Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 2
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 850
________________ भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि-निन्दा : १० जो भवका-संसारका अभिनन्दन करता है-सासारिक कार्योमे रुचि, प्रीति अथवा दिलचस्पी रखता है-उसे 'भवाऽभिनन्दी' कहते हैं। जो मुनिरूपमे प्रवजित-दीक्षितहोकर भवाऽभिनन्दी होता है वह 'भवाभिनन्दी मुनि' कहलाता है। भवाभिनन्दी मुनि स्वभावसे अपनी भवाभिनन्दिनी प्रकृतिके वश भवके विपक्षीभूत मोक्ष' का अभिनन्दी नही होता-मोक्षम अन्तरगसे रुचि, प्रीति, प्रतीति अथवा दिलचस्पी नही रखता । दूसरे शब्दोमे यो कहिये, जो मुनि मुमुक्षु नही, मोक्षमार्गी नहीं, वह भवाभिनन्दी होता है। स्वामी समन्तभद्रके शब्दोमे उसे 'ससाराऽऽवर्तवर्ती' समझना चाहिये । भवरूप संसार बन्धका कार्य है और बन्ध मोक्षका प्रतिद्वन्दी है, अतः जो बन्धके कार्यका अभिनन्दी बना, उसमे आसक्त होता है वह स्वभावसे ही मोक्ष तथा मोक्षका फल जो अतीन्द्रिय, निराकुल, स्वात्मोत्थित, अबाधित, अनन्त, शाश्वत, परनिरपेक्ष एवं असली स्वाधीन सुख है उससे विरक्त रहता है-भले ही लोकानुरजनके लिए अथवा लोकमे अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखनेके अर्थ वह बाह्यमे उसका ( मोक्षका ) उपदेश देता रहे और उसकी उपयोगिताको भी बतलाता रहे, परन्तु अन्तरगमे वह उससे द्वेष ही रखता है। भवाभिनन्दी मुनियोके विषयमे नि.सग-योगिराज श्री १. मोक्षस्तद्विपरीतः । ( समन्तभद्र) २. बन्धस्य कार्यः संसारः । ( रामसेन )

Loading...

Page Navigation
1 ... 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881