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भट्टारकोय मनोवृत्तिका नमूना ::
जिस समय भट्टारकोका स्वेच्छाचार बहुत बढ गया थाउनके आचार-विचार शास्त्र-मर्यादाका उल्लघन करके यथेच्छ रूप धारण कर रहे थे और उनकी निरकुश, दूपित एव अवाछनीय प्रवृत्तियोसे जैन जनता कराह उठी थी और बहुत कुछ कष्ट तथा पीडाका अनुभव करती करती ऊब गई थी. उस समय कुछ विवेकी महान पुरुपोने भट्टारकोके चगुलसे अपना पिंड छुडाने, भविष्यमे उनकी कुत्सित प्रवृत्तियोका शिकार न बनने, उनके द्वारा किये जानेवाले नित्यके तिरस्कारो-अपमानो तथा अनुचित कर-विधानोसे बचने और शास्त्रविहित प्राचीन मार्गसे धर्मका ठीक अनुष्ठान एव आचरण करनेके लिये दिगम्बर तेरह पन्य सम्प्रदायको जन्म दिया था, और इस तरह साहसके साथ भट्टारकीय जुएको अपनी गर्दनोपरसे उतार फेंका था तथा धर्मके मामलेमै भट्टारकोपर निर्भर न रह कर उन्हे ठीक अर्थमे गुरु न मानकर-विवेकपूर्वक स्वावलम्बनके प्रशस्त मार्गको अपनाया था। इसके लिये भट्टारकोको शास्त्रसभाम जाना, उनसे धर्मकी व्यवस्था लेना आदि कार्य वन्द किये गये थे। साथ ही, सस्कृत-प्राकृतके मूल धर्म-ग्रन्थोको हिन्दी आदि भाषाओमे अनुवादित करके उनपर टीकाएँ लिखकरउन्हे सर्वत्र प्रचारित करनेका बीडा उठाया गया था, जिससे गृहस्थ जन धर्म एव तत्त्वज्ञानके विषयको स्वय समझकर ठीक आचरण करें और उसके लिये गृहस्थोसे गये-बीते मठाधीश और महापरिग्रही भट्टारकोके मुखापेक्षी न रहे। इसका नतीजा बडा सुन्दर निकला-गृहस्थोमे विवेक जागृत हो उठा, धर्मका जोश फैल