपैर्नृत्यन्ती साधुसाध्वीजनान् । व्यस्मापयत् । श्रीगौतमेन पृष्टो भगवान् वीर:-कैषा प्रभो!, प्रभुराह-हे गौतम! प्राग्भवे [स] मद्रूषा सुचारित्रिणी, धात्रीकर्म नाकरिष्यत्तदा केवलज्ञानमवाप्य सिद्धिसौख्यभागभविष्यत्, प्रभुणा तस्याः प्राग्भवे प्रोक्त बहुभिः साधुसाध्वीभिरनर्थ फलं गृहस्थ
वैयावृत्यं प्रत्याख्यातम् । ततो गौतमपृष्टः प्रभुस्तस्या आगामि भवस्वरूपं प्राह-एषाऽत्र चस्वारि पत्योपमान्यायुः परिपाल्यात्रैव भरते * विन्ध्यगिरिमूले वेभेलसन्निवेशे सोमानाम्नी द्विजपुत्री भविष्यति, राष्ट्रकूटविप्रस्तां परिणेष्यति, तस्या सप्तवर्षान्तेऽपत्ययुगलं भविष्यति El एवं द्वितीयेऽपि वर्षे, एवं षोडशमित्र मैत्रिंशत्सुतान् जनिष्यति, तैरुचारिता कथमपि पतिमनुज्ञाप्य दीक्षा ग्रहीष्यति, एकादशाङ्गान्य
धील विविधं तपः करवा संलेखनापूर्व मासमनशनं कृत्वा सौधर्मशक्रस्य सामानिकदेवत्वं प्राप्य महाविदेहेषु सेत्स्यति । "इय सोडे जिणवयण, वेयावच करेज समयम्मि। विसएञ्चिय विहिपाओ, किरियाओ हवंति सहलाओ॥१॥" इति सुभद्रासाध्वीकथा समाप्ता।
ननु वैयावृपकरणोधतेन फेनधिद्रतपानापानयनेन निमन्त्रितोऽपि साधुर्यदि तमिमन्त्रणां नेच्छेचतः किम् ? इत्याह--
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
RECENA
इच्छेज्जनइच्छेज्जव, तह विहु पयओनिमंतए साहू। परिणामविसुद्धीए, उ निज्जरा होइ अगहिए वि॥४२ - व्याख्या-निमन्यमाणः साधुस्तां निमन्त्रणामिन्छेनेच्छेद्वा तथापि वैयावृत्यकर्ता साधुः प्रयता-सादरस्तं साधु निमन
येद्भक्तपानाद्यानयनेन । ननु यदि कथमप्यसो तम्म गृण्हीयातदा निष्फल एवायं प्रयासः ? इत्याह-करोम्यहमस्य चैयावृत्यमित्येवरूप ४ परिणामविशुद्ध्या त्वगृहीत नाहारादिके यादृषकतु : कमनि जरा भवत्येव, मुख्यतया भावशुद्धेरेव कर्मनिर्जराहेतुत्वादिति गाथार्थ
इति सकलयतीनां मरूपानप्रदान-प्रभृति कुरुत वैयावृत्त्यमेकामभक्त्या। भवति जगति यस्मान्निश्चलः पुण्यलाभः, परमपदसुखानि स्युस्ततो हस्तगानि ॥१॥
इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे वैयावृस्यलक्षण प्रतिवारं समाप्तम् ॥११॥ अथ खाध्यायरतिद्वारे विभणिपुः पूर्वेण सम्बन्धी गाथामाहवेयावच्चे अब्भु-ज्जएण तो वायणाइपंचविहो। विचम्मि उ सज्झाओ, कायब्बो परमपय हेऊ ॥४२३॥
व्याख्या-चयावृश्येऽभ्युद्यतेनापि साधुना "विञ्चम्मि"ति अन्तराऽन्तरा वाचना-पृच्छना-परिवर्तना-अनुप्रेक्षाधर्मकथारूपः पञ्चविधः स्वाध्यायः कर्तव्यः, इति वैयावृस्यद्वारानन्तरं खाध्यापद्वारमिति भावः। यतः, कथम्भूतोऽसावित्याइपरमपद हेतुरिति गाथार्थः ।।४२३॥ वैयावृत्यादिभ्योऽपि खाध्याय एव परमं मोक्षाङ्गमित्याह
एत्तो सम्बन्नुत्तं, तित्थयरत्तं च जायइ कमेण । इय परमं मुक्खंग, सज्झाओ तेण विन्नेओ ॥४२४॥
-
-
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - इतः खाध्यायात्सर्वस्वं तीर्थकरत्वं च क्रमेण जायते इति परमं मोक्षा स्वाध्यायः तेन कारणेन विज्ञेयः कर्त्तव्यतयेति शेष इति गाथार्थः ||४२४|| किश्व ---
तं नत्थि जं न पासइ, सज्झायविऊ पयत्थपरमत्थं । गच्छइ य सुगइमूलं, खणे खणे परमसंवेगं ||४२५|| व्याख्या ---तमास्त्येव यत्पदार्थपरमार्थ स्वाध्यायचित्र पश्यति, यत्किञ्चिदस्ति तत्सर्वं पश्यतीत्यर्थः । गच्छति च क्षमे क्षणे सुगतिमूलं परसंवेगमिति गाथार्थः || ४२५ ||
ननु स्वाध्याय इवान्यमपि प्रत्युपेक्षणादौ योगे असख्येय भविकं कर्म क्षपयत्येव, तत्कोsa विशेषः ? इत्याहकम्मं संखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयरम्मि वि जोगे, सज्झायम्मि विसेसेण ||४२ ६ ||
व्याख्या -प्रत्युपेक्षणा प्रभार्जना मिश्राचर्या वैयावृत्यादियोगानां मध्येऽन्यतरस्मिन्नपि योगे - संयमव्यापारे आयुक्त:आदरेण प्रवृत्तः साधुः प्रतिसमयम सङ्ख्येयभवस्थितिकं कर्म क्षपयति, परं स्वाध्याये वर्त्तमानस्तदपि विशेषेण-स्थितिरसाभ्यां विशेषतरं क्षपयति । यथा स्वाध्याये कर्मक्षयः सम्पद्यते न तथा प्रायः प्रत्युपेक्षणादाविति स्वध्यायस्य गरीयस्त्वमिति भावः, उत्कर्षतोऽपि सप्ततिसागरोपमकोटाको टिपरतः कर्म [स्थि] तेरभावादनन्तभवापरिपू तेरसङ्ख्येय मनस्थितिकं कर्म श्चपयतीत्युक्तं नानन्तभविकमिति गाथार्थः || ४२६|| अथ किं परिमाणः स्वाध्यायो भवतीत्यत्राह-
उकोसो सज्झाओ, चउदसपुव्वीण बारसंगाई । तत्तो परिहाणीए, जाव तयत्थो नमोक्कारो ||४२७||
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
AREER
व्याख्या-उत्कृष्ट स्वाध्यायचतुर्दशविणां द्वादशाङ्गानि, चतुर्दशपूर्वधरा हि महाप्राणध्यानादिसामध्यतोऽन्तर्मुहर्चादिना कालेन चतुर्दशापि पूर्वाणि परावर्तयन्ति, दशपूर्वधराणां तु दशपूर्वाणि खाध्यायो, नवविणां तु नत्र। एवं परिहाण्या तावझेयं | यावधस्थापरं किमपि नागच्छति तस्य पञ्चपरमेष्टिलक्षणो नमस्कारः स्वाध्यायः । कथम्भूतोऽयमित्याह-तदयों-द्वादशाङ्गार्थ इति र माथार्थः ॥४२७॥ ननु कथमयं नमस्कारो द्वादधानार्थः इत्याइ---
जलणाइभए सेसं, मोत्तुं एक पि जह महारयणं । पेप्पइ संगामे वा, अमोहसत्यं जह तदेह ॥४२८॥ मोतं पिबारसंगं, स एव मरणम्मि कीरए जम्हा । अरहंतनमोक्कारो, तम्हा सो बारसंगत्थो ॥४२९॥
___ व्याख्या-क्लनादिभये समुपस्थिते शेष-मोदुमशक्यं कर्पासादिकं मुक्त्वा एकमपि यथा महारत्नं गृह्यते, सामे या शेष लकटादिकं मुक्त्वा यथेकमप्यमोघं-रिपुवघे अस्खलितं पाणशक्त्यादिकं शस्त्रं गृह्यते, तहापि मरणे समुपस्थिते तस्यामवस्थायां र स्मर्तुमशक्यं मुक्त्वाऽपि द्वादशाङ्ग स एवार्हदादिनमस्कारो यस्माक्रियते, तस्माद्वादशाङ्गस्थाने फियमाणत्वादन्यथाऽनुपपत्तेरसौ
द्वादशालार्थः । अयम्भावः-शानदर्शनचारित्राण्येव हि द्वादशाङ्गार्थः, तानि च पञ्चवदादिम्वेव स्युर्नान्यत्र, नमस्कारे चाईदादय का एवाभिधेया, असो द्वादशाङ्गस्मरणोचितेष्वपि तेषु तेषु मरणादिस्थानेषु सुखानुस्मरणीयत्वादिकारणदयं स्मरणीयत्वेनोपदिष्टस्ततो
| युक्तवास्स द्वादशाङ्गार्थतेति गाथावयार्थः ।।४२८-२९।। एतदेवावश्यकभाष्योक्तयुक्त्या दर्शयभाहहै। सव्वं पि वारसंग, परिणामविसुद्धिहेउमित्तागं । तत्कारणमेत्ताओ, किह न तयत्थो नमुक्कारो ? ॥४३०॥
AAAKA
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
ED
व्याख्या सर्वमपि द्वादशाङ्ग तावस्परिणामविशुद्धिहेतुमात्रकमेव, ततस्तस्कारणमात्रत्वात्पश्चपरमेष्ठिद्वारेण परिणामविधद्धिकारणमात्रत्वात्कथं न तदर्थो-द्वादशाङ्गार्थों नमस्कारः ?, अपितु तदर्थ एवेति गाथार्थः ॥४३॥
अथ मरणायणायामपि अगर ममी काणमानहु तम्मि देसकाले, सको बारसविहो सुयक्खंधो। सबो अगुचिंतेडे, धंतपि समत्थचित्तेण ॥४३१॥ | व्याख्या-नए-नैव तस्मिन् देशकाले-मरणादिप्रदेशकाले द्वादश्वविधोऽपि श्रुतस्कन्धोऽनुचिन्तयितुं शक्यः । केन ? इत्याह ----'धन्तं' अत्यर्थ समर्थचिनेनापि, सतो द्वादशाणसाच्यसाधकत्वात् सुखस्मरणीपत्वाच तदयस्थायामेष एव स्मरणीय इति गाथार्थः ॥४३॥ अथ नमस्कारस्यैव माहात्म्यमाहनामाइमंगलाणं, पदम चिय भंगलं नमोक्कारो। अवणेइ वाहितक्कर-जलणाइभयाइं सवाई ॥४३२॥ हरइ दुहं कुणइ सुहं. जणइ जसं सोसए भवसमुई। इहलोअपारलोइअ-सुहाण मूलं नमुक्कारो ॥३३॥
मस्थापनादयभावमलानां मध्ये प्रथम प्रधान माल नमस्कार एक यतः कथम्भतोऽसौ? इत्याहुअपनयति ध्याधितस्करज्वलनादिभयानि सर्वापि तथा दःखहरति, सख करोति, यशो जनयति. भवसमदं शोषयति. किम्बदना। ऐहलौकिकपारलौकिकसुखाना मा समस्कार इति गाथाद्वयार्थः ॥४३२-३३।। अथैहि केषु पारत्रिकेषु च नमस्कारगुणेषु दृष्टान्तानाहइहलोयम्मि तिदंडी, सादिव्वं माउलिंगवणमेव । परलोए चंडपिंगल-इंडियजक्खो य दिळंता ॥४३॥
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
GAISRI4**
व्याख्या -ऐहलौकिके नमस्कारमाहात्म्ये त्रिदण्पदाहरणं, तथाहि-जिनदासमृतः शिवकुमार उत्तमोऽपि तव्यसनी | पित्रा गुरुषार्थे नीतोऽपि धर्म न प्रतिपद्यते, अन्यदा पित्रोक्तं वत्स! अमु मन्त्रं महानमा महाभयापहारप्रवणं गृहाण, स्मरणमात्रा स्कार्यसिद्धिः स्यात् । ततो लोभात्तेन पितृसकाशाद्गृहीतः पश्चपरमेष्ठिनमस्कारः। क्रमेण पियुषरतेऽप्यस्य तथैव व्यसनरसिकस
द्रविणं न पूर्यते । ततस्तेनैकखिदण्डी धनार्थमभ्यर्थितः प्राह-दास्येऽक्षयं धनं यदि परमक्षतमृतकमानेष्यसि, ततो लुब्धेन शिवेन * वृक्षशाखोलम्बितचौरमतकं तस्योपनीतं । सोऽपाम भानं खरं मृतकं तदं हि संवाहकं च तं संस्थाप्य मण्डले स्थितः स्वविद्य
स्मरति, भीतः शिवस्तु नमस्कार, पूर्णे जापे खहं गृहीयोस्थिषतं मृतातो) नमस्कारप्रभावाच्छिवस्याप्रभ(को)त्तथैवापतत् । ततः पुनरव सविशेष त्रिण्डी व विद्या शिवोऽपि नमस्कारं जपति, पूर्ण जापे पुनरुत्थाय तथैवापतत् , ततः शङ्कितः स शिवं पप्रच्छ-किं स्वर्मा वत्स! वेत्सि काश्चिद्विधा', स प्राइ-यदि वं तुष्यसि, ततः पुनखिदण्डी साक्षेपं तो स्माति, पूर्ण जापे शिवायाप्रभवन्नुत्थितमृतकाव तीणों वेतालः मङ्गेन त्रिदण्डीनं द्विधा विधाय श्मशाने शेप्सीव, सद्यश्च हेममयं जातं । तं पुरुष हांद्गृहीत्वा गृहमपाच्छिवः । तत प्रभृति तत्प्रमावाजातोऽयं महेभ्यः, तदेवं नमस्कारप्रमावं साक्षालम्प जिनधर्माराधनोधतमतिः शिवकुमारः सम्यक्त्वत्रतामिग्रह प्रतिपालनपरस्तीर्थयात्रोद्धारादिभिः शासनं भासयामाम, इतोहलोककले त्रिदण्ड्युपलक्षितः शिवकुमारदृष्टान्तः समाप्तः।।
'सादिव्य' ति नमस्कारप्रभावतो देवतासाभिध्यमपि जायत इति भावस्तद्यथा--
श्राद्धसुता श्रीमती परमश्राविका मिश्याहपरिणीता, तया विनयगुणेनावर्जितः श्वसुरवर्गः, प्रियेण बारिताऽपि जैनधर्म ममुक्तवती, अन्यदा तस्यां विरक्को भत्तोऽन्यां परिणेमुमिच्छति, परं न कोऽपि गुणात्या माया उपरि स्वकन्यां प्रयच्छति, तत
SCSAPI64KB
