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भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि-निन्दा
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जबकि उसके मूलमे व्यक्तिगत द्वेषभाव सनिहित हो, जबकि ऐसा कोई उपभाव संनिहित न होकर हृदयमे उसके सुधारकी, उसके ससर्ग-दोषसे दूसरोके संरक्षणकी भावना सनिहित हो और अपना कर्तव्य समझकर सदोषोका उद्भावन किया जाय तो वह निन्दा न होकर अपने कर्तव्यका पालन है । इसी कर्तव्यपालनकी दृष्टिसे महान् आचार्योने ऐसे भवाभिनन्दी लौकिक मुनियोमे पाये जानेवाले दोषोका उद्घाटन कर उनकी पोलपट्टीको खोला है और उन्हे दिगम्बर जैनमुनिके रूपमे मानने-पूजने आदिका निषेध किया है। ऐसा करनेमे जिनशासनकी निर्मलताको सुरक्षित रखना भी उनका एक ध्येय रहा है, जिसे समय-समयपर ऐसे दम्भी साधुओ-तपस्वियो और भ्रष्टचारित्र-पण्डितोने मलिन किया है, जैसाकि १३वी शताव्दीके विद्वान् प० आशाधरजी-द्वारा उद्धृत निम्न पुरातन पद्यसे भी जाना जाता है .
पण्डितैर्धष्टचारित्रैठरैश्च तपोधनैः।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ इस पद्यमे उन भवाभिनन्दी साधुओके लिए 'वठर' शब्दका प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है दम्भी, मायावी तथा धूर्त । और पण्डितोके लिए प्रयुक्त 'भ्रष्टचारित्रै' पदमे धार्मिक तथा नैतिक चरित्रसे भ्रष्ट ही नही, किन्तु अपने कर्तव्यसे भ्रष्ट विद्वान् भी शामिल है। जिन विद्वानोको यह मालूम है कि अमुक आचार-विचार आगमके विरुद्ध है, भवानिन्दी मुनियोजैसा है और निर्मल-जिनशासन तथा पूर्वाचार्योंकी निर्मल कीतिको मलिन करनेवाला है, फिर भी किसी भय, आशा, स्नेह, अथवा लोभादिकके वश होकर वे उसके विरोधमे कोई आवाज नही