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एक ही अमोघ उपाय
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उनके मन्तव्यका पूछा जाना और उनका उत्तर२ जैनसमाजके कतिपय प्रतिष्ठित विद्वानोसे मिलने, पत्रव्यवहार करने और उनसे प्राप्त होनेवाले असन्तोपजनक उत्तरोका दिग्दर्शन, इत्यादि बातोका उल्लेख करते हुए बडे ही विनम्र तथा मार्मिक शब्दोमे जैनधर्मके कर्णधार विद्वानोसे तथा आचार्य मुनिसघोसे भी यह निवेदन किया गया कि वे अब शीघ्र ही अपना मौन भग करके उक्त लेखमालाका युक्तिपुरस्सर प्रतिवाद सभ्य-भाषामे निकालें, सदिग्धताको प्राप्त हुए प्राणियोको असदिग्ध करके पुन सन्मार्गमे स्थिर करें और इस तरह होती हुई धार्मिक अप्रभावनाको रोकें । साथ ही, यह भी उपयोगी सूचना की गई कि इस समय तो को निकलते हुए वर्षों बीत गये तब उनमेंसे किसीका भी उक्त लेखोके विरुद्ध जैन-सिद्धान्तोंकी पुष्टिके लिए युक्तिपुरस्सर उत्तरका न लिखना इत वातको सूचित करता है कि उन लेखोंका कुछ उत्तर है ही नहीं, यदि सप्रमाण उत्तर होता तो जैनधर्मके मूलपर कुठाराघात होते हुए देखकर भी ऐसे ऐसे विद्वान् मौन धारण करके नहीं बैठे रहते-वे प्रारम्भ ने ही विषवेलमें फल लगें उसके पहले ही उसे काट देते।'
२ प० दरवारीलालजीने जो उत्तर दिया वह इस प्रकार हैनहीं चाहता कि जैनधर्मको हानि पहुंचे और लोग मेरे अनुयाती वन जाय, परन्तु मैंने अपने अभ्यास और अनुभवसे जो निश्चय किया है उसीको जनताके समक्ष रक्खा है और रक्यूँगा। यदि वात्तवर्ने मैं भूलता हूँ और मेरी युक्तियाँ पोच है तो समाजमे बहुत बड़े बड़े विद्वान् है वे मुझे मेरी भूल समझा देवें, मेरी युक्तियाना सपनाम तभ्यताले खण्डन कर देवें ताकि मैं समझ सकूँ कि मैं वान्तवनें भूल रहा हूँ। और ऐसा होनेसे मैं सत्यकी दृष्टिसे उसे विना सङ्कोच वीकार कर लूंगा। यदि मेरे विचारोंके विरुद्ध सुयुक्तियों द्वारा नेरी भूल नहीं बताई तब मैंने जो सत्यकी खोज की है उसे छोडनेको तैयार नहीं हो सकता और अपने पिचार जनताके लाभार्य उनले स्न्मुख रखता रहूँगा ! इत्यादि ।"