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
स निर्घृणः श्रीमती मारणाय कुतोऽपि कृष्णसमानीय घंटे चिरतस्तां नवें समादिशतिस प्रिये! घटस्था समर्पयेति कथनानन्तरमेवान्वकारस्थापितं घटं दृष्ट्वा तथा नमस्कार मनपूर्व करे क्षिप्ते समितिदेवतया सर्वमपहृत्य संस्थापिता कुसुममाला, तामादाय मर्तुर्दचे सा, सोऽप्यतिविस्मितचिन्तयति - अहो !! किमेतत् ?, गत्वा यावद् घटं विलोकयति तावत्पुष्पाणि पश्यति, न पुनर्भुजङ्गे, ततो भार्यागुतमाहात्म्यं च विचार्य भीतस्तां श्रामयित्वा नमस्कारकलो जिनधर्म प्रतिपद्य श्रीमती सर्वगृहस्वामिनीं कृतवान् ततो विदुलार भोगान्त मदिनान्ते द्वावपि वैशम्यादीक्षां प्रतिपद्य सम्यक् प्रतिपाल्य ब्रह्मलोकङ्गतो, महाविदेहे सेत्स्थतः । "एवं च नमुक्कारो, जीबियरक्वं च कामलाभं च । इहलोयम्मि वि साह, जीवाणं भतिताणं ||१|| " इति श्रीमती कथा समाप्ता ॥
मातुलिङ्गानं - बीजपूरवनं, तदुदाहरणम्, तथाहि एकस्मिन्नगरे नदीतीरे एकेन खरकार्मिकेणैकं महाप्रमाणं सुगन्धित्रर्णाय बीजपूरं पतितं प्राप्यात्यद्भुतं ज्ञात्वा राजस्वमर्पितं । पृथ्व राखा क्व लब्धं १, तेनाप्युक्तं नदीप्रवाहे, ततस्तुष्टिदानं दत्वा विसृष्टः राज्ञा तस्मिन्पूर्वे युक्ते स्वपुरुषैर्नदीतीरं शोधितं यावदेकश्रापूर्व वनं दृष्टं श्रुतं च-यः कुतोऽप्यमूनि फलानि गृहाति स म्रियते, ततस्तै प्रत्यागत्योक्तं नृपतेस्तत् । तथाप्यनिवृत्तामिलापो राजा नगरलोकनामगर्भमोलकान् घटे प्रक्षिप्य प्रतिदिन मेकगोलकाकर्षणे तनाना पुंसा वीजपूरमानाथयति सोऽप्यनात्मवशस्तत्र वने प्रविश्य वीजपूरं त्रोटयित्वा चद्दि: श्चिपति, अन्यस्तद्गृहीत्वा नृपतेर्ददाति इतरस्तत्रैव प्रियते । एवं बहुभिर्दिनेरेकस्य श्रावकस्य वारकः प्राप्तः गतश्च स तत्र, श्रीजिनप्रणिधानं विधाय नमस्कारं भणित्वा नैषेधिकी चत्वा याने प्रविशां तावत्तत्रस्थो व्यन्तरो नमस्काराद्याकर्णनात्प्रतिबुद्धा श्रावकं प्रत्याह-भो महानुभाव ! साधुकतं स्वया
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
है/ यदई मवादधृतो नमस्कारस्मारणेन, तहण यत्तव प्रिय, करोमि, श्राद्ध नोक्तं-किमन्येन मे ? तथा स्वं कुरु यथा न म्रियते नगरनरः,
ततस्ता सुरः पाह-तत्रैव स्थितस्य तवोच्छीर्षके प्रत्यहमहमेकैकं बीजपूर स्थापयिष्ये, तन्नृपतेयं, एवं च राजा त्वयि तुटो भविष्यति, न च नपरजनो मरिष्यति, इति वरं प्राप्य स स्वगृहं प्राप्तः। ततो राजा लोकेन चातिविस्मितेन पृष्टः पूर्वोक्तं सर्व जिननमस्कारमहात्म्यमाह। ततो बहुलोको जिनधर्म प्रपेदे । राजाऽपि तुष्टो पनं घनं दत्वा श्राद्धमदारिद्रं चकार । एवं इहलोकेऽपि विशुद्धचित्ताना जन्तुना जीवितधनावहो नमस्कारो निएमाजायते, इति मातुलिङ्गवनाख्यानकं समाप्तम् ॥
पारलौकिके नमस्कारमाहात्म्ये चण्डपिङ्गलकथानकम् , तकदम्-वसन्तपुरे चण्डपिङ्गलश्चौरः श्राविकावेश्यागृहे वसति 1 तदनुरका, अन्यदाऽनेन राज्ञो गृहान्महामृत्यो मौक्तिको हारचौरयित्वाऽतिपत्नेन वेश्यागृहे गोपितः, अन्यदा महोत्सवे सो
घेण्याः खखसमृद्धिसमुदयेनालङ्कता बहिर्वजन्ति, अध सखिदमेवातिशयतः शृङ्गारा सामिति तस्करवेश्या वमेव हारं कण्ठे क्षिप्त्वोद्यानं गता नृपपत्नीचेट्या दृष्टा, उपलक्षितो हारस्तया, ज्ञापितं च देव्याः, तया च राज्ञस्तेन च गवेषयित्वा गृहीतस्तस्करो विडम्ब्य शुलिकया भिन्नः। तच्छत्वा वेश्या स्वं निन्दन्ती महादुःखिता तत्र गत्वा चौर नमस्कारमनुशास्ति इह नृपपुत्रो भोयामिति निदान चाकारयचस्मात् । ततोऽयं नमस्कारं पठन् मृत्वा तेन निशानेनाग्रमहिषीय पुत्रत्वेनोत्पत्रः, यावत्सा वेश्या भवितव्यतावशेन क्रीडापनपात्रीत्व प्राप्ता । अथ सा चिन्तयति-गर्भस्य चण्डपिङ्गलमरधास्य च तावत्तुल्य एवं कालः, तस्मात्सम्भाव्यते स एवायं, इति
विचार्य रुदतस्तस्य कुमारस्य भणति-मा रोदिशण्डपिङ्गल!, पुनः पुनरित्यालपत्यां जातं जाविस्मरममस्य, जिनधर्मः प्रतिपत्रा, स Xच कालेन राज्यं प्रतिपाल्य तया घेश्यया समं प्रवज्या प्रतिपद्य तत्सममेव सिद्धः। एवं नमस्कारो भोगफलः शिवफलब
INI
SPrPramanangreaminsecto
मास्ट
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावप्रधानजीवानां जायत इति चण्डपिङ्गलकथानकं समासम् ॥ हुण्डिकयस्य ष्टान्तः कथितः स मुच्यते -
मथुरायां इण्डिकः सर्वामपि नगरीं मुष्णाति, अन्यदा कोट्टपालेन सलोनः प्राप्तः स क्षिप्तः शूलायां नृपादेशेन । ततः स्वेनातिविया सितेन समीपे गच्छतो जिनदत्तभावकस्योक्तं- 'भो ! भक्तां दयामयो धर्मस्ततो महाभाग ! दीनस्य तृषितस्य मे पानीयं पाहि 'परकायें एव धरन्ति जीवितव्यं धीराः इतेि जिनदचः प्राह-यदि स्वं नमस्कारं निरन्तरं पठंस्तिष्ठसि तदाऽहं पानी मानीय पाखामि एवं च प्रतिपने जलमानेतुं गते श्राद्धे नमस्कारावयं कूर्वमेव काले कृत्वा तदनुमानाद्यक्षो जातः । श्राद्धः पुनर्जीरमादाय तत्रागतस्तावद्वाजपुरुपैगृहीत्वा isः कथितstant भक्तदाताऽयमिति, गह्रा सोsपि लाक्षेपार्थमादिष्टः, हुण्डिकपक्षावधिना पूर्वमव्यतिकरं जानन्महागिरिमेकं गृहीत्वोपर्युपरि स्थितो भगति - अरे ! न जानीय यूयं १, यदेतस्येह माहात्म्यं तन्मुश्वव शीघ्र मन्यथा सकलां पूरी दूरयिष्यामि ततो राजा सपरिच्छदो भीतो हुण्डिकपक्षं पूजयति कारयति च तस्वायतनं, जिनदवं च भ्रामयित्वा विसृजति । यचश्च जिनदत्तं नत्वा मणति तथा सर्वपापास्पदमप्यहं यदिवस चार्ज प्राप्तवान् स तवैव नमस्कारदानतः प्रसादः, ततः पुनः कार्ये चिमेऽहं स्मर्त्तव्यः' इत्युक्त्वा यक्षः स्वस्थानमगात् । इति द्रव्यतोऽपि गृहीतो नमस्कारः सुरद्धिहेतुर्जायत इति गाथार्थः ॥ ४३८ || इति हुण्डिकयक्षकथानकं समाप्तम् ॥
इति कुरुत स्वाध्याये, जिनेन्द्रभणितेषु वृतविमलभाषाः । येनेह चित्तशान्तिः प्रभवति गुणवृद्धिसंसिद्धिः ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे स्वाध्यायर तिलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ||१५||
अथानायतन यागद्वारे विमणिपुः पूर्वेण सम्बन्धम गाथामाह-
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामपि मनो विद्रवति । ब्रह्मचर्य दृढमपि शिथिली भवतीति गाथार्थः ॥३८॥ किश्चनीयंगमाहिं सुपओहराहिं, उप्पिच्छमंथरगईहिं । महिलाहिं निन्नयाहिं व, गिरिवरगुरुयावि मिज्जति ॥४३९॥
व्याख्या --महिलामिः-स्त्रीभिनिम्नमाभि-नदीभिरिव गिरिवरगुरबोऽपि भिधन्ते-ऽधरी क्रियन्ते, आस्तामितरे लषः। कथम्भूताभिः स्वीभिः १, नीचं-जात्यादिहीनं गच्छन्तीति नीचगाताभिः, नदीपक्षे तु नीचो-निम्नः प्रदेशस्तेन गच्छन्ति-वहन्तीति नीचगास्ताभिः, शोभनाः पयोपरा:--स्तना यासा सास्ताभिः, नदीपक्षे तु शोभनं पयः पानीयं घरन्तीति सुपयोधरास्ताभिः, पचदयेऽपि उत्पिच्छा-मनोहारिणी मन्धरा गतिर्यासां सास्तामिरित्यतस्त्याज्या एवैता इति.गाथार्थः ॥४३९|| अपि च-- घणमालाउ व दूर-नमंतसुपओहराओ वदति। मोहविसं महिलाओ, दुनिरुद्धविसं व पुरिसस्स ॥४४०॥
व्याख्या-धना-मेघास्तेषां माला:-परम्परास्ता इव दर-अवर्थ उनमन्तं-उअतिमात्रः शोभनाः पयोधरा यासा ता दोनमरमुपयोधरा महिला:-स्त्रियः पुरुषस्य मोह एवं विषं, तदद्धयन्ति; अत्र मेघमालापक्षे पयोधरा-जलदाः, स्त्रिक्षतु स्तना इति, किमिव का? इत्याह-मेघमाला एव दुनिरुद्धविपमिक, पथा मन्त्रादिना केनचिगुरुत्वारितं विषं पुरुषल दोत्रमनुपयोधरा-1 मेघमाला दृष्टाः सत्यः पुनरपि वृद्धि नयन्ति, तथा स्त्रियोपि मोइविषमिति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥४४०॥ अपाच-- सिंगारतरंगाए, विलासवेलाए जोवणजलाए। के के जयम्मि पुरिसा, नारिनईए न वुझंति ? ॥१४॥
व्याख्या-नाव नदी, ठया के के जगति पुरुषा नोझते-नापहियन्ते ?, अपितु सर्वे एरोमन्ते, कथम्भूतया गया।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
सज्झाय पि करेज्जा, वज्जतो जत्तओ अणाययणं । तं इत्थिमाइयं पुण, जईग समए जो भणिय ।।४३५॥
व्याख्या - उक्तस्वरूपं स्वाध्यायमपि यत्नतोऽनायतनं वर्जयमेव कुर्यान स्वनायतने, इति स्वाध्यायद्वारानन्तरमनायतनत्यागदामुच्यत इति भावः। तत्रायतने-मोक्षाय प्रपतन्ते साधो यत्र तदायतनं-गुरुचरणमूलादि, कुत्सितमायतनं खीजनादि, अत आह-तत्पुनग्नायतनं यतीनां स्यादिकं द्रष्टव्यं । यतः ममरे भमितमिति गाथार्थः ।।४३५।। सिद्धान्तोक्तमेवाहविभूसा इत्यिसंसग्गी, पणीयं रसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विस तालउडं जहा ॥४३॥ दिश० ८-५६] = व्याख्या-विभूपा-बखादिराढा, येन केनचित्प्रकारेण श्रीणां [संसर्गस्तथा] प्रणीतरसभोजन-गलस्नेहरमाभ्यवहारः, एतत्सर्वमेय
विभूषादिः नरमात्मनवेषिण-आस्महितान्वेषणपरख विषं तालपुट पथा, तलमात्रध्यापतिकरविषकल्पमहितकरमिति गाथार्थः ॥४३६॥ । ननु जिनवचनमाविताना जितेन्द्रियवादिगुणयुक्तानां स्यादिसंसोऽपि न दोषाय भविष्यति, किं पुनरनया तर्जनया । इत्याहसिद्धंतजलहिपारं, गओ वि विजिइंदिओ वि सूशे वि । थिरचित्तो वि छलिज्जइ, जुवइपिसाईहिं खुदाहिं ॥४३॥
व्याख्या-सिद्धान्त एव जलधिस्तस्य पारङ्गतोऽपि विजितेन्द्रियोऽपि []रोऽपि स्थिरचित्तोऽपि छल्यते युवतीपिथाचीमिः द्रामिरिति माथार्थः ॥४३७॥ पुनईष्टान्तमारेण श्रीसंसर्गस्य दुष्टतमाहभयणनवणीयविलओ, जह जायइ जलणसनिहाणम्मि । तह रमणिसनिहाणे, विद्दवइ मणो मुणीणं पि ।।४३८॥
व्याख्या-यथा ज्वलनसनिपाने मदननवनीतयोक्लियो-द्रायः सञ्जायते, तथा रमणीनां सन्निधाने मुनीनामपि-सुसाधू
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
Actoन
प्रधानजीवानां जायत इति भण्डपिङ्गलकथानकं समाप्तम् ॥ हुण्डिकय क्षस्य शान्तः कथितः, स चैवमुच्यते
