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न्यायोचित विचारोंका अभिनन्दन ८६१ प्रायः प्रत्येक ग्रन्थके अन्तमे किया है और इस तरह उन साध्वीजी का महत्व स्थापित करते हुए उन्हे पूज्यता प्रदान की है।" इस बातका उल्लेख करके मुनिजीने लिखा है :____ "ऐसा गौरव रखनेवाली साध्वीजी दीक्षा-पर्यायमें पचास वर्षकी हो और उनके निर्मल चारित्रकी सुगध फैली हो तो भी वह तत्क्षणदीक्षित हुए नये छोटे साधुको वन्दन करे, यह बडा अद्भुत लगता है । इसमे चारित्र-पर्यायके मूल्यकी अवगणना करते हुए जातीय शरीरका बहुमान होता क्या हमे नही दिखलाई देता ?" ___ मुनिजीके ये सब विचार न्यायोचित है और इसलिए मैं इनका हृदयसे अभिनन्दन करता हूँ। जैन-सघकी जिस-जिस शाखा-वर्ग, सम्प्रदाय तथा गच्छादिसे इन विचारोका सम्बन्ध है, उन्हे शीघ्र ही इन विचारोको न्यायविहित एवं उपयोगी समझकर बिना किसी झिझकके कार्यमे परिणत करना चाहिए, और इस तरह अपनी सत्यनिष्ठा, सच्ची जिनशासन-भक्ति और सही समाज-हितैषिताका परिचय देना चाहिये। ऐसा होनेपर जैनधर्मके जो तीन-चार बड़े टुकडे हो रहे हैं वे जुडनेकी
ओर प्रेरित होगे, उनमे परस्पर जो सघर्प चल रहा है जिसके कारण उनकी शक्तिका ह्रास हो रहा है वह मिटेगा और जैनधर्म तथा जैन-समाजका एक अच्छा प्रभावशाली संगठन तैयार होनेका मार्ग साफ हो जाएगा। पूर्वजोके द्वारा देश-कालकी परिस्थितियो तथा अपनी-अपनी समझ एव कपायोके वश जो कुछ कार्य पहले ऐसे बन गये हैं जो आज न्यायोचित तथा समाजके हितकारी मालूम नही होते उनके लिए पूर्वजोको दोष . देने या उनके साथ चिपटे रहनेकी जरूरत नहीं है। हमे विवेक