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युगवीर-निवन्धावली
कुटुम्बीजनो, पुरजनो और इतरजनोमेसे किसीके भी द्वारा उस वक्त तिरस्कृत नही थे और न कोई उनके व्यक्तित्वको घृणाकी दृष्टिसे देखता था। इसीसे लेखकने लिखा था कि "उस समयकी जाति-बिरादरीने चारुदत्तको जातिसे च्युत अथवा बिरादरीसे खारिज नही किया और न दूसरा ही उसके साथ कोई घृणाका व्यवहार किया गया ।" परन्तु समालोचकजी अपने उक्त दूषित अनुमानके भरोसेपर इसे सफेद झूठ बतलाते हैं और इसलिये पाठक उक्त सपूर्ण कथनपरसे उनके इस सफेद सत्यका स्वय अनुमान कर सकते हैं और उसका मूल्य जॉच सकते हैं।
अब पहली बातपर की गई आपत्तिको लीजिये। समालोचकजीकी यह आपत्ति बडी ही विचित्र मालूम होती है। आप यहाँ तक तो मानते हैं कि चारुदत्तका वसतसेना वेश्याके साथ एक व्यसनी-जैसा सम्बन्ध था, वसन्तसेना भी चारुदत्तपर आसक्त थी और उसके प्रथम दर्शन-दिवससे ही यह प्रतिज्ञा किए हुए थी कि इस जन्ममे मैं दूसरे पुरुषसे सभोग नही करूँगी, चारुदत्त उससे लड-भिडकर या नाराज होकर विदेश नही गया, बल्कि वेश्याकी माताने धनके न रहनेपर जब उसे अपने घरसे निकाल दिया तो वह धन कमानेके लिये ही विदेश गया था, उसके विदेश जानेपर वसन्तसेनाने, अपनी माताके बहुत कुछ कहने-सुननेपर भी, किसी दूसरे धनिक पुरुषसे अपना सम्बन्ध जोडना उचित नहीं समझा और अपनी माताको यही उत्तर दिया कि चारुदत्त मेरा कुमारकालका पति है, मैं उसे नहीं छोड़ सकती, उसे छोडकर दूसरे कुबेरके समान धनवान पुरुषसे भी मेरा कोई मतलब नही है, और फिर अपनी माताके घरका ही परित्याग