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युगवीर - निबन्धावली
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प्रासुकके इस लक्षणानुसार जैन मुनि अग्नि- पक्वके अतिरिक्त दूसरी अवस्थाओ द्वारा प्रासुक हुए कदमूलोको भी खा सकते हैं, ऐसा फलित होता है । परन्तु पहली गाथामे साफ तोरसे उन कद मूलोको अभक्ष्य ठहराया है जो अग्निद्वारा पके हुए नही हैं और इससे सूखने, तपने, आदि दूसरी अवस्थाओ द्वारा प्रासुक हुए कद-मूल मुनियो के लिये अभक्ष्य ठहरते हैं ।' अतः या तो पहली गाथा मे कहे हुए 'अग्निपक्व' विशेषणको उपलक्षण मानना चाहिये, जिससे सूखे, तपे आदि सभी प्रकार के प्रासुक कद-मूलोका ग्रहण हो सके और नही तो यह मानना पडेगा कि मुनि लोग फलो तथा बीजोको भी अग्निपव्त्रके सिवाय दूसरी अवस्थाओ द्वारा प्रासुक होनेपर ग्रहण नही कर सकते, क्योकि गाथामे 'फलमूलकंदवीय' ऐसा पाठ है, जिसका 'अनग्निपक्व' विशेषण दिया गया है । परन्तु जहाँ तक मैं समझता हूँ उक्त अनग्निपक्व विशेषणको उपलक्षणरूप से मानना ज्यादा अच्छा होगा और उससे सब कथनोकी संगति भी ठीक बैठ जायगी । अस्तु, उक्त विशेषण उपलक्षणरूप से हो
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या न हो, परन्तु इसमें तो कोई सदेह नही रहता कि दिगम्बर मुनि अग्निद्वारा के हुए शाक-भाजी आदिके रूपमें प्रस्तुत किये हुए कद-मूल जरूर खा सकते हैं । हाँ, कच्चे कद-मूल वे नही खा सकते । छठी प्रतिमा धारक गृहस्थोके लिये भी उन्हीका निषेध किया गया है जैसा कि समन्तभद्र के निम्नवाक्यसे प्रकट है
मूल-फल शाक- शाखा करीर - कंद- प्रसूनबीजानि । Rissमानि योऽन्ति सोऽय सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥
१ यथा शुष्क पक्व - 1 स्ताम्ललवणसमिश्रदग्धादि द्रव्य प्रासुक । इति - गोम्भटसारटीकाया ।