मथुराया इण्डिकचौरः समिपि नगरी मुष्णाति, अन्यदा कोट्टपालेन सलोनः प्राप्तः स शिप्तः शूलायो नृपादेशेन । तत. तेनातिपिपासितेन समीपे गच्छतो जिनदत्तश्रावकस्योक्तं-'भो ! भवतां दयामयो धर्मस्ततो महामाग! दीनस्य वृषितस्य मे पानीमा पहि 'परकायें एव घरन्ति जीवितव्यं धीराः' इति जिनदतः प्राह-यदि र नमस्कार निरन्तरं पठस्तिष्ठसि तदाऽहं पानीमानीय स्वामि, एवं च प्रतिपचे जलमानेतुं गते श्राद्ध नमस्कारोद्योपं कर्वभव कालं कृत्वा तदनुभावाद्यक्षो जातः । श्राद्धः पुनरमादाय वागतस्ताबदाजपुरुगृहीत्या गावः कथितौराणां भक्तदाताऽयमिति, शमा सोऽपि शूमाक्षेपार्थमादिष्टः, हुण्डिकयक्षवावधिना वैभवव्यतिकरं जाममागिरिमे यहीयोपरि स्थिसो गादि-अरे ! न जानीथ यूयं !, यदेतस्येह माहात्म्ये, तन्मुशव शीघ-श नन्यथा सकलां पुरीं चूरयिष्यामि, सतो राजा सपरिच्छदो भीतो हुण्डिकयशं पूजयति कारयति च तस्यायतनं, जिनदचं च । बामयित्वा विसृजति । यक्षश्च जिनदत् नत्वा भणति-तथा सर्वपापास्पदमप्यहं यदिखीं शादि प्राप्त गन् स तच नमस्कारदानक्रतः इसादा, ततः पुनः कार्य विषमेऽहं स्मर्चव्यः' इत्युक्त्वा यक्षा स्वस्थानममात् । इति द्रव्यतोऽपि गृहीतो नमस्कारः सुरदिहेतु यत ति गाथार्थः ॥४३८।। इति हुण्डिकयक्षकथानकं समाप्तम् ॥ इति कुरुत स्वाध्यायं, जिनेन्द्र भणितेषु वृतविमलभावाः । येनेह चितशान्तिः, प्रभवति गुणवृद्धिसंसिद्धिः ॥१॥
_इति पुष्पमालाविवरणे भावनाबारे स्वाध्यायरतिलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ।।१५।। अधानायननत्यागद्वार विमणिषुः पूर्वेण सम्बन्धमाँ गाथामाह
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
mommmmmmmmmm
बालक
क इव ? इत्याह-पोषितो-[विदेशमतो] धनायवणिक, तस्य भवन-गृह, तत्समीपे उपिनो-विश्रामहेतोः स्थितः, स चासो झुनिश्च । प्रोषितभवनोपितमुनिस्तद्वद । कः पुनरसावित्युच्यते
तगरापुर्या देवदत्तो वणिक, तस्य भार्या भद्रा, सुतोऽहमका, अन्यदा देवदत्तो वैराग्यादहनिमत्राचार्यसमीपे ससुतभार्यः | प्राधाजीत् । सुचारित्रपालनपरोऽपि पुत्र स्नेहेन लालयन साधुभिर्वारितोऽपि न परंसीत् । अईनको बहुलालितत्वात्सुस्वशीलो जातः। अन्यदा पितरि मृतेऽतिदुःखितः स्वयमेव भिक्षायै नमन् सुकमालः परीपहोपसगाई बाध्यते । अथ ग्रीष्मे परितप्तपालमुत्रने मिक्षार्थी भ्रमनसौ रढं परिश्रान्तः सर्वाङ्गस्वेदपूर्णः प्रोषितकमार्थवाहमहागृहच्छायायां याद्विश्राम्यति क्षणमेकं तारद्वइदिनमवियोगजनितमदनाग्निसन्तापा तद्गृहस्वामिनी बातायनस्था तपाशोषितगावमप्यईनक मुरूप सुकुमालं विलोक्याकार्य प्रचुरतरमोदकाचाहान् दत्वा शृङ्गारसारवचनाविकारप्रकारः स्वानुरक्तं तं कृत्वा स्वगृहे प्रच्छन्नमस्थापयत् । सोऽथ सबैः कामास्समग्रस्तपा समं भोगान् । भुञ्जन दिनानि गमयति । इतथ स सर्वतः साधुभिर्गवेषितोऽपि न दृष्टा, तजननी च साध्वी सुतस्नेहेन तं विलोकयन्ती अहमक अहंभक इति विलपन्ती 'दृष्टः क्वाप्यईषक' इति प्रतिजनं पृच्छन्ती भ्रान्तचिता पुरे बम्म्रमीति । अन्यदा राजपथस्था प्रच्छभगवाक्ष-14 स्थेन सुतेन घटा सा, ततो ललितोऽसावित्यचिन्तयत्
"पेच्छह अहो!! कुपुत्तो, सोऽहं इय जस कारणे एसा। एयावत्थं पत्ता, सुन्ना परिभमइ नयरीए ॥१॥" "अहया दुप्पुत्तेहिं, जापहिं किं फलं हवाइ अन्नं ?। जाओ अरणीए सिही, दाहं मोसूण किं कुणइ ? ॥२॥" इत्यादि स्वं निन्दन झमिति गेहानिर्गत्य मातरन्तिकमगात् । तं सहसा दृष्ट्वा सा हा पूर्वव्यतिकरमपृच्छन् । ततोऽस्याग्रहे ।
KX-
RSS
-
A
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुःखान्वितं प्रचुरतरं पर्यटन्ति, बोधि तु सर्वथा न लमन्ते, यदि तु के चिह्नमन्ते तेऽप्यतिकष्टेनेति गाथार्थः || ४४७॥
ननु सन्तु संतीचतुर्थव्रतमङ्गादयो विरुद्वाः देवस्यापि निःप्रयोजनस्य चैत्यद्रव्यस्य भक्षणं निवणमेवेत्याहइयव्वं साहा - रणं च जो मुसइ जाणमाणो वि । धम्मं पि सो न याणा, अहवा बद्धाउओ नरए ||४४८|| व्याख्या – चैत्यद्रव्यं प्रसिद्धं, साधारणं च - जीर्णचेत्योद्धारादिनिमिषमेकत्र स्थापितं द्रव्यं च यो जानन्नपि मुष्णाति-स्वयं क्षयति अन्येव मक्षयति भक्षयतो वाऽन्यत्समनुजानीते स एवम्भूतो जन्तुरनयैव चेष्टया ज्ञायते यदुत-सर्वज्ञोक्तं धर्ममपि न जानाति, या ज्ञातजिनधर्मोऽपि यद्येवंविधपापेषु प्रवर्तते तदा ज्ञायते यदुत - पूर्वमेव नरके बद्धायुकोऽयं, अन्यथा तत्प्रत्ययोगादिति धार्थः ॥ ४४८ || अथ चैत्यद्रव्योपेक्षिणां सदान्तं दोषमाह---
जमुवेतो पावइ, साहू विभवं दुहं च सोऊणं । संकासमाइयाणं, को चेइयदव्वमवहर ? || ४४९ ॥
-- पचेत्यद्रव्यमुपेक्षमाणः- सति साम देशनादिद्वारेण तद्राम हुन् साधुरपि, आस्तामन्यः स्वयं भवकादिः, वं-संसारमनन्तं प्राप्नोति, उक्तं च श्रीनिशी [धभाग्ये] थे---
"दविणासे, तहव्यविणासगे दुबिहए। साहु विभागो, अगत संसारिओ होइ ||१||" तथेत्यद्रव्यापहारिणां सङ्काश्रावकादीनां दुःखं चानन्तं श्रुखा कचैव्यद्रव्यमयहरति ?, न कोऽपीत्यर्थः । सङ्काशकथानकं स्वेत्रमुच्यतेx ः “ सयं च भइ । सह सामयि वेवर जाणंठों सो महापात्री ||" इति वृत्त्यन्वितमुद्रि
988188
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
L
anim
कृते वेन सर्वमायुक्तं तदने, ततोऽतिविपन्नशा तया संमारभ्रमणमयं दर्शविस्वास जिनदीक्षाभिमुखः कृता, सोऽपि संविग्नो गुरुपादमूले [पुनः] प्रामासीत् । ततो गुरूनत्वाञ्चदत्-भगान् । गतसर मोऽई, न चि दोघा रक्षित क्षमा, तद्यदि भवतामनुमतिः स्वाहा नशनं कृत्वा शीघ्रमेव खकाय साधयामि, आराधक इति ज्ञात्वा गुरुभिरनुज्ञातः पान्यालोप शलशिखामारुमा तपशिलातले कायोत्सर्गे स्थितो ग्रीमे मध्या सर्वतस्तापितः मुकमालो नवनीतपिण्डवद्विलयं गतः। शुभन्यानाद्वैमानिकस्सुरोऽभूत् । एवं संवर्गमात्रेऽपि बहुलानर्थकला महिला ज्ञात्वा तत्संसर्ग रतस्त्यजेदिति अन्नकथा समाप्ता॥
सम्प्रति संयतीसंसर्गस्य विशेषतोऽनायतनत्वमाह-- इयरत्थीण वि संगो, अग्गों सत्यं विसं विसेसेइ । जो संजईहिं संगो, सो पुण अइदारुगो भणिओ ॥१४॥
व्याख्या-तदेवं मुक्तप्रकारेण इतरानामपि गृहस्थकलिङ्गिखीणां सजा-सम्बन्धः अग्नि शखं विषं च विशेषयति-अतिशेते, अग्न्यादीनामेकमविकदुःखमाप्रदायकत्वात् स्त्रीसंसर्गस्य स्वनन्तमविकानन्तदुःखदायकत्वादिति भावः। यः पुनः संयतीनां साध्वीनां स, सोऽतिदारुणोऽनन्तानन्तरौद्रदुःखदायको भणित आगम इति विशेषेणासौ वर्जनीय इति गाथार्थः ॥१४६|| आगमोक्तपेशाह
चेझ्यदबविणासे, इसिघाए परयणस्स उड्डाहे। संजइचउत्थभंगे, मूलग्गी बोहिलामस्स ||४४७॥
व्याख्या-ह चैत्यं-सामान्येन जिनायतनं, तस्य सम्बन्धिद्रव्यं, तद्विनाशे कते, तथा ऋषिधाते-संयतचिनाशे कृते, प्रवचनस्य चोडाहे प्रकष्टाकत्यकरणेन कृते, संयत्याश्चतुर्थवतमझे कृते प्राणिना मूलाग्निदेवो भाति, कस्य ? बोधिलामस्व-सम्यक्त लामतरोरिति सर्वत्र योज्यते। अयम्भाव:-अन्येनापि महापापकरपणेन प्राणिनोऽनन्तं मवं बम्भ्रन्स्येव, एभिः पुनर्विशेषतस्तमेव
Mus
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
Pinteres
कइव ? इत्याह-प्रोषितो [विदेशङ्गतो ] धनाढ्यवणिक, तस्य भवनं गृहं तत्समीपे उषितो विश्रामहेतोः स्थितः स चासौ सुनिश्व प्रोषितभवनषितमुनिस्तद्वत्। कः पुनरसावित्युच्यते---
तगरा देवदत्त वणिक, तस्य भार्या भद्रा, सुतोऽश्वकः, अन्यदा देवदत्तो वैराग्यादमित्राचार्यसमीपे ससुतभार्यः प्रात्राजीत् । सुचारवंत टालम सिर्वारितोऽपि न व्यरंसीत् । अर्हनको बहुलालितत्वात्सुखशीलो जातः । अन्यदा पितरि मृतेऽतिदुःखितः स्वयमेव भिक्षायै भ्रमन् सुकुमालः परीपोप बाध्यते । अथ ग्रोमे परिकलनेमिक्षार्थं भ्रमणसौ दृढं परिश्रान्तः सर्वाङ्गस्वेदपूर्णः प्रोषितेकमार्थवाह महागृहच्छायायां यावद्विश्राम्यति क्षणमेकं तावद्वहृदिन म वियो गजनितमदनाग्निसन्तापा उद्गृहस्वामिनी वातायनस्था तपः शोषितामप्यकं रूपं सुकुमालं विलोक्याकार्य प्रचुरतरमोद काद्याद्दारान् दवा शृङ्गारसारवचनाङ्गविकारप्रकारैः स्वानुरक्तं तं कृत्वा स्वगृहे प्रच्छन्नामस्थापयत्। सोऽय सर्वैः कामसमग्रस्तया समं भोगान् भुञ्जन् दिनानि गमयति । इतश्च स सर्वतः साधुभिर्गवेषितोऽपि न दृष्टः, तञ्जननी च साध्वी सुतस्नेहेन तं विलोकयन्ती अर्हक news इति विलपन्ती' दृष्टः क्वाप्यईक' इति प्रतिजनं पृच्छन्ती भ्रान्तचित्ता पुरे बम्स्रमीति । अन्यदा राजपथस्था प्रच्छभगवाक्षस्थेन सुतेन दृष्ट्वा सा ततो लज्जितोऽसावित्यचिन्तयत्
h
'पेच्छह अहो !! कुपुतो, सोऽहं इय जस्स कारणे एसा । एयावत्थं पत्ता, सुन्ना परिभमइ नगरी ॥१॥
'अहवा दुप्पुरोहिं, जाहिं किं फलं हवइ अक्षं ? । जाओ अरणीए सिही, दाहं मोत्तृण किं कुणइ ? ||२||" इत्यादि स्वं निन्दन झगति मेहाभिर्गत्य मातुरन्तिकमगात् । तं सहसा दृष्ट्वा सा हृष्टा पूर्वव्यतिकरमपृच्छद् । ततोऽत्याग्रहे
66
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-यो लिङ्गिनी-साध्वी निषेवते, स कथम्भूतो?, लुब्धो-गृधः निःशूकस्तथा महापापः, तेन सर्वजिनानां ध्येयः | I5 सङ्घ आशातित इति गाथार्थः ।।४५०|| किश्च
पावाण पावयरो, दिन्भिासे वि सो न काययो। जो जिणमुदं समणि, नमिउं तं चेव धंसेइ ॥१५॥
व्याख्या-पापानां पापतरोऽसौं, दृष्ट्यभ्यासेऽपि दृष्टिसमीपेऽपि स न कर्त्तव्यो, यः किम् ? इत्याइ-बिनस्य मुद्रा यस्याः सा * जिनमुद्रा, तां जिनमुद्रां श्रमणी झानादिगुणाधारत्वेन नत्वा पुनस्तामेव धंसयति-चरणजीवितनाशेन च नाशयतीति गाथार्थः ॥४५॥
तस्यैव जिनमुद्राघातिनः पारत्रिक दोषमाह-- संसारमणवयग्गं, जाइजरामरणवेयणापउरे । पावमलपडलच्छन्ना, भवंति मुद्दापरिसणेण ॥१५२।।
व्याख्या-संसारमनवदग्रं-अपर्यवसितं जातिजरामरणवेदनाप्रचुर, प्राणिनो भ्रमन्तीति शेषः । पापमलपटलच्छमात्र | भवन्ति । केन ? इत्याह-जिनमुद्रापा-जैनव्रतरूपाया धर्षणेन-लोपेनेति गाथार्थः ॥४२॥
