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देवगढके मन्दिर-मूर्तियोंकी दुर्दशा ८११ अधिक वतलाया गया है। फिर उसकी तरफसे इतनी उपेक्षा क्यो? क्या महज धर्मका ढोग बनाने, रूढिका पालन करने या अपने आसपासकी जनतामे वाहवाही लूटने के लिये ही यह सब कुछ किया जाता है ? अथवा ऐसी ही अवज्ञा तथा दुर्दशाके लिये ही ये नई-नई मूर्तियां बनाई जाती हैं ? यदि यह सब कुछ नही है तो फिर इतने कालसे देवगढकी ये भव्यमूर्तियाँ क्यो विपद्ग्रस्त हो रही हैं ? क्या इनकी विपद्का यह मुख्य कारण नहीं है कि देवगढ़मे जैनियोकी वस्ती नही रही, उसके आसपासके नगर-ग्रामोमे अच्छे समर्थ तया श्रद्धालु जैनी नहीं रहे और दूसरे प्रान्तोके जैनियोमे भी धर्मकी सच्ची लगन अथवा अपने देवके प्रति सच्ची भक्ति नही पाई जाती ? यदि देवगढमे और उसके आस-पास आज भी जैनियोकी पहले जैसी बस्ती होती और उनका प्रतापसूर्य चमकता होता तो इन मदिरमूर्तियोको कदापि ये दिन देखने न पडते। और इसलिये जिन भोले भाईयोका यह खयाल है कि अधिक जैनियोसे या जैनियोको सख्यावृद्धि करनेसे क्या लाभ ? थोडे ही जैनी काफी हैं, उन्हे देवगढकी इस घटनासे पूरा पूरा सबक सीखना चाहिए और स्वामी समन्तभद्रके इस महत्वपूर्ण वाक्यको सदा ध्यानमे रखना चाहिये कि 'न धर्मो धार्मिकविना'-अर्थात्, धार्मिकोंके विना धर्मकी सत्ता नही, वह स्थिर नही रह सकता, धार्मिक स्त्री-पुरुष ही उसके एक आधार होते हैं, और इसलिये धर्मकी स्थिति बनाये रखने अथवा उसकी वृद्धि करनेके लिये धार्मिक स्त्री-पुरुषोके पैदा करनेकी और उनकी उत्तरोत्तर सख्या वढानेकी खास जरूरत है। साथ ही, उन्हे यह भी याद रखना चाहिये कि जैनियोकी सख्या-वृद्धिका यदि कोई समुचित प्रयत्न