Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 2
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 853
________________ 1 1 भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि - निन्दा ८४५ मिथ्यादृष्टि लोभमे तत्पर, क्रूर, भीरु ( डरपोक ) ईर्ष्यालु और विवेक-विहीन हैं वे निष्फल - आरम्भकारी — निरर्थक धर्मानुष्ठान करनेवाले - भवाऽभिनन्दी हैं । यहाँ भवाभिनन्दियो के लिए जिन विशेषणोका प्रयोग किया गया है वे उत्तकी प्रकृति के द्योतक हैं । ऐसे विशेषण - विशिष्ट मुनि ही प्राय उक्त सज्ञाओके वशीभूत होते हैं, उनके सारे धर्मानुष्ठानको यहाँ निष्फल - अन्त सारविहीन - घोषित किया गया है । इसके बाद उस लोकपक्तिका स्वरूप दिया है, जिसमें भवाऽभिनन्दियोका सदा आदर बना रहता है और वह इस प्रकार है : आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते या क्रिया वालैर्लोकपंक्तिरसौ मता ॥ २० ॥ 'अविवेकी साधुओ के द्वारा मलिन अन्तरात्मासे युक्त होकर लोगोंके आराधन -अनुरंजन अथवा अपनी ओर आकर्षणके लिए जो धर्म - क्रिया की जाती है वह 'लोक-पक्ति' कहलाती है ।' यहाँ लौकिकजनो-जैसी उस क्रियाका नाम 'लोकपक्ति' है जिसे अविवेकीजन दूषित - मनोवृत्तिके द्वारा लोकाराधन के लिये करते हैं अर्थात् जिस लोकाराधनमे ख्याति - लाभ - पूजादि - जैसा अपना कोई लौकिक स्वार्थ सन्निहित होता है । इसीसे जिस लोकाराधनरूप क्रियामे ऐसा कोई लौकिक स्वार्थ सनिहित नही होता और जो विवेकी विद्वानोके द्वारा केवल धर्मार्थ की जाती है वह लोकपक्ति न होकर कल्याणकारिणी होती है, परन्तु मूढचित्त साधुओ द्वारा उक्त दूषित मनोवृत्तिके साथ लोकाराधन के लिये किया गया धर्म पापबन्धका कारण होता है । इसी बातको निम्न यद्य-द्वारा व्यक्त किया गया है धर्माय क्रियमाणा सा कल्याणाङ्गं मनीषिणाम् । तन्निमित्तः पुनर्धर्मः पापाय हतचेतसाम् ॥२१॥ !

Loading...

Page Navigation
1 ... 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881