ननु श्रीलक्षणमेवामायतनं वर्जनीयं उतान्यदपि , तदर्जने च किं (अपरं) सेवनीयमित्याशङ्ख्याहअन्नं पि अणाययणं, परतित्थियमाइयं विवज्जेज्जा । आययण सेवेज्जसु, बुड्विकरं नाणमाईणं ॥१५॥
व्याख्या-अन्यदप्पनायतनं पातीथिकादिकं विवर्जयेत्-परिधरेव, आयतनं च सेवेत ज्ञानदर्शनचारित्राणां वृद्धिकरमिति गाथार्थः ॥४५॥ यतः
*
*
5
%
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावुगदव्वं जीवो, संसग्गीए गुणं च दोसं च । पावइ एत्थाहरणं, सोभा तह दियवरो चेव ॥४५॥
व्याख्या-जीवो हि भावुकद्रव्यं, अतः सामनेतरसंसण सुशं च वर्ष च प्राप्नोति, अत्रोदाहरणं सोमा तथा द्विजवरथेति गाथार्थः ॥४५४|| कथानक तूच्यते
भोगपुरे नमरे ज्वलनशिखो विप्रस्तस्य सूरानाम्नी भार्या युम्भं प्रश्ना, चित्रभानुनामा पुनः सोमानाम्नी सुता । तो ४ कलाकुशलो प्राप्तयौवनी पित्रा उत्तमकुले परिणाय्य शिक्षितौ-वत्सौ ! कुसंसर्गरतौ मा भवेता, यतःहै "तं न कुणइ बेयालो, अग्गी सत्वं महाविसो सप्पो। जं कुणइ कुसंसग्गो, माणुसस्स इह परमवविरुद्धो ॥१॥"
किञ्च--"पेच्छसु संसग्गीए, माह जेण कहनि एमेव । मिलिमो दुजणमज्झे, लहइ कुसंभोवणं असि || । मजणमझगओ पुण, महंतसंभावणाए इयरो वि। संभाविजय लोए, किमेत्य मणिरण अन्नेण? ॥३॥"
इत्यादिपिवृशिक्षा प्रतिपद्य सर्वजनैः सम आलापमात्र समं त्यक्तवन्तौ। अन्यदा पितरि मृते प्रासिवेश्यियाः शीलवती. है नाम्न्याः श्राविकायाः आसनत्वात्तद्वाक्यानि जैनधर्मानुगानि स्वकुम्बाग्रे भयमाणान्याकर्ण्य प्रबुद्धा सोमा चिन्तयति-पिवत्रोक्ता
सुसंसर्गस्तदा सम्यगजायते यद्यस्याः सङ्गतिः स्यादिति। तता सा शीरवत्याः सखी जाता, जिनधर्म ! प्रपेदे। शीलवती प्राइ-सखे। जिनधर्ममाहत्य यदि अविवेकिजनवचनम्त्वक्ष्यसि तदा संसारेऽतिम्रमिष्यसि, अतः कन्यासिद्धवदस्थिरचित्ता मा भनेः, यथा___ कश्चिदहिजो दरिद्रः कश्चन विद्यासिद्धमाराध्य विद्या लब्धवान् , साधिता तेन विद्या, विद्यादेवी तस्यैका कन्यां समय पाह
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
भो ! एषा कन्था सर्वसुखावहा, प्रत्यहं स्कोव्यमाना पश्च रत्नानि प्रत्येकं लक्षमूल्पानि गिरिष्यति, परं स्वाङ्गान मोच्या । यदि कदाचियसि तदाऽपराध इत्युक्ता देवता तिरोदधे। द्विजः कन्थावेषो जनैईसितस्तां त्यक्तान् दुःखीभूतः एवं ना त्यजेर्ममिति प्रतिपन्ने द्वादशतानि गुरुपार्श्वे ग्राहिना सोमा सुसंसर्गात्सर्वजनप्रशंसिता पवादीक्षां गृहीत्वा सिद्धिसुखभागभवत् । अथ चित्रभानुः पितुः शिक्षा पालयन् स्वगुणै राजमान्योऽभवत् । कस्यचिदधजातेः पुरुषख स्नेहवाक्यैस्तुष्टस्तं मित्रत्वे [न] प्रतिपन्नवान् । अथ तस्याघमजातेरधमकृत्यैश्वित्रभानुर्जनैरभक्ष्यभक्षणादिकलङ्क mafrat तुम्ही लावा पतनने जात्ययचिन्तयति-सा सोमा धन्या, यस्यास्तथा सुसङ्गतिर्माता अद्याप्यहमपि धन्यो यत्सङ्गतो मरणं न प्राप्तस्तदद्यापि सत्सङ्गतिं करोमीति विचिन्त्यातिशयज्ञानिमुनिपार्श्वे प्रत्यहं धर्मश्रवणात्प्रतिपन्न जिनधर्मविरं गृहे स्थित्वा ततः प्रवज्यां प्रतिपद्य परमपदं प्राप्तः । इति शुभाशुभसङ्गतेः फलं ज्ञात्वा सत्सङ्गतिः कार्येति सोमाद्विजवरयोः कथानकं समाप्तम् ॥
sereranaarti, सिद्धिसौख्यजनकं निशम्य भोः ॥ नित्यमायतनसेवने, मनो निश्चलं कुरुत कायवारयुतम् ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे अनायतनत्यागलक्षणं प्रतिहारं समाप्तम् ||१६|| अथ परिप्रादनिवृतिद्वारे विमणिपुः पूर्वेण सम्बन्ध गायामाह -
सुट्ठ वि गुणे धरतो, पावइ लहुयलणं अकित्तिं च । परदास कहानिरओ, उकरिसपरो य सगुणे ॥४५५||
व्याख्या - सुष्ट्रपि गुणान् घरन् लघुत्वं अवहीलनारूपं अकीर्ति च प्राप्नोति कः ? इत्याह-परदोषकथानिरतः, उत्कर्ष परद स्वगुणेषु इति परपरिवादात्मोत्कर्षाववश्यं त्याज्यावित्यनायतनत्यागद्वारानन्तरं परपरिवादनिवृचिद्वारमिति गाथार्थः ॥ ४५५॥
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
restore पर ा कथं परपरिवाद मन्तरेण स्थातुं शक्यते ? इत्याह-
आयरइ जइ अकजं, अन्न किं तुज्झ तत्थ चिंताए ? | अप्पाणं चिय चिंतसु, अज्ज वि वसगं भवदुहाणं ॥ ४५६ व्याख्या - आचरति यद्यकार्यमन्यः कश्चित्तर्हि तत्र किं तत्र चिन्तया प्रयोजन में हिकं पारणिकं वा ? न किश्चिदित्यर्थः, aaeenana face कथम्भूतं ?, अद्यापि वशगं भवदुःखानां कथं कथमेतैर्भत्र दुःखैर्मदीयजीव मोक्ष्यत इतीरमेव चिन्तय, किं परचिन्तया ? इति गाथार्थः ||४५७॥ अथ परदोषग्रहणेऽर्थाभावानर्थप्राप्ती एवेति प्राह -
परदोसे जंपतो, न लहइ अत्यं जसं न पावेइ । सुअणं पि कुणइ सत्तु, बंधइ कम्मं महाघेारं ||४५७|| व्याख्या - परदोषान् जल्पन लभते अर्थ धनं यशश्च क्वापि न प्राप्नोति, स्वजनमपि शत्रु करोति, तथा महाघोरंअतिरौद्रं कर्म बनातीति गाथार्थः ॥ ४५७ ||
नन्वस्तु सगुणस्यैव दोषाग्रहणं, निर्गुणस्य तु यथावस्थितभजने को दोषः १ इत्याशङ्क्याह
समयम्मि निग्गुणेसु वि, भणिया मज्झत्यभावया चेव । परदोसगहणं पुण, भणियं अन्नेहि वि विरुद्धं ॥ ४५८ व्याख्या -समये - सिद्धान्ते निर्गुणेष्वपि मध्यस्थभावतैव भणिता । यत्तु परदोषग्रहणं, तन केवलं समये, किन्त्वन्यैरपि तीर्थविरुद्धमेव भणितमिति गाधार्थः || ४५८ ॥ अन्योक्तमेशह—
लोओ परस्स दोसे, हत्थाहस्थि गुणे य गिव्हंतो । अप्पाणमप्पणी चिय, कुणइ सभी से व सगुणं च ॥ ४५९॥
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या - लोक आत्मानात्मनैव सदोषं च सगुणं च करोति किं कुर्वभित्याह-परस्य दोशन् गुणांच कमेण गृण्छन्, कथं ? " हत्थाहस्थिति साक्षात्स्वयमेवेत्यर्थः । यो हि यद्गृहातिक्त एव भवतीति भावः तस्माद्गुणिमात्मनः सममानेन परेषां गुणा एव ग्राह्मा इहि
इदं च माध्यं निर्गुणेष्वेव द्रष्टव्यम्, 'सर्वेऽपि प्रशंसनीया एवे 'ति तीर्थान्तरीयोक्तमेवेति दर्शयन्नाह-भूरिगुणा विरलच्चिय, एकगुणो वि हु जणो न सव्वत्थ । निद्दोसाण वि भई, पसंसिमो थेवदोसे वि ॥ ४६० ॥
व्याख्या - भूरयः -- प्रचुरा गुणा येषां ते भूरिगुणा विरला एव केचित्प्राप्यन्ते, अतस्ते प्रशंसनीया एव, तथा एको ज्ञानादिका पुष्टो गुणो यस्य स तथाभूतोऽपि जनो न सर्वत्र प्राप्यते, अवस्सोऽपि प्रत्रस्यत एव निर्दोषाणामपि भद्रं येषां गुणाभावasherभावोऽपि तेषामपि कल्याणमेवेत्यतस्तेऽपि प्रशस्था एवेति भावः । येषां च गुणाभावेऽपि दोषा अपि स्वोका एव, वानपि स्कदोषान् दोषबहुले लोके प्रशंसाम इति गाथार्थः || ४६० ॥ ननु वचनमात्ररूपायां परदोषोक्ती कथमित्र दोषसम्भवः ? इत्याहपरदोस कहा न भवइ, विणापओसेण सो य भवहेऊ । खाओ कुंत्तलदेवी, सुरी य इहं उदाहरणा || ४६१ ||
व्याख्या - बादरं सूक्ष्मं वा प्रद्वेषमन्तरेण परदोषकथा न भवति, स च प्रदेषः प्राणिनां मनहेतुरेष निर्दिष्टः, अत्र उपकः इन्तलदेवी परिषदाहरणानि, कोऽसौ तावत्क्षपकः ! इत्युच्यते
Ammava/AZOVINO/MAM
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्यापि गच्छे भरिबागमपारगोऽपि कर्मवशास्छिथिलक्रियः । एका पुनस्तन्छिन्यः सकलागमपारगः क्रियासु बाढमुयतः ।। सतो गुणमहुमानेन शिष्याः श्राकाश्चा[चा]) मुक्त्या शिष्यस्यैव पार्थे धर्म शृण्वन्ति, भक्तिं बहुमानं च कुर्वन्ति । ततः कर्मशात्प्रद्वेष वहति परिस्तथापि शिष्यः स्वोचितप्रतिपत्तिं न मुञ्चति। इति व्रजोत काले [सरिः] तथैव कलुपितचित्तो मृत्योद्याने विषधरो जातः। शिष्य आचार्योऽभूत् । अन्यदा बने बहिभूमिगमने सोहिः शेषान् साधूस्त्यक्त्वा तमाचार्य प्रति पूर्वपद्धपानुसन्धितो धावति नित्यं, 12 स्थचिरैशचाः प्रोक-कोऽपि विराधितश्रामण्योऽसौ। अथ तत्रैवागस्य समस्तः केवली साधुमिस्त मङ्गमाव्यतिकरं पृष्टः प्राह-18 पूर्वमधेऽसौ परिरासीत् , मोऽस्मिन् समत्सरो विधितचरणोऽहिर्जात इति । ततः संवेगभुगताः साधना केलिरचनातदुपशमनोपार्यर आमवारूपणमेव मत्वा तथैव च कृते सर्पः प्राग्भाव्यतिकरज्ञानेन सनातजातिस्मृतिः कृतमिथ्यादुष्कृत उपशान्तोऽननविधि। विधायोत्पनः मुरेष्यिति भोक्तव्यः प्रवेपः परपरिवादश्च मबहे तुरिति । इति सूरिकथा समाता॥
इति परपरिवाद प्रास्तसाधुवाद, परिहत हिताय स्वात्मनः मव्यपायम् । गुणिगुणगणनायां साधुवादप्रदायां, कुरुत शिवसुखाप्त्यै जैनधर्म च चित्तम् ।। १॥
इति पुष्पमालाविकरणे भानाद्वारे परपरिवादनिचिरूप प्रतिद्वारं समाप्त ॥ १७ ॥ अथ धर्मस्थिरतारूपं प्रनिद्वार बिभणिपुः पूर्वेण सम्बन्धयमाह-- पुवुत्तगुणसमग्गं, धरिउँ जइ तरसि नेय चारितं । सावयधम्मम्मि दही, हवेज जिणपूयगुज्जुत्तो ॥४६२।।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुसुमपुरे अग्निशिखानामा धयको रात्रे समागता कखापि गेयतानी स्थित तापस मान्योऽपि अहानामा साधुः संयमयोगेषु शिथिका प्राप्तः। सोपि तत्रैव गृहे उपरि भूमौ स्थितः। ततः स ाको नानाविध तरतपते, इतरा पुननिय 2 शुद्धस्ते । तता क्षमा प्रवेपबदति, चिन्तयति चयो निर्धर्मा प्रत्याभुकते लिङ्गोजीनरता, किपपतुष्ठान न करोति. उरि धमधामन्दान् कुर्वनातिकारणमिति प्रमुख प्रदेयं वहति का नया भिन्तपति-पुल धामनन्म, यदेवमतिक | तपः करोति, जिनो पालपति, नित्ये सर्वान् पापहान सहते। अहं पुनन्यिकीटो जिनामापरिभ्रष्टो विभूमानितो निधर्मा मुधा ।
भ्रमामीति तद्गुणगणं प्रशंसनात्मानं निन्दन भबं स्वल्यं करोति शुभभावेन । पकस्तथाप्रद्वेषभावेन भूरिभा जनयति । वृक्ष वर्षाराने द्वारि विहृतावन्यत्र । अथ अपकाक्षयकगुणरञ्जितजनस्तत्रागतः केवली द्वयोः कर्मशयखरूप पृष्टः पाद-मो जनाः! वपस्य | द्वेषवतोऽयकर्मक्षयोऽपरस्य शिथिलस्यापि अनुमोदनया बहुकर्मक्षयः, अतो विषमा जीवानां गतिरिति विज्ञाय विस्मितचित्त हेतु प्रदेषो बहुभिः प्रत्याख्यात इति क्षपकोख्यानं समाप्तम् ॥
