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भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि - निन्दा
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मिथ्यादृष्टि लोभमे तत्पर, क्रूर, भीरु ( डरपोक ) ईर्ष्यालु और विवेक-विहीन हैं वे निष्फल - आरम्भकारी — निरर्थक धर्मानुष्ठान करनेवाले - भवाऽभिनन्दी हैं । यहाँ भवाभिनन्दियो के लिए जिन विशेषणोका प्रयोग किया गया है वे उत्तकी प्रकृति के द्योतक हैं । ऐसे विशेषण - विशिष्ट मुनि ही प्राय उक्त सज्ञाओके वशीभूत होते हैं, उनके सारे धर्मानुष्ठानको यहाँ निष्फल - अन्त सारविहीन - घोषित किया गया है । इसके बाद उस लोकपक्तिका स्वरूप दिया है, जिसमें भवाऽभिनन्दियोका सदा आदर बना रहता है और वह इस प्रकार है :
आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते या क्रिया वालैर्लोकपंक्तिरसौ मता ॥ २० ॥ 'अविवेकी साधुओ के द्वारा मलिन अन्तरात्मासे युक्त होकर लोगोंके आराधन -अनुरंजन अथवा अपनी ओर आकर्षणके लिए जो धर्म - क्रिया की जाती है वह 'लोक-पक्ति' कहलाती है ।'
यहाँ लौकिकजनो-जैसी उस क्रियाका नाम 'लोकपक्ति' है जिसे अविवेकीजन दूषित - मनोवृत्तिके द्वारा लोकाराधन के लिये करते हैं अर्थात् जिस लोकाराधनमे ख्याति - लाभ - पूजादि - जैसा अपना कोई लौकिक स्वार्थ सन्निहित होता है । इसीसे जिस लोकाराधनरूप क्रियामे ऐसा कोई लौकिक स्वार्थ सनिहित नही होता और जो विवेकी विद्वानोके द्वारा केवल धर्मार्थ की जाती है वह लोकपक्ति न होकर कल्याणकारिणी होती है, परन्तु मूढचित्त साधुओ द्वारा उक्त दूषित मनोवृत्तिके साथ लोकाराधन के लिये किया गया धर्म पापबन्धका कारण होता है । इसी बातको निम्न यद्य-द्वारा व्यक्त किया गया है
धर्माय क्रियमाणा सा कल्याणाङ्गं मनीषिणाम् । तन्निमित्तः पुनर्धर्मः पापाय हतचेतसाम् ॥२१॥
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