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युगवीर-निवन्धावली,
इसके बाद मुक्ति किसको कैसे प्राप्त होतो है इसकी संक्षिप्त । सूचना करते हुए आचार्यमहोदयने स्पष्ट शब्दोमे यह घोषणा को । है कि 'इस मुक्तिके प्रति मूढचित्त भवाभिनन्दियोका विद्वेषविशेषरूपसे द्वेषभाव रहता है--
कल्मष-क्षयतो मुक्तिर्भोग-संगम(वि)वर्जिनाम् ।
भवाऽभिनन्दिनामस्यां विद्वेषो मूढचेतसाम् ॥२३॥ ठीक है, ससारका अभिनन्दन करनेवाले दीर्घ-ससारी होनेसे उन्हे मुक्तिकी बात नही सुहाती--नही रुचती--और इसलिये वे उससे प्रायः विमुख बने रहते हैं---उनसे मुक्तिकी साधनाका कोई भी योग्य प्रयत्न बन नहीं पाता; सब कुछ क्रियाकाण्ड ऊपर-ऊपरी और कोरा नुमायशी ही रहता है।
मुक्तिसे उनके द्वेष रखनेका कारण वह दृष्टि-विकार है जिसे मिथ्या-दर्शन कहते हैं और जिसे आचार्य-महोदयने अगले पद्यमे ही 'भवबीज' रूपसे उल्लेखित किया है। लिखा है कि 'भववीज' का वियोग हो जानेसे जिनके मुक्तिके प्रति यह विद्वेष नही है वे भी धन्य हैं, महात्मा है और कल्याणरूप फलके भागी हैं।' वह पद्य इस प्रकार है :
नास्ति येषामयं तत्र भव-चीज-वियोगतः। तेऽपि धन्या महात्मानः कल्याण-फल-भागिनः ॥२४॥ निःसन्देह ससारका मूलकारण मिथ्यादर्शन है, मिथ्यादर्शनके सम्बन्धसे ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र होता है, जिन तीनोको भवपद्धति-ससार-मार्गके रूपमे उल्लेखित किया जाता है, जो कि मुक्तिमार्गके विपरीत है। यह दृष्टि-विकार १. सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। (समन्तभद्र)