अवनिपुरे जितशत्रुनृपस्य बहुराझीमिर्जिनप्रासादा कारिताः। तासु कुन्तलानाम्नी मुख्या तासा प्रासादेषु महोत्सवं दृष्ट्वा विद्वेष वइति । अन्यास्तु न खपरमा चिन्सयन्ति । अन्यदा कुन्तलादेवी रोगग्रस्ताऽऽसध्यानोपगता सालीचैत्येषु पूजाप्रदेषेण व मृत्वा निजप्रासादे शुनी जाता द्वारे तिष्ठति । केनचिज्ज्ञानिना तस्वरूपं ज्ञात्वा कृपया प्रारदेषस्वरूपं ज्ञापिता जातजातिस्मृतिरनचनेन मृता स्वर्ग गता, इति प्रद्वेषो दुःख फलो बाला साज्य, इति कुन्तलादेवीकथा समाप्ता ॥
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या-लोक आत्मानमात्मनेक मदोपं च सगुणं च करोति, किं कुर्वनित्याह-परस्य दोगन गुणांच कमेण गृण्इन् , कर्थ ? "इत्थाहस्थि"ति साक्षात्स्वयमेवेत्यर्थः । यो हि यद्गुहाति म तयुक्त एवं भवतीति भावः तस्माद्गुणिमात्मनः समीहमानेन परेषां गुणा एवं ग्राह्या इति गाथार्थः ॥४५॥
इदं च माध्यस्थ्यं निर्गुणेष्वेव द्रष्टव्यम् , 'सर्वेऽपि प्रशंसनीया एवे' ति तीर्थान्तरीयोक्तमेवेति दर्शयन्नाइभूरिगुणा विरलच्चिय, एकगुणो वि हु जणो न सव्वत्थ । निदोसाण विभई, पसंसिमो थेवदोसे वि॥४६०||
व्याख्या-भूरयः-प्रचुरा गुणा येषां ते भूरिगुणा विरला एव केचित्याध्यन्ते, अतस्ते प्रशंसनीया एष, तथा एको धानादिका पुष्टो गुणो यस्य स वथाभूतोऽपि जनो न सर्वत्र प्राप्यते, अतस्सोऽपि प्रशस्थत एव, निदोषाणामपि मद्रं, येषां गुणाभादबद्दोपामावोऽपि, तेषामपि कल्याणमेवेत्यतस्तेऽपि प्रशस्या एवेति भावः । येषां च गुणामावेऽपि दोषा अपि स्तोका एक, तानपि स्वोकदोपान् दोषबहुले लोके प्रशंसाम इति माथार्थः ॥४६०॥ ननु वचनमात्ररूपायां परदोपोक्तो कथमिव दोपसम्भवः ? इत्याहपरदोसकहा न भवइ, विणापओसेण सो य भवहेऊ । खवओ कुंतलदेवी, सुरी य इहं उदाहरणा ॥४६॥
___व्याख्या-मादरं सूक्ष्मं वा प्रदेषमन्तरेण परदोषकथा न भवति, स च प्रवेषा प्राणिनां माहेदरेव निर्दिष्टा, अत्र भएका अन्तलदेवी परियोदाहरणानि, कोऽसौ ताक्षपकः । इत्युच्यते
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
%D
व्याख्या---पुष्पेषु तावस्कीरयुगलं-शुकमिधुनमुदाहरण, गन्धादिषु विमलशखबरसेनाः शिश्वरुणसुयशस्सुव्रता क्रमेण JP पूजायामुदाहरणानीति गाथार्थः ॥४६॥ तानि चासूनि
__ अन्न भरते मध्यमखण्डे बनविशालाटच्या खेचरकारितरत्नमयजिनभवनबारे सहकारे कीरयुग्मं स्थितं, श्राद्धान् श्रीजिनं पूजयन्तो दृष्ट्वा हृष्ट, तदापि वनकुसुमैजिनमपूजयत्, शुभभावप्रकर्षालब्धं चोधिबीजं, तत्पुण्याच्छुकजीवः पृथिवीतिलकपुरे जितशत्रुनृपपुत्रोऽजनि । तस्मिन् गर्भस्थे मातुः स्वप्ने कुण्डलयुगलदर्शनापितुर्निधिप्राप्तेश्च निधिकुण्डल इति तमाम कृतं, कीरभार्याऽपि मृत्वाऽन्यत्र पुरे पुरन्दस्यज्ञानाम्नी नृपनन्दना दैववशानिधेिकुण्डलस्य राज्ञी (तातत्र तो भोमान् भुक्त्वा जिनधर्मपरौ द्वितीयकल्पे शकसामानिको जातो, तरुणयुतो, निधिकुण्डलजीवो ललिताङ्गनामा नृपपुत्रोऽभूत् । अन्योऽप्यमरो नृपगृहे उमादेवी पुत्री जाता। तत्रापीयं स्वयंवरा ललिताशेन परिणीता। ततो राज्यं प्रपाल्य तीर्थका पार्श्वे प्रव्रज्य सम्यगाराध्य द्वाक्पीशानदेवलोके देवौ जाती। ततो ललिताङ्गजीवो देवसेनाख्यो राजसुता सनातः, इतरोऽपि वेतात्ये चन्द्रकान्तामिधा खेचरपुत्रीस्वेन सजातः । तत्रापि देवसेनो देवश्चातां परिणीय राज्यं भुक्त्वा पश्चात्प्रवज्या प्रतिपय परिपाल्य प्रमलोके द्वावपीन्द्रसामानिको सुरौ जाती। तसभ्युत्वा देवसेनसुरो महाविदेहे पूर्वभाये प्रियङ्करामिश्चक्रवर्ती इतरस्तस्यैव मन्त्री जातः । पूर्वभवाभ्यासतस्तयोरत्यन्तं प्रेमासीत् । ततो विस्मितचित्ताभ्यो ताभ्यामन्यदा स्नेहकारणं पृष्टस्तीर्थकरः कीरभवादारभ्य जिनपूजनादिवृत्तान्तं तयोस्सर्वमचीकयत् । तमूस्खा संवेगात्ताभ्यां तस्यैव तीर्थकरस्य पादमूले प्रवज्या प्रतिपना, कालेन तौ गीतार्थो भूत्वा तीब्राभिग्रहान् प्रपाल्य केवलज्ञानवत्पाधापगतकर्माशी सिद्धौ । इति कीरयुग्माख्यानकं समाप्तम् ।
EAR R-RHESARKAR
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ जम्बूद्वीपे महाविदेहे पुण्डरीकियां पुर्यां वरसेनश्चक्री, सोऽन्यदा समवसरणे जिनदेशनां शृणोति, वावत्सप्तमकल्पादष्टौ सरान् दीप्तिभासुरान् सुरभिगन्धवासितसर्वपर्पदो बन्दनार्थमागतान् दृष्ट्वा विस्मितश्चक्री जिनमपृच्छन्-भगवन् ! एते देवा कृत आणता ?, के च पूर्वभवे आसन् ?, किमतः हा कृतं तं', पहिला सामग्रमादि गुरगणं परिभवन्ति । जिनः प्राह-धातकीखण्डभरते महालयपुरे वसुश्रेष्ठी, तस्य धन-विमल-शव-बरसेन-शिव-वरुण-सुयश:-सुव्रतनामानोऽटसुताः । सर्वे कलासु कुशला रूपलावण्य गुणकलिताः स्थिरचित्तास्तीर्थकरपावेऽविधपूजाफलं श्रुत्वाऽष्टावपि प्रत्येक तां विधाय कुसुमादिभेदेवेक मेदं विशेषतः सम्पाद्य पञ्चविंशतिलक्षपूर्वाणि जिनपूजां विधाय तथा द्वादशवतानि निरतिचाराणि प्रतिपाल्य पर्यन्ते मासं मासमनशनं कृत्वा सप्तमकल्पे सर्वेऽप्येकस्मिन्नेव विमाने सप्तदशसागरायुषः सुरा जाताः, जिनघूजामाहात्म्यतत्रिभुवनजनमनोहारिरूपादिगुणाः प्राप्ताः । अवभिना पूर्ववृत्तान्तं ज्ञात्वाऽस्मदर्शनार्थमागता एते, अतश्युत्वा विदेहेषु सेत्स्यन्ति, इति श्रुत्वा चक्रवनिप्रभृतिप्रभूतजनो जिनपूजाअभिग्रहान् गृहीत्वा प्रतिपाल्य परमफलं प्राप्तवान् । इति पूजाफले विमलादिकथानकं समासम् ॥
इइ च कुसुमपूजोदाहरणे धननाम्नि विद्यमाने यत्पूर्व कुसुमेषु कीरयुग्मोदाहरणमुक्त, तत्तथाविधविवेकविकलानां तिरश्वामपि मावशुद्ध्या जिनपूजा विधीयमाना मदते गुणाय स्थाद, किं पुनर्मनुष्याणामित्यस्वार्थस्य दर्शनार्थ मन्तव्यम् । तस्मिथ ॥ तत्रोक्ते यदिह सूत्रेऽनुपातमपि कुसुमे धनोदाहरणं तत्प्रस्तुतकथासम्पूर्णतासम्पादनार्थमनसेयमिति।
अथ जिनदीक्षा कर्तुमसमर्थो यदि श्रावकत्वमपि जिनपूजनादिना सम्यग् नाराधयेत्तदा तेन हारितमेव जन्मेति दर्शयन्नाहअन्नो मुक्खम्मि जओ, नत्थि उवाओ जिणेहिं निद्दिद्यो। तम्हा दुहओ चुक्का, चुक्का सबाण वि गईणं ।।४६६॥
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्या — यतो- यस्माद्विशिष्टयतिधर्मभावकधर्मावन्तरेणान्यो मोक्षविषये नास्त्युपायः कोऽपि जिननिर्दिष्टः तस्मात् "दुहओ" ति विशिष्टयतिधर्म-श्रावकधर्मास्यां प्रकाराभ्यां ये "बुक्क"ति भ्रष्टास्ते सर्वेभ्योऽपि गतिभ्यः - प्रकारेभ्यो भ्रष्टा एव द्रष्टव्या इति गाथाथी ४६० ततः किमित्याह - तो अवगयपरमत्थो, दुविहे धम्मम्मि होज्ज दढचित्तो । समयम्मि जओ भणिया, दुलहा मणुवाइ सामग्गी ||४६७॥ ॥ व्याख्या - ततोऽवगतपरमार्थः सन् यतिश्रावकमेदाभ्यां द्विविधे धर्मे दृढचित्तो भवेस्त्वं यतः समये सिद्धान्ते दुर्लभा मनुष्यत्वादिसामग्री भणितेति गाथार्थः ४६७॥ तचातिदुर्लभं मनुजत्वं कथमप्यवाप्य यो धर्मविषये प्रमाद्यति स मरणकाले शोचतीत्याहअइदुलहं पिलहुं, कहमवि मणुयत्तणं पमायपरो । जो न कुणइ जिणधम्मं, सो झुरइ मरणकालम्मि ||४६८||
उक्तार्था ||४६८ ॥ कथं शोचतीत्याह
-
जह वारिमज्झछूढो व्व, गयवरो मच्छउव्व गलगहिओ । वग्गुरपडिओ व मओ, संवद्इओ जहव पक्खी ॥४६९ ।। व्याख्या - गजबन्धनोपायभूतं यस्कूटं विरच्यते तद्वारीत्युच्यते, ततो यथा तन्मध्यक्षितो गजः शोचति पचाचापं करोति, यथा वा वंशाग्रत्रपर्यन्तमवामिषखण्ड लोहमयचक्र कीलवरूपेण गलेन - बिडिशेन गृहीतो गलगृहीतो मत्स्यः शोचति, यथा वागुरा यामाखेटिक जनप्रसिद्धायां पतितो मृगः शोचति, संवर्धितो वा पाशेन बद्धः पञ्जरे क्षिप्तो यथा पक्षी शोचति तथा जीवोऽप्यकृतशुभसश्चयो मरणकाले शोचतीति गाथार्थः || ४६९ || यस्तु विभवादिष्वस्थिरेषु प्रतिबद्धो धर्मे प्रमाद्यति सोऽप्यज्ञ एवेत्याह
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
जललबचलम्मि विहवे, विजुलयाचंचलम्मि मणुयत्ते। धम्मम्मि जोऽवसीयइ, सो काउरिसोन सप्पुरिसो॥४७०
___ व्याख्या-कुशाग्रवर्तिजलबिन्दुर्जललवस्तश्चञ्चले-क्षणध्वंसिनि विभवे, तथा विद्युल्लताचञ्चले मनुजत्थे, उपलक्षणाचौवनहै स्नेहादिवस्थिरेषु सत्सु यो धर्मेऽसीदति स कापुरुषो, न सत्पुरुषः, इति गाथार्थः ।।४७४।।
किश्च यदि विषयादीन् वाञ्छसि तथापि धर्म एवोद्यम कुर्वित्याहवरविसयसुहं सोहग्ग-संपयं पवरस्वजसकित्तिं । जइ महसि जीव! निचं, ता धम्मे आयरं कुणसु ॥४७१॥
व्याख्या-वरं विषय सुखं, सौभाग्यसम्पदः, प्रवरं रूपं, यश कीतिं च यदि महास-श्लाघसे वासोत्यर्थः, रे जीव ! ताई धर्म एवारं कुरु, यतस्तत्सम्पद्यते, तत्कारणत्वाद्धर्मस्येति गाथार्थ ॥४७॥ ननु धर्मेण विनाप्यमृनि वाञ्छितानि भविष्यन्तीत्यत्राह धम्मेण विणा परिचिं-तियाई जइ हंति कहवि एमेव । ता तियणम्मि सयले, न हज्ज इह दुक्खिओकोई।।४७२।
व्याख्या-धर्मेण विनाऽपि यदि कथमप्येवमेव चिन्तितानि भवन्ति, तर्हि इह सकले त्रिभुबने कोऽपि दुःखितो न भवेत्, दृश्यन्ते च नानादुःखानुभवमाजिनो जीया इति चिन्तितार्थिना धर्म एवं कार्य इति ग थार्थः ।।४७२।।
न च वाच्यं धर्माधर्मों न स्तः, सुख दुःखादेस्तत्कार्यस्य दर्शनादित्याह-- अतुल्ले वि माणुसत्ते, के वि सुही दक्खिया य जं अन्न। तं निउणं परिचिंतसु, धम्माधम्मफलं चेव ॥१७॥
व्याख्या-तुल्येऽपि मानुषत्वे केऽपि सुखिता दृश्यन्ते दु:खिताश्च यदन्ये तद्धर्माधर्मफलमेवेति निणं-सम्यक् परिचिन्तय।
पर
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
अयं चार्थों विमलयशाकथायां प्राप्रपश्चित इति नेह प्रतन्यत इति गाथार्थः ।।४७३. अथ सदृष्टान्तं प्रस्तुतोपसंहारमाहताजइ मणोरहाण वि, अगोयरं उत्तम फलं महसि । ता धणमित्तोव्व ददं, धम्मे च्चिय आयरं कुणसु ॥४७४||
व्याख्या—ात एवं तद्यदि मनोधानामोरं किमयुत्तम [फलं] वाञ्छसि, तर्हि धनमित्र इव दृढं धर्म एव कुर्विति | गाथार्थः ॥४७४॥ कथानकं तूच्यते ..
