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न्यायोचित विचारोंका अभिनन्दन : ११ :
जून मासके 'श्रमण' अक ४ मे मुनि श्री न्यायविजयजीकी एक 'नम्र - विज्ञप्ति' मुझे हाल मे पढनेको मिली, जो समग्र जैनसंघको लक्ष्य करके लिखी गई है । पढनेपर मालूम हुआ कि मुनिजी अच्छे उदार विचारो के साधु हैं, जैनधर्म एव जिनशासनके महत्वको हृदयगम किये हुए हैं, उसका समुचित प्रचार और प्रसार न देखकर उनका हृदय आकुलित है और यह देखकर तो वह बेचैन हो उठता है कि देश के राजनीतिज्ञ नेता तथा दूसरे प्रसिद्ध विद्वान् जब भी देखो तब दूसरे बौद्धादि धर्मो का तो गौरव के साथ निर्देश करते हैं, परन्तु जैनधर्मका नाम कोई कदाचित् ही ले पाते हैं, जब कि जैनधर्म गौरवमे किसीसे भी कम नही है - उसका तत्त्वज्ञान बहुत उच्चकोटिका और उसका साहित्य सब विपयो के उत्तम गन्थोसे समृद्ध है । साथ ही, उसके प्रवर्तक परम- त्यागी – तपस्वी, महान् ज्ञानी, विश्वकल्याणकी भावनाओसे ओत-प्रोत और विश्वहित के अनुरूप सन्मार्गका प्रचार करने वाले हुए हैं । ऐसे महान् लोकहितकारी जैनधर्मको प्रसिद्धिविहीन देखकर मुनिजीके चित्तको चोट पहुँची है और वे उसका दोष जैनधर्मके प्रचारको श्रावको तथा साधुओ दोनोको ही दे रहे हैं— 'श्रावक अपने व्यापार-धन्धेमे मशगूल रहे और साधुजन कुछ साम्प्रदायिक अन्य प्रवृत्तियोमे ऐसे निमग्न हो गये कि इस महान् धर्मका विशेष फैलाव करने की ओर सक्रिय उत्साहित नही हुए।' इसीसे जैनधर्मका जितना और जैसा प्रचार होना चाहिए था वह नही हुआ, इस पर अपना खेद व्यक्त करनेके अनन्तर मुनिजीने लिखा है।
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