Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 2
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 862
________________ ८५४ युगबीर-निवन्धावली नही फलती। इसीसे विवेक-(सम्यग्ज्ञान) पूर्वक आचरणको सम्यक्चारित्र कहा गया है। जो आचरण विवेकपूर्वक नही, वह मिथ्याचारित्र है और ससार-भ्रमणका कारण है। अतः गृहस्थो-श्रावकोको बडी सावधानीके साथ विवेकसे काम लेते हुए मुनियोको उक्त कसौटी पर कसकर जिन्हे ठीक जैनमुनिके रूपमे पाया जाय उन्हीको सम्यमुनिके रूपमे ग्रहण किया जाय और उन्हीको गुरु बनाया जाय-भवानन्दियोको नही, जो कि वास्तवमे मिथ्यामुनि होते हैं। ऐसे लौकिक-मुनियों को गुरु मानकर पूजना पत्थरकी नाव पर सवार होने के समान है, जो आप डूबती तथा आश्रितोको भी ले डूबती है। उन्हे अपने हृदयसे मुनि-निन्दाके भ्रान्त-भयको निकाल देना चाहिये और यह समझना चाहिए कि जिन कथाओमे मुनिनिन्दाके पापफलका निर्देश है वह सम्यक् मुनियोकी निन्दासे सम्बन्ध रखता है, भवाभिनन्दी जैसे मिथ्यामुनियोको निन्दासे नही-वे तो आगमकी दृष्टिसे निन्दनीय-निन्दाके पात्र हैं ही। आगमकी दृष्टिसे जो निन्दनीय हैं उनकी निन्दासे क्या डरना ? यदि निन्दाके भयसे हम सच्ची बात कहनेमे सकोच करेंगे तो ऐसे मुनियोका सुधार नहीं हो सकेगा। मुनिनिन्दाका यह हौआ मुनियोके सुधारमे प्रबल बाधक है, उन्हे उत्तरोत्तर विकारी बनानेवाला अथवा बिगाड़नेवाला है। मुनियोको बनाने और बिगाडनेवाले बहुधा गृहस्थ-श्रावक ही होते हैं और वे ही उनका सुधार भी कर सकते हैं, यदि उनमे संगठन हो, एकता हो और वे विवेकसे काम लेवें। उनके सत्प्रयत्नसे नकली, दम्भी और भेषी मुनि सीधे रास्ते पर आ सकते हैं। उन्हे सीधे रास्ते पर लाना सद्गृहस्थो और विवेकी विद्वानोका काम है। मुख्यत असदोषोद्भावनका नाम निन्दा है, गौणतः सदोषोद्भावनका नाम भी निन्दा है,

Loading...

Page Navigation
1 ... 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881