इह जम्बुद्वीपे भरते विनयपुरे वश्रेष्ठी, भद्रा भार्या, तयोः पुत्रो धनमित्रः, बास्येऽपि तस्य कियदिनैर्द्रविणं कुटुम्बं | च भयङ्गतं, कथमपि कप्टेन यूद्धिजनः। प्राप्तयौवनस्य तस्य द्रव्योपार्जनोपाया निष्फला अभवन् , दुःस्वादने गतः, क्षीरवृक्षे प्ररोहद्वयं | इष्टवाऽधो निधानवयमज्ञासीत् । भुवं खनित्वा विलोकयति तदाऽभाग्याचयोरङ्गारान पश्यति, ततो धनाथे पुनर्वहा जलस्थलगिरि
सहस्राम्रकने केवलज्ञानिनं श्रीगणमागरमरि स्वप्राग्भवमपृच्छत, किन मया चके ? येनेहशोऽहं दाखीति । मरिराह-अत्रेच विजयपुरे नगरे प्राक् त्वं गङ्गादत्तनामा गाथापतिरासीद, स च धर्मस्य नामापि न वेत्ति, धर्मकरणप्रवृत्तानां च विघ्न करोति, स्वभावात कोधनः, कस्यापि कार्दिकामानं लाभं द्रष्टुं न शक्नोति, विविधोपायलाभविघ्नं जनयति, यदि पुनः कस्यापि लाभ प्रेक्षते तदा दाधवरादिमिगृह्यते । अन्पदा सुन्दरनाम्ना श्रावकेण कृपया कथमपि नीतो मुनीना पाश्व, तैरप्युक्तो धर्मः, ततः किश्चित्स्वभावेन श्रावकोबरोधेन च नित्यचैत्यवन्दनामिग्नहेण सम द्वादशवतानि प्रतिपद्य गृहं गतो गङ्गदत्तः । ततः कानिचिदति|| चारमलिनानि करोति व्रतानि कानिचिन्मूलतो नाशयति, एकं पुनर्नित्यचैत्यवन्दनाभिग्रहं द्रव्यभावाभ्यां प्रतिपालितवान्, परेषां | लामविघ्नादिकुर्वन् समत्सरो मृत्वा धनमित्रस्त्वं जाता, बतभङ्गादिसमुत्पन्नपापपटलेनोत्तमकुलोऽपि नि:स्वोऽसि । ततस्तदालोन्य
नमरण
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्ध धर्म कुर्वन्यदा कञ्चन नरं निर्धि व्यक्तयन्तं दृष्ट्वाऽपृच्छत् भोः ? किं करोषि ?, सग्राह- मत्पित्राऽत्र खर्ण प्रोक्तं परमारा सन्तीति त्यजामि नूनं वचितोऽहं धनमित्रो विलोकयति तावत्स्वणं पश्यति, ततस्तस्योचितं मूल्यं दत्वा ते धनदशेन गृहीताः, गृहे गत्वा यावत्सम्भालयति तावत्रिभ्रत्सहस्राणि सुवर्णस्य जातानि तभिधानादिधनेन बहुधनमर्जयित्वा धर्म एव व्ययति, पूर्णिमामा arters मीचतुर्दशीषु प्रतिमया तिष्ठति तद्धर्मप्रभावात्कीर्त्तिर्लक्ष्मीचातिविस्तारं प्राप्ताः । अनेकधा शासनप्रभावनाः कृत्वा प्रवज्य प्रतिपद्य व दीर्घकालं पर्यायं प्रतिपाल्य सिद्धः श्रीधनमित्रः, एवं समतिक्रान्तान्यपि सौख्यानि धर्मादेव जायन्त इति धर्ममेव कुरुत इति धनमित्रकथानकं समाप्तम् ॥
इति हि यदि भवन्तः शर्मसम्पत्सतृष्णाः खमनसि विकसन्तः सन्तु धर्मैकनिष्ठाः । न खलु किमपि यस्मादन्यदस्त्यर्थसिद्धी, प्रवरकरणभूतं भूतले प्राण भाजाम् ||१|| इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे धर्मस्थिरतालक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ||१८||
अथ परिज्ञाद्वारं, तत्र परिज्ञानं परिज्ञा, सा च द्विघा - ज्ञानतः फलत तत्राद्या हेयोपादेयवस्तुपरिज्ञानरूपा, फलतस्त विरयाराधनात्मिका, "ज्ञानस्य फलं विरति" रिति वचनात् । विरत्याराधनाऽपि द्विविधा - पर्यायपरिपालनका पर्यन्तसमये च exareerfuत्य पूर्वग्रन्थेन सम्बन्धगर्भमुपदेशमाह
सव्वगुणविद्धं दीहं परिपालिऊण परियायं । तत्तो कुति धीरा, अंते आराहणं जम्हा ||४७५ || व्याख्या इति पूर्वोक्तधर्मस्थिरतापर्यन्तः सर्वैरपि विशुद्धं दीर्घ-चिरकालं परिपालय चारित्रपर्याय, ववश्चान्ते-मरणकाले
----
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रत्यास धीरा-महासमा संलेख नापूर्व पादपोपगमनादिरूपामाराधनां कुर्वन्ति तीर्थकदादयः, अत एव हि धर्मस्थिरतापर्यन्तानि द्वाराण्यभिधाय तदन्ते परिज्ञाद्वाराभिधानमिति सम्बन्धमणनं । कुतस्ते पर्यन्ते आराधनां कुर्वन्ति ? इत्याह-"जम्ह”ति यस्मादिदभागमे प्रोक्तमिति गाथार्थः ।।४७५॥ आगमोक्तमेवार--- मुचिरं पि तवो तविय, चिन्नं चरण सुयं च बहुपढियं । अंते विराहइना, अणतसंसारिणो भणिया ॥४७६॥
व्याख्या - यः सुचिरमपि तपस्तन, चरणं चीणे, श्रुतं च बहुपठितं, तथाप्यन्ते तपःप्रभृवीन विराधयित्वा अनन्तसंसारिणो भणिता इति गाथार्थः ।।४७६|| दुर्लभं चान्ते समाधिमरणमित्याह-- काले सुपत्तदाणं, चरणे सुगुरूण बौहिलाभं च । अंते समाहिमरणं, अभबजीवा न पावति ।।४७७॥
व्याख्या-काले-तथाविधावसरे सुपात्रदान, तथा सुगुरूणां चरो-समीपे इत्या, बोधिलाभ च, तथा अन्ते समाधिमरणं, अभव्यजीश उपलक्षणाद्रमब्या अपि न प्राप्नुवन्तीति गाथार्थः ॥४७७॥ अथाधिकृतमरणस्यैव स्वरूपमाहसपरकमेयर पुण, मरणं दुविहं जिणेहिं निहिडें । एक्केक पि य दुविहं, निवाघायं सवाघायं ॥४७८॥
व्याख्या-इह प्रस्तुतमरणं पुनजैनेन्द्रद्विविधं निर्दिष्टं, सपराक्रममितरदपराक्रममिति । तत्र सह पराक्रमेण-भिक्षाचर्यादिगमतगणान्तरसङ्घक्रमणादिरूपेण वीर्येण वर्तत इति सपराकमस्तशाभूतो यन्मरणं प्रतिपद्यते तत्सप क्रिम, तद्विपीतमपक्रमां पुनरेकै द्विधा-निप्पात सव्याघातं च 1 अपमर्थः-रोगपीडासर्पदशनाग्निदाहनधातादिकन व्यपातेन विनापि खस्थावस्थायां | यो मरणं प्रतिपद्यने तत्सपराक्रमसापराक्रमस्य च नियाघात । तद्विपर्यये तु सव्याघातमिति पाथार्थः ।।७।।
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
HLNDLINES
अध स्त्रकदेव सपराक्रममरणखरूपमाहसपरक्कम तु तहियं, निवाघायं तहेव वाघायं । जीयकप्पम्मि भणियं, इमेहिं दारेहिं नायव्यं ।।४७९॥ ___ व्याख्या-तत्र मरणयोर्मध्ये सपराक्रमं तु निर्णाघातं तथैव व्याघातयुक् च 'जीतकल्पभाष्ये' एतैरनन्तरवक्ष्यमाणार भणितं ज्ञातव्यमिति माथार्थः ४७९॥ तान्येव द्वाराण्याह- . . . सगणनिरसणपरगणे, सिति संलेहे अगीयसंविग्गे। एगोऽभोयणमन्ने, अणपुच्छे परिच्छया लोए ॥४८०॥ ठाणवसहीपसत्थे, निज्जवगा दवदायणे चरिमे । हाणिपस्तितनिज्जर--संथारुबत्तणाईणि ।।४८१॥ सारेऊण य कवयं, निवाघाएण चिंधकरणं च । वाघाए जायणया, भत्तपरिणाएँ कायब्वा ॥४८२॥
व्याख्या - इह-भक्तप्रत्याख्यानं चिकीर्षुणा आचार्यादिना खगणानिस्सरणा-निर्गमनं समयोक्तयुक्त्या कर्तव्या १ मा परगणे च विधिना सङ्क्रमण कार्य, कुत एतदित्युच्यते-खगच्छे हि तिष्ठन्तं संलिखितशरीरै पालोकप्रस्थिनं आचार्यादिकं दृष्ट्वा साच्यादयो रोदनाक्रन्दनादिकं कुर्वन्ति, सतस्तस्याचार्यादेानविघ्ना सम्पद्यते, तथोपकरणादिव्यतिकरे कलहयतः साधून दृष्ट्वः तस्यासमाधिरुत्पद्यते, इत्यादि कारणकलापः सिद्धान्तादवसेष इति २ । 'सितिति श्रेणिविशेषतः पर्यन्ताराधनासमये प्रशस्ताध्यवसायपरम्परालक्षणव भाक्श्रेणिः प्रतिपत्तच्या ३। 'संलेहे'त्ति संलेखन संलेख:, शरीरायपकर्षणरूपा सैलेख नेत्यर्थः, सा च त्रिधा-जपन्या पाण्मासिकी मध्यमा सांवरमरिकी उत्कृष्टा द्वादशवार्षिकी। सा चवं---
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
MichakKKwor..
"चत्तारि विचित्ताई, विगईनिजहियाई चत्तारि । संघच्छराई दुनिय, एगंतरियं च आयाम ॥१॥" “नाइविगिट्टं च तवा, छम्मास परिभियच आयाम । अन्ने वियछम्मासे, कुणइ विगिटूटं तयोकम्म ॥२॥" "वास कोडीसहियं, आयामं कुणइ आणुपुब्बीए । बारस वासा संले-हणाए इय हुति उनोसा ॥३॥"
इह च छादशे वर्षे पारणादिने भोजनं कुर्वन् प्रतिदिनम्नोदरता तावत्करोति थावदेकमेव सिक्थं मुलते, किश्चह पर्यन्तवर्तिनश्चतुर्मासान यावदेकान्तरितेषु पारणकदिनेषु चिरं तेलगण्डुषमसौ मुखे धार्यते, ततः खेलमल्ल के भस्मनि प्रक्षिप्य मुखमुष्णोदकेन शोधयति, यद्येवं न कार्यते तदा वायुना मुखमीलनसम्भवेऽन्त्यसमये नमस्कारमुचारयितुं न शक्नोति, तदेवमेतदनुसारेण जघन्यमध्यमेऽपि संलेख्ने कार्ये, तदन्ते च भक्तप्रत्याख्यानाद्यन्यतरन्मरणं प्रतिपद्यते इति ४। 'अगीय'त्ति अगीतार्थान्तिके भक्तं न . प्रत्याख्यातव्यं, ते हि भुवापिपासादिना वाध्यमान भक्तादियाचमानं मक्तप्रत्याख्यातारं दृष्ट्वा सहसैव परित्यजन्ति, नत्रोक्तयतनया। जापति, ततोऽयमार्तध्यानपतितो व्रतमपि त्यजेत् , मिथ्यात्वं गच्छेत् , मृत्वा च व्यन्तरादिषु चोत्पन्नस्तेषामुपधाताय प्रवर्त्तते, इत्यायन्यूय, गीतार्थास्तु तथाविधं तं दृष्ट्वा समाश्चास्य स्थिरीकृत्य समाधिमुत्पादयन्ति, ततः सुगतिगामिनममुं कुर्वन्तीत्यायन्यतरं ज्ञात्वा । | गीतार्थान्तिके एवं भक्तं प्रत्याख्यातव्यमिति ५। 'संविग्गे' चि गीतार्थस्थापि संविनस्यान्तिके मतं प्रत्याख्यातव्यं, न शिथिलस्य,
सो द्याधाकर्माद्याहारौषधपथ्यादिसमानीय प्रयच्छति, यशकीर्तिकामितया जनविज्ञातं करोति, ततो लोका पुष्पाघारम्भ करोतीत्यादि | दोषा अभ्यूह्या: ६ । 'एग' ति गीतार्थसंविग्नोऽप्येको निर्यापको न कार्य:, किन्तु वक्ष्यमाणसङ्ख्योपेता अनेके, अन्यथा मक्तर प्रत्याख्यातुर्निपिके पानकादिप्रयोजनेन गते सति तस्यार्चध्यानादयो दोषाः स्युरिति ७। 'आभोयण'चि आभोगनमाभोमोऽति
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
arattimeयोगः, अयमर्थः- मक्तं प्रत्याख्यातुमुयते खाणादौ सूरिणा स्वपमतीन्द्रियज्ञाने उपयोगो दातव्यः किमयं स्वप्रतिज्ञायाः पारमोन वा ?, आयुः परिसमाप्तास्यामुकदिने सम्पत्स्यते । इत्यादि । अवत्परिज्ञानं खरं नास्ति तन्ये पृच्छायन्ते तदभावे तु मन्त्रसामर्थ्याकृष्टा देवताः पृच्छयन्ते तदभावे शकुन्द्रि पर्यालोचनीयमिति ८ । 'अत्रे' ति अन्यस्मिन् साधौ भक्तारिज्ञार्थमुपस्थिते विधिव्यः, यथा - पधेककालं द्वौ साधू मक्कररिज्ञार्थमुरस्थितौ तदेकः संलेखन करोत्यपरस्तु क्तप्रत्याख्यानं कार्यते, तृतीयादयोऽपि च यद्युतिष्ठन्ति तदा तद्योग्याया अपि निर्वारकादिसामयः सद्भावे तेऽप्यङ्गीक्रियते, अन्यथ sऽर्त्तव्यानादिसम्एवाभिषिद्ध्यन्ते, यथ भक्तप्रत्याख्याता अङ्गीकृतोऽस्ति स यदि कथचित्प्रत्याख्यानाद्भज्यते जने च मक्तप्रत्याख्यातृतया ज्ञातो भवति तदा या संलेखनां कुर्वेस्तिष्ठति स एव तत्स्थाने मित्येवोपपते, चिलिमिली चान्तरा बध्यते, येश्व पूर्व ज्ञातो दृश्य ते यदि बन्दनार्थमागच्छन्ति तदा तेषां पावात्यो न दर्श्यते किन्तूच्यते-द्वारस्था एव वन्दध्वमित्याग नोक्तयतना वक्तव्येति । अगपुच्छ' चि खगगमनापूच्याचार्येण भक्तपरिज्ञेोद्यतः सहसैव नाही कर्तव्यः, गच्छस्य तस्य न बृहद समाधिप्रसङ्गादिति प्रतीतमेवेति १० । 'परिय' ति अथ परीक्षणं परीक्षा, सा चागन्तुकस्याचार्येण गच्छामि कार्या, किमसौ जितेन्द्रियत्वादिगुणैर्युक्तो न वेति, आगन्तुकेनापि च तेषां साधूनां परीक्षा कार्या, किमेते पतिजिनवचना न देत, तथाहि भक्तं प्रत्याचिख्यासुः समागतमात्रोऽपि तान् वक्किल मशालिदुग्धादिकं मम भोजनार्थ समानयत यूयं सतबाह 11 जितेन्द्रियो भक्तप्रत्याख्यापनार्थमागतोऽस्तीत्यादिण्डमभिधाय यदि इसन्ति कुप्यन्ति वा तदा अभाविताnee एते मम समायुत्वादका न भविष्यन्तीत्याकलय परिहर्तव्याः । अथेव्छाम इत्युक्त्वा तत्प्रतिपद्यन्ते तदाऽईद्वचनमाचि
A
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वादङ्गीकतव्याः । आनीते च कमलशाल्यादी सुन्दरमिदं जामीति गृद्धो यथसौ भोक्तुमारभते तर्हि यद्याहारे गृद्धिं त्यक्ष्यसि तदा भक्तपरिज्ञायोग्यो भविष्यसीत्याद्युक्त्वा अजितेन्द्रियत्वादागन्तुक्रोऽपि तेः साधुभिस्त्याज्यः अथैवं वक्ति, यदुत - पूर्वगृहीarettes व वृतस्तस्कमिदानीमनेन तु तं प्राप्स्यामि ?, तस्माद्यद्यपि मया कथञ्चिदिदमा गयि तथापि न भोक्ष्यामीत्यादि, तदा योग्यत्वात्स्त्रकर्त्तव्यः । आचार्येणाप्यागन्तुकः परीक्षार्थमित्थं वक्त देवानुप्रिय ! संलेखना त्वया सम्पक्कता नवेति, सतब कोपादङ्गुलीं भङ्क्त्वा पश्याचार्य ! अद्यापि मम शरीरे किञ्चिच्छोणितादि वीसे १, दन्त 11 किमीeateमपि मां कृतसंलेखनं न येत्सि ?, येनेत्थं पृच्छसि । तवश्व सूरिणा वाच्यं किं द्रव्यसंलेखनया है, मात्रलेखनेत्र कर्तव्या, सा च स्वयाऽद्यापि न कृतः, httलखितत्वादित्याद्युक्तः सन् यदि मिथ्यादुष्कृतं दवा धमयति तदा स्वीव्यो नान्यथा, एवमन्याऽप्यत्र परीक्षा वक्तव्येति ११ । 'आलोए' ति आलोचनमालोचना, सा च तस्मिन्समये विशेषतः सम्यग् दीक्षाग्रहण कालादारभ्य दातव्या, तस्यां दायाँ ये गुणास्तदप्रदाने च ये दोषास्तद्ग्रहणविधिवेत्येवमादिसत्रे पूर्वमालोचनाद्वारोक्तं द्रष्टव्यम् १२ । 'ठाण ' ति, प्रशस्तशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततत्र प्रशस्ते स्थाने भूमागलक्षणेऽसौ अनशनविधिः कार्यते । अयम्भावः यत्र गीतनृत्या: दीन्यासकमानि स्युस्तथा यक्षगृहादिप्रत्यासत्तिर्यत्रारामोदकादिप्रत्यासचिव यत्र च कल्पपालरजक चण्डालय श्विकायासचिस्तत्स्थानं. त्याज्यम्, ध्यानव्याघातजुगुप्साक्षुद्रोपद्रवादिदोषसम्भवात् १३ । तत्राप्युद्गमादिदोषरहितं प्रशस्तं चतुःशालं त्रिशालं वा विस्तीर्ण वसतिद्वयं गृह्यते, तत्रैकस्यां भक्तप्रत्याख्याता त्रियते, अन्यस्यां साधवो भोजनादि कुर्वते, अन्यथा मक्तपन्धादिना तत्प्रत्यारूपातृतदभिलाषः स्यात् ततोऽनेको सम्भवादिति द्वारे १४ । 'निजव' चि पार्श्वस्यादयोऽगीतार्थाश्च निर्वापका न कर्तव्या, किन्तु
+
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
ये चाभ्यन्तर
कालोचियेन गीतार्थत्वादिगुणयुक्तास्ते चाष्टचत्वारिंशत्, तद्यथा - येन शनिनमुद्रर्त्तयन्ति पराजयन्ति च ते चवारी १, द्वारले तिष्ठन्ति तेऽपि चत्वारः २, एवं संस्तारककर्त्तारः, तस्यैव ज्ञातस्यापि धर्मकथाः४, [वादिनः, ] अबशरमूलावस्थायकाः ६, 'तदुचितभक्तानयनयोग्याः७, पानकानयनयोग्याः८, उच्चारपरिधापकाः९, प्राणपरिका: १०, बहिर्धर्मकथाः ११, प्रत्येकमेकैकातraft दिक्षु क्षुद्रोपद्रव निवारणाय चत्वारः सहस्रयोचिनो महामल्लाः १२, एवमेतेषु द्वादश स्थानेषु प्रत्येकं चत्वार इति सर्वेऽप्यष्टचस्वारिंशत् । अन्ये चारप्रणवपिने मिलितेऽपि चतुरोऽमधाय ततो दिक्षु द्वौ द्वावित्यौ महायोधान्मन्यन्ते इत्येवमष्टचत्वारिंशतं प्रतिपादयन्ति । अर्थतावन्त स्ते न लभ्यन्ते ? व केकहान्या तावद्वक्तव्यं यावदवश्यं द्वौ निर्वापको कार्य तत्रैको भक्त गनकाद्यानयनाद्यथे पर्ययन्यस्तु सावधान एव तत्समीपे तिष्ठतीति द्वारम् १५ । 'दव्वदाग्रजे चरिमे ' त्ति चामे पर्यन्ते मरणकाल इत्यर्थः, तत्र च मूषः प्रायेण भोजनामिकाषः समुच्छलत्यतस्तस्य समाधत्पादनार्थ सर्वाण्यपि स्तोकस्नोकानि दधिदुग्धपानशा लिदालिव्यञ्जनादीनि द्रव्याणि प्रदन्ते, यानि च तस्य प्रतिभासन्ते तानि विशेषतो दश्यन्ते यदि चैषणीयानि न लभ्यन्ते तदा पञ्चकादिपरिहाण्या अन्यान्यप्यानीयन्ते । तानि च यद्यसौ भुके तदा को गुणः १ उच्यते तस्याहारतृष्णाव्यवच्छेदस्तस्मि सति स्वस्थो वैराग्यमुपगत आहारस्यासारतादिखरूपं परिभावयन्सुखेनैव त्यजति प्राणान्, अन्यथा अतिध्यानादयो दोष इति द्वारे १६ । 'परिहीयमाण (हाणि) वि यथाऽऽनीतं तदयौ भुङ्क्ते तदा द्वितीयेऽह्नि परिहीयमाणं स्तोकमानीयते यच्च तस्य त्रियं तद्विपरीत+ " संस्यानशनिनः प्रभावना सतिशायिनीं श्रावकलोकैः क्रियमाणां दृष्ट्रा केचिदुरात्मनस्तामसहमानाः सर्वक्षमतनिराकरणाय श्राददानायोपतिष्ठन्ते ततस्तेषां तिरस्करणाय वादिनो वावदूकाश्चत्वारः प्रमाणप्रत्रीणाः प्रगुणीभूतास्तिष्ठन्ति ।” प्र० सारो० वृहद्दत्ति, पत्र
G
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
रात्रिदिनं बा ? इत्यादि, एवं च सारितो पसौ प्रस्तुतं प्रवाति तदा ज्ञायते न देवताऽधिष्ठिता, किन्तु परीपहवाधित इति शात्वा ।। समाध्युत्पादनार्थ तोमरादिप्रहारकल्पादादिपरीपहावगणनहेतुत्वात्कवचमिव कवचमाहारो दीयते, ततस्तद्रलेन परीपदान् जित्वा प्रस्वतपारगामी भवत्यसाचिति द्वारम २२अनेन विधिना निनाघातेन कागतमा साधोशि कर्तबगं, नच द्विधा-शरीरत । उपकरणतश्च, तत्र शरीरतस्तावद्भक्तं प्रत्याचि ख्यासोः प्रथममेव लोन कार्य:, गृहीते चाशने बहुदिनः केशवृद्धिसम्भवे पुनर्लोचः कार्यः, उपकरणतस्तु कालगतस्यापि समीपे मुखपोतरजोहरणचोलपवरूपमुपकरणं मुच्यन एव, येन दिवमपि मतस्माधुरूपं दृष्ट्वा सम्यक्त्त प्रतिपद्यते, अन्यथा सुराष्ट्राधावकवन्मिथ्यात्वगमनसम्मवाद, किश्च-चिहमन्तरेण परिष्ठापने चौरः कोऽप्ययं गलमोटनादिना विनाशित इत्याशङ्कया ग्रामाणां राजनिग्रहादयो दोषा इति द्वारम् २३ । ध्याघाते-मक्तप्रत्याख्याने पराभन्मत्वरूपे पुनर्याचनाअन्वेषणा, संलेखनाकरणप्रवृत्तस्य द्वितीयस्य पूर्वोक्तविधिना तत्स्थाने उपवेशनार्थ क्रियते, अथ नास्त्यसो तदा समयोक्तविधिरत्र द्रष्टव्यः । एतच सर्व भक्तपरिज्ञाप्रत्याख्यानलक्षणे मरणे द्रष्टव्यम्, पादपोपगमनेङ्गिनीमरणयोस्तु विधिर्वक्ष्यते, एषा चार्य विषयविभाग:
सव्याओ अज्जाओ, सब्वे वि य पढमसंघयणपज्जा। सव्वे य देसबिरया, परक्खाणे उ मरंति ॥१॥" इति गाथार्थः ॥४८२ ॥ उक्तं द्विधाऽपि सपराक्रमे, अथापराक्रममाइ| अपरकमो बलहीणो, निवाघाएण कुणइ गच्छम्मि । वाघाओ रोगविसा-इएहिं तह विज्जुमाईहि ॥४८॥
व्याख्या--- अपराक्रमः कः ? इत्याव-बहीन:-परगणं गन्तुमशक्त इत्यर्थः, स एवम्भृतो निर्व्याघातेन रोगाद्युपद्धाभावरूपेण करोत्दुत्तमार्थ खाल्छेऽपि, न स्वन्यगणं गच्छतीत्यर्थी, व्यापानमेवाह-व्याघातो रोगविषादिभिस्तथा विद्युदादिमिव द्रष्टव्यः ।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
मन्यत्कमध्यानीय, प्रार्थयमाणस्य च 'सत्प्रियं नाथ लब्ध' मित्याद्युत्तरं क्रियते, आहारगृद्धि विच्छेत्री च देशना क्रियते, तृतीय दिनेऽप्येष एव विधिर्नरं स्तोकतरमानीयते, ततः परं सर्वथैव न किश्चिदानीयते प्रतिबोध्यते च । अथ पराभग्रत्वाद् गृद्धो न प्रतियुज्यते तदा पूर्वमेवान्यद्वारनिर्णीतो विधिराधियते इति १७ ॥ 'अपरितंत' चि अपरितान्तैरप्य निर्विण्णः प्रतिचर कैंनिर्जरार्थिमिर्यथाबलं यथापरिज्ञानं च सर्वे तद्विषयकत्वं विधेयमित्यर्थः १८ । 'निजर' त्ति भक्तपरिज्ञानिनः परिचरकाणां च समक्षं गुणा:कर्मनिर्जरा प्ररूपणा कार्या, यथा-"कम्मम संविज्जभवं खदेड़ अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयरम्मि वि जोगे, सज्झायम्मि विसेसेण ॥१॥ · इत्यतो यावत् " (कस्म म संखिज्ज भवं, खवेद अणुसमय मेव आउत्तो । अन्नयरम्मि वि जोगे), विसेसओ उत्तमम्मि || १ ||” तदेवं उत्तमार्थस्याननलक्षणस्य सर्वोपरि निर्जराहेतुत्वात् सम्यगेवोद्यतेरयं विधेय इति द्वारे १९ । 'संधारण' ति संस्तारक विधिdoors, ar भूमौ शिलातले वा अस्फुटिते सोत्तरपट्टः संस्तारक आस्तीर्यते' तत्रोपविष्टः सुप्तो वा समाधिना तिष्ठति । अथेत्थं स्वातुं न शक्नोति, तदैकखण्डे, तदलाभे द्विखण्डादिकेऽपि पठ्ठे संस्तारक आस्तीर्यते, तथापि स्थातुं न शक्नोति तदा एकादयः 'कल्पा आरतीर्यन्ते, तथापि समाध्यसम्भवे तूलिरास्तीर्यत इति द्वारम २० । उद्वर्त्तनादीनीति आदिशब्दात्परावर्तन बहिः प्रवातार्थनिस्सारणादिपरिग्रहः, एतानि च कोमलकराणां स्थिरगम्भीराणां - स्थिरसमर्थानां साधूनां पार्श्वात्कार्यन्ते तस्य च समायुत्पादनार्थे : देशनां कुर्वन्ति साधव इति २१ । 'सारेऊण य कवयं चि प्रत्याख्यातेऽप्याहारे पद्यसौ कथमप्याहारे प्रार्थयते तदा मा कथश्चिदसौ प्रत्यनीक देवतयाऽधिष्ठितो याचते इति परीक्षार्थं प्रथमं तावत्सारणा क्रियते, कोऽसि त्वमगीतार्थो गीतार्थो वा ? इदानीं
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्र क्षणमात्रेणैव मरणकारी शूलादिरोगो विधुव्याघ्रादिभय र मह स्थिनासोपारदे हललोजपा प्रतिपाते इति भाव इति । गाथार्थः ॥४८॥ अथ पण्डितमरणस्यैव माहात्म्यमाहएकं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाई बहुयाई । एकं पि बालमरणं, कुणइ अणंताई दुक्खाई ॥४८॥
व्याख्या-एक पण्डितमरणं छिनसि जन्मशतानि बहूनि, एकमपि बालमरणं करोत्यनन्तदुःखानीति माथार्थः ॥४८॥
मरणे चोपस्थिते धीरतैव मर्चव्येत्याह| धीरेण वि मस्यिवं, काउरिसेण वि अवस्समरियब्वं । ता निच्छियम्मि मरणे, वरं खुधीरत्तणे मस्यिं ।।४८५॥
व्याख्या-धीरेणापि मर्तव्यं, कापुरुषेणाप्यवश्यं मत्तव्यं, तनिश्चिते भरणे धीरत्वे एवं मूतं वरमिति माथार्थः ॥१८५॥
ननु पादपोपममनादिपण्डितमरणेन मृताः प्राणिनः क्व यान्तीत्याहपाओवगमेण इंगिणि-भत्तपरिण्णाइविबुहमरणेणं । जति महाकप्पेसुं, अहवा पार्विति सिद्धिसुहं ॥१८॥ ___व्याख्या-पादपोषगमनेङ्गिनीभक्तपरिज्ञाऽऽदिविषुधमाणेन मृता प्रापिनो यान्ति महाकल्पेषु-अनुत्तरविमानेषु, अथवा | निष्ठितकर्माणः प्राप्नुवन्ति सिद्धिसुखमिति । पादपोपगमनादिस्वरूपं तु ---
"सब्वत्थापडिबद्धो, दंडाययमाइठाणमाइमिह ठाउं। जावज्जीचं चिट्ठा, निचिठो पायवसमाणो ॥१॥" ." इंगियदेसम्मि सयं, घडविहाहारचायनिष्कर्ष । उच्चत्तणाइजुत्ते, नन्नेण उ इंगिणिमरणं ॥२॥"
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
"भप्तपरिक्षाणसणं, चंउव्वहाहारचायनिष्कलं । सप्पडिकम्मं नियमा, जहासमाही विणिदि ॥ ३॥ " इति गाथार्थः ॥४८६ ॥ ननु किं सिद्धौ सौख्यमस्ति ? पदर्थमेवं कष्टमाचेश्यत इत्याह
सुरगणसुहं समग्गं, सव्वद्धापिंडिये जइ हविज्जा । नवि पावइ मुनिसुह-ऽणताहि वि वगवगृहिं ॥ ४८७॥
व्याख्या--सुरगणस्य - सर्वस्यापि देवसङ्घातस्य सम्बन्धि यदतीतानागतवर्त्तमानकालभावि समग्र- समस्तं सुखं तदपि सर्वाद्धापिण्डित - सर्व कालसमय राशिना गुणितं यदि भवेत् उपलक्षणं चेदं ततः पुनरप्यनन्तगुणं कियते यावत्समस्तलोकालोकनमःप्रदेशसङ्ख्यास्तद्राशयः कृत्वैकत्र मील्यन्ते, तथाप्येवमपि प्रकर्षमपि मतमिदं सुरसुखं कर्तृकर्मतापन मुक्तिसुखं न प्राप्नोति । अस्यापि राशेर्वस्यापि पुनर्वर्ग, एतस्यापि पुनर्वर्ग, इत्येवमनन्तेरपि वर्गवर्गत सन्न तत्तुल्यं तद्भवतीति गाथार्थः ॥ ४८७॥
किश्व ततः सिद्धा एव सुखिनो, नान्ये इत्याह-
दुक्ख जराविओगो, दाहिं रोगसोगरागाइ । तं च न सिद्धाण तओ, तेबिय सुहियो न रागंधा ||४८८ || व्याख्या -- जराडमीष्टरियोगो दारिद्रयं रोपशोक रागादयो दुःखहेतुत्वादुःखां, नचैवम्भूतं दुःखं सिद्धानां नास्ति, ततस्त एक सुखिनो, न रागान्धा देवादयः । अयं चार्थो भवविरागादिद्वारेषु भावितप्राय इति गाथार्थः ॥ ४८८ ॥ यत एवं ततः किमित्याह-निच्छिन्नसव्वदुक्खा, जाइजरामरणवंधणविमुक्का | अव्वाबाई सुक्खं, अगुहुति सासये सिद्धा ||४८९||
व्याख्या -- नितरां छिन्नसर्वदुःखा जन्मजरामरण बन्धनैर्विमुक्ताः सिद्धा एवाव्याधाधं शाश्वतं सुखमनुभवन्तीति गाथार्थः ॥ ४८५ ॥
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं। इत्थं विशम्य सम्पम् . जिनागमाद्विवुधमरणमा । सने भलतु या!, पण्डितमरणेऽतिकृतयना ॥१॥
इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे [भक्त] परिज्ञानलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तमिति ॥१९॥ .... अथ शास्त्रोपसंहाराधिकारस्तत्र तावदनन्तरोक्तार्थमेवाश्रित्याहसंते वि सिद्धिसोक्खे, पुबुत्ते दंसियम्मि वि उवाए । लद्धे वि माणुसत्ते, पत्ते वि जिणिंदवरधम्मे॥१९॥ ४/ जं अज्ज वि जीवाणं, विसएसु दुहासवेसु पडिबंधो। तं नज्जइ गुरुआण वि, अलंघणिज्जो महामोहो॥४९१
व्याख्या ---अनन्तरोतरूपे सत्यपि सिद्धि पौख्य, पूर्वोको चाभप्रदानादिके दर्शितेऽपि तस्प्राप्त्युपाये, लब्धेऽपि मानुषत्वे, है। प्राप्तेऽपि जिनेन्द्रयरधर्मे, यदद्यापि जीनां विषयेषु दुःखाश्रवेपु-दुःख पदेषु प्रतिबन्धो दृश्यते, तज्ज्ञायते-गुरूणामपि पायोऽलङ्घनीयो * महामोह इति गाथावयार्थः ।।४९०-१९१॥ किश्वनाऊण सुयबलेणं, करयलमुत्ताहलं व भुवणयलं । केवि निवडति तहवि हु, पिच्छा कमाणवलियत्तं ॥४९२॥
व्याख्या-ज्ञात्वा श्रुतबलेन करतलमुक्ताफलमिव सुमनतलं, तथापि केचिनिपतन्ति चारित्रादिगुणभंगात्संसारे, तत्प्रेवस्त्र | अहो ! कर्मणा मोहनीयादीनां बलीयस्त्वमिति गाथार्थः ॥१९२॥ अन्ये पुनः किमित्याहएक पि पयं सोउं, अन्ने सिझति समरनिवइव्व । संजायकम्मविवरा, जीवाण गई अहो !! विसमा ॥१९॥
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
me
Emai
भ्याल्या-एकमपि पद-मोक्षसाधक खान श्रुत्वा अन्ये पिरिसरान्ति, समानुपतिरिव, कसम्भूताः सन्ता? इत्याहसातकविवरा-अपमतकर्माणा, तबाहो ॥ विषमा मातजामानगोमांत गाया!j ४५३॥
कोऽयं पुन: समरनृपः । इत्युच्यते-संसारीजीवो मोहनृपबलेनानन्तं कालं कथितबारित्रनृपसैन्यावसरमलममान उभयदल- मिलन्ना कर्मपरिणामभूपमार्यया भवितव्यतया नदीबेनैव केनापि प्रबलसुपरितेन रखितया पुण्योदयं सहायं दया समानीतोऽसौ
संसारिजीका साकेतपुरे विश्वम्मरराजस पुरतः समरा, विश्वम्भरतपेण व्रतं जिघृक्षता राज्ये स्थापिता, साधिताबानेन पितुरायसिहा पायो विषया:, सञ्जाता समुदीर्णप्रतापो महानरपति, अन्यदा समुत्पत्रास्य शरीरे प्रपला दाहवेदना, तया पीडिता कुच्छेण | विनानि गमयति । अवान्तरे चारित्रधर्मपस्योत्पमा चिन्ता, यथा अहो!! अयं संसारिजीषा सुचिरं सदथितो मोहराजसनिकी, करुणापराब वयं, तत्कथमप्यसौ तेभ्यो मोचयितुं युक्त इति विचिन्त्याहूना सदोश्चमन्त्री, प्रोक्तः खामिप्रायः, सावता भवितव्यतया पाठितौका पुरुष एना गार्थी, यथा| "पुरिसाण पवित्तीओ, सुहाभिलासीण ताव सध्याओ। धम्मं विणा य न सुह, धम्मो य न संगमूढाणं ॥१॥"
ध्रुता च [समर] राधा, अवधारितं चैक पदं 'धम्मं विणा य न सुहं' ति, न शेष, वेदनाविधुरितस्वाद । अत्रान्तरे समागतः समोधो शब समीपे, धणं स्थिता, ततो मीतमीता निलीना मोइराजादयः । सतब राजा चिन्तित-धर्म विना कस्यापि सुखं न - भवतीति ममाप्यनुभवसिद्धमेव, पतो मालकालादारम्य धर्मसा वाऽपि मया न कता, तत इत्थं दुःखमाजनं जातस्तिष्ठामि, तस्मादि
दानीमपि युज्यते मम धर्मः कमिति, ममाते एव बतं गृही यामीति निषयः कृतः। पुनः प्रभाते जाते मौहराजप्रेषितरामकेसरी
AND
OTO
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
Hindi
प्रभृतिमिः कुतः कर्णजापा। ततो रामा चिन्तित-सम्प्रति पुत्रो मे लघुर्मार्या तरुणी, सता कियादिनपर्यन्ते व्रतं गृहीयामीति । तब सबोधमन्त्रिणा कुत्तोऽपि विधाय राधा प्रोक्तं-'देव! एकोऽपि मुहतों बहुविघ्न एवेत्यवधार्य परित्यज्यतां प्रस्तुतधर्मकार्ये विलम्ब' इत्यादिवचन: समुत्साह समाहूता भवितव्यता, कथितच तस्याः सर्वोऽपि व्यतिकरा, ततो मोहराजकटकोपरि रुष्टयानया संसारीजीवास्ते दचो जीववीर्यपाणतेन च नाहितानि माध्यपि मोडमानुपाणि, ततो दाधवरे शान्ते पुत्र राज्ये संस्थाच्य जनक
बलिपाधैं प्रवज्य चारित्रधर्मराजसामिप्यं प्रतिपक्षोऽल्पकालेन सूत्रार्थावधीत्य धर्मबुद्धिसदागमसद्बोधस भ्यम्दानादिसाहाय्यानिहत्य समस्तमपि मोहराजबलं सम्प्राप्य केवलं प्रामो नितिपुरीं समरराजर्षिः, इति समरराजकथानकं समाप्तम् ।।
यत एवं ततः किमित्याहतम्हा सकम्मविवरे, कज्जं साहंति पाणिणो सब्वे । तो तह जएज्ज सम्मं, जह कम्मं खिज्जइ असेस।।४९॥
व्याख्या-तस्मात्स्वकर्मविवरे-खकर्मक्षये एक सर्वे प्राणिना कार्य मोक्षगमनलक्षणं सायन्ति, ततस्तथा यतेत सभ्यम् | यथाऽशेषं कर्म क्षीयत इति गाथार्थः ॥४४॥ केनोपायेन पुनः कर्म क्षीपते ? इत्याह-कम्मक्खए उवाओ, मुयाणुसारेण पगरणे इत्थ । लेसेण मए भणिओ, अणुठ्यिव्यो सुबुद्धीहि ॥१९५॥
व्याख्या-कर्मधये पुनरुपायः श्रुतानुसारेणात्र प्रकरणे लेशेन मया भणिता, अनुष्ठेयः सद्धिमिरिति मायाः ॥१९॥ केषां पुनरिदं प्रकरणपकाराय भविष्यतीत्याह
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
--
--
पायं धम्मत्थीणं, मज्झत्थाणं सुनिउणबुद्धीणं । परिणमइ पगरणमिणं, न संकिलिट्ठाण जंतूणं ॥१९६॥
व्याख्या-प्रायो-बाहुल्येन धर्मार्थिनां तथा मध्यस्थानां सुनिपुण बुद्धीनां अतिविचारचतराणां परिणमति-रोचते प्रकरणमिदं, न पुनः समिष्टाना-राममपितानो जन्तनामिति गाथार्थः ॥४९॥ अथ ग्रन्थकारः खनाम प्रकारान्तरेणाहहेममणिचंददप्पण-सुररिसिपदमवण्णनामेहिं । सिरिअभयसूरिसीसेहि, विरइयं पयरणं इणमो॥४९७॥
व्याख्या-हेम-मणि-चंद-दप्पण-सूर-रिसि एषां धब्दानां प्रथमवर्णना प्रमिा, हेमचन्द्रसरिभिरित्यर्थः, तथा 'सिरिअभय' । | चि पदे समुदायोपचारान् श्रीअभयदेवसूरिशिष्यविरचितं प्रकरणमिदमिति माथार्थः ।।४९७|| किं नामकं किं बलं चेदं प्रकरणमित्याह
उपएसमालनामं, पूरियकामं सया पढ़ताणं । कल्लाणरिद्धिसंसिद्धि-कारणं सुयियाणं ॥४९८॥
व्याख्या-उपदेशमा लानामक प्रकरणमेतत्पूरितमनोरथं पदा पटतां शुद्धहृदयानां कल्याणऋद्धिसंसिद्धीना कारणमिति जो गाथार्थः ॥१९८॥ अत्रैवाधिकारसख्यां ग्रन्थमङ्ख्यां चाहइत्थ वीसहिगारा, जीवदयाईहिं विविहअत्येहिं । गाहाणं पंचसया, पणुत्तरा होति संखाए ॥४९९॥
व्याख्या-जीवदयादिभिर्विविधैरथैः कृत्वा इह प्रमाणे विंशतिरधिकारा भवन्ति, तथाहि-दान विधा, शीलं तपक्ष, "सम्मत्तचरणसुद्धा त्यादिभावनाद्वारसम्बन्विनश्चतुर्दशाधिकारा इति सोऽप्येकोनविंशतिः, विंशतितमस्तु प्रकरणोपसंहाराधिकार जति | गाथानां च सा पश्चतानि पश्चोचराणि भवन्ति ज्ञातव्यानीति गाथार्थः ॥४९९।।
-
-
न
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
-heshyainn-
A
-MaoisonalitAINALILAINAMAMANTRAM
44-45%
E
RX
न यद्यप्यन्यस्य सम्बन्धिना पुण्येनान्यस्थाधिकारस्तथाप्युदारधियां प्रधानं वचः कर्मापगमायेति वृद्धवादादित्याहउवएसमालकरणे, जं पुन्नं अजियं मय तेण । जीवाणं होज सया, जिणोवएसम्मि पडिवती ॥ ५०० ।। ___ व्याख्या-उपदेशमालायाः करणे यत्पुण्यमर्जितं मया तेन पुण्येन जीवानां ' सदा' नित्यं जिनोपदेशप्रतिपत्तिरादरोऽङ्गीकारो भूयादिति गाथार्थः ।। ५.० ॥ अथ श्रुतबहुमानार्थमपश्चिमं मङ्गलमाहजाव जिणसासणमिणं, जाव यधम्मोजयम्मि विष्फुरहाताव पढिजउ एसा, भवेहि सयासुहत्याहि । ५०११ ।
व्याख्या-यावजिनशासनमिदं यावच धो जगति विस्फुरति तावत्पठयेत एषा उपदेशमाला भव्यैः सदा- सुखार्थिमि-नित्यमुखार्थिभिरिति गाथार्थः ॥ ५०१४॥
टीकाकृत्प्रशस्तिः। श्रीमचन्द्रकुलार्णवोज्ज्वलकुलोद्भूतिः पृथुप्रामवा, पुण्यप्रौढफलप्रफुल्ल सुमनः श्रेणिश्रिया सला। पात्रोदारतरो गणः खरतरो गीर्वाण कारस्करो, विस्तारप्रवरो विभस्ति विलसन्तुचैः स्थितः सर्वतः ॥ १॥ ४ यद्यपि अन्धकूता स्वयमस्य प्रन्थस्य प्रमाणं गाथाना पश्चाधिकशतपञ्चक निर्दिषं पर प्रतिध्वनेकास्वपि गायानामेकोत्तरशव पञ्चकमेवोपलभ्यते यद्यपि मुद्रितबृहनवृत्तौ प्रान्वे गावानां पश्नोत्तरशतपञ्चको लिखितः किन्तु मध्ये मध्ये गाथाहानामा व्यवस्थितत्वारसमुदिता एतावत्य एव गाथा: समस्तीति केनाप्यज्ञासकारणेन मध्ये कथित २ माथा पतिता भविष्यन्तीत्यनुमानाम् ।
CRIKACC-% RE
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
N
EKARK
वत्र नवाङ्गीविवरण-कर्तुः श्रीअभयदेवमूरिसुगुरोः । शिष्यः श्रीजिनवल्लभ-सरि सूरीन्द्रमुकुटमणिः ॥२॥
शिष्यस्तदीयोऽद्भुतभाग्यभूरि-युगप्रधानो जिनद सरिः ।
तदन्वये दीप्तचरित्रतेजा, रेजे गुरुः श्रीजिनराजमूरिः ॥ ३ ॥ तस्पटोद्मटपुण्डरीकनिविखकोडैकहंमश्रियां, तत्वज्ञानविशुद्धसंयमजुषा सम्यक्पथं प्रोचुवाम् । निस्सनत्वनिरीहताग्रिमगुणग्रामावधीनां सुधा-सारोदारगिरी गमीरिमरमावारांनिधीनां तथा ॥ ४ ॥ सौम्यत्वेन शशाङ्कसुन्दरतरश्रीणां क्षमाधारिणां, श्रीजैनेन्द्रमतप्रभासनपुषां दुर्वादिकक्षप्लुषाम् । नि:शेषश्रुततवनैपुणवतामग्रेमराणां प्रभुः, श्रीमच्छी जिनभद्रसूरिसुगुरूणां शिष्यवर्गानणीः ॥ ५॥ तेषामेव विनय-नृपतिसभालब्धधादिवृन्दजयैः । श्रीसिद्धान्तरुचिमहो-पाध्यायः पाठितो यत्नात् ॥ ६ ॥ समयमकरन्दविन्दना, दायादाय कतिपयानेषः । साधुर्वृत्तिमकार्षी-मधुकर हक पुष्पमालायाः ॥ ७॥
उन्सूत्रमासूत्रितमत्र निश्चित , प्रमादमान्धादिवशादि स्यात् । शोध्यं स्वतस्तत्प्रयतैबहुश्रुतै-रेषोऽशलिस्तेषु विजृम्भितो मे ॥ ८ ॥ सम्प्रापिता वृत्तिरियं प्रमाणा, युगप्रधानैर्जिनभद्रसूरिभिः । सदरैर्वाचकसोमकुञ्जरै-विशोध्य वैयाकरणप्रकाण्डैः ।।९।।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधुसोमसमुत्पना, विबुधाः सत्सुधामिव । पायं पायमिमा वृत्ति, तृप्ताः स्युरजरामराः ॥१०॥
वर्षेऽवाणचन्द्रे (१५१२), पत्तिः श्रीखीमराजशालायाम् ।
श्रीद्रिय( ५३ )शतमितिरेषा, समर्थिताऽहम्मदावादे ॥ ११॥ इति श्रीखरतरगणेश्वरश्रीजिनभद्रसूरिशिष्यश्रीसिद्धान्तरुचिमहोपाध्यायशिष्य
हासोलमणिविरचिता :श्रीपुष्पमालावृत्तिः समाप्ता ।
EXCHARAKASH
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________ नाम्ना मोहनलालेति, विख्याता पवनीतले / श्रीखरतरगणोत्तंसा, जैनशासन भूषणाः // 1 // / इति श्रीलघुवृत्तियुता पुष्पमाला समाप्ता। तेषां प्रशिध्यपन्यास-गणिकेशरसन्मुनेः। शिष्यं युद्ध्यब्धिमामानं, भद्रं तन्वन्तु तेऽन्वहम् // 2 //