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१० पत्रोंकी है। पुण्यविजयजीकी जे. भ. की नई सूचि अनुसार इसका लेखन समय १५०१ ठीक हो तो सिद्धान्तकविजीको महोपाध्याय पद इससेभी पूर्व मिल चुका था। खरतर गच्छमें यह पद उन उपाध्यायको मिलता है जो अपने समयके उपाध्यायों में सबसे बड़ा हो। अत: सिद्धान्तकचिजीकी श्रायु उस समयभी काफी बड़ी होनी चाहिए और इसके बादभी सं० १५३२ से ४० सक वे शायद जीवित रहे हों तो वे काफी दीर्घायु होंगे। खरतर गच्छ पट्टावली में बिनभद्रसूरिजी १८ शिष्यों में इनका नाम सबसे पहेले व प्रधान रूमें दिया है।
साधुसोम गणि उन्हीं महोपाध्यायजीके शिष्य थे। इनके अतिरिक्त अभयसोम, विजयसोम, मुनिसोम नामक आपके अन्य शिष्योंकाभी उल्लेख मिलता है। इनमेंसे अभयसोम के शिष्य हर्षराज उपाध्यायने संघपट्टककी लघुसि बनाई, जो जिनदत्तत्रि शानभण्डार सूरतके प्रन्यांक ६१ के रूप में प्रकाशित हो चुकी है। विजयसोमकी सहायतासे महो सिद्धान्त रुचिजीने मांडवगढ़के श्रीमाल ठक्कुर गोत्रीय संघाति मंडन द्वारा भगवतीमत्र आदि लिखवाये थे। इसका उल्लेख विज्ञप्ति त्रिवेणीके पृष्ठ ७१ में मांडवगढ़के मान भण्डार के लिए सं १५३२ के आश्विनमें लिखित भगवतीसूत्रकी पुहिएका प्रकाशित है। अन्य शिष्य मुनिसोम रचित रणसिंह चरित्रकी एक मात्र प्रति उनके स्वयक सं. १५४० के अक्षय तृतीया को लिखित हमारे संग्रहमें है। यह चरित्र ६८० लोकों में सितपत्राथल दुर्गके तोडा कारित शालामें रह कर वाचनाचार्य हेमध्वजकी अभ्यर्थनासे रचा गया है। मैंने अपनी प्रति भेजकर उपा. सुखसागरजी द्वारा जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार सूरत से सं० २००४ में प्रकाशित करवा विचा। इनके रचित संसारदावा पादमूर्ति रूप पार्श्व स्तोत्र १ श्लोकोंका प्राप्त है।
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