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भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि-निन्दा ८५१ यदि भवाभिनन्दी लौकिक मुनि अपना बाह्य वेप तथा रूप लौकिक ही रखते तो ऐसी कोई बात नहीं थी, दूसरे भी अनेक ऐसे त्यागी अथवा साधु-सन्यासी हैं जो ससारका नेतृत्व करते हैं। परन्तु जो वेश तथा रूप तो धारण करते हैं मोक्षाभिनन्दीका, और काम करते हैं भवाभिनन्दियोके-ससाराऽवर्तवतियोके, जिनसे जिन-लिंग लज्जित तथा कलकित होता है। यही उनमे एक बड़ी भारी विषमता है और इसीसे परीक्षकोकी दृष्टिमे भेपी अथवा दम्भी कहलाते हैं। परोपकारी आचार्योने ऐसे दम्भी साधुओसे सावधान रहनेके लिए मुमुक्षुओको कितनी ही चेतावनी दी है और उनको परखनेकी कसीटी भी दी है, जिसका ऊपर सक्षेपमे उल्लेख किया जा चुका है। साथ ही यहाँ तक भी कह दिया है कि जो ऐसे लौकिक मुनियोका ससर्गसम्पर्क नही छोडता वह निश्चितरूपसे सूत्रार्थ-पदोका ज्ञाता विद्वान्, शमित-कषाय और तपस्याम बढा-चढा होते हुए भी सयत नही रहता--असयत हो जाता है। इससे अधिक चेतावनी और ऐसे मुनियोके ससर्ग-दोपका उल्लेख और क्या हो सकता है ? इसपर भी यदि कोई नही चेते, विवेकसे काम नही ले और गतानुगतिक बनकर अपना आत्म-पतन करे तो इसमे उन महान् आचार्योंका क्या दोष ? मुनि-निन्दाका हौआ!
आजकल जैन-समाजमें मुनिनिन्दाका हौआ खूब प्रचारमे आ रहा है, अच्छे-अच्छे विद्वानो तकको वह परेशान किये हुए है और उन्हे मुनि-निन्दक न होनेके लिए अपनी सफाई तक देनी पडती है। जब किसी मुनिकी लौकिक प्रवृत्तियो, भवाभिनन्दिनी वृत्तियो, कुत्सित आचार-विचार, स्वेच्छाचार, व्रतभग