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एक ही अमोघ उपाय होता है तो इनके उत्पादक विद्यालयोको निष्फल समझना चाहिये और कहना चाहिये कि उनका उद्देश्य सफल नही हुआ-भले ही ये लोग आजीविकाके बदलेमें नियमित शिक्षा दे देनेका साधारण काम करते हो। परन्तु हमारे ये तर्कशास्त्री, न्यायतीर्थ, न्यायाचार्य, न्यायालकार, सिद्धान्तशास्त्री, जैनदर्शन-दिवाकर, व्याख्यानवाचस्पति और वादीभकेसरी आदि इन सव आरोपोको पी गये और किसीने भी टससे मस नही किया। एक वेचारे प० राजेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ अपनी मान-मर्यादा एव पदकी लाज रखनेके लिये जो कुछ थोडा-बहुत कार्य आन मणके विरोध कर रहे थे उसे वे बराबर अकेले ही मैदानमै खडे करते रहे, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है, परन्तु उनकी रफ्तार नही बदली-उसमें प्रगति नही हुई-और अन्तको उन्होने भी सहयोगके अभावमे हतोत्साह होकर हथियार डाल दिये ।। उनके शास्त्रार्थ-सघका पत्र 'जैनदर्शन' भी जो प० दरवारीलालजीके लेखोका उत्तर देनेके उद्देश्यसे ही निकाला गया था, आजकल इस विपयमे प्राय मौन है-उसमें इसकी यथेप्ट चर्चा तक नही है !!
इधर ब्रह्मचारी प० दोपचन्दजी वीन अनुभव किया कि प० दरवारीलालजीकी उक्त लेखमालाके अनेक लेख जैनागमके विरुद्ध तथा जैनधर्मके सिद्धान्तोका मूलोच्छेद करनेवाले हैं और उनसे कितने ही कॉलेजके विद्याथियो एव शिक्षाप्राप्त सद्गृहस्थो तकके श्रद्धान डोल रहे हैं और वे "जैनजगत्' के ( उक्त लेखमालाके) वाक्योको अक्षरश सत्य समझते हुए जैनसिद्धान्तोमे
१ प० राजेन्द्रकुमारजीसे पहले मन्दसौरके पं० भगवानदासजी जैन शास्त्रीने भी उक्त लेखमालाके विरोधर्मे कुछ लिखना 'जैनमित्र' में प्रारम्भ किया था, परन्तु वे उसे पहले ही छोड़ बैठे थे ।