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इति fereer at शिष्य धर्ममेरु विरचितायां रघुकाव्य टीकायां वंशप्रतिषेव राक्षी राज्यनिवेशो नामैकोनविंशतिष्ठमसर्गः ॥ १९ ॥ इति श्रीरघुवंशटीकाखमाप्तेति । श्रेयो भूयात |
भन्डारकर ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट पूना, आमेर दिगम्बर भण्डार+, ओरियन्टल कालेज लाहोर, और हमारे संग्रह में भी इसकी प्रतियां हैं।
धर्ममेने शिशुपालवधी टीकाभी बनाई है। जिसकी एक मात्र प्रति श्रीविनयसागरजी के संग्रह में ( पत्र १४ से १९५ ) देखनेको मिली थी इनकी रचित 'एकविंशतिस्थानप्रकरणावचूरि' जैनररत पुस्तकालय, जोधपुर में देखनेको मिली थी। इसके आगे इनकी परम्परा और कबतक चली ? प्रमाणाभाव से नहीं कहा जा सकता ।
पुष्पमाला ग्रन्थ पर स्त्रोपस बृहद्वृत्ति और साधुसोमकी इस लघुवृतिके अतिरिक सं. १४६२ में अंचलगच्छीय जयशेखर रचित अरि ( प्रथामन्थ १९००) का उल्लेख जैन ग्रन्थावली और उसीके आवारसे जैनरत्न कोशमें भी हुआ है। अन्य एक अज्ञात टीकाकी कई प्रतियका उल्लेखभी जैनरस्न कोशमें है। उनमें क्या मिलता है ? यह प्रतियोंको देखने परही कहा जा सकता है ।
पुष्पमालाकी राजस्थानी भाषा टीका, जो बाळावबोधके नामसे प्रसिद्ध है । सरवर गच्छके वाचनाचार्य रत्नमूर्तिके शिष्य मेसुन्दर रचित मिळती है, जो ६००० लोक परिमित है, इसकी सं. १५२३ में लिखित प्रति प्राप्त होनेका उल्लेख जैनreaकोश में किया गया है । अतः उसकी रचनाभी इसी समय के आसपास हुई है । हमारे संग्रहमें इस बालादबोधकी पांच
+ सूचि चरणधर्मको कर्ता लिखा है, पर उनके प्रशिष्य धर्ममेरु रचित दोनाही संभव है।