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युगवीर-निवन्धावली
संभावना होती है, उद्दिष्ट भोजनके त्यागको-आगमोक्त दोषोके परिवर्जनकी-कोई परवाह नहीं करते, भोजन करते समय अनेक बाह्य क्षेत्रोसे आया हुआ भोजन भी ले लेते हैं, जो स्पष्ट आगमाज्ञाके विरुद्ध होता है। भय-संज्ञाके वशीभूत मुनि अनेक प्रकारके भयोसे आक्रान्त रहते हैं, परीषहोके सहनसे घबराते तथा वनोवाससे डरते हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि सप्त प्रकारके भयोसे रहित होता है । मैथुनसंज्ञाके वशीभूत मुनि ब्रह्मचर्य महाव्रतको धारण करते हुए भी गुप्त रूपसे उसमे दोष लगाते हैं । और परिग्रह-सज्ञावाले साधु अनेक प्रकारके परिग्रहोकी इच्छाको धारण किये रहते हैं, पैसा जमा करते हैं, पैसेका ठहराव करके भोजन करते हैं, अपने इष्टजनोको पैसा दिलाते हैं, पुस्तके छपा-छपाकर बिक्री करते-कराते रुपया जोडते हैं, तालाबन्द बाक्स रखते हैं, बाक्सकी ताली कमण्डलु आदिमे रखते हैं, पीछीमे नोट छिपाकर रखते हैं, और अपनी पूजाएँ बनवाकर छपवाते हैं ये सब लक्षण उक्त भवाभिनन्दियोके हैं जो पद्यके 'संज्ञावशीकृता' और 'लोकपंक्तिकृतादरा' इन दोनो विशेषणोसे फलित होते हैं और आजकल अनेक मुनियोमे लक्षित भी होते हैं ।
भवाभिनन्दी मुनियोकी स्थितिको स्पष्ट करते हुए आचार्यमहोदयने तदनन्तर एक पद्य और भी दिया है जो इस प्रकार है -
मूढा लोभपराः कुरा भीरवोऽसूयकाः शठाः। भवाऽभिनन्दिनः सन्ति निष्फलारम्भकारिणः ॥ १९ ॥ इसमे बतलाया है कि 'जो मूढ--दृष्टि-विकारको लिये हुए
१. एक पडितजीने मुझसे कहा कि अमुक मुनि महाराजका जब बाराबकीमे चातुर्मास था तब उन्होंने अपनी पूजा बनवानेके लिये उन्हें प्रेरणा की थी।