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युगवीर निवन्धावली पर-पदार्थमे आसक्ति न रखनेवाली। यह अलौकिकी वृत्ति ही जैन मुनियोकी जान-प्राण और उनके मुनि-जीवनकी शान होती है। बिना इसके सब कुछ फोका और नि.सार है। ___इस सब कथनका सार यह निकला कि निर्ग्रन्थ रूपसे प्रवजित-दीक्षित जिनमुद्राके धारक मुनि दो प्रकारके हैं-एक वे जो निर्मोही-सम्यग्दृष्टि हैं, मुमुक्षु-मोक्षाभिलाषी है, सच्चे मोक्षमार्गी है, अलौकिकी वृत्तिके धारक सयत हैं, और इसलिए असली जैन मुनि है ! दूसरे वे, जो मोहके उदयवश दृष्टिविकारको लिये हुए मिथ्यादृष्टि है, अन्तरगसे मुक्तिद्वेषी हैं, बाहरसे दम्भी मोक्षमार्गी है, लोकाराधनके लिए धर्मक्रिया करनेवाले भवाभिनन्दी है, ससारावर्तवर्ती हैं, फलत असयत है, और इसलिए असली जैन-मुनि न होकर नकली मुनि अथवा श्रमणाभास है। दोनोकी कुछ बाह्यक्रियाएँ तथा वेष सामान्य होते हुए भी दोनोको एक नहीं कहा जा सकता, दोनोमे वस्तुतः जमीन-आसमानकासा अन्तर है। एक कुगुरु ससार-भ्रमण करने-करानेवाला है तो दूसरा सुगुरु ससार-बन्धनसे छुडानेवाला है। इसीसे आगममे एकको वन्दनीय और दूसरेको अवन्दनीय बतलाया है। ससारके मोही प्राणी अपनी सासारिक इच्छाओकी पूर्तिके लिए भले ही किसी परमार्थत अवनन्दनीयकी वन्दना-विनयादि करें--कुगुरुको सुगुरु मान लें-परन्तु एक शुद्ध सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करेगा। भय, आशा, स्नेह और लोभमेसे किसीके भी वश होकर उसके लिये वैसा करनेका निपेध है'। १. भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम् । प्रणाम विनय चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।।
-स्वामी समन्